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मुनि सभाचन्द एवं उनका पमपुराण
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कैवल्य प्राप्ति
केवलग्यांन लबधि जब भई । बहुविध देव प्रदक्षिणा दई ।। ईन्द्रादिक किन्नर संयुक्त । जय जय सबद कर बहु उक्त ॥३४२।। बारह जोजन रच्यो समोसरण | प्रांशी का मन संसाहरण 11 बारह सभा मनोहर कही । तीन कोट कंचन के मही ।।३४३।। बनी कातिका जल भरपूर । वृक्ष अशोक सोक करें दूरि ।। कलपवृक्ष प्रवर बहु रूप । वासावली न लाग भूख ।।३४४।। छह रितु के फूले फल फूल । ऊंची पौरि बनी समठ्ठल ॥ मानस्थंभ संवारधा और । सिंघासन की राखी कोर ।। ३४५।। वृषभसेन गणधर गुणवंत । अपर सियासी प्रवर भगवंत ।। पंच सहस्र दंड ऊचंत । चारि अंगुल अंतर अरिहंत ॥३४६।। सौन छत्र कंचन मणि वने । चौंसठि चवर देखें सुप घने ।। चौरासी गणधर जगदीस । च्यारि म्यांन पंचम जिराईस ।।३४७।। समोसरण थानक सुभथांन । चतुर बदन बठे भगबान || भर चतुरमुख एकै धुनि । बारह सभा भन्ध सब सुनी ।।३४८||
वानी एक भेद नव गुर्ने । गाए घर कहें लोग सब सुन ।। उपदेश
निश्चय एक मातमा सार । द्वं विष इह निश्चय ब्यौहार ॥३४६॥ दरसन ग्यांन चारित्र में लीन । च्यारि बेद में सुनें प्रवीन । परमेष्ठी पंचम सुधि भई । अरु षट द्रव्य सर्व गुण नई ।।३५० || सप्त तत्त्व अष्टम गुण सिष । कई पदारथ नव निष॥ इन गुन मई गिरा सुनि भूप । है विदेह पर तत्त्व स्वरूप ।।३५१।। कथन समर्थ अनंत भक्तनी । सिब कारन हित सब बनी। पाप फेटनी पुण्य अनंद । सियल भये कर्मन के फंद. ॥३५२।।
नी सव ही संबोधनी । प्रागी कु पालम भेद नी ।। जीवा सति जाने पर लोक । प्रमूरत भुगतै सुभ सोक ॥३५३।। अनुगुरु सक्रति रूप सच देह । थाह गति करि परन एह ॥ निश्चय सुद्ध नित्य जन जीव । अब संसारी गाढी नींब ।।३५४।। पोटी क्रिया दुःख को मूल । रहै अनादि काल के भनि ।। प्राप्तम दरसन ग्यांन चरित्र । तत्व सबद है प्रतर नित ।।३५५।। असरण सरण जाति जिय सार । परम एक त्रिभुवन प्राधार ।। बारह वत सुश्रावक धरई। व्यौरासी मनस सरधा करेई ॥३५६॥