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मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण
थापी सब छत्तीसौं पोरग । अपने अपने मारग गौण ।। हुवा छत्री वस सुद्र ए तीन । इह विधि समुझो चतुर प्रत्रील ॥२८॥ वरष में ऊपजै धान 1 गाडे पान फूल सब थान ।। मेवा सब विष उपज जिहाँ । परजा सुखी विराज तिहाँ ।।२८३।। राजनीत सौं पावें चैन । दुषी न कोई दोष नयन ॥ धर्मरीति सौ बीत काल । दुषी दरिद्री नहीं दुकाल ।। २८४।। राज करस पूरब गये बीत । लक्षतियासी इम भोग को रीत ।। एक लक्ष पूरव रही प्राव | सुरपति मन है विचार भाव ।।२८५।। ए प्रथम भगवंत अवतार । इनतें धरम चल संसार ।।
ए माया महि रहै मुलाय । सवेगी एक किरण पर थाय ।।२८६|| नीलांजना द्वारा गरम
चैत्र बबी नवमी थेष्ठ घडी । नीलंजना पातर अवतरी॥ आय राय की सभा मझार । नृत्य कर गाव गुण सार ॥२८७।। दोय षडी प्रायुबल रही । पूर्ण भई गिरगड़ी जे मही ।। मायत नाचल तिन लई पछाडि । तब राजा बोले रंकार ।। २८८।। बेग उठावं ठाडी करै । बेर बेर गिर गिर वह पडे ।।
तब मंत्री बोले समझाय । याकी आयु पूरी इन ठाय ॥२८६।। वैराग्य भाव
तब मनमें त्यो भूपाल | अचेत पण बीता यह काल ॥ श्व कछु करू धर्म की रीत । तातं पाप हुवे भयभीत ॥२६॥ जाण्यों इह संसार असार | मुछत जीव ना पा पार ।। राग हूष प्रारति मुई रहै । भ्रमत जीव विश्राम न लहै । २६१।। कवही हुवै देवगति भूप । कवही दुखी दलिद्री रूप ।। कबही नर कबही तिरयंचं । कंबही मर कर परपंच ।।२६२।। नट जिम भेष कीए तिन धने । दुष सुष और कहां लौं भने ।। अब जो राखो पातम ध्यान । जीब मैं धरि देखू पहिचान ।।२६३॥ प्रगटै घरम समझ सब कोइ । क्षत्री त सुत कीने धोइ
भरत नै सूप्यो पृथ्वी भार । दाहरल पोवनपुर सार ।। २६४।३ निन्याणवै देस औरन कू दिया । भयो संतोष सर्व के हिया ।। पपर्ण मनसों विचारा म्यान । लोकांतिक सुर पहृता प्रांन ।।२६५॥