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पद्मपुराण
नाग ही होय । जे जोगीवर की व्रत धरं
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सूकर कुकर गैंडर रीछ । पदवी नीच बीत में तीछ || जोतिशा चरई वरं जियसंक । एही पुर्व जनम के अक ।। ३२६ ।। आरत ध्यान च्यार पद होय । इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग || पीडा चितवन भोग निदान ए प्रानी को दुबकर जानि ॥ ३२७॥ इछा मन न घरं नहीं जोड़ || छठे गुरणथानक ते खरें ।।३२८ ।। कुछित मरन सुरग गति रहे । मरकर तिरऊंच गति को हैं । रौद्रध्यान ए पाये व्यार । लखिन फिखित कहूं विवार ।। ३२६|| हिसानंद मिष चौर्या विषयानंद | करकस वचन प्रगति के बंध ॥ रुद्र परिणाम रहे नर तास मुखते बुरी उपजं नित वास ||३३० ।। निकल नरक तैं देही धरी । के प्रच्या अधोगति पुरी || पंडित वर्ग कहां लौं गिने ।। ३३१ ||
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गुणाधांनक पंचम जो पर्व ।।
से चिह्न देखिए जिने जे धरि भेष तप तप व रात दिवस मन पोटी घरं । मरकरि भूम प्रयोगति परं ।। ३३२ ।। पोटे यांन जिन के मन रहें । असे वचन ग्यांन में कहे ॥
ए दोइ ध्यान ग्यान आरूढ । घरम सुकल प्रानी की गूड ||३३३|| धर्मध्यान के लक्षण कहै । प्रासुष क्षेत्र उपद्रव श्री रहै ॥ दिव्य संगहन पूरी परजाय । चौथे काल मिले विश्व आई ||३३४|| सीत उसन बरषा रित जोग। सुभ परणांम विवजित भोग || नासादृष्टन मेरे रंग | इन्द्री वनज विसर्जित संग ||३३५||
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प्राण संवर नाना भिन्न । नरि वाशाभ्यंतर लक्षन चिह्न ॥ लोक स्वरूप विचार नित्त । सातव गुणयानक की भित्ति ||३३६||
टूटे पासि करम की जोर || सिवमारग जागे रती ॥ ३३७ ॥ उत्तम क्रिया भई सब छेद ॥
लेस्या पीत पद्म की ठोर के वेवत के हो भूपति के सुकल ध्यान का सूक्ष्मभेद अंतर ध्यान ग्यांन दिह धार दया सर्व की चित्त विचार ||३३८ ॥ श्रातम भाव दाब को वह जिन केवली ग्यान को बढे | दस में गुनस्थानक दोड़ करें। उपसम संगी चढ़ ते गिजे ।। ३३६ || दरसन ग्यान चररण चित दिया । दया धरम दस विध कर लिया || प्रानंद चिदानंद सौं ध्यान | प्यार करम का करि अपमान ।। ३४०।१ प्रकृति तिरेसठ टूटी जांन । उपच्या प्रभु को केवल ग्यान ॥ वर्षं सहस्त्र रहे छदमस्त । फागावदि ग्यारस लड़ी सुभ वस्त ।। ३४१॥