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पद्मपुराण
साहरण कही पुत्र की बात । सुणि करि दोउं मीठे पछितात ।। कही के वह कमा धंधा कर । राज मंडार चोरी कर ॥४६।। सुरंग नाहिसेस । पोरी र शंड:14 ॥ दंपति मन विचारया एह । जो नृप सुरमै तो सूली देइ ।।५०।। इम विचार विण लई सुरंग | देख प्ररहबास भया मन भंग ।। पिता पुत्र ने मारमा ठोर । भाज गया नगरी ने छोरि ।।५।।
करम कुकर्म कर दिन रन । कवहीं मनको हुँब न चैन ।। नरकों के बुत
मरकर गया सातमी नकं । छेदन भेदन काटन अर्क ॥५२॥ हुउक देह घरो उन जाय । भूख प्यास को अंत न प्राय ।। जुवा चौर के काट हाथ । फेर संवार दुख के साथ ।।५।। जीवह तेरे मांस कुखाय । लोह गिड बीजे सुख मांहि ।। मांस प्रहार कहैं से सुष । अभक्ष साये पाव दुख ॥५४।। सुरा पान मादिक जे लेह । तपत राग ता मुख में देह ।। प्राहे मारे बहु जीव । सूला रोपन बंध ग्रीक ।।५५।। जो अगते पर की प्रसतरी । लोह तरणी लाव पूतली ।। दौरि भिडाथै उनकी धाइ । पारे ज्यों सरीर फट जाय ।।५६॥ दुख में होय देह की देह । साल विसन फल लागै एह 1 वे दोन्यु कोली के गेह । भए पुत्र तिहां नहीं संदेह ।।५।। लरि करि मुये नरफ गति लही । भूष त्रिषा वारि पीडा सही ॥ बहा ते मरि परवत के तट । मए साझ कर बन घुट ।।५८॥ दहा ते मुये मेष गति पांय । दोन्पों लरई बैर के भाव 11 मों ही जौनि भ्रमें वे घनी । अतकाल तं भेट्या इक मुनी ||५|| तिहां सुने पंच प्रभू के नाम । तातें पायो उत्तम ठाम 11 क्षेत्र विदेह पुष्कलावती देस । पुंडरीक तहां नगर नरेस ।। ६०।। सुण्यां धरम श्री जिनवर पास । सतार स्वर्ग परि पाया बास ।। वहां थी चकरि नरपति भए । भावन जीय पुरन धन श्रये ॥६१।। भरवास जीव सुलोचन जान । ताथी जुद्ध भया बहु प्रांन ।। सगर भूप जोरे दोइ हाथ । मेघवान सहस्त्रनयन की पूछी बात ।। ६२॥ पदमाक नगर तिहां संरक देस । सीस अवलो मित्र के भेस ।। दोऊ रहैं एकही ठांउ । ससी गयो पौरही के गांव ।।६३!!