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परापुरात
दृष्टि अगोवर गोचर जानि । षटकाया जे प्राप्त समान ॥ जांरिण बुझ न विराधो कोइ । अनइ देखें जे हिंसा होय ॥१८॥ पश्चात्ताप कर मन माहि । मिट सकल हिरदा की दाह ।। अनरत विरत दूसरा कया । सस्य बचन ते सिव सुख लह्मा ॥१६॥ चोरी लाभ परिहो सर्व । दान प्रदत्ता लेय न दवं ॥ परिग्रह संख्या पाल सील । धर्म निमित्त न की हील ॥१८७।। संख्या वस्तु करें परिमाण । सक्तिसमा यो चारों दान ।। वइयावरत कर बहु भांति । अनंतकाय भोजण तजि राति ।।१५।। महाराक्षस भीनवं करि गहौ । मेरो भव व्योरास्मों कहो।। चारि ग्यांन का धारक साप । पूजस हैं प्रानी की साप ।।१८६।। कही सकल पूरव भव बात । अंधकार जिम दीप मिटात ॥ पोवनपुर उदयाचल दूध । भरत श्री राणी अनूप ।।१०।। हेमरप पुत्र ताहि के भया । बहुत पानंद दंपति चित्त थया ।। हितवंत महाजन तिह ठां वसई । माघबी नारि मन उल्ह्सइ ।। १६१।। प्रत्यक्षपुत्र है लघु अवतार | रूपलक्षण करि सोभा सार ।। एक दिवस गरज्यो घनघोर । नृत्य करता देख्ये मोर ।।१६।। विद्य त बात मुदा जब मोर । नरपति के जिम उपजी ओर ।। संसार परिक्षा पेपि तुरंत । घर परियण छोडे बहुमंत ।।१६।। श्री मुनि पास दिक्षा लई भाय । करी तपस्मा मन वच काय ।। पहुंच्या स्वर्ग लही गति देव । किन्नर बहुत करे ता सेव ॥१९४|| थई करि उपञ्या षेत्र विदेह । कंचनपुर देखे वर गेह ॥ श्री प्रभाराणी सुन्दरी । ताक गर्म भाइ दिति करी ॥१६॥ उदित नाम भया सुकुमार । रूपवंत गुण लक्षण सार ।। जोवन समं महा बलवंत । रविप्रताप सोभा बहु मंत ॥१६६।। मुनिवर का उपसर्ग निवार । घरम वारण मुण्यो निरधार ।। चारण मुनि दिक्षा लई । ग्यांन ज्योति अन्तर्गत भई ।।१७।। असनवेग विद्याधर जहां । उदित मुनि ध्यान धरया तिहा ।। घनिबिर विद्याधर गमें भाकास । हम भगोचरी पृथ्वी वास || १६८॥ मेरे तप का इह फल होइ । विद्याधर गति पाऊं सोई॥ देही छोष्टि ईसान विमान । छोडि हुवा महा राक्षस प्रांन |१९| अमरराक्षस को दीया राज । भान राक्षस छोटा युवराज ॥ महाराक्षस दिक्षा पद लई । सौधर्म विमान देव पद थई ।।२००॥