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पमपुराण
सर्व किरपन बहुतें पिछताइ । तब झुरयां बने न सुदाइ ।। मरिक भ्रमें चहुंगति बीच । पावं गति जो नीच हि नीच ।।१५६।। नरय तिरय गति भगत जाय । जहां न कोई होद सहाय ॥ लछमी का फल सोई सही । तीन भुबन में जस कीरति नही ।।१६।। सदावत दीना कर दिया । अपना कारज उनही किया। अपने संग सुजस को लिया । उसका नाम जगत में भया ।।१६।।
दोहा जे लखमी बहुते जुई, करं पुन्य नहि कोइ ।। नरकां का दुख बहु सहै, जाय भवांतर पोह॥१६२।।
बजपई
श्री जिनवारणी अगम अगाध । पूजित हैं प्राणी कौं साध ॥ रचि पुहता अस्ताचल ठौर । श्रेणिक पाया अपनी ठौर ।।१६३।। भई रयण ससि का उद्योत । पृथ्वी परिसों भई जोत ॥ उज्ज्वल वर्श मंदिर वह भाप्ति । छू टि रही ससि हर की क्रांति ।। १६४॥ सोमवंशी फूले बह फूल | वने सरोवर सुष के मूल ॥ महा सुवास पवन की डोल । दंपति रहे सुष करें किलोल ।।१६५।। पर धर कामिन गावै गीत । तासु वयण सुभ जगजै प्रीत ॥ गोरी अबला तरनी नारी । सब सोहै ससि की उनहार ॥१६६।। मोधा फूल पनि सुषवाम । रति रति भोग रमें प्रतिहास ॥ श्रेणिक शय सभा संयुक्त । जिनवाणी गरा कहै बहुत ।।१६७।।
सुष सेज्या पोढे थे भूप । उत्तम वस्त्र सु महा सस्प ॥ भणिक रामा द्वारा स्वप्न
सुपर्ने माहि विचारं न्यांन । रामचंद्र गुन का ध्याख्यान ।।१६८।। रामचंद्र मिभुवन पति राय । लछमन के गुण कहां न जाय ।। लंकापति रावन दस सीस । ताक भुजा विराज बीस ।।१६६।। कुभकरण बिभीषण है वीर । महावली कहिये रणधीर । इन्द्रजीत रावण ना पूत । ताका बल कहैं बहूत ॥१७०॥
प्राचार्य रविषेण ने राषण के बस शोष नहीं माने हैं ।