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मुभि सभाचंव एवं उनका पद्मपुराण
श्रीकंठ पदमावति सिरी । रूप लक्षण गुण सोभा भरी ॥ कीतिवचल लंका का नरेस दिया श्रीकंठ किलपुर देस ||४४ ||
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राजा राणी भोगवे राज । वन क्रीडा के देखन काज || भद्रसाल बन सोभा और नंदन बन श्रानंद की ठौर ॥४५॥
नीड़ा सुख देखे भले । दंपति फिर प्राए घर चले ॥ रूति अषाढ सोमं सब भूमि । मेघ घटा चिह्नं दिस रही घुमि ||४६ || बोन्यू हे मंदिर सत खने । सीतल पवन ताप ने हरें !
इंद्रादिक प्यारों विध देव । चहें विमरण प्रापण भेव || ४७|| चले नदीस्वर दीप सुरेन्द्र ॥ दर निमित्त भरी चिता ||४८६||
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अंपति पर सोमं इंद्र श्रीकंठ मनमें उल्हास
सब परिवार सेन्यां संग लेह साजि विभांरण गगन घुनि देइ || मानोत्तर पर्वत के मध्य । विद्याधर की चली न बुध ॥४६॥
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वहुत उपाय किए उस बेर । विद्याधर को लांघ मेर।। अपनी निदा खगपति करें । होन पुष्य कव हम भवतरं ॥५०॥२ अधिक पुनीत देव गति लही । नंदीश्वर को पूजें सही || अव दीक्षा त्यो इस बार वरिह व्रत संयम ना भार ।। ५१ ।।
यदि देहो तजि देवगति धरू । नंदीस्वर की पूजा करू || आपण किया दिगंबर साज | बज्जाकंठ पुत्र ने दे राज || ५२ || बवकंठ भोग व चाल । सुख में बीत गया कछु काल || चारण मुनि का दरसन पाय । पिता बात पूछी तब श्राय ॥ ५३ ॥ चारण ऋषि बोले धरि ध्यान । रव भव का करो बस्यां ॥ श्रीसता नगरी का नाम । वनिक पुत्र है निवर्स नाम ||१४||
परिच्छत दुरबुधि दो वीर । रूपलक्षण गुण साहस धीर ।। परिच्छत के मन उपज्या ग्यांन । दुरिबुधि कू लक्षमी का ध्यान ॥ ५.५६००
श्राप जाय दीक्षा पद लिया। देही छोडि भ्रमर गति गया 11
दुवृधि करें सरावग वर्म । दया भंग के जाने मर्म ।। ५६ ।। मिरगावती स्त्री सा गेह सिवनी लक्षन ताकी देह || करकस वचन सर्व सो कई दया घरम तें परे ही रहे ।।५७०१ खोटी क्रिया करें मन लाय। जिनवाणी चित्त को न सुहाय ॥ दुरबुधि समति संसार सरूप । तजि गेह मया दिगंबर रूप ||५|| मन वच काया साध्या जोग । देव भयो मौषमें सुर जोग || परित जीव श्रीकंठ सुभया । दुरबुधि जीव इंद्रपद लीया ॥ ५६॥३