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मुनि सभाषद एवं उनका पद्मपुराण
केहरि कटि कदली सम जंघः। भुजा कलाई सुभर प्रभंग ।। एडी सलुवा पल्लव भली । गावं राग मनोहर रली ॥१५॥ द्वादस प्राण सोल शृंगार । देखत नर भू खाइ पछार ।। सीरीकंठने सुणि के राग | दोन्यु वार्ता कर सराग ॥१६।। हूँ विद्याधर इनको देख । पुहपोत्तर की पुत्री पेष । यह ससे फ्यू लागा वात | सुणी भरणक पुत्री की तात ।।१७।। पृहपोत्तर वे देख्या प्रांन । और नहीं टिक हिये मैं जान ।। श्रीकंठ का पीछा किया । भाज्या लंका भीतर गया ।।१८।। श्रीकंठ भगनी पै जाय । मादर भाव किया बह भाव ।। प्रहमोत्तर साजी सव सैन । चचा कटक दिन ते भई रैन ।। १६॥ छाया रहे भाकास विमांन । अरु बाजें गहर निसान ।। दसौं विसा भई मैं भीत । कीतिघवल मम दातो चित ॥२०॥ कंह कोप बढधा है इंद । अबहो प्राण करंगा बुन्द ।। भेज्या दूत पुह पोत्तर पास। याहि वेग सुध लीज्यो तास ।।२१।। गयो दूत जहां नाम नरेस । नमस्कार करि कहे उपदेस ।। तुम भूपति उत्तम कुल भांन । अंसा भूप नहीं कुहि प्रांत ।।२२।। सिरीकंठ मूरिख अग्यांन । उरण न करचो तुमरो सनमान ॥ बह सेवक तुम परथीपती । वापर कृपा करो भूपती ।।२३।। यह भी उत्तम कूल का बाल । करो व्याह तो वात रसाल ।। चार चितवै भेज्या वसीठ । प्राया निकट भूप को दीठ ।।२४॥ पूछ राप कहों सत भाव | कौंग काज पठयो इण ठाव ।। कहै दुत सुणु तुम नरेस । चारिवि देवि ने कहा संदेस ।।२५।। पदमोरार से मांगी मोह । या जग और न जाउं गोहि ।। एक छोडि दुजो जो करै । नरक निगोद अधोगति फिर ॥२६।। पद्मोत्तर ते जे नर और । तात भ्रात सम जाणों टौर ।। अबला विचार और करम । मैंने रहै त्रिया को धरम ||२७।। दासी ह विनऊ कर जोरि । मनकी पटक मारू तोडि ।। रहस रली सौं किया विवाह । दुई कुल हुना अधिक उछात् ।। २८ । हिरदा तणां वैर तब तज्या । भई बधाई मन में रश्या ।। सोना दिया बहुत नरेन्द्र । दोन्यू और भया प्रानंद ।।२६।।