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पद्मपुराण
घरम सहाई जीव के साथ । सुमरण करन जपो डिण नाथ ॥ जैन धरम परष गुणवंत । रवि प्रताप उज्जल बहु मंत ।।१३१।। मिथ्या धरम कर जे अंघ । अशुभ करम के वांधे बंध ॥ छारे अमृत पी नीर । भवसायर ते लहैं न तीर ।।१३२॥ च्यारों गति में डोलें सदा । काल अनंत लहै आपदा ।। मिथ्या धरम करो मत कोई । जैनधर्म तें शिवपद होई ।।१३।। छो भोग जोग भाचरं । वहर न अबसागर में पर। च्यारि कषाय अठारह दोष । ए छोडं तव पवि मोक्ष ।।१३४।।
डिल्ल मेघवाहन सुनि भूब धरम पहचानिया ।
जग सुपनां सम देखि अनित्य जुठानिया ।। डियो लंकाराज पुत्र जाकी ययो । सहस्र भूप के साथ प्राप चारित्र लियो ।।१३।।
चौपई महाराक्षस जहां भोग राज । ससांक पुत्र छोडघा जुवराज ।। महाराक्षस के विमला स्त्री । पतिव्रता प्राशा में खरी ॥१३६।। तीन पुत्र जाके उर भये । रूपलक्षन करि सोभ नये ।।
अमर राक्षास उपयोदय राप्त । भानु राक्षस की सोभा लाक्ष ॥१३७।। सगर चक्रवती वर्णन
सगर चक्रवसि निष्कटक राज । साठ सहस्र सुत पाशा काज ॥ एक दिवस सब मतउ विचार । चले पिता पैं कर पुकार ।।१३८॥ अब हम बड़े सयाने भए । अव लग कछु उद्यम नहीं किये ।। षोडश वर्ष तरण परमाण । पुत्र पिता के पावै धान ।।१३६॥ बिना कुमाये यू ही फिर ! सो कपूत नाहीं बिस्तर ।। अब हम तुम प्राज्ञा देहु । सेवा कर किसकी धरि नेह ।।१४०।। कह पिता तुम सुबउ कुमार । हम सव भूप नहीं संसार ।। ताकी सेव करो तुम जाय | कॉन समुझि चितई सुखदाइ ॥१४१।। सर्व वस्तु को पूरण रिद्ध । विससो वच्छ घणेरी रिद्ध । सुरगत अयण कर मस्तक परें । हमने' रहल करो सों करें ॥१४२।। आशा भई जाह कलास । महा गंगा पोदो ता पास ।। सोवर्नमई चैत्याल बने । रतन बिंब सोभा सन बने ।।१४३।।