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पपुराण
सोनै सकल विषारै चित्त । असो कहा है हम पर मित्त ।। जाकू चाहै पृथ्वीनाथ । सब ही नीर लिये निज हाथ ।। ४४४।। बोले भरत लेहु तुम दान । मंसी मुनि ठाडे परि ध्यान ।। तब बोले हम बाहैं कहा । करवो टइर दान ले तहां ।। ४४५।। तुम प्रसाद हम हैं सब सुषी । कोई नाहि बस नरु दुषी ।। अब तुम हम पे बाचा मांगि । पीया चाहो हमको त्याग ।।४४६।। राज वचन श्री वाचा दई । तब ही दांन विधि यापी सही ।। मलन मा पसिनन पर बनाई रीत ॥४४७।। नो नो गुन का इक इक तार । गुन इक्यासी बड़े विसतार ।। धोवती मुद्रिका और जनेउ । नमस्कार करि कीनो सैउ ॥४४८।। उत्तम रीति दइ ज्योणार । दक्षिणा दे कीनी मनुहार ।। ये अपनेमें नगर के धने । सबसे उत्तम बाभण भने ।।४४६।। पूजनीक उत्तम कुल परा | हम सब तुल्य न को अवतारा । सवरंक पूर्ज सब कोइ । चोथा वरण ऐसी विधि हो ।।४५०।। भरत गया श्री जिन की जाति । नमस्कार करि जोरे हाष ।। खांभण थापि दान में दीया । सब व्यवहार स्वामीस्युकला ॥४५|| बानी तब भा भगवंत । ए थापेंगे पाप महल ॥ हिंसा होम करेंगे घने । तिनके पाप कहां लौं भनें ११४५२।। च्यार वेद यापेंगे और । तिनमें पाप अनंत किरोड ।। षोटे दांन प्रकास वह भांति । उलटी सव यापेंगे बात ॥४५३।। घरती हल रगबु प्रससरी । हस्ती और तुरंगम तिरी॥ षोटे दंगे घणु उपदेस । क्रिया भ्रष्ट सुनि होय नरेस ।। ४५४|| जैनधरम के निंदक होइ । असंभव बात कहेंगे सोय ॥ अज गज गउ थायेंगे भेद । प्रसव पौर जीवों को षेद ॥४५५॥ इतनो सुनी भरत ने बात । मैं इह बुरी करी बहु भांति ॥ अब इह भेष करू जाय दुरि । इनकू मारि गमाऊं मूर ।।४५६।। तब स्वामी समझाई ग्यांन । होय पाप जो हति हैं प्रान ॥ जीव हते भव भव दुष लहैं । ऐसी बात जिचेसुर कहै ॥४५७।। होणहार टारी नहीं जाय । पैसा घरउ न षोटा भाय' ।। राजा भरत रवि जेम प्रसाप । पून्य करई सब टूटे पाप ॥४५८ ।।