________________
मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण
श्रीमाल राणीता गेह । विजया कन्या कंचन सम देह ॥ जिलसत्रु सी दई विरुवह भगवन से चाह ८.४४ इक सि सुपने पोस देषि | भली वस्तु पाई सुविशेष || विजया देवी उठी प्रभान । पति सौ कहें सुपन की बात ||५|| सुरि सपने मन हुआ उल्लास | सुख मानें करि भोग विलास || जेष्ठ यदि मावस्या शुभ घेर । भई गर्भ पूजें सुर पैर ॥१६॥ देवी छप्पन सेवा अनुसरें | जैसे स्वाति जल सीच समंद ||७||
जं कार सवद सुर करें। जैसे कमल पत्र जल बुंद द्वितीय सोकर अजितनाथ वर्णन
माघ सुदि दसमी शुभ वार नक्षत्र रोहणी वरियां भली ।
श्री भगवंत लिया अवतार || तौन लोक सुन मानें रली ||८||
जनम कल्यांणुक कर गये देव । रतन पुरुष पर बहु भेव ।। दम दिसा दुदुभी होय । भयो जनम जानहू राहु कोइ ।।६।
पूरव लाष बहत्तर भाव । साढे चारसे धनुष की काय | सुरपति किमो महोछव प्रां । रीति पाछली की प्रमान ॥१७॥
प्रभयमाला व्याही सुंदरी । रूप लक्षण कर सी दरी ॥ राजा भोग बीते दिन घने वन उपवन सोभा यति बने ॥ ११ ॥ जहाँ सरोवर निरमल नीर छाया रावन बिहंगम तीर ॥ फूले कमल रविवसी तिहां । चंद्रवंसी मुरझाये जहां ।। १२५
तब मन मान्या लोक सरूप । बूड़े जीव मोह के कूप ।। मग सुगति की निंदा करी । जें जें सनवटु प्रति ही घरी ॥ १३॥ मात्र नदी नौमि सु बिनेश । शिवका चढि वन किया प्रवेश || उतर पालकी लोंचे केस । श्री जिन भए जती के भेस || १४ । ।
बारह विच तप श्रातम ध्यान सुर किया तहां तप कल्यान ।। छह उवास की ये इक्सार ब्रह्मदत्त के लिया श्राहार ||१५|| भोजन रीति इसी विधि करी । चिदानंद य लाई परी | बारह बरस रहें खुदमस्त । चार करम जीते बहु कस्त ||१६|| पोस सुदि ग्यारस शुभ घरी परत श्रसठि न्यारी करी ॥ पाया केवल ज्ञान जिनेन्द्र । सुर नर तीन लोक आनंद ॥ १७॥
३६