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मुनि सभाचं एवं उसका पपपुराण
जा प्रसाद बहु लछमी होइ । पूजा धान करो सव कोइ ।। सफल' लछमी सोही जांन । दुषित घलिनी को यो चान ॥१४६।। पूजा दान प्रतिष्ठा करं । देव सास्त्र गुरु मन में घर ।। धर्म तीर्थ को चलाने संग । विघसी पाले धर्म के मंग ।।१४७॥ श्री जिन भवन संवार भले । दया भाव के मारग चले ।। पूजा रचना कर सांतीक । तातै बढे धर्म की लीक ।।१४।। मंदिर कूग बगीचे बाय । विहाँ पंथी गोठे सुष पाय ।। वनवासी से दिशान पर मिली जिन नाम ||१४६। छह दर्शन कुप्रथम देई । प्रादर भाव विशेष करेई ।। सज्जन कुटंब सु राणे भाव । दान देयण को मनमैं बहु चाव ॥१५॥ भूपा भोजन प्यासां नीर । सरल चित्त ब्राने परपीर ।। पनि संयोग लहै गति देव । नरपति खगपति उत्तम कुल भेव ॥११॥ ऊचे कुल में पारी टोर । ता सम सुषी न दूजा और ॥ कारा पाय जाय मिव पंथ । धरै भाव मुनिवर निर्गन्य ।।१५२।।
सोरठा
कान फर फल
वे बषिष रान, अर्थ पाय धर्महि करें। ते पावं निरवान, अस प्रादै तिहुँ लोक में ॥१५३।।
चउपई
धन पाया कछ पुन्य न कीया । अपजस गोट अपन सिर लिया। आप स्वाय म खुवाबै और । सदा व चिता की टोर ॥१५४।। छह रुति कदे न मार्ने मुख्न । भली वस्तु नवि मेल्हे मुख । राति दिवस भ्रमत ही जाय । प्रात्तं रौद्र में काल बिहाय ।।१५।। जोडि द्रव्य धरती तल दीयो । मैले काहू, सौंपियो । के वह धन लेव हर चौर । के षोया जुवा को ठौर ॥१५॥ के वह सात विसन मौं गया । के रिण दिया तिहां थकी रह्या ।। केइ राजिन लोया दंड । किरपन भया जगत में भंड ||१५७।। सब कोई बोल मुंह द गार । पापी लीया पाप का भार ।। पचि पनि जोड्या अर्थ भंडार । ताकी जात लगीन बार ॥१५८।।