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पद्म पुराण
जय जय सबद भया चहुं मोर । सिवका मांनि परी तिह ठौर ।। धन्य धन्य वारणव सम को देव । चढे पालकी लग्यो न छेव ॥२६६।। सिवका चढिय पराग बन गये । उतरि सिंघासन ठाढे भए । नाम सिध समरथा मन सौच । पंचमुष्टी का कोनो लोंच ।।२६७।। इन्द्रादिक पाए सब देव । करि कल्याण वर्ण की सेव ।। लीये केस ताईत में डारि । अवर सिराये समद मझार ॥२८॥ तप कल्यणक इन्द्रकरि गये । ध्यानारूढ श्रीजिनघर भए ।। अर जे पांच हमार नरेस । तेभी भए दिगंबर भेस ।।२६६।।
प्रभु ने वरत घरया षट् मास । प्रबर सकल वरठे बनवास ॥ उन भुषा रहा न जाय । प्रनपारणी बिन गए मुरझाय ।।३७०।। जो फिर जांय भरत त हरै। तातं वे वन में ई फिरें। जैनधर्म की सहिय न पांच । फाटा भेष तिहां पर पांच ।।३०१।। कोई सन्यासी जटा बधाय । जोगी जंगम भए कर्ण फटाय।। वारह विध तप श्रीजिन करें। चेतन चिदानंद चित धरै ।।३०२।। मासादृष्टि प्रातम ल्यो ल्याय । पदमासन बैठे जिनराय ॥ ममि विनाम तहां पहुंता माह । विनती करें नमरिण के भाइ ।।३०३।। तुम तजि राज लिया है जोग । छांडि दिये संसारी भोग ।। भरत बाहुबली राजा किए । हमारी सुध न बिचारी हिए ॥३०४।। हम कोई बतादो देस । जहा जाय हम करें प्रवेस । श्री जिनराय तिहां छदमस्त । मुष थी कहै न एको सस्त ॥३०॥ नमि विनाम छोड नहिं पास । राज्य भोग्य की छौडी पास ।। तन धरणेन्द्र विद्या दो दई । अंसी रिध लई तब मई ।३०६।। विजया का दीना राज । दोहं का मन वांछित काज ।। दस जोजन पर्यन्त उचंत । मारिए माणिक तहां पणे दिपंत ।।३०७।। दक्षिण दिश रथनूपुर नगर । उत्तर दिसि अलिका बिन अगर ।। सब संयुक्त विराजे गांव । लता लछमी नाना भाव ।।३०८।। जैसी स्वर्वलोक की नारि । तइसी सबै नयर मझारि ।। कर राज सुष भुगतं भोग । रिषभनाथ मन ल्याया जोग || ३०६॥ बारा विष तप प्रातमध्यान । षष्टमास बिन अन्न न पान ॥ तब मनमें अइसी चित चीत । प्रगट करू भोजन की रीत ॥३१०।।