________________
मुनि समाचन्द एवं उनका पद्मपुराण
ब्राह्मण वर्ग को उत्पत्ति
शिक बहुरि करी परसन्न । ब्राह्मण की कहिए उत्पन्न ॥ कैसे भाप्पा चउया व । कहो प्रभु मो संसय ह ।।४२६|| भरत भूमि निकंटक राज । पहली करें धरम का काम है। छहुं षंड की लछमी जुरी। दांत देश की इच्छा करी ||४३० ।। बहु पकवान लक्ष्मी धनी । आभूषन सोभा प्रति घनी ॥ से सब सौज गए कैलास । मन में दान देख की प्रास ||४३१|| समोसरण पहुंच्या तिह बार । दई प्रदक्षिणां करि नमस्कार || प्रभुजी हम परि किरपा करो न देव मम पातिग हरो ।। ४३२।। रिषभदेव बोले समझाय ये दान न लेहैं मुनिराय || ए सब छोटि भए वैराग । इण के क्या की जैसी स्थान ।। ४३३ ॥ देही भरा नाहि जे तपसी लखमी गहे । नरक निगोद महादुष लहै ||४३४|| जनम अकारथ तिसका जाए। ले दिष्या जे होय प्रयाण || माया वस्त्र जो राधै जोड | दरसन ने त्या वह पोडि ||४३५||
महीने नजनाई ॥
मर करि भ्रमे चतुरगति जीव। पाप पोट ले अपनी ग्रीव ।। सातें ए तुम फेर ले जाउ । नहि ए दान लेहि मुनिना ||४३६|| त भरत फिर भाया गेह दोन जू काढया किस की देह || बारंबार करें नृप सोच । दात लेगा की किस नहीं रुच ।।४३७ ।। सब ही सुख दुखी नहि कोइ । किसके मन लेने की होड़ || दानसाला मांडी वन बीच बोए जव तहां क्यारी सींच ||३८|| नगर मांहि वाज्या निसांन । हाजर होय नृप तणी मन || सब मिल ग्रावो राजा पास देख देख नरपति नर जास ४३२ ।। कोई न पुढे क्यारी हरी जिनके हिये ग्यान मति परी ॥ जे मृरिपु ते खुंदन बले । बिनु विवेक अग्यानी भले ||४४० ।।
चक्रवति देव नरताय । जे ग्वांनी ते जुदे बुलाय ||
क्यारी खूदन आये लोग । जुदा यांन श्रीना तिन जोग ||४४१ ।। अग्यांनी विदा कर दिये । ग्यांनी कुठे आदर बहु किये ।।
नरपति वचन वीनती कहै । इह इच्छा मेरे मनु है ।। ४४२ ||
।
पंचो विनय सुनाएँ तोहि ॥
मां वचन देहि जो मोहिं वेग चलो जल भरकर ले
जो मैं चाहूं सो मोहि देहु ||४४ ||
१ - जी
३१