Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ở bogogogo0ood °°°gue Scho teoobaocongsooooooooooooooooooooooooo000004 00000000efootJoong ngoad u geagoongjeogeneo oo ở cáoa cao cuagadatdieved to Yes Pap que a 3 00000000000000000, $ t 3 Phoeoes Saloorse 200 0 0 0 08.992 bao quad, ve Kareenaceae ॥ श्री अर्हद्भ्यो नमः ॥ जैन-रत्नसार 2018RIMEJRemiummerSlastotramaana संग्रहीतास्वाीय रङ्ग विजय खरतरगच्छीय ज० यु०प्र० वृ० भ० श्री पूज्य जी श्री जिन रत्रसूरिजी महाराज के शिष्य जैनगुरु प० प्र० यति सूर्य्यमल्छ । -प्रकाशक--- स्वर्गीय श्री पूज्य जी श्री जिन रत्नसूरिजी महाराज के शिष्य मोतीलाल। --00-000 0000000000000amanroader . सुराना प्रिन्टिङ्ग वर्क्स, ४०२, अपर चितपुर रोड, कलकत्ता । . a onar400000000000 विक्रम संवत् १९६८ वीर संवत् २४६६ ईस्वी सन् १९४१ । As प्रथम संस्करण १००० पyporpoatarDODAREERCEDEEVaca o -ecorGrooDN000000000000000000000000000000000000nec0000000 000 Pearesassesdewar 00330000DPORNB000000000RstBJawanaBPDED00000000000000000savegasses000000000000chodn040062 सर्वाधिकार स्वरक्षित। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक मिलने का पता १-३१ सी, वांसतल्ला गली, ____घडावाजार, कलकत्ता। २-सुराना प्रिन्टिङ्ग वर्स, ४०२, अपर चितपुर रोड, वड़ावाजार, कलकत्ता। नोट-पुस्तक छपने के पश्चात जिनके रुपये आये हैं लाचार उनके नाम माहक श्रेणी में नहीं दिये गये है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना थों तो प्रत्येक प्राणी का दैनिक काम है कि वह अपने पञ्च भौतिक शरीर को कायम रखने के लिये भोजन किया करता है, पर मनुष्य जाति का तो परम कर्तव्य है कि वह शरीर निर्वाहक भोजन के साथसाथ आत्मा के समुन्नायक ज्ञान रूप भोजन का भी सम्पादन किया करें। जिस तरह भोजन की प्राप्ति से शरीर वलवान कार्यक्षम रहता है, उसी तरह आत्मा को खुराक पहुंचाने में वह समुन्नत -- नागरुक-अपने आपको पहचानने में समर्थ होता है। फलतः मनुष्य जन्म सार्थक मूल्यवान् होता है, अगर ऐसा नहीं हुआ तो पशुओं की तरह जीवन गुजारते हुए अपने सुदुर्लभ मौके को खो कर मनुष्य आखिर पश्चात्ताप के गहरे गर्त में गिर जाते हैं। किसी ने सच कहा है : आहार निद्रा भय मैथुनञ्च, सामान्य मेतत्पशुभिर्नराणाम् । ज्ञानंहि तेपा मधिकं विशेषम्, जानेन हीनाः पशुभिः समानाः॥ अर्थात भोजन, निद्रा भय, मैधन इत्यादि नैसर्गिक (रोजाना) कामों को जैसे मनुष्य किया करते है, वैसे ही पशु भी । इन सब कामों में मनुष्यों और पशुओं में कुछ फर्क नहीं है, फर्क केवल होता है, जान मे ; जान मनुष्यों को होता है, पशुओं को नहीं। अगर मनुष्यों को ज्ञान न हो सका तो पशु तुल्य ही है। पर मच पूछा जाय तो नान हीन मनुष्य पशुओं से भी समता के लायक नहीं है। एक गाय को लीजिये. वह अमृतोपम दृध बिना किसी स्वार्थ के मनुष्यों को दिया करती है ; उसके बच्चे । बैल ) पनी के काम कर देते है ; उन्हें हमलोग गाड़ी में जोत कर सवारी करते हैं-सामग्रियां ढोते हैं। भन्दा बतलाइये, उनका क्या स्वार्थ है ? पर ज्ञान होन मनुष्य अपने स्वार्थ माधन के लिये एक दूसरे का गला घोंटने में भी नहीं हिचकते। "मृतुकाल मे ही भार्या से सहवास करना चाहिये' मनुष्यों के लिये सी ना नन शास्त्रों की आज्ञा जहां पुस्तकों की टोकरियों में पड़ी सड़ती है, वहां पशु जाति ठीक उसी मानि उसका पालन किया करती है. जिस तरह कि शास्त्रों ने मानव जाति के लिये आना दी है। फिर बनला. मनुष्यों को पशुओं से समता केसी ? अस्तु मनुष्यों का कर्तव्य है कि वे ज्ञानवान बनें-वियेकवान् बनं नाकि स्वधर्म को निभा सके। अगर म्यधर्म का पालन नहीं किया जाता है तो कोई कारण नहीं है कि कल्याण की प्राप्ति की जा सके। धम एव हुनो हन्ति. धर्मो रक्षति रक्षिनः" धर्म अगर हम (नष्ट होता है-पालित नहीं होता है तो वह मनुष्य के लिये लाभप्रद नहीं है और धर्म शक्षिनागनानी की इन् बनाना है। धियनं उदिनयन संगार मागरदनेति धर्मः जिम बटौलत मंगानगर में हार मानध: और एम धम का पालन करना मनुष्यों का एकान्त कनन्य । मानिामिक जगायाजना है. पर रचि वैविध्य में मंय की प्रामि के लिये माधन TH - मानना sim-विभिन्न . यही कारण है किधर भी अनेक नामों में अभिदिन हुआ ...कि मुस्लिम त्यादि। इन धमों में हमाग जैन धर्म एफ म्यास मान्यवर्ग मारिगर माना (पर) और पयांत साधन बना।। या निश्चिन तथ्य है, कामना करना ?-दोन अनुदान परता. याबाट नेपा नगना :--- Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ख ] गर्व वहसि रे सर्व ! मुधा संसार वारिधे ! गोल्पढी कृय त्यामस्मि संतरिप्यामि लीलया ॥ अर्यान् अरे क्षुद्र संमार समुद्र ! तू अपनी दुस्तरता के लिये वृथा घमण्ड करता है. मैं तुम गोत्सद (गायका चरण चिह्न) बनाकर खेलने हुए पार कर जाऊंगा। पर यह तभी हो सकता है. जब धर्म पालन की सच्ची लगन होगी-सच्चा प्रेम होगा। धार्मिक विपयों की कारी जानकारी कामयाब नहीं हो सकती-मोक्ष साधिका नहीं हो सकती। कोई किसी रास्ते का नक्सा जानकर गन्तव्य स्थान पर नहीं जा सकता, उसके लिये चलने की आवश्यकता होगी। अतएव किया की महत्ता महसूस करनी चाहिये। किसी ने सच कहा है: "शास्त्राग्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । अयान शास्त्रों को पढ़ कर भी लोग मूर्ख होते है जो नियावान होते हैं, वेही विद्वान् हैं। अतएव मनुष्यों का कर्तव्य है कि वे प्रेम सद्भाव से धार्मिक अनुष्ठान किया करें। अस्तु, जैनधर्म यद्यपि अनादि है-अनन्त है, फिर भी इसे सुचारू रूप में दुनिया की आंखों के सामने लाने के लिये वर्तमानकाल में समय समय पर श्री अपभदेव स्वामी से लेकर भगवान् श्री महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थकर हो चुके है। इसीलिये जैन साहित्य मे ये तीर्थकर भगवान् जैनधर्म के प्रवर्तक-जैनधर्म के संचालक कहे जाते हैं। कहना न होगा कि उनके उसी उपकार भार से मुककर आज जन जगन उन महापुरुषों में से एक एक के प्रति "अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानासन शलाकया। चन्मीलितं येन तम्मै श्री गुरुवे नमः ।।" इस प्रकार श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है। अस्तु भगवान् महावीर के निर्याण के ६०६ वर्ष बाद जैनधर्म का दो भागोंमे विभाजन हो गया। श्वेताम्बर और दिगन्धर। चंताम्बर जैनधर्म में भी दो विभाग है, श्वेताम्बर स्थानकवासी और श्वेताम्बर तेरापंधी । स्थानकवानी सम्प्रदाय में भी कितने उपविभाग है, इसी तरह तेरापथियों में भी दो उपविभाग है, भीषमपंधी और वीरपथी। पर इन विभाग-उपविभागों में बहुत कम अन्तर है. वस्तुतः मन्तव्य एकसा ही है। दिगम्बर जैनयम में भी उसके बाद फिर दो विभाग हुर. बीसापंथी और तेरापंथी। बीसापंथी प्राचीन है. नेरापंथी अवांचीन. क्योंकि टोडरमलजी के जमाने में तेरापंथी धर्म चल पड़ा। बाद में और भी उपविभाग हा है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगगी शत्रु के विजेता, अच्छ नान वालं, प्रधान प्रातिहार्य आदियों से युक्त, शंकाओं को दूर करने वाले अरिहन्तों का हमलोग हमेशा ध्यान करते है । शरीरधारी होने हुए भी-शारीरिक, याचनिक, मानसिक, सभी क्रियाओं को करते हुए भी आत्मा पान, चारित्र आदि गुणों का--आध्यात्मिक शक्तियों का पूरा-पूरा विकास कर चुके हों, वे ही अन्ति । ___आत्यन्तिक मुन्ध साधनान सिद्धः, जिसने चरम सुख की प्राप्ति कर ली है, वह सिद्ध है। जेन शारों उन सिद्धों का लक्षण इस प्रकार कहा गया है : "दुइट्ट कम्मा वर गप्पमुक्के अणंत णाणाइ सिरी चउपके। समन्ग लोगग्ग पयप्पसिद्धे झाएह णिचंपि समत्त सिद्धे ॥" अर्थात दुष्ट अष्टकर्म रूप आवरण से रहित अनन्तनानादि चतुष्टय से समन्यित समस्त लोक पं. अन भाग में अवस्थित समस्त सिद्धों का हमलोग हमेशा ध्यान करते है। अरिहन्त की तरह सर्व शामिमान . पर शरीर त्यागी हां, ये सिद्ध है। यद्यपि अष्ट कर्मों के विनाश से अरिहन्त की अपेक्षा सिद्ध, श्रेष्ठ, फिर भी च्यावहारिक दृष्टि से--परोक्ष स्वरूप वाले सिद्धों की सत्ता को बतलाने की हैसियत में- जैनधर्म के प्रचारक होने के विचार से अरिहन्त ही पहिले नमस्कार के योग्य है। ये दोनों सब के पूज्य , पूजक नही। ___आचार ग्राहयति, आचारयति शिप्यम् , आचिनात्यर्थान् , बुद्धिम् . आचारान् चेति आचार्यः । अर्थात् जो आचारों की शिक्षा दे या मोक्ष साधन का चुनाव कर अथवा निर्वाण साधिका बुद्धि का सम्पान फरे अथवा स्वयं धर्म पालन करने के लिये आचारों का चयन करें. वह आचार्य है। लक्षण इस पंचिदिअ संवरणो तह णव विह बंभवेर गुत्ति धरो। चविष्ट फसाय मुफो इय अट्ठारस गुणेहि संजुत्तो।। पंच माध्यय जुत्तो पंच बिहायार पालण समत्थो। पंच नमिओ तिगुत्तो छत्तीस गुणो गुरु मज्म ।।' Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व] 'उपेत्याधीयतेऽस्मात् स उपाध्यायः, जिसके पास आकर यति (साधु) लोग पढ़ा करें - शिक्षा प्राप्त कर सकें, वे उपाध्याय है । "सुत्तत्थ वित्थारण तप्पराणं णमो णमो वायग कुंजराणं । गणस्स संधारण सायराणं सव्वप्पणा वज्जिय मच्छराणं ॥ " अर्थात् सूत्रों की व्याख्या करने में तत्पर, गण के भार को वहन करने में समुद्र समान हों, प्रमाद तथा ईर्ष्या से मुक्त और वाचकों में मत्त गजेन्द्र की तरह अप्रतिहत प्रतिभा वाले उपाध्यायों को नमस्कार । जिनमे साधुजन व्यवहृत सत्ताईस गुणों के साथ-साथ २५ गुण और, जोकि उपाध्याय पद के लिये जरूरी हैं, सूत्रों एवं अर्थों का सच्चा ज्ञान अध्यापन की क्षमता, बोलने की सुमधुर शैली इत्यादि विशेषताए हों । गच्छ संचालन की योग्यता हो । वे उपाध्याय हैं । ये साधुओं की अपेक्षा अधिक सम्माननीय है । सानोति पर कार्य मथवा मोक्ष कार्य मिति साधुः । जो बिना किसी स्वार्थ के दुनिया के मंगल विधायक हों या मोक्ष कृति के साधक हों. वे साधु हैं । " खतेय दंतेय सुगुत्ति गुत्ते मुत्ते पसंते गुण योग जुत्ते । गयप्पमाए हय मोहमाये, भाएह णिच्च मुणि राय पाये ।” अर्थात् क्षान्त, दान्त, पंच समितियों और तीन गुप्तियों के धारण करनेवाले, प्रशान्त, योग युक्त, प्रमाद रहित और मोह माया से असम्बद्ध मुनिराज के चरणों का नित्य ध्यान करते है । जिनमे निजी विशेष सत्ताईस गुणों के साथ-साथ आचार्य एवं उपाध्याय के विशेष गुणो को छोड़कर और अशेष गुण समान हों, वे साधु है । उपर्युक्त आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों पूज्य और पूजक भी है अर्थात् अपने से नीचे के पुरुषों के पूज्य और अपने से ऊपर के महात्माओं के पूजक हैं। जैसे आचार्य । उपाध्याय से लेकर श्रावक पर्यन्त के पूज्य है और अरिहन्त एव सिद्ध के पूजक है । उपाध्याय, साधुओं और श्रावकों के पूज्य है पर आचार्य, अरिहन्त और सिद्ध के पूजक है। साधु, श्रावकों के पूज्य है पर आचार्य से लेकर सिद्ध पर्यन्त के पूजक है । फलतः आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु तत्त्व माने जाते है । अरिहन्त और सिद्ध केवल पूज्य है अतएव देव तत्त्व माने जाते है । हमारे जैनधर्म मे ' आवश्यक' वैसी ही महत्वपूर्ण वस्तु है जैसे शरीर में प्राण सरिता मे पानी, चन्द्रमा में रोशनी है। आवश्यक क्रिया जगत् में वही स्थान रखती है जो वैदिक संसार मे संध्या, मुस्लिम समाज मे नमाज, ईसाइयों में प्रार्थना और पारसियों मे खोरदेह अवस्ता रखती है । शका होगी, वह आवश्यक क्रिया क्या है ? दुनिया के क्षण-प्रतिक्षण नाशमान उपकरण में— दु.खान्त उपभोगों में न उलझ कर सम्यक्त, चेतना, चारित्र आदि गुणों को व्यक्त करने के लिये जिनकी दृष्टि-बिन्दु केवल आत्मा की ओर झुकी है, उनके लिये जो अवश्य करने लायक क्रिया है, वही आवश्यक क्रिया है । अवश्य कर्त्तव्य, निग्रह, विशोधि, वर्ग, न्याय, अध्ययन, इत्यादि आवश्यक के पर्यायवाची शब्द है । जैन समाज मे देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और साम्वत्सरिक रूप मे आवश्यक क्रिया की जाती है। आचार्य, उपाध्याय, साधु, प्रातः सायं यह क्रिया अवश्य करेंगे अन्यथा साधु ही नहीं समझे जा सकते । श्रावकों के लिये इच्छाधीन है। जो श्रावक बारहाती, धर्मशील होते हैं वे तो नित्यप्रति करेंगे हो और जो व्यवस्थित रूप मे नित्यप्रति नहीं कर पाते, वे भी पाक्षिक, चातुर्मासिक, या साम्वत्सरिक नी करेंगे ही। यही कारण है कि श्वेताम्बर जैन समाज मे बच्चे-बच्चे 'आवश्यक' जानते हैं । दिगम्बर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज में आवश्यक इस तरह समाहृत नहीं है। इसका कारण यह है कि आचार्यों की शृङ्खला टूट जाने से व्यवस्था भङ्ग सी हो गई है। ___आम तौर पर 'आवश्यक' के छै विभाग हैं; सामायिक, चतुर्विंशति स्तब, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । पहला विभाग सामायिक है। सब प्राणियो के साथ सम भाव से पेश आना अर्थात् आत्मतुल्य व्यवहार करना सामायिक का लक्षण है। समता, सम्यक्त्व, शान्ति, सुविहित आदि सामायिक के लक्षण है। सामायिक के तीन भेद है ; सम्यक्त सामायिक, श्रुत सामायिक और चारित्र सामायिक । सम भाव का पालन वस्तुतः सम्यक्त, श्रुत और चारित्र के द्वारा ही हो सकता है। अतएव ये भेदयुक्त युक्ती है । चारित्र के भी दो भेद हैं ; देश चारित्र सामायिक और सर्व चारित्र सामायिक । 'देश' श्रावकों के लिये और 'सर्व' साधुओं के लिये उपयुक्त होता है। जैनधर्म के प्रवर्तक चौबीस तीर्थकर हुए है, वे वस्तुतः सर्वगुण सम्पन्न, जैनधर्म की-जैन समाज की चोटी के चूडामणि एवं आदर्श है अतएव इन महात्माओं की स्तुति करना ही 'आवश्यक निया' का दूसरा विभाग बनाया गया है। इसके दो भेद होते हैं । एक व्यस्तव, दूसरा भावस्तव। जल, चंदन, पुष्पादि वस्तुओं द्वारा तीर्थङ्करों की जो पूजा की जाती है, वह द्रव्यस्तव है और यह गृहस्थों के लिये उपयुक्त माना जाता है। तीर्थंकरों के सच्चे गुणों का कीर्तन करने का नाम भावस्तत्र है। यह साधुओं के लिये उपयुक्त है। _ मन, वचन और शरीर के जिस व्यापार के जरिये पूज्यों के प्रति आदर प्रकट किया जाता है, वह वन्दत है। द्रव्य और भाव रूप दोनों चारित्रों से सुसम्पन्न आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणि. गणावच्छेदक आदि वन्दनीय है। शुभ योग से अगर कोई गिरकर अशुभ योग के मैदान पर चला आया है और वहां से फिर शुभ योग के उच्चतम शिखर पर जाने की चेष्टा करता है अथवा अशुभ योग का परित्याग करके क्रमशः शुभ योग पर जाने का प्रयत्न करता है उसी का नाम 'प्रतिक्रमण' है। ____ निवृत्ति, निन्दा, परिहरण, वारण, गर्दा, शोधि इत्यादि प्रतिक्रमणके पर्याय वाचक शब्द हैं। प्रतिक्रमण का अर्थ वस्तुतः परावर्तन अर्थात् पीछे की ओर लौटना है। आत्म शक्तियों के सम्पादनार्थ प्रतिक्रमण इष्ट है अतएव उपर्युक्त सुप्रशस्त 'प्रतिक्रमण' कहा जाता है। इस प्रतिक्रमण के पांच भेद है ; देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और साम्वत्सरिक ! भूत, वर्तमान और भविष्य इन कालकृत भेदों से प्रतिक्रमण के तीन भेद हैं। भूतकाल के संचित दोषों के लिये पश्चात्ताप करना, वर्तमानकाल में दोपों को पास न फटकने देना और भविष्य में होने वाले दोषों को न होने देना, ये तीन कालकृत प्रतिक्रमण हैं। सम्यक्त को प्राप्त करने के लिये मिथ्यात्व का परित्याग, विराग प्राप्त करने के लिये अविराग का त्याग, क्षमा आदि गुणों की प्राप्ति के लिये कपाय का परिहार और आत्म स्वरूप के लाभ के लिये सांसारिक व्यापार से निवृत्त होना ये चार प्रतिक्रमण के लक्ष्य है। अर्थात् इन्हीं चारों का क्रमशः प्रतिक्रमण करना चाहिये। _हेय और उपादेय भेद से प्रतिक्रमण दो तरह का है ; द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण । द्रव्य प्रतिक्रमण वह है जो दोषों का प्रतिक्रमण करके फिर से उन्हीं दोपों को किया जाता है। यह वनावटी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ च प्रतिक्रमण है । अतएव त्याज्य है। अगर कोई एक ढ़के अपराध करके उसकी माफी मांगता है तो वह क्षम्य है, पर यदि वह बार बार वही अपराध करता है तो वह क्षम्य नहीं हो सकता। दूसरा भाव प्रतिक्रमण हैं, जो निश्छल निष्कपट है, अतएव वही ग्राह्य है । धर्म के लिये एकाग्र चित्त से शरीर की ममता का परित्याग करने का नाम कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग को सफल बनाने के लिये घोटक आदि उन्नीस दोषों का बहिष्कार करना निहायत जरूरी है। कायोत्सर्ग से शरीर का निकम्मापन, बुद्धि कामान्थ, मेधा शक्ति की जड़ता चली जाती है। विचार शक्ति मे तरक्की, सुख दुःख में तितिक्षा भावना और ध्यान मे दृढ़ता एवं अतिचार के चिन्तन में असलियत आती है । कायोत्सर्ग में श्वासोश्वास का काल उतना माना गया है, जितना कि श्लोक के एक चरण के मे लगता है । उच्चारण प्रत्याख्यान आवश्यक क्रिया का छट्ठा विभाग है । प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग होता है, द्रव्य और भाव इन दोनों का त्याग ही प्रत्याख्यान से सम्बन्ध रखता है । अनाज, कपड़े, रुपये वगैरह सांसारिक पदार्थ द्रव्य है. अज्ञान. असंयम प्रभृति त्याग करने योग्य भाव हैं। अज्ञानादि भावों को छोड़ कर हो जो द्रव्य त्याग किया जाता है और वह भाव त्याग के लिये ही किया जाता है. वही सच्चा प्रत्याख्यान है। शुद्ध प्रत्याख्यान सम्पादन करने के लिये श्रद्धान ज्ञान, वन्दन, अनुपालन, अनुभाषण और भाव है। शुद्धियों की निहायत जरूरी है । प्रत्याख्यान करने से अनेक गुणों की प्राप्ति होती है, अतएव प्रत्याख्यान का दूसरा नाम गुण धारण भी है। प्रत्याख्यान से तंवर होता है, संवर से तृष्णा नाशः तृष्णा के नाश से विलक्षण समता, समता से क्रमशः मोक्ष मिल जाता है । यहां एक बात और ध्यान पर लाने की है कि जहां प्राचीन- परम्परा प्रतिक्रमण शब्द का व्यवहार केवल चौघे आवश्यक के लिये करती थी, वहां अर्वाचीन परम्परा छहों आवश्यकों के लिये व्यवहार करती है और यह व्यवहार खूब वद्ध मूल हो गया है । यह उपर्युक्त आवश्यक क्रिया साधु और श्रावक दोनों को करने का शास्त्रीय अधिकार है, क्योंकि लिखा है : "समणेण सावएण य आवस्सकायन्त्र चं हवइ जम्हा । अंत अहोणिसस्त य तम्हा आवस्त यं णाम ॥" अर्थात् सायंकालीन और प्रातःकालीन 'आवश्यक' श्रमण और श्रावक दोनों का अवश्य कर्त्तव्य है । इसी आवश्यक क्रिया का वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थ से नौ विभागों मे किया गया है । विधि विभाग । (३) पूजा विभाग । ४) आरती विभाग । (५) चैत्यचन्दन विभाग । (७) स्तुति विभाग । (८) रासतथा सम्भाय विभाग और (2) स्तोत्र विभाग | (१) सूत्र विभाग । (२) विभाग । (६) स्तवन इसके अलावे परिशिष्ट है । परिशिष्ट मे स्याद्वाद, समभंगी, सप्तनय, चार निक्षेप, मूत्तिवाद, मूर्ति पूजा. ईश्वर कर्तृत्त्व, जैनधर्म. आत्मनिन्दा, बारहमासी पर्व. वारहमासी पर्व में तीर्थंकरोंके तथा दादा जी के जीवन चरित्र संक्षेप से है । इसके अलावा ८४ रनों के नाम उनके वर्ण और फल संक्षेप से मुहुर्तादि विषय भी दे दिये गये है. जो कि प्रत्येक आदमी के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यद्यपि उपर्युक्त 'आवश्यक क्रिया को प्रतिपाद्य विषय बना कर रत्नसागर ( उपाध्याय श्री जयचन्द्र जी संगृहीन ) रत्न समुचय ( महोमहापाध्याय श्री रामलालजी गणि संगृहीत ) अभयरत्रसार ( श्री शहर दानजी शुभकरणजी नाहटा संग्रहीत ) पच प्रतिक्रमण (पं० श्री सुबलालजी संगृहीत) प्रतिक्रमण सुत्र सचित्र ( पं० श्री काशीनाथ जी संग्रहीत ) इत्यादि बहुत से ग्रन्थ निकल चुके है, फिर भी प्रस्तुत ग्रन्थ मे Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छ ] किसी न किसी रूप में खास विशेषताएं हैं और वे काम की हैं। जहां कई पुस्तकों में प्राचीन हिन्दी का उपयोग हुआ है, फलतः पाठको को कुछ असुविधा होती थी, इस पुस्तक में सामयिक हिन्दी का सनिवेश हुआ है। जगह-जगह पर आवश्यक टिप्पणिओं एवं कथाओं का उल्लेख भी किया गया है जो कि बड़ा ही उपयोगी तथा मनोरञ्जक सिद्ध होगा । किस सन् सम्वत् में ? किसके द्वारा अमुकवस्तु क्यों बनायी गयी । इत्यादि बातों का भी स्पष्टी करण यथा स्थान किया गया है, जो कि पाठकों के लिये रुचिकर प्रतीत होगा । अतिचारों में स्वपुरुष सन्तोष पर पुरुष गमन विरमण व्रत स्त्रियों के लिये विशेषतया लिखा गया है, जो किसी ने आज तक अपने ग्रन्थ में नहीं लिखा था । और पोसह सज्झाय अर्थ सहित लिखी गयी है जो अद्यावधि किसी भी पुस्तक में उपलब्ध नहीं है। पूजा विभाग में शासनपति तथा रंग विजय खरतरगच्छीय जं० यु० प्र० बृ० भट्टारक श्री पूज्यजी श्री जिनचन्द्र सूरिजी महाराज की बनाई हुई पंचकल्याणक पूजा भी दी गयी है। इसी तरह और भी कई बातें लिखी गई है, जो अपना खास महत्त्व रखती हैं। परिशिष्ट में जैन सिद्धान्तों का बहुत कुछ वर्णन किया गया है। जिससे अनायास सैद्धान्तिक बातों का परिचय प्राप्त होगा । एक बात मैं और बता देना चाहता हूं कि इस पुस्तक में कई स्तोत्र तथा अन्य चीजें दी गई हैं, जिनमें अशुद्धियां जान पड़ती है, मैंने संशोधन करके हू-बहू उसी रूप में लिख दिये है, जिस रूप में कि प्राचीन लिपी में है । इसी तरह और जगहों पर भी परम्परा की रक्षा के लिये कुछ त्रुटियों पर दृष्टिपात नहीं किया है; सुविज्ञ पाठक इसके औचित्य अनौचित्य का विवेचन स्वयं कर लें। इसके अलावे यद्यपि त्रुटियों का संशोधन करने की बहुत चेष्टा की है, फिर भी दृष्टि दोष से अथवा मुद्रण दोषसे अशुद्धियां रह गई होंगी, आशा है, सहृदय स्वयं सुधार कर पढ़ेंगे । यह पुस्तक बहुत पहले ही पाठकों के करकमलों में उपस्थित हुई होती, पर खेद है कि कई विघ्न वाधाओं के द्वारा, सरिता के पथ पर शिला खण्डों की तरह टांग अड़ा देने के फलस्वरूप आशातीत विलम्ब हो गया । एक तो कुकुनू में श्रावकों की पारस्परिक तनातनी - साम्प्रदायिक तनातनी को मिटाने का काम शिर पर आ पड़ा। बाद में शरीर अस्वस्थ रहने लगा। इधर यूरोपीय विकराल रणचण्डी को बुभुक्षा शान्त करने में व्यस्त कल-कारखानों के कारण कागजों की महंगी भी सामने नग्न नृत्य करने लगी । फलतः देर होना अवश्यंभावी हो गया । खैर, हर्ष है कि आज भी यह पुस्तक पाठकवृन्द सेवा में "पत्रं पुष्पम्" की भेट लेकर उपस्थित हो रही है। आशा है, सज्जनबृन्द क्षीर नीर विवेक न्याय मेरी गलतियों व त्रुटियों की ओर ध्यान न देकर उपयुक्त विषयोंके नाते पुस्तक को अपना कर मुझे कृतकृत्य करने की अनुकम्पा दिखायेंगे । अन्त मे 'श्री संघ' को धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता, जिसने पुस्तक प्रकाशन के पहिले ही निःसंकोच आर्थिक सहायता देकर अपनी उन्नत उदारता का परिचय दे मुझे प्रोत्साहन दिया है । साथ ही साथ पंचबुआजी झा, पं० गणेशदत्तजी चौधरी तथा मेरे गुरुभाई मोतीलाल को भी धन्यवाद है. इन लोगों ने इस पुस्तक के प्रकाशन मे विशेष सहयोग दिया है । इत्यल मनल्प जल्पनेन विज्ञेषु | सं० १६६= ज्ञान पञ्चमी । विनीत :जैन गुरु पं० प्र० यति सूर्यमल्ल, कलकत्ता । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचना हमें खेद है कि ब्लाक तैयार हो जाने पर भी कागज नहीं मिलने के कारण चित्र नहीं छापे गये । - प्रकाशक । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची _al विषयानुक्रमणिका णमोकार मंत्र स्थापनाचार्यजी के १३ बोल खमासमण सूत्र सुगुरु सुखसाता अव्मुट्टिओमि सूत्र मुंहपत्ति के पच्चीस बोल अंग पडिलेहण के पच्चीस बोल करेमि भंते सूत्र इरियावहियं सूत्र तस्स उत्तरी सूत्र अणत्य अससिएणं सन्न लोगस्स सूत्र जयउ सामिय सूत्र किंचि सूत्र , णमुत्थुणं सूत्र जावंत चेइआई सूत्र जावंत केविसाहू सूत्र परमेष्ठी नमस्कार उवसाग हरं स्तोत्र जयविय राय सूत्र अरिहंत चेइयाणं सूत्र आचार्य आदि को वंदन सम्वस्सवि सूत्र एन्झामिठामि सूत्र पुस्वरवरदी वढे सूत्र निशागं युद्धाणं सूत्र यावनगराणं सूत्र -ofotoo सूत्र विभाग पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या १ । सुगुरु वंदन सूत्र २ | आलोउ सूत्र २ आलोयणा (आजुणा०) २ / अठारह पापस्थानक आलोयणा २ | ज्ञानोपकरणों की आलोयणा २ पोसह संध्या अतिचार ३ पोसह रात्रि अतिचार ३ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र (वंदित्तु) ३ | आयरिय उवज्झाए सूत्र ३ चैत्य नमन स्तोत्र ४ श्री तीर्थमाला स्तवन ४ तीर्थ वन्दना ४ वीर स्तुति ५ वीर स्तुति ५ सामायिक पारण सूत्र ५ श्री अभयदेव सूरिकृत जय तिहुअण ६ जय महायश सूत्र ६ श्रुत देवता स्तुति ६ भुवन देवता स्तुति ६ क्षेत्र देवता स्तुति ७ इच्छामो अणुसट्ठियं सूत्र ७ बर्द्धमान स्तुति ७ वरकनक सूत्र अट्ठाइजेसु सूत्र श्री स्थम्भण पार्श्वनाथ चैत्यवन्दन ८ भणय पास सूत्र ६ चउकसाय सूत्र 22222222222 2 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका पृष्ठ पञ्च परमेष्ठी मंगल स्तुति २४ णिविगइय पञ्चक्खाण श्री मानदेव सूरिकृत लघु शान्ति स्तव २४/ चउविहार उपवास पञ्चक्खाण वृहत् अतिचार २६ तिविहार उपवास पच्चक्खाण साधु प्रतिक्रमण सूत्र | दत्तिअ पच्चक्खाण श्रमण पक्खी सूत्र दत्तिअ पच्चक्खाण तपगच्छीय विशेष सूत्र पाणहार पच्चक्खाण पंचिंदिय सूत्र दिवस चरिम चउबिहार पच्चक्खाण सामायिक पारण सूत्र ५४ दिवस चरिम तिविहार पञ्चक्खाण जगचिंतामणि सूत्र ५४ दिविस चरिम दुविहार पच्चक्खाण जयवियराय सूत्र भव चरिम पच्चक्खाण कल्लाण कंद गंट्टि सहिअ, मुठ्ठि सहिअ, अंगुट सहिअ अतिचार ५६ आदि अभिग्रह पच्चक्खाण वीर स्तुति धारणा पच्चक्खाण भरहेसर सज्झाय ५७ पच्चक्खाणों की आगार संख्या मण्णह जिणाणं सज्झाय तपागच्छीय पच्चक्खाण सूत्र संथारा पोरिसी णमुक्कार सहिअ मुट्ठि सहिअ पच्चक्खाण स्नातस्या की स्तुति पोरिसी साढ पोरिसी पच्चक्खाण संतिकर स्तवन पुरिमढ अवढ़ पच्चक्खाण खरतरगच्छीय पञ्चक्खाण सूत्र | एकासण बियासण तथा एगलठाणका पञ्चक्खाण णमुकार सहिअ पञ्चक्खाण आयम्बिल पच्चक्खाण णमुकार सहिअ पञ्चक्खाण तिविहार उपवास पच्चक्खाण पोरिसो पञ्चक्खाण चउविहार उपवास पच्चक्खाण पोरिसी साढ पोरिसी पञ्चक्खाण रात्री पच्चक्खाण पुरिमढ़ पञ्चक्खाण पाणहार पच्चक्खाण अव पञ्चक्खाण चउविहार पच्चक्खाण एकासण पञ्चस्खाण तिविहार पच्चक्खाण एकासण पञ्चक्खाण दुविहार पञ्चपखाण एगलठाण पञ्चक्खाण | देसावगासिय पच्चक्खाण एगलठाण पश्चक्खाण | पच्चक्खाण के आगारों का अर्थ आयस्विल पचखाण ६४ सार्थ पोसह सज्माय सूत्र आयम्बिल पचखाण ६५ | देसावगासिक पच्चक्खाण णिज्यिगय पञ्चश्वाण ६५ | देसावगासिक पारण गाथा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ १२१ १२१ १२२ १२३ विषय-सूची विधि विभाग विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या प्रातःकाल सामायिक लेने की विधि ८३ / पक्खी प्रतिक्रमण की विधि सामायिक पारने की विधि ८४ चउमासी प्रतिक्रमण की विधि १२० सामायिक सम्बन्धी विशेष बातें ८४ | साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि मन के दश दोष ८५ जिन दर्शन विधि वचन के दश दोष ८५ जिनराज पूजन विधि काय के बारह दोष ८५ / केशर शुद्धि मन्त्र संध्याकालीन सामायिक लेने की विधि ८६ जल पूजा १२४ राई प्रतिक्रमण की विधि चन्दन पूजा १२५ देवसिक प्रतिक्रमण की विधि ६० पुष्प पूजा १२६ पक्खी प्रतिक्रमण विधि १२७ चौमासी प्रतिक्रमण की विधि | दीप पूजा १२७ साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण विधि | अक्षत पूजा १२७ आठ प्रहर पौषध विधि १०१ / नैवेद्य पूजा १२८ पोसह पच्चक्खाण १०२ फल पूजा पडिलेहण विधि श्री जिन मंदिर सम्बन्धी चौरासी आशातनाए १२६ देव वन्दन विधि गुरु महाराज की तेतीस आशातनाएं पच्चक्खाण पारने की विधि १०५ गुरु वन्दन विधि संध्या पडिलेहण विधि | सर्व तपस्या ग्रहण करने की विधि १३४ चौबीस थंडिला पडिलेहण पाठ पखवासा तप की विधि रात्री संथारा विधि दश पच्चक्खाण की तप विधि १३६ पोसह पारने की विधि ११० / बीसस्थानक तप विधि १३६ दिन सम्बन्धी चउपहरी पौषध विधि ११० वीसस्थानक माला और काउसग्ग प्रमाण चउपहरी पौषध पच्चक्खाण १३८ प्रथम पद रात्रि सम्बन्धी चउपहरी पौषध विधि १११ द्वितीय पद रात्री चउपहरी पौषध पच्चक्खाण १३६ तृतीय पद देसावगासिक लेनेकी विधि ११२ चतुर्थ पद देसावगासिक पारने की विधि १४१ ११३ पन्चम पद तपगच्छीय विशेष विधियां १४२ षष्टम पद सामायिक लेने की विधि सप्तम पद सामायिक पारने की विधि | अष्टम पद राई प्रतिक्रमण की विधि १४३ देवसिक प्रतिक्रमण की विधि | नवम पद ११६ दशम पद १४८ १२८ ११० १३६ ११२ १४२ १४४ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका पृष्ठ सख्या एकादश पद १५० षष्टम दिवस विधि द्वादश पद १५२ सप्तम दिवस विधि त्रयोदश पद १५३ अष्टम दिवस विधि चतुर्दश पद १५३ नवम दिवस विधि पञ्चदश पद ११३ नवपद जयति (बन्दना) पोड़श पद 'अरिहन्त पढ़ चैत्य बन्दन सप्तदश पद ११४ - अरिहन्त पद स्पवन अष्टादश पद १५४ अरिहन्त पद थई एकोनविशतितम पद श्री सिद्ध पद की ८ जयति विंशतितम पद सिद्ध पढ़ चैत्यवन्दन रोहिणी तप की विधि २१८ सिद्ध पद स्तवन छम्मासी तप विधि सिद्ध पद थुई बारहमासी तप विधि आचार्य पद की ३६ जयति अट्ठाइस लब्धी तप विधि १६० आचार्य पद चैत्यवन्दन चतुर्दश पूर्व तप विधि आचार्य पद स्तवन तिलक तपस्या विधि १० | आचाय पद धुई सोलिये तप विधि १६१ / उपाध्याय पद की २५ जयति उपधान तप प्रवेश विधि १६१ | उपाध्याय पद चैत्यवन्दन उपधान तप विधि १६२ उपाध्याय पद स्तवन उपधान तप उत्क्षेप विधि १६४ / उपाध्याय पद थूई उपधान वाचन विधि १६४ साघु पद की २७ जयति तप सम्पूर्ण क्रिया निक्षेप विधि १६५ | साधु पद चैत्यवन्दन पडिपुण्णा विगय पारणा विधि साधु पद स्तवन क्षमा श्रमण विधि उपधान तप विवरण गाथा सम्यक्त दर्शन पद की ६७ जयति पंतालीस आगम तप विधि | दर्शन पद चैत्यवन्दन ग्यारह गणधर तपस्या विधि | दर्शन पद स्तवन णमोकार तप विधि दर्शन पद थुई जयति संयुक्त नव पद ओली विधि ज्ञान पद की ५१ जयति प्रथम दिवस विधि ज्ञान पद चैत्यवन्दन द्वितीय दिवस विधि १७० ज्ञान पद स्तवन तृतीय दिवस विधि १७१ ज्ञान पद थुई चतुर्थ दिवस विधि १७१ चारित्र पद की ७० जयति पंचम दिवस विधि १७१ चारित्र पद चैत्यबन्दन १६५ | साधु पदथूई Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rwanamannaawr २१७ २१७ २२२ २०२ २२५ २३१ विषय-सूची विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या चारित्र पद स्तवन १८८ सिद्धगिरि स्तुति चारित्र पद थुई १८८ सिद्धगिरि जयति २१७ तप पद की ५० जयति १८६ सिद्धाचल चैत्यवन्दन गाथा ४० तप पद चैत्यवन्दन १६० सिद्धाचल स्तवन गाथा ४० २१६ तप पद स्तवन १६० शत्रुञ्जय स्तुति तप पद थुई | सिद्धगिरि जयति नन्दीश्वर द्वीप तपस्या विधि १६१ शत्रुञ्जय चैत्यवन्दन गाथा ५० २२३ अटा पद ओली विधि १६२ लघु शत्रुञ्जय रास गाथा ५० (१०८) ज्ञान पञ्चमी पूजा विधि १६२ सिद्धगिरि स्तुति संस्कृत ज्ञान पूजा १ १६४ | सिद्धगिरि जयति संस्कृत ज्ञान पूजा २ १६६ सर्व तपस्या पारण विधि दिवाली पूजन विधि १६६ | शान्ति पूजा विधि शारदा स्तोत्र २०२ शान्ति पूजा की सामग्री चैत्री पूनम पर्व २०३ / नवपद मण्डल पूजा विधि सिद्धाचल चैत्यवन्दन गाथा १० २०५ नवपद मण्डल पूजन की सामग्री सिद्धगिरि स्तवन गाथा१०(सुण सुण सेजा०) २०७ | विंशस्थानक मण्डल पूजन विधि २६५ सिद्धगिरि स्तुति विशस्थानक की सामग्री सिद्धगिरि जयति २०८ भृषी मण्डल पूजा विधि सिद्धाचल चैत्यवन्दन गाथा २० भृषी मण्डल पूजन सामग्री २८२ आबूजी स्तवन गाथा २० (यात्रीडा भाई०) ।२१० अष्टा पद मण्डल पूजा विधि सिद्धगिरि स्तुति २१२ अष्टापद मण्डल सामग्री सिद्धगिरि जयति २१२ तीर्थङ्कर पट्ट परिचय २८८ सिद्धाचल चैत्यवन्दन गाथा ३० २१३ | शिलान्यास (नीव) भरने की विधि २६६ सिद्धगिरि स्तवन गाथा ३० (मंगलकमलाकंद) २१४ | जलयात्रा महोत्सव विधि २३३ २३३ २५३ २५३ २७३ २७३ २८२ २८७ २६६ विषयानुक्रमणिका स्नान पूजा अष्टप्रकारी पूजा अर्थ पूजा वस्त्र पूजा नमक उतारण पूजा पूजा विभाग पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका ३०१ पुष्पमाला पहरावण पूजा ३०६ फूल पूजा ३१६ वृहत् नवपद पूजा ३१६ सत्रह भेदी पूजा ३१७ / विंशस्थानक पूजा पृष्ठ संख्या ३१७ ३१८ ३१८ ३३१ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ nananam पृष्ठ संख्या विषय-सूची पृष्ठ संख्या | विषयानुक्रमणिका ३६८ | पञ्चकल्याणक पूजा ३८७ चतुर्दश राजलोक पूजा ४०१ | श्री दादा गुरुदेव पूजा विषयानुक्रमणिका ऋषी मण्डल पूजा शाशन पति पूजा पञ्चज्ञान पूजा ४०७ ४३८ ४५१ - पृष्ठ संख्या ४७० ४७० ४७१ आरती विभाग पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका ४६३ मंगल दीपक ४६३ मंगल दीपक ४६३ मंगल दीपक ४६४ गौतम गणधर आरतो ४६४ सुधर्म गणधर आरती ४६५ गुरुदेव आरती ४६५ | मणिधारी जी की आरती ४६५ कुशल गुरु आरती ४६६ रनसूरिजी की आरती ४६६ चक्रेश्वरी देवी की आरती ४६७ | चक्रेश्वरी देवी की आरती ४६८ | यक्षराज की आरती ४६८ भैरव आरती ४६ | भैरव आरती विषयानुक्रमणिका शान्तिनाथ भगवान की आरती संध्या आरती नवपद आरती विंशस्थानक आरती ऋषी मण्डल आरती शासनपति आरती पञ्चज्ञान आरती पन्चज्ञान आरती पञ्चज्ञान आरती . ... आरती .:. कल्याणक आरती दिवाली की आरती नन्दीश्वर दीप आरती पञ्चतीर्थ आरती ४७१ ४७१ ४७२ ४७२ ४७२ ४७३ ४७३ ४७३ ४७३ पृष्ठ संख्या ४७८ विषयानुक्रमणिका श्री आदिनाथ चैत्यवन्दन श्री अजितनाथ चैत्यवन्दन श्री सम्भव जिन चैत्यवन्दन श्री अभिनन्दन जिन चैत्यवन्दन श्री सुमति जिन चैत्यवन्दन श्री पद्मप्रभ जिन चैत्यवन्दन श्री सुपार्श्व जिन चैत्यवन्दन श्री चन्द्रप्रभ जिन चैत्यवन्दन श्री सुविधि जिन चैत्यवन्दन चैत्यवन्दन विभाग पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका ४७५ | श्री शीतल जिन चैत्यवन्दन ४७५ श्री श्रेयांस जिन चैत्यवन्दन ४७५ | श्री वासुपूज्य जिन चैत्यवन्दन श्री विमल जिन चैत्यवन्दन ४७६ श्री अनन्त जिन चैत्यवन्दन | श्री धर्म जिन चैत्यवन्दन ४७७ श्री शान्ति जिन चैत्यवन्दन श्री शान्ति जिन चैत्यवन्दन ४७७ | श्री शान्ति जिन चैत्यवन्दन ४७६ ४७६ ४७६ ४८० ४८० ४८० ४८१ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका श्री कुन्थु जिन चैत्यवन्दन श्री अर जिन चैत्यवन्दन श्री मल्लि जिन चैत्यवन्दन श्री मुनि सुव्रत जिन चैत्यवन्दन श्री नमि जिन चैत्यवन्दन श्री नेमि जिन चैत्यवन्दन श्री पार्श्व जिन चैत्यवन्दन श्री पार्श्व जिन चैत्यवन्दन श्री वीर जिन चैत्यवन्दन श्री वीर जिन चैत्यवन्दन श्री चतुर्विंशति जिन चैत्यवन्दन श्री सिद्धाचल चैत्यवन्दन सिद्धाचल चैत्यवन्दन सिद्धाचल चैत्यवन्दन विषयानुक्रमणिका ऋषभ स्तवन ऋषभदेव स्तवन आदिनाथ स्तवन अजित जिन स्तवन सम्भव जिन स्तवन अभिनन्दन जिन स्तवन सुमति जिन स्तवन श्री पद्मप्रभ जिन स्तवन सुपार्श्व जिन स्तवन चन्द्रप्रभ जिन स्तवन चन्द्रप्रभ जिन स्तवन सुविधि जिन स्तवन शीतल जिन स्तवन श्रेयांस जिन स्तवन वामुरज्य जिन स्तवन विपय-सूची पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका श्री सीमन्धर जिन चैत्यवन्दन श्री सीमन्धर जिन चैत्यवन्दन श्री सीमन्धर जिन चैत्यवन्दन ४८१ ४८१ ४८२ ४८२ | नवपद चैत्यवन्दन ४८२ | नवपद चैत्यवन्दन ४८३ | नवपद चैत्यवन्दन ४८८३ | परमातम चैत्यचन्दन ४८३ चैत्यन्दन पश्चतीर्थ चैत्यवन्दन ४८४ ज्ञान पञ्चमी का चैत्यवन्दन ४८४ ४८४ द्वितया चैत्यवन्दन पञ्चमी चैत्यवन्दन ४८५ अष्टमी चैत्यवन्दन ४८५ एकादशी चैत्यवन्दन ४८६ | चतुर्दशी चैत्यवन्दन स्तवन विभाग पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका ४६१ विमल जिन स्तवन ४६२ अनन्त जिन स्तवन ४६२ | धर्म जिन स्तवन शान्ति जिन स्तवन ४६३ ४६४ कुन्धु जिन स्तवन ४६४ अर जिन स्तवन ४६५ | मल्लि जिन स्तवन ४६५ | मुनि सुव्रत जिन स्तवन ४६६ नमि जिन स्तवन ४६६ नेमि जिन स्तवन ४६७ | नेमि जिन स्तवन थम्भण पार्श्वनाथजी का स्तवन ४६७ गौडी पाश्व जिन वृद्व स्तवन ४६८ पार्श्व स्तवन ४६८ ४६६ | पाइव जिन स्तवन ७ पृष्ठ संख्या ४८५६ ४८६ ४८६ ४८७ ४८७ ४८८ ४८८ ४८८ ४८८ ४८६ ४८६ ४८८६ ४६० ४६० ४६० पृष्ठ संख्या ४६६ ५०० ५०० ५०१ ५०१ ५०२ ५०३ ५०३ ५०४ ५०५ ५०५ ५०६ ५५० ५१४ - ५१४ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संख्या ५३४ ५३७ ५४१ ५४२ ५४३ ५४४ ५४५ विषय-सूची पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका ५१५ पञ्चमी वृद्ध स्तवन ५१५ पञ्चमी स्तवन ५१६ अष्टमी स्तवन ५१७ दशमी वृद्ध स्तवन (पास जिनेसर०) | मौन एकादशी का स्तवन ५१७ / चउदह गुणठाणों का स्तवन अमावस का स्तवन निर्वाण कल्याणक स्तवन चैत्री पूर्णिमा स्तवन | पखवासा तप चैत्यवन्दन पखवासा तप का स्तवन पखवासा तप स्तुति दश पच्चक्खाण चैत्यवन्दन ५२१ दश पच्चक्खाण स्तवन दश पच्चक्खाण स्तुति १ | विंशस्थानक चंत्यवत्यवन्दन ५२२ | विंशस्थानक तप का स्तवन विंशस्थानक की स्तुति ५२२ | रोहिणी चैत्यवन्दन ५२३ रोहिणी तप का स्तवन ५२३ श्री रोहिणी तप की स्तुति ५२३ | छम्मासी तप चैत्यवन्दन ५२३ छम्मासी तप का स्तवन ५२४ | छम्मासी तप स्तुति ५२४ | बारहमासी तप का स्तवन ५२४ मट्ठाइस लब्धी तप स्तवन ५२५ | चतुर्दश पूर्व चैत्यवन्दन ५२५ | चतुर्दश पूर्व तप स्तवन | चतुर्दश पूर्व स्तुति तिलक तपस्या का स्तवन सोलिये तप का स्तवन ५२८ उपधान तप स्तवन ५२६ पैंतालीस आगम स्तवन । ५३० तालीस आगम का गुणना विषयानुक्रमणिका पार्श्व जिन स्तवन वीर जिन स्तवन वीर जिन स्तवन वीर जिन स्तवन (राग भैरवी) चौबीस जिन स्तवन सीमन्धर जिन स्तवन सीमन्धर जिन स्तवन सिद्धाचल स्तवन अष्टापद गिरि स्तवन पर्युषण स्तवन शान्ति जिन स्तवन राग सरस राग राग मल्हार राग मिझोटी राग अडाणो राग सोरठ राग मल्हार राग काफी राग खम्भायची होली स्तवन बसन्त होली बसन्त होली होरी स्तवन होरी स्ववन होरी होरी होरी स्तवन लावनी (पार्श्व जिन) आदि जिनेसर पारणो ऋषभ जिनेसर पारणो नवपदजी की लावनी पञ्चदश तिथी स्तवन द्वितीया स्तवन ५२१ ५४८ ४४६ ५५० ५५३ ५५५ ५५८ ५५८ ५६० ५६३ ५६४ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAnmmarrmine पृष्ठ संख्या ५८८ ५८६ ५८६ ५७१ ५६० ५६१ विषयानुक्रमणिका गणधर तपस्या गुणना नवकार माहात्म्य नन्दीभर द्वीप स्तवन शासनदेवी स्तवन आलोयण वृद्ध स्तवन आलोयण स्तवन पद्मावति आलोयण पुण्य प्रकाश आलोयण बृद्ध स्तवन सहस्त्र कूट स्तवन जिनदत्तसूरि उत्पत्ति स्तवन जिनदत्त सूरि स्तवन कवित्त कवित्त विषय-सूची पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका ५६६ श्लोक ५६६ जिन कुशल सूरि स्तवन जिन कुशल सूरिजी उत्पत्ति स्तवन जिन कुशल सूरि स्तवन ५७२ / दादा साहब की फेरी ५७५ श्री जिन कुशल सूरि स्तवन श्री-जिन कुशल सूरि स्तवन ५७६ कुशल गुरु स्तवन कुशल गुरु स्तवन ५८६ | कुशल सूरिजी स्तवन ५८७ मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि स्तवन ५८७ | गुर्वाष्टकम् ५८७ जिन रत्नसूरि स्तवन ५६२ ५६२ ५६२ ५६२ ५६३ ५६३ पृष्ठ संख्या ६०२ ६०२ ६०३ ६०४ ६०४ विषयानुक्रमणिका सिद्धाचल की थूई शत्रुञ्जय स्तुति सीमन्धर स्तुति द्वितीया की स्तुति पञ्चमी की स्तुति पञ्चमी की स्तुति अष्टमी स्तुति एकादशी स्तुति मौन एकादशी स्तुति चतुर्दशी स्तुति चतुर्दशी स्तुति अमावस्या स्तुति निर्वाण स्तुति पयुषण स्तुति नवपद स्तुति नवपद स्तुति स्तुति विभाग पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका ५६५ आदि जिन स्तुति ५६५ अजित जिन स्तुति ५६५ सम्भव जिन स्तुति ५६६ / अभिनन्दन जिन स्तुति ५६६ सुमति जिन स्तुति ५६७ पद्मप्रभु स्तुति ५६७, सुपार्श्व जिन स्तुति चन्द्रप्रभु जिन स्तुति सुविधि जिन स्तुति | शीतल जिन स्तुति श्रेयांस जिन स्तुति वासुपूज्य जिन स्तुति ६०० विमल जिन स्तुति ६०० / अनन्त जिन स्तुति ६०१ धर्म जिन स्तुति ६०१ / शान्ति जिन स्तुति ६०६ ६०७ ६०९ ६०८ ६०६ ६०६ ६०६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संख्या ६१२. विषयानुक्रमणिका कुन्थु जिन स्तुति अरनाथ जिन स्तुति मल्लि जिन स्तुति मुनि सुत्रत जिन स्तुति नमि जिन स्तुति विषय-सूची पृष्ठ संख्या | विषयानुक्रमणिका ११० | नेमि जिन स्तुति ६१० पार्श्व जिन स्तुति ६११ पार्श्व जिन स्तुति ६११ महावीर जिन स्तुति ६१२ । बीस विरहमान स्तुति ६१३ ६१४ पृष्ठ संख्या ६४१ १४२ ६४२ रास तथा सज्झाय विभाग विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या | विषयानुक्रमणिका श्री गौतमस्वामीजी का रास ६१५ अंतगढ़दशा सूत्र सज्झाय श्री गौतमस्वामीजी का छोटा रास | अणुत्तरोववार्ड सूत्र सज्झाय श्री शत्रुक्षय रास ६२१ प्रश्न व्याकरण सूत्र समाय सम्मेत शिखरजी का रास ६२७ विपाक सूत्र सज्माय इग्यारे अंग की सज्झाय प्रतिक्रमण सज्माय आचरांग सूत्र समाय कर्म सज्झाय सुयगडांग सूत्र समाय इलापुत्र की सज्झाय ठाणांग सूत्र समाय | मेघ कुमार मुनि सम्झाय प्रसन्नचन्द राजा की सज्झाय समवायांग सूत्र सज्माय भगवती सूत्र सज्झाय श्रावक करणी सज्झाय ज्ञाता सूत्र सज्झाय ६४० 'मन भमरा वैराग्य सज्झाय उपासकदशा सूत्र समाय ६४२ . गुरु स्तुति ६४३ ६४३ ६३८ ढिढण ऋपि समाय ६४६ ६५६ विषयानुक्रमणिका वृहत् अजित शान्ति स्मरणम् लघु अजित शान्ति स्मरणम् णमिठण स्मरणम् तंज स्मरणम् मयरहियं स्मरणम् सिग्यमवहरउ स्मरणम् ज्वसन्गहर स्तोत्रम् तिजय पहुत्त स्तोत्र दोसावहार स्तोत्र वृद्ध णमोच्चार स्तोत्र स्तोत्र विभाग पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या ६५१ भक्तामर स्तोत्र ६५४ कल्याणमन्दिर स्तोत्र ६ जिन पक्षर स्तोत्र ६७३ ६५७ श्री क्षमाकल्याणोपाध्याय विरचि ऋषिमण्डल ६५९/ स्तोत्र ६७४ ६६० श्री मल्लिनाथ जिन स्तोत्र .६७७ ६६१ वृहत् शान्ति ६७८ ६६१ गौतमाष्टक (इन्द्रभूति०) २६२ भजन ६६३ । भजन ६८५ ६९२ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ www mn 6 .maan विषय-सूची परिशिष्ट विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या विषयानुक्रमणिका पृष्ठ संख्या स्याद्वाद सप्तभंगी १ कार्तिक मास पर्वाधिकार सप्तनय ३ | ज्ञान पञ्चमी पर्व निक्षेप कार्तिक चौमासी पर्वाधिकार नाम निक्षेप कार्तिक पूर्णमासी पर्वाधिकार स्थापना निक्षेप ८ मार्गशीर्ष मास पर्वाधिकार द्रव्य निक्षेप मौन एकादशी का गुणना भाव निक्षेप | श्री जिन कल्याणक संग्रह मूर्तिवाद ११ पोष मास पर्वाधिकार मूर्ति पूजा १४ श्री पार्श्वनाथजी का संक्षिप्त जीवन चरित्र ईश्वर कर्तृत्व और जैनधर्म १५ | माघ मास पर्वाधिकार आत्म निन्दा १८ फाल्गुन मास पर्वाधिकार बारहमास पर्वाधिकार | होली अधिकार चैत्रमास पर्व २४ श्री जिन कुशलसूरिजी चरित्र श्री वीर जन्मकल्याणक पर्व २५ । आवश्यक वीर चरित्र २५ | चौदह नियम चितारने की विधि वैशाख मास पर्वाधिकार २७ जैन तिथी मन्तव्य भगवान आदिनाथ चरित्र २७ चंदोवा रखने का स्थान ज्येष्ठ मास पर्वाधिकार अभक्ष्य शान्तिनाथ चरित्र २६ खाने योग्य पदार्थ आपाढ़ मास पर्वाधिकार ग्रह शान्ति स्तोत्र (जगद्गुरु) जिनदत्त सूरिनी चरित्र | ८४ रत्नों के नाम तथा उनकी पहचान जिनदत्त सूरिजी के रचित ग्रन्थ ३२ मोती की जातियां तथा उनके नाम भाद्र मास पर्वाधिकार | मणियों के नाम कल्पसूत्र की महत्ता | नवग्रह सम्बन्धी अन्य उपयोगी वातें तथा नाम मणिधारी श्री जिनचन्द्र सुरिजी का चरित्र नक्षत्र आश्विन मास पर्वाधिकार राशी तथा अक्षर अकवर प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्र सूरिजी का दिन का चौघड़िया रात का चौघड़िया चरित्र ३६ आशंसा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत् खरतरगच्छीय रङ्ग विजय सूरि आचार्यों के नाम १ श्रीमन्महावीर स्वामी जी । २ श्री सुधर्मा स्वामी जी । ३ श्री जम्बु स्वामी जी । ४ श्री प्रभव स्वामी जी । ५ श्री यशोभद्रसूरि जी । ६ श्री संभूत विजय जी । ७ श्री भद्रबाहु स्वामी जी । ८ श्री स्थूलभद्र स्वामी जी । ६ श्री आर्य महागिरि जी । १० श्री आर्य सुहस्थिसूरि जी । ११ श्री आर्य सुस्थित सूरि जी । १२ श्री इन्द्रदिन्न सूरि जी । १३ श्री दिन्न मूरि जी । १४ श्री सिंहगिरि जी । १५ श्री बा स्वामीजी । १६ श्री बज्रसेन सूरिजी । १७ श्री चन्द्रसूरिजी । १८ श्री समतभद्र सूरिजी । १६ श्री देव सूरिजी । २० श्री प्रद्योतन सूरि जी | २१ श्री मानदेव सूरि जी । २२ श्री मानतुङ्ग सूरि जी । २३ श्री वीर सूरि जी । २४ श्री जयदेव सूरि जी | २५ श्री देवानन्द सूरि जी । २६ श्री विक्रम सूरि जी । २७ श्री नरसिंह सूरि जी । २८ श्री समुद्र सूरि जी । २६ श्री मानदेव सूरि जी । ३० श्री विबुधप्रभ सूरि जी । ३१ श्री जयानन्द सूरि जी । ३२ श्री रविप्रभ सूरि जी । ३३ श्री यशोभद्रसूरि जी । ३४ श्री विमलचन्द्र सूरि जी । ३५ श्री देव सूरि जी । ३६ श्री नेमिचन्द्र सुरि जी । ३७ श्री उद्योतन सूरि जी । ३८ श्री वर्द्धमान सूरि जी । ३६ श्री जिनेश्वर सूरि जी । ४० श्री जिनचन्द्र सूरि जी । ४१ श्री अभयदेव सूरि जी । ४२ श्री जिनबल्लभ सूरि जी । ४३ श्री जिनदत्त सूरि जी । ४४ श्री जिनचन्द्र सूरिजी । ४५ श्री जिनपति सूरिजी । ४६ श्री जिनेश्वर सूरि जी । ४७ श्री जिन प्रवोध सूरि जी । ४८ श्री जिनचन्द्र सूरि जी । ४६ श्री जिन कुशल सूरि जी । ५० श्री जिन पद्म सूरि जी । ५१ श्री जिन लब्धि सूरि जी । ५२ श्री जिनचन्द्र सूरि जी । ५३ श्री जिनोदय सूरि जी । ५४ श्री जिनराज सूरि जी । ५५ श्री जिनभद्र सूरि जी । ५६ श्री जिनचन्द्र सूरि जी । ५७ श्री जिन समुद्र सूरि जी । ५८ श्री जिन हंस सूरि जी । ५६ श्री जिन माणिक्य सूरि जी । ६० श्री जिनचन्द्र सूरि जी । ६१ श्री जिन सिंह सूरि जी । ६२ श्री जिन राज सूरि जी । ६३ श्री जिन रङ्ग सूरि जी । ६४ श्री चन्द्रसूरि जी | श्री जिन विमल सूरि जी । ६६ श्री जिन ललित सूरिजी । ६७ श्री जिन अक्षय सूरि जी । ६८ श्री जिनचन्द्र सूरि जी । ६६ श्री जिन नन्दिवर्द्धन सूरि जी । ७० श्री जिन जयशेखर सूरि जी । ७१ श्री जिन कल्याण सूरि जी । ७२ श्री जिनचन्द्र भूरि जी । ७३ श्री जिन रत्न सूरि जी । खरतरगच्छीय जैन यति साधुओं के दीक्षित नामान्त पद ८४ 1 पति । ३४ पाल । । ४१ भक्त । ४२ भक्ति । ४३ १ अमृत । २ आकर । ३ आनन्द । ४ इन्द्र । ५ उदय । कमल । ७ कल्याण । ८ कलश | ६ कल्लोल । १० कीर्त्ति । ११ कुमार । १२ कुशल । १३ कुंजर । १४ गणि । १५ चन्द्र । १६ चारित्र | १७ चित्त । १८ जय । १६ नाग । २० तिलक । २१ दर्शन । २२ दत्त । २३ देव । २४ धर्म । २५ ध्वज । २६ धीर । २७ निधि । २८ निधान । २६ निवास । ३० नन्दन । ३१ नन्दि । ३२ पद्म । ३३ ३५ प्रिय । ३६ प्रबोध । ३७ प्रमोद । ३८ प्रधान । ३६ प्रभ । ४० भद्र भूषण । ४४ भण्डार । ४५ माणिक्य । ४६ मुनि । ४७ मूर्त्ति । ४८ मेरु । ४६ मंडण | ५० मन्दिर | ५१ युक्ति | ५२ रथ । ५३ रत्न । ५४ रक्षित । ५५ राज । ५६ रुचि । ५७ रंग । ५८ लब्धि । ५६ लाभ । ६० वर्द्धन । ६१ वल्लभ । ६२ विजय। ६४ विनय । ६४ विमल । ६५ विलास । ६६ विशाल । ६७ शील । ६८ शेखर । ६६ समुद्र । ७० सत्य । ७१ सागर । ७२ सार । ७३ सिंधुर । ७४ सिंह। ७५ सुख । ७६ सुन्दर । ७७ सेना । ७८ सोम । ७६ सौभाग्य । ८० संयम । ८१ हर्ष । ८२ हित । ८३ हेम । ८४ हंस । इति नन्दि | Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक प्रकाशित होने के पूर्व ग्राहक बनने वालों की नामावली कलकत्ता हैदराबाद (दक्षिण) भागलपुर बीकानेर बीकानेर कलकत्ता बीकानेर संख्या । नाम ५४ श्रीयुत् बाबू बहादुर सिंह जी सिंघी (संघवी) ___ , कपूरचन्दजी श्रीमाल ,,, रायबहादुर सुखराज राय जी श्रीमाल २१ ,,, भंवरलालजी रामपुरिया ,, नथमलजी रामपुरिया ,, मेघराजजी अमरचन्दजी बोथरा , छिन्नूलालजी सोहनलालजी कर्णावट ,, उदयचन्दजी हुकुमचन्दजी बोथरा , , जेठाभाई जयचन्द ११ ,, सुरपतिसिंहजी दूगड़ रावतमलजी भैरूदानजी कोठारी ११ - श्री संघ १० श्रीयुत् बाबू शिखरचन्द रामपुरिया ६ , " बुध सिंहजी बोथरा ६ ,, सूरजमलजी वैद ६ ," राय कुमारसिंहजी श्रीमाल ७ , , महाराज बहादुरसिंहजी दूगड ७ , , प्रसन्नचन्दजी वोथरा । ७ , , राय कुमारसिंहजी राजकुमारसिंहजी श्रीमाल "" चांदमलजी वीरचन्दजी सेठ " , छोटेलाल अमोलकचन्द मोहनलालजी " , निर्मलकुमारसिंहजी नवलखा "" लालचन्दजी हनुमानदासजी बोथरा "" सुन्दरलालजी खारड " , गङ्गारामजी कल्याणमलजी श्रीमाल "" जेसराजजी करतूरचन्दजी श्रीमाल __ , " प्यारेलालजी ताम्बी ५ " " मुन्नीलालजी चुन्नीलालजी श्रीमाल ५ , , नवकुमारसिंहजी जयकुमारसिहजी दुधेडिया ५ ", राजलालजी रोशनलालजी कोचर ५ , उत्तमचन्दजी छाजेड ५ ,, लालचन्दजी मोतीचन्दजी ५ ५, सेठ जीतमलजी लोढा : : ะ ก ะ ะ ะะะะะะ # # # .www9999999Xxxxxxxxx मुलतान बीकानेर कलकत्ता कलकत्ता भागलपुर(नाथनगर) कलकत्ता बीकानेर कलकत्ता अजीमगंज कलकत्ता द्माणू कलकत्ता अजीमगंज कलकत्ता Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या नाम ५ श्रीयुत् बाबू धन्नूलालजी पारसान ४ ४ ४ ४ ४ ४ ३ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ ر "" 23 33 " 35 23 29 " " " 33 " 23 " +3 و $5 " " " 32 39 53 29 33 " 23 "" " " " 31 " 39 59 " 33 33 ار " ,, " चिम्मनलाल वाडीलाल हैमचन्द दामोदर संघवी जगतपतिसिंहजी दूगड अमरचन्दजी नाहर मंगलचन्दजी शिवचन्दजी भावक " "3 " 39 " ول " साकरचन्द खुशालचन्द जवेरी 19 शंकरदानजी शुभकरणजी नाहटा हीरालालजी खारड नथमलजी पदमचन्दजी श्रीमाल 29 " किशनचन्दजी धनराजजी कोचर " " " लक्ष्मीचन्दजी सेठ " " " 'रावतमलजी हरखचन्दजी बोथरा केशवजी नेमचन्द 33 [ - 1 " ठाकुरलाल हीरालाल कम्पनी मानसिंह मेघराज बहादुर "" " छोटेलालजी बाफणा 33 و पूरणचन्दजी सामसुखा आसकरणजी नाहटा मोतीलालजी वाठिया 37 " फतेसिंहजी छजलानी रतनलालजी जैन रणजीतसिंहजी दुधेडिया जालिम सिंहजी दूगड " " अमरचन्दजी बोथरा " भंवरसिंहजी भाडिया कमलसिंहजी कोठारी ار मनोहरलालजी मांगीलालजी भनसाली केशरीचन्दजी धूपिया जोरावरमलजी डूंगरमलजी श्रीमाल कन्हैयालालजी रूपचन्दजी वडेर सेठ रामचन्द्रजी हीराचन्दजी खजावी चम्पालालजी दफ्तरी "" " गंभीरसिंहजी श्रीमाल जालिमसिंहजी श्रीमाल " ,, जयसिंहजी नाहर हीरालालजी श्रीमाल 77 ,, फतेसिंहजी नाहर विजयसिंहजी नाहर अमोलकचन्दजी रायसाहब मन्नालालजी पारख स्थान कलकत्ता बीकानेर कलकत्ता 23 33 R 33 पटना कलकत्ता " बम्बई कलकत्ता و " " دو 99 , " " "" " 93 33 "3 डेरा गाजीखान बीकानेर " در "2 कलकत्ता "" 19 अजीमगंज 39 ور नाथनगर भागलपुर कलकत्ता " 39 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सख्या नाम २ श्रीयुत् बाबू रिखभचन्दजी दूगड २ धनपतरायजी लोढ़ा हीरालालजी उमालालजी सीपाणी कस्तूरचन्दजी मोघा गणेशलालजी नाहटा २ २ २ २ २ २ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ 33 35 ا. "3 39 33 را " " " " 39 93 37 , " " " 59 " در " " "3 "" 33 " 93 ८ 2 " "" " ג 32 32 33 " 33 " 19 " ,, ,, "" ر. " " ताजबहादुरसिहजी दूगड ע " او " " על मेघराजजी बोथरा जतनमलजी नाहटा " " सरदारमलजी डागा در " 39 [ = 1 99 , प्रसन्नचन्दजी बोथरा नवरतनमलजी सुराणा दिलीपसिंहजी कोठारी प्रेमचन्दजी नाहटा रतनलालजी बोथरा मोतीलालजी श्रीमाल " पन्नालालजी कल्याणमलजी संघवी विहारीलालजी बालचन्दजी श्रीमाल " 57 किशोरीलालजी खारड नौवतरायजी बदलिया 39 " रूपचन्दनी शम्भू रामजी " पन्नालालजी लक्ष्मोचन्दजी " रिद्धकरणजी वांठिया पूनमचन्दजी सेठिया चांदमलजी नवरतनमलजी धन्नालालजीं गङ्गारामजी श्रीमाल कालूरामजी बोथरा " , मूलचन्दजी नाहटा " रावतमलजी रिद्धकरणजी बोथरा रावतमलजी महादेवलालजी फूलचन्दजी रणजीतमलजी छोगमलजी दूगड प्यारेलालजी भंसाली फतेसिंहजी सकलेचा मोतीचन्दजी बोथरा " " कमलापतजी कोठारी " श्रीपतसिहजी दूगड मुन्नालालजी बोथरा 22 ,, जयप्रकाशजी जम्मड़ रणजीतसिंह रेवतीपत पटावरी " ” महरचन्दजी विजयचन्दजी बदलिया स्थान कलकत्ता 2. "" " , 33 3 93 در मूंझणू कलकत्तो भूंणू कलकत्ता 2255 2 39 دو " 23 " भूंझणू कलकत्ता झणू डेरा गाजीखान ر बीकानेर 21 "} 22 33 कलकत्ता 19 अजीमगंज ܪܕ जीयागंज 25 अजीमगंज 3 भागलपुर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान कलकत्ता भागलपुर कलकत्ता वालूचर कलकत्ता ܚ ܟ ܚ ܩ ܚ ܚ ܚ ܚ ܚ . [1] संख्या नाम १ श्रीयुत् वाबू छोटेलालजी भांडिया १ ,, बहादुरसिंहजी कुशलचन्दजी भांडिया १ ,, रिखवदासजी महाराज वहादुरसिंहजी टांक १ , , प्रसन्नचन्दजी चोरडिया ,, छोगमलजी चोपड़ा जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा प्यारेलालजी मुकीम क्षेमचन्दजी चोरडिया फतेसिंहजी छाजेड़ सीतारामजी वेगवानी जालिमसिंहजी कमलसिंहजी दूगड , चांदमलजी पन्नालालजी जूनीवाल जवरीलालजी कोचर मोहनलालजी वदलिया - ___, गुलावचन्दजी महमवाल , गिरधरलालजी भीखाचन्दजी रसिकलालजी , फतेचन्दली कोचर ,, , पीरचन्दनी निहालचन्दजी गाणी , , माणकचन्दजी सुक्खाणी ,, चांदमलजी भांडिया ,, रणजीतरायनी मुन्नीलालजी झाडचूर मोतीलालजी दुसाज ,, लछमीनारायणजी कमलचन्दनी श्रीमाल ___", हीराचन्दनी धाधिया ,, अभयकुमारसिंहजी भाडिया ., दुलीचन्दजी वम्ब , अमीचन्दजी गोलच्छा ___ , हीरालालजी लणिया " , हरिचन्दजी खारड " , लखीमचन्दजी कोचर माणकचन्दनी जौहरी इन्दरचन्दजी बोथरा प्रसन्नचन्दजी सेठिया लक्ष्मीचन्दजी कर्णावट पदमचन्दजी सेठ लेखरायजी श्रीमाल भीखमचन्दजी सीपानी सोहनलालजी सुराना अमरचन्दजी वोथरा महिला-समाज श्रीमती लीलम कुमारी राक्यान भंडामारा कलकना HITNI . . . . . . . ......... ܚ ܚ ܚ ܚ ܚ ܚ ܟ ܚ ܘܝ ܚ ܚ ܚ ܚ ܚ ܚ ܚܝ ܚ ܚ xx n ܟ ܟܚ टोंक कलकत्ता देहली " " धर्मपन्नी कलकत्ता नाथनगर भागलपुर मिरजापुर बीकानेर नाथनगर डेरा गाजीखान देहली Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .kkkkkkkkkkk666666666666660866666666666666566,6656hkhalasahakare ॥ श्री अर्हद्भ्यो नमः ॥ जैन-रत्नसार प्रश्वाशप्रप्रश्न प्रयन्त्रण ग्रनमनत्रनयनयनननननननननननननननन् 40000 सूत्र विभाग ths tabbishnakabharb688baladalodblatasahthkistaslatcalentiatestasiatourismasattakhatisakalakatalatkhabindashtilatolasaladalanathhath talathalalalalahtattathmakal. O का हमोकार मंत्र णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्भायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं एसो पंच णमोक्कारो सव्व पावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं पढ़मं हवइ मंगलं । 17171***RITAIte * प्रा० व्या० अ०८ पा० १ सू० २०६।। असंयुक्तस्यादौ वर्तमानस्य नस्यणोवा भवति ।। जरो नरो णई-नई, परन्तु पाइअ-सह-महण्णवो प्राकृत कोप में पृ० ४७२ भाग दूसरेमें । 5 णमोकार' ण द्वारा ही सिद्ध किया है तथा जैन ग्रंथों में भी ण का प्रयोग ही विशेप मिलता - है। अतः नमोकार न लिखकर सूत्रानुसार णमोकार ऐसा लिखा गया है। NE Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Latestakalasaskattatoketootoslokalhaleakistaaleekelickolateaukekoteestobototoectetalialestatestosteliatekotakakotdekeketiolalikckeretaketalie जैन-रत्नसार ATE- S 2.කසුදුසද්දය සළසක්සසයෙහසකසායකයයයයයයයෂ්ටියකුයිගියකණශප්සසසසසසසසසසසස්යයයයයලු स्थापनाचार्यजी के १३ बोल १ शुद्ध स्वरूप धारे, २ ज्ञान, ३ दर्शन, ४ चारित्र सहित,५ सद्दहणा शुद्धि, ६ प्ररूपणा शुडि, ७ दर्शन शुद्धि, ८ सहित पांच आचार पालें, ९ पला,१० अनुमोदें, ११ मनोगुप्ति, १२ वचनगुप्ति, १३ कायगुप्ति आदरें। खमासमण सूत्र इच्छामि खमासमणो बंदिउं जावणिज्जाए • निसीहिआए मत्थएण वंदामि । सुगुरु सुखसाता इच्छकारि सुहराई सुहदेवसि सुख तप शरीर निराबाध सुख, संयम, यात्रा निर्वहते हो जी। स्वामिन् ! शाता है ? आहार पानी का लाभ देना जी। अब्भुदिओमि सूत्र । इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अब्भुडिओऽहं अभितर देवसिअं खामेउं इच्छं खामेमि देवसि। ____जं किंचि अपत्तिअं, परपत्तिअं,भत्ते, पाणे, विणए, वेआवच्चे, आलावे, संलावे उच्चासणे, समासणे, अंतर भासाए, उवरि भासाए, जं किंचि मज्झ विणय परिहीणं सुहुमं वा बायरं वा तुन्भे जाणह, अहं न जाणामि, तस्स मिच्छामि दुक्कडं। मुंहपत्ति के पच्चीस बोल १ सूत्र अर्थ सच्चा सई हूं, २ सम्यक्त्व मोहनीय, ३ मिथ्यात्व मोहनीय, ४ मिश्र मोहनीय परिहरूं, ५ कामराग, ६ स्नेह राग, ७ दृष्टिराग परिहरूंछ । १ज्ञान विराधना, २ दर्शन विराधना, ३ चारित्र विराधना परिहरू, ४ मनो गुप्ति, ५ वचन गुप्ति, ६ काय गुप्ति आदरूं, ७ मनोदंड, ८ वचन दंड, ९ काय दंड परिहरूं। a harasoktasteststretastasistratisthatastratanescatitatishikara t ahislutilibliotecticialthlinitiathalibaataarahindi * ये सात बोल मुंहपत्ति खोलते समय कहने चाहिये। ___ ये नव बोल दाहिने हाथ के पडिलेहण के समय बोलने चाहिये । a ntarbies Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ....................................meren (! -.3..1.1, ใย ๆ ห सूत्र विभाग १ सुगुरु, २ सुदेव, ३ सुधर्म आदरूं, ४ कुगुरु, ५ कुदेव, ६ कुधर्म परिहरूं, ७ ज्ञान, ८ दर्शन, ९ चारित्र आदरूंछ । अंग पडिलेहणा के २५ बोल __ कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या परिहरूँ', ऋद्धिगारव, रसगारव, सातागारव परिहरूँ, माया शल्य, निदान शल्य, मिथ्यादर्शन, शल्य परिहरूँ, क्रोध, मान परिहरूँ, माया, लोभ परिहरूँ', हास्य, रति, : अरति परिहरूँ, भय,शोक, दुगंछा परिहरूं', पृथ्वीकाय, अप्पकाय, तेऊकाय परिहरूँ, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय परिहरूँ । करेमि भंते सूत्र करेमि भंते ! सामाइयं । सावज जोगं पञ्चक्खामि । जावनियम पज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि । तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि । इरियावहियं सूत्र इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिक्कमामि । इच्छं । इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे, पाणक्कमणे, बीयकमणे, हरियक्कमणे, ओसा-उत्तिंग-पणग-दग-मट्टी-मक्कडा संताणा संकमणे जेमे जीवा विराहिया एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिदिया, पंचिंदिया, अमिहया, वत्तिया, लेसिया संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया, तस्स मिच्छामि दुक्कडं । तस्स उत्तरी सूत्र तस्स उत्तरी करणणं, पायच्छित्त करणेणं, विसोही करणेणं, विसल्ली करणेणं, पावाणं, कम्माणं, निग्याएणढाए ठामि काउसग्गं । दे नव पोल बाग हाथ के पडिलेहण के समय बोलना चाहिये। मम्मक. पर मुंहपत्ति फेरना, २ मुंह पर, ३ हृदय पर. १ दाहिने कन्ये पर, ५ या कन्धे पर. : पोय पर, दाहिने हाथ पर.८ याएं पैर पर.६ दाहिने पैर पर. फेरना। t,1,1. ก ! งๆ ได #t โด , คนใดๆ ไ ใครไพไรใ%, et โค โค ใจไว้ใด ใครโดนใจ ไค - 1 ได้ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ dieta dostala treterbericta to boot to i to bet totalita trotronota ta toothe जैन - रत्नसार antastastastasta taotalaria Instantailnotal pho Yastatant अणत्थ ऊससिएणं सूत्र अणत्थ ऊससिएणं, णीससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डुएणं, वाय निसग्गेणं, भमलीए, पित्त मुच्छाए, सुहुमेहिं अंगसंचालेहि, सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं, सुहुमेहिं दिट्ठि संचालेहिं एवमाइएहि आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज में काउसग्गो । जाव अरिहंताणं भगवंताणं णमुक्कारेणं ण पारेमि । ताव कार्यं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि ॥ लोगस्स सूत्र लोगस्स उज्जोअगरे, धम्मतित्ययरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली ॥१॥ उसभमजिअं च वंदे, संभवमभिणं दणं च सुमहं च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ||२|| सुविहिं च पुण्फ दंतं, सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च । विमल मणतं च जिणं, धम्मं संतिच वंदामि ॥३॥ कुं अरं च मलि, बन्दे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिनेमिं पासं तह वज्रमाणं च ॥४॥ एवं मएअभिथुआ, बिहुयरयमला पहीणजर मरणा । चवीप जिवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ कित्तिय वंदिय महिया, जे ए लोगस्स उत्तम सिद्धा । आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु ॥६॥ चंदे निम्मलयरा, आइचेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥७॥ " जयउ सामिय सूत्र जय सामिय जय सामिय रिसह सत्तुंजि, उज्जिति पहु नेमिजिण, जय वीर सच्चाउरिमंडण, भरुअच्छहिं मुणिसुव्वय, मुहरिपास | दुह दुरिअखंडण अवर विदेहि तित्थयरा, चिहुंदिसि विदिसि जि केवि तीआणागयसंपइअ बंदु जिण सव्वेवि ॥१॥ कम्मभूमिर्हि कम्मभूमिर्हि पढ़म संघयणि उक्कोसय सत्तरिसय जिणवराण विहरंतलम्भइ ; नवकोडिहि केवलीण, कोडिसहरस नवसाहु गम्मइ । संपइ १ लोगस्स में केवल चौबीस तीर्थकरों की स्तुति है । 947399५१देवतेप्रपश् Page #33 --------------------------------------------------------------------------  Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwww M Releasleshstairlitilakaitikalantalilaliashlilisanladlinesto aalotoda नयनतनननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननन ___जैन-रत्नसार जावंत केवि साहू सूत्र जावंत केवि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे अ । सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं ॥१॥ परमेष्ठि-नमस्कार नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यः ॥ . उवसग्गहरं-स्तोत्र* उवसग्गहरं-पासं, पासं वंदामि कम्म-घणमुक्कं । विसहर-विस-णिण्णासं, मंगल-कल्लाण-आवासं ॥१॥ विसहर-फुलिंगमंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्स गह-रोग-मारी-दुइ-जरा जंति उवसामं ॥२॥ चिट्ठउ दुरे मंतो, तुज्झ पणामोवि बहुफलो होइ । णर-तिरिएसुवि जीवा पावंति ण दुक्खदोगच्चं ॥३॥ तुह सम्मते लहे, चिंतामणि कम्पपाय वन्भहिए। पाबंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं ॥४॥ इस संथुओ महायस ! भत्तिब्भर-निब्भरेण हिअएण । ता देव दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ॥५॥ जय वीयराय सूत्र जय वीयराय ! जगगुरु !, होउ ममं तुह पभावओ भयवं ! भव-निव्वेओ मग्गा-गुसारिया इट्टफल-सिद्धी ॥१॥ * यह स्तोत्र चतुर्दशपूर्वधारी आचार्य भद्रबाहुजी का बनाया हुआ है जिसका प्रमाण कथाकार महाशय इस प्रकार देते हैं :उपसर्गहरस्तोत्रं कृतं श्री भद्रबाहुना । ज्ञानादित्येनं संघाय शान्तये मङ्गलाय च ॥ अर्थात् :-उपसर्गहरस्तोत्र श्री भद्रबाहु आचार्य जी ने संघ के मङ्गल व शान्ति के लिये बनाया। जय वीयराय, लोग विरुद्धचाभो इन दो गाथाओं से चैत्यवन्दन के अन्त में प्रार्थना म करने की परम्परा प्राचीन समय से है, जिसकी सिद्धि श्री हरिभद्रसूरिकृत चतुर्थ पश्चाशक गाथा । ३२-३४ से होती है। slika.ladakiilaalaplesasailableplisonlodlaloojoolak h ailoiletstatestlebstacalalsotitishsaladeobestastratikskitatistate कानपत्रमनत्रनप्र मजयननननननननननननन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.1 ا * ,4 , ول ا يالالالالالالالالالالالالالالالالالالالالالالال ا لظلال والا ا ول ا ا सूत्र विभाग लोग-विरुद्धच्चाओ, गुरुजण-पूआ परत्थकरणं च । सुह-गुरु-जोगो तव्वयण-सेवणा आभवमखंडा ॥२॥ अरिहंत चेइयाणं सूत्र अरिहंत चेइयाणं करेमि काउसग्गं वंदणवत्तियाए, पूअणवत्तियाए, सकारवत्तियाए सम्माणवत्तियाए, बोहिलाभवत्तियाए, निरुवसग्गवत्तियाए सडाए, मेहाए, घिईए, धारणाए, अणुप्पेहाए, वड्डमाणीए, ठामि काउसग्गं॥ आचार्य आदि को वंदन १ आचार्यजी मिश्र २ उपाध्यायजी मिश्र३ जंगम युग प्रधान भट्टारक मिश्रल ४ सर्व साधु मिश्र। सव्वस्सवि सूत्र सव्वस्सवि देवसिअ दुचिंतिय दुब्भासिअ दुचिट्ठिय तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ इच्छामि ठामि सूत्र ___इच्छामि ठामि काउसग्गं । जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काइओ, वाइओ+ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पोअकरणिज्जो दुझाओ दुविचिंतिओ अणायारो अणिच्छिअव्वो असावग-पाउग्गो नाणेतह दंसणे चरित्ताचरित्ते सुए सामाइए ; तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हमणुव्वयाणं तिहं गुणव्वयाणं चउण्हं सिक्खावयाणं बारसविहरस सावगधम्मरस जं खंडिअं जं विराहिअं तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ पुक्खर-वर-दीवड्ढे सूत्र पुक्खर-वर-दीवड्डे, धायइ-संडे अ जंबुदीवे अ। भरहेरवयविदेहे धम्माइगरे नमसामि ॥१॥ तम-तिमिर-पडल-विद्धंसणरस सुरगण-नरिंद महियरस । सीमाधररस वंदे, पप्फोडिअ-मोह-जालरस ॥२॥ । पर्नमान श्री पूज्या का नाम लेकर। माओ पाओ के पाठ में चाग, मन की सुक्ष्म आलोचना है। पुष्पग्यरदी में जान की म्नुनि है। Listratimarathtobahbkoseshathoastalotadeathstodalaalaakhootokulesonasiatooloota'shakstattirthatahalatakatantal i ...10.10t.................... Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ othe ८ b b b b b b b b b bb जैन-नसार जाई - जरा-मरण - सोग-पणासणस्स । कल्लाणपुक्खल-विसाल-सुहावहस्स || को देव-दानव नरिंद - गणच्चियस्स | धम्मस्स सार मुवलब्भ करे पमायं ! || ३ | सिद्धे भो । पयओ णमो जिण मए गंदी सया संजमे । देवं नाग सुवन्न किण्णर गणरसन्भूअ भावच्चिए ॥ लोगो जत्थ पइडिओ जगमिणं तेलुक्क मच्चासुरं । धम्म वडूउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वड्डर ||४|| सुअरस भगवओ करेमि काउरसग्गं । सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र* सिद्धाणं बुद्धाणं, पारगयाणं, परंपरगयाणं । लोअग्गमुवगयाणं, णमो सयासत्व सिद्धाणं ||१|| जो देवाणवि देवो, जं देवा पंजली णमं संति । तं देव देव-महिअं, सिरसा बंदे महावीरं ||२|| इक्कोवि णमोकारो, जिणवर वसहरस वद्धमाणस्स । संसार सागराओ, तारेइ नरं व नारिं वा ॥ ३ ॥ उर्जित * सिद्धाणं बुद्धाणं की पूर्व गाथामे सिद्धोंकी स्तुति है । दूसरी व तीसरी गाथा में भगवान महावीर की स्तुति है। चौथी में श्री नेमिनाथजी की स्तुति है। पांचवी में चौवीसों की स्तुति है । सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र में अन्त की दो गाथायें सम्मिलिति करने का प्रमाण निम्नलिखित कथा से पाया जाता है : हस्तनागपुर निवासी धनसेठ एक समय गिरनार पर्वत पर संघ समेतं यान्त्रार्थ गया । भगवान नेमिनाथजी की प्रतिमा को उसने वस्त्र, आभूषण, पुष्प, माला तथा सुगन्धित द्रव्यों से अष्टप्रकारी पूजा तथा अंगिया रची। उसी समय महाराष्ट्र देश का मलयपुर नगर वासी दिगम्बर मतानुयायी वरुण नामका सेठ भी संघ सहित वहां आया। धनसेठ द्वारा कृत प्रभु पूजा को देख, उसने द्वेषवश सम्पूर्ण पूजा सामग्री उतार, फिर से प्रभु का प्रक्षालन किया। इससे दोनों में वादाविवाद होने लगा । और दोनों निर्णयार्थ विक्रम राजा के गिरिनगर (गुजरात प्रदेश ) में आये। रात्रि में धनसेठ को शासन देवी प्रगट हुई और उसने अन्त की दो गाथायें (उज्जित सेल सिहरे, चत्तारि अट्ठ दस दो ) देकर कहा कि यह मेरे प्रभाव से तुम्हारे संघ में सब छोटे, वड़ों को याद हो जायेंगी । और यही राजसभा में प्रमाण स्वरूप काम आयेंगी। ऐसा ही हुआ । राजा ने धनसेठ का पक्ष प्रवल जान, श्वेताम्बर तीर्थ की घोषणा कर दी। तभी से यह दोनों गाथा प्रतिक्रमण में सम्मिलित कर दी गई । ( श्री आत्मप्रवोध पृ० ६५ - प्रकाशक श्री जैन आत्मानन्द सभा भावनगर । ) A ď ď ď ď ď ď J JAAS Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग सेलसिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिआ जस्स । तंधम्मचक्रवहिं, अरिनेमिं नमं सामि ॥४॥ चचारि अट्ठ दस दोय, वंदिया जिणवराचउव्वीसं । परमट्ठ निट्ठि अड्डा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥५॥ वेयावच्चगराणं सूत्र ε वेयावच्चगराणं संतिगराणं सम्मद्दिट्ठि समाहिगराणं करेमिकाउसग्गं । अन्नत्थ• इत्यादि ॥ सुगुरु वन्दन सूत्र इच्छामि खमासमणो ! बंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए अणुजाणह मे मिउग्गहं । निसीहि, अहोकायं काय संफासं । खमणिज्जो भे किलामो । अप्प किलंताणं बहुसुभेणभे दिवसो वइक्कतो ? जत्ता भे ? जवणि ज्जं च भे? खामेमि खमासमणो! देवसिअं वइक्कमं । आवरिसआए पडिक्कमामि । खमासमणाणं देवसिआए आसायणाए तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिच्छाए मण दुक्कडाए बय दुक्कडाए काय दुक्कडाए कोहार माणाए माया लोभाए सव्व कालियाए सव्व मिच्छोवयोराए सव्व धम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ तरस खमासमणो ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । आलोउं सूत्र' इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! देवसिअं आलोउं । इच्छं । आलोएमि आलोयणा आजुणा चार पहर दिवस में मैंने जिन जीवों की विराधना की हो । सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अप्पकाय, सात लाख तेउकाय, सात लाख वाउकाय, दस लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण वनस्पति १ प्रतिक्रमण में इस सूत्र से मुखवस्त्रिका ( मुंहपत्ति ) चरवले (पुंजनी) के ऊपर रख उसे गुरु चरण स्थापना जान वन्दन किया जाता है। विशेष जानने के लिये आवश्यक निर्युक्ति देखें 1 २ यह पाठ सम्पूर्ण पृष्ठ ७ में है । ३ इस सूत्र में खड़े होकर चौरासी लाख जीवायोनि की आलोयणा की जाती है । 2 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ trobacter testetet Sosto tootector testactutterfretetet to taste जैन - रत्नसार १० काय, दो लाख बेइन्द्रिय, दो लाख तेइन्द्रिय, दो लाख चौइन्द्रिय, चार लाख. देवता, चार लाख नारक, चार लाख तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय, चौदह लाख मनुष्य । कुल चौरासी लाख जीवयोनियों में से किसी जीव का मैंने हनन किया हो, कराया या करते हुएका अनुमोदन किया हो वह सब मन, वचन, काया करके मिच्छामि दुक्कडं । अठारह पापस्थानक आलोयणा' पहला प्राणातिपात, दुसरा सृषावाद, तीसरा अदत्तादान, चौथा मैथुन, पांचवां परिग्रह, छठा क्रोध, सातवां मान, आठवां माया, नववां लोभ, दशवां राग, ग्यारहवां द्वेष, बारहवां कलह, तेरहवां अभ्याख्यान, चौदहवां पैशुन्य, पन्द्रहवां रतिअरति, सोलहवां पर परिवाद, सत्रहवां माया मृषावाद, अठारहवां मिथ्यात्वशल्य, इन पापस्थानों में से किसी का मैंने सेवन किया, कराया या करते हुए को अनुमोदन किया हो वह सब मन, वचन, काया करके मिच्छामि दुक्कडं । ज्ञानोपकरणों की आलोयणार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, पाटी, पोथी, ठवणी, कवली, नवकरवाली, देव, गुरु, धर्म की आशातना की हो, पन्द्रह कर्मादानों की आसेवना की हो, राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, भुक्त ( भोजन ) कथा की हो, और जो कोई पर निन्दादि पाप किया हो, कराया हो, करते हुए का अनुमोदन किया हो सो सब मन, वचन, काया करके मिच्छामि दुक्कडं । पोसह संध्या अतिचार । ठाणे कम चकम आउत्ते अणाउते हरियक्काय संघट्टे बीयकाय संघट्ट थावरकाय संघट्टे छप्पइया संघट्टे सव्वरसवि देवसिय दुच्चितिय दुभासिय चिट्ठिय इच्छाकारेण संदिसह भगवन् इच्छं तरस मिच्छामि दुक्कडं । १ प्रतिक्रमणमें इस सूत्र द्वारा खड़े होकर अठारह पापस्थानोंकी आलोयणा की जाती है । २ इस पाठ के द्वारा प्रतिक्रमणमें खड़े होकर ज्ञान तथा दर्शन के उपकरणों की आलोयणा की जाती है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *ka.se.sadimektmkocketkickashatithobbatoudginderabobabissionibJwlewlandi.kasta koreio. inis impleestore सूत्र विभाग पोसह रात्रि अतिचार संथारा उवट्टणकी आउट्टणकी परिअट्टणकी पसारणकी छप्पइआ संघट्टण की अचक्खु विसय कायकी, सव्वस्सवि राइअ दुञ्चितिय दुब्भासिय दुच्चिट्ठिय इच्छाकारेण संदिसह भगवन् तस्स मिच्छामि दुक्कडं। श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र वंदित्तु सव्वसिद्धे, धम्मायरिए असच साहूअ । इच्छामि पडिक्कमिउं, सावगधम्माइ आररस ॥१॥ जो मे क्याइआरो, नाणे तहदसणे चरित्ते अ। सुहुमो अ वायरो वा, तंणिंदे तं च गरिहामि ॥२॥ दुविहे परिग्ग- हम्मि सावज्जे बहुविहे अ आरंभे । कारावणे अ करणे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥३॥ जं बह मिंदिएहि, चउहिं कसाएहि अप्पसत्थेहिं । रागेण व दोसेण व, तंणिंदे तंच गरिहामि ॥४॥ आगमणे निग्गमणे, ठाणे चंकमणे (य) अणाभोगे । अभिओगे अ निओगे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥५॥ संका कंख विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु । सम्मत्तस्सइआरे, पडिक्कमे देसियं सव्वं ॥६॥ छक्काय समारंभे, पयणे अ पयावणे अ जे दोसा । अत्तट्ठा , य परट्ठा, उभयट्ठा, चेव तंणिंदे॥७॥ पंचण्ह मणुव्वयाणं, गुणव्वयाणं च तिण्हमइआरे । सिक्खाणं च चउण्हं, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥८॥ पढमे अणुव्वयम्मि, थूलग पाणाइ वाय विरईओ । आयरि अ मप्पसत्ये, इत्य पमायप्पसंगेणं ॥९॥ वह बंध छविच्छेए, अइभारे भत्त पाणवुच्छेए । पढम वयस्स इआरे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥१०॥ बीए अगुव्ययम्मि, परिथूलग ,अलियवयण विरईओ ।आयरिअ मप्पसत्ये, इत्य पमाय प्पसंगेणं ॥११॥ सहसा रहरसदारे, मौसुवएसेअ कूडलेहेअ । बीय वयस्सइआरे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥१२॥ तइए अणुव्वयम्मि, थूलग परदव्व हरण विरईओ। आयरिअ मप्पसत्थे, इत्य पमाय प्पसंगेणं ॥१३॥ तेना हडप्पओगे, तप्पडिस्वे विरुद्ध गमणे अ। कुडतुल कूडमाणे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥१|| चउत्थे अणुध्वयम्मि, . Habidhbishnakulatathakha.kaparkasatboshdot.kota.kaiteoboatokhaohdalaalobalasahtalkoHYasrdbolesolakhattisgarl.letri.inletetlesolital. ranidish. t इस वंदित्तु सूत्र से दाहिना घुटना खड़ा करके श्रावक सम्बन्धी बारह व्रतों की आलोयणा की जाती है। he Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैन-रत्नसा णिच्चं परदारगमण विरईओ । आयरिअ मप्पसत्ये, इत्थ पमाय प्यसंगेणं ॥ १५॥ अपरिग्गहिआ इत्तर, अनंग विवाह तिव्व अणुरागे । चउत्थ वयस्सइआरे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ १६ ॥ इत्तो अणुव्व पंचमम्मि, आयरिअ मप्पसत्यम्मि । परिमाणं परिच्छेए इत्थ पमाय प्पसंगेणं ॥ १७ ॥ धण धन्न वित्त वत्थू रुप्प सुवण्णेअ कुविअ परिमाणे दुपए चउप्पयम्मिय पडिक्कमे देसिअं सव्वं ||१८|| गमणस्स उपरिमाणे दिसासु उड्डुं अहेअ तिरिअं च । बुड्ड सइ अंतरा, पढमम्मि गुणव्वए शिंदे || १९|| मज्जम्मिअ मंसम्मिअ, पुप्फेअ फलेअ गंधमल्लेअ । उवभोग परिभोगे, बीयम्मि गुणव्वए णिदे ||२०|| सच्चित्ते पडिबडे, अप्पोलि दुप्पोलिअं च आहारे । तुच्छोसहि भक्खणया, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ २१॥ इंगाली वण साडी, भाडी फोडी सुवज्जए कम्मं । वाणिज्जं चेव य, दंत लक्ख रस केस विस विसयं ॥ २२ ॥ एवं खुज्जंतं पिल्लण कम्मं निल्लछणच दवदाणं । सरदह तलायसोसं असई पोसंच वज्जिज्जा ॥ २३ ॥ सत्यग्गि मुसलजंतग, तण कट्ठे मंत मूल भेसज्जे । दिण्णे दवाविए वा, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ||२४|| न्हाणु वट्टणचष्णग, विलेवणे सद्द रूव रस गंधे । वत्थासण आभरणे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥२५॥ कंदप्पे कुक्कुइए, मोहरि अहिगरण भोग अइरिते । दंडम्मि अाए तइयम्मि, गुणव्वए णिदे ॥ २६ ॥ तिविहे दुप्पणिहाणे, अणवद्वाणे तहासविहुणे । सामाइय बितहकए, पढम् सिक्खावर णिंदे ||२७|| आणवणे पेसवणे, सद्दे रूबे अ पुग्गलक्खेवे । देसावगासिअम्मि, बीए सिक्खावए शिंदे ॥२८॥ संथारुच्चारविही, पमाय तहचेव भोयणाभोए । पोसह विहि विव ए तड़ ए सिक्खाबए र्णिदे ॥ २९ ॥ सच्चित्ते णिक्खिवणे, पिहिणे ववए समच्छरे चैव । कालाइ क्कमदाणं, चउत्थे सिक्खावए णिदे ॥ ३० ॥ सुहिए अहि अ, जा मे अस्संजएस अणुकंपा । रागेण व दोसेण व, तंणिदे तं च रिहामि ||३१|| साहूसु संविभागो, न कओ तव चरण करण जुत्तेसु । * देसि सत्र के स्थान पर राई, पक्खी, चौमासी, सम्वत्सरी, प्रतिक्रमणों में राइम, पक्सि चौमासिअं सम्वत्सरिमं सव्वं कहना चाहिये । के के ‌काल Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Balabhbisabbideobabootatoskathabana a sho सूत्र विभाग * संते फासुअ दाणे, तंगिंदे तं च गरिहामि ॥ ३२ ॥ इहलोए परलोए, जीविअ मरणेअ, आसंस पओगे । पंचविहो अइयारो मामझं हुञ्जमरणंते ॥३३॥ काएण काइअस्स, पडिकम्मे वाइअस्स वायाए । मणसा माणसिअरस, सव्वस्स वयाइआरस्स ॥३४॥ वंदणवय सिक्खा गारवेसु सन्ना कसाय दंडेसु । गुत्तीसु अ समिई सुअ, जो अइआरो अ तंणिंदे ॥३५|| सम्मद्दिट्टीजीवो, जइवि हु पावं समायरइ किंचि । अप्पोसि होइ बंधो, जेण न निबंधसं कुणइ ॥३६॥ तं पि हु सपडिक्कमणं, सप्परिआवं सउत्तर गुणं च । खिप्पं उवसामई, वाहिव्व सुसिक्खिओ विज्जो ॥३७॥ जहा विसं कुठ गयं, मंतमूल विसारया। विज्जा हणंति मंतेहिं, तोतं हवइ निविसं ॥३८॥ एवं अट्ठविहं कम्मं, राग दोस समज्जिअं । आलोअंतो अ णितो, खिप्पं हणइ सुसावओ ॥३९॥ कय पावोवि मणुस्सो, आलोइअ णिदिअ य गुरु सगासे । होइ अरेग, लहुओ ओहरि अ भरुव्व भारवहो ॥४०॥ आवस्स एण एएण सावओ जइवि बहुरओहोइ । दुक्खाण मंत किरिअं, काही अचिरेण कालेण ॥४१॥आलोअणा बहुविहा,नय संभरिआपडिक्कमणकाले । मूलगुण उत्तरगुणे, तंणिंदे तं च गरिहामि ॥४२॥ तस्स धम्मस्स केवलि पण्णत्तस्स, अब्भुडिओमिछ आराहणाए, विरओमि विराहणाए। तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥ ४३ ॥ जावंति चेइआई, उड्डेअअहे अ तिरिअ लोएअ । सव्वाइं तांइ वंदे, इह संतो तत्थ सताई ॥ १४ ॥ जावंत के वि साहू, भरहे रवय महाविदेहेअ । सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड विरयाणं ॥४५॥ चिरसंचिय पाव, पणासणीइ भव सय सहस्स महणीए । चउवीस जिण विणिग्गय, कहाइ वोलंतु मे दिअहा ॥४६॥ मम मंगल मरिहंता, सिद्धा साहू सुअं च धम्मोअ । सम्मट्ठिी देवा, दिंतु समाहिं च बोहिं च ॥४७॥ पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाण मकरणे पडिक्कमणं । असद्दहणे अ तहा, विवरीय परूवणाए अ ॥४८॥ खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्वभूएसु, वरं मझं न केणई ॥४९॥ एवमहं P'-tmlannilointmlatantrtainmantrastintaintairtelefantawasakarmkatastakikokhtstatutetotstartistatutahatashatratikokhalakatatataakstatisthakathstantristsktopattesterstocolatsetoredeshntalidaias kanatiotishtoshdoohadashilaihnhinilayoniliahilasathiyasahtiktakaabhaaskotatorikakhatimes * यहां से सम्पूर्ण खड़े होकर ही पढ़ना चाहिये। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dolakstaalaakaashakakakakatestakedakotkayastotravashanakasakanane kataarakistakali-jajaJioJiske lonline.Jindaisonksh kase जैन-रत्नसार USaecseDaia Tanviwwwwwwww Sek a sh Arketistkhatahkaloretataalaakadantestakothashtankatthalatasthmattatolarasathida latestaulasattactabletscatadahalsksebaloparkaseedkadashtolasalastasiasmastrate आलोइअ, णिदिय गरहिअ दुगंछिउं सम्मं । तिविहेण पडिक्कतो, बंदामि जिणे चउच्चीसं ॥५०॥ आयरिअ उज्झाए सूत्र । आयरिअ उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे अ । जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥१॥ सव्वस्स समण संघस्स भगवओ अंजलिं करिअ सीसे । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वरस अहयंपि ॥२॥ सव्वस्स जीवरासिरस, भावओ धम्म निहिअ निअचित्तो । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयंपि ॥३॥ चैत्यनमन स्तोत्र सद्भक्त्या देवलोके रवि शशि भवने व्यन्तराणां निकाये, नक्षत्राणां । निवासे ग्रहगण पटले तारकाणां विमाने। पाताले पन्नगेन्द्रे स्फुटमणि किरणै वस्त सान्द्रान्ध कारे, श्रीमतीर्थङ्कराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि बन्दे ॥१॥ वैताब्ये मेरुशृङ्गे रुचक गिरिवरे कुण्डले हस्तिदन्ते, वक्खारे क्रूट नन्दीश्वरकनकगिरी नैषधे नीलवन्ते। चैत्रे शैले विचित्रे यमक गिरिवरे चक्रवाले हिमाद्रौ, श्रीमत्तीर्थङ्कराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वन्दे ॥२॥ श्रीशैले। विन्ध्यशृङ्ग विमलगिरिवरे ह्यर्बुदे पावके वा, सम्मेते तारके वा कुलगिरिशिखरेऽष्टापदे स्वर्ण शैले । सह्याद्री वैजयन्ते विमलगिरिवरे गुर्जरे रोहणाद्रौ, श्रीमत्तीर्थङ्कराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वन्दे ॥३॥ आघाटे मेदपाटे क्षिति तट मुकुटे चित्रकूटे त्रिकूटे, लाटे नाटे च घाटे विटपिघनतट हेमकूटे विराटे । कर्णाटे हेमकूटे विकट तरकटे चक्र कूटे च भोटे, श्रीमत्तीर्थङ्कराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वन्दे ॥४॥ श्रीमाले मालवे वा मलयिनि निषधे मेखले पिच्छले वा नेपाले नाहले वा कुवलय तिलके सिंहले केरले वा। डाहाले a कोशले वा विगलित सलिले जङ्गले वाढमाले श्रीमत्तीर्थङ्कराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वन्दे ॥५॥ अङ्गे बङ्गे कलिङ्गे सुगत जनपदे सत्प्रयागे तिलंगे प्रतिक्रमण में इस सूत्र द्वारा, खड़े होकर, अंजली जोड़ तथा सिर नवा सकल श्रमण सड़ (मुनि समुदाय ) से क्षमा याचना की जाती है। a ntestatistkhatarnalisttikaltatiseeltinikNehtatiadeok.comlatatutiseolaletastellationnaissohagraatriarlxnxmportant নক্ষত্মণবশ্বস্বশ্বম্বন্বন্বন্বন্বন্বন্দ্ৰন্থৰ্বশ্বম্বন্বষধদ্বম্বস্বত্ব স্বপ্ন Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग १५ गोडे चौडे मुरण्डे वरतर द्रविडे उद्रियाणे च पौण्ड्र । आद्रे माद्रे पुलिन्द्रे द्रविड कवलये कान्यकुजे सुराष्ट्र, श्रीमतीर्थङ्कराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वन्दे||६|| चन्द्रायां चन्द्रमुख्यां गजपुर मथुरा पत्तने चोज्जयिन्यां, कोशाम्ब्यां कोशलायां कनकपुरवरे देवगियांच काश्याम् । नासिक्ये राजगेहे दशपुर नगरे भद्दिले ताम्रलिप्त्यां श्रीमत्तीर्थङ्कराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वन्दे ||७|| स्वर्गे मर्त्येऽन्तरिक्षे गिरि शिखर हृदे खर्ण दीनीरतीरे शैलाग्रे नागलोके जल निधि पुलिने भूरुहाणां निकुजे । ग्रामेऽरण्ये वने वा स्थलजल विषमे दुर्गमध्ये त्रिसन्ध्यं श्रीमतीर्थङ्कराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वंदे ॥ ८ ॥ श्रीमन्मेरी कुलान्द्रौ चक नगवरे शाल्मली जम्बुवृक्षे, चोज्जन्ये चैत्यनन्दे रतिकर रुचके कौण्डले मानुपाङ्के । इक्षुकारे जिनाही च दधिमुखगिरौ व्यन्तरे स्वर्गलोके, ज्योतिर्लोके भवन्ति त्रिभुवन वलये यानि चैत्यालयानि ||९|| इत्थं श्रीजैन चैत्य स्तवनमनुदिनं ये पठन्ति प्रवीणाः, प्रोद्यत्कल्याण हेतु कलिमल हरणं भक्तिभाजस्त्रिसन्ध्यम् । तेषां श्रीतीर्थयात्रा फल मतुल मलं जायते मानवानां, कार्याणां सिद्धिरुच्चैः प्रमुदितमनसां चित्तमानन्दकारि ॥१०॥ श्री तीर्थमाला स्तवन ܀ शत्रुंजय ऋषभ समोसरचा, भला गुण भरया रे । सीधा साधु अनन्त तीरथ ते नमुरे ॥ तीन कल्याणक तिहां थयां, मुगते गया रे । नेमीसर गिरनार ती० ॥१॥ अष्टापद एक देहरा गिरिसेहरो रे । भरते भराव्या बिम्ब ॥ ती० ॥ $-. आबू चौमुख अति भलो, त्रिभुवन तिलो रे । विमलवस वस्तुपाल || ती० ॥ २ ॥ समेत शिखर सोहामणी, रलियामणो रे। सीधा तीर्थंकर बीस ॥ नयरी चम्पा निरखियें, हिये हरखीयें रे । सीधा श्रीवासुपूज्य || ती० ॥३॥ पूर्व दिशें पावापुरी, रिद्धे भरी रे । मुक्ति गया महावीर ॥ ती० ॥ जेसलमेर जुहारीयें, दुःख वारीये रे । अरिहंत विम्व अनेक || ती० ||४|| बीकानेरज वंदीये. चिर नंदीये रे । अरिहंत देहरा आठ ॥ ती० ॥ मोतिरी नवे पंचागे रे । फलोधी थंभणपास || ती० || ||५|| ४६ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Assamesishtathందుకనవంచుతుండడంతం తదిచందనందనుచు धानमनत्रनयननननननननननननननननननन्त्रतत्र प्रश्रम मन्त्रण प्रनयनत्रवन नन्नयन्त्रणमनननननननननननननननननननननननन्त्रप्रनयमानमत्र १६ . जैन-रत्नसार अंतरीक अंजावरो, अमीझरो रे । जीरावलो जगनाथ ॥ ती० ॥ त्रैलोक्यदीपक देहरो जात्रा करो रे । राणपुरे रिसहेस ॥ ती० ॥ ॥६॥ | श्री नाडुलाई जादवो, गौडी स्तवो रे । श्री वरकाणो पास ॥ ती० ॥ नंदीश्वरनां देहरां, बावन भला रे । रुचक कुंडल चारू चार ॥ ती० ॥७॥ शाश्वती अशाश्वती, प्रतिमा छती रे । स्वर्ग मृत्यु पाताल ॥ ती० ॥ तीरथ जात्रा फल तिहां, होजो मुझ इहां रे । समयसुंदर कहे एम॥ती०॥८॥ तीर्थ वन्दना सकल तीर्थ वंदकर जोड़, जिनवर नामे मंगल कोड़। पहले खर्गे लाख बत्तीस, जिणवर चैत्य नमूनिश दीस ॥१॥ बीजे लाख अठ्ठाविश कह्या, तीजे बार लाख सरदह्या । चौथे स्वर्गे अडलख धार, पांचमे वन्दु लाख जो चार ॥२॥ छठे स्वर्गे सहस पचास, सातमे चालीस सहस प्रसाद। . आठमे स्वर्गे छ हजार, नव दशमे वन्दु शत चार ॥३॥ इग्यार बारमें त्रणसें सार, नववेके त्रणसें अढ़ार । पांच अनुत्तर सर्वे मली, लाख चोराशी अधिकां वली ॥४॥ सहस सत्ताणू त्रेवीस सार, जिनवर भवन तणों अधिकार । लांबा सो जोजन विस्तार, पचास ऊंचा बोहोत्तर धार ॥५॥ एक सो अस्सी बिम्ब परिमाण, सभा सहित एक चैत्ये जाण । सो कोड बावन कोड सम्भाल, लाख चौराणू सहस चौआल॥६॥ सातमें ऊपर साठ विसाल, सवि बिम्ब प्रणमूत्रणकाल । सातकोंड ने बहोत्तर लाख, भुवनपति मां देवल भाख ॥७॥ एक सो अस्सी बिम्ब परिमाण, इक इक चैत्ये संख्या जाण । तेरसे कोड नव्यासी कोड, साठ लाख वन्दुकर जोड़ ॥८॥ बत्रीशेने ओगण साठ, तिर्खा लोक मां चैत्य नो पाठ । तीन लाख एकाणू हजार, तीनसें वीश ते बिम्ब जुहार ॥९॥ * इन स्तोत्रों से समस्त तीर्थों को वन्दन किया जाता है। Pulemalingirmlena Shahela karnalianloginasteb halnoliolicitorialistiantalilhelirrelichetak thilihaliniche ininindinehaliniinhalinisliliabhikinirlinhinleadiati, kehindi-liolini-boisatirlini -Milichikiolinisliliantonylist -ITa n y Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग व्यंतर ज्योतिष मां वली जेह, शाश्वता जिन वन्दु हूं तेह | ऋषभ चन्द्रानन वारिषेण वर्द्धमान नामे गुणसेण ॥ १०॥ समेत शिखर बन्दू जिणवीस, अष्टापद वन्दु हूं चौवीस | विमला चलने गढ़गिरनार, आबू ऊपर जिनवर जुहार ॥११॥ शंखेश्वर केसरियो सार, तारंगे श्री अजित जुहार । अंतरीक वरकाणो पास, जीरावलोने थम्भण पास ॥१२॥ गाम नगर पुर पाटण जेह, जिनवर चैत्य नमू ं गुणगेह । विहरमान वन्दू' जिनवीस, सिद्ध अनंत नमूं निशदीस ||१३|| अढ़ीद्वीप मां जे अणगार, अढ़ार सहस सिलांगनाधार । पञ्च महाव्रत समिति सार, पाले पलावे पञ्चाचार ||१४|| बाह्य अभ्यन्तर तप उजमाल, ते मुनि वन्दु गुणमणिमाल । नित नित उठी कीरति करूं, 'जीव' कहे भवसागर तरूं ॥ १५ ॥ N १७ वीर स्तुति * परसमय तिमिर तरणिं, भवसागर वारि तरण वर तरणिम् । रागपराग समीरं, वन्दे देवं महावीरम् ||१|| निरुद्ध संसार विहारकारि, दुरन्त भावारि - गणा निकामम् । निरन्तरं केवल सत्तमावो, भयावहं मोहभरं हरन्तु ॥२॥ संदेह कारि कुनयागम रूढगूढ़ संमोह पङ्क हरणामल वारिपूरम् । संसारसागर समुत्तरणोरुनावं, वीरागमं परमसिद्धिकरं नमामि ॥३॥ परिमल भरलोभा लीढ़ लोलालिमाला, वर कमलनिवासे ! हारनी हारहासे ! अविरल भवकारा गारविच्छित्तिकारं, कुरुकमल करे मे मङ्गलं देवि सारम् ||४|| वीर स्तुति संसार दावानल दाहनीरं, संमोह धूलीहरणेसमीरं । माया रसादारण सारसीरं, नमामि वीरं गिरिसारधीरम् ||१|| भावा बनाम सुर दानव मानवेन, चूला विलोलकमला वलिमालितानि । संपूरिताभि नत लोक, समीहितानि । कामं * स्त्रियों को प्रातः काल के प्रतिक्रमण में संसारदावा की जगह यही स्तुति कहनी चाहिये Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ వి డుదల చదవడabhatshathallilah రులుండashtakshasailarshakthitaha datalabట్టి जैन-रत्नसार Ratalathalalkedishhinalaigatotalalalalaataalisanilialistastronlinetohathistosaning नमामि जिनराज पदानि तानि॥२॥ बोधागाधं सुपदपदवी, नीर पूराभिरामं । जीवाहिंसा विरल लहरी, सङ्गमागाह देहं । चूलावेलं गुरुगममणी, संकुलं दुरपारं । सारं वीरागम जलनिधि, सादरं साधु सेवे ॥३॥ आमूला लोलधूली बहुल परिमला, ली, लोलालिमाला । झंकारा रावसारा मल दल कमला, गारभूमि निवासे ! छाया संभार सारे ! वरकमल करे ! तार हाराभिरामे ! वाणीसन्दोह देहे ! भव विरह वरं देहि मे देवि ! सारम् ॥ell सामायिक पारण सूत्र* भयवं दसण्णभद्दो । सुदंसणो थूलभद्द वइरो य । सफली कय गिहचाया। साहु एवं विहाहुँति ॥१॥ साहूण वंदणेणं । णासइ पावं असं किया भावा । फासुअ दाणे निज्जर । अभिग्गहो णाण माईणं ॥२॥ छउके मत्थो मूढमणो । कित्तिय मित्तंपि संभरइ जीवो॥ जं च ण संभरामि अहं । मिच्छामि दुक्कडं तस्स ॥३॥ जं जं मणेण चिंतिय मसुहं वायाइ भासियं किंचि । असुहं काएण कयं । मिच्छामि दुक्कडं तस्स ||४|| सामाइय पोसह संठियस्स । जीवस्स जाइ जो कालो ॥ सो सफलो बोधव्यो । सेसो संसार फलहेउ ॥५॥ सामायिक विधि से लिया, विधि से किया, विधि करते अविधि आशातना लगी हो, दस मनके, दस वचनके, बारह काया के इन बत्तीस दोषोंमें से जो कोई दोष लगा हो, वे सब मन, वचन, काया करके मिच्छामि दुक्कडं ॥ श्री अभयदेव सूरिकृत जयतिहुअण जय तिहुअण वर कप्परुक्ख, जय जिण धण्णंतरी। जय तिहुअणकल्लाण कोस, दुरियक्करि केसरी ॥ तिहुअण जण अवलंधिआण, भुर्वण त्तय • सामिय । कुणसु सुहाइ जिणेस पास, थंभणय पुरहिय ॥१॥ तइ समरंत लहंति झत्ति, वर पुत्त कलत्तइ । धण्ण सुवण्ण हिरण्ण पुण्ण, जण मुंजइ * इसकी पहली गाथामें भगवान दशार्णभद्रादि साधुओंको वन्दन है दूसरीमें साधुओंको वन्दन और शुद्ध आहार देनेका फल तीसरी और चौथी गाथामें जो कुछ अनजानपनेसे याद न रहा हो तथा मन, वचन, काय द्वारा अशुभ चिन्तन सामायक में किया हो उसका पश्चात्ताप है। -1-61-AA Yakstantitiotolatakatarkastaskitalentistatestraha r sat Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ekatanakasatant-taraatstatratataataatthdarantetaketstatestoshdootadalaatalaokardaadalatatalaloocolatestadost wwwmaraamarewwwwwwwwwwwwwwwwwwww rowinwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Inintaminataramananewwwintantantinutaklalalantatinath-lawtarinfriotatololatantrike evaahetantant सूत्र विभाग रज्जइ ॥ पिक्खइ मुक्ख असंख सुक्ख, तुह पास पसाइण । इस तिहुअण 1. वर कप्परुक्ख, सुक्खइ कुण मह जिण ॥२॥ जर जज्जर परिजुण्ण कण्ण, नठुट्ठसुकुठिण। चक्खुक्खीण खएण खुण्ण, नर सल्लिय सूलिण॥तुह जिण सरण रसायणेण, लहु हुँति पुणण्णव । जय धण्णंतरी पास महवि, तुह। रोग हरो भव ॥३॥ विजा जोइस मंत तंत सिद्धिउ अपयत्तिण । भुवणऽब्भुअ अट्ठविह सिडि, सिज्झहि तुह णामिण ॥ तुह णामिण अपवित्तओवि, जण होइ पवित्तउ । तं तिहुअण कल्लाण कोस, तुह पास णिरुत्तउ ॥४खुद्द | में पउत्तइ मंत तंत, जंताई विसुत्तइ ।चर थिर गरल गहुग्ग खग्ग, रिउ वग्गवि गंजइ ॥ दुत्थिय सत्थ अणत्थ पत्थ, णित्थारइ दय करि । दुरियइ हरउ स पास देउ, दुरियक्करि केसरि ॥५॥ तुह आणा थंभेइ भीम, दप्पुटर सुर. वर रक्खस जक्ख फणिंद विंद, चोराणल जलहर ॥ जल थल चारि रउद्द खुद्द, पसु जोइणि जोइय । इय तिहुअण अविलंघिआण, जय पास सुसामिय ॥६॥ पत्थिय अत्थ अणत्थ तत्थ, भत्तिब्भर णिन्भर । रोमं चंचिय चारु काय, किण्णर णर सुर वर ॥ जसु सेवहि कम कमल जुयल, पक्खालिय कलि मलु । सो भुवण त्तय सामि पास, मह मद्दउ रिउ बलु ॥७॥ जय जोइय मण कमल भसल, भय पंजर कुंजर । तिहुअण जण आणंद चंद, भुवण त्तय दिणयर ॥ जय मइ मेइणि वारिवाह, जय जंतु पियामह । थंभणयट्ठिय पासणाह, णाहत्तण कुण मह ॥८॥ बहुविह वण्णु अवण्णु सुण्णु, वण्णिउ छप्पण्णिहि । मुक्ख धम्म कामत्थ काम, गर णिअ णिअ सत्थिहि॥जं झायहि बहुदरिसणस्थ, बहु णाम पसिद्धउ । सो जोइय मण कमल भसल, सुहुपास पवडउ ॥९॥ भय विन्भल रणझणिर दसण, थरहरिय सरीरय । तरलिय णयण विसण्ण सुण्ण, गग्गर गिर करुणय ॥ तइ सहसत्ति सरंत हुंति, णर णासिय गुरु दर । मह विझव सझसइ पास, भय पंजर कुंजर ॥१०॥ पइं पासि वियसंत णित्त, पत्तंत पवित्तिय । वाह पवाह पबूढ़ रूढ, दुह दाह सुपुलइय। मण्णइ मण्णु सउण्णु : पुण्णु, अप्पाणं सुरणर। इय तिहुअणआणंद चंद, जय पास जिणेसर ॥११॥ ; तुह कल्लाण महेसु घंट, टंकारव पिल्लिय । वल्लिर मल्ल महल्ल भत्ति, सुर : वर गंजुल्लिय । हल्लुप्फलिय पवत्तयंति, भुवणेवि महूसव । इय तिहुअण 25 kilipcsrotibcolabadasticotlantestadlilabloslosleelaakoobolaxladeshibodhakaadaaloshtosbobationalistskabaladodcolralasahtisatishaladastisealbabulabakistratasbihalakaththhtathistate n ....Institut . ................. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्रसार आणंद चंद, जय पास सुहुन्भव ॥ १२॥ निम्मल केवल किरण गियर, बिहुरिय तम पहयर । दंसिय सयल पयत्य सत्य, वित्थरिय पहा भर । कलि कलुसियजण घूय लोय, लोयणह अगोयर । तिमिरइ णिरुहर पासणाह, भुवणत्तय दियर ||१३|| तुह समरण जल वरिस सित्त, माणव मइ मेइणि । अवरावर सुहुमत्थ बोह, कंदल दल रेहिणि । जायइ फल भर भरिय हरिय, दुह दाह अणोवम । इय मइ मेइणि वारिवाह, दिस पास मई मम ॥ १४ ॥ कय अविकल कल्लाण वल्लि, उल्लूरिय दुहवणु । दाबिय सग्ग पवग्ग मग्ग, दुग्गइ गम वारणु । जय जंतुह जणएण तुल्ल, जं जणिय हियावहु । रम्मु धम्मु सो जयउ पास, जय जंतु पियामहु ॥१५॥ भुवणारण्णनिवास दरिय पर दरिसण देवय | जोइणि पूयण खित्तवाल, खुद्दासुर पसुवय । तुहउत्तट्ठ सुण्ड सुहु, अविसंलु चिठ्ठहि । इह तिहुअण वणसीह पास, पावाइ पणासहि ॥ १६ ॥ फणिफणफारफुरंत रयण, कर रंजियणहयल । फलिणीकंदलदल तमाल, णीलुप्पलसामल । कमठासुर उवसग्ग वग्ग, संसग्ग अगं - जिय । जय पच्चक्ख जिणेस पास, थंभणय पुर ट्ठिय || १७|| मह मणु तरलु पमाणु णेय, वायावि विठ्ठलु । णय तणुरवि अविणय सहावु, आलस - विहलंघलु । तुह माहप्पु पमाणुदेव, कारुण्ण पवित्तउ । इय मइ मा अवहीर पास, पालिहि विलवंतउ ॥१८॥ किं किं कप्पिउ णय कलुणु, किं किंव जंपिउ । किं चण चिट्ठिउ किट्टु देव, दीणयमवलंबिउ | कासु किय निष्फल्ल लल्लि, अम्मेहि दुहत्तिहि । तहवि ण पत्तउ ताणु किंपि, पद्म पहु परिचतिहि ॥१९॥ तुहु सामिउ तुहु मायबप्पु, तुहु मित्त पियंकरु | तुहु गइ तुम तुहूजिता, तुहु गुरु खेमं करु । हउं दुहभरभारिउ वराउ, राउ णिन्भग्गह । लीणउ तुह कम कमल सरणु, जिण पालहि चंगह ||२०|| पइ किवि कय णीरोय लोय, किवि पाविय सुहस्य । किवि मइमंत महंत केवि, किवि साहिय सिव पय । किवि गंजिय रिउ वग्ग के वि, जस धवलिय भूयल । मइ अवहीरहि केण पास, सरणागय वच्छल ॥२१॥ पच्चु - वयार निरीह णाह, णिफण्ण पओयण । तुह जिणपास परोवयार, करणिक्क परायण । सत्तु मित्त सम चित्त वित्ति, णय दिय सम मण । मा अवहीरि २० Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అందరంటుంటటటటటటటటటటటటం టటంటుడు పడదువు చదువు చదువులు చదువుకుంటుందటletstant सूत्र विभाग . २१ Shastra a sokritictataakakakrotestaskootasantastestskotatistastratolatastistkhthitstotkottatestasthalaltocotkoolasalestialist अजुग्गओवि, मइ पास णिरंजण ॥२२॥ हउं बहुविह दुह तत्त गत्तु, तुहु दुह णासण परु । हउ सुयणह करुणिक्क ठाणु, तुहु णिरु करुणायरु । हउं जिण पास असामि सालु, तुहु तिहुअण सामिय । जं अवहीरहि मइ झखंत, इय पास न सोहिय ॥२३॥ जुग्गाऽजुग्ग विभाग णाह, ण हु जोयहि तुह सम । भुवणुवयार सहाव भाव करुणा रस सत्तम । सम विसमइ किं घणु णियइ, भुवि दाह समंतउ । इय दुहि बंधव पास णाह, मइ पाल थुणंतउ ॥२४॥ णय दीणह दीणयं मुयवि, अण्णुवि किवि जुग्गय । जं जोइवि उवयारु करहि, उवयार समुज्जय । दीणह दीणु णिहीणु जेणु, तइ णाहिण चत्तउ । तो जुग्गउ अहमेव पास, पालहि मइ चंगउ ॥२५॥ अह अण्णुवि जुग्गय विसेसु किवि मण्णहि दीणह । जं पासिवि उवयारु करइ, तुहु णाह समग्गह । सुच्चिय किल कल्लाणु जेण, जिण तुम्ह पसीयह । किं अण्णिण तं | चेव देव, मा मइ अवहीरह ॥२६॥ तुह पत्थण ण हु होइ विहलु, जिण जाणउ किं पुण । हउं दुक्खिय णिरु सत्त चत्त, दुक्कहु उस्सुयमण । तं मण्णउ णिमिसेण, एउ एउ वि जइ लब्भइ । सच्चं जं भुक्खिय वसेण, किं उंबरु पच्चइ ॥२७॥ तिहुअण सामिय पासणाह, मइ अप्पु पयासिउ । किज्जउ जं णिय रूव सरिसु, ण मुणउ बहु जंपिउ । अण्णु ण जिण जगि तुह समोवि, दक्खिण्ण दयासउ । जइ अवगण्णसि तुह जि अहह, कह: होसु हयासउ ॥२८॥ जइ तुह रूविण किणवि पेय पाइण वेलवियउ तुवि जाणउ जिण पास तुम्हि, हउं अंगी करिउ। इय मह इच्छिउ जं ण होइ, सा तुह ओहावणु । रक्खंतह णिय कित्ति णेय, जुज्जइ अवहीरणु ॥२९॥छ एह महारिय जत्त देव, इहु ण्हवणमहूसउ । जं अणलियगुणगहण तुम्ह, मुणि जण अणिसिद्धउ। एम पसीह सुपास णाह, थंभणयपुर ठिय । इय मुणिवरु सिरि अभयदेउ, विण्णवइ अणिदिय ॥३०॥ जय महायस सूत्र जय महायस जय महायस जय महाभाग जय चिंतिय सुहफलय जय समत्थ परमत्थ जाणिय जय जय गुरु गरिम गुरु जय दुहत्थ सत्ताण ताणय थंभणयट्ठिय पास जिण भवियह भीम भवत्थु भय अवणं ताणंत गुण तुझतिसंज्झणमोत्थ । salestatta.bahakaleeltodatekeseddicatestcalesioledislide.stoeleckediatellitlahlalahubalhealistshdbhailankal stati-statistakhi+katafakestatestosashankstatstakakir o inkiliateliatelliteratiolindiadiolincialhotresselateautatatisfactokateshy Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन-रत्नसार श्रुत देवता स्तुति सुवर्ण शालिनी देयाद्, द्वादशाङ्गी जिनोद्भवा । श्रुत देवी सदा मामशेष श्रुतसम्पदम् ॥१॥ कमल दल विपुल नयना, कमल मुखी कमल गर्भ सम गौरी । कमले स्थिता भगवती, ददातु श्रुत देवता सौख्यम् ॥२॥ ( भुवणदेवया करेमि काउसग्गं ) भुवन देवता स्तुति चतुर्वर्णाय संघाय, देवी भुवनवासिनी । निहत्य दुरितान्येषा, करोतु सुखमक्षयम् ॥१॥ ज्ञानादि गुणयुतानां, स्वाध्याय ध्यान संयमरतानाम् ? | विदधातु भुवनदेवी, शिवं सदा सर्व साधूनाम् ॥२॥ ( खितदेवया करेमि काउसगं ) क्षेत्र देवता स्तुति यासां क्षेत्र गताः सन्ति साधवः श्रावकादयः । जिनाज्ञां साधयन्तस्ता, रक्षन्तु क्षेत्र देवताः ॥ १ ॥ यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य, साधुभिः साध्यते क्रिया । सा क्षेत्र देवता नित्यं, भूयान्नः सुखदायिनी ॥२॥ इच्छामो अणुसट्ठियं सूत्र इच्छामो अणुसट्ठियं णमो तेसं खमासमणाणं गोयमाईणं महामुनिणं नमोऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यः ॥ वर्द्धमान स्तुति नमोऽस्तु वर्धमानाय, स्पर्धमानाय कर्मणा । तज्जयाऽवाप्त मोक्षाय, परोक्षाय कुतीर्थिनाम्॥१॥ येषां विकचार विन्दराज्या, ज्यायः क्रम कमलावलि १ नित्यं स्वाध्यायसंयमरतानाम् । यह पाठ तपागच्छ में बोला जाता है । २ इस स्तोत्र में वीर प्रभु के गुणगान हैं । सायङ्काल के प्रतिक्रमण में स्त्रियों को इसकी जगह संसारदावा पढ़ना चाहिये । इस स्तुतिमें चौथा श्लोक प्रायः नहीं बोला जाता है । विमत्र । * वय लक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ saratahshtatasakickatalasadnastasbhakta dholesalmanlaladaladalalaladasoomladalatkalutatutesaastatestoshotcataststatestasticketstare न-मनननननननननननननननननननननननननननननननननननननननन तनप्राश्रीप्रधानमनश्रममन्त्राप्रवन्धनप्रनयन्त्रणमा सूत्र विभाग दधत्या । सदृशैरतिसङ्गतं प्रशस्यं, कथितं सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ॥२॥ कषायतापादित जन्तु निर्वृतिं करोति यो जैन मुखाम्बुदोद्गतः । स शुक्रमासोद्भव वृष्टिसन्निभो, दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् ॥३॥ श्वसितसुरभिगन्धाऽऽलीढ़भृङ्गीकुरङ्ग, मुख शशिनमजस्र बिभ्रती या बिभत्ति । विकचकमल मुच्चैः, सास्त्वचिन्त्यप्रभावा । सकल सुख विधात्री, प्राणभाजां श्रुताङ्गी ॥४॥ वरकनक सूत्र? वरकणय संख विहुम, मरगय घणसंणिहं विगयमोहं । सत्तरिसयं जिणाणं, सव्वामर पूइयं वंदे ॥१॥ अड्डाइज्जेसु सूत्र अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु, पनरससु कम्मभूमीसु, जावंत केवि साहू, रयहरण गुच्छ पडिग्गहधारा, पंचमहव्वयधारा अट्ठारस सहस्स सीलंगधारा अक्खयायारचरित्ता. ते सव्वे सिरसा मणसा वयसा मत्थएण वंदामि ॥१॥ Pedrakardedirerstitledeokrebelrekadasleeluptocockerlreadialockelidualtdidadroochondledoskailbolndidalalsolusheli indyaleakilokatholhistosladdesahthitthitioth aslelorkalnilotrishalafaatalabtaknilsintoilptetaketalalalalutstartoosinohke १-इस सूत्र में १७० तीर्थङ्कर भगवानों को वन्दन किया गया है। २-१० यतिधर्म को ५ स्थावर ४ त्रस १ अजीवसे जोड़नेपर १०० और इनको ५ इन्द्रियोंसे जोड़ने पर ५०० इनको आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन चार संज्ञाओं के साथ जोड़ने से २००० फिर इनको मन, वचन, काय से जोड़ने पर ६००० भेद हुए फिर इनको न करूं न कराऊ न अनुमोदू से जोड़ने पर १८००० भेद होते है। इन अठारह हजार भेद से ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले को ही सच्चो मुनि कहा गया है। कुछ समय से इस सूत्र के न बोलने की परिपाटी विधिप्रपा ग्रन्थ' के आधार से उठाने का प्रयत्न किया गया है। किन्तु विधिप्रपा प्रन्थ में इस सूत्र के अलावा अन्य भी कई एक सूत्रों के न वोलने का विधान है। लेकिन वे सव वोले जाते हैं। मेरी सम्मतिसे सारे प्रतिक्रमण में गुरु, यति, मुनिराजों को श्रावक श्राविकायें वन्दनावश्यक में उन्हीं को वन्दन नमन * करते है। इसमें उत्कट क्रिया कारक के धनियों को वन्दन नमन करने का विधान है, इसलिये में उठा देनेका प्रयत्न किया गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं वर्तमान समय में भी खरतरगच्छ तथा ! तपगच्छ में इस सूत्रको बोलने की परिपाटी मौजूद है अतः यहां पर बोलनेके लिये दे दिया है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ಜವಬಂದೆ Fleaderkele t albhakaltakitatistialistatistiatakalatak-slatitatistatistialetstatstatishteda जैन-रत्नसार श्री स्थम्भण पार्श्वनाथ चैत्यवन्दन श्री सेढ़ी तटिनी तटे पुर वरे, श्री स्थम्भणे स्वगिरौ, श्री पूज्याभयदेव सूरि विश्रुधा, धीशैः समारोपितः । संसिक्तः स्तुतिभिर्जलैः शिवफलैः, स्फूर्जत् फणा पल्लवः, पार्श्वः कल्पतरु समे प्रथयतां, नित्यं मनोवाञ्छितम् ॥१॥ आधि व्याधि हरो देवो, जीरावल्ली शिरोमणिः । पार्श्वनाथो जगन्नाथो, नत नाथो नृणां श्रिये ॥२॥ , थंभणय पास सूत्र सिरि थंभणयठिय पास सामिणो, सेस तित्थ सामीणं । तित्थ समुन्नइ कारणं, सुरासुराणं च सव्वेसि ॥११॥ एसिमहं सरणत्थं, काउसग्गं करेमि सत्तीए । भत्तीए गुण सुटियस्स संघस्स, समुण्णइ निमित्तं ॥२॥ श्री स्थम्भन पार्श्वनाथ जी, आराधवा निमित्तं करेमि काउसग्गं । चउक्कसाय सूत्र . चउक्कसाय पडिमल्लुल्लूरणु, दुज्जय मयण बाण मुसुमूरणु । सरस पिअंगु वण्णुगय गामिउ, जयउ पासु भुवण त्तय सामिउ ॥१॥ जसु तणु कंति कडप्प सिणिद्धउ, सोहइ फणिमणि किरणालिद्धउ । नं नव जलहर तडिल्य लंछिड, सो जिणु पासु पयच्छउ वंछिउ ॥२॥ पञ्च परमेष्ठी मङ्गल स्तुति अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र महिताः, सिद्धाश्व सिद्धि स्थिता । आचार्या जिन शासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः । श्री सिद्धान्त सुपाठका, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः । पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥१॥ श्रीमानदेवसूरिकृत लघुशान्ति स्तव शान्ति शान्ति निशान्तं, शान्तं शान्ताऽशिवं नमस्कृत्य । स्तोतुः शान्ति निमित्तं, मन्त्रपदैः शान्तये स्तौमि ॥१॥ ओमिति निश्चितवचसे, talirtatisuallelitishaliliatelitetititiBelakitattitutitletstatekt.LA5-1=h t : Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dirtatatestantatatatarashatakartalathi tamashtarotatota.brtastanasamaudaictatestoolartootanahanicolarandarkestactrekslastmathakatarkastastestau मेननननननननननननननननननननननननननननननननननन सूत्र विभाग नमो नमो भगवतेऽर्हते पूजाम् । शान्ति, जिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ॥२॥ सकलातिशेषकमहा, सम्पत्ति समन्विताय शस्याय । । त्रैलोक्य पूजिताय च, नमोनमः शान्तिदेवाय ॥३॥ सर्वामर सुसमूह, खामिक संपूजिताय निजिताय । भुवन जन पालनोद्यत,तमाय सततं नमस्तरमै ॥४॥ सर्व दुरितौघ नाशन कराय, सर्वाऽशिव प्रशमनाय । दुष्ट ग्रह भूत पिशाच, । शाकिनीनां प्रमथनाय ॥५॥ यस्येति नाम मन्त्र, प्रधान वाक्योपयोग कृततोषा । विजया कुरुते जनहित, मिति च नुता नमत तं शान्तिम् ॥६॥ भक्तु नमस्ते भगवति ! विजये । सुजये ! परापरैरजिते ! अपराजिते ! जगत्यां, जयतीति जयावहे भवति ॥७॥ सर्वस्यापि च सङ्घस्य, भद्रकल्याण मङ्गलं प्रददे । साधूनां च सदाशिव, सुतुष्टि पुष्टि प्रदेजीयाः ॥८॥ भव्यानां कृतसिद्धे ! निर्वृत्ति निर्वाण जननि ! सत्वानाम् । अभयप्रदान निरते! नमोऽस्तु स्वस्ति प्रदे तुभ्यम् ॥९॥ भक्तानां जन्तूनां, शुभावहे नित्यमुद्यते ।। देवि ! सम्यग्दृष्टीनां धृति, रति मति बुद्धि प्रदानाय ॥१०॥ जिनशासन निरतानां, शान्ति नतानां च, जगति जनतानाम् । श्री सम्पत् कीर्तियशो वईनि जयदेवि ! विजयस्व ॥११॥ सलिलानल विष विषधर, दुष्ट ग्रह राजरोग रण भयतः । राक्षस रिपुगण मारि चौरेति श्वापदादिभ्यः ॥१२॥अथ रक्ष रक्ष सुशिवं, कुरु कुरु शान्ति च कुरु कुरु सदेति । तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु स्वस्ति च कुरु कुरुत्वम् ॥१३॥ भगवति ! गुणवति ! शिवशान्ति तुष्टि पुष्टि खस्तीह कुरु कुरु जनानाम् । ओमिति नमो नमो ह्रां ह्रीं हूं हः यः क्षः ह्रीं फुट फुट स्वाहा ॥१४॥ एवं यन्नामाक्षर पुररसरं, संस्तुता * जया देवी। कुरुते शान्ति नमतां, नमो नमः शान्तये तस्मै ॥१५॥ इति पूर्वसूरिदर्शित, मन्त्रपदविदर्भितः स्तवः शान्तः । सलिलादि भय विनाशी, शान्त्यादि करश्च भक्तिमताम् ॥१६॥ यश्चैनं पठति सदा,शृणोति भावयति वा यथा योगम् । स हि शान्तिपदं यायात्, सूरिः श्रीमानदेवश्च ॥१७|| उपसर्गाः ___ * शाकम्भरी नगर में मारी के उपद्रव की शान्ति करने के लिये नाडुल नगर में श्री मानदेव सूरिजी ने इसकी रचना की। पद्मा, जया, विजया और अपराजिता देवियां आचार्य । महाराजकी भक्ता थीं। इसी कारण स्तोत्रके पढ़ने सुनने तथा जल छिड़कनेसे शान्ति हो गई थी। Bial-shalasookshuht.inhtoskatestatulabadalulailitaterlolasinindlalalobtailstanileokotaisalasahitwlislasashshorlinionlodlalamlailalienalirlaihilatasatailabilablilyaleolaatmissiolatantn inale ननननननननननननननननननयम-नया ได้ไรไพไรไร ตะไกโซโตไวไซไตใจ ใน 16 คน - TRA Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Wश्रण ArmergizensiA जैन-रनसार क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति, पूयमाने । ई. जिनेश्वरे ॥१८॥ सर्व मङ्गल माङ्गल्यं, सर्व कल्याणकारणम् । प्रघानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥१९॥ बृहत् अतिचार नाणंम्मि दंसणम्मि अ, चरणम्मि तवम्मि तह य विरयम्मि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचही भणिओ ॥१॥ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार । इन पांच आचारों में से कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं। तत्र ज्ञानाचार के आठ अतिचार-"काले विणए बहुमाणे, उवहाणे में तह य निण्हवणे । बंजण अत्थतदुभए, अट्ठविहो नाणमायारो ॥२॥ ज्ञान नियमित समय में पढ़ा नहीं । अकाल समय में पढ़ा । विनय रहित, बहुमान रहित, योग उपधान रहित पढ़ा।ज्ञान जिससे पढ़ा उससे अतिरिक्त को गुरु माना या कहा । देववन्दन, गुरुवन्दन करते हुए तथा प्रतिक्रमण, सज्झाय पढ़ते या गुणते अशुद्ध अक्षर कहा । कानामात्रा न्यूनाधिक कही सूत्र असत्य कहा, अर्थ अशुद्ध किया अथवा सूत्र और अर्थ दोनों असत्य o कहे । पढ़ कर भूला, असञ्झाय के समय में श्रविरावली, प्रतिक्रमण, उप देशमाला आदि सिद्धान्त पढ़ा । अपवित्र स्थान में पढ़ा या बिना साफ किये घृणित ( खराब ) भूमि पर रखा । ज्ञान के उपकरण पाटी, तख्ती, पोथी, ठवणी, कवली, माला, पुस्तक रखने की रील, कागज, कलम, दवात आदिके पैर लगा, थूक लगा अथवा थूकसे अक्षर मिटाया। ज्ञानके “ इसको प्रतिक्रमण में सम्मिलित हुए न्यूनाधिक ५०० वर्ष हुए हैं। परम्परानुगत हरएक श्रावक श्राविका, गुरु यति या साधुओं के मुख से ही शान्ति श्रवण किया करते थे। उदयपुर : * में एक वृद्धावस्था के यति कई वार श्रावक श्राविकाओं को प्रतिक्रमण मे सुनाते-सुनाते नंग हो * गये अतः उन्होंने प्रतिक्रमण के अन्त में नित्य बोलने का नियम कर दिया। उस समय से . अद्यावधि प्रतिक्रमण में पढ़ी या सुनी जाती है। "อไอ) ไตะไollaไกลไขไดไal ไฮไไดไไไไไไไไไ 46efieleได้ใใดสังคงไl ไขให้ไปอยู่ในใจได ไปศัยในคใตไดไดดไไดไตใจสไตไท ไซโตไคได้ใสไฮไลโดสไตใจไรให้ไดไไไไไไไดไต” ใจ ใจค ไ I MIMMITMENTERTAIN.2*1*25 g Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇతర సhttstatistictatotalitariడండదడండవండువందడదడుడుడiడదండడండడనడు २७ vedurimaanananwww Blukatrintinutetentirtantantrtantiatelialetariankaratahksimlatastestantroktantbhhbhataksharthakkshish Girlasahwaakkartabdkothavadatatantalistosohtakalakadiladakiokanate सूत्र विभाग उपकरणको मस्तक (शिर) के नीचे रखा था पासमें लिये हुए आहार (भोजन) निहार ( पाखाना) किया, ज्ञान द्रव्य भक्षण करनेवाले की उपेक्षा की, ज्ञान द्रव्य की सार सम्भाल न की, उल्टा नुकसान किया, ज्ञानवन्त के ऊपर द्वेष किया, ईर्षा की, तथा अवज्ञा आशातना की, किसी को पढ़ने गुणने में विघ्न डाला, अपने जानपने का मान किया । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा केवल ज्ञान इन पांच ज्ञानों में श्रद्धा न की। गूंगे, तोतले की हंसी की, ज्ञान में कुतर्क की, ज्ञान के विपरीत प्ररूपणा की । इत्यादि ज्ञानाचार सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । दर्शनाचार के आठ अतिचार-"निस्संकिय निक्कंखिय, निन्वितिगिच्छा अमूढ़ दिहि। उववुह थिरीकरणे,वच्छल पभावणे अह ॥३॥"देवगुरु धर्म में निःशंक (विश्वास) न हुआ, एकान्त निश्चय न किया । धर्म सम्बन्धी । फल में संदेह किया । चारित्रवान् साधु साध्वी की जुगुप्सा (निन्दा) की। मिथ्यात्वियों की पूजा प्रभावना देख कर मूढ़ दृष्टिपना किया। कुचारित्री को देख कर चारित्र वाले पर भी अभाव हुआ। संघ में गुणवान की प्रशंसा न की । धर्म से पतित होते हुए जीव को स्थिर न किया । साधर्मी का हित न चाहा । भक्ति न की, अपमान किया, देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, साधारण द्रव्य की हानि होते हुए उपेक्षा की । शक्ति होने पर भले प्रकार सार सम्भाल न की । साधर्मी से कलह क्लेश करके कर्म बन्धन किया । मुखकोश बांधे बिना वीतराग देव की पूजा की । धूपदानी, खस कूची, कलश आदि से प्रतिमाजी को ठपका लगाया । जिनबिम्ब हाथ से गिरा । श्वासोश्वास लेते आशातना हुई। जिन मन्दिर तथा पौषधशाला में थूका तथा मलश्लेश्म (कफ) किया । हँसी मश्करी की, कुतूहल किया जिन मन्दिर सम्बन्धी चौरासी आशातनाओं में से और गुरु महाराज सम्बन्धी तेतीस आशातनाओं में से कोई आशातना हुई हो। स्थापनाचार्य हाथ से गिरे हों या उनकी पडिलेहन न की हो । गुरु के वचन को मान BRabelly fatiblettola.larlaladiolarnithelast-dosladiolorlaloosinitirlinlahladlondialistulatintabilalitasaliilasaglosiniloitatishtainlaintainsthaileelasantipliesaloslestosthalithalirtnilionsailitilaslutaratahiktailslostoslanita thtoilet-elenatakarletelnotos Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tะใจได้ ใช้ไeได้ไม่ตง ใครูได้ใwee ใครใครไg regretreesจะได้พไซคดี जैन-रत्नसार คอไอโศไeryไฟไe : ได้ ค ะ kubbelbaby karnatakak balkondari kersiothoatianki- h Basketbolarkalkulator Pontalinin han konten Probleme koolihoonetek Kia Rotarkokbokeball न दिया हो। इत्यादि दर्शनाचार सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन,बचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ ___ चारित्रोचार के आठ अतिचार-पणिहाण जोगजुत्तो पंचहि समइहि, तीहिं गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो, अट्ठविहो होइ नायव्बो ॥" ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति,आदाण भंडमत्त निक्षेवणा (निक्षेपना) समिति और पारिष्ठापनिका समिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्ति ये आठ प्रवचन माता रूप, पांच समिति और तीन गुप्ति सामायिक पौषधादिक में अच्छी तरह पाली नहीं । इत्यादि चारित्राचार सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते या अजानते लगा हो वह । सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ विशेषतः श्रावक धर्म सम्बन्धी श्री सम्यक्त्व मूल बारह व्रत सम्यक्त्व * के पांच अतिचार-"संका कंख विगिच्छा.” शंका श्री अरिहन्त प्रभु के बल अतिशय ज्ञान लक्ष्मी गम्भीर्यादि गुण शाश्वती प्रतिमा चरित्रवान् के चारित्र में तथा जिनेश्वर देव के वचन में सन्देह किया। आकांक्षा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, क्षेत्रपाल, गरुड़, गूंगा, दिक्पाल, गोत्रदेवता, नवग्रह पूजा, गणेश, हनुमान, सुग्रीव, बाली, माता मसानी आदिक तथा देश, नगर, ग्राम, गोत्र के जुदे-जुदे देवादिकों का प्रभाव देख कर, शरीर में रोगान्तक कष्ट आने पर इहलोक तथा परलोक के लिये पूजा मानता की । बौद्ध सांख्यादिक, सन्यासी, भगत, लिंगिये, जोगी, फकीर, पीर, इत्यादि अन्य दर्शनियों के मन्त्र यन्त्रों का चमत्कार देख कर परमार्थ जाने बिना मोहित हुआ । कुशास्त्र पढ़ा, सुना । श्राद्ध (सराध) वार्षिकश्राद्ध, होली, राखड़ीपूनम (राखी ) अजाएकम, प्रेतदृज, गौरी तीज, गणेश चौथ, नाग, पञ्चमी, स्कंद षष्ठी, झीलणा छठ (झूलना छठ), शील सप्तमी, दुर्गाष्टमी, रामनामी, विजयादशमी, व्रत एकादशी, वामन द्वादशी, वत्स ई मरने के बाद वारहवी, तेरहवीं, तृमासिक, षट्मासिक, वार्षिक श्राद्धादि करना जैन # धर्मानुसार उपयुक्त नहीं है। otosinhalakatikatureilinks forkionk-rakekar-lathkrtimhrdhaimuth-a-th helpakinrekakki-hashamiti-tiekanationakutekar-bahelorinkularkonketikalaakirrorinkki w olonterkloko a r Borko Krkollb PKK Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Laktahatatatatatatatatatalabhatattalురువుడుrakashtalురువడు మనుమరు దును anwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. asakaratoanimlshtiatulathma.lar.katarinakala maravadatabalika.lantatorinkinatantankibalatiala katinkakuntialistiations-trdastistakalamabe सूत्र विभाग * द्वादसी, धन तेरस, अनन्त चौदस, शिवरात्री, काली चौदस, अमावास्या, आदित्यवार उत्तरायण योग भोगादि किये कराये करते हुए को भला माना । पीपल में पानी डाला, डलवाया, कुवा, तालाव, नदी, द्रह, बावड़ी समुद्र, कुण्ड ऊपर पुण्य निमित्त स्नान किया तथा दान दिया, दिलाया, अनुमोदन किया । ग्रहण, शनिश्चर, माघ मास, नवरात्रि का स्लान किया । नवरात्रि व्रत किया। अज्ञानियों के माने हुए व्रतादि किये कराये । वितिगिच्छा-धर्म सम्बन्धी फल में सन्देह किया। जिन वीतराग अरिहन्त भगवान धर्म के आगर, विश्वोपकार सागर, मोक्षमार्ग दातार, इत्यादि गुणयुक्त जान कर पूजा न की । इहलोक परलोक सम्बन्धी भोगवाञ्छा के लिये पूजा की। रोगान्तङ्क कष्ट के आने पर क्षीण वचन बोला। मानता मानी । महात्मा महासती के आहार पानी आदि की निन्दा की । मिथ्यादृष्टी की पूजा प्रभावना देखकर प्रशंसा की । प्रीति की । दाक्षिण्यता से उसका अर्थ व धर्म माना । मिथ्यात्व को धर्म कहा । इत्यादि श्री सम्यक्त्व व्रत समबन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं। पहले स्थूल प्राणातिपात-विरमण व्रत के पांच अतिचार—'वह बन्ध छविच्छेए' द्विपद चतुष्पद आदि जीव को क्रोधवश ताड़न कियो, घाव .. लगाया, जकड़ कर बांधा, अधिक बोझा लादा । निर्लाञ्छन कर्म नासिका छिदवाई, कर्ण छेदन करवाया, खस्सी किया । दाना, घास, पानी की समय पर सार सम्भाल न की, लेनदेन में किसी के बदले किसी को भूखा रखा, पास खड़ा होकर मरवाया, कैद करवाया। सड़े हुए धान को बिना कु शोधे काम में लिया, पिसवाया, धूप में सुकाया । पानी यत्न से न छाना । इंधन, लकड़ी, उपले (कण्डे), गोहे, छाणे, गोये आदि बिना देखे बाले । उसमें सर्प, बिच्छू, कानखजूरा, कीड़ी, मकौड़ी, सरोला, मांकड़, जुआ, गिंगाड़ा आदि जीवों का नाश हुआ। किसी जीव को दबाया । दुखी जीव को अच्छी जगह पर न रखा । चूंटी (कीड़ी) मकौड़ी के अण्डे नाश किये, लीख़ फोड़ी, दीमक, कीड़ी, मकौड़ी, धीमेल, कातरा, चुड़ेल, प्रसन्न प्रकाश्यप्रान्त "Mobinokestartob balialistassarahilosodisplanthalifhalisasalilonli-lanteelookinkhalcohotoolbolashatantralasethalingalishalikutiatelodiotailinwliasliliarlarkoliatelmatalathalalash sahelatakaraokeletalakhhitimalatalathtakalatalathionline Sakwoolatafarineebaartistentialist-livinlantonli-latakarmathahtanatant Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y oddogx-lady.incatatamboctotideestoydstakalat karoofero.ipostixoskooli-firtalilaiketariatestocks जैन-रनसार .www................... ...... ......... जन-रलता htiple lifa hihleti to kathahbihlennaith bh पतंगिया, देडका, अलसिया, ईअल, कुंदा, डांस, मसा, मगतरा, माखी, टिड्डी आदि प्रमुख जीव का नाश किया । घोंसले तोड़े, चलते फिरते या । अन्य कुछ काम काज करते निर्दय पना किया । भली प्रकार जीव रक्षा न की। बिना छाने पानी से स्नान काम काज किया। चारपाई, खटोला, पीढ़ा, पीढ़ी आदि धूप में रखे । डण्डे आदि से झड़काये । जीवाकुल (जीवयुक्त ) जमीन को लीपी । दलते, कूटते, लीपते वा अन्य कुछ काम काज करते जयणा न की । अप्टमी चौदश आदि तिथि का नियम तोड़ा। धूनी करवाई । इत्यादि पहले स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । दुसरे स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के पांच अतिचार-सहसा-रहस्सदारे.' सहसात्कार-बिना विचारे एकदम किसी को अयोग्य आलकलङ्क में दिया । स्वस्त्री सम्बन्धी गुप्त बात प्रकट की, अथवा अन्य किसी का मन्त्र * भेद मर्म प्रकट किया । किसी को दुखी करने के लिये झूठी सलाह दी, - झूठा लेख लिखा, झूठी गवाही दी, अमानत में खयानत की। किसी की धरोहर रखी हुई वस्तु वापिस न दी । कन्या, गौ, भूमि सम्बन्धी लेन देन में, लड़ते झगड़ते, वादविवाद में मोटा झूठ बोला । हाथ पैर आदि की गाली दी, मर्म वचन बोला । इत्यादि दूसरे स्थूल मृषावाद विरमणव्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं। तृतीय स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत के पांच अतिचार-'तेनाहडप्पओगे.' घर बाहर खेत खला में बिना मालिक के भेजे वस्तु ग्रहण की, अथवा आज्ञा बिना अपने काम में ली, चोरी की वस्तु ली, चोर को र सहायता दी। राज्य विरुद्ध कर्म किया। अच्छी सजीव निजींव, नई पुरानी वस्तु का भेल सम्भेल किया। जकात (चुङ्गी ) की चोरी की । लेने देने में तराजू की डण्डी चढ़ाई अथवा देते हुए कमती दिया, लेते हुए अधिक। काम करना Type नमस्तानमनप्रसन्नयनमन्त्र ktishththalata.lnkedinractinataliakistostrtisthirkutealishakakakiaticketekAtakhtakartalalsotatoluntrietatahkkalkothhota म TTPTri-114ta Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ babakia kat kbb bb bb bbs to tab tota la to to to to to to to to to to to to tooto Kouts to to to testouto Yo! सूत्र विभाग ३१ लिया। रिश्वत ( घूस ) खाई । विश्वासघात किया, ठगाई की । हिसाब किताब में किसी को धोखा दिया । माता, पिता, पुत्र, मित्र, स्त्री आदि के साथ ठगाई कर किसी को दिया । अथवा पूञ्जी अलाहदा रखी, अमानत रखी हुई वस्तु से इनकार किया । पड़ी हुई चीज़ उठाई । इत्यादि तीजे स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । P चौथे खदारासंतोष परस्त्रीगमन - विरमणव्रत के पांच अतिचार'अप्परिगहिया इतर ० ' - पर स्त्री गमन किया। अविवाहिता कुमारी विधवा वेश्यादिक से गमन किया । अनङ्ग क्रीड़ा की । काम आदि की विशेष जाग्रति की अभिलाषा से सराग वचन कहा । अष्टमी, चौदस आदि पर्व तिथि का नियम तोड़ा | स्त्री के अंगोपांग देखें, तीव्र अभिलाषा की । कुविकल्प चिन्तन किया । पराये नाते जोड़े। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, स्वप्न, स्वप्नान्तर हुआ । कुवप्न आया । स्त्री, नट, विट, भांड़ वेश्यादिक से हास्य किया । स्वस्त्री में सन्तोष न किया । इत्यादि चौथे वदारासंतोष परस्त्रीगमन विरमणव्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । * चौथे पर पुरुष विरमणव्रत के पांच अतिचार - पर पुरुष गमन अविवाहित तथा विधवावस्था में गमन किया हो अनङ्ग क्रीड़ा पर पुरुष पर दृष्टिपात कामादि की विशेष जाग्रिती की अभिलाषा से पर पुरुष से सराग वचन कहा अष्टमी, चौदस आदि पर्व तिथि में नियम तोड़ा पर पुरुष के अंगोपांग देखे तीव्र अभिलाषा की खराब विचार चिन्तवन किया पराये नाते जोड़े गुड्ड गुड्डियों का विवाह कराया वा किया अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, स्वप्न, स्वप्नान्तर हुआ कुस्वप्न आया पुरुष, नट, विट, * श्राविकाओं को निम्नलिखित चौथेवन का पढ़ना उपयुक्त है। to its lata laka balata Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २00 -Jamailodabhbhimla inlala.abinlaiawanloddak larki hakeLakkh intolina saalomahilarasina inbindabakhtmkomatalathe wered नमन-मन जैन-रनसार 9 भांडादिक से हास्य किया स्वपुरुष में सन्तोप न किया। इत्यादि चौथे स्वपुरुष सन्तोष पर पुरुष गमन विरमणव्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । पांचवें स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत के पांच अतिचार-'धण धण्ण खित्त वत्थु०' धन धान्य क्षेत्र वस्तु सोना चांदी बर्तन आदि । द्विपद-दास दासी, चतुष्पद, गौ, बैल, घोड़ा आदि नव प्रकार के परिग्रह का नियम न लिया। लेकर बढ़ाया अथवा अधिक देख कर ममता वश माता, पिता, पुत्र, स्त्री के नाम किया। इत्यादि परिग्रह परिमाण व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । छठे दिक् परिमाण व्रत के पांच अतिचार-'गमणस्सउ परिमाणे.' । ऊर्ध्वदिशि अधोदिशि तिर्यदिशि जाने आनेके नियमित प्रमाण उपरान्तसे भूल गया। नियम तोड़ा, प्रमाण उपरान्त सांसारिक कार्यके लिये अन्य देश से वस्तु मंगवाई, अपने पास से वहां भेजी। नौका, जहाज़ आदि द्वारा व्यापार किया । वर्षाकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम में गया । एक दिशा के प्रमाण को कम करके दुसरी दिशा में अधिक गया । इत्यादि छठे दिक् परिमाण व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि จนใจใกใจใคงจะมีไปจให้ใจไว้ใจไปให้ได้ปักใคปัจงใจให้ใช้ได้ไelะได้ใจใครได้ไ ध MAHATMENMARTHI-PRE ปใช้ไดไไไไไไไeteeledไฟักไตใจใหelecะไครไทย"ไขใจไฟไซไลดได้ไฟใน सातवें भौगोपभोग व्रत के भोजन आश्रित पांच अतिचार और कर्म । आश्रित पन्द्रह अतिचार-'सच्चित्ते पडिबढे'०-सचित-खान पान की वस्तु नियमित से अधिक स्वीकार की । सचित्त से मिली हुई वस्तु खाई। तुच्छ औपधि का भक्षण किया । अपक्व आहार, दुपक्क आहार किया। ई कोमल इमली, वूट, भु, फलियां आदि वस्तु खाई । “सचित्त दव्य । 3 विगई वाणह तम्बोल वत्थ कुसुमेसु । वाहण सयण विलेवण बम्भ दिसि Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kontestetestants to b सूत्र विभाग ३३ हाण भत्तेसु ॥१॥ ये चौदह नियम लिये नहीं । लेकर भुलाये । बड़, पीपल, पिलंखण, कठुम्बर, गूलर ये पांच फल। मदिरा, मांस, शहद, मक्खन ये चार महा विगई । बरफ, ओले, कच्ची मिट्टी, रात्रिभोजन, बहुबीजाफल, अचार, घोलबड़े, द्विदल, बैंगन, तुच्छफल, अजानाफल, चलित रस, अनन्तकाय ये बाइस अभक्ष्य ॥ सूरन कन्द जमीकन्द, कच्ची हल्दी, सतावरी, कच्चानर, कचूर, अदरक, कुवांरपाठा, थोहर, गिलोय, लहसुन, गाजर, गट्ठा-प्याज़, गोंगलू, कोमल फलफूल, पत्र, थेगी, हरा मोथा, अमृतवेल, मूली, पद बहेड़ा, आलू, कचालू, रतालू, पिंडालू बज्रकन्द, पद्मनी कन्द अनन्तकाय का भक्षण किया । दिवस अस्त होने पर भोजन किया । सूर्योदयसे पहले भोजन किया । तथा कर्मतः पन्द्रह कर्मादान — इंगालकम्मे, वणकम्मे, साड़ीकम्मे, भाड़ीकम्मे, फोडीकम्मे ये पांच कर्म । दंत्त वाणिज्ज, लक्ख वाणिज्ज, रस वाणिज्ज, केस वाणिज्ज, विष वाणिज्ज ये पांच वाणिज्ज । जंतपिल्लुणकम्मे, निल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणिया, सरदहतला वसोसणिया, असइपोसणिया ये पांच सामान्य एवं कुल पन्द्रह कर्मादान महा आरम्भ किये कराये, करते को अच्छा समझा । श्वान, बिल्ली आदि पोसे पाले । महा सावद्य, पापकारी, कठोर काम किया । इत्यादि सातवें भोगोपभोग विरमण व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । I आठवें अनर्थदण्ड के पांच अतिचार - 'कंदप्पे कुक्कुइए.' कन्दर्प --- कामाधीन होकर नट, विट, वेश्या से हास्य खेल, कीड़ा कुतुहल किया । स्त्री पुरुष के हाव-भाव रूप-शृङ्गार सम्बन्धी वार्ता की । विषयरस * अंग्रेजी दवा भी अभक्ष्य हैं । (१) काड लीवर पील्स, दरियाकी मछलीके कलेजेकी दवा । (२) स्कान्ट इमलसन बावरील, बैल और भैंसे के बच्चेका मांस । (३) विरोल, गायके मगजका मांस । (४) विफारिन बाइन, मांससे मिली हुई शराब । (५) कारतिक लीकवीड, शराब । (६) सरोवानी टोनिक स्पिरीट, शराब । (७) एक्षटेट मोल्ट, शहद और मांस मिला हुआ । (८) एक्षटेट चिकन, मुर्गीके बच्चेका रस । (६) बेसेनइन, चर्बी । (१०) पेपसिन्ट पाउडर, दो जानवरोंके सूखे मांसका बुरादा । (११) काडलीवर ओयल, मछलीका तेल । 5 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Breeda keka kakdilek rokakakakoorkekorroresheela Patti akoda krka ek okes in enkori katakai.kichak new nlodkakokukta.tratakte जैन-रत्नसार wwwurvrivi duuu-wwewww mixinmanner Relateletstarashbalatalabothrainabhanals ta totalala alotsletallantonatantalobhabise नन-प्रश्रश्रपत्र प्रपत्रमनप्रश्रय प्रजनन प्रणश्रप्रप्रयनत्रणप्रत्रप्रवचननननननननननननननननननननननन्नयन्त्रणप्रत्रणमा * पोषक कथा की। स्त्रीकथा, देशकथा, भक्तकथा, राज-कथा ये चार विकथा की । पराई भांजगड़ की, किसी की चुगलखोरी की । आर्तध्यान, रौद्रध्यान ध्याया। खांडा कटारी, कुशी, कुल्हाड़ी, रथ, ऊखल, मूसल, अग्नि, चक्की आदि वस्तु दाक्षिण्यतावश किसी को मांगी दी । पापोपदेश दिया, अष्टमी, चतुर्दशी के दिन दलने पीसने का नियम तोड़ा। मूर्खता से असम्बद्ध (फजूल) वाक्य बोला। प्रमादाचरण सेवन किया । घी, तेल, दुध, दही, गुड़, छाछ (महा) आदिका भाजन खुला रखा, उसमें जीवादिका नाश हुआ। बासी नक्खन रखा और तपाया । नहाते, धोते, दांतून करते, जीवाकुलित मोरी में पानी डाला। झूले में झूला । जुआ खेला । नाटक आदि देखा । ढोर डंगर खरीदवाये। कर्कश वचन कहा, किचकिची ली। ताड़ना, तर्जना की । मत्सरता धारण की । श्राप दिया । भैंसा, साढ़, मेंढा, मुरगा, कुत्ते आदि लड़वाये या इनकी लड़ाई देखी । ऋद्धिमान की। ऋद्धि देख कर ईर्ष्या की। मिट्टी, नमक, धान, बिनौले बिना कारण मसले । हरी बनस्पति खूदी शस्त्रादिक बनवाये । रागद्वेष के वश से एक का भला चाहा। एक का बुरा चाहा, मृत्यु की वांछा की । मैना, तोते, कबूतर, बटेर, चकोर आदि पक्षियों को पिंजरे में डाला। इत्यादि अनर्थदण्ड विरमणबत सम्बन्धी - जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं। नवमें सामायिकवत के पांच अतिचार-'तिविहे दुप्पणिहाणेसामायिक में संकल्प विकल्प किया । चित्त स्थिर न रखा | सावद्य वचन बोला । प्रमार्जन किये वगैर शरीर हिलाया । इधर उधर किया । शक्ति होने पर भी सामायिक न की। सामायिक में खुले मुंह बोला । नींद ली । विकथा की । घर सम्बन्धी विचार किया । दीपक या बिजली का प्रकाश शरीर पर पड़ा । सचित्त वस्तु का संघट्टन हुआ । स्त्री, तिर्यञ्च आदिका निरन्तर परस्पर संघटन हुआ । मुंहपति संघट्टी । सामायिक अधूरी पारी, बिना पारे उठा । इत्यादि नवमें सामायिकव्रत सम्बन्धी जो कोई সুগন্যম্বঘ্নন্সকম্ব স্বত্বাঙ্গশক্ষ DYGorialists.firistotalashtastoladamalinbalanatakakistakesibalatialitarashatakshakoilarkobalathiots Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Di tattato aaaaaa सूत्र विभाग ३५ अतिचार पक्खी दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । दशमें देसावगासिकव्रत के पांच अतिचार — 'आणवणे पेसवणे.'आणवणप्पओगे पेसवणप्पओगे सहाणुवाई रूवाणुबाई बहियापुग्गलक्खेवे । नियमित भूमि में बाहर से वस्तु मंगवाई । अपने पास से अन्यत्र भिजवाई खूंखारा आदि शब्द कर, रूप दिखा या कङ्कर आदि फेंक कर अपना होना मालूम कराया । इत्यादि दशमें देसावगासिकवत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । ग्यारहवें पौषधोपवासव्रत के पांच अतिचार - 'संथारुच्चार विहि. ' अप्पडिलेहिअ, दुप्पडिलेहिअ सिज्जासंथारए । अप्पडिले हिय दुप्पडिलेहिय उच्चार पासवण भूमि । पौषध लेकर सोने की जगह बिना पूजे प्रमाजें सोया, स्थण्डिल आदि की भूमि अच्छी तरह शोधी नहीं । लघुनीति (पेशाब), बड़ी नीति ( टट्टी जाना ) करने या परठने के समय " अणुजाणह जस्सग्गो" न कहा । परठे बाद तीन बार 'वोसिरे' न कहा । जिन मन्दिर और उपाश्रय में प्रवेश करते हुए 'णिसीहि' और बाहर निकलते 'आवरसहि' तीन बार न कही । वस्त्र आदि उपधि की पडिलेहणा न की । पृथ्वीकाय, अप्पकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय का संघट्टन हुआ । संथारा पोरिसी पढ़नी भुलाई । बिना संथारे जमीन पर सोया । पोरिसी में नींद ली, पारना आदि की चिन्ता की । समय पर देव - वन्दन न किया । प्रतिक्रमण न किया । पौषध देरी से लिया और जल्दी पारा, पर्वतिथीको पोसह न लिया । इत्यादि ग्यारहवें पौषधत्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी, दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । बारहवें अतिथि सम्विभाग व्रत के पांच अतिचार — 'सचित्ते निक्खिवणे० ' सचित्त वस्तु के संघट्ट वाला अकल्पनीय आहार पानी साधू साध्वी T प्र शु Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anmamiwwwwwwmarwaruwawwamiram .www.............. Palaskistinlonlishalilabilialelalitatistakalukalesterosatalab hindilamistakaalikhaalitie s अग्रतत्रत्रतपणप्रयत्नणवत्रतत्रटनमनपस्नग्रनयनत्रणमनननननन* gostikdkekshetakaladkakakakakakakakakakakakakakakesedledakakakakotdealedtotrekstakekakakakakakistakesidecheedakaka kakakakakakaktish जैन-रत्नसार को दिया । देने की इच्छा से सदोष वस्तु को निर्दोष कही । देने की। इच्छा से पराई वस्तु को अपनी कही । न देने की इच्छा से निर्दोष वस्तु को सदोष कही । न देने की इच्छा से अपनी वस्तु को पराई कही। गोचरी के समय इधर उधर हो गया । गोचरी का समय टाला । बेवक्त । साधु महाराज को प्रार्थना की। आये हुए गुणवान् की भक्ति न की। शक्ति के होते हुए स्वामि-वात्सल्य न किया। अन्य किसी धर्मक्षेत्र को पड़ता देख मदद न की। दीनदुखी की मदद न की । दीनदुखी की अनुकम्पान की । इत्यादि बारहवें अतिथि सम्विभाग व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । संलेषणा के पांच अतिचार-इहलोए परलोए.' इहलागा संसप्पओगे। परलोगासंसप्पओगे। जीविआसंसप्पओगे । मरणासंसप्पओगे। कामभोगासंसप्पओगे। धर्म के प्रभाव से इह लोक सम्बन्धी राज ऋद्धि भोगादि की वांछा की । परलोक में देवदेवेन्द्र चक्रवर्ती आदि पदवी की। इच्छा की । सुखी अवस्था में जीने की इच्छा की । दुःख आने पर मरने की वांछा की। इत्यादि संलेषणाबत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं। तपाचार के बारह भेद-छ बाह्य छ अभ्यन्तर । “अणसणमुणो अरिआ."-अनशन शक्ति के होते हुए पर्व तिथि को उपवास आदि तप न किया । उनोदरी-दो चार ग्रास कम न खाये । वृत्ति संक्षेप द्रव्य खानेकी वस्तुओं का संक्षेप न किया । रस-विगय त्याग न किया । कायक्लेश-लोच आदि कष्ट न कियो । संलीनता-अंगोपांग का संकोच न किया। पच्चक्खाण तोड़ा । भोजन करते समय एकासणा आयम्बिल प्रमुख में चौकी, पटड़ा, अखला आदि हिलता ठीक न किया । पञ्चक्खाण करना भुलाया, बैठते नवकार न पढ़ा । उठते पच्चक्खाण न किया । नीवी, आयम्बिल, उपवास आदि तपमें कच्चा पानी पिया । वमन ( उल्टी) हुआ । इत्यादि बाह्य तप লম্বস্বত্ব স্বত্বশ্বরুক্ষত্মঘলঙ্কাল ঙ্কার Minikalnlines-disdalsoiletaliatbihalokomakalinsahi t yagdyabababi Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग ३७ www सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । अभ्यन्तर तप— “पायछित्तं विणओ०” शुद्ध अन्तःकरण पूर्वक गुरु महाराज से आलोचना न ली । गुरु की दी हुई आलोचना सम्पूर्ण न की । देव, गुरु, संघ, साधर्मी का विनय न किया । बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी आदि की वेयावच्च न की । वाचना, पृच्छना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा, धर्म - कथा, लक्षण पांच प्रकार का स्वाध्याय न किया । धर्मध्यान, शुक्लध्यान ध्याया नहीं, आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान ध्याया । दुःखक्षय कर्मक्षय निमित्त दशबीस लोगस्स का काउसग्ग न किया । इत्यादि अभ्यन्तर तप सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । वीर्याचार के तीन अतिचार - 'अणिगूहिय बलविरिओ ० ' - पढ़ते, गुणते, विनय, वेयावच्च, देवपूजा, सामायिक, पौषध, दान, शील, तप, भावनादिक धर्मकृत्यमें मन, वचन, कायाका, बलवीर्य पराक्रम फोरा (लगाया ) नहीं, विधिपूर्वक पञ्चाङ्गखमासमण न दिया । द्वादशावर्त्त वन्दन की विधि भले प्रकार न की । अन्यचित्त निरादर से बैठा देव वन्दन प्रतिक्रमण में जल्दी की । इत्यादि वीर्याचार सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्खी दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं । wwwwwmax www. " नाणाई अट्ठ पइवय, समसंलेहण पण पर कम्मे । बारस तव विरिअ तिगं, चउब्बीसं सय अइयारा ॥” “पडिसिद्धाणं करणे०” – प्रतिषेध- अभक्ष्य, अनन्तकाय, बहुबीजभक्षण, महाआरम्भ परिग्रहादि किया । देवपूजन आदि षट्कर्म, सामायकादि छ आवश्यक विनयादिक अरिहन्त की भक्ति प्रमुख करणीय कार्य किये नहीं । जीवाजीवादिक सूक्ष्म विचार की सद्दहणा न की । अपनी कुमति से उत्सूत्र प्ररूपणा की तथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति, अरति, agnya फूल भन्न Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ప్రhalakshడు కుండం నుండshakitsahahahahahahahaha ahahahahahah a hahasta hahahahah जन-रत्नसार ......... ....Re a मेमनग्रमणमप्रमाणप्रत्रतल्पयनननननननननन्गप्रत्याप्रमाणप्रत्रमननयमनमनमनमनमा प्रधानमन्त्र परपरिवाद, माया, मृषावाद, मिथ्यात्वशल्य ये अठारह पापस्थान किये, कराये, अनुमोदे । दिनकृत्य प्रतिक्रमण, विनय, वैयावृत्य न किया और भी जो कुछ वीतरागकी आज्ञासे विरुद्ध किया, कराया या अनुमोदन किया। एवं प्रकारे श्रावक धर्म सम्यक्त्व मूल बारह व्रत सम्बन्धी एक सो चौबीस अतिचारोंमें से जो कोई अतिचार पक्खी दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं। अथ साधूप्रतिक्रमणसूत्र चत्तारिमंगलं अरिहंतामंगलं सिद्धामंगलं साहूमंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मोमंगलं चत्तारिलोगुत्तमा अरिहंतालोगुत्तमा सिद्धालोगुत्तमा साहूलोगुत्तमा केवलिपण्णत्तो धम्मोलोगुत्तमा चत्तारिसरणंपवजामि अरिहंतसरणंपवजामि सिद्धसरणंपवजामि साहूसरणंपवजामि केवलिपण्णत्तं धम्मसरणंपवजामि ‘इच्छामि पडिक्कमिडं। पगामसज्जाए। णिगामसज्जाए। संथाराउवट्टणाए । परियट्टणाए । आउटण पसारणाए। छप्पइयसंघट्टणाए । कुइए । कक्कराईए । छीए । जंभाइए । अमोसे । ससरक्खामोसे । आउलमाउलाए । सोअणवत्तिआए । इत्थीविप्परियासिआए । दिट्ठीविप्परियासिआए । मणविप्परिआसियाए। पाणभोअणविप्परिआसिआए। जो मे देवसिओ अइयारो कओ । तस्समिच्छामि दुक्कडं । पडिक्कमामि । गोअर चरिआए । भिक्खायरिआए । उग्घाड कवाड उग्घाडणाए । साणावच्छादारा संघट्टणाए मंडीपाहुडिआए । बलिपाहुडिआए । ठवणापाहुडिआए । संकिए सहस्सागारे । अणेसणाए । पाणेसणाए । आणभोयणाए । बीअभोयणाए । हरियभोअणाए । पच्छाकम्मिआए । पुरेकम्मिआए । अदिट्टहडाए । दगसंसठ्ठहडाए। रयसंसट्ठहडाए। पारिसाडणिआए। पारिठावणिआए। ओहासणभिक्खाए। जं उग्गमेणं उप्पायणेसणाए । अपरिसुद्धं पडिग्गहिअं। परिभुत्तं वा । जं न परिठविअं तरस मिच्छामिदुक्कडं । पडिक्कमामि चाउकालं सज्झायस्स अकरणआए । उभओकालं भंडोवगरणस्स अप्पडि____ * पक्खी के स्थान पर चौमासी, सम्बत्सरी प्रतिक्रमण में चौमासी और सम्वत्सरी कहना चाहिये। tee-fiilaknahbimahelalithslaithilakkiratishthalpli-lamlindian lakalestonbhbbhi.hatkatnashmahrthatan मन्त्रालय L ist जयनगमन्त्रप्रणवत्रन्त्रण भनसलमत्रजन्नयन प्रश्नपत्रणप्रत्रात्रोत Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bhbhhhhshobhbhbs6baskhotoblossbbbbbbbbbbavabsadabadbahbaabakashrate sakh ३६ Madam worwarnimesnewmamunawwinnawww mannamrunaamwainmrainewwwwimmiwwww.mirrowwwwwwwwwww H सनननननननगनजनयनत्रणवत्रनयनननननननननननयनप्रश्रयाच प्रत्ययप्रयन्त्रणप्रत्रप्रवन्ध प्रगामि2--17-PG सूत्र विभाग लेहणाए दुप्पडिलेहणाए । अप्पमजणाए दुप्पमज्जणाण । अइक्कमे । वइक्कमे । अइआरे । अणाआरे । जो मे देवसिओ अइआरो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कड। पडिक्कमामि एगविहे असंजमे ॥१॥ पडिक्कमामि दोहिं बंधणेहिं । रागबंधणेणं दोसबंधणेणं । पडिवकमामि ॥२॥ तिहिं दंडेहिं । मणदंडेणं । वयदंडेणं । कायदंडेणं । पडिक्कमामि । तिहिं गुत्तीहिं मणगुत्तीए । वयगुत्तीए कायगुत्तीए । पडिक्कमामि । तिहिं सल्लेहिं । मायासल्लेणं । णीयाणासल्लेणं । मिच्छादसणसल्लेणं । पडिक्कमामि । तिहिं गारवेहिं । इट्ठीगारवेणं । रसगारवेणं । सायागारवेणं । पडिक्कमामि । तिहिं विराहणाहिं । णाणविराहणाए । दंसणविराहणाए । चरित्तविराहणाए । पडिक्कमामि । चउहिं कसाएहिं । कोहकसाएणं । माणकसाएणं । मायाकसाएणं । लोभकसाएणं । पडिक्कमामि । चउहि सण्णाहिं । आहार सण्णाए । भय सण्णाए । मेहुणसण्णाए । परिग्गहसण्णाए । पडिक्कमामि । चउहिं विकहाहि । इत्थीकहाए । भत्तकहाए । देसकहाए । रायकहाए । पडिक्कमामि । चउहिं झाणेहिं । अट्टणं झाणेणं । रुद्देणं झाणेणं । धम्मेणंझाणेणं । सुक्केणं झाणेणं । पडिक्कमामि । पंचहि किरियाहिं । काइआए अहिगरणिआए। पाउसिआए । पारितावणिआए । पाणइवायकिरिआए । पडिक्कमामि । पंचहिं कामगुणेहिं । सद्देणं । रूवेणं । रसेणं । गंधेणं । फासेणं । पडिक्कमामि । पंचहिं महव्वएहिं । पाणाइवायाओ वेरमणं । मुसावायाओ वेरमणं । आदिण्णादाणाओ वेरमणं । मेहुणाओ वेरमणं । परिग्गहाओ वेरमणं । पडिक्कमामि । पंचहिं समिईहिं । इरिआसमिइए । भासासमिइए । एसणासमिइए । आयाणभंडमत्तणिक्खेवणा समिइए। उच्चारपासवण खेलजल्लसिंघाणपारिट्ठावणियासमिइए । पडिक्कमामि । छहिं जीवणिकाएहिं । पुढविकाएणं । आउकाएणं । तेउकाएणं । वाउकाएणं । वणस्सइकाएणं । तसकाएणं । पडिक्कमामि । छहिं लेसाहिं । किण्हलेसाए । णीललेसाए । काउलेसाए । तेउलेसाए । पउमलेसाए । सुक्कलेसाए । पडिक्कमामि । सत्तहिं भयहाणेहिं । अहिं मयहाणेहिं । णवहिं बंभचेरगुत्तीहिं । दसविहे समणधम्मे । एगारसहिं उवासगपडिमाहिं । alonlodasalilothlalsh.bhorlederarmiliarioletalaluplomtasketable lalahkalohto leakaalantatrolo foolisvalishakakirishishkriticlexiolkeleclailaalakaalisastiplielahilarialotodaedesistadailothiliokolodlaletatialatate larkisesite Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Patant- I जैन-रनसार __ तत्थ खलु पढमे भंते महब्बए पाणाइवायाओं बंग्मणं सव्वं भंते पाणाइवायं पन्चक्खामि से सुहुमं वा वायरं वा तसं वा थावरं वा णेबसयं पाणे अइवाएज्जा । णेवण्णेहिं पाणे अइवायाविजा, पाणं अइवायतवि । अणेण समगुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेण वायाए कारणं ण कोमि ण कारवेमि करं तंपि अण्णं ण समणुज्जाणामि तस्स भंत पडिक्कमामि जिंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।से पाणाइवाए चउबिहे पण्णते तंजहा दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दबओणं पाणाइवाए छमुजीवनिकाएसु। खित्तओणं पाणाइवाए सव्वलोए कालओणं पाणाइवाए दियावा राओवा। भावओणं पाणाइवाए रागेण वा दोसेण वा । जंपिअ मये इमरस धम्मरस केवलि पण्णत्तस्स अहिंसा लख्खणस्स सबाहिहियरस विणयमूलस्स खंतीपहाणरस अहिरण्णसावणिअस्स उवसमप्पभवस्स णव बंभचेर गुत्तरस अप्पयमाणस्स भिक्खावित्तियस्स कुख्खीसंबलस्स गिरग्गिसरणरस संपख्खालिअस्स चत्तदोसस्स गुणगाहियरस णिब्वियारस्स णिव्वित्तिलख्खणरस पंचमहव्वयजुत्तस्स असंणिहि संचयस्स अविसंवाइयस्स संसारपारगामियस्स णिबाण गमण पज्जवसाणफलस्स पुब्बि अण्णाणयाए असवणयाए अबोहिआए अणभिगमेणं अभिगमेणवा पमाएणं राग दोस पडिबद्धआए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चउक्कसाओवगएणं पंचिदियवसट्टेणं पडिपुण्णभारियाए सायासोक्खमणुपालयतेणं इहं वा भवे अण्णे सुवा भवग्गहणेसु पाणाइवाओ कओवा कारिओवा कीरंतोवा परेहिं । समगुण्ण ओ तं जिंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अइयं जिंदामि पडिपुण्णं संवरेमि अणागयं पञ्चक्खामि सव्वं पाणाइवायं जावज्जीवाए अणिस्सिओहिं णेव सयंपाणे अइवाइज्जा णेवण्णेहिं पाणे अइवायाविजापाणे अइवायं तेवि अण्णेणसमणुजाणिज्जा तंजहाअरिहंतसख्खिरं सिद्धसंक्खि साहुसख्खिरं देवसख्खिअं अप्पसख्खिअं एवं हवइ भिक्खुवा भिक्खुणीवा संजयविरय पडिहय पञ्चक्खाय पावकम्मे दियावा राओवा एगओवा, परिसागओवा सुत्तेवा जागरमाणेवा एस खलु पाणाइवायरसवेरमणे हिए सुहे। । खमे णिस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सव्वेसि पाणाणं सब्वेसिं भूयाणं N-I-an-ka-wallutwittalblailaikistmallindirteleforlirticlariantalialistical Dastaki.bfkkistkatta Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sustasboatostatistskotatootstatuttesesantatatatutorladeshatarlalalaatalorderladakrabolataiaticlestabliudaalakaddalaat d atactertaichottest ४३ shailash sho ose toob fotosloodishtolidakisterlastoletialistadtaaloddockhoth my सूत्र विभाग सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणियाए अणुद्दवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणु चिण्णे परमरिसि देसिए पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोहक्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए त्तिक्कटु उपसंपज्जित्ताणं विहरामि पढमे भंते महव्वए उवडिओमि सव्वाओ पाणाइवायाओवेरमणं ॥१॥ अहावरे दोच्चे भंते महब्वए मुसावायाओवेरमणं सव्वं भंते मुसावायं पच्चक्खामि से कोहावा लोहावा भयावा हासावा णेवसयं मुसंवइज्जा णेवण्णेहिं मुसंवायाविज्जा मुसंवयंतेवि अण्णेण समणुज्जाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं ण करेमि ण कारवेमि करतंपि अण्णे ण समणुज्जाणामि तस्स भंते पडिकमामि जिंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । से मुसावाए चउव्विहे पणते तंजहा दबओ खित्तओ कालओ भावओ दव्वओणं मुसावाए सव्व दव्वेसु खित्तओणं मुसावाए लोएवा आलोएवा कालओणं मुसावाए दिआवा राओवा भावओणं मुसावाए रागणवा दोसेणवा जंपिअमए इमस्सधम्मस्स केवपिण्णत्तरस अहिंसालक्खणरस सच्चाहिट्ठियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणरस अहिरण्णसोवण्णियस्स उवसमप्पभवस्स णव बंभचेर गुत्तस्स अप्पयमाणस्स भिख्खावित्तियस्स कुख्खीसंबलरस णिरग्गिसरणस्स संपख्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणगाहियस्स णिब्वियाररस णिव्वित्तिलखणस्स पंचमहव्वयजुत्तस्स असंणिहिसंचियरस अविसंवा इयरस संसारपारगामियस्स णिव्याणगमण पज्जवसाणफलस्स पुट्विअण्णाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणभिगमेणं अभिगमेणवा पमाएणं रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चउक्कसाओवगएणं पंचेदियवसट्टेणं पडिपुण्णभारियाए सायासोक्खमणुपालयंतेणं इहवाभवे अण्णेसुवा * भवग्गहणेसु मुसावाओ भासिओवा भासाविओवा भासिज्जंतो वा परेहिं सम गुण्णाओ तं जिंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अइयं जिंदामि पड्डिपुण्णं संवरेमि अणागयं पच्चक्खामि सव्वं मुसावायं जावज्जीवाए अणिस्सिओहं णेवसयंमुसंवइज्जा णेवण्णेहिं मुसंवायाविज्जा'मुसंवयंतेविअण्णे ण - समणुजाणिज्जा तंजहा अरिहंतसख्खियं सिद्धसख्खियं साहुसख्खियं देवसबसलमान मन्त्रालय समयमन्त्र othiestiniantalilabakakirlakoolatastetal ab d h Nathalaladalalitholtash totaratalotrol.latoiltoal.toilaiku Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जन-रत्नमार ख्वयं अप्पसख्खियं एवं हवइ भिक्खुवा भिक्खुणीवासंजय विग्य पडिय पञ्चखाय पावकम्मे दियावा गओवा एगआंबा परिसागओवा सुत्तेवा जागरमाणे वा एस खलु मुसावायरसवेरमणं हिए मुह मे रिसेसिए आशुगामिए पारगामिए सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सव्वैसि जीवाणं सच्चेसि सत्ताणं अदुवा असणया अजूग्णयाए अतिष्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाए अणुहवणयाए महत्ये महागुणं महाणुभावं महापुरिसाणुचिष्णं परमरिसिदेसियपसत्थं तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोहक्खयाए बौहिला भाग संसारुत्तारणाएं चिकट्टु उबसंपज्जित्ताणं विहरामि दोच्च भंते महव्वा उबहिओमि सब्बाओ मुसावाओवेरमणं ||२|| अहावरं तच्चे संत महच्च अदिणादाणा ओवेरमणं सव्वं भंते अदिष्णादाणं पञ्चक्खामि । से गामे वा नयर वा रण्णे वा अप्पं वा चहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमत्तं वा अतिमत्तं वा वसयं अदिष्णं गिहिज्जा णवणेहिं अदिष्णं गिम्हाविज्जा अदिष्णं गिव्हंतेवि अण्णण समज्जाणामि जावज्जीवाणु तिविहं तिविहणं मणणं वायाए काएणं ण करेमि ण कारबेमि करं तं पि अण्णंणसमगुज्जाणामि तस्स भने पक्किमामि णिदामि गरिहामि अप्पाणं वासिगमि से अदिष्णादाणे चउच्चिहे पण ते तंजहा दुव्व खित्तओ कालओ भावओ दव्वणं अदिण्णाड़ा गहण धारणिज्जेसु दव्वेसु खित्तओं णं अदिष्णादाणे गामे वा णय वा रण्णे वा कालओणं अदिण्णादाणे दिया वा राओ वा भावओणं अदिण्णादाणे रागेण वा दोसेण वा जंपिr मए इमम्स धम्मम्स केवलिपण्णत्तम अहिंसा लक्खणस्स सच्चाहियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणरस अहिरण्णसावण्णियस्स उवसमप्यभवस्स व वंभर गुत्तस्स अप्पयमाणस्स भिक्खावित्तियरस कुक्खीसंचलस्स णिरग्गिसरणरस संपक्खालियरस चचड़ोसरस गुणगाहियरस निव्वियारस्स णिव्त्रित्तिलक्खणस्स पंचमहव्त्रयजुतरस असंणिहिसंचियरस अविसंवाइयरस संसारपारगामियरस णिव्त्राणगमणपज्जबसाणफलस्स पुव्विअण्णाणयाए असवणयाए अवाहियाए अणभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएवं रामदास पडिवाए बाल्याए मोहयाए मंड्याए किड्डयाए तिगारवगख्याए चक्कसाओवगएवं पंचेद्रियबसणं पडिपुण्णभारियाए सायासोक्खमणुपालयं तेणं पल भ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ పాదుడు నడవండదండantintikitatakవదదదదదద దhitachinthండదంటున్న manamannaamanamannaamananwwwwwwwwwwmannanaanawwwwww keseshistoricalba s kotaintaintinutartstatementarnkatastritishtatatesamarthatankatokhattarah takathakathanecomanimalsarpalikatialisakkskitatistialalikundlinesamakalin.... सूत्र विभाग इहवाभवेअण्णेसुवा भवग्गहणेसु अदिण्णादाणं गहियंवा गाहावियंवा धिप्पंतवा परेहिं समणुण्णाओतं जिंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेण वायाए काएणंअ इयं जिंदामिपडिप्पुण्णसंवरेमिअणागयं पञ्चक्खामिसव्वं अदिण्णादाणं जावज्जीवाए अणिस्सिओहं णेवसयं अदिणं गिव्हिज्जाणेवण्णेहिं अदिणं गिण्हा विज्जा अदिण्हंगिण्हतेवि अण्णेण समणुजाणिज्जा तंजहा अरिहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खुवा भिक्खु णीवा संजय विरय पडिहय पच्चक्खाय पांवकम्मे दिआवा राओवा एगओ * वा परिसागओ वा सुत्ते वा जोगरमाणे वा एस खलु अदिण्णादाणरस वेरमणे हिए सुहे खमे णिस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयोणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणाए अपरियावणियाए अणुदवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिण्णे परमरिसिदेसिए पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोहक्खयाए बोहिलाभाए संसाररुत्तारणाए त्तिकट्ठ उवसंपज्जित्ताणं विहरामि तच्चे भंते महव्यए उवठिओमि सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं ॥३॥ अहावरे चउत्थे भंते महव्वए मेहुणाओ वेरमणं सव्वं भंते मेहुणं पच्चक्खामि से दिव्वं वा माणुसंवा तिरिक्खजोणियंवा णेवसयं मेहुणं सेविज्जा णेवण्णेहिं मेहुणं सेवाविज्जा मेहुणं सव्वंतेवि अण्णेणसमणुज्जाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं ण करेमि ण कारवेमि कर तंपि अण्णं ण समणूजाणामि तरसभंते पडिक्कमामि जिंदामि गरिहामि अप्पाणं वो सिरामि ॥ सेमेहुणे चउबिहे पण्णत्ते तंजहा दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ दव्वओणं मेहुणे रूवेसुवा रूवेसहगएसुवा खित्तओणं मेहुणे उड्डलोएवा अहोलोएवा तिरियलोएवा कालओणं मेहुणे दियावा राओवा भावओणं मेहुणे रागेणवा दोसेणवा जंपिअमए इम्मस्स धम्मस्स केवलिपण्णत्तरस अहिंसालक्खणस्स सच्चाहिटियरस विणयमूलस्स खंतिपहाणस्स अहिरण्णसोवण्णियरस उवसमप्पभवस्स णवबंभर गुत्तरस अप्पयमाणस्स भिक्खावित्तियस्स कुक्खीसंबलरस णिरग्गिसरणरस . संपक्खालियस्स चत्तदोसरस गुणगाहियस्स णिव्वियारस्स णिवित्तिलक्खणस्स takalastakhatootstalentitattostatistiaantictatoes.sitariabhialistiatinlalishaliliantertasthitasaikoAwardGIBYalonlosdhandoanleoanalaiosadaolanawonalosarasathdahhilaonciliat ional Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Citeste totested tectant totoo ४६ जैन - रत्नसार पंचमहव्यत्तस्स असंहि संचियस्स अविसंवाइयरस संसारपारगामियरस णिव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुव्विअण्णाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणभिगमेणं अभिगमेणं अभिगमेणवा पमाएणं रागदोस पडिबडयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चउक्कसाओ गएणं पंचेदियोवसट्टेणं पडिपुण्णभारियाए सायासोक्खमणुपालयतेणं इहं वा भवे अण्णेसुवा भवग्गहणेसु मेहुणं सेवियंवा सेवावियंवा सेविज्जतोवा परेहिं समणुष्णाओ तं जिंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं अइयं णिदामि पडिप्पुणसंवरेमि अणागयं पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं जावजीवाए अणिस्सिओहं णेवसयंमेहुणंसे विज्जा णेवण्णेहिं मेहुणं सेवाविज्जा मेहुणं सेवतेवि अण्णं ण समज्जाणामि तंजहा अरिहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहु सक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खुवा भिक्खुणीवा संजय विरय visor पच्चक्खाय पावकम्मे दिआवा राओवा एगओवा परिसागओवा सुत्ते वा जागरमाणे वा एस खलु मेहुणरसवेरमणे हिए सुए खमे णिरसेसिए आणुगामिए पारगामिए सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिंभूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणियाए अणुद्दवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाचिणे परमरिसिदेसिए पसत्ये तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोहक्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए तिकट्टु उवसंपज्जिन्त्ताणं विहरामि चउत्थे भंते महत्व उवडिओमि सव्बाओ मेहणाओ वेरमणं ||४|| अहावरे पंचमे भंते महत्व परिग्गहाओ वेरमणं सव्वे भंते परिग्गहं पच्चक्खामि से अपंवा बहुंवा अणु वा थूलंवा चित्तमंतंवा अचित्तमंतंवा णेवसयं परिग्गहं परिगिहिज्जा णेवण्णेहिं परिग्गहं परिगिण्हंतेवि अण्णे ण समज्जाणामि जावज्जीवा तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं ण करेमि ण कारवेमि करंतंपि अण्णं ण समज्जाणामि तरस भंते पडिकमामि णिदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । से परिग्गहे चउव्विहे पण्णत्ते तंजहा दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ दव्वओणं परिग्गहे सचित्ताचित्तमीसेस दव्वेस खित्तओणं परि हे लोएवा अलोएवा गामेसुवा णयरेसुवा रण्णेसुवा कालओणं परिग्गहे दियावा प्रणयक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग - ओवा भावणं परिग्गहे अपग्धेवा महग्घेवा रागेणवा दोसेणवा जंपिअमए इमरस धम्मस्स केवलिपण्णत्तस अहिंसालक्खणरस सच्चा हिष्ठियरस विणयमूलरस खंतिपहाणस्स अहिरण्णसोवण्णियस्स उवसमप्पभवरस णवबंभचेरगुत्तस्स अप्पयमाणस्स भिक्खावित्तियरस कुक्खीसंबलस्स णिरग्गि सरणस्स संपक्खालियरस चचदोसरस गुणगाहियरस णिब्वियारस्स णिव्वित्तिलक्खणरस पंच महव्वय जुत्तस्सअसंणिहिसं च यरस अविसंवाइयरस संसारपारगामियरस णिव्वाण गमण पज्जवसाणफलस्स पुव्विअण्णाणयाए असवणयाए अबोहियाए अभिगमेणं अभिगमेणवा पमाएणं रागदोस पडिबड्याए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डुयाए तिगारवगख्याए चउक्कसाओवगएणं पंचेंदियवसट्टेणं पडिपुण्णभारियाए सायासोक्खमण पालयंतेणं इहं वा भवे अण्णेसु वा भवग्गहणेसु परिग्गहो गहिओवा गाहाविओवा घिप्पंतोवा परेहिं समणुण्णाओ तं णिंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं अइयं णिंदामि पडिप्पुण्णं संवरेमि अणायं पच्चक्खामि सव्वं परिग्गहं जावज्जीवाए अणिस्सिओहं णेवसयं परिग्गहं परिगिहिज्जा ठेवण्णेहिं परिग्गहं परिगिण्हाविज्जा परिग्गहं परिगिव्हतेवि अणेण समज्जाणामि तंजहा अरिहंत सक्खियं सिद्धसविखयं साहु सक्खियं देव सक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खुवा भिक्खुणीवा संजय विरय पहिय पच्चक्खाय पावकम्मे दियावा राओवा एगओवा परिसागओवा सुत्तंवा जागरमाणेवा एस खलु परिग्गहस्सबेरमणे हिए सुहे खमे णिस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सन्धेसिंपाणाणं सच्चेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणंसव्वेसिं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणियाए अणुद्दवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिणे परमरिसिदेसियपसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोहक्खयाए बीहिला भाए संसारुतारणयाए चिकट्ट उबसंपजिताणं विहरामि । पंचमे भंते महत्वए उवडिओमि सव्वाओं परिग्गहाओ बेरमणं ||५|| अहावरे छड भंते महव्वए राइमायणाओ वेरमणं सव्वं भंते राइमायणं पच्चक्खामिसे असणंवा पाणंवा खाइमं वा साइमं वा णंचसयंराई भंजिज्जा णवणेहि राई भंज्जाविज्जा राई भजतेवि अण्णणसमणुजाणामि जाबजवाए तिविहंतिविहेणं मणणं वायाए कारणं करेमि 2736 अनुज के किना ४७ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dkeatreekesatotalodkootadataalaahalakelateedbadetstorestaeleteobalakatalelalodaaetaalotalentestantalistslaletastutaklakatasary wamimanawarananamannanamam जैन-रत्नसार णकारवेमि करतपि अण्णं णसमणुज्जाणामि तस्सभंते पडिक्कमामि जिंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरासि॥से राईभोयणे चउब्विहे पण्णत्ते तंजहा दव्वओ। खित्तओ कालओ भावओ दव्वओणं राईभोयणे असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे वा खित्तओणं राईभोयणे समयखित्ते कालओणं राईभोयणे दिया वा रत्ति वा भावओणं राइभोयणे तित्ते वा कडुए वा कसाए वा अंबिले वा महुरेवा लवणे वा रागेण वा दोसेण वा जंपियमए इम्मरस धम्मरस केवलिपण्णतस्स अहिंसालक्खणस्स सच्चाहिटियस्स विणयमूलरस खंतिप्पहाणस्स अहिरण्णसोवण्णियस्स उवसमप्पभवस्स णवबंभचेर गुत्तस्स अप्पयमाणस्स भिक्खावित्तियस्स कुक्खीसंबलरस णिरग्गिसरणस्स संपक्खालियरस चत्तदोसस्स गुणगाहियस्स णिव्वियारस णिन्वित्तिलक्खणस पंचमहव्वय जुत्तस्स असंणिहिसंचियस्स अविसंवाइयस्स संसारपारगामियरस णिव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुट्विं अण्णाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चउक्कसाओवगएणं पंचेंदियवसट्टेणं पडिपुण्णभारियाए सायासोक्खमणुपालयंतेणं इहं वा भवे अण्णे सुवा भवग्गहणेसु राईभोयणं भुत्तं वा भुजावियंवा भुजंतंवा परेहि समणुण्णाओ तं जिंदामिगरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अइयं जिंदामि पडिपुणं संबरेमि अणागयं पञ्चक्खामि सव्वं राइ भोयणं जावजीवाए अणिस्सिओहंणेवसयं राइभोयशंभुंजेज्जा णेवण्णेहिराईभोयणं भुजाविज्जा राईभोयणंभुजतेविअण्णंण समणुजाणामि तंजहा अरिहंत सक्खियं सिद्ध सक्खियं साहु सक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खुवा भिक्खुणीवा संजय विरय पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मे दियावा राओवा एगओवा परिसागओवा सुत्ते वा। जागरमाणे वा एस खलु राइभोयणस्स वेरमणे हिए सुए खमे णिस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सव्वेसिंपाणाणं सव्वेसिभूयाणं सव्वेसिंजीवाणं सव्वेसिसत्ताणं अदुक्खणयाए असोवणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणियाए अणुइवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिण्णे परमरिसिदेसिए पसत्थेतं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोहक्खायाए SharabaikhisakHEKHARELIAssibleGISTElitinkalipiritualikathabahitiktatoeskatestratimatattoria Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .taintactalakatatsolerosatalirth olisatirakstardaslelestiniantastheroto-to-de-sealtorarlirticlerosatarastasabasi.sarmeabradst Kamanamama wwwwwwwwwwwwwwwwwww .lar.beticketstrekhterr-isirkclinks 34.3Goleslatiothladotttoo sabhba iar.mtarkar-st-IIPPIRIT.P.Patrhitaakrrarirtantrotatorstidotakkarakatast.ttatrkat.ki सूत्र विभाग बोहिलाभाए संसारत्तारणाए तिकट्ट उवसंपज्जिताणं विहरामि छठे भंते महव्वए उवढिओमि सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं ॥६॥ इच्चेइयाइं पंचमहव्वयाइं राइभोयण वेरमणछठाई अत्तहियठाई उवसंपज्जित्ताणं विहरामि । अप्पसत्थायजेजोगा परिणामाय दारुणा पाणाइवायरस वेरमणे एसवुत्ते अइक्कमे ॥१॥ तिव्वरागाय जा भासा तिव्व दोसा तहेवय मुसावायस्स वेरमणे एसवुत्ते अइक्कमे ॥२॥ उग्गाहं अजाइत्ता अविदिण्णेअ उग्गहे अदिण्णादाणरस वेरमणे एसवुत्ते अइक्कमे ॥३॥ सद्दा रूवा रसा गंधा फासाणं पविआरणे मेहुणस्सवेरमणे एसवुत्ते अइक्कमे ॥४॥इच्छामुच्छायगेहीये कंखा लोभेअ दारुणे परिग्गहरसवेरमणे एस वुत्ते अइक्कमे ॥५॥ अइमत्तेज * आहारे सूरक्खित्तंम्मि संकिए राई भोयणरस वेरमणे एसवुत्तेअइक्कमोक्षादसण णाण चरित्ते अविराहित्ता ठिओसमणधम्मे पढमं वयमणुरक्खे विरयामो पाणाइ वायाओ ॥७॥ दंसण णाण चरित्ते अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे बीयंवयमणुरक्खे विरियामो अलियवयणाओ ॥८॥ दंसणणाण चरिते अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे तइयं वय मणुरक्खे विरियामो अदिण्णादाणाओ ॥९॥ दंसण णाण चरिते अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे चउत्थं वयमणुरक्खे विरयामो मेहुणाओ ॥१०॥ दसण णाण चरित्ते अविरहित्ता ठिओ समणधम्मे पंचमं वयमणुरक्खे विरियामो परिग्गहाओ॥११॥दसणणाण चरित्ते अविरहित्ता ठिओसमणधम्मे छठंवयमणुरक्खे विरयामो राईभोयणाओ ॥१२॥ आलियविहार समिओ जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे पढ़मं वयमणुरक्खे विरियामो पाणाइवायाओ ॥१३॥ आलियविहार समिओ जुत्तो गुत्तो ठिओ समण धम्मे बीयं वयमणुरक्खे विरियामो अलियवयणाओ॥१४॥ आलिय विहार समिओ जुत्तो गुत्तो ठिओ समण धम्मे तइयं वयमणुरक्खे विरियामोअदिण्णादाणाओ॥१५॥ आलियविहार समिओ जुत्तो गुत्तो ठिओ समण धम्मे चउत्यंवयमणुरक्खे विरियामो मेहूणाओं ॥१६॥ आलिय विहार समिओ जुत्तो गुत्तो ठिओ सम णधम्मे पंचमं वयमणुरक्खे विरयामा परिग्गहाओ ॥१७॥ आलिय विहार• समिओजुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे छठंवयमणरक्खे विरियामोराई भायणाओ ' ॥१॥ आलिय विहार समिओ जुत्तो गुत्ती ठिओ समणधम्मे तिविहेण पडि b etatolasahshobbataonlootb68bsitotalanhas a ..lariatrist nslatiotishtoaliHXAKStatiskotheathtiohdclothiatestriatristantri-asirls . .. . . a x Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रखसार l-tentioneralantatulatmlentilm.inindianlaletmlatant-th farmletalalmfilafatolomimentaktatmathuatatatamatke क्कतो रक्खामि महव्वए पंच ॥१९॥ सावज जोगमेगं मिच्छत्तं एगमेव अण्णाणं परिवजंतो गुत्तो रक्खामि महत्वए पंच ॥२०॥ अणवजजोगमेगं सम्मत्तंएगमेव णाणंतु उवसंपण्णो जुत्तो रक्खामि महबए पंच ॥२॥ दोचेवरागदोसे दुणियझाणाई अट्टरुदाइं परिवज्जतोगुत्तो रक्खामि महव्वए पंच ॥२२॥ दुविहं चरित्त धम्म दुणियझाणाई धम्मसुक्काई उवसंपण्णो जुत्तो रक्खामि महब्बए पंच॥२३॥ किण्हा णीलाकाउ तिण्णियलेसाऊ अप्पसत्याओ । परिवजतो गुत्तो रक्खामि महन्वए पंच ॥२४॥ तेउपम्हासुक्का तिष्णियलेसाओ सुप्पसत्याओ उवसंपण्णोजुत्तो रक्खामि महव्वए पंच ॥२५॥ मणसामणसच्चविउ वाया सच्चेण करण सच्चेण तिविहेणवि सञ्चविओरक्खामिमहव्वए पंच ॥२६॥ चत्तारियदुहसिञ्जा चउरोसण्णातहा कसायाय परिवजंतो गुत्तो। रक्खामि महव्वए पंच ॥२७॥ चत्तारियसुहसिञ्जा चउव्विहंसबरं समाहिं च । उपसंपण्णो जुत्तो रक्खामि महव्वए पंच ॥२८॥ पंचविह कामगुणे पंचेवय अण्हवि महादोसे परिवज्जतो गुत्तो रक्खामि महव्वए पंच ॥२९॥ पंचेदिय संवरणं तहेवयपंचविहमेवसझायं उवसंपण्णोजुत्तो रक्खामि महन्वए पंच ॥३०॥छज्जीव णिकाय वहिं छप्पिय भासाओ अप्पसत्याओ परिवजंतो गुत्तो रक्खामि महब्बए पंच ॥३॥ छविहमभितरियं वझंपियछव्विहं तवोकम्मं । । उपसंपण्णो जुत्तो रक्खामि महव्वए पंच ॥३२॥ सत्तभयहाणाई सत्तविहं । चेवणाणविभंगा । परिवजंतो गुत्तो रक्खामि महन्वए पंच ॥३३॥ पिंडेसण , पाणेसण उग्गहं सत्तिक्कया महन्झयणा । उवसंपण्णोजुत्तो रक्खामि महन्वए । पंच ॥३४॥ अहमयहाणाई अद्वयकम्माई तेसिं बंधिं च । पखिज्जतो गुत्तो रक्खामि महब्बए पंच ॥३५॥ अठ्ठयपवयणमाया दिद्वाअट्ट विह णिहि अडेहिं । उवसंपण्णो जुत्तो रक्खामि महव्वए पंच ॥३६॥ णव पावणियाणाई संसारत्याय णव विहाजीवा परिवज्जतो गुत्तोरक्खामि महव्वए पंच॥३७॥णवत्रंभचेर गुत्तो दुणव विहंबंभचेर पडिसुद्धं । उपसंपप्णो जुत्तो रक्खामि महब्वए पंच ॥३८|| उबघायं चदसविहं असंवरं तहय संकिलेसंच परिवज्जती गुत्तोरक्खामि महब्बए पंच॥३९॥वित्तसमाल्छिाणा दसचंबदसाउसमणधम्मच उपसंपण्णोजुत्तो ई रक्खामि महब्बए पंच ॥४०॥ आसायणं च सव्वं तिगुणं एक्कारसं विव tualulhalkhaitrate.to.daute.tulhufathmallJl.tubdranate tutadtlab naththelalah hal.Indolet InMIlal.lanatlab lalalalahubal hila thulallantarlist-lalalententulittelonllaletatistatulalalaolelallul-luliatulalaya .wlantoltate..laletatamethi m total.rr..S.1.-tel..-1-1-1.ml.m.mtutetoluntulat-ko.m Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sasleshalanatantalitatulendedaslandasanlanatale-lastalelalmanlalalasahlatabadsbdlaladakistandarlalobalatlamlandalaalatcalastachchadostossataanashe Brahman amannamammarnamrunamurnrnmmmmmmmmmonuinnernmoonm rammam wanawwanawwww m ainindiantarwaskattartekikskitasamistratakactstatuestiokatahilashetatistkorakootarakatratikatnisteekakisatankistadakakalidakistiatretartinkalphilimkamlesholimlatakakirichest सूत्र विभाग , जंतो । पडिवज्जतो गुत्तो रक्खामि महव्वए पंच ॥४१॥ एवं तिदंडविरओ तिगरण सुद्धो तिसल्ल णिसल्लो तिविहेण पडिक्कतो रक्खामि महव्वए पंच ॥४२॥ इच्चेइयं महव्वय उच्चारणंथिरत्तं सल्लुद्धरणं धिइबलं ववसाओ साहणहो पाव णिवारणं णिकायणा भावविसोहि पडागाहरणं णिजहणा सहणा गुणाणं संवरजोगो पसत्त्थझाणो वउत्तया जुत्तया णाणे परमट्टो उत्तमट्ठो एस खलुतित्थं करेहि रइरागदोस महणेहिं देसिओ पवयणस्स सारो छज्जीव णिकाय संजमं उवएसिउं तेल्लुक्क सक्कयंठाणं अब्भुवगया णमोत्त्थु ते सिद्धबुद्ध मुत्तणीरय णिस्संग मणामूरण गुणरयण सायर मणंतमप्पमेय णमोत्त्यु ते महय महावीर वद्धमाणस्स णमोत्त्थुते अरहओ णमोत्त्थुते भगवओ त्तिक्कट्ठ । ए सा खलु महव्वए उच्चारणाकया इच्छामो सुत्तकित्तणं काउ णमोतेसिं खमासमणाणं तेहिं इमं वाइयं छव्विहमावस्सयं भगवंतं तंजहा सामाइयं चउवीसत्थओ बंदणयं पडिक्कमणं काउसग्गो पच्चक्खाणं सन्वेहिं पि एयंम्मि छव्विहे आवस्सए भगवंते ससुत्ते सअत्थे सग्गंथे सण्णिजुत्तीए ससंगहणीए जेगुणावा भावा वा अरहतेहिं भगवंतेहिं पण्णतावा परूविया तेभावे सद्दहामो पत्तियामो रोएमो फासेमो पालेमो अणुपालेमो तेभावो सद्दहामो सद्दहतेहिं पत्तियंतेहिं रोयंतेहिं फासंतेहिं पालतेहिं अणुपालंतेहिं अंतोपक्खस्स अंतोचउमासीअस्स अंतो संवच्छारस्स जंवाइयं पढ़ियं परियट्ठियं पुच्छियं अणुपहियं अणुपालियं,तंदुक्खखयाए,कम्मक्खमाए, मोहक्खयाए, बोहिलाभाए,संसारुत्ताणाए, तिकटु। उपसंपज्जित्ताणं विहरामि ते अंतोपक्खस्स जंणवाइयं ण पढियं णपरियट्ठियं णपुच्छियं णाणुपेहियं णाणुपालियं संतेबले संतेवीरिए संतेपुरि* सक्कारपरिक्कमे तस्स आलोएमी पडिक्कमामी जिंदामी गरिहामी विउद्देमी विसोहेमी अकरणयाए अन्भुढेमी अहारिहं तवोकम्मं पायच्छितं पडिवज्झामी । तस्स मिच्छामि दुक्कडं । णमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं अंगवा हिरियं उक्कालियं भगवंतं तंजहा दसवेआलियं,कप्पिया,कप्पियं,चुल्लकप्पसुर्य, महाकप्पसुयं, उववइयं, रायप्पसेणीयं, जीवाभिगमो, पण्णवणा, महापण्णवणा, णंदी, अणुयोगदाराई, देविंदथुओ तंदुल वेआलियं चंदाविझयं पमायप्पमायं में पुरिस मंडलं मंडलप्पवेसो गणिविज्जा चरण विणिच्छिओ, झाण विभत्ति คไตไขใดใดไดไไได้ใจไปได้ไตใจไปักรได้ปัดฝังไว้ได้ใยใดใดใดใดใดใดใดใดใจใดไฟไดไปัญใจได้ใจได้ในไตยไปัญใกลไกใจในปัจจได้ได้ไม่ไปไกไดไรปวไปักไว้ใจใกลไกไกโพงในไตได้ใจไว้ใยเงไทยได้ในไตไดไกลจะไดะ โคน ไปัจจไปไกในกะได้ Salmistakirtalirituterintentinkinli-le-lenitarina Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atava test t ५२ जैन - रत्नसार : मरण विभत्ति आयविसोंही संलेहणासुअं वीयरायसुयं विहारकप्पो 'चरण विसोही आउरपचक्खाणं महापच्चक्खाणं सव्वेहिपि एयंम्मि अंगबाहि'रिए उक्कालिए भगवंते ससुते सत्ये सग्गंथे सण्णिजुत्तीए ससंगहणीए जे गुणावा भावावा अरिहंतेहिं भगवंतेहिं पण्णत्तावा परूवियाया तेभावे सदहामो पत्तियामो रोएमो फासेमो पालेमो अणुपालेमो तेभावे सद्दहंतेहिं पत्तियंते हिं रोएंहिं फासंतेहिं पालंतेहिं अणुपालंतेहिं अंतोपक्खस्स जंबाइयं पढियं परिअडियं पुच्छि अणुहि अणु पालियं तंदुक्खखयाए, कम्मक्खयाए, मोहक्खयाए, बोहिलाभाए, संसारुतारणाए, चिकट्टु उपसंपज्जित्ताणं विहरामि । अंतोपक्खरस वायं पढ़ियं परियट्टियं ण पुच्छियं णाणुपेहियं णाणुपालियं संते बले संते वीरिए संतेपुरिसक्कारपरिक्कमे तरस आलोएमी पडिक्कमामि णिदामि गरिहामि व उट्टेमी विसोहेमी अकरणयाए अब्भुट्ठेमी आहारिहं तवोकम्मं पायच्छितं पडिवज्झामी तरस मिच्छामि दुक्कडं || णमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं अंगबाहिरियं कालियं भगवंतं तंजहा उत्तरज्झयणाई दसाओकप्पोववहारो इसिभासियाइं णिसीहं महाणिसीहं जंबुद्दीच पण्णत्ती, सूरपण्णत्ती, चंदपण्णत्ती, दीवसागरपण्णत्ती, खुड्डियाविमाण पविभत्ती, महल्लियाविमाणपविभत्ती अंगचूलिया, बंगचूलिया, विवाहचूलिया, अरुणो बवाए वरुणोववाए गरुलोववाए घवणोदवाए वेसमणोववाए वेलंधरोववाए देविदोववाए उट्ठाणसुए- समुट्ठाण ए नागपरियावलियाओ, णिरयावलियाओ, कप्पियाओ, कप्पवंडिसयाओ, पुष्फियाओ, पुप्फचुलियाओ, वहीदसाओ, आसीबिस भावणाओ, दिट्ठीविसभावणाओ, चारणसुमिरभावणाओ, महासुमिरभावणाओ, ते अग्गि णिसग्गाणं, सव्वेहंपि एम्मि अंग बाहिरए उक्कालिए भगवंते ससुते सत्ये सग्गंथे सण्णिजुत्तीए ससंगहणीए जे गुणावा भावावा अरिहंतेहिं भगवंतेहिं पण्णत्तावा परुवियावा ते भावे सद्दहामो पत्तियामो रोएमो फासेमो पालेमो अणुपालेमो ते भावे सद्दहंतेहिं पत्तियं तेहिं रोयं तेहि फासं तेहि पालं तेहिं अणुपालं तेहिं अंतोपक्खस जंवाइयं पढियं परियट्टियं पुच्छियं अणुपेहियं अणुपालियं तंदुक्ख खयाए, कम्मक्खयाए, मोहक्खयाए, बोहिलाभाए, संसारुत्तारणाए, त्तिकट्टु उवसंपज्जित्ताणं विहरामि । अंतोपक्खस्स जंणवाइयं ण पढियं णपरियट्टियं Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ప్రవచనండు మందంగా ఉందiki.. chat కు అలవాటుకు లంకను త డుపుకుంటున్న /MAAmirtinatantatistientialaknakafielularlalenti-lathlalirahkalintrl +lalrearrainiminary सूत्र विभाग णपुच्छियं णाणुपेहियं णाणुपालियं संते बले संते वीरिए संतेपुरिसक्कार परिक्कमे तस्स आलोएमी पडिक्कमामी जिंदामी गरिहामी विउट्टमी विसोहेमी अकरणयाए अब्भुढेमी अहारिहं तबोकम्मं पायच्छितं पडिवज्झाओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ णमोतेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं दुवाल संगगणि पीडगं भगवंतं तंजहा आयारो सूअगडो, ठाणो, समवाओ, विवाहपणती, णायाधम्मकहाओ,उवासंगदसाओ,अंतगडदसाओ, अणुत्तरोव वाइअ दसाओ, पण्हावागरणं, विवागसुयं, दिहिवाओ, सुदिहि, सुहाओ, सव्वेहि । पि एयंम्मि दुवाल संगे गणिपीडगे भगवंते ससुत्ते सअत्थे सग्गंथे सण्णिजुत्तीए ससंगहणीए जेगुणावा भावावा अरिहंतेहिं भगवंतेहिं पण्णत्तावा परूवियावा तेभावे सदहामो पत्तियामो रोएमो फासेमो पालेमो अणुपालेमो तेभावे सद्दहतेहिं पत्तियं तेहिं रोयं तेहिं फासं तेहिं पालंतेहिं अणुपाल्तेहिं अंतो पक्खस्स जंवाइयं पढियं परियट्टियं पुच्छ्यिं अणुपेहियं अणुपालियं तंदुक्खखयाए कम्मक्खयाए मोहक्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए त्तिकट्ठ उवसंपञ्जित्ताणं विहरामि। अंतोपक्खस्स जंणवाइयं णपढियं णपरियट्टियं णपुच्छियं णाणुपहियं णाणुपालियं संतेबले संते वीरिए संतेपुरिसक्कारपरिक्कमे तस्स आलोएमी पडिक्कमामी जिंदामी गरिहामी बिउट्टेमी विसोहेमी अकरणयाए अब्भुट्टेमी अहारिहं तवोकम्मं पायच्छितं पडिवज्जामी तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ णमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं ई दुवालसंगं गणपीडगं भगवंतं सम्मकाएण फासंति पालंति पूरति तीरंति किटंति सम्मं आणाए आराहंति अहं च णाराहेमि तस्स मिच्छामि दुक्कडं॥ सुय देवया भगवइ, णाणावरणीय कम्मसंघायं । तेसिं खवेउ सययं, जेसिं सुय सायरे भत्तीछ । om Twelorlestonludhiarelu belolrelaloreiralasahelorelandloslosledis releelerolodladhaialislightleolidaiakledosladarlaladasleelamlaalastainlndlalaateelpluslmartntrealnslelonlodeclasastelilashlilmilailelastrelialecti-kaatraalotodilatilaletatulatatuled c . a rat ... ..... .. इति पाक्षिक सूत्र समाप्त । . .................... " श्रमग तथा श्रमणी वर्ग पक्खी आदि प्रतिक्रमणमें बोलते हैं। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ఇhatsatist i bilitation that thistathakanshtadalas a nt E t olatestostatistatiststatestrelaalakatalathalaletastestantsastest-tabilosobstadostosastestosterolalhalestialasanaskitaskhe ASEEratosaksesatoreststalksetstatestantastictoka जैन-रत्नसार तपगच्छीय विशेष सूत्र पंचिंदिय सूत्र पंचिंदिय संवरणो तह, णवविह बंभचेरगुत्तिधरो । चउविह कसाय मुक्को, इअ अट्ठारसगुणेहिं संजुत्तो ॥१॥ पंच महव्वय जुत्तो, पंचविहायार पालण समत्थो । पंचसमिओ तिगुत्तो, छत्तीसगुणो गुरू मज्झ ॥२॥ सामायिक पारण सूत्र सामाइय वयजुत्तो, जाव मणे होई णियमसंजुत्तो । छिण्णइ असुहं कम्म, सामाइअ जत्तिआ वारा ॥१॥ सामाइअम्मि उ कए समणो, इवसावओ हवइ जम्हा । . एएणं । कारणेणं, बहुसो सामाइअं कुज्जा ॥२॥ सामायिक विधि से लिया, विधि से पूर्ण किया, विधि में कोई अविधि हुई हो। दस मन के, दस वचन के, बारह काया के, कुल बत्तीस दोषों में से जो कोई दोष लगा हो तो मिच्छामि दुकडं ॥ जग चिंतामणि सूत्र । जगचिंतामणि जगणाह जगगुरु जगरक्खण, जगबंधव जगसत्थवाह जगभावविअक्खण । अठ्ठावयसंठविअरूव, कम्मट्ठविणासण । चउवीसंपि जिणवर, जयंतु अप्पडिहय सासण ॥१॥ कम्मभूमिहिं कम्मभूमि पढ़मसंघयणि, उक्कोसय सत्तरिसय जिणवराण विहरंत लब्भइ । णवकोडिहिं केवलीण, कोडि सहस्स णव साहु गम्मइ । १ इस पाठमें सच्चे गुरु की पहचान है। २ इसकी पहली गाथा में सामायिक द्वारा अशुभ कर्मों का नाश है और दूसरी गाथा में सामायिक में स्थित श्रावक साधू के तुल्य माना गया है। ३ इस पाठ की पहली गाथा में भगवान की स्तुति है, दूसरी में एक सौ सत्तर जिनेश्वर, केवली और साधुओं की स्तुति है। तीसरी में तीर्थों को वन्दन है चौथी में चत्यों को वन्दन है, al पांचवीं में शाश्वत जिन बिम्बों को वन्दन है। लन्न प्रजनन प्रयत्नशमनलचन्नयनपत्रबनननननननन st clestialishi a testosthetotakoseskatrkathakatastestraliabtitatio Eartar talathistatutoriakatarnat t heliabadlistiationalistianetarnadanieasy Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग . संपइ जिणवर बीस मुणि, विहुँ कोडिहिं वरणाण । समणह कोडिसहसढुअ, * थुणिज्जइ णिच्च विहाणि ॥२॥ जयउ सामिय जयउ सामिय रिसह सत्तुंजि, उजित पहु मिजिण, जयउ वीर सच्चउरिमंडण, भरुअच्छहिं मुणिसुव्वय । मुहरिपास दुह दुरिअखंडण, अवर विदेहिं तित्ययरा । चिहुं दिसि विदिसि जिं के वि, तीआणागय संपइअ वंदु जिण सव्वे वि ॥३॥ सत्ताणवइ सहस्सा, लक्खा छप्पण्ण अट्ठ कोडीओ। बत्तिसय वासिआइ, तिअलोए चेइए वंदे |४|| पणरस कोडिसयाई, कोडी बायाल लक्ख अडवण्णा । छत्तीस सहस असिइं, सासय बिंबाईपणमामि ॥५॥ जय विराय सूत्र जय ! वियराय ! जगगुरु ! होउ ममं तुह पभावओ भयवं । भव णिव्वेओ मग्गाणुसारिया, इट्ठफल सिद्धी ॥१॥ लोग विरुद्धच्चाओ, गुरुजणपूआ परत्थकरणं च । सुह गुरु जोगो तव्वयण, सेवणा आभवमखंडा ॥२॥ वारिज्जइ जइवि णियाण वंधणं वियराय ! तुह समये । तहवि मम हुन्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं ॥३॥ दुक्खखओ कम्मक्खओ, समाहिमरणं च बोहि लाभो अ । संपज्जउ मह एअं, तुह णाह ! पणामकरणेणं ॥४॥ सर्वमंगल मांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधरमाणाम् जैन जयति शासनम् ॥५॥ कल्लाणकंद कल्लाणकंदं पढमं जिणिदं, संतिं तओ गेमिजिणं मुर्णिदं । पासं पयासं सुगुणिक्कठाणं, भत्तीइ बंदे सिरि वद्धमाणं ॥१॥ १ इसकी पहली गाथा में पहले, सोलहवें, बाईसवें, तेईसवे, चोयीसमें भगवान को वन्दन । दुमरी में तीर्थंकरों की स्तुति है, तीसरी में सिद्धान्तों की म्नुनि है, चौथोमें श्रुत देवता की । प्रस्तुति है। Ritrintelorkathathiasleeluutkiphelorinderlisticladkiokethelaloridantantraokartiensistiadiolatelionkistafadliatelookistiatichoolstallatiotairtelakiohitekola tantalelektrsealatakoshetatubeathtatatsirtrtatakinkirtantrit Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ నరవసుడు నటుడు నడుండువరుడు నడుండడుడుడురందరును కనపరుడుడుడుడు जैन-रत्नसार अपार संसार समुद्दपारं, पत्ता सिवं दितु सुइक्कसारं । सव्वे जिणिंदा सुर विंद बंदा, कल्लाणवल्लीण विसाल कंदा ॥२॥ णिव्वाणमग्गे वर जाण कप्पं, पणासिया सेस कुवाइदप्पं । मयं जिणाणं सरणं बुहाणं, णमामि णिच्चं तिजगप्पहाणं ॥३॥ कुंदिदुगोक्खीर तुसार वण्णा, सरोजहत्था कमले णिसण्णा । वाएसिरि पुत्थयवग्गहत्था, सुहाय सा अम्ह सया पसत्था ॥४॥ अतिचार णाणम्मि दंसणम्मि अ, चरणम्मि तवम्मि तह य विरियम्मि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ ॥१॥ काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह अ णिण्हवणे । वंजणअत्थ तदुभए, अविहो णाणमायारो ॥२॥ णिसंकिय णिक्कखिय, णिवितिगिच्छा अमूढ दिठ्ठी अ । उववूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अह॥३॥ पणिहाण जोग जुत्तो, पंचहिं समिईहिं तीहिं गुत्तीहि ।। एस चरित्तायारो, अहविहो होइ णायव्वो ॥॥ बारस विहम्मि वि तवे, सभितर बाहिरे कुसलदिठे। अगिलाइ अणाजीवी, णायव्वो सो तवायारो ॥५॥ अणसणमूणो अरिया, वित्तोसंखेवणं रसच्चाओ। काय किलेसो संली गया य, बज्झो तवो होइ ॥६॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहे व सज्झाओ। झाणं उस्सग्गो वि अ, अभितरओं तवो होइ ॥७॥ अणिमूहिअ बलविरिओ, परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो। जुजइ अ जहाथाम, णायन्वो वीरिआयारो ॥८॥ वीरस्तुति विशाल लोचन दुलं प्रोद्यहन्ताशु केसरम् । प्रातर्वीर जिनेन्द्रस्य, मुखपद्मं पुनातु वः ॥१॥ - - - कलन्द्रलाल पन्द्रमान प्रगलायन्द्रव्य Bombilanthlalishindisatangasabsoorakshaktikalaakot-tab-totralia-indeslalestakalalalal kiakalakaalpeplier-seatstatistialistialiseakacter s eketidalaatadaland-stalentialadalapikaleiskeletalalalalentralretwkore Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26L at-ttitutentialasi-nainikholanaticsanlentialishasakalinsaactrastatekakroasthani सूत्र विभाग maamwwwmarAmwww येषामभिषेक कर्म कृत्वा, मत्ता हर्षभरात्सुखं सुरेन्द्राः। तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः ॥२॥ कलङ्क निर्मुक्तममुक्त पूर्णतं, कुतर्क राहु ग्रसनं सदोदयम् । अपूर्वचन्द्रं जिनचन्द्रभाषितं, दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् ॥३॥ भरहेसर सज्झाय भरहेसर बाहुबली, अभयकुमारो अ ढंढणकुमारो । सिरिओ अणिआइत्तो, अइमुत्तो णागदत्तो अ ॥१॥ मेअज्ज, थूलिभद्दो, वयररिसी गंदिसेण सिंहगिरि । कयवण्णो अ सुकोसल, पुंडरिओ केसि करकंडू ॥२॥ हल्ल विहल्ल सुदंसण, साल महासाल सालिभद्दो अ। भदो दसण्णभद्दो, पसण्णचंदो अ जसभद्दो ॥३॥ जंबु पहु वंकचूलो, गयसुकुमालो अवंति सुकुमालो। धण्णो इलाइ पुत्तो, चिलाइ पुत्तो अ बाहुमुणी ॥४॥ अनगिरि अजरक्खिय, अज्जसुहत्थी उदायगो मणगो । कालय सूरी संबो, पज्जुण्णो मूलदेवो अ ॥५॥ पभवो विण्हुकुमारो अद्दकुमारो, दढ़प्पहारी अ। सिज्जंस कूरगडु अ, सिज्जंभव मेहुकुमारो अ॥६॥ एमाइ महासत्ता, दितु सुहं गुणगणेहिं संजुत्ता । जसिं णामग्गहणे, पाव पबंधा विलय जंति॥७॥ सुलसा चंदणवाला, मणोरमा मयणरेहा दमयंती । ण मयासंदरी सीया, गंदा भद्दा सुभदा य ॥८॥ रायगई रिसि दत्ता, पउमावइ अंजण सिरीदेवी। जिह मुजिट्ट मिगावइ, पभावइ चिटणादेवी ॥९॥ चंभी सुंदरी रुप्पिणी, रेवइ कुंति शिवा जयंति अ । देवइ दीवइ धारणी, कलावइ पुप्फचूला अ ॥१०॥ पउमावई य गौरी, गंधारी लक्खमणा सुसीमा य । Railleleakistakalukeletakakkaketaketatestakathaskalakialkiladkiseladakaashakakakakakakakakkers Askskskskskshtakathakathalalalalatkaletiladdakatalelatulatated-tattomantriatantrietal Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जैन - रत्नसार जंबुवइ सच्चभामा, रुप्पिणी कण्हड महिसीओ ॥११॥ जक्खा य जक्खदिण्णा, भूआ तह चेव भूअदिण्णा अ । सेणा वेणा रेणा, भयणीयो थूलभद्दस्स ||१२|| इच्चाइ महासइओ, जयंति अकलंकसील कलिआओ । अज्जवि वज्जइ जासिं, जसपहो ति अणे सयले ॥ १३ ॥ मण्णह जिणाणं सज्झाय मण्णह जिणाण माणं, मिच्छं परिहरह धरह सम्मत्तं । छव्विह आवरतयम्मि, उज्जुत्तों होइ पइ दिवसं ॥१॥ पव्वेसु पोसह वयं, दाणं सीलं तवो अ भावो अ । सज्झाय णमुक्कारो, परोवयारो अ जयणा अ ॥२॥ जिणपूआ जिण थुणणं, गुरु थुअ साहम्मिआण वच्छल्लं । - ववहारस्स य सुद्धी, रहजत्ता तित्थजत्ता य ॥३॥ उसम विवेग संवर, भासा समिई छ जीव करुणा य । धम्म अ जण संसग्गो, करणदमो चरण परिणामो ॥४॥ संघोवरि बहुमाणो, पुत्थयलिहणं पभावणा तित्थे । किचमेअं, णिच्चं सुगुरुवएसेणं ॥५॥ संथारा पोरिसी । सढाण णिसीहि, णिसीहि, णिसीहि, णमो खमासमणाणं गोयमाईणं महामुनीणं । अणुजाह जिडिज्जा ! अणुजाणह परमगुरु ! गुणगण रयणेहिं मंडिय सरीरा । बहु पडिपुण्णा पोरिसि, राइए संथारए ठामि ॥ १ ॥ अणजाणह संथारं, बाहुवहाणेण वामपासेणं । कुक्कुडिपायपसारण, अतरंत पमज्जए भूमिं ॥२॥ संकोइअ संडासा उव्वट्टंते अ कायपडिलेहा । दव्वाई उवओगं, ऊसास णिरूंभणा लोए ||३|| जइमे हुब पमाओं, इम्मस्स देहरिसमाइ रयणीए । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग आहार मुवहि देहं सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ॥४॥ चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥५॥ चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा ||६|| चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरिहंत सरणं पवज्जामि, सिद्धसरणं पवज्जामि । साहु सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि ॥७॥ पाणाइवायमलिअं, चोरिक्कं मेहुणं दविणमुच्छं । कोहं माणं मायं, लोहं पिज्जं तहा दोसं ॥ ८॥ कलहं अन्भक्खाणं, पेसुण्णं रइ अरइ समाउन्तं । पावठाणाई ॥१०॥ करसइ । परपरिवार्यं माया, मोसं मिच्छत्तसल्लं च ॥९॥ वोसिरिसु इमाई, मुक्खमग्गसंसग्ग विग्धभूआई । दुग्गइ णिबंधणाई, अहारस एगोहं णत्थि मे कोइ, णाहमण्णरस एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणु एगो मे सासओ अप्पो, णाण दंसण सेसा मे वाहिरा भावा, सव्वे संजोग संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्ख परंपरा । तम्हां संजोग संबंधं, सव्वं तिविहेण बोसिरिअं ||१३|| अरिहंतो मम देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मतं मए गहि ||१४| वमिअ खमावि मइ खमह, सव्वह जीवणिकाय । सिse साख आलोयणह, मुज्झह वर ण भाव ||१५|| सव्वं जीवा कम्मवस, चउदहराज भमंत । ते मे सव्व खमाविआ, मज्झवि तेह खमंत ॥१६॥ जं जं मणेण वई, जं जं वाएण भासिअं पावं । जं जं कार्येण कथं तत्र मिच्छामि दुकडं ॥१७॥ ५६ सासइ ॥११॥ संजुओ । लक्खणा ॥१२॥ tastash Yaskota tests to tastasials Jants to io io Jotstha tatasthn that acto Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रनसार wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww स्नातस्या की स्तुति स्नातस्याप्रतिमस्य मेरुशिखरे, शच्या विभोः शैशवे, रूपालोकन विस्मया हृतरस, भ्रान्त्या भ्रमच्चक्षुषा । उन्मृष्टं नयनप्रभाधवलितं, क्षीरोदकाशङ्कया, वक्त्रं यस्य पुनः पुनः स जयति, श्री वर्धमानो जिनः ॥१॥ हंसा साहत पद्मरेणु कपिश, क्षीरार्णवाम्भो भृतैः, कुम्भैरप्सरसां पयोधरभर, प्रस्यद्धिभिः काञ्चनैः । येषां मन्दररत्नशैल शिखरे, जन्माभिषेकः कृतः, सर्वैः सर्वसुरासुरेश्वर गणैः, तेषां नतोऽहं क्रमान् ॥२॥ अर्हद्वक्त्रप्रसूतं गणधर, रचितं द्वादशाङ्गं विशालं, चित्रं बर्थयुक्तं मुनिगण वृषभैः, धारितं बुद्धि मद्भिः। मोक्षाग्रद्वार भूतं व्रतचरण फलं, ज्ञेयभाव प्रदीपं, . ___ भक्त्यानित्यं प्रपद्ये श्रुतमहमखिले, सर्व लोकैकसारम् ॥३॥ निष्पङ्क व्योमनीलद्युतिमलसदृशं, बाल चन्द्राभदंष्ट्र, मत्तं घंटा रवेण, प्रसृतमदजलं पूरयन्तंसमन्तात् । आरूढ़ो दिव्यनागं विचरति गगने, कामदः कामरूपी, यक्षः सर्वानुभूति दिशतु मम सदा, सर्वकार्येषु सिद्धिम् ॥४॥ संतिकर स्तवन संतिकरं संति जिणं, जगसरणं जयसिरीइ दायारं। . समरामि भत्त पालग, णिव्वाणी गरुडकय सेवं ॥१॥ ॐ. सणमो विप्पोसहि, पत्ताणं संतिसामिपायाणं । झौं स्वाहामंतेणं, सव्वासिवदुरिअ हरणाणं ॥२॥ ॐ संति णमुक्कारो, खेलोसहि माइल दीवपत्ताणं । सौं ह्रीं णमो सव्वो, सहि पत्ताणं च देइ सिरिं ॥३॥ णाणी तिहुअणसामिणि, सिरिदेवीजक्खराय गणि पिडगा। गहदिसि पाल सुरिंदा, सयावि रक्खंतु जिणभत्ते ॥४॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सूत्र विभाग रक्खंतु मम रोहिणी पण्णत्ती, वञ्जसिंखला य सया।। वजंकुसि चक्केसरि, णरदत्ता कालि महाकाली ॥५॥ गोरी तह गंधारी, महजाला माणवी अ वइरुट्टा। अच्छुत्ता माणसिआ, - महमाणसिआउ देवीओ ॥६॥ जक्खा गोमुह महजक्ख, तिमुह जक्खेस तुंबरु कुसुमो ।। मायं विजय अजिंआ, बंभो मणुओ सुरकुमारो ॥७॥ छम्मुह पयाल किण्णर, गरुडो गंधव्व तह य जक्खिदो । ___ कूबर वरुणो भिउडी, गोमेहो पास मायंगो ॥८॥ देवीओ चक्केसरि, अजिआ दुरिआरि कालि महाकाली । अच्चुअ संता जाला, सुतारया सोअ सिरिवच्छा ॥९॥ चंडा विजयं कुसि प ण, इति णिव्याणि अच्चुआ धरणी। वहरुट्ट दत्त गंधा, रिअंब पउमावई सिद्धा ॥१०॥ इअ तित्थरक्खणरया अण्णेवि, सुरासुरी. य चउहा वि । वंतर जोइणिपमुहा, कुणंतु रक्खं सया अम्हं ॥११॥ . एवं सुदिडि सुरगण, सहिओ संघस्स संति जिणचंदो । ___ मज्झवि करेउ रक्खं, मुणिसुंदर सूरि थुअ महिमा॥१२॥ इअ संतिणाह सम्म दिठी, रक्खं सरइ तिकालं जो। . ___ सब्बोवद्द वरहिओ, स लहइ सुह. संपयं परमं ॥१३॥ तवगच्छगयण दिणयर, जुगवर सिरि सोम सुंदर गुरूणं । सुपसायलद्ध गणहर, विजासिद्धी भणइ सीसो ॥१४॥ खरतरगच्छीय पच्चक्खाण सूत्र ... णमुक्कार सहिअ पञ्चक्खाण । उग्गए सूरे णमुक्कार सहिअं पञ्चक्खाई चउब्विहपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्यणाभोगेणं, सहसागारेणं, विगइओ, पञ्चक्खाई, | अण्णत्थणाभोगेणं, सह सागारेणं, लेवा लेवेणं, गिहत्य संसिडेणं, उक्खित्त walechhlallast-dalathiasatulatohtudislndlalahakalesdarthakoasal-datakskediahdootoshonakasisatanisuhabdalodlodladhketarinidadlodaliwalalawadarlidalaknoladkiatasaikshialistikarladkalaakelalelpolatalashtathhina tanhalaferikhe Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Boistasstatstatestatestostesattactstectestantscatectettabetbeatatasteseseseskatesettesedatesterstsesedeskte monwwwwwww SHETABOORKERStatestastakiatalidalaittaladastiEoolinstitishalininataka जैन-रत्नसार विवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, महत्तरागारेणं, देसावगासियं भोग परिभोगं पच्चक्खाई अण्णत्थणा भोगेणं, सहसा गारेणं, महत्तरा गारेणं, सव्व समाहि। वत्तिआगारेणं, बोसिरइ। णमुक्कार सहिअ पञ्चक्खाण' उग्गए सूरे णमुक्कार सहिअं पच्चक्खाई चउव्विहंपि, आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, बोसिरइ । पोरिसी पच्चक्खाणरे ___पोरिसिं पच्चक्खाई उग्गए सूरे चउविहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्ण कालेणं, दिसा। मोहेणं, साहुवयणेणं, सव्वसमाहि वत्तिआ गारेणं, बोसिरइ । पोरसी साढपोरिसी पच्चक्खाण ____ पोरिसिं साढपोरिसिं मुट्ठिसहिअं पच्चखाई । उग्गए सूरे चउब्विहंपि, आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्ण कालेणं, दिसामोहेणं, साहु वयणेणं, सव्व समाहि वत्तियागारेणं, विगइओ पञ्चक्खाई अण्णत्थणाभोगेणं, सह सागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसिटेणं, उक्खित्त विवेगेणं, पडुच्च मक्खिएणं, महत्तरागारेणं, देसावगासिय भोग परिभोगं पञ्चक्खाई अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्तिआगारेणं, बोसिरइ । - पुरिमड्ड पच्चक्खाण सूरे उग्गए, पुरिमटुं, पञ्चक्खाई, चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं, दिसा मोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, विगइओ पञ्चक्खाई अण्णस्थणाभोगेणं,सहसागारेणं, १ णमुक्कारसीका पञ्चक्खाण दो घड़ी का होता है। २ पोरसी एक पहर (तीन घंटे ) की होती है। ३ साढ़ पोरसी डेढ़ पहर (साढ़े चार घंटे) की होती है। ४ पुरिमड्ढ दोपहर (छः घंटे)का होता है। risthataindasTERNALYA -ART INGAANEMALEReadebth a ckesta t utstatus अग्रलययनयनयन्तनप्राणायालयानमग्रगामध्यप्रणय Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग लेवालेवेणं, गिहत्थसंसिडेणं, उक्खित्त विवेगेणं, पडुच्च मक्खिणं, महत्तरागारेणं, देसावगासियं भोग परिभोगं पच्चक्खाई अणत्थणाभोगेणं, सहसागारेण महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्ति आगारेणं, वोसिरइ । अवड्ड पच्चक्खाण सूरे उग्गए अबङ्कं पच्चक्खाई चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थणभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्व समाहिबत्तियागारेणं, विगइओ पच्चक्खाई अण्णत्थणभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिंहत्यसंसिट्टेणं, उक्खित विवेगेणं, पडुच्चमक्खिणं, महत्तागारेणं, सव्व समाहिबत्तियागारेणं, वोसिरइ । ६३ एका सण पच्चक्खाण " पुरिम पच्चक्खाई उग्गए सूरे चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं साइमं, अण्णत्थणा भोगेणं, सहस्सागारेणं, पच्छण्ण कालेणं दिसा, मोहेणं, साहु वयणेणं, सव्वसमाहि बत्तिआ गारेणं, एकासणं पच्चक्खाई तिविपि आहारं असणं खाइमं साइमं अण्णत्यणा भोगेणं, सहसागारेणं, सागारि आगारेणं, आउट्ट णपसारेणं, गुरुअन्भुद्वाणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तिआगारणं, वोसिरइ || ५ अवड्ढ तीन पहर (नौ घंटे) का होता है । एकासन में एक बार भोजन एक आसन से किया जाता है। - पुनः पोरिसिं साडपोरिसिं वा पच्चक्खाई उग्गए सूरे, चउव्विपि आहार, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं, दिसा मोहेणं साहु वयणेणं, सव्व समाहिबत्तियागारेणं, एकासणं पचक्खाई, तिविहंपि आहारं असणं खाइमं साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारिआगारेणं, आउट्टण पसारेणं, गुरुअन्भुहाणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्ति आगारेणं, वोसिरइ । 2 tattato Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रनसार wwwwwwwwwwwwwwwwwwwmmanmmmmmsiwan wwwmarawwwwwmom mmmmmmmmmmmmmmmmmm wwwanmarawaim StotilastotteshPEAREE एगलठाण पच्चक्खाण" : पुरिमट्ठ पञ्चक्खाई उग्गएसूरे चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्ण कालेणं, दिसामोहेणं साहु, वयणेणं, सव्व समाहि वत्तिआगारेणं, एगलठाणं, पञ्चक्खाई अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं,गिहत्थसंसिडेण, उक्खित्त विवेगेणं, पडुच्चमक्खीएणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं,एकासणं,पञ्चक्खाई तिविहंपि आहारं, असणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, सागरिआगारेणं, आउट्टण पसारेणं, गुरुअब्भुट्ठाणेणं, महत्तरागारेणं, सव्यसमाहि वत्तिआगारेणं, बोसिरह। पुनः ____पोरिसिं साढ पोरिसिं वा पच्चक्खाई उग्गए सूरे, चउन्विहंपि आहारं, में असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं पच्छण्णका लेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्व समाहिवत्तियागारेणं, एगलठाणं, पच्चक्खाई अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसिडेणं, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, महत्तरागारेणं,सब्बसमाहि वत्तियागारेणं, एकासणं, पच्चक्खाई, तिविहं, पि आहारं, असणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारिआगारेणं, आउट्टण पसारेणं, गुरु अब्भुट्टागेणं, महत्तारागारेणं, सव्व समाहिवत्तिआगारेणं, देसावगासियं भोग परिभोगं पच्चक्खाई, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्तिआगारेणं, बोसिरइ । आयंबिल पच्चक्खाणा पुरिमट्ठ पच्चक्खाई उग्गए सूरे चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं,अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं, दिसामोहेणं, ७ एगलट्ठाणे में एक समय भोजन एक स्थान में होता है। ८ उत्कृष्ट आयम्बिल एक अंचल भोजन तीन चिल्लू पानी से होता है। वर्तमान । समय में मध्यम आयम्विल प्रचलित है। SELEANLINEDARNAME पच्चक्खाई गण,पदुच्चमविषय आहार, असगणपसारेणं, गुरु परिमार्ग ANAYENSARALESEXMAAAAAAALHALLAHAARACY लाललायनवयनमनत्रनयनननननननननननन्यायालय Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ నడatatatatatatatatattహనంద నందనవనమునందు सूत्र विभाग 9. takenhindiuttaratarutiktastiseaseSakalnksksksksktoediolarkikablatkalmlala.lathkhtra lankalankeeehta Praticlerkaridalirkaisireleliniclicitaraditiotolodbilo.inlallowardshardakotothkacountdoaslist- d साहुक्यणेणं, सव्व समाहि वत्तिआगारेणं, आयंबिलं पच्चक्खाई अणत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवा लेवेणं, गिहत्य संसिडेणं, उक्खित्त विवेगेणं, पडुच्चमक्खीएणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तियागारेणं, एकासणं, पच्चक्खाई तिविहंपि आहारं, असणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसा गारेणं, सागारिआगारेणं, आउट्टणपसारेणं, गुरु अब्भुट्ठाणेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्तिआ गारेणं, बोसिरइ । पुनः ____ पोरिसिं माढपोरिसिं वा पच्चक्खाई उग्गए सूरे, चउन्विहंपि आहारं । असणं, पाणं, खाइम, साइम, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसा गारेणं, पच्छण्णका लेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्व समाहिवत्तिया गारेणं, आयंबिलं पच्चक्खाई, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसा गारेणं, लेवा लेवेणं, गिहत्य संसिडेणं, उक्खित्तविवेगेणं,पडुच्चमक्खिएणं,महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्तिआगारेणं, एकासणं पच्चक्खाई, तिविहंपि आहारं, असणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसा गारेणं, सागारिआगारेणं, आउट्टण पसारेण, गुरु अन्भुट्ठाणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं, वोसिरइ। णिव्वि गइय पच्चक्खाण* पुरिमळेपच्चखाई उग्गएसूरे चउव्वीहंपि आहारं,असणं, पाणं,खाइम,साइमं, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्ण कालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्व समाहि वत्तियागारेणं, णिब्विगइयं पच्चक्खाई, अण्णत्यणाभोगेणं, सहसा गारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्य संसिडेणं, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्तिआगारेणं, एकासणं पच्चक्खाई तिविहंपि आहारं, असणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसा गारेणं, सागारिआगारेणं, आउट्टणपसारेणं, गुरु अब्भुट्ठाणेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्तियागारेणं, बोसिरइ । * वर्तमान समयमें गुजरात देशकी तरफ जो आयम्बिल किया जाता है। वह आयम्बिल . नहीं है णिन्वि है। कारण आयम्बिल में दो द्रव्य लेने की आज्ञा है। एक उवाला हुआ अन्न दूसरा गरम जल। akatastraintitrkattalirtialkattirat-takestratatestostatitrakatrekohtoilet iskoolestialitatictiotideathetheliate trololicloctiolatiotialakatasthlalirtasticlerk-tactal-eloreststorieththtli-lashishtok Nitr Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Satadastaksh atradatat SY a teentertasteliatesladaolodoskelestiacalendsliderelesedriskotel-dkelelilothest-selectelesledist statutekelasala जैन-रनसार mermanenormirmireone ClmmanmanmanAmARAMARARAM AAAAAmanam marnemraanaanaaranaamannamnamaAAAAAAAAAAAnane पोरिसिं साढ पोरिसिं वा पच्चक्खाई उग्गए सूरे चउव्विहंपि आहार, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्ण कालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्वसमाहि वत्तियागारेणं, णिब्विगइयं, पच्चक्खाई। अण्णत्थणा भोगेणं, सहसा गारेणं, लेवा लेवेणं, गिहत्य संसिडेणं, उक्खित्तविवेगेणं पडुच्चमक्खिएणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहिवत्तियागारेणं, एकासणं पच्चक्खाई तिविहंपि आहारं, असणं, खाइम, साईमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसा गारेणं, सागरिआगारेणं, आउट्टणपसारेणं, गुरु अब्भुट्ठाणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तियागारेणं, बोसिरइ । चउविहार उपवास पच्चक्खाण सूरे उग्गए, अब्भन्तहं पञ्चक्खाई । चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्तियागारेणं वोसिरह।। तिविहार उपवास पच्चक्वाण सूरे उग्गए, अब्भत्तहँ पञ्चक्खाई, तिविहंपि आहारं, असणं, खाइम, साइम, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पाणहार पोरिसिं साढपोरिसिं, पुरिमट्ठ अवट्ठ वा पञ्चक्खाई अणत्यणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महन्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तियागारेणं, बोसिरइ । दत्तिअ पच्चक्खाण पुरिमट्ठ पञ्चक्खाई उग्गएसूरे चउन्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइम,अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं,सव्वसमाहि वत्तिआगारेणं,दत्तिरं पच्चक्खाई अणत्थणा भोगेणं, १ उत्कृष्ट उपवास को शास्त्र चउत्थ भक्त कहते हैं आर्थात् चार वक्त भोजन का त्याग उपवास के पहले दिन तथा पारणे के दिन एकासण करना चाहिये। २ यह पञ्चक्खाण सूर्योदय से दूसरे दिन सूर्योदय तक किया जाता है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ सूत्र विभाग सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थ संसिडेणं, उक्खित्त विवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्तिआगारेणं, एकासणं पच्चक्खाई तिविहंपि आहारं असणं, खाइमं साइमं, अणत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारि आगारेणं, आउट्टण पसारेणं, गुरुअन्भुद्वाणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि बत्ति - आगारेणं, बोसिरइ । पुनः पोरिसिं साढ पोरिसिं पच्चक्खाई उग्गए सूरे चउव्विपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइम', अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्ण कालेणं दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्वसमाहिवन्तिआगारेणं, दत्तिअं पच्चक्खाई अणत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, लेवा लेवेणं, गिहत्थ संसिद्वेणं, उक्खित्त विवेगेणं, पडुच्चमक्खिणं, महत्तरागारेणं, सव्बसमाहि वत्तिआगारेणं, एकासणं पञ्चक्खाई तिविपि आहारं असणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, सागारि आगारेणं, आउट्टणपसारेणं गुरु अन्भुट्ठाणेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्तिआगारेणं, वोसिरइ | " पाणहार पच्चक्खाण* पाणहार दिवस चरिमं पच्चक्खाई, अण्णत्यणाभोगेणं, सहसागारेण', महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि बत्तियागारेणं, वोसिरइ । दिवस चरिम चउव्विहार पच्चक्खाण दिवस चरिमं पच्चक्खाई चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्यणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि बत्तियागारेणं, बोसिरइ । दिवस चरिम तिविहार पच्चक्खाण दिवस चरिमं पच्चक्खाई, तिविहंपि आहारं असणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्यणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तिआगारेणं, वांसिर । - यह तीनों पञ्चक्खाण दिनके अन्त भागले प्रारम्भ हो दूसरे दिन सूर्योदय तक किये जाते हैं । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार दिवस चरिम दुविहार पच्चक्खाण दिवस चरिमं पच्चक्खाई, दुविहंपि आहारं असणं, खाइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिबत्तियागारेणं, बोसिरड् । भवचरिम पच्चक्खाण ६८ भव चरिमं पच्चक्खाई चउव्विपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तियागारेण वोसिरइ | गठिसहिअ मुट्ठिसहिअ और अंगुट्टिसहिअ आदि अभिग्रह पच्चक्खाण गंठि सहिअं मुट्ठि सहिअं अंगुट्ठि सहिअं वा पच्चक्खाई, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसा गारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तियागारेणं, बोसिर । धारणा पच्चक्खाण धारणा प्रमाणं पञ्चक्खाई अण्णत्थाणाभोगेणं, सहसागारेणं, महन्तरागारेणं, सव्वसमा हिवत्तिआगारेणं, बोसिरइ । पच्चक्खाणों की आगार संख्या दो चेव णमुक्कारो आगारा छच्च हुँति पोरिसिए । सत्तेव य पुरिमड्ढे, एगासणयम्मि' अड्डे व ॥ १॥ सत्ते गट्ठाणस्स उ अट्ठेव य, अंबिलम्मि आगारा । पंचेव अभत्तट्ठे, छप्पाणे चरिम चत्तारि ॥२॥ पंच चउरो अभिग्गहे, णिव्बीए अट्ठ णव य आगारा । अप्पावरणे पंच चउ, हवंति सेसेसु चत्तारि ॥३॥ १ इस पच्चकखाण में पांचवा, चोलपट्टागारेणं, चोलपट्ट का आगार तथा 'पारिट्ठावणिया गारेण" यह दो आगार साधुओं के लिये होते हैं। २ णमुकारसी में दो, पोरिसी में छः पुरिमढ मे सात, एगासण में आठ, एगलठाण मे सात, आयम्विल में आठ, उपवास में पांच, पाणहार में छह, अभिग्रह में पांच, णिवी में आठ तथा नौ आगार होते हैं। अल्पावरण और अन्त्यसमाथि पच्चक्खाणके पांच, शेप सभी पच्चक्खाणों में चार आगार होते है । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग wwwwwwwwwwwyor Rakshaktikthakolalbalathkk तपागच्छीय पञ्चक्खाण सूत्र णमुक्कारसहिअ मुद्विसहिय पच्चक्खाण उग्गए सूरे, णमुक्कारसहिअं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाई चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तगरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ। पोरिसी साढपोरिसी पच्चक्खाण उग्गए सूरे, णमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, साढपोरिसिं मुट्टिसहिअं पञ्चक्खाई। चउन्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं,पच्छण्णकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सब समाहिवत्तियागारेणं, बोसिरइ । पुरिमढ अवढ पच्चक्खाण ___सूरे उग्गए, पुरिमट्ट, अवठ्ठ, मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाई, चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ। एकासण, बियासण तथा एगलठाण का पच्चक्खाण उग्गए सूरे, णमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, साढपोरिसिं, मुट्ठिसहिअं पञ्चक्खाई। चउन्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सब समाहिवत्तियागारेणं, विगइओ पञ्चक्खाई अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेबालेवेणं, गिहत्थसंसिटेणं, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, महत्तरागारेणं, सब्ब समाहिवत्तियागारेणं । एकासणं, वियासणं, एगलठाणं वा पञ्चक्खाई तिविहंपि, आहारं, असणं, खाइम, साइमं, अण्णत्यणाभागेणं, सहसागारेणं, सागारिआगारणं, आउट्टण पसारेणं ३ गुरु अब्भुट्ठाणेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तारागारणं, सव्व समाहिवत्ति akoshoobskolalitteleasibitiohidihatwadidihoatishkilisatisthashakakkalikhaohdalaatkhabdkothkkhthikthakhatkophktatahkhketinten!.. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Latestatisatoeskscotassitatistatestatistatemedbalakt a tulatestssetstakesta tistsky जन-रखसार wwwwwwwwwwww wwwmnewmummener | यागारेणं, पाणस्सलेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससि* त्येण वा, असित्थेण वा, वोसिरइ। आयंबिल पच्चक्खाण । ___उग्गए सूरे, . णमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, मुडिसहिअं पच्चक्खाई । * चउन्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थणभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहिवत्तियागारेणं । आयंबिलं पच्चक्खाई अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसिडेणं, उक्खित्त विवेगेणं, पारिद्वावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहिवत्तियागारेणं, । एकासणं पच्चक्खाई, तिविहंपि, आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, सागारिआगारेणं, आउट्टणपसारेणं, गुरुअब्भुट्ठाणेणं, पारिठ्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तिआगारेणं,पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थणे वा, असित्येण वा बोसिरइ । तिविहार उपवास पच्चक्खाण सूरे उग्गए, अन्भत्तह, पञ्चक्खाई, तिविहंपि आहारं, असणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिद्वावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहिवत्तियागारेणं, पाणहार, पोरिसिं, साढपोरिसिं, मुट्ठिसहिअं, पञ्चक्खाई, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तिआगारेणं पाणस्स। लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थंण वा, असित्थेण वा, बोसिरइ। चउविहार उपवास पच्चक्खाण ___सूरे उग्गए, अब्भत्तहँ पञ्चक्खाई, चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं पारिद्वावणियागारेणं, मह। त्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, बोसिरइ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sakatakitadhయ యనంద నుడattarticstatistics सूत्र विभाग mmmmmmmmwarrrrrrrrrrrrrrm रात्रि पच्चक्खाण पाणहार पच्चक्खाण पाणहार दिवसचरिमं पञ्चक्खाई, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ । चउविहार पच्चक्वाण दिवसचरिमं पञ्चक्खाई, चउन्विहंपि, आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ । तिविहार पच्चक्खाण दिवसचरिमं पच्चक्खाई, तिविहंपि आहारं, असणं, खाइम, साइम, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ। दुविहार पच्चक्खाण दिवसचरिमं पञ्चक्खाई, दुविहंपि आहारं, असणं, खाइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ । देसावगासिय पच्चक्खाण देसावगासियं उवभोगं, परिभोगं पच्चक्खाई, अण्णत्यणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ । पच्चक्खाण के आगारों का अर्थ उग्गए सूरे णमुक्कार सहियं पञ्चक्खाई चउव्विहंपि आहारं ॥१॥ अर्थ-जिस समय गुरु पञ्चक्खाण कराते हैं तो गुरु "पच्चक्खाई" यह शब्द कहते हैं तथा उस समय पञ्चक्खाण लेनेवाले को “पच्चक्खामि" । यह शब्द कहना चाहिये। * ग्रंथो में दो प्रकार के पञ्चक्खाणों का उल्लेख मिलता है (१) अशुद्ध पञ्चक्खाण (२) शुद्ध पदक्खाण। adhyaashankslailoitoidediocotaladalshtioeslediobatolasalatakarelahilosledishtosladlasaslisaseelbowleeltootosdishalalalirtasialishshalashalbeliotatolasalilialistialalaladasbhilaisalilarloslalashlatahdolalahlaladakadonlodnudsy साथ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार सूर्य उदय के उपरान्त दो घड़ी दिन निकल आने तक चारों आहारों का, णमुक्कार गिन कर त्याग किया जाता है वे चार प्रकार के आहार ये हैं : સ્પર્ ******** (१) असणं - अन्न, चावल, गेहूं, मूंग, चना, जवार आदि सब प्रकार के अनाज | सब अन्नों का आटा । सब तरह की साग, तरकारी । लड्डु, पेड़ा इत्यादि सब पकवान । आलू, मूली आदि सब प्रकार के कंद । दूध, चाय, दही, रोटी, राव, सब प्रकार की पतली और नरम वस्तुएँ । हींग, बेसन, सौंफ तथा सैंधवादिक नमक इत्यादि सब का समावेश “अशण" में होता हैं । (२) पाणं — जी का पानी, जौ के छिलके का पानी, चावल का पानी तथा गरम पानी इत्यादि सब प्रकार का पानी "पाण" में होता है । (३) खाइसं – नारियल, खजूर, आम, केला, अंगूर, अनार, ककड़ी, खीरा, अखरोट, बादाम, पिस्ता आदि सब मेवे तथा सब प्रकार के फल 'खादिम' कहे जाते हैं । साइमं —– पान, सुपारी, इलायची, लौङ्ग, पान का मसाला, दालचीनी, चूरनकी गोली आदि नुखवास चीजें तथा हरड़, बेहेड़ा, आंवला, तुलसी, कत्या, मुलैठी, तमाल पत्र वायविडंग, अजवायन, कुलिंजन, कवावचीनी, कचूर, नागरमोथा, पोकर मूल, बबूल की छाल, खैर की छाल इत्यादि वस्तुएं 'स्वादिम' कहलाती हैं । (१) "अण्णत्यणाभोगेण” :- अनाभोग टालके किया जो पच्चक्खाण अर्थात विस्मृति के कारण कोई भी वस्तु भूल कर सुख में डाली हो, परन्तु ज्ञान होने पर तत्काल उसको थूक देवे तो पञ्चक्खाण में दोष नहीं लगता । किन्तु जानने के बाद भी भक्षण करें तो पच्चक्खाण निश्चय भंग होता है । (२) “पच्छण्णकालेण” :—मेघ, रज, ग्रहण आदि के द्वारा सूर्य ढक जाने से या पर्वत की ओट में आजाने से सूर्य दृष्टिगोचर न हो, तब Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ".. सूत्र विभाग ७३ भ्रम पूर्वक पच्चक्खाण का समय समाप्त हुआ जान कर भोजन आदि कर ले, तो व्रत भङ्ग नहीं होता है । शुद्ध पच्चक्खाण उसे कहते हैं जो पच्चक्खाण करने वाले या कराने वाले आगारों का अर्थ सुचारु रूप से जानते हों । अतः पच्चक्खाण करनेवालों का परम कर्त्तव्य है कि वे शुद्ध पच्चखाण करने का प्रयत्न करें तथा पच्चक्खाण करानेवाला जब अंत में "वोसिरे” कहता है तो करनेवाले को अवश्य "वोसिरामि" कहना चाहिये । अन्यथा व्रत नहीं लिया हुआ समझा जाता है } (३) दिसामोहेणं - दिशा का भ्रम हो जाने से अर्थात पूर्व दिशा को पश्चिम दिशा जानकर काल समाप्ति से पूर्व ही भोजन कर ले तो व्रत खण्डित नहीं होता । तालते (४) सहसागारेण - अतिशीघ्रपने में या अकस्मात् से घी तेल आदि हुए या देखते हुए छींटे मुख में गिर जायें तो व्रत में दूषण नहीं लगता है । (५) साहुवय - साधु के वचन से "उग्घाडा पोरिसी” शब्द को, जां कि व्याख्यान में पोरिसी पढ़ते समय बोला जाता है, सुनकर अधूरे समय में ही पच्चक्खाण को पार लेने से व्रत भङ्ग नहीं होता । (६) सव्र्वसमाहिबत्तियागारेणं - पच्चक्खाण का समय पूरा होने के पूर्व ही तीव्र रोगादिके कारण अस्थिर चित्त तथा आर्त्तरौद्र ध्यान होने से, उस रोगके उपशमन (शान्त करने) के हेतु औषधी आदि ग्रहण करने से दृता नहीं । (७) महत्तरागारेण विशेष निर्जरा आदि खास कारण से गुरु की आज्ञा पाकर निश्चय किये हुए समय से प्रथम ही पच्चक्खाण पार लेने से मन में दूषण नहीं लगता । प --- यति प्यारा के समय सूत्र समाप्ति तथा चरित्र प्रारम्भ के प्रथम जो साधु, पति) पल्दिन करके पक्लाण कराते है उसे 'उघाडा पोरिसी" Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ప్రతctatisticatio alattit o tation n जैन-रत्नसार ७४ - -- ---- -- -- akalamketakakakikakuthrimlakartakofiti koliminal-Etios karlirtskirinoli-fimli thakirka.isthorta limisioki toliwi nauth inkamlinkethalamwlinetrinthiakh maliniakah tichatarkatirliardeli-lakatest atatasantadakatalakataratmatalilianthineselithalalkritientalaitan-finitellitishallant- t (८) सागारीआगारेणं-जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा है कि साधू एकान्त स्थान अर्थात् जहां कोई गृहस्थ न देखता हो भोजन करे, यदि एकासणादिक पच्चखाण करके भोजन खाने के लिये बैठे हुए साधु महाराज के पास कोई गृहस्थ चला आवे तो मुनि महाराज उस स्थान से स्थानान्तर होवें तो पच्चक्खाण भंग नहीं होता । तथा गृहस्थों के लिये इस बात को उल्लेख है कि वे यदि एकासणादिक पच्चक्खाण लेकर भोजनार्थ बैठे हुए को सम्मुखस्थित पुरुष की नजर लगती होय तो वे यदि स्थानान्तर होते हैं तो व्रत खण्डित नहीं होता। (९) आउट्टणपसारेणं-सर्प के आने से, अग्नि प्रकोप से, मकान के गिर पड़नेसे, अंग सुन्न पड़ जानेसे यदि हाथ पैरोंको फैलाया या सिकोड़ा जाय तो नियम भङ्ग नहीं होता है । (१०) गुरुअभुट्ठाणेणं-गुरु महाराज या कोई बड़े पुरुष के विनय करने के लिये भोजन करते हुए, एकासणादिक में आसन छोड़कर खड़ा हो जाने से व्रत टूटता नहीं। (११) पारिठ्ठावणियागारेणं-अधिक हो जाने के कारण जिस आहार को उस सरस आहार के परठवन' से अधिक जीव विराधना होती देखकर गुरु आज्ञा से पच्चक्खाणधारी साधू दुसरे समय भी आहार करे तो नियम खण्डित नहीं होता। (१२) लेवालेवेणं-भोजन करने के थाल प्रमुखादि भोजन में धृतादिक विगय द्रव्य का अंश लगा हुआ देखकर, हाथादि से साफ कर लेने पर भी जिस बर्तन में चिकनाहट का कुछ अंश रह जाय, उसमें यदि आयम्बिलादि व्रतवाला भोजन कर लेवे तो व्रत भङ्ग नहीं होता है। (१३) उक्खित्तविवेगेणं-आयम्बिलादि पच्चक्खाण में न खाने योग्य • अपनी भूख से अधिक भूल कर लाया हुआ या गृहस्थ द्वारा भक्तिवशात् अधिक दिया हुआ आहार को गुरु-आना से धन में जाकर साधु शुद्ध भूमि में परिठावे, अर्थात मिट्टी में मिला देवे उसे "परठवना" कहते हैं! hakur-tulatalath k adilatolast-trakatalalaptisatists n A NI-TARAI - - atree e r t Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ผ6 ไซได้ได้ไขงไซไฟในไตะไคได้ดไไดไไดได้ไม่ได้ใet క్రతువు గురించరనగ చ చ క వడ మంచు కుండను తను నను నడుపుతున్న యువకుడు ముందుకు నడిపండు నుంచునాడు . सूत्र विभाग जो विगय द्रव्य है उसका स्पर्श भूल में यदि खाने योग्य वस्तुओं से हो जाये तो उनके खाने में दोष नहीं। (१४) गिहत्थसंसिडेणं-अन्य आहार या धी तेल आदि से लगी हुई कडछी आदि को साफ कर लेने पर भी चिकनाहट या गंध का थोड़ा अंश उसमें लगा रहे । उस कडछी से कदाचित आयम्बिलवाले को खाना परोसा गया हो तो नियम भङ्ग नहीं होता है। (१५) पडुच्चमक्खिएणं-भोजन बनाते समय जिन चीजों पर भूल कर घी, तेल आदि की उंगली लग जाय या घी से चुपड़े हुए फुलकों आदि का स्पर्श हो जाय, उन वस्तुओंको आयम्बिलादि पच्चक्खाण वाला भक्षण कर ले तो व्रत भङ्ग नहीं होता। सार्थपोसह सज्झाय सूत्र जग चूड़ामणि भूओ, उसभी वीरो तिलोय सिरि तिलओ। एगो लोगाइच्चो, एगो चक्खू तिहु अणस्स ॥१॥ भगवान् ऋषभदेव संसारके चूड़ामणि रत्नके समान हैं और भगवान् महावीर त्रिलोक लक्ष्मी के तिलक समान हैं। एक दुनिया के प्रकाशक सूर्य के समान हैं तो दुसरे संसार के लोचन ( नेत्र ) हैं ॥१॥ संवच्छर मुसभ जिणो, छम्मासे वद्धमाण जिणचंदो। इह विहरिया णिरसणा, जएज्जए ओवमाणेणं ॥ २ ॥ भगवान् ऋषभदेव ने एक वर्ष तक और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल मुखवाले भगवान् वर्द्धमान ने छै महीने तक निराहार रह कर तपस्या की। इसी उदाहरण को सामने रख कर तप में प्रयत्नशील होना चाहिये ॥२॥ जइत्ता तिलोय णाहो, विसहइ बहुयाइं असरिसजणस्स। इय जीयंत कराई, एस खमा सव्व साहूणं ॥३॥ त्रिलोकीनाथ आदीश्वर प्रभु ने दुष्ट मनुष्यों के बहुत से प्राणांतिक उपद्रवों को बर्दाश्त किया ( पर उनके विरुद्ध कुछ न किया )। यही 1 क्षमा ( सहिष्णुता ) सभी साधुओं को होनी चाहिये ॥३॥ athtushtakalakatalalalalakattatukatsweath-thasestarlastarakhnaadesirealartelalosarobabsadanaslcalakleeast a Intel-intaintaineruthletindain teleftrianiahintaminalatrinki-katantatat.aliratkistanor ใดใดไขได้ใeeโทไคโตสไพ เจได ในใจได้ไหนได้ไวไวไวนไดไไไไดดให้ดไนโตได้ให้ใคใดไกลโคไดลงได้ใจได้ในคไทโตไคไค โดให้ใครไดใน โอใจไขไปใครไปไม่ไปไหนไพร ไจไปคไลด ในไต โรคไต Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ อไปันไหนเคยในไพรไ ได้ไงไม่ไหลไดไไ ได้ ไคนไหนูไม่ไป โตไคนในคดูไนไพงไหล ไกในในใจ ไพในไอได้ไหงไม่ได้ใช้ ณ ปัจในปัดได้เงได้ให้ใครไทยให้ได้ไม่ได้ใช้ ไปไหนไปดูได้ในไดไไดได้ใจผู้ได้ไงได้ใจดในใจไทยทัศไนไตตั้นได้ในไดไไไไไไไงใครได้ไพได้ใจไดไฟ ไฟไปให้ไดได้ไพไดได้ไงไงไงไงไงให้ได้คงได้ไพได้ไปัจจใสปันได้ไงให้ไดได้นี้ไม่ได้ใสให้ได้ไง जन-रखसार ण च इजइ चालेउ, महइ महावडमाण जिणचंद्रो । उवस्मन्ग सहस्सेहिवि, मेरु जहा बाय गुंजाहिं ॥४॥ महाबुद्धिमान जिनामचन्द्रवत् महावीर हजारों उपद्रवॉक होते हुए भी वायु के झोकों से मेरु की तरह जरा भी विचलित न हुए ॥ell भही विणीय विणआ, पढम गणहरी समत्त मुयणाणी । जाणतावि त मत्यं, विम्हिय हिया मुणइ सव्वं ॥५॥ कल्याणकारी विनयवन्त और समस्त श्रुत ज्ञान के जाननेवाले प्रथम गणधर गौतम स्वामी उस अर्थ को समझते हुए भी विस्मत (ध्यानपूर्वक) हृदयस मुनते थे ||५|| जं आणइ राया पवइओ, तं सिरण इच्छंति । झ्य गुरुजण मुह भणियं, कयंजली उडेहि सायब्वं ॥६॥ राजा की आज्ञा का अनुचर लोग बड़े श्रम से पूर्ण करने की इच्छा करते हैं, ठीक उसी तरह गुरुजनों के मुख से कही हुई बातों को दोनों हाथ जोड़कर सुनना चाहियं ॥६॥ जह मुर गणाण इंदा, गहगण तारागणाण जह चंदा । जय पयाण परिंदो, गणम्स वि गुरु तहाणंदो ||६|| जिस तरह इन्द्र देवताओं को, चन्द्रमा ग्रह ताराओं को, राजा है प्रजाओंको मुख प्रदान करते हैं उसी तरह गुरु अपने गच्छमें (शिष्यवर्ग) को आनन्द दिया करते हैं ॥७॥ वालुन्ति महीपाला णपया, परिहवइ एस गुरु उबमा ! जंबा पुरओ कार्ड, विहरति मुणि तहा सोवि ॥८॥ प्रजा जिस तरह बालक ग़जा का भी तिरस्कार नहीं करती है उसी तरह अवस्था अथवा चारित्र में छोटे होनेपर भी मुनि, साधु, यति, श्रमण, निरअन्य आदि नामवालों को सबक आगे आचार्य पद दनक बाद मुनि उन्हें अपना गुरु समझ कर साथ विचरते हैं। पडिरूवा तेबस्सि, जुगप्पहाणागमा महुरबको । गम्भीरी घिइमंती, उबएसपरो य आयरिओ ॥९॥ มีผู้ใด ไม่ไปไหน ไป ใจหนึ่งในสไตไตใหญ่ใจนไอสไอไม่ให้ผู้ใด ไม่ได้ไปไหน สไนไตรงไห้ไป ไอนในไตไดไไดไไg Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇంద c atalathtakaalantatatatatatatattathalatatatatatatatatatatatatatatatatakshatakshattisthitha सूत्र विभाग - మlashlist దురుద h at Part-ttitutet-tottamatatuttinatterna tionantsanstarshottamatarantertastaksistarthatantrkaakahsalianisoneleslaslelalplastiniahinsistinatolaporaminagar जो तीर्थङ्कर गणधरों के प्रतिनिधि स्वरूप मौजूदा जमाने में सबसे बड़े श्रुत ज्ञाता मधुर भाषी गम्भीर विचार वाले बुद्धिमान् और उपदेश देने में समर्थ होते हैं वे ही आचार्य हैं ॥९॥ अपरिस्सावी सोमो, संगहशीलो अभिग्गह मईअ । अविकत्थणो अचवलो, पसंत हियओ गुरु होई ॥१०॥ किसी एकके दोष गुणको दूसरेसे न कहनेवाले, वुलंद (देदीप्यमान) चेहरेवाले शिष्यगणोंके लिये वस्त्र, पात्र एवं पुस्तकोंका संग्रह करनेवाले, किसी विषयको समझ लेनेमें समर्थ बुद्धिवाले अपनी प्रशंसा न करनेवाले या मितभाषी, ( कम बोलने वाले ) स्थिर और प्रसन्न हृदय वाले गुरु होते हैं॥१०॥ कइयावि जिण वरिंदा, पत्ता अयरामरं पहं दाउं । आयरिएहिं पवयणं, धारिज्जइ संपयं सयलं ॥११॥ किसी समय जिनेन्द्रदेव मोक्ष का मार्ग बताकर चले गये । पर बाद में आजतक उनके प्रवचन उपदेश को आचार्यों ने ही सुरक्षित रखा है। अणुगम्मए भगवई, राय सुयज्जा सहस्स वंदेहिं । तहवि ण करेइ माणं, परियच्छइ तं तहा णूणं ॥१२॥ दधिवाहन राजा की कन्या साध्वी चन्दनवाला हजारों साध्वियों के साथ प्रवर्तिका हुई। फिर भी पूज्यपद का मान नहीं रखती थी। पूज्यपदको भी ज्ञान चारित्रादि गुणोंके माहात्म्यका ही फल समझती थी॥१२॥ दिण दिक्खियस्स दमगरस, अभिमुहा अजचंदणा अज्जा ॥ णेच्छइ आसण गहणं, सोविणओ सव्व अजाणं ॥१३॥ केवल एक दिन का दीक्षित साधु आर्या चन्दनवाला के सामने आया । पर जबतक वह खड़ा रहा, चन्दनवाला अपने आसन पर नहीं बैठी । यही विनय सभी साध्वियों का आदर्श है ॥१४॥ वर ससय दिक्खियाए, अजाए अज दिक्खिओ साहू॥ अभिगमण वंदण णमं, सणेण विणएण सो पुज्जो ॥१४॥ t ituticialisatiడుకుందుడుకు వ lthtakalantisatistickుడిదుడుపడటthatsatatashatitis Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी आज के दीक्षित साध की अगवानी करे, वन्दन करे, नमस्कार करे, विनय के साथ आसन दे और यह समझे कि यह पूज्य हैं ||१४|| ७८ धम्मो पुरिसप्पभवो पुरिसवरदेसिओ पुरिस जिट्ठो ॥ लोएवि पहू पुरिसो किं पुण लोगुत्तमे धम्मे ||१५|| पतन की ओर जानेवाले को जो बचाता है, वही धर्म्म है । वह धर्म पुरुषों द्वारा अर्थात् तीर्थङ्करों एवं गणधरों के दीमाग से ही पैदा हुआ है और उस धर्म के सचमुच पालक रक्षक पुरुष ही हुए हैं । लोक में भी पुरुष ही प्रभुताशाली होते हैं । इसलिये स्त्रियों से पुरुषों का दर्जा ऊंचा है ||१५|| संवाहणरस रण्णो तइया, बाणारसीइ णयरीए । कण्णा सहस्स महियं, आसी किररूव वंतीणं ॥ १६ ॥ तहविय सा रायसिरी, उलटंती पण ताइया ताहिं । उयरट्ठिएण इक्केण, ताइया अंगवीरेण ॥१७॥ उस जमाने में बनारस में संवाहन नामक राजा के बड़ी सुन्दरी हजार कन्याएं थीं । पर जब दुश्मनोंने लूटने के ख़याल से उस राजा पर चढ़ाई की तो वे कन्यायें राजलक्ष्मी को न बचा सकीं । पर उसके गर्भ से प्रादुर्भूत अकेले अंगवीर्य पुत्रने ही राजलक्ष्मीको दुश्मन राजाओं से बचा लिया । इसलिये पुरुष की प्रधानता न्याय संगत है । महिलाणसु बहुयाणवि, अज्जाओ इह समत्त घर सारो । राय पुरुसेहिं णिज्जइ, जणेवि पुरिसो जहिं णत्थि ॥ १८॥ स्त्रियां कितनी ही चतुर क्यों न हों, अगर उसके घर में पुरुष नहीं, उत्तराधिकारी औलाद नहीं तो राज पुरुष उनके घर से संचित धन ले जाकर राजकोष (खजाने) में जमा कर लेते हैं । स्त्रियों का कुछ वश नहीं चलता । इससे भी पुरुष की प्रधानता सिद्ध होती है ॥१८॥ } किं पर जण बहुजाणा, चणाहिं वरमप्प सक्खियं सुकयं । इह भरह चकवट्टी, पसण्ण चंदो य दिहंता ॥१९॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Latestatestcoastalesectalathikanadataalaaaaaaantetainedodestoratadataanadalaalobstetathsaladasoeeklinitiadeslakateshe ....... ................................... . thokinnrhotolularlrelrlielievelonlintroinelonfrontrearrange m-listerintentitatma.kotatoebenteorolat otatutoriratnahatooltatmahatranalistinutekelelialist-listirliamkelunket-tankhrelimtekelirioticli-ballierrealnirelrgeraniretrieveer सूत्र विभाग दूसरे की दृष्टि में धार्मिक बनने के लिये जो धर्म किया जाता है, वह निरर्थक है । उससे कुछ होने का नहीं । इसलिये आत्म साक्षित्व से धर्म करना चाहिये जो कि वस्तुतः शुभफलदायी होगा। इसके लिये श्री भरतचक्रवर्ती और प्रसन्न चन्द्र ऋषि दृष्टान्त स्वरूप हैं ॥१९॥ वेसोवि अप्पमाणो, असंजम पएसु वट्टमाणस्स । किं परियत्तिय वेसं, विसं णमारेइ खज्जं तं ॥२०॥ कुमार्ग में प्रवृत्त साधु का उसके केवल वेष से रजोहरण चोलपट्टा आदि चिन्हों से क्या हो सकता है ? बहुरूपिये को केवल वेषधारण से क्या ? अर्थात् जिस तरह कोई एक बहुरूपिया समरोन्मुख वीर योद्धा की शक्ल लेकर आ सकता है पर युद्ध उपस्थित हो जाय तो वह निकम्मा • साबित होगा ठीक उसी भांति उस ढोंगी साधू का वह ढोंग कामयाब न होगा और विष जिस तरह खाये जाने पर खानेवालों को मार डालता है उसी तरह कुमार्गगामी साधु को कुमार्ग का खोटा फल मजा चखा ही देता है ॥२०॥ धम्मं रक्खइ वेसो, संकइ वेसेण दिक्खिओमि अहं । उम्मग्गेण पड़तं, रक्खइ राया जणवओ य ॥२१॥ जिस कुमार्गगामी मनुष्यों को राजा दण्डादि व्यवस्था से ठीक रास्ते पर लाता है उसी प्रकार वेष धर्म को व्यवस्थित रखता है और यह भी ख़याल होता है कि मैं दीक्षाधारी हूं ॥२१॥ . . अप्पा जाणाइ अप्पा, जहडियो अप्पसक्खिओ धम्मो । 'अप्पा करेइ तं तह, जह अप्पसुहावहं होई ॥२२॥ आत्मा ही आत्मा के शुभ तथा अशुभ परिणामों को जानता है । अतएव अपनी आत्म साक्षिता से जो धर्म किया जाता है, हे आत्मन् ! वही उस आत्मा का वास्तविक धर्म सुखदायक सिद्ध होता है ॥२२॥ जं जं समयं जीवो, आविस्सइ जेण जेण भावेण । सो तम्मि तम्मि समये, सुहासुहं बंधये कम्मं ॥२३॥ जीव जिस जिस समय जो कुछ अच्छा या बुरा काम करता है, Rehlakaalosleeligalureuaajndajuolesalysioladievelaebalatrolpda teleelpilvelonlaoindeynilaaja leela Jatrnlaolaoladleela lailaarokar-drolodladisleaneleoinlaeladeshslidleodadleatheleelbilnaticleinoledidaboolodlusloweledietnathtulatoudatela ninonalonleonanesale laladast ravelammar-tirlinicliarkalenti-PAINilimlanki- k m A Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० dotteet kirtant to bibloteketl जैन - रत्नसार वह ठीक उसी उसी समय शुभ या अशुभ परिणामों से आबद्ध हो जाता है ||२३|| धम्मो मएण हुंतो, तो गवि सीउन्ह वाय विजड़िओ । संवच्छर मणसीओ, बाहुबली तह किलिस्संतो ॥२४॥ वर्ष भरतक शीतोष्ण सहते हुए, निराहार रहते हुए उतने क्लेश शारीरिक तकलीफों को बर्दाश्त करते हुए बाहुबली ने कठिन तपस्या की ; पर हृदय में घमण्ड था, नतीजा यह हुआ कि केवल ज्ञान न मिला । इसलिये घमण्ड छोड़ देने पर ही साधुको सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है ॥२४॥ णियगमइ विगप्पिय, चितिएण सच्छंद बुद्धि चरिएण । " अणुवए सेणं ||२५|| कत्तो पारतहियं, कीरइ गुरु गुरु के उपदेश को ग्रहण करने में असमर्थ अथवा उछृङ्खलता से अपनी बुद्धिमानी के घमण्ड से ( गुरु उपदेश की ) अवहेलना करके जो शुभानुष्ठान और क्रियायें परलोक में हितकर होने के ख़याल से की जाती हैं वे वहां हितकारी सिद्ध नहीं होती । फलतः गुरु के उपदेशों का अवलम्बन करना नितान्त जरूरी है ॥२५॥ यो णिरोवयारी, अविणीयो गव्विओ णिरवणामो । साहुजणस्स गरहिओ, जणे वि वयणिज्जयं लहइ ॥२६॥ गुरुओं के आगे नतमस्तक न होनेवाले अहंकारी अविनीत एवं निरुपकारी मनुष्य की साधुओं से लेकर समाज तक बड़ी निन्दा होती है । अतएव जैन धर्म को स्वीकार करके विनीत बनना निहायत जरूरी है ||२६|| थोवेण वि सप्पुरिसा, सणं कुमारुव्व केइ बुज्झति । देहे खण परिहाणि, जं किर देवेहिं से कहियं ॥२७॥ कतिपय सत्पुरुषों को थोड़े निमित्त से ही बोध हो जाता है। जैसे क्षणभर में देह के रूप का नाश देखकर देवों के जरिये चक्रवत्त सनत्कुमार को ज्ञान हुआ था ॥२७॥ जइता लव सत्तम सुर, विमाण वासी वि परिवडंति सुरा । चिंतिज्जंतं सेसं, संसारे सासयं कयरं ॥२८॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग जिनकी सात लवकी आयु है. वे देवता भी अवनकालमें शोचा करते हैं कि धर्म के मिवाय अन्य सब वस्तुयें नश्वर ( नाश ) हैं ॥२८॥ ___कह तं भण्णइ मुक्खं, सुचिरेण वि जम्स दुक्खमल्लि हियए । जं च मरणावसाणे, भव संसाराणु बंधिं च ॥२९॥ वह मुग्व मुग्व नहीं है, जो अन्त में दुःख रुप परिणत हो जाय । अतएव देवत्व में भी मुख नहीं है, क्योंकि आखिर देवत्व से च्युत होकर संसार में चक्कर लगाना पड़ता है ॥२९॥ उवएस सहस्सहिं, बोहिजंती ण बुझई कोई। जह बंभदत्तगया, उदाइणि मारओ चंब ॥३०॥ किसी किसी मनुष्य को हजारों बार उपदेश देने पर भी बोध नहीं : होता है। जैसे चक्रवती ब्रह्मदत्त और उदायि राजा के माग्नेवाले पर 2 उपदेश का कुछ भी असर नहीं हुआ ॥३०॥ गवकण्ण चंचलाए, अपरिच्चत्ताइ राय लच्छीए । जीवालकम्म कलिमल, भरिय भरातो पडंति अहे ॥३॥ अपरिचित तथा अपने कर्मरूप मेल के बोझ से नीचे की ओर ले ' जानवाली हाथी के कर्ण की तरह चञ्चल राजलक्ष्मी भी जीवों को अधोगति • प्रदान करनी है : फलतः गजलक्ष्मी से भी कुछ होने जाने का नहीं ॥३॥ वात्तृणवि जीवाणं, मुद्रुक्कराईति पाव चरियाई । भयवं जा सा साना, पन्चागली ह इणमा ते ॥३२॥ जीवों की प्राणियों के विशेष खोटे आचरणों ने कहना भी दुष्कर : हो जाता है । हे भगवन ! जो मेरी बी है, वह किनी समय मेरी बहन धी! अनः कर्म की लीला विचित्र है. यह कहना पड़ेगा। हर हालात में • पापामग्ण से बचना चाहिये ॥३२॥ पटिवटिजण दोन. गियर सन्नं च पाय वडियान । नो कि मिगाईए. उप्पागं केवलं जागं ॥ निश्चय पूर्व मन्दीमांति मन वचन को शुद्ध करके अपने दाग की : . . . . . . . . . . . . . . . . Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wrrrrrroreel EC ในปัจในไอใกไกโกใจใดใด जैन-रत्नसार आलोचना करती हुई एवं गुरु चरणों में भक्ति रखती हुई मृगावती साध्वी को आवरण रहित पांचवां ज्ञान (केवलज्ञान) उत्पन्न हुआ। इसलिये विनय धर्म में ही सर्वगुणों का समावेश हो जाता है ॥३३॥ देसावगासिक पच्चक्वाण अहंणं भंते ! तुम्हाणं समीवे देसावगासियं पञ्चक्खामि । दवओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। दव्यओ णं देसावगासियं, खित्तओणं इत्य, वा अणत्य वा कालोणं जाव धारणा भावओणं जाव गहणं न । गहेन्जामि, छलेणं ण छलेज्जामि, अण्णेण केणवि रोगायकेण वा एस में . परिणामो ण परिवडइ ताव अभिग्गहो, अण्णत्यणाभागेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहि वत्तियागारेणं वोसिरइ । देसावगासिक पारण गाथा जेमे जाणं तिजिणा अबराहा जेसु जेसु ठाणेसु । ते सन्चे आलोएमि अभुडिओ संघ भावेण ॥१॥ मैंने देसावगासिक विधि से लिया, विधि से पूर्ण किया, विधि में किसी प्रकार की अविधि हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं । ॥ इति सूत्रविभागः॥ ใจให้ไดไไไไฉไลไกใดใกใกไดไไดไกในใดใดใดในใจให้ไกใดในโลกไกะไดได้ใจ Eudr tale Thaliliate lintasterlastushalirticlnatantainitalistarlalethalalitAHATETamanthalamASERTAsleshalilakshaastalianchistialaalnilnaliratkinnealo inlamlanata lmalentilamle-litatistraliatmeatmlsalilionlinentalmishtactrelidinamainaleliatnaale luntaratmaster ไขคไดไไไดไม่พบไอนไลไอดไปที่ไหนไดไไดไละงปไกลไม่ได้ไปไกลไกได้ไงไจโกงไพรใกลไกใดปีกในไปกติใดใดใดใดใดไกลไกในสไไดไไกไกได้ไหนไม้ใคใดได้ไง * देसावगासिय जघन्य से तीन सामायिक की होती है और उत्कृष्ट से १५ सामायिक * की होती है। दशम देसावगासिक व्रत का पञ्चक्खाण करनेवालों को सामायिक अवश्य र लेनी चाहिये। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇవనందitiatiotshistatatatatattatharnatakవత వనండు వందల మందు विधि-विभाग Eukrintaktikartitel-winterartiniateketinistrarrtskoshiroktarakirakstateriakahakatreekshekshatrakarsatrakoteliarkestatekak-tetradkatearcharddahat.kethalaakestraroristslotatistickastartoolbolist-startinkelcolakaalantietalialee प्रातःकालीन सामायिक लेने की विधि सर्व प्रथम शुद्ध वस्त्र पहन कर चरवले ( पूंजनी ) से सामायिक स्थल (जगह) को साफ करे फिर पाट, पट्टा या चौकीपर ठवणी रखकर उसके ऊपर स्थापनाचार्यजी की स्थापना करे नहीं तो पुस्तक या माला की स्थापना करे । उस समय दाहिना हाथ सीधा करके बायें हाथ में मुंहपत्ति लेकर मुखके सामने रख तीन 'णमोक्कार' गिनकर स्थापना स्थापे (रखे)। शुद्ध स्वरूप का पाठ बोल कर स्थापनाजी की पडिलेहण करे । तदनन्तर प्रथम तीन खमासमण दे, खड़े खड़े 'इच्छकार०' तथा 'अब्भुडिओमि०' सूत्रका 'इच्छं खामेमि राइयं तक पाठ बोले । (गुरु महाराज की उपस्थिति में उनका आदेश लेकर ) नीचे बैठ मस्तक नवा कर जीमना ( दहना) हाथ भूमि पर स्थापित करके बायें हाथ में मुखवस्त्रिका रखकर अन्भुडिओमि० का पाठ बोले। बाद 'खमासमण' देकर 'इच्छाकारेण संदिसह' भगवन् ! सामायिक लेवा मुंहपत्ति पडिलेहूं । इच्छं कह पचास बोलों सहित मुंहपत्ति पडिलेहे । फिर खड़े हो खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक संदिसाहूं ! इच्छं। कहकर फिर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' ! 'सामायिक ठाऊँ ? इच्छं कह खमासमण दे आधा अंग नवा तीन 'णमोक्कार' गिने । बाद इच्छकारि भगवन् पसाय करी सामायिक दंडक ‘उच्चरावोजी' कहे अगर गुरु महाराज हों तो उनसे अथवा अपने आप तीन बार 'करेमि भंते.' का पाठ बोले। तत्पश्चात् एक खमासमण देकर खड़े खड़े 'इरियावहियं तस्स उत्तरी०, 'अणत्य' बोलकर एक 'लोग़स्स' या चार णमोक्कारका काउसग्ग करे। पारकर प्रगट लोगस्स०४. १-गुरुओं के उपस्थित रहनेपर इक्कीसों प्रकार की स्थपनाओं में से किसी भी प्रकार की स्थापना की जरूरत नहीं । २–यह दोनों वोल पृष्ठ २ में है। ३- यह सम्पूर्ण तीनों पाठ पृष्ठ ३ में है। ४- यह पाठ सम्पूर्ण पृष्ठ ४ में है। ELaalodaslilosladhalaalanoledislidasaduadkolaskiladkilsonlaolodkamkishaashaalbakalilioksladkakkaleshakashyaladidatlatksrotshalisishistholileolalietalisedliliokaleletioladklarlashleeksheshkoledhhhladadla telurla thokailalalankedical Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार कहे । फिर खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् वेसणं. संदिसाहूँ' ! इच्छं । फिर 'खमांसमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् वेसणं ठाऊँ ! इच्छं । फिर खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सज्झाय संदिसाहूँ फिर खमांसमण देकर इच्छाकारेण संहिसह भगवन् सज्झाय करूं? इच्छं कहकर आठ णमोक्कार गिने । ८४ अगर सर्दी हो तो कपड़ा लेनेके लिये एक खमासमण देकर इच्छाकारेण पांगरणं संदिसाहूं कहे । तब इच्छं कहे । फिर खमासमण देकर 'इच्छाकारेण • पांगरणं पडिग्गहूं ? कहे । तब इच्छं कहकर वस्त्र लेवे । सामायिक या पोसहमें कोई सामायिक या पोसह वाला श्रावक वन्दन करे तो 'बन्दामो कहे' और दूसरे श्रावक वन्दन करें तो सज्झाय करेह कहै । सामायिक पारने की विधि प्रथम चरवला अथवा पूंजनी व मुंहपत्ति ले खड़ा हो एक खमासमण देकर इच्छाकारेण • सामायिक पारवा मुंहपत्ति पडिलेहूं ? इच्छं कह मुंहपत्ति पडिलेहे फिर खमासमण कहे। बाद इच्छाकारेण० सामायिक पारू ? कहे । गुरु के पुणो विकाव्वो कहनेके बाद 'यथाशक्ति कहे फिर खमासमण देकर इच्छाकारेण सामायिक पारेमि ? कहे । जब गुरु 'आयारो णमोaat' कहे तब 'तहत्ति' कहकर आधा अंग नमा खड़े खड़े तीन णमो - क्कार पढ़े । पीछे घुटने टेककर सिर नमा दाहिना हाथ आसन या चरवले पर रख भयवं दसण्णभद्दो० १ आदि पांच गाथा पढ़े। पीछे 'सामायिक विधि से लिया, विधि से पूर्ण किया, विधि करते कोई अविधि हुई हो । दस मन के, दस वचन के, बारह काया के । कुल बत्तीस दोषों में कोई दोष लगा हो तो मिच्छामि दुक्कडं कहे । सामायिक सम्बन्धी विशेष बातें १- सामायिक लेनेके बाद दीपक या बिजलीका प्रकाश शरीर पर पड़ा हो या प्रमाद किया हो तो 'इरियावहियं ०' तस्स उत्तरी• अणत्य० २ कहकर एक १ - यह पाठ पृष्ठ १८ में है । २-यह पाठ पृष्ठ ३ में है । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwww MPPM विधि-विभाग लोगस्स. का काउसग्ग करें' उसको पार कर प्रगट लोगरस. कहने के बाद सामायिक पारने की विधि प्रारम्भ करे । मन के दश दोष २-दुश्मन को देख कर जलना। २ अविवेक पूर्ण बातें सोचना। ३ तत्त्व का विचार न करना। ४ मन में व्याकुल होना। ५ इज्जत की चाह करना। ६ विनय न करना । ७ भय का विचार करना । ८ व्यापार का चिन्तवन करना । ९ फल में सन्देह करना। १० निदान ( न्याणा ) पूर्वक फल संकल्प करके धर्मक्रिया करना। वचन के दश दोष १ दुर्वचन बोलना । २ हूंकार भरना । ३ पाप कार्य का हुक्म देना । ४ बिना काम बोलना। ५ कलह करना । ६ कुशलक्षेम आदि पूछ कर आगत स्वागत करना । ७ गाली देना । ८ बालकको खिलाना । ९ विकथा (निन्दा ) करना । १० हंसी दिल्लगी करना । काया के बारह दोष १ आसन को स्थिर न करना। २ चारों ओर देखते रहना । ३ पाप वाला काम करना । ४ अंगड़ाई लेना । ५ अविनयकरना । ३६ भीत आदि के सहारे बैठना । ७ मैल उतारना । ८ खुजलाना । ९ पैर पर पैर चढ़ाना । १० काम वासना से अंगों को खुला रखना । * ११ जंतुओं के उपद्रव से डर कर शरीर को ढांपना । १२ ऊंघना । सब मिलाकर बत्तीस दोष हुए। ४-एक ही साथ दो या तीन सामायिक करनी हो तो प्रत्येक । सामायिक लेते समय सामायिक लेने की जो विधि है सो करनी । सामायिक पूर्ण होने पर एक ही दफे पारने की विधि करनी। लेकिन दुसरी या तीसरी सामायिक लेते समय 'सज्झाय करूं? इस वाक्य के मामायिक करनेवालों को ३२ दोपों में से निरन्तर (रोजाना ) कम करने की जरूरत है। 'eokala kalathkadhaliuhikslashtakeholestehetstalks to ludkhahah kinarkalihoodabholedonloetbhediahalkataketiri-hioletaleelosioladkihothokhothlalocalidalatolarakeahtahaantitlehtretithintamarathi tratant... Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sotrostostslettolasahekolatakatriotskeedohsekakkakotthalaadebatesearolesanliantartedaaslelidkeeteelcalesedalisedlelialekaledolerkeletaste जैन-रत्नसार winwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww सल्तनत्रजनप्रमाणप्रत्रनयनतनयन्त्रण SAlastisabitaITERSTACHMarlelectio n मननननननननननननननन्द्रप्रयानमत्रत्रयननयन्त्रणप्रत्रमा स्थान पर 'सामायिक' में हूं ऐसा कहकर तीन णमोक्कार के बदले एक ही णमोक्कार बोलना। संध्याकालीन सामायिक लेने की विधि दिन के अन्तिम पहर में पौषधशाला, उपाश्रय या पौशाल आदि में जाकर या घर में ही एकान्त स्थान में उस स्थान का तथा वस्त्र का पडिलेहण करे । अगर देरी हो गई हो तो दृष्टि पडिलेहण करे फिर गुरु या स्थापनाचार्यजीके सामने बैठकर भूमि प्रमार्जन करके बांयीं और आसन रख, एक खमासमण दे, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सामायिक लेवा मुंहपत्ति पडिलेहूं' कहे । गुरु के 'पडिलेहेह' कहने पर 'इच्छं' कहकर मुंहपत्ति पडिलेहे । बाद खमासमण दे इच्छाकारेण सामायिक संदिसाहूं ? इच्छं। कहे । फिर खमासमण देकर इच्छाकारेण सामायिक ठाऊं ? इच्छं । कह कर आधा अंग नमा तीन णमोक्कार गिन 'इच्छकारी भगवन् पसायकरी -सामायिक दंडकउच्चरावोजी' कहे । तदुपरान्त तीन बार 'करेमि भंते.१, इरियावहियं०, तस्सउत्तरी०, अणत्थ० कह, एक लोगस्स का काउसग्ग करे। बाद पार के प्रगट लोगस्स०२ तक की सब विधि प्रभातकालीन सामायिक की तरह करे । फिर नीचे बैठकर दो वन्दना देवे । अगर तिविहार उपवास हो तो सिर्फ मुंहपत्ति का पडिलेहण करे, वन्दना न दे अगर चउव्विहार उपवास हो तो मुंहपत्ति और वन्दना दोनों ही न करे । बाद खमासमण दे 'इच्छाकार भगवन् पसायकरी पच्चक्खाण कराओजी' कहे। फिर 'करेह' कहने पर गुरु के मुख से या स्वयं किसी बड़े के मुख से पच्चक्खाण करे। ___ सामायिक की विधिओं में आये हुए भिन्न भिन्न शब्दों के अर्थ इच्छाकारेण संदिसह भगवन्- हे भगवन् ! अपनी इच्छा से आदेश दो। इच्छं- आप की आज्ञा प्रमाण है। सामायिक संदिसाहूं-मुझे सामायिक करने का आदेश दें। सामायिक ठाऊं-मैं सामायिक लेता हूं। इच्छाकारी भगवन् पसायकरी-हे भगवन् ! अपनी इच्छा से, कृपा करके। सामायिक दंडक उच्चरावोजी–सामायिक व्रत का पाठ मुख से बोलिये। १--यह पाठ पृष्ठ ३ में हैं। २-यह पाठ पृष्ठ ४ में है। -alinielithilitibliniclestlistiantalibosedanliadeLKali-lekANAYEHEME-THEMESTEREONEXT-Estalkse.ta t tatra यजमानत प्रमाणपत्र Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - विभाग ८७ तदुपरान्त खमासमण देकर 'इच्छाकारेण • सज्झाय संदिसाहूँ ? 'इच्छ' कहे । फिर खमासमण देकर 'इच्छाकारेण • सज्झाय करूं' 'इच्छं' कह खड़े हो खमासमण दे आठ णमोक्कार गिने | बाद खमासमण दे 'इच्छाकारेण० बेसणं संदिसाहूं' 'इच्छं' कहे। फिर खमासमण देकर 'इच्छाकारेण० वेसणं ठाऊं, 'इच्छं' यह सब क्रमशः प्रभात की सामायिक की तरह करे । अगर वस्त्र की आवश्यकता पड़े तो उसके लिये एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण० पांगरणं संदिसाहूं ? 'इच्छं' इच्छाकारेण० पांगरं पडिग्गहूँ” 'इच्छे' कह कर वस्त्र लेवे । सामायिक पारने की विधि क्रमशः एक है । राई प्रतिक्रमण की विधि ܘ सर्वप्रथम पूर्व विधिवत् सामायिक ग्रहण करे । तदनन्तर एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवन्दन करूं ? कहे । जब गुरु 'करेह' कहे तब 'इच्छं' कहकर 'जयउ सामिय जयउ सामिय" का जयवीराय॰ की दो गाथा तकका सम्पूर्ण चैत्यवन्दन करे | बाद एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् कुसुमिण दुसुमिण राई पायच्छित विसोहणत्थं काउसग्ग करूं ? कहे । तब गुरु के 'करेह' कहने पर 'इच्छं' कहकर 'कुसुमिण दुसुमिण राई पायच्छित्त विसोहणत्थं करेमि काउसग्गं' कहकर 'अणत्य० ' पढ़ कर 'चार लोगस्स ० ' २ का या १६ णमोक्कार० का काउसग्ग करके ' णमो अरिहंताणं' कहे | पारकर प्रगट लोगस्स ० कहे । ( रात्रि में काम भोगादि बुरे स्वप्न सामायिक की विधिओं में आये हुए भिन्न भिन्न शब्दों के अर्थ सज्झाय करूं - मैं स्वाध्याय सज्झाय संदिसाहू - मुझे स्वाध्याय करनेका आदेश दें। करता हूं । वेसणूं संदिसाहूं—मुझे आसन पर बैठनेकी आज्ञा दें। वेसणं ठाऊं - मैं आसन ग्रहण करता हूँ । सामायिक पारू मैं - सामायिक पारता हूं । पुणोवि कायव्वो - फिर भी करो । यथाशक्ति - जैसी मेरी शक्ति होगी। सामाइयं पारेमि- मैंने सामायिक पार लिया। आयारो णमोत्तन्वो - आचार्यों को नमस्कार करो । तहत्ति - आप का कथन सत्य है । १- पृष्ठ ४ में है । २- पृष्ठ ४ में है । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार एए आये हों तो चार लोगस्स ० का । अगर प्रतिक्रमण का समय न हुआ हो तो ध्यान करे या स्वाध्याय करे । पीछे अनुक्रम से एक एक खमासमण पूर्वक 'आचार्य मिश्र ' ' उपाध्याय मिश्र ' ' वर्त्तमान जंगम युगप्रधान भट्टारक का नाम' तथा 'सर्व साधुओं' को अलग अलग वन्दन करे । पीछे 'इच्छकारी' 'समस्त श्रावकों को वन्दु' कहकर, घुटने टेक सिर नमाकर, दाहिना हाथ पूँजनी या चरवले पर रखकर, बायें हाथ में मुंह के आगे मुंहपत्ति रख 'सव्वरस वि राइयं० १ पढ़े । (परन्तु इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इच्छं । इतना न कहना चाहिये ) । पीछे णमुत्थुणं० २ पढ़ खड़े होकर 'करेमि भंते ० ' ३ 'इच्छामि ठामि काउसग्गं जो मे राइयो०', तरसउत्तरी', अणत्थ• कहकर चारित्र विशुद्धि निमित्तं एक लोगस्स० का या चार णमो - कार का काउसग्ग करे | बाद में उसको पारकर प्रकट लोगस्स • कह 'सव्व लोए अरिहंत चेइयाणं.' तथा अणत्थ• कहकर दर्शन विशुद्धि निमित्त एक लोगस्स • या चार णमोक्कार० का काउसग्ग करे । उसको पार 'पुक्खरखरदी a. ' सुअरस भगवओ करेमि काउसग्गं वंदण०, अणत्थ० कह ज्ञानाचार की विशुद्धि के निमित्त आठ णमोक्कार का काउसग्ग करे अथवा 'आजुणा चार प्रहर रात्रि सम्बन्धी • सात लाख आदि आलोयणा पाठ का काउसग्ग में चिन्तवन करे । तदनन्तर काउसग्ग पार के सिद्धाणं बुद्धाणं पढ़े | बाद प्रमार्जन पूर्वक बैठकर तीसरे आवश्यक की मुंहपत्ति पडिलेह कर भाव से दो वन्दा देवे । पीछे 'इच्छाकारेण संदिसह' भगवन् राइयं आलोउं ? कहे । गुरु के 'आलोह' कहने पर इच्छं, आलोएमि जो मे राइयो सूत्र पढ़ कर 'आजुणा चार प्रहर रात्रि में मैंने जो जीव विराधे हों, सात लाख पृथ्वीकाय०४ तथा अट्ठारह पापस्थानक ० पढ़े । तदनन्तर 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र, पाटी पोथी', आलोएण सूत्र बोले । तदनन्तर 'सव्वस्सवि राइय० ' कहकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन' कहकर रात्रि अतिचार का प्रायश्चित्त मांगे । गुरु के 'पडिक्कमेह' कहने के बाद इच्छं, 'तस्समिच्छामि दुक्कडं.' कहे । तत्पश्चात् प्रमार्जन पूर्वक आसन के ऊपर दाहिना घुटना ऊंचा करके, १ – पृष्ठ ७ में है । २– पृष्ठ ५ में है । ३ - पृष्ठ ३ में है । ४ – पृष्ठ ६ में है । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ kalalalalalalalalala la विधि-विभाग भगवन् सूत्र भणू ? कहे । गुरुके 'भणेह' कहनेके बाद 'इच्छं' कहकर तीन णमोकार तथा तीन करेमिभंते.१ पढ़कर इच्छामि पडिक्कमिउंजोमे राइओ०२ तथा वंदित्तु०३ सूत्र पढ़े । वंदित्तु सूत्रकी ४३ वीं गाथामें 'अब्भुडिओमि पद में आने पर खड़ा होकर शेष वंदित्तु को सम्पूर्ण करे। पीछे दो वन्दना देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अब्भुडिओमि अभितर राइयं खामेडं. बोले । गुरु के 'खामेह' कहने पर 'इच्छं' कहकर प्रमार्जन पूर्वक घुटने टेक शरीर नमा दाहिने हाथ को चरवले पर रख तथा बायें हाथ से मुंहपत्तिका मुखके आगे रख 'खामेमि राइयं,जं किंचि अपत्तियं०४' सूत्र कहे । गुरुको 'मिच्छामि दुक्कडं देनेपर दो वन्दना देवे। तदनन्तर 'आयरिअ उवझाए.' की तीनगाथायें कहकर,करेमिभंते०,इच्छामि ठामि०५, तस्सउत्तरी०६, अणत्थ. कहकर काउसग्ग करे । काउसग्ग में भगवन् महावीर स्वामी कृत छम्मासी तप का चिंतन छह लोगस्स या चौबीस णमोक्कार का काउसग्ग करे। और जो पञ्चक्खाण करना हो तो मनमें धारकर काउसग्ग पारे। फिर । प्रगट लोगस्स. कहकर उकडू आसनसे बैठकर छठे आवश्यककी मुंहपत्ति पडिलेहे दो वन्दना देवे । ___पीछे 'सद्भक्त्या देवलोके० स्तव से सकल तीर्थों को मान पूर्वक नमस्कार करे और 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पसायकरी पच्चक्खाण कराओजी०' ऐसा कह, गुरु के मुख से या वृद्ध साधर्मिक के मुख से या स्थापनाजी के सामने पूर्व निश्चयानुसार पच्चक्खाण कर ले। बाद 'इच्छामो अणुसडिं.' कहकर बैठ जाय और मस्तक पर अंजली रख 'णमो खमासमणाणं०, नमोऽर्हत.' पढ़, पर समय तिमिर तरणि०६ की तीन गाथायें कहे । पीछे णमुत्युणं कह खड़े होकर 'अरिहंत चेझ्याणं०१०' व अणत्य०११ पढ़ एक णमोकार का काउसग्ग करे और उसको नमोऽर्हत्० पूर्वक पारकर एक स्तुति (थुई ) कहे । बाद 'लोगस्स० सव्वलोए० अरिहंत चेइयाणं. अणत्य' पढ़ एक णमोक्कार० का काउसग्ग करे और दूसरी स्तुति कहे। फिर l alalakrishnatakshatt a thalaalalalalalalalala l alai totalo. 1. యముడు 1-11 నలు १-पृष्ठ३ २-पृष्ट७३ -पृष्ठ ११। ४-पृष्ठ२। ५-पृष्ठ ७ ७-पृष्ठ ।५-पृष्ठ १४।६-पृष्ठ १७। १०-पृष्ठ७। ११-पृष्ठ४। ६ -पृट करन्ट 12 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार wwwwwww wwww www 'क्खरवरदी ० १ सुअस्स भगवओ करेमि • अणत्थ० ' पढ़, एक णमोक्कार • का काउसग्ग पार तीसरी स्तुति कहे । तदनन्तर 'सिद्धाणं बुद्धानं ०२ वेयावच्चगराणं. अणत्थ० ' बोल एक णमोक्कार • का काउसग्ग पार चौथी स्तुति कहे । तत्पश्चात् 'शक्रस्तव'• पढ़ तीन खमासमण पूर्वक आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुओं को वन्दन करे । ६० यहीं राई प्रतिक्रमण की समाप्ति हो जाती है अगर विशेष भाव तथा स्थिरता हो तो उत्तर दिशा की तरफ मुख करके तीन खमासमण दे 'इच्छाकारेण० चैत्यवन्दन करूं ?' 'इच्छं' कह श्री सीमंधर स्वामीका चैत्यवन्दन पढ़े । तदनन्तर 'जंकिंचि०, णमुत्थुणं०, जावंति चेइआई०, जावंत के विसाहू, नमोऽर्हत्०' कह श्री सीमंधर स्वामी के स्तवनों में से कोइ एक स्तवन बोलकर जयवीयराय०५, अरिहंत चेइयाणं०, वंदणवत्तिआए• तथा अणत्थ• कहने के बाद अप्पाणं वोसरामि पर्यन्त एक णमोक्कार • का ध्यान करके 'नमोऽर्हत्॰' कहकर श्रीसीमंधर स्वामीकी थुई कहे । इसी तरह तीन खमासमण देकर 'श्री सिद्धाचलजी' का चैत्यवन्दन, स्तवन और थुई । कहे अगर विशेष स्थिरता हो तो अष्टापदजी का चैत्यवन्दन, स्तवन, थुई कहे । तदनन्तर पडिलेहण करे । फिर सामायिक पूर्वोक्त विधि से पारे । देवसिक प्रतिक्रमण की विधि | प्रथम सन्ध्याकालीन सामायिक ग्रहण करे । फिर तीन खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवन्दन करूं ' कहे। गुरु के 'करेह' कहने पर 'इच्छं' कह, फिर 'जय तिहुअण० 'की । ५ या ७ गाथा, तक'जय महायस०', ' णमुत्थुणं०, अरिहंत चेइयाणं०, अणत्थ कह एक णमोक्कारका काउसग्ग करे । पार के ' नमोऽर्हत् ० ' कह प्रथम थुई ( तुति ) कहे । तदनन्तर 'लोगस्स ०', सव्वलोए०', 'अरिहंत चेइयाणं०', अणत्य • कह, एक णमोक्कार १- पृष्ठ ७ । २ - पृष्ठ ८। ३- पृष्ठ ४ । ४- पृष्ठ ५। ५-पृष्ठ ६ । ६-पृष्ठ १८ । ७-पृष्ठ ५। ८- पृष्ठ ७ ६- पृष्ठ ६ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग का काउसग्ग पार, द्वितीय स्तुति कहे। बाद 'पुक्खरवरदी०', सुअस्स * भगवओ.', अणत्य. कह, एक णमोक्कारका काउसग्ग पार, तृतीय स्तुति बोले । पीछे 'सिद्धाणं बुद्धाणं०२', 'वेयावञ्चगराणं.', अणत्थ. कह एक 3. णमोक्कार का काउसग्ग पार, नमोऽर्हत. कह के चौथी स्तुति कहे । पीछे । बैठकर ‘णमुत्थुणं.' पढ़े, एक एक खमासमण देकर क्रमशः 'आचार्य मिश्र, । 'उपाध्याय मिश्र'वर्तमान गुरु मिश्र तथा सर्व साधुमिश्र० को वन्दन करे । ३ बाद 'इच्छकारी समस्त श्रावकोंको वन्दु' कहे। तदनन्तर घुटने टेक, सिर नमा, दाहिना हाथ चरवला या पूंजनी पर रख के 'सव्वस्सवि देवसिय०' कहे । फिर खड़े होकर करेमि भंते०३, इच्छामि ठामि काउसग्गं जो मे देवसियो०४, तस्स उत्तरी०५, अणत्थः' कह आठ णमोक्कारका काउसग्ग करे फिर काउसग्ग पार के प्रगटलोगस्स पढ़,प्रमार्जन पूर्वक बैठ, तीसरे आवश्यककी मुंहपत्ति पडिलेहे दो वन्दना देवे । पीछे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं आलोउं इच्छ', गुरु जब 'आलोएह' कहे तब 'आलोएमि जो मे देवसिओ०, आजुणा चार पहर दिवस सम्बन्धी०८,सातलाख०,अठारह पापस्थान०,ज्ञानदर्शन चारित्र पाटी पाथी० आदि आलोयणा सूत्र कहकर 'सव्वस्सवि देवसिय, इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' तक कहे । जब गुरु 'पडिक्कमेह' कहे तब 'इच्छं तस्स मिच्छामि दुक्कड' कहे । बाद प्रमार्जन पूर्वक आसन पर बैठ, दाहिना घुटना ऊंचा कर, 'भगवन् सूत्र भy ?' कहे। गुरु के भणेह, कहने पर 'इच्छं कह, तीन णमोक्कार तथा तीन करेमि भंते०९ कहकर 'इच्छामि पडिकमिउं जो मे देवसिओ०' बोल 'वंदित्तु० सूत्र१० पढ़कर दो वन्दना१ देवे। तव 'अन्भुडिओमि०' सम्पूर्ण कहे बाद फिर दो वन्दना देवे । पीछे 'आयरिय उवज्झाए०११, करेमि भंते०, इच्छामि ठामि०, तस्सउत्तरी०, अणत्य' कह चारित्र विशुद्धी निमित्त 'दो लोगस्स' या आठ णमोक्कार का काउसग्ग पार के प्रगट लोगस्स. पढ़. 'सव्वलोए, अरिहंत चेइयाणं. अणत्यः' कहकर एक लोगस्स या चार णमोक्कार का काउसग्ग करे । उसको पारकर १-पृष्ट । २-पृष्ट ८।३. पृष्ट३।४-पृष्ट ७।५-पृष्ठ ३।६-पृष्ठ ४। -प्रकर। -पृठ ।। 8- पृष्ठ ३।१०-पृष्ट ११ | ११-पृष्ठ ६ । १२-पृष्ठ १४॥ Blogi.biki larathihulabirah.hiroinoritiractiletrioradhirliclerkarloristialishaalaalactatinlalactoratdotcleelatakiseklilaisintaaleiki ihdaiohathtrlonlolakata-tatotakelaamanththtartstotrtainiantetntatuirtstav Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन-रत्नसार Prom...marruirr 'पुक्खरवरदी०१, सुअरस भगवओ करेमि०, अणत्य.' पढ़कर एक लोगस्स या चार णमोक्कार का काउसग्ग करे । बाद 'सिद्धाणं बुद्धाणं०, सुअदेवयाए । करेमि काउसग्गं, अणत्यः' कह, एक णमोक्कार का काउसग्ग कर 'श्रुत देवता की स्तुति-सुवर्ण शालिनी देयातू०२' कहे । अनन्तर 'खित्तदेवयाए करेमि काउसग्गं०, अणत्थ०३ पढ़कर एक णमोक्कारका काउसग्ग पारे तथा क्षेत्रदेवता की स्तुति–'यासां क्षेत्रगताः सन्ति' कहे । बाद खड़े होकर एक णमोक्कार पढ़े और प्रमार्जन पूर्वक बैठकर छठे आवश्यक की मुंहपत्ति पडिलेहण कर भावसे दो वन्दना देवे । पञ्चक्खाण न किया हो और सूर्यास्त होनेवाला होतोपहले पञ्चक्खाणकरले। बाद इच्छामो अणुसहि०४ पढ़करबैठकेमस्तक पर अंजली रखकर ‘णमो खमासमणाणं०५, नमोऽर्हत्सिद्धाः' कहे। बाद श्रावक 'नमोऽस्तु वर्धमानाय की तीन श्लोक पढ़े और श्राविकाएं 'संसार दावानल' की तीन श्लोक पढ़े। फिर ‘णमुत्युणं.' कह, एक खमासमण दे 'इच्छाकारण स्तवन भणुं कहे। गुरुके 'भणेह' कहने पर आसनपर बैठ के 'नमोऽर्हत् ०८ कह एक बड़ा स्तवन ( ग्यारह गाथा या इक्कीस गाथा का स्तवन) वोले । पीछे एक एक खमासमण देकर अनुक्रम से 'आचार्य मिश्र, उपाध्याय मिश्र' तथा सर्व साधुओं को वन्दन करे। पीछे दाहिना हाथ को चरवले घर रख और मुंहपत्ति के साथ बायें हाथ को मुंह के आगे कर 'अड्डाइजेसु का पाठ बोले तत्पश्चात एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण । संदिसह भगवन् देवसिय पायच्छित्त विसोहणत्थं काउसग्गं करूं ? गुरु 'करह' कहे तब 'इच्छं ! देवसिय पायच्छित्त विसोहणत्यं करेमि काउसग्गं, अणत्य कहकर चार 'लोगस्स' या १६ णमोक्कार का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स. बोले । अनन्तर खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् खुद्दोपद्दव उद्यावण निमित्त काउसग्ग करूं ? इच्छं, खुदोपहव उद्धावण 1 निमित्तं करेमि काउसग्गं, अणस्थ०१०' कह चार लोगस्स या १६ णमोकारका काउसम्ग पार प्रगट लोगस्स. कह । १-पृष्ठ | २-पृष्ट २२ । ३-पृष्ट ४१ ४--पृष्ठ २२ । ५-पृष्ठ २२ ।। -पृष्ठ २२। ७-पृष्ठ १७१८--पृष्ठ ६18--पृष्ठ २३ । १०-पृष्ठ ४। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग .....३ तदनन्तर खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवन्दन करूं ?' इच्छं कहकर 'श्री सेढ़ी तटिनी तटे०१' आदि श्री स्तंभन पार्श्वनाथ चैत्यवन्दन कह के 'जकिंचि०२, णमुत्थुणं०, जावंत चेइआई०, जावंत केविसाहू०, नमोऽर्हत०, उवसग्गहरं०, जयवीयरायः' दो गाथा सम्पूर्ण तक कह, एक खमासमण दे, 'सिरि थंभणद्विय पाससामिणो०' इत्यादि दो गाथायें पढ़े। पीछे श्री स्थम्भण पार्श्वनाथजी आराधवा निमित्तं करेमि काउसगं कह खड़े होकर 'वंदण वत्तियाए०३, अणत्थ०४' कह चार 'लोगस्स' या १६ णमोक्कार * का काउसग्ग पार कर प्रगट लोगस्स०५ कहे । इसके बाद "श्री खरतर गच्छ शृङ्गार हार जंगम युग प्रधान भट्टारक - दादाजी श्री जिनदत्त सूरिजी आराधवा निमित्तं करेमि काउसग्ग” कह अणत्य० बोल, एक 'लोगस्स' या चार ‘णमोक्कार' का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स. कहे। इसी तरह दादाजी* श्री जिनकुशल सूरिजीकाचार णमोक्कारका काउसग्ग करे तथा पार के प्रगट लोगस्स. कहे। बाद खमासमण देकर प्रमार्जन पूर्वक आसन पर दाहिना घुटना ऊंचा कर, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवन्दन करूं ? इच्छं कह कर 'चउक्कसाय०६, अर्हन्तो भगवन्त०, णमुत्थुणं०० इत्यादि जयवीयराय०' दो गाथा पर्य्यन्त पढ़े बाद 'लघुशान्ति कहे । अन्त में पूर्वोक्त विधि से सामायिक पारे । अथ पक्खी प्रतिक्रमण विधि __ . प्रथम पूर्ववत् सामायिक लेवे। सम्पूर्ण जयतिहुअण१० वंदित्तु सूत्र पर्य्यन्त देवसिक प्रतिक्रमण करे । बाद एक खमासमण देकर 'देवसियं आलोइयं पडिक्कता,इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खिय लेवामुंहपत्ति पडिलेहूं? कहे। बाद गुरु के पडिलेहेह' कहने पर इच्छं कह, एक खमासमण दे मुंहपत्ति का पडिलेहण करे तथा दो वन्दना देवे । पीछे जब गुरु कहे 'पुण्यवन्तो भाग्यवन्तो छींक की जयणा करना, मधुर स्वर से प्रतिक्रमण सम्पूर्ण करना दिल्ली में मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरिजी महाराज का काउसग्ग किया जाता है। : १-पृष्ठ २४। २- पृष्ठ ५। ३-पृष्ठ ७ । ४-पृष्ठ ४।५-पृष्ठ ४१ ६-- पृष्ठ ४ा ७-पृष्ठ ५।८-पृष्ठ २४ । ६-पृष्ठ ५। १० - पृष्ठ १८। adishaptadhaahooooooratinidadastakindialanathairlinestablikaslilosbeestosantalilarketinkaladalokana khiclelanielatininenlignnaaleel *alakaialistadiokakistakestakehtha kaskilarkonki kalakairat-krtata kulkrilal Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rabidaeoldeedootstatalabtaoiskiokestalestatishetakisekstatestostalesotsabseddakebsteterscalesbalesiasleesastakestabetstateratsiddotke जैन-रत्नसार alడువందhat నందవండ iettinattilanthr అనుమదనపడనందనందనందను एक बार खांसना या दोबार खांसना, मंडलमें सावधान रहना तथा देवसिय की जगह पक्खिय कहना' तब तहत्ति' कहे । पीछे खड़े होकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् संबुद्धा खामणेणं अब्भुट्टिओमि अभितर पक्खियं खामेउँ ? कहे । गुरु जब 'खामेह' कहे तब घुटने टेक, दाहिना हाथ । पूंजनी पर रख तथा मुंहपत्ति सहित बायें हाथ को मुख के आगे रख 'इच्छं खामेमि पक्खियं' कहकर यथाविधि पाक्षिक प्रतिक्रमण में 'पणरसणं दिवसाणं पणरसण्हं राइणं किंचि अपत्तियं०१' कहे । गुरु जब 'मिच्छामि दुक्कडं' कहे तदनन्तर खड़े होकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खियं आलोउं ? कहे । गुरु के “आलोएह' कहने पर 'इच्छं आलोएमि जो मे पक्खिओ अझ्यारो कओ०२' इत्यादि बोलकर वृहद् अतिचार३ बोले । पीछे। 'सव्वस्सवि पक्खिय दुञ्चितिय दुब्भासिय दुच्चिडिय०, इच्छाकारेण संदिसह । भगवन तक कहे । तदनन्तर गुरु कहे 'पक्खिय' चउत्थेण पडिक्कमेह तब 'इच्छं ! मिच्छामि दुक्कड़ बोले तथादोवन्दना देवे। तदनन्तर 'इच्छाकारेण । संदिसह भगवन् देवसियं आलोइय पडिक्कंता पत्तेय खामणेणं, अब्भुद्धि ओमि अभितर पक्खियं खामेउं ? बोले । गुरु जब 'खामेह' कहे तब 'इच्छं! खामेमि पक्खियं जंकिंचि०' का पाठ बोले तथा दो वन्दना देवे ।। तदनन्तर 'भगवन् ! देवसियं आलोइयं पडिक्कता पक्खियं पडिकमावेह' । कहे ! गुरु के 'सम्म पडिक्कमेह' कहने पर 'इच्छं ! करेमिभंते०५, इच्छामि ठामि काउसग्गं०, जो मे पक्खियो', कह एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् वंदित्तुसूत्र संदिसाहू? कहे । गुरु के 'संदिसावेह'। न पक्खी प्रतिक्रमण को उपवास किये बिना, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण को बेला किये । | बिना और साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण को तेला किये बिना नहीं करना चाहिये। ऐसी शास्त्रानुसार रोति है। परन्तु इतना न हो सके तो यथाशक्ति तपश्चर्या करके ही ये तीनो प्रतिक्रमण करना। चाहिये। . * पक्खी सूत्र में पञ्चमहाव्रत और छठे रात्रि भोजन व्रत की आलोयणा है, इसलिये श्रावकों को पक्खी चौमासी सम्वत्सरी प्रतिक्रमण में नहीं बोलना चाहिये । कारण इस सूत्र को | साधु ही बोल सकते हैं। १-पृष्ठ २।२-पृष्ठ ७।३-पृष्ठ २६ । ४-पृष्ठ है। ५-पृष्ठ ३। o n అందdaartattathalaatatatatatalt othialalalitabiliticsEERNMEnterlistedetatatata tak-datossleLY मतगणनप्रणयन्त्र नयनचलनाप्रपनपत्र प्रस्तावना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.... . aakhittlets tandarastedasestocksattacksastrabadasescaladdascetistory विधि-विभाग । कहने पर फिर एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् वंदित्तु सूत्र कहूं ? गुरु के 'कहेह' कहनेपर तीन णमोक्कार तीन करेमिभंते, इच्छामिठामि काउसग्गं०१ वंदित्तु सूत्र बोले । साधु नहीं हो तो श्रावक एक खमासमण देकर 'भगवन् ! सूत्र भणू ? कह कर इच्छं कहे तथा तीन णमोक्कार गिन कर 'वंदित्तुर' ध्यान में सूत्र बोले या सुने । वाकी के सब श्रावक 'करेमि भंते०, इच्छामि ठामि०३, तस्सउत्तरी०, अणत्थ. कहकर काउसग्गमें खड़े हुए या बैठे हुए सुनें । वंदित्तु सूत्र ४३वीं गाथा तक पढ़े, 'णमो अरिहंताणं' कह काउसग्ग पार खड़े होकर तीन णमोक्कार गिन कर बैठ जाए। बाद तीन णमोक्कार,तीन करेमिभंते. पढ़ कर 'इच्छामि ठामि पडिक्कमिउं जो मे पक्खियो.' कह वंदित्तु सूत्र बोले । तदनन्तर एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! मूल गुण, उत्तर गुण. विशुद्धि निमित्त काउसग करूं ? गुरु के 'करह कहने पर 'इच्छ' कह 'करेमि भंते०, इच्छामि ठामि०, तस्सउत्तरी०, अणत्य०' कह बारह लोगस्स* का काउसग्ग करे। पार कर प्रगट लोगस्स. कहे । तत्पश्चात् वैठ कर मुंहपत्ति का पडिलेहण कर दो वन्दना दे और 'इच्छाकारेणसंदिसहभगवन् !पक्खी समाप्तिखामणेणं अब्भुट्टिओमि अभितर पक्खियं खामेउं ? कहे । गुरु के 'खामेह' कहने पर 'इच्छामि खामेमि पक्खियं जं किंचि०५' कहे । पीछे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खियं खामणा खामं ? कहे । गुरु के 'पुण्णवन्तो.' कहने पर तीन बार एक एक खमासमण दे तीन तीन णमोक्कार कह 'पक्खियं समाप्ति खामणा खामेह' कहे । पीछे गुरुके णित्यारगा पारगा होत्था कहने पर 'इच्छं कह इच्छामो अणुसदि कहे। फिर गुरु कहे 'पुण्यवन्तो० ! पक्खियके निमित्त एक उपवास दो आयंबिल, तीन णिन्चि, चार एकासणा,दो हजार सज्झाय कर पक्खीकी : पंट पूरना तथा पक्वियं के स्थान में 'देवसिय' कहना ऐसा कहने पर 'तहत्ति कह । पीछे दो वन्दना देकर सदेव की भांति देवसिक प्रतिक्रमण नाकारा .:-हट :-पृष्ट १९१३-पृष्ठ ७।४-पृष्ठ ७।५-पृष्ठ २।६-पृष्ठ २२ । ७-पृष्ठ है। Babakal kavinkiestonoliantasidhaklaletawlarkelaudastidiofilediskedinliadai-kakakaalistsoelholialistialistasistentialpremsanlioletekieleakalakarliardialistbolteachelkandelinesiratastrolhirolorlechtentirliahtinterlosleelallantatata latakarlx Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rohitab-lishyaplesarlalishalob-lish.istialafatalabotaladalanationalata-Ji-filestialistastotilariasJoithalalbatatayeshaalataste जैन-रत्नसार A KH wwvN iasataratmak नयनत्रजनननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननन्त्रक करे । विशेष इतना है कि श्रुत देवताका काउसग्ग करके 'कमलदल विपुल नयना०' श्रुत देवी की थुई कहे बाद 'भुवण देवयाए करेमि काउसग्गं, अणत्य०२' कह के एक णमोक्कार का पार के 'नमोऽहत्०, ज्ञानादिगुणयुतानां०' थुई कहे । फिर बाद में क्षेत्रदेवी का काउसग्ग पार के 'यस्याः क्षेत्र समाश्रित्य.' थुई कहे। इसके अनन्तर नमोस्तु वर्धमानाय०३ का चैत्यवन्दन कर बड़ा स्तवन अजित शांति पढ़े और यहां से पूर्वलिखित देवसिक प्रतिक्रमण के अनुसार विधि करे । पीछे यह विशेष है कि गुरु या श्रावक बड़ी शांति बोले तथा शेष श्रावक सुनें । फिर पूर्वोक्त रीति से सामायिक | पारे । अन्त में दादाजी का स्तवन कह । चौमासी प्रतिक्रमण की विधि पूर्ववत् सामायिक तथा जयतिहुअण५ सम्पूर्ण और वंदित्तु सूत्र पर्य्यन्त देवसिक प्रतिक्रमण करे। बाद एक खमासमण देकर 'देवसियं आलोइयं। पडिक्कता', इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चौमासी लेवा मुंहपत्ति पडिलेहूं ? कहे । बाद गुरु के 'पडिलेहेह' कहने पर, इच्छं कह, एक स्वमासमण दे मुंहपत्ति का पडिलेहण करे तथा दो वन्दना देवे । पीछे जब गुरु कहे 'पुण्यवन्तो, भाग्यवन्तो' छींक की जयणा करना, मधुर वर से प्रतिक्रमण सम्पूर्ण करना, एक बार खांसना दोबार खांसना, मण्डल में सावधान रहना तथा 'पक्खिय की जगह चउमासी कहना' तब तहत्ति' कहे । पीछे खड़े होकर 'इच्छाकारेण संदिसह' भगवन् संबुद्धा खामणेणं अब्भुडिओमि अभिंतर चउमासियं खामेउं ? कहे । गुरु के खामेह कहने पर घुटने टेक कर दाहिना हाथ पूंजनी पर रख तथा मुहपत्ति सहित बायें हाथ को मुख के आगे रखकर 'इच्छं ! खामेमि चौमासियं' कहकर यथा विधि चौमासी प्रतिक्रमण में 'चउण्डं मासाणं अठण्हं पक्खाणं वींसोत्तर सयं राई दियाणं 'जं किंचि अपत्तियं०६' कहे । गुरु जब 'मिच्छामि दुक्कड़ कहे । तदनन्तर खड़े होकर 'इच्छाकारेण संदिसह' भगवन् ! चौमासियं आलोऊ ? १-पृष्ठ २२ । २-पृष्ठ ३।३-पृष्ठ २२ । ४-पृष्ठ ८४।५- पृष्ठ १८ । ६-पृष्ठ २।। Satarakstacakacietstonetarcorrectorotecticket ल लनवलनश्रय यन्त्रप्रत्ययात्रज प्रणय वन नयनयन्त्र Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - विभाग कहे । गुरु के 'आलोह' कहने पर 'इच्छं ! आलोएमि जो मे चउमासिओ अइयारो कओ०' इत्यादि बोलकर वृहद् अतिचार बोले' 1 पीछे सब्बस्स वि' चउमासियं दुचिंतिय दुब्भासिय दुच्चिट्ठिय० इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' तक कहे । तदनन्तर गुरु कहे 'चउमासियं छट्ठेणं पडिक्कमेह' तब 'इच्छं ! मिच्छामि दुक्कड़ें' बोले तथा दो वन्दना देवे । तदनन्तर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं आलोइय पडिक्कंता पत्तेय खामणेणं ओम अभितर चउमासियं खामेउं ? बोले । गुरु जब खामह कहे तब 'इच्छं ! खामेमि चउमासियं जं किंचि०४' का पाठ बोले तथा दो वन्दना देवे । तदनन्तर ‘भगवन् ! देवसियं आलोइय पडिक्कंता चउमासिथं पडिक्कमावेह' कहे । गुरु के 'सम्मं पडिक्कमेह' कहने पर 'इच्छ' ! करेमि भंते०५' इच्छामि ठामि काउसग्गं जो मे चउमासियो० ६', कहकर एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् वंदित्तु सूत्र संदिसाहूँ' ? कहे । गुरु के 'संदिसावेह' कहने पर फिर तीन खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! वंदित्तु सूत्र कहूँ ? बोले । गुरु के 'कहेह' कहने पर तीन णमोक्कार गिने और तीन करेमि भंते० इच्छामि ठामि काउसग्गो० कहकर सूत्र बोले । तीन खमासमण दे 'भगवन् ! सूत्र भणूं ? कह 'इच्छं' कहे और तीन णमोक्कार गिनकर ' वंदित्तु० सूत्र पढ़े, शेष सब श्रावक 'करेमि ते ०, इच्छामि ठामि०, तस्स उत्तरी०, अणत्य० ' 'कह काउसग्ग (ध्यान) में खड़े हुए या बैठे हुए सुनें । 'वंदित सूत्र के पूर्ण हो जाने पर ‘णमो अरिहंताणं' कह काउसग्ग पार, खड़े हो तीन णमोक्कार गिन कर बैठ जाय । पीछे तीन णमोक्कार, तीन करेमिभंते ० बोलकर 'इच्छामि ठामि पडिक्कमिउं जो मे चउमासियो० ' कह प्रगट वंदित्तु सूत्र बोले । तदनन्तर एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! मूलगुण उत्तर गुण विशुद्धि' निमित्त काउसग्ग करूं ? गुरु के 'करेह' कहने पर 'इच्छं' कह 'करेमि भंते ० 13 ६७ · ܘ 4 १ – पृष्ठ २६ । २ – पृष्ठ ७ । ३-पृष्ठ ६ । ४ – पृष्ठ २१ ५- पृष्ठ ३१ ६-पृष्ठ ७ । ७- पृष्ठ ११ । ८- चउमासी । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అనంతవరండ గుడవడం మనందుడa t tathara dattatharahase १८ www .aniwwarAmAAmareerArAmran aditihotalbhatiyalalithili l oni जैन-रत्नसार इच्छामि ठामि तस्स उत्तरी• अणत्थ०' कह कर बीस लोगस्स या अस्सी णमोक्कारका काउसग्ग करे। पार कर प्रगट लोगस्स. कहे । तत्पश्चात् बैठ करचउमासी समाप्त मुंहपत्तिका पडिलेहण कर दो वन्दना देवे और 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !' समाप्ति खामणेणं अब्भुटिओमि अभितर चउमासियं । खामेउं ? कहे । गुरु के खामेह कहने पर 'इच्छं खामेमि चउमासियं । किंचि०' कहे। फिर इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! चउमासिय खामणा खामं ? कहे। गुरु के 'पुण्यवन्तोः ' कहने पर एक एक खमासमण तथा तीन तीन णमोक्कार चार बार बोलकर 'चउमासी समाप्ति खामणा खामेह कहे । पीछे गुरु के 'पुण्यवन्तो० ! चउमासियके निमित्त दो उपवास, चार, आयंबिल, छ णिब्धि, आठ एकासणे, चार हजार सज्झाय करके चउमासिय की पेठ पूरना तथा चउमासिय के स्थानपर देवसिय कहना सब ‘तहत्ति' । कहें। पीछे दो वन्दना देकर सदैव की भांति देवसिक प्रतिक्रमण tisalgiahilianimlinlishalelialist-Elictimiliale करे। r t-NEY+kolkeletailATAN विशेषता इतनी है कि श्रुतदेवता का काउसग्ग करके 'कमलदल विपुल नयना०१' आदि श्रुतदेवी की थुइ कहे। फिर 'भुवणदेवयाए करेमि | काउसग्गं, अणत्थः' कह कर एक णमोक्कारका काउसग्ग 'नमोऽर्हत०' कह पार कर 'ज्ञानादिगुणयुतानां.' इत्यादि भुवन देवता की थुई कहे । बाद में क्षेत्र देवता का काउसग्ग पार कर 'यस्याः क्षेत्रं समाश्रियः' थुई कहे नमोस्तु वर्धमानाय णमोत्थुणं. कह और 'अजित शांति' बोलना । लघु स्तवन के स्थान में 'उवसग्गहरं०*' कहे । प्रतिक्रमण पूर्ण होने पर गुरु से आज्ञा लेकर 'नमोऽर्हत०' पढ़ के एक श्रावक बृहत् शांति बोले और शेष । सब सुनें। फिर पूर्वोक्त रीति से सामायिकर पार कर अन्तमें दादाजी का स्तवन बोले । साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि प्रथम पूर्ववत् सामायिकर लेवे तथा जयतिहुअणः सम्पूर्ण और १- पृष्ठ २२ । २–पृष्ठ ८४।३-पृष्ठ ८६। ४-पृष्ठ १८ । Eartatists tatest-stretatastectrostatitutiatest चउमासी। *श्री सेढी के चैत्यवन्दन में। ननननननननननननननननननननननननननननननन्द्रायणन्यवनप्राश्रयग्रता Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग ξε वंदित्तु पर्य्यन्त देवसिक प्रतिक्रमण करे | बाद एक खमासमण देकर 'देवसिय आलोइयं पडिक्कंता, इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सम्वत्सरी मुंहपत्ति पडिले ? कहे | बाद गुरु के 'पडिलेहेह' कहने पर, 'इच्छं' कहकर खमासमण दे मुंहपत्ति का पडिलेहण करे तथा दो वन्दना देवे । पीछे जब गुरु कहे 'पुण्यवन्तो भाग्यवन्तो छींक • की जयणा करना मधु स्वर से प्रतिक्रमण सम्पूर्ण करना एक बार खांसना दो बार खांसना मंडल में सावधान रहना और सम्वत्सरिय कहना' तब 'तहत्ति' कहे । पीछे खड़े होकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन संबुद्धा खामणेणं अभुट्टिओमि अभितर सम्बत्सरियं खामेउं ? कहे । गुरु के 'खामेह कहने पर घुटने टेक कर दाहिना हाथ पूंजनी पर रख तथा मुंहपत्ति सहित बायें हाथको मुखके आगे रख 'इच्छं ! खामेमि सम्वत्स - रियं' कहकर यथाविधि सम्वत्सरी प्रतिक्रमण में अधिक मास न हुआ हो तो 'बारसहं मासाणं * चउवीसहं पक्खाणं तण्णिसयसहिं राइ दियाणं जं किंचि०" 'आलोइय पडिक्कंता पत्तेय खामणेणं अम्भुडिओमि अब्भितर सम्वत्सरियं खामेउं ? बोले 1 गुरु जब 'खामेह' कहे तब 'इच्छं ! खामेमि सम्वत्सरियं जं किंचि ० ' का पाठ बोले तथा दो वन्दना वे । तदनन्तर भगवन् देवसियं जं किंचि०' कहे । तदनन्तर खड़े होकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सम्वत्सरियं आलोउं ? कहे । गुरु के 'आलोएह' कहने पर इच्छं' ! आलोएमि जो मे सम्वत्सरियो अइयारो कओ ० ' इत्यादि बोलकर वृहत् अतिचार बोले । पीछे 'सव्वस्सवि सम्वत्सरियं दुच्चितिय दुब्भासिय दुच्चिट्ठिय• इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' तक कहे । तदनन्तर गुरु के 'सम्वत्सरियं अमेण पडिक्कमेह' कहने पर 'इच्छं ! मिच्छामि दुक्कड़ बोले तथा दो वन्दना देवे । तदनन्तर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं आलोइयं पडिक्कंता सम्वत्सरियं पडिक्कमावेह' कहे । गुरु के 'सम्मं पडिक्क मेह' * तेरसण्हं मासाणं छव्वीसहं पक्खाणं तिष्णिसयं णवंराइ देयाणं । १- पृष्ठ २ । २– पृष्ठ २६ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन-रत्नसार कहने पर 'इच्छं ! करेमि ते ० १ इच्छामि ठामि काउसग्गं जो मे सम्वत्सरियो०' कह एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् वंदित्तु सूत्र दिसाहू ? कहे । गुरु के 'संदिसावेह' कहने पर फिर एक खमासमण दे इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सम्वत्सरी सूत्र कहे ? गुरु के 'कहेह' कहने पर तीन णमोक्कार गिनकर वंदित सूत्र बोले । एक श्रावक तीन खमासमण दे भगवन् ! सूत्र भणं ? कहकर 'इच्छा' कहे और तीन णमोक्कार गिनकर ' वंदित्तु' सूत्र' बोले शेष सब श्रावक 'करेमि भंते० इच्छामि ठामि• तस्स उत्तरी• अणत्थ० ' कह काउसग्ग में खड़े हुए या बैठे हुए सुनें । वंदित्तु सूत्र के पूर्ण हो जाने पर ' णमो अरिहंताणं' ह काउसग्ग पार, खड़े होकर तीन णमोक्कार गिनकर बैठ जाए । पीछे तीन णमोक्कार तथा तीन करेमि भंते ० बोलकर 'इच्छामि ठामि पडिक्कमिउं जो मे सम्बत्सरियो० ' कह प्रगट दिन्तु सूत्र बोले । तदनन्तर एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! मूल गुण उत्तर गुण विशुद्धि निमित्तं काउसग्ग करूं ? गुरु के 'करेह' कहने पर 'इच्छे' कह 'करे मि भंते . ' इच्छामि ठामि० तस्स उत्तरी० अणत्य० ' कहकर चालीस लोगस्स या १६०।१ णमोक्कारका काउसग्ग करे । पार कर प्रगट लोगस्स कहे । तत्पश्चात् बैठकर सम्वत्सरी मुँहपत्ति का पडिलेहण कर दो वन्दना देवे और इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! समाप्ति खामणेणं अन्भुओिम अभितर सम्वसरियं खामे ! कहे । गुरु के खामेह कहने पर 'इच्छामि खामेमि सम्बत्सरियं जं किंचि ० ' कहे । फिर 'इच्छाकारेण संदिसंह भगवन् ! सम्वत्सरियं खामणा खामूं ? कहें । गुरु के 'पुण्यवन्तो ० ' कहने पर एक एक खमासमण तथा तीन तीन णमोक्कार चार बार बोलकर 'सम्वत्सर समाप्ति खामणा 'खामेह' कहे । इच्छामो अणुसट्ठिο' बोले । पीछे गुरु के 'पुण्यवन्तो भाग्यवन्तो ! सम्वत्सरिय के निमित्त तीन उपवास, छ आयंबिल नव णिव्वि बारह एकासणें, छ हजार सज्झाय कर सम्वत्सरिय की पेठ पूरजो १- पृष्ठ ३ । २- पृष्ठ ७ । ३- पृष्ठ ११।४ - सम्वत्सरी । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Hamruduwwwwwwwwarnamananews विधि-विभाग १०१ तथा सम्वत्सरीके स्थान पर देवसी कहना' कहनेपर सब 'यथाशक्ति' कहे । पीछे दो वन्दना देकर सदैव की भांति देवसिक प्रतिक्रमण करे। विशेषता इतनी है कि श्रुतदेवता का काउसग्ग करके 'कमल दल विपुल नयना०२' आदि श्रुतदेवी की थुइ कहे । फिर 'भुवण देवयाए करेमि काउसग्गं, अणस्थ' कह के एक णमोक्कार का काउसग्ग पार कर 'ज्ञानादि गुण युतानां इत्यादि भुवन देवता की थुई कहें । बादमें क्षेत्रदेवता का काउसग्ग पार कर 'यस्या क्षेत्र समाश्रित्य' थुई कहें और 'बड़ा स्तवन' 'अजित शांति' बोले और पक्खी प्रतिक्रमण की तरह प्रतिक्रमण पूर्ण होने पर गुरु से आज्ञा लेकर 'नमोऽर्हत०' पढ़ के एक श्रावक 'वृहद् शांति' बोले और शेष सब सुनें । फिर पूर्वोक्त रीति से सामायिक पार कर अन्त में दादाजी का स्तवन बोले । आठ प्रहर पौषध विधि पोसह के उपगरण ले उपाश्रय ( पौशाल ) में जावे । वहां अगर गुरु महाराज न हों तो सामायिक विधि के अनुसार स्थापनाचार्यजी की स्थापना करके गुरु वन्दन करे। तदनन्तर एक खमासमण दे 'इरियावहियं०३' तस्स उत्तरी• अणत्थ० का पाठ बोल, एक लोगस्स का काउसग्ग कर प्रगट लोगस्स०कहे। बाद एक खमासमण दे इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !पोसहलेवा मुंहपत्ति पडिलेहूं ?' 'इच्छं' ऐसा कहकर मुंहपत्ति की पडिलेहणा करे। तत्पश्चात् एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पोसह संदिसाहूं ? इच्छं' फिर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पोसह ठाउं ? इच्छं ऐसा कह एक खमासमण दे खड़ा हो जावे तथा हाथ जोड़, • आधा अंग नमा तीन णमोक्कार गिनकर 'इच्छाकरण संदिसह भगवन् ! . पसायकरी पोसह दंडक उच्चरावोजी' कह पोसह का पच्चक्खाण गुरु या । बृद्ध श्रावक से या स्वयं ही तीन बार उच्चर ले । rthataliekantisfaileakakirlink-eth.kirtaliticismatalalalamlanationalishalmlaimininelanielaminatinlisatelkarinanastatistianitiladkikaliNi k itsamlili a telentiakiathlaatmlailaaleeletoinlallaletkalika-includhiarthrithil-S १-पृष्ठ ६। २-पृष्ठ २२१३-पृष्ठ ३ । alary Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అ thettalitaritakitatakడదుందుడుకుందురు దుండగుడుకుంటుండురుగుండillalalalalad్మ! १०२ जैन-रत्नसार wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.nawanwar mahwa LatestastratantanA RAatmakarshatantr x जत्रनयन्तनमनननननननननननन प्रस्त्र प्रणप्रत्र प्रमाणप्रत्र प्रमाण पोसह का पञ्चक्खाण करेमि भंते ! पोसहं, आहार पोसहं देसओ सव्वओ सरीर सक्कार पोसहं । सव्वओ बंभचेर पोसहं ? सव्वओ अव्वावार पोसहं । जावदिवसं अहोरत्तंवा पज्जुवासामी, दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं, ण करेमि ण कारवेमि, तस्स भंते पडिक्कमामि जिंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि।। फिर खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक लेवा मुंहपत्ति पडिलेहूं ? इच्छं' कह एक खमासमण दे मुंहपत्ति पडिलेहें । तब एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक संदिसाहूं ? इच्छं कहे । फिर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक ठाउं ? इच्छं' कह खमासमण दे खड़े होकर तीन णमोक्कार गिने । फिर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पसायकरि सामायिक दंडक उच्चरावोजी' बोलकर करेमिभंते०१ का तीन बार पाठ सुने या बोले तदनन्तर एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् बेस' संदिसाहूं ? इच्छ', फिर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् बेसणूं ठाउं ?, में कहे । पीछे एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सज्झाय संदिसाहूं ? इच्छ' तथा एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सज्झाय करूं ? इच्छ' कहकर खमासमण दे ग्हड़े ही खड़े आठ णमोक्कार गिने । अगर शीतकाल में वस्त्र की आवश्यकता पड़े तो उसके लिये एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पांगरणं संदिसाहूं ? इच्छ' .. कह फिर एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन पांगरणूं। । पडिग्गहूं ? इच्छं' ऐसा कह वस्त्र ग्रहण करे पीछे एक खमासमण दे । 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! बहुवेलं संदिसाहूं ! इच्छ' और एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! बहुवेलं करूं ? इच्छं। इस प्रकार पौषध लेकर पूर्वोक्त रीत्यानुसार अगर पहले न किया हो तो राई प्रतिक्रमण पूर्व विधि अनुसार करे । विशेष इतना है कि चार थुई के K atekartedREATERatiniateket- E-KALAisthaneselilionfathetirlinkunthitedinlientirlichut.kenathali- langdionleadlinf-liniemalanieladieantar १ पुष्ठ३।२-पृष्ठ ८७। गिटन मनमनमाज प्रजनननननननननननन प्रणप्रत्र Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Restostatishthbhsbrlabahoshottamatata boobaththpootostosterosatarashatishtweekstatatatastestage wwwwwwwwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwwwwwwr k akirliamlarlakitalcolishadur .twinkalukatrintinkalinsaitrkulataka-taliatrimirkatakalamauli-lant-lutiatish lanakitsaksaatokporntsanstallatohatoshetakistakatharaakirstockprobocomsaksbatdealsasha विधि-विभाग १०३ देव वन्दन के बाद ‘णमुत्थुणं०१' कहे तथा एक खमासमण दे, 'बहुवेलं' का आदेश लेकर पीछे आचार्यजी मिश्र० इत्यादि कहे । प्रतिक्रमण पूर्ण होने पर पडिलेहण की विधि करे । पडिलेहण विधि एक खमासमण देकर इरियावहियं०२ तस्स उत्तरी• अणत्थ. कह एक लोगस्स का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स०३ कहे । पीछे एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पडिलेहण संदिसाहूं ? इच्छ' । खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पडिलेहण करूं.? इच्छं' कह मुंहपत्ति का पडिलेहण करे । तदनन्तर एक खमासण दे इच्छाकारेण० अंग पडिलेहण संदिसाहूं ? इच्छं' फिर एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण. अंग पडिलेहण करूं ? इच्छं' कह धोती वगैरह पडिलेहे । फिर एक खमासमण पूर्वक 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पसाय करी पडिलेहण पडिलेहावोजी ? . इच्छं' ऐसा कह 'स्थापनाचार्यजी' का 'शुद्ध स्वरूप धारे पाठ सहित पडिलेहणा कर उच्चस्थानपर विराजमान करे। पीछे खमासमण पूर्वक 'इच्छाकारेण उपधि मुंहपत्ति पडिलेहूं ? इच्छं' कह मुंहपत्ति का पडिलेहण करे । पीछे एक खमासमण पूर्वक 'इच्छाकारेण उपघि पडिलेहण संदिसाहूं ? इच्छं । एक खमासमण पूर्वक 'इच्छाकारेण उपधि पडिलेहण करूं? इच्छं' कह वस्त्र कम्बल आदि पडिलेहे । तदनन्तर पौषधशाला की प्रमा र्जना कर विधि पूर्वक एकान्त में कूड़ा करकट रख दे । अन्त में खमा। समण दे 'इरियावहियं० तस्स उत्तरी• अणत्थ. कह, एक लोगस्स का कागसग्ग पार प्रगट लोगस्स० कहे । पीछे खमासमण पूर्वक 'इच्छाकारेण० सज्झाय संदिसाहूं ? इच्छं' कह फिर एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण. सज्झाय करूं ? इच्छं । कह तीन णमोक्कार गिन, 'उपदेशमाला की, सज्झाय पढ़े या सुने तथा फिर तीन णमोक्कार गिने । इसके अनन्तर अगर गुरु महाराज आदि विद्यमान हों तो उनको ได้ใดไม่ใดในไอะไขปันไดไไไดไไไไไไไดไกปักให้อะไรในใจไขใจในปัจใดใดใดในใจใๆใยใจในองไคโระในใจไวในปันปันใจใดในไตป้อไวไลได้อยได้ได้ไขใจนักได้ใจจใคใดไม่ไดใจไรไพไดไไดไไดดในใจได้ ในใจไรไดใจจไฟใจจได ไพจไขใจไดในใจ १-पृष्ठ ५१२-पृष्ठ ३१३-पृष्ठ ४।४-पृष्ठ ७५ । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ satatakshatralabhatatatatara satata t atisti c s १०४ www win awwwwwwwwwwwmnmarwanawarananmania mmmwwwmnmmmmmmmm FAatisfaktarinlaints a sinila स्वतन्त्रतल्यग्रतत्रत्रप्रणप्रत्रनयनतन्त्रप्रणालमत्रजनप्रणयननननननननननननन जैन-रत्नसार विधि पूर्वक वन्दन करे। पीछे पच्चक्खाण लेकर 'बहुवेलं का आदेश लेवे। पीछे देवदर्शन करने के लिये जिन मन्दिर अवश्य जावे । मन्दिर में जाकर इरियावहियं पूर्वक विधि सहित भाव से चैत्यवन्दन करके पच्चक्खाण करे । जिनमन्दिर, उपाश्रय, ( पौशाल ) आदि से निकलते समय तीन दफा 'आवस्सही कहे तथा प्रवेश करते समय 'णिस्सिही' कहें। पीछे उपाश्रय में जाकर इरियावहियं पडिक्कमे तथा स्वाध्याय या धर्मध्यान करे या व्याख्यान सुने । लघुनीति या बड़ीनीति परठनी हो तो प्रथम 'अणुजाणह जस्सग्गहों कहे पीछे तीन बार 'चोसिरे बोलकर इरियावहियं० कहे । पौन प्रहर* दिन चढ़नेपर एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन उग्घाडा पोरसी करूं ? इच्छं' कहकर एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !' इरिया वहियं तस्सउत्तरी अणत्थ. कह एक लोगस्स का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स० कहे । फिर एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! उग्घाडा पोरसी मुंहपत्ति संदिसाहू ? इच्छं और एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह। भगवन् ! उग्घाडा पोरसी मुंहपत्ति पडिलेहूं ? इच्छं'। ऐसा कह मुंहपत्ति का पडिलेहण करे । पीछे स्वाध्याय या ध्यान करे । जब काल वेला हो तो जिनमन्दिर या उपाश्रय या पौशाल में 'देव वन्दन" करे । अथ देव वन्दन विधि प्रथम एक खमासमण देवे । पीछे इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! शक्रस्तव भणं ? इच्छं । कह शकस्तव (णमुत्थुणं ) कहे । अनन्तर एक खमासमण दे 'इरियावहियं तस्सउत्तरी• अण्णत्थ०१ कहकर एक लोगस्स. का काउसग्ग पार कर प्रगट लोगस्स कहे। पीछे तीन खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन ! चैत्यवन्दन करूं ? इच्छं ।' * सूर्योदय से सवा दो घण्टे तक। + पोसह करनेवाला यदि देवदर्शन न करे तो पांच उपवास के प्रायश्चित्त का भागी होता है, ऐसी शास्त्रोक्ति है। १-पृष्ठ ४। गलतनगणनगनबन्नग्रगणयनमश्रण Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग १०५ I कह चैत्यवन्दन करे फिर जं किंचि० णमुत्थुणं ० ' कहकर खड़ा हो जाये । अरिहंत चेइयाणं ० २ अणत्थ० ३ कहकर एक णमोकार का काउसग्ग 'णमो अरिहंताणं' पूर्वक पार 'नमोऽर्हत्सिंडाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यः' कहकर प्रथम थुई कहनी चाहिये । पीछे लोगस्स० तथा अणत्थ• कह एक णमोक्कार का काउसग्ग पार दूसरी थुई कहे । पीछे 'पुक्खर वरदी बढे. " सुअस्स भगवओ० अणत्थ० ' कह एक णमोक्कार के काउसग्ग को सम्पूर्ण कर तृतीय थुई कहे । फिर 'सिद्धाणं बुद्धाणं ०५ वेयावच्चगराणं० तथा अणत्थ० ' कहकर एक णमोक्कार का काउसग्ग सम्पूर्ण कर चौथी थुई कहे फिर नीचे बैठकर णमुत्थुणं • कहे । फिर खड़े हो ' अरिहंत चेइयाणं • और अणत्थ• पूर्वक एक णमोक्कार का काउसग्ग पार फिर प्रथम थुई कहे | बाद लोगस्स • सव्वलोए० अणत्थ• कह एक णमोक्कार का काउसग्ग पार दूसरी थुई कहे पीछे पुक्खरवरदी सुअरस भगवओ० अणत्थ• पूर्वक एक णमोक्कार का काउसग्ग पार तीसरी थुई कहे बाद सिद्धा बुद्धाणं॰ वेयावच्चगराणं॰ अणत्य० पूर्वक एक णमोक्कार का काउसग्ग पार 'नमोऽई कहे चौथी थुई बोले । बाद नीचे बैठकर णमुत्थुणं० से जयवीयराय • पर्य्यन्त चैत्यवन्दन करे और अन्त में णमुत्थुणं कहे । फिर बैठकर स्वाध्याय या ध्यान करे । अगर जल पीने की इच्छा हुई हो तो पच्चक्खाण पारने की विधि से पच्चक्खाण पार कर जल पीवे । पचक्खाण पारने की विधि प्रथम एक खमासमण दे 'इरियावहियं • तरसउत्तरी० अणत्थ० कह कर एक लोगस्स० का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स • कहे । तदनन्तर एक खमासमण दे ‘इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पच्चक्खाण पारने की मुंहपत्ति पडिलेहूं ? इच्छं' कह खमासमण दे मुंहपत्ति का पडिलेहण करे । पीछे खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पच्चक्खाण पारूं ? यथाशक्ति' कह फिर खमासमण दे ‘इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पच्चक्खाण पारेमि ? १- पृष्ठ ५। २– पृष्ठ ७१ ३ – पृष्ठ ४ । ४- पृष्ठ ७ । ५--पृष्ठ ए 14 দ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जन - रत्नसार तहत्ति ।' कह एक णमोक्कार मुट्ठी बन्द करके गुणे । पीछे जो पच्चक्खाण किया हो उसका नाम लेकर पच्चक्खाण पारण गाथा पढ़े । पच्चक्खाण फासियं, पालियं, सोहियं तीरियं, किट्टियं, आराहियं जं चण आराहियं तस्समिच्छामि दुक्कड़ें' बोल एक णमोक्कार गुणे | बाद खमासमण पूर्वक 'इच्छाकारेण० चैत्यवन्दन करूं ? इच्छं ।' कह 'जयउ सामिय०१ से 'जयवीयराय ०३ तक सम्पूर्ण चैत्यवन्दन कहे तथा क्षणमात्र स्वाध्याय कर पानी पीवे । पीछे आसन पर बैठकर दिवस चरिमं का पञ्चक्खाण ले बाद इरिया वहियं ० ३ कहकर ( आहार संवरण निमित्त ) चैत्यवन्दन करे । 1 । यदि मलमूत्र की बाधा मिटाने जाना हो तो 'आवरसहि' पूर्वक निर्जीव भूमि में या स्थंडिल के पात्रमें जावे और 'अणुजाणहजरस गों' कह कर मलमूत्र परठे । पीछे प्राशुक जल से शुद्ध होकर तीन बार वोसिरामि कह ‘मलमूत्र' वोसिरावे । पीछें 'णिस्सीहि' बोलते हुए “पौषधशाला में आवे और एक खमासमण देकर 'इरियावहियं ० ' कहे । अनन्तर एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् गमणागमणं आलोउं ? इच्छं ।' कहकर इस प्रकार गमणागमण आलोयणा करे । 'आवस्सही करी, प्रासुक देसे जइ, संडासा पूंजी, थंडिलो पडिलेही, उच्चार प्रश्रवण वोसिरावी । णिस्सीहि करी पौषधशाला में आवे । 'आवंति जंतेहि जं खंडियं जं विराहियं तस्समिच्छामि दुक्कड़ ।' ऐसा कह बैठकर स्वाध्याय या ध्यान करे और दिन के चौथे पहर में संध्या पडिलेहण की विधि करे । संध्या पडिलेहण विधि प्रथम एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! बहु पुण्णा पोरिसी ? इच्छ' बोल खमासमण दे 'इरियावहियं ० तरसउत्तरी• अणत्य० " कह एक लोगस्स० का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स० कहे । तत्पश्चात् एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पडिलेहण करूं ? इच्छं' कह फिर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पौषधशाला ४ १- पृष्ठ ४ । २- पृष्ठ ६ । ३ – पृष्ठ ३ | ४- पृष्ठ ४ । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ attachakthడదడండడముచుకుందునుండునననననననననవంతుడు १०७ विधि-विभाग का प्रमार्जन कर ? इच्छं। कह मुंहपत्तिका पडिलेहण करे । फिर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् अंगपडिलेहण संदिसाहूं? इच्छं ।' खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् अंगपडिलेहण करूं ? इच्छं ।' ऐसा कह * आसन धोती आदि पडिलेहे और पौषधशाला की प्रमार्जना कर कूड़ा करकट विधि पूर्वक एकान्तमें गेर दे और एक खमासमण दे 'इरियावहियं.' का पाठ कहे । तदनन्तर एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पसायकरी पडिलेहण पडिलेहावोजी ? इच्छ' ऐसा कह 'शुद्ध स्वरूप धारें। बोलते हुए स्थापनाजी की पडिलेहण कर उच्च स्थान पर विराजमान करे । पीछे एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण उपधि मुंहपत्ति पडिलेहूं ? इच्छं कह खमासमण देकर मुंहपत्ति का पडिलेहण कर । बाद खमासमण दे 'इच्छाकारेण सज्झाय संदिसाहूं ? इच्छं । फिर खमासमण दे ‘इच्छा| कारेण सज्झाय करूं ? इच्छं।' कहकर एक णमोक्कार गुण उपदेशमालार * की सज्झाय कहे । पीछे णमोक्कार गिनकर पञ्चक्खाण करे। यदि आहार किया हो तो दो वन्दना देकर पच्चक्खाण करे । अन्त में एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण उपधि थंडिला पडिलेहण संदिसाहू ? इच्छं। खमासमण दे 'इच्छाकारण. उपधि थंडिला पडिलेहण करूं ? इच्छं।' खमासमण दे 'इच्छाकारेण० वेसणूं संदिसाहू ? इच्छं ।' फिर खमासमण दे 'इच्छाकारेण * वेसणूं ठाउं ? इच्छं कहकर बैठे और वस्त्र, कम्बल, चरवला आदि का पडिलेहण । उपवास करने वाला वस्त्रादि की पडिलेहण कर कटिसूत्र और धोती फिर पडिलेहे । पीछे उच्चार प्रश्रवण के २४ थंडिला पडिलेहे । चौवीस थंडिला पडिलेहण पाठ १ आगाढ़े आसण्णे उच्चारे पासवणे अणहियासे ।' २ आगाढ़े मझे उच्चारे पासवणे अणहियासे । ३ आगाढ़े दुरे उच्चारे पासवणे अणहियासे | ___४ आगाढ़े आसपणे पासवणे अणहियासे । १-पृष्ठ २१२--पृष्ठ ७५। ३-पृष्ठ ।। ४-स्त्रियां अपने २ वस्त्रों की पहिलेहणा करें। En-tilamlentertainirurtalukatrkurtantatwlrt-mariatortantralatkarstratakotrian totatistatement-tats.estoaktarlannelartmkrelandekatashamtarbattarakootarkastastroloratislalala-telialekholimkatrinthiaticlinicline จในไกลโคเลไปไกลไหม, ครียด คดโคนได้, ไตใจใกโยงได้ไงไมงคล โดยโอน โดยได้พได้เปิดใจไมโครได้อยโองไตใจไทยนไหนไพะเยอะไรกไทยโดย ไกไหนไกลไกเตะไคไกโดในไตไพโดยใยไยในไดนาไพรไดไฟในไดไหนใดใด มโน, ไอโตไว ใน แคมเปญโดย กด "ในใจไทย 6 In 14 - 1.1 1. ไทย, Lels Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-रत्नसार १०८ ५ आगाढ़े मज्झे पासवणे अणहियासे । ६ आगाढ़े दूरे पासवणे अणहियासे । ७ आगाढ़े आसणे उच्चारे पासवणे अहियासे । ८ आगाढ़े मज्झे उच्चारे पासवणे अहियासे । ९ आगाढ़े दूरे उच्चारे पासवणे अहियासे । १० आगाढ़े आसणे पासवणे अहियासे । ११ आगाढ़े मझे पासवणे अहियासे । १२ आगाढ़े दूरे पासवणे अहियासे । १३ अणागाढ़े आसणे उच्चारे पासवणे अणहियासे । १४ अणागाढ़े मझे उच्चारे पासवणे अणहिया से । १५ अणागाढ़े दूरे उच्चारे पासवणे अणहियासे । १६ अणागाढे असणे पासवणे अणहियासे । १७ अणागाढ़े मज्झे पासवणे अणहियासे । १८ अणागाढ़े दूरे पासवणे अणहियासे । १९ अणागाढ़े आसण्णे उच्चारे पासवणे अहियासे । २० अणागाढ़े मज्झे उच्चारे पासवणे अहियासे । २१ अणागाढ़े दूरे उच्चारे पासवणे अहियासे । २२ अणागाढे आसणे पासवणे अहियासे । २३ अणागाढ़े मझे पासवणे अहियासे २४ अणागाढे दूरे पासवणे अहियासे । इनमें से ६ थंडिले शय्या के दोनों तरफ दाहिनी ओर तीन और बायीं ओर तीन पडिलेहे । ६ थंडिले दरवाजे के भीतर दोनों तरफ दाहिनी ओर तीन और बायीं ओर तीन पडिलेहे । ६ थंडिले दरवाजे के बाहर दाहिनी और बायीं तरफ पडिलेहे और अन्तिम ६ जहां उच्चार प्रश्रवण की जगह हो वहां दोनों दाहिनी और बायीं तरफ पडिले | अब प्रतिक्रमण का समय हो गया हा तो प्रतिक्रमण करे । प्रति Jaberest class taste Jontact to stoo osteotect Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Postedricketerstootodokdotkopaddalababse badshaaskoodaolesaladdresladaladiskasatboardedasaicodaedesistancedtales विधि-विभाग १०६ www Vitati-fortantate lutatistarakh totarahattartutorikuaat-kotakoftaakhaanaatatestantasteorykartatstakarMarattarakestashakakirtinhaleshsherikakatekararathistatreenakeelictimeteriakelicialishsimininetries क्रमण में 'आजुणा चार प्रहर' पाठ के स्थान पर 'पोसह संध्या अतिचार? बोले शेष विधि देवसिक के समान करे और खुद्दोपद्दव का काउसग्ग किये बाद एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण. सज्झाय संदिसाहू इच्छ। पुनः खमासमण दे 'इच्छाकारेण. सज्झाय करूं ? इच्छं। ऐसा कह तीन णमोकार गुण सज्झाय करे । प्रतिक्रमण के बाद पहर रात तक स्वाध्याय या ध्यान करे । यदि लघुशंका करनी हो तो लघुशंका करे और वापस आकर 'भगवन् बहु पडिपुण्णा पोरिसी ? ऐसा कह 'इरियावहियं का पाठ कहे । संथाराका समय होनेपर रात्रि संथारा करे। रात्रि संथारा विधि एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् बहु पडिपुण्णा पोरिसी? इच्छं' कह खमासमण दे 'इच्छाकारेण०, इरियावहियं तस्सउत्तरी० अणत्थ०२ कह एक लोगस्सका काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स. कहे । तदनन्तर खमासमण दे ‘इच्छाकारेण राई संथारा मुंहपत्ति पडिलेहूं इच्छ' कह मुंहपत्ति की पडिलेहणा करे । बाद खमासमण दे 'इच्छाकारेण० राई संथारा संदिसाहू? इच्छं ।' पुनः खमासमण दे 'इच्छाकारेण राई संथारा ठाउं ? इच्छं कह पुनः खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवन्दन करूं ? इच्छं । ऐसा कह चउक्कसाय०३ । णमुत्थुणं पूर्वक जयवीयराय० पर्यन्त सम्पूर्ण चैत्यवन्दन कर भूमिका प्रमार्जन कर संथारा बिछा, शरीर का प्रमार्जन कर, संथारे पर बैठ राई संथारे५ का पाठ बोले । दो 'घड़ी रात्रि शेष रहते उठे और णमोक्कार मंत्र गिने । तदनन्तर खमासमण दे 'इरियावहियं०६ तस्सउत्तरी• अणत्थ.' कह एक लोगरस का काउसग्ग कर प्रगट लोगरस. कहे । पुनः खमासमण दे 'कुसुमिण दुसुमिण' का काउसग्ग कर राई प्रतिक्रमण करे। 'सातलाख' की जगह पोसह रात्रि अतिचार का पाठ बोले । इस प्रकार सम्पूर्ण प्रतिक्रमण कर, पडिलेपा -पृष्ठ १० । २-पृष्ठ ४ । ३--पृष्ठ २४ । ४–पृष्ठ ५। ५-पृष्ठ ५८ । ६-पृष्ठ ३ । ७ Poskasraelo Tobilinbloconotosbabhisorlmannasamataonliamslistasleshailonephalaolakhshshrishakoilithilosladashionakhootosladkisthatarkismakarglastidaoliclialeshdootoleolockashalistastarteorolaktaratatatoladalaakolhhoketretathaat-eladluctase Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sortertontentants trotorterte tout जैन - रत्नसार ११० हण के समय पूर्वोक्त विधिसे पडिलेहणा कर पौपधशाला का कचरा ( कूड़ा ) निकाल कर इरियावहियं • कहें । दो खमासमण देकर सज्झाय संदिसाहू ? सज्झाय करूं ? आदेश मांगकर, उपदेशमाला' की सज्झाय पढ़ कर पोसह ० पारे । पोसह पारने की विधि खमासमण देकर इरियावहियं ० १ पढ़े । एक खमासमण दे 'इच्छाका - रेण संदिसह भगवन् पोसह पारूं ? यथाशक्ति ।' पुनः खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पोसह पारेमि ? तहन्ति ।' कह खमासमण दे दाहिना हाथ नीचे रख तीन णमोक्कार गिन, खमासमण देकर मुंहपत्ति का पsिहण करे | पीछे खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सामायिक पारूं ? यथाशक्ति ।' पुनः खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पोसह पारेमि ।' 'तहत्ति ।' खमासमण देकर आधा अंग नमाकर तीन णमोक्कार गिनकर भयवंदसण्ण०३ का पाठ बोले । पीछे तीन णमोक्कार गिनकर उठ जाय । दिन सम्बन्धी चउपहरी पौषध विधि आठ पहर पौषध लेने की विधि के समान ही चार पहर पौषध लेने की विधि है । पोसह 'दंडक उच्चरते समय 'चउपहरी पौषध' निम्नलिखित पच्चक्खाण करे | चउपहरी पौषध पच्चक्खाण करेमिभंते पोसहं आहार पोसहं देसओ सव्वओ सरीर सक्कार पोसहं सव्वओ बंभचेर पोसहं सव्वओ अव्यावार पोसहं सव्वओ चउविहं पोसहे जावदिव संपज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं णकरेमि कारवेमि तस्समंते पडिक्कमामि णिदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । बाद पूर्ववत् सामायिक लेवे । यदि प्रतिक्रमण गुरु के साथ न किया हो तो गुरु के पास आकर पौपध और सामायिक पूर्ववत १- पृष्ठ ७५ १२ पृष्ठ ३ । ३-पृष्ठ १८ । प्रश्नपत्र Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lactate toota tocado tortot tostante विधि - विभाग १११ 1 " 1 सब विधि करे । पीछे आलोयण खोमणा आदि निमित्त मुंहपत्ति का पडिलेहण कर दो बन्दणा' देवे । बाद में 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् राइअं आलोउं ? इच्छं', आलोएमि जो मे राइओ अइयारो पाठसे राइअं आलोवे । पुनः एक खमासमण देकर 'इच्छाकारेण सं दिसह भगवन् अन्भुडिओमि अभितर राइअं खामेउं ? इच्छ, खामेमि राइअं 'जं किंचि०२' का पाठ बोले आदि विधि पूर्वक गुरु को वन्दन करे । तदनन्तर गुरु से पच्चाक्खाण ले | पीछे दो खमासमण देकर बहुवेलं संदिसावे । एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पडिलेहण संदिसाहू ? इच्छं, पुनः खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पडिलेहण करूं ? इच्छं', कह मु ंहपत्ति की पडिलेहण करे । पश्चात् एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् अंगपडिलेहण संदिसाहू ? इच्छं, पुनः एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् अंगपडिलेहण करूं ? इच्छं' कह उपधि मुहपत्ति पडिलेहे । अनन्तर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पसायकरी पडिलेहण पडिलेहावोजी ? इच्छं' कह सब वस्त्रों की पडिलेहण करे | बाद दो खमासमण पूर्वक सज्झाय संदिसाहू ? और सज्झाय करूं? इच्छं कह ‘उपदेशमालार की सज्झाय कहे या सुने । अन्तमें पिछले पहर पच्चाक्खाण करने के बाद एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्__ उपधि पडिलेहण संदिसाहू ? इच्छं पुनः खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् उपधि पडिलेहण करूं ? ऐसा कहकर पडिलेहण करे परन्तु थंडिला पद न कहे और न थंडिलों का पडिलेहण करे । शेष. मब विधि आठ पहर पौषध विधि के समान है । रात्रि सम्बन्धी उपहरी पौषध विधि दिन के चउपहरी पोसह लेने वाले का अगर रात्रि पोसहका भी भाव हुआ हो तो वह संध्या का पडिलेहण तथा पच्चक्खाण करने के बाद दो खमासमण देकर पोसह लेवा मुंहपत्ति पडिलेहे । तदनन्तर दो खमासमण दे १ पृष्ठ ६ । २– पृष्ठ ७ । ३- पृष्ठ २ । tatortentaclas Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैन - रत्नसार ******* पोसह का आदेश मांग कर तीन णमोक्कार गिन कर तीन बार पोसह दंडक उच्चरे । तदनन्तर सामायिक मुंहपत्ति का पडिलेहण कर पूर्वोक्त रात्रि संथारा विधि लिखी है उसी तरह सब विधि करे । ******* दिन का पौषध न किया हो और रात्रि का ही करना हो तो प्रथम सब उपगरणों की पडिलेहण कर इरियावहियं • बोले । पीछे चउब्विहार O पच्चऋखाण करके ढ़ो खमासमण पूर्वक पोसह मुंहपत्ति पडिलेहे । फिर दो खमासमण ढ़े पोसह का आदेश मांग कर तीन णमोक्कार गिन कर तीन वार पोसह दंडक उच्चरे । रात्रि चपहरी पौषध पच्चक्खाण करेमि भंते पोसहं आहार पोसहं देसओ सव्वओ सरीरसक्कार पोसहं सव्वओ वंभचेर पासहं सव्वओ अव्वावार पोसहं सव्वओ चउव्विहे पोसहे जावअहोरति पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाएकाएणं णकरेमि णकारवेमि तस्स भंते पडिक्कमामि णिदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि । इसके बाद सामायिक मुंहपत्ति का पडिलेहण कर पूर्वोक्त रात्रि संथारा विधि लिखी हैं, उसी तरह सब विधि करे । अन्त में पडिलेहण का आदेश मांगने के बाद अगर पडिलेहण न किया हो तो सब उपधि का पडिलेहण करे और सिर्फ दृष्टि पडिलेहे फिर उच्चार प्रश्रवण के चौबीस थंडिलों का भी पडिलेहण करे । शेष विधि पूर्ववत है । देसावगासिक लेने की विधि प्रथम इरियाही ० १ तस्स उत्तरी• अणत्थ• कहे बाद में एक लोगस्स का काउसग्ग करे फिर लोगस्स ० : कहे । देसावगासिक लंबा मुंहपति पडिलेहू ं मुंहपत्ति पडिलेहण करने के बाद इच्छामि० इच्छाकारेण० देसावासि संदिसाहू इच्छं इच्छामि० देसावगासि ठाउं कह तीन णमोकार गिने इच्छं इच्छामि० इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पसायकरी देसावगासि १-- पृष्ठ ३ । २– पृष्ठ ४ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Desaskelestatestobalobhadanluslatialisatmlanasonashalgadootmlarkiobolloodaaidaodsosanlaalikaalanalisablasmoolaaliseslarasadewleasenastasaram विधि-विभाग १ rune.indanwwwmarwaiwwwwwwwwwwwwww sawantaintinkskskamkriwala-foolishitani-lantsEranepalakatestadaulasaharanastainlaolodbetirordesisealbrialoy क दंडक उच्चरावोजी देसावगासिक? दंडक तीन बार बोले । इसके बाद पूर्वोक्त सामायिक लेने की विधि करे । देसांवगासिक पारने की विधि प्रथम इच्छामि०२ इच्छा. देसावगासिक पारवा मुंहपत्ति पडिलेहूं । फिर इच्छामि० इच्छा० देसावगासिक पारूं पुणोवि कायव्वो इच्छामि० देसावगासिक पारेमि 'तहत्ति' सामायिक पारने की विधिके अनुसार देसावगासिक पारे। देसावगासिक पारने की गाथार पढ़े फिर तीन णमोकार गिने। तपगच्छीय विशेष विधियां - सामायिक लेने की विधि श्रावक श्राविका शुद्ध वस्त्र पहन, चौकी आदि उच्च स्थान पर पुस्तक या मालाको स्थापनकर भूमि प्रमार्जनके बाद आसन बिछा चरवला मुंहपत्ति लेकर आसन पर बैठे । बायें हाथ में मुंहपत्ति को मुख के आगे रख दाहिने हाथ को स्थापना के सम्मुख कर एक णमोकार पढ़ कर पंचिंदिय सूत्र० उच्चरे। (अगर गुरु महाराज स्वयं विराजमान हों तो णमोक्कार और पंचिंदिय सूत्र की आवश्यकता नहीं। ) पीछे एक खमासमण देकर इरियावहियं०५, तस्स उत्तरी०, अणत्य० बोल एक लोगस्स या चार णमोक्कार का काउसग्ग कर, णमोअरिहंताणं' कह पार कर प्रगट लोगस्स० कहे । पीछे खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !.सामायिक लेवा मुंहपत्ति पडिलेहूं ? इच्छं' कह मुहपत्ति का पडिलेहण करे । तदनन्तर एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक संदिसाहू इच्छं फिर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक ठाउं ? इच्छं' कह खड़े हो, दोनों हाथ जोड़ कर एक णमोक्कार पढ़े और 'इच्छकारि भगवन् पसायकरी सामायिक दंडक उच्चरावोजी' SaDarlamlaslankeslalishamalankarelalaalbelcolicelanketrinakalankeletiokilindiranikichalanatanarisimicainionlinentaliranlanimlinlinlimilalanwali.alimlantalonlinelioniseokolarastakalaakshanikarakalayakhalledeeslashetadoratalertstalkritalwar kamasobat katha kakka hila Kohi R ResKathkraineKhna KK १-पृष्ठ ८२।२-पृष्ठ २१३-पृष्ठ ८२१४-पृष्ठ५४ 1-पृष्ठ३ प्रकाशमानलमूल्य मूल्यमालामालगाया गया 15 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ಬkಭವದಿನದಿಜವಾಬಬಬಜಓದಬದಬವನ್ನು tontonan hot ..............., ,,... m ore their bitartettiin to the o the link to जैन-रत्नसार । कहे । बाद गुरु महाराज अथवा अपने से बड़े से करेमिभंते सुने अन्यथा र स्वयं ही उच्चरे । पीछे खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! में वेस" संदिसाहू ? इच्छं कह फिर खमासमण दे 'इच्छाकारण संदिसह । भगवन वेस' ठाउं ? इच्छं कहे । पश्चात् फिर खमासमण दे 'इच्छाकारण संदिसह भगवन् ! सज्झाय संदिसाहूं? इच्छं' कह फिर खमासमण दे इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सज्झाय करूं ? इच्छं' कहकर तीन णमोक्कार गुणे। दो घड़ी प्रमाद सेवन न करते हुए धर्मध्यान या स्वाध्याय करे। सामायिक पारने की विधि प्रथम खमासमण दे इरियावहियं०१, तरस उत्तरी०, अणत्थ०, बोल। एक लोगस्स का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स. कहे । तत्पश्चात् एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सामायिक पारण मुंहपत्ति पडिलेहूं ? इच्छं कहकर मुंहपत्ति की पडिलेहणा करे । फिर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामाइयं पारेमि ? यथाशक्ति' कहे । बाद खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सामाइअं पारिश्र, तहत्ति', कह, दाहिने हाथको आसनपर या चरवलेपर स्थाप ( रख) मस्तक झुकाकर, एक णमोक्कार गिने, 'सामाइय वयजुत्तो०२' सूत्र पढ़े । बाद सामायिक सम्बन्धी मन, वचन और काया के ३२ दोषों की आलोचना कर, दाहिने हाथ को मुख के सम्मुख रख तीन णमोक्कार पढ़े। राई प्रतिक्रमण की विधि प्रथम सामायिक लेवे । पीछे खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह , भगवन् कुसुमिण दुसुमिण उड्डावणी राइअ पायछित्त विसोहणत्थं काउसग्ग करूं ? इच्छं ।' कुसुमिण दुसुमिण उड्डावणी राइअ पायच्छित्त विसोहणत्यं करेमि काउसग्गं, अणत्य०३ पढ़कर चार लोगस्स का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स. कहकर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवन्दन १-पृष्ठ ३।२-पृष्ठ ५४।३-पृष्ट ४ । trattamento the top t ไet ไจไดไไไไไไไไala ได้ใจไฉไละไม ในวงในไปได้ในไตไดมป์ ไดไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไดไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไน i che Reteta kot kontrollimit the form for the latterleimt ketika kipindi hikekotelettr lalitaina Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग ११५ करूं ? इच्छं' कह जगचिंतामणि१ चैत्यवन्दन से जयवीयराय०२ तक पढ़के चार खमासमण अर्थात् 'इच्छामि०, भगवानहं, इच्छामि० आचार्यहं, इच्छामि० उपाध्यायहं, इच्छामि० सर्वसाधुहं' कहकर खमासमण पूर्वक 'इच्छाकारेण सज्झाय संदिसाहूं? इच्छं ।' फिर खमासमण दे 'इच्छाकारेण सज्झाय करूं? इच्छं' कहकर 'भरहेसर की सज्झायर कहकर एक णमोकार कहें । बाद 'इच्छकारि सुहराई॰' का पाठ कह 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्. राई पडिक्कमणो ठाउं ? इच्छे' कहकर दाहिने हाथ को आसन या चरवले पर रख 'सव्वस्सविराइय दुचिंतिय०' पाठ कहे। बाद णमुत्थुणं.' कह खड़ा हो, 'करेमि भंते०४, इच्छामि ठामि०५, तस्स उत्तरी० अणत्य०', कह। एक 'लोगस्स' का काउसग्ग पार प्रगट 'लोगस्स०, सव्वलोए अरिहंत. अणत्यः' कह एक 'लोगस्स का कायोत्सर्ग पार के 'पुक्खरवरदीवड्डे०६ सुअरस भगवओं, बंदणवत्तियाए. अणत्थ०' पढ़कर अतिचार की आठ गाथायें अथवा आठ णमोक्कार का कायोत्सर्ग करके 'सिद्धाणं बुडाणं०८ कहे । पीछे तीसरे आवश्यक की मुंहपत्ति का पडिलेहण कर दो वन्दना देवे । वाद 'इच्छाकारेण राइयं आलोउँ ? इच्छं, आलोएमि जो मे राइओं पढ़कर सातलाख०१०, अठारह पापस्थान की आलोयणा कर 'सव्वस्सवि राइय' कह, बैठकर दाहिने घुटने को खड़ाकर 'एक णमोक्कार, करेमिभंते०, इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे राइओ०' कहकर वंदित्तु ११ सूत्र पढ़े। पीछे दो वन्दना देकर 'इच्छाकारेण अन्भुडिओमि अभितर राइयं खामेउं ? इच्छं, खामेमि राइयंः' पढ़कर दो वन्दना देकर, खड़े खड़े 'आयरिअ उवझाए०, करेमिभंते० इच्छामि ठामि० तस्स उत्तरी• अणत्यः' कह सोलह णमोक्कार का काउसग्ग पार, प्रगट लोगस्स. कहके, छठे आवश्यक की मुंहपत्ति पडिलेह कर दो वन्दना देवे । पीछे बैठकर 'सकल तीर्थ' कह पञ्चक्खाण करके 'सामायिक चउवीसत्थो वंदन, पडिक्कमण, काउसग्ग पञ्चक्खाण किया है जी कह बैठकर 'इच्छामो अणुसहि०, णमो । १-पृष्ठ ५४ । २-पृष्ठ १५॥३-पृष्ठ ५७ । ४–पृष्ठ ३।५-पृष्ठ ७। -पृष्ठ । 5- पृ .15 पृष्ठ ८।६-पृष्ठ हा १०- पृष्ठ ।। ११-पृष्ठ ११ । Mathilakshawalelalaala Takaladioladishakirteboolatalalalithaliralekelikakakirawalhal+ial-krislutiatinkalistialatalalakelilaharlalsalilatatalalalalaletalelairlaletst-statei-sistetaisiviolata TAMIN Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-नसार खमासमणाणं०, नमोऽर्हत०' पढ़कर 'विशाललोचन दलं०१" पढ़े। पीछे 'णमुत्थूणं •, अरिहंत चेड्याणं० अणत्य०' कह एक णमोक्कार का काउ 5 1 सग्ग पार 'कल्लाण कंद०२ की प्रथम थुई कहे | बाद लोगरस०, सव्वलोए अरिहंत • कह एक णमोक्कार का काउसग्ग पार दूसरी थुई कहे | बाद ' पुक्खर वरदी वड्डे, सुअरस भगवओ करेमि ० कह एक णमोक्कार का काउसग्ग पार तीसरी थुई कहे और 'सिडाणं बुद्धाणं० वयावच्चगराणं • अणत्थ॰ कह एक णमोक्कार का 'नमोऽर्हत्०' पूर्वक काउसग्ग पार चतुर्थ स्तुति कहे । पीछे बैठकर णमुत्थुर्ण पढ़कर चार खमासमण पूर्वक 'भगवानह' इत्यादि को वन्दन करके, दाहिने हाथ को चरवले या आसन पर रख 'अड्डाइज्जेसु' पढ़े | बाद खमासमण देकर बायां घुटना खड़ाकर श्री सीमंधर स्वामी का चैत्यवन्दन, स्तवन, जयवीयराय पर्य्यन्त करे ! पीछे 'अरिहंत चेइयाणं• अणत्य०' पढ़, एक णमोक्कार का कायोत्सर्ग 'नमोऽर्हत०' पूर्वक पार श्रीसीमंधर स्वामी की बुई कहनेके बाद सामायिक पारने की विधि से सामायिक पारं । ११६ अथ देवसिक प्रतिक्रमण की विधि प्रथम सामायिक लेबे | पीछे मुंहपत्ति पडिलेहण कर दो वन्दना देवे । तिविहार उपवास हो तो मुंहपत्ति पडिलेह कर बन्दना न देवे । चउविहार उपवास हो तो पडिलेहण या वन्दना कुछ भी न करना । पश्चात् यथाशक्ति पचक्खाण करे । पीछे खमासमण देकर इच्छाकारण० चैत्यवन्दन करूं ? इच्छं' कह चैत्यवन्दन करे । पीछे 'जं किंचि०' और 'णमुत्थुणं०' कह कर खड़े हो 'अरिहंत चेइयाणं०', अणत्य० कह एक णमोकार का काउसग्ग 'नमोऽर्हत०' कह पार कर प्रथम थुई कहे | बाद प्रगट लोगस्स• कहके 'सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं०, अणत्थ. कहकर एक मोकार का काउसग्ग करें उसको पार कर दूसरी थुई कहे । फिर 'पुक्खर वरदी ० ' कहकर मुअस्स भगवओ करेमि काउसग्गं वंदण बत्तियाए० १- पृष्ठ १६ । २-५५। ३- पृष्ठ २३/ 녹수 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Milanthడండడంతcallinchalitalడుదరడండదవడుగtact विधि-विभाग 1 " vav-rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrora re rrrre अणत्य' कह एक णमोकार का कायोत्सर्ग पार तीसरी थुई कहे । पीछे सिद्धाणं बुद्धाणं०, वेयावच्चगराणं, अणत्थ. कह एक णमोक्कार का कायोत्सर्ग पार 'नमोऽर्हत् सिद्धा. पूर्वक चौथी थुई कहे। बाद 'इच्छामि खमा० भगवानहं, इच्छामि खमास० आचार्यहं, इच्छामि खमा०, उपाध्यायहं, इच्छामि खमा० सर्वसाधुहं' इस प्रकार चार खमासमण देने पर 'इच्छकारि सर्व श्रावक बन्दु' कह कर 'इच्छाकारेण देवसिय पडिक्कमणो ठाउं ? इच्छं' कह दाहिने हाथ को चरवले या आसन पर रख बायें हाथ को मुंहपत्ति सहित मुख के आगे रख सिर झुका 'सव्वस्सवि देवसिय का पाठ पढ़े। बाद खड़ा होकर 'करेमि भंते' इच्छामि ठामि० तस्स उत्तरी० अणत्थ०' कह अतिचारकी आठ गाथाओं का अथवा आठ णमोक्कार का कायोत्सर्ग कर प्रगट लोगस्स. कहे। तदनन्तर तृतीय आवश्यक मुंहपत्ति की पडिलेहण कर दो वन्दना दे खड़े खड़े 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं आलोउं ? इच्छं आलोएमि जो मे देवसिओ.' कहे बाद सात लाख० व अठारह पापस्थान कहे । फिर 'सव्वस्सवि देवसिय' पढ़ नीचे बैठ दाहिना घुटना खड़ा करके 'एक णमोक्कार करेमिभंते. इच्छामि। पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ अइयारो०' इत्यादि पढ़कर 'वंदित्तु०२ सूत्र पढ़े।। बाद दो वन्दना देवे । पीछे इच्छामि अब्भुडिओहं अभितर०३ सूत्र दाहिना हाथ चरवले पर रख सिर नमा कर पढ़े। बाद दो वन्दना देकर खड़े हो । 'आयरिय उवज्झाए करेमिभंते. इच्छामि ठामि० तरस उत्तरी. अणत्थ.' । कह दो लोगस्स का काउसग्ग पार प्रगट लोगरस. कहे । पीछे 'सव्व लोए. अरिहंत चेइयाणं. अणत्य. कह कर एक लोगस्स या चार णमोक्कार का कायोत्सर्ग करे | पीछे 'पुक्खरवरदी वड्डे. सुअरस भगवओ करेमि काउसग्गं. वंदणवत्तियाए. अणत्यः' कह एक लोगस्सका काउसग्ग । करे । पीछे 'सिद्धाणं युद्धाणं कह सुअदेवयाए करेमि काउसग्गं । अणत्थ.' । पढ़कर एक णमोक्कार का काउसग्ग 'नमोऽर्हत. पूर्वक पार सुअदेवयाए०४ । १-पृष्ट ५६ ॥२-पृष्ठ ११३-पृष्ठ २१ ४--सुअदेवया भगवई, णाणावरणीअ कम्म: मंघायं । तेसिं सर्वत्र सययं, जेसिसुअसायरे भत्ती। 'Rolidalaalailashakakirlselbobabidesolankiaalbelalonlalbato lielatidaslilhelaski.ladaslialonlidinelasphalosisleelabakistasialhothosda.halisathiyaleaiololasahabalekhtadailsahaishaletaakishorisedladderleelakaalakandidathlala lola to lodia.dalatalathaled Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ไขได้ -- -- - - -.. var . . . . * อไพได้ใจไดไตลไพไดไไดไไดไไไไไไไไไไไไไไดไไไดไไไไไไไไไไไไดไม่ได้ไดไไไดไขไหนใคได้ใจได้ใจคนใดจะไดไตได้ดไดไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไฟไหels ไ - जैन-रत्नसार • की थुई कहें। पीछे 'खित्तदेवयाए करेमि काउसग्गं अणत्यः' पढ़ एक णमोक्कार का 'नमोऽर्हत०' पूर्वक काउसग्ग पार. 'जीसेखित्तसाहु०+ थुई है। कहें । अगर श्राविकाएं हों तो 'यस्याक्षेत्रं समाश्रित्य०१ थुई कहे । बाद । णमोक्कार गुण बैठकर मुंहपत्ति का पडिलेहण कर दो वन्दना देवे । वाद 'सामायिक चउवीसत्या वंदन पडिक्कमण काउसग्ग पञ्चकन्वाण किया है जी' णमो खमासमणाणं, नमोऽर्हत्.' कहकर-'नमोऽस्तु - वर्धमानाय०' पढ़े अन्यथा स्त्रियां संसारदावा. की तीन थुई पढ़ें । पीछःणमुत्थुणं.' कहे बाद कमसे कम पांच गाथाका स्तवन पढ़े। फिर 'वरकनक०'२ कह 'इच्छामि० भगवानह' इत्यादि चार खमासमण पूर्ववत् देवे । फिर दाहिने हाथ को चरवले या आसन पर रख सिर झुकाकर अड्डाइजसु०३ पढ़े। फिर खड़ा होकर 'इच्छाकारेण देवसिअ पायच्छित्त विसौहणत्थं काउसग्ग करूं इच्छं, देवसिअ पायच्छित्त विसोहणत्यं करेमि काउसग्गं । अणत्य. कह चार लोगस्स या सोलह णमोक्कार का काउसग पार प्रगट लोगरस. पढ़कर खमासमण पूर्वक 'इच्छाकारेण सञ्झाय संदिसाहूं ? इच्छं इच्छामि० इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सज्झाय करूं ? इच्छं कहे बाद णमोक्कार पढ़कर सज्झाय कहे । अन्त में एक णमोक्कार पढ़ 'इच्छामि इच्छाकारेण० । दुक्खक्खओ कम्मक्खओ निमित्त काउसग्म करूं ? इच्छं, दुक्खक्खय कम्मक्खय निमित्तं करेमि काउसग्गं । अणत्य. पढ़, सम्पूर्ण चार लोगस्स या सोलह णमोक्कार का काउसग्ग 'नमोऽर्हत०' पूर्वक पार लघुशान्ति पड़े। । पीछे प्रगट लोगस्स. कहे । पीछे सामायिक पारने के लिए खमासमण दे, इरियावहियं० तस्स उत्तरी• अणस्थ०, एक लोगस्स या चार णमोक्कार का काउसग्ग पार है. प्रगट लोगस्स. कहे । वाद वैठकर 'चउक्कसाय. णमुत्थणं. पूर्वक जयवीयराय" पर्यन्त चैत्यवन्दन कहे । पीछे खमासमण देकर 'इच्छाकारेण * जीसखित्ते साहू दंसण, णाणेहिं चरणसहियेहिं । साहति मुफ्स्यमगं, सा देवी हरउ है. दुरियाई। १-पृष्ठ २२१२ पृष्ट २३ ॥३-पृष्ट २३ ॥४-पृष्ट २४।५-पृष्ट १५ । ไดไไไพโดไทยไดมีกลไกปัดไทยุแคไตใจไดไไไดไไดไตลไไดไไดไไดไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไดดไดไไดไดไไดไไไไไไไไไไดไไไไไดไไไไไดไรไม่ได้ไปไไดไไไไไดไไไไงให้ได้ไง Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ thasokhasubbbbkbkhusbuREAKIstoiedosba161 63000blossodese.loddesicolodcartolarasale विधि-विभाग Cele a se सामायिक पारूं ? यथाशक्ति' इत्यादि सामायिक पारने की विधि से सामायिक पारे । अथ पक्खी प्रतिक्रमण की विधि प्रथम वंदित्त सूत्र तक तो देवसिक प्रतिक्रमण की तरह विधि करनी चाहिये । चैत्यवन्दन में सकलाऽर्हत और थुइयां स्नातस्या की कहना पीछे 'इच्छामि देवसिअ आलोइय पडिक्कंता इच्छाकारेण संदिसह । भगवन् पक्खी लेवा मुंहपत्ति पडिलेहूं ? इच्छं, कह मुंहपत्ति पडिलेह कर दो वन्दना देवे । बाद इच्छाकारेण संदिसह भगवन् अब्भुडिओहं संबुद्धा खामणेणं अभितरं पक्खिरं खामेउं ? इच्छं, खामेमि पक्खियं, एग पक्खस्स पणरसहं दिवसाणं पणरसण्हं राईणं जं किंचि०३ 'अपत्तिों कहे। फिर इच्छाकारेण पक्खिअं आलोउं ? इच्छं, आलोएमि जो मे पक्खिओ अइयारो कओ० कह 'इच्छाकारण. पक्खी अतिचार आलोउं ? इच्छं । कहकर वृहद् अतिचार' कहे। पीछे 'सव्वस्सवि५ पक्खिय दुञ्चितिय दुब्भासिय दुच्चिट्ठिय इच्छाकारेण संदिसह भगवन् , इच्छं तरस मिच्छामि दुक्कडं, इच्छकारि भगवन् पसायकरी पक्खिय तप प्रसाद करो जी' कहे। फिर 'पक्खिय के बदले एक उपवास, दो आयंबिल, तीन णिव्वि, चार एकासणे, आठ बिआसणे और दो हज़ार सज्झाय कर पइह पूरना जी' कहे । पीछे दो वन्दना देवे । पश्चात् 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पत्तेय खामणेणं अब्भुडिओमि अभितर पक्खिों खामेउं ? इच्छं, खामेमि पक्खियं एग पक्खस्स पणरसण्हं दिवसाणं पणरसण्हं राईणं जं किंचि अपत्ति कहकर दो वन्दना देवे । तदनन्तर 'पक्खिअं आलोइयं पडि कंता इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खिअं पडिक्कम ? 'इच्छं, सम्म पडिक्कमामि' कहकर करेमि भंते० इच्छामि पडिक्क्रमिउं जो मे पक्खिओ० * इस पाठ में देवसिहं, देवसिओ, देवसियाए की जगह पक्खी, चउमासी, सम्वत्सरी प्रतिक्रमण में पक्खियं, पक्खियाओ, पक्खियाए । चउमासियं चउमासिओ, चउमासियाए। सम्वत्सरियं, सम्बत्सरियो, सम्वत्सरियाए कहना चाहिये । १-पृष्ठ ११ । २-पृष्ठ ६०। ३-पृष्ठ २। ४-पृष्ट २६ । ५-पृष्ठ ७ । ६-पृष्ट । kakakakakakakakhetstalkedakadiladhkeletalaletalalatkhtartstolatakathantadar Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० = = = NULL womadurinaruwaunuwarnwww.ammerowine తెలుగు పదుల వlithalli నటుడిపడినటthalatha పడిన యువకుడు పురుడు Mahasabhalu जैन-रत्नसार । कहे । पश्चात् एक खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् वंदित्तु सूत्र पढुं ? इच्छं, कह, तीन णमोक्कार गुण वंदित्तु सूत्र पढ़कर सुअदेवया० की थुई बोल नीचे बैठे । तदनन्तर दाहिना घुटना खड़ा करके एक णमोक्कार करेमि भंते०, इच्छामि पडिक्कमिडं जो मे पक्खिओ०' कह वंदित्तु सूत्र कहे । बाद खड़े होकर करेमि भंते०, इच्छामि ठामि० तस्स उत्तरी * अणत्थः' कह बारह लोगस्स या ४८ णमोक्कार का कायोत्सर्ग करे।। । उसे पारकर प्रगट लोगस्स०२ पढ़कर, मुंहपत्ति को पडिलेह कर दो वन्दना। देवे । पश्चात् इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खीसमाप्त खामणेणं अब्भुडिओमि अभितर पक्खि खामेउं ? इच्छं, खामेमि पक्खिों एग पक्खस्स पणरसहं दिवसाणं पणरसहं राईणं जं किंचि अपत्ति कहे। बाद । खमासमण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खी खामणा खामं? कह खमासमण दे दाहिना हाथ चरवले या आसन पर रख सिर झुका एक णमोक्कार पढ़े । इस रीति से चार दफा करे । पीछे देवसिक प्रतिक्रमण में वंदित्तु के बाद की जो विधि शेष है । वही कुल विधि समझ लेना । 'ज्ञानादि गुणयुतानां०३, 'यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्यः' थुई कहें। स्तवन के स्थान में अजितशान्ति कहे । सज्झाय के स्थान में उवसग्गहरं० और संसारदावानल की चारों थुइयां कहे । और बड़ी शान्ति पढ़े। चउमासी प्रतिक्रमण की विधि चउमासी प्रतिक्रमण में कुल विधि पक्खी प्रतिक्रमण की तरह ही समझनी चाहिये । जहां जहां 'पक्खी शब्द आया हो, वहां वहां 'चउमासी' शब्द कहना। चउमासी प्रतिक्रमण में चउण्हं मासाणं, अठण्हं पक्खाणं, विसोत्तरसय राई दियाणं जं किंचि० कहना । और तप की जगह छठेणं कहे और दो उपवास, चार आयंबिल, छ णिन्वि, आठ एकासणे, सोलह बिआसणे, चार हजार सज्झाय कहे । और बीस लोगस्स या ८० IntesticlestiatiotislikskretitellicleidiMEANEle-datioth समग्रणयन्त्रन नयन-प्रश्रमप्र प्रधानमनत्रयपत्र-जनप्रथाश्रमणप्रय o lidkistiatianeliateAREAMINiplinaatkastastrataktents, त्न त्रय प्रजननयननननन्द्रालगन्प्रत्ययनमा Shakileakistatistakindialilianslakatialadehatertaishalincaletalalalalese १-पृष्ठ ३१२-पृष्ठ४।३-पृष्ठ २२१४-पृष्ठ १७॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ratestablestatestlinlestasex.ladaslelesbhabisaslestostatistiatolastisthleoaslantatadarlalasantalistmistantaarksheetdootohitnishtastichatatute १२१ विधि-विभाग णमोक्कार का काउसग्ग करे। शेष विधि पक्खी प्रतिक्रमण के समान करे। साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि ___साम्वत्सरी प्रतिक्रमण की विधि पक्खी प्रतिक्रमण की तरह ही समझना। जहां जहां पक्खिय' शब्द आया हो वहां वहां 'सम्वत्सरियं' शब्द कहे । इसमें बारसण्हं मासाणं, चौबीसण्हं पक्खाणं तिण्णि सय सहि राइंदियाणं जं किंचि०' कहना और तपकी जगह 'अट्ठमण' कहे और तीन उपवास, छह आयम्बिल, नौ णिवि, बारह एकासणे, चौबीस बिआसणे और छह हजार सज्झाय कहे । चालीस लोगस्स या १६०११ णमोक्कार का काउसग्ग करना । शेष विधि पक्खी के समान करना। जिन दर्शन विधि सर्व प्रथम स्वच्छ (पवित्र) वस्त्र धारण कर मन्दिरजीमें जावे । मन्दिरजीकी सीढ़ियों पर पैर रखते ही 'णिस्सीहि' शब्द का उच्चारण करे (इससे सावध व्यापार का निषेध होता है ) मन्दिरजी में प्रवेश कर । मन्दिर सम्बन्धी ८४ आशातनाओं को टालते हुए मन्दिरजी की देखभाल कर तीन प्रदक्षिणा दे भगवान् के सम्मुख उपस्थित हो दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर रख ‘णमोजिणाणं' कहे तथा पुनः ‘णिस्सीहि' कहे जिससे मन्दिर सम्बन्धी आरम्भ का भी निषेध हो जाय । तत्पश्चात् धूप के मन्त्र सहित धूप खेवे और चावल लेकर तीन ढेरी करे, साथिये के ऊपर ( सिद्ध शिला के आकारका) चन्द्रमा बनावे तथा मुझे 'मोक्ष प्राप्त हो ऐसी भावना भावे । फिर नैवेद्य आदि मन्त्र सहित उन ढेरियों पर चढ़ाकर फल चढ़ावे । तथा तीसरी 'णिस्सीहि' कहे यहांसे द्रव्य क्रियाका भी निषेध हो जाता है। स्वस्तिक' साथिये की चारों लकीरों को चारों गतिए समझ कर नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव इन गतियों से छुटकारा पाने के लिये तीन ढेरियां रूप सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, 3 सम्यग् चारित्र रत्नत्रय रूप आत्मीक गुणों को प्राप्त कर अर्धचन्द्राकार जो सिद्ध शिला बनाई जाती है, उसके प्राप्त करने की भावना भावे। इसलिये भगवान् के सम्मुख पहले साथिया फिर तीनों देरी बाद में अर्धचन्द्राकार (सिद्ध शिला ) बना कर उपरोक्त भावना भावे । Rareeablesborolarshotstalestonialandanaslestinentiskalonloaleslcoko Yastaiokinatantialistasiatani kobxdiobolanki adamlokalaakoladisartalallantoolaalaakaastactarticlestiabplatooledistantialanketbalatial-ekakda namkala Taaliatetri-elations 16 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार उत्कृष्ट चैत्यवन्दन करनेवाला प्रथम खमासमण देकर 'इरियावहियं ० १ तरस उत्तरी• अणत्थ० र कह एक लोगस्सका काउसग्ग करे पार कर प्रगट लोगस्स • कहे । १२२ * मध्यम चैत्यवन्दन में उपर्युक्त कायोत्सर्ग करने की आवश्यकता नहीं है । इसमें केवल तीन खमासमण देकर बायां घुटना ऊंचा करके दोनों हाथ हृदय पर घर दशों अंगुलियों को मिला जयउसामि० से चैत्यवन्दन करे। पीछे जं किंचि० णमुत्थुणं जावंति चेइआई० कह एक खमासमण दे तदनन्तर जावंत केविसाहू• उवसग्गहरं • जयवीयराय • अरिहंत चेइयाणं. ४ तथा अणत्थ• कहकर एक णमोक्कार का काउसग्ग करे - पार एक स्तुति बोले । फिर चमर डुलावे तथा एकाग्रचित्त और एकाग्र दृष्टि से प्रभु के अन्तरङ्ग गुणों से अपने गुणों की तुलना कर प्रभु के गुणों का चिन्तवन करे । अन्त में जिनमन्दिर से निकलते समय तीन बार 'आवस्सी' कहे । जिनराज पूजन विधि प्रथम कही हुई रीति से मन्दिर का सर्व काम देख मुखशुद्धि कर स्नान करे । पीछे शुद्ध वस्त्र पहन एक पटके वस्त्र का उत्तरासन करे और उसी उत्तरासन की आठ तह कर नासिका का अग्रभाग ढक मुख को बांधे और निम्नलिखित सात प्रकार की शुद्धि करे । प्रथम शुद्धि - घर, दुकान, व्यापार, धन, स्त्री, पुत्र आदि का चिन्तवन न करना । द्वितीय शुद्धि-सत्य वचन बोलना । तृतीय शुद्धि - शरीर, हाथ या दृष्टि से भी सावद्य ( पाप ) व्यापार न करना और न दूसरे से कह कर कराना । चतुर्थ शुद्धि-- कटा हुआ, फटा हुआ, मलमूत्रादि में धारण किया * अरिहन्त भगवान् की मूर्ति को चार निक्षेपों सहित पूजना तथा मानना शात्रों में लिखा है । निक्षेपे चार होते हैं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । १- पृष्ठ ३२ - पृष्ठ ४ । ३--पृष्ठ ५। ४ --- पृष्ठ ७ । jank Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग १२३ हुआ सैकड़ों पेवन्द वाला तथा किसी भी निन्दनीय (काला, नीला) रङ्गका वस्त्र न पहने । पांचवीं शुद्धि - अशुचि पुद्गल रहित भूमि तथा पूजाकी सामग्री शुद्ध होनी चाहिये । छठी शुद्धि — पूजा की सामग्री में लगाया गया धन भी न्यायो - पार्जित होना चाहिये । सातवीं शुद्धि - (हड्डी) आदि उस जगह में न होनी चाहिये और विधिवत् पूजा करनी चाहिये । सूर्योदय होने के बाद ही पूजन करने का विधान शास्त्रों में है । अंग वसन मन भूमिका, पूजोपगरण हों सार । न्यायद्रव्य विधि शुद्धता, शुद्धि सात प्रकार ॥१॥ इस प्रकार शुद्धिकर मस्तक पर तिलक लगा पूजन की सामग्री को शुद्ध करे | प्रथम जलको जल शुद्धि मन्त्रसे 'ॐ आपो अप्पकाया एकेन्द्रिया जीवा निर्वद्या अर्हतः पूजायां निर्व्यथा सन्तु निष्पापा सन्तु सद्गतयः सन्तु नमोऽस्तु संघट्टन हिंसा पापमर्हदचने' इस मन्त्र को तीन बार पढ़ कर जल शुद्ध करे । केशर शुद्धि मन्त्र - अर्हतेनमः । इस मन्त्र से केशर शुद्ध करके ॐ आँ ह्रीं कों प्रतिमाजी के नव अंग भेटने चाहिये । पुष्पों को 'ॐ वनस्पतयो वनस्पतिकाया एकेन्द्रिया जीवा *जैन शासन में आचार्यों ने छ प्रकार के तिलकों का वर्णन किया है :ऊर्धपुण्डु ं त्रिपुण्डू' च त्रिकोण धनुषा कृति । बर्तुलं चतुरस्त्रं च षड् विधं जैन शासने ||१|| अर्थ :- ऊर्धपुण्ड्र ं (खड़ा तिलक ) त्रिपुण्ड्र (तीन लकीरोंयुक्त अर्ध चन्द्राकार ) त्रिकोण ( तीन कोनेवाला, त्रिभुजाकार ) धनुप ( धनुप की तरह) वर्तुलं (गोल) चतुरस्त्रं (चार वाला) ये छ प्रकार के तिलक जैन शासन में वर्णित है । जिन प्रतिमा की पूजन चार अवस्था मानकर की जाती है— जन्मावस्था, राज्यावस्था, दीक्षावस्था, केवलित्वावस्था | जन्मावस्था में जल, चन्दन, पुष्प आदि से पूजन होती हैं । राज्यावस्था मे अक्षत, नैवेद्य, फल, वस्त्र आदि से पूजन होती है इन पूजाओं को द्रव्य पूजन कहते है । दोक्षावस्था तथा केवलित्वावस्था मे भाव पूजा ही श्रेष्ठ मानी गई है । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन - रत्नसार निर्वद्या अर्हतः पूजायां निर्व्यथा सन्तु निष्पापाः सन्तु सद्गतयः सन्तु नमोऽस्तु संघट्टन हिंसा पाप मर्हदर्च्चने' इस मन्त्र से पुष्प शुद्ध करना । धूप को 'ॐ अग्नयो अभिकाया एकेन्द्रिया जीवा निर्वद्या अर्हतः पूजायां निर्व्यथा सन्तु निष्पापाः सन्तु सद्गतयः सन्तु नमोऽख संघट्टन हिंसा पाप मर्हदच्चने' इस मन्त्र को तीन बार बोले तथा धूप शुद्ध करे । इस प्रकार अष्ट द्रव्य सहित मूल गम्भारे में प्रवेश करके प्रभु पूजन को छोड़ शेष सब कामों का निषेध करे। फिर प्रभु को धूप देवे । फिर प्रभु के ऊपर से बासी पुष्प उतार मोर पिच्छी से प्रमार्जन करे । फिर दूध से स्नान करा, खस कूची से धीरे धीरे केशरादि अवशिष्ट द्रव्य उतारे । फिर जल से स्नान कराते समय ये श्लोक कहे : जल पूजा विमल केवल भासन भास्करं, जगति जन्तु महोदय कारणम् । जिनवरं बहुमान जलौघतः शुचिमन स्नपयामि विशुद्धये ॥१॥ अथवा गंगा* नदी पुनि तीर्थ जल से, कनक मये कलशे भरी, निज शुद्ध भावे विमल भासे, न्हवण जिनवर को करी । भव पाप ताप निवारणी, प्रभु पूजना जग हित करी, करूं विमल आतम कारणे, व्यवहार निश्चय मन घरी ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परम परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमत् जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा || 'हे भगवन आपको स्नान कराने से मेरा कर्मरूपी मैल दूर हों' इस प्रकार चिन्तवन करते हुए पीछे तीन अंगलूहणों से प्रभुजी का देह (शरीर ) * प्रभुको गङ्गा, जमुना, गोदावरी, प्रयाग, नर्मदा, सिन्धु आदि बहती हुई नदियोंके जलसे स्नान कराना चाहिये इसके अलावा कुओं का जल भी शुद्ध माना गया है। केशर, कपूरादि सुगन्धित चीजों से मिश्रित जल फासू हो जाता है प्रतिमाजी पर पूजन के समय प्राशुक ( फासू ) जल ही चढ़ाना उचित है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- -- -'-'-'-'. -'--'-- .'- -'- -'-'--'-'--'--'--'- विधि-विभाग पॉछ । अंगलूहणा करके केशर, अम्बर, कस्तूरी मिश्रित चन्दन की कटोरी ३ हाथ में ले इस प्रकार श्लोक कहे : चन्दन पूजा सकल मोहतमिश्र विनाशनं, परम शीतल भाव युतं जिनं ।। विनय कुंकुम दर्शन चन्दनः, सहज तत्व विकाश कृतर्चये ॥२॥ अथवा सरस चन्दन घसिह केशर, भेली मांही बरास को, नव अंग जिनवर पूजते, भवि पूरते निज आसको ।। भव पाप ताप निवारणी, प्रभु पूजना जग हित करी । करूं विमल आतम कारणे, व्यवहार निश्चय मन धरी ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमत् जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहे स्वाहा ॥ ___"हे भगवन् आप की चन्दन पूजा करने से जैसे चन्दन शीतल होता है, वैसे ही काम क्रोधादि ताप से मेरा चित्त शीतल हो।" इस तरह शुभ भावना भाते हुए नव अंगों को भेटे तथा प्रत्येक अंग पर दोहा बोले। अंगूठे पर---जलभरी संपूट पत्र में, युगलिक नर पूजन्त । ऋषभ चरण अंगूठड़ों, देवे भवजल अन्त ||१|| जान (घुटन) पर-जानु बले काउसग्ग रहे, विचरणां देश विदेश । खड़े खड़े केवल लिया, पूजं जानु नरेश ॥२॥ -.-'-'-:-:-:-.-.-.-- -.-- -'-'- - :- -'-.'.- ----.-'--'- '.-4in-'-..'.'.'.'... ...... . .. . . . .." Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैन-रत्नसार पोंचों पर — लोकान्तिक वचने करी, दीया वरसी दान । करकंडे प्रभु पूजना, पूजूं भवि बहुमान ॥३॥ कंधों पर — मान गया दोनुं अंश से, देखी वीर्य अनन्त । भुजाबले भवजल तरया, पूजूं खंध महन्त ॥४॥ मस्तक पर - सिद्ध शिला गुण ऊजली, लोकान्ते भगवन्त । वसिया तेणे कारण भवी, शिर शिखा पूजन्त ॥५॥ ललाट पर — तीर्थङ्कर पद पुण्य से, त्रिभुवन जन सेवन्त । त्रिभुवन तिलक समी प्रभु, भाल तिलक जयवन्त ॥६॥ कण्ठ पर -- सोल प्रहर प्रभु देशना, कण्ठे विवर वर तूल । मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तिण गले तिलक अमूल ॥७!! हृदय पर —— हृदय कमल उपशम बले, जलाया राग ने रोष । हीन दहे वन खंडने, हृदय तिलक सन्तोष ॥८॥ नाभि पर - रत्नमयी गुण ऊजली, सकल सुगुण विश्राम | नाभि कमल नी पूजनां, करतां अविचल धाम ||९|| तदनन्तर पुष्प हाथ में लेकर ये श्लोक कहे • " पुष्प पूजा विकच निर्मल शुद्ध मनोरमैः, विशद चेतन भाव समुद्भवैः । सुपरिणाम प्रसून घनैर्नवैः, परम तत्व मयं हि यजाम्यहम् ॥३॥ सुरभि अखंडित कुसुम* मोगरा, आदि से प्रभु कीजिये । पूजा करी शुभ योग तिग, गति पञ्चमी फल लीजिये ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमत् जिनेन्द्राय पुष्पं यजा महे स्वाहा । और “हे प्रभु मुझको पुष्प पूजा करने से ज्ञानाचार, दर्शनाचार, * पुष्प कटे न हों, छिदे न हों, सूघे हुए न हों, सड़े हुए न हों, गले न हों, सूए सुइयों से पिरो कर गजरे व हार बनाये हुए न हों, हाथ से तोड़े हुए न हों, कमर और सूड़ी के नीचे लटकते हुए भी न हों, और शुद्ध सुगन्धित वाला ही पुष्प प्रतिमाजी पर चढ़ाना उचित है । খeণ%গ9 প999999999999 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ మనం నడుం వంపదనుడుచుకువచనందుకు చదవనులు विधि-विभाग १२७ wimwwwimanwww నడవడ a tatatatatamatala चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार आदि पञ्चाचार की प्राप्ति हो ।” ऐसा चिन्तवन करते हुए पुष्प चढ़ावे । तदनन्तर धूप इस श्लोक से खेवे । धूप पूजा सकल कर्म महेन्धन दाहनं, विमल संवर भावसुधूपनम् । अशुभ पुद्गल संगविवर्जनं, जिनपतेः पुरतोऽस्तु सुहर्षतः ॥४॥ अथवा दशांग धूप धुखाय के, भवि धूप पूजा से लिये। फल ऊर्द्धगति सम धूप दे, निज पाप भव भव के लिये ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने धूपं यजामहे स्वाहा । कह जिस तरह धूप का धुंआ उड़ता है उसी तरह भगवन् ! मेरे पाप कर्म भी दूर हो जावे ।" ऐसी भावना भाते हुए धूप करे। पश्चात दीपक प्रज्वलित करके निम्न श्लोक पढ़े। दीप पूजा भविक निर्मल बोध विकाशकं, जिनगृहे शुभ दीपक दीपनम् । सुगुण राग विशुद्धि समन्वितं, दधतु भाव विकाश कृते जनाः ॥५॥ अथवा जिन दीप के परकास के, तम चौर नासे जानिये । तिम भाव दीपक णाण से, अज्ञान नास बखानिये ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परम परमात्मने० दीपं यजामहे स्वाहा कहे “जिस तरह ये दीपक प्रकाशमान है उसी तरह मेरा ज्ञान रूपी दीपक भी प्रकाशमान हो।" ऐसी भावना भाते हुए प्रभु के दाहिने तरफ दीपक रखे। फिर अक्षत* हाथ में लेकर ये श्लोक पढ़े-- अक्षत पूजा सकल मङ्गल केलि निकेतनं, परम मङ्गल भाव मयं जिनं ।। श्रयति भव्यजना इति दर्शयन, दधतु नाथ पुरोऽक्षत स्वस्तिकम् ॥६॥ कृष्णागर मृगमदतगर, अम्बर तुरग लोबान । मेल सुगन्ध घन सारघन, करो जिनने धूपदान ।। * अक्षत (चावल) टूटे हुए नहीं होने चाहिये । ముందడుదనందనవనంద న ---- Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అండదండగtakalatat a tatathal a antu १२५ wwwmarwinnnnnnnnrnmmmmmmmmmrawraatururammam अथवा जैन-रनसार अथवा शुभ द्रव्य अक्षत पूजना, स्वस्तिक सार बनाइये । गति चार चूरण भावना, भवि भाव से मन भाइये ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने० अक्षतं यजामहे स्वाहा कहे "हे भगवन् । मुझे अक्षत पूजा से शुक्ल ध्यान की प्राप्ति हो ।” ऐसा चिन्तवन करते हुए प्रभु के आगे चढ़ावे । तदनन्तर नैवेद्य थाल में रख ये मन्त्र पढ़े-- नैवेद्य पूजा सकल पुद्गल संग विवर्जनं, सहज चेतन भाव विलासकम् । सरस भोजन नव्य निवेदनात, परम निवृत्ति भावमहं स्पृहे ॥७॥ अथवा सरस मोदक आदि से भरी, थाली जिनपुर धारिये। निवेद गुणधारी मने, निज भावना ज निवारिये ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने० नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । कहते हुए "हे भगवन् मुझे मुक्ति पद हासिल हो।” ऐसी भावना भाते हुए नैवेद्य चढ़ावे।। तत्पश्चात् सुपारी, बादाम फलादि अथवा वर्तमान ऋतु के शुद्ध फल हाथ में ले ये मन्त्र पढ़े फल पूजा* कटुक कर्म विषाक विनाशनं, सरस पक्व फल बजढ़ौकनम् । विहित मोक्ष फलस्य प्रभो पुरः, कुरुत सिद्ध फलाय महाजनाः ॥८॥ अथवा फल पूर्ण लेने के लिये, फल पूजना जिन कीजिये। पण इन्द्र दाती कर्म वामी, शाश्वता पद लीजिये ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परम परमात्मने० फलं यजामहे स्वाहा । ऐसा कहते हुए। * फल सड़ा, गला, चलित रसवाला नहीं चढ़ाना चाहिये। सुस्वादु सुन्दर फल ही चढ़ाना चाहिये। 2 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sktotket.threlatiotar-Joshdscarnaloadhintaina-ress rooplesonlistadirlbrielatinodishaasakolasiaki.lioloss talatalashtakasatistatehetatusher Eentacthermonsooktat e 5065 daalagh aliK विधि-विभाग १२६ "हे भगवन् मेरे आठों कर्मों का नाश हो और मुझे मुक्ति पद हासिल । हो।” ऐसा चिन्तवन करते हुए फल चढ़ावे तथा सात बत्ती की आरती करे। ऐसा कह पूर्ववत् चैत्यवन्दन करे और तीन बार आवस्सहि कह कर घर जावे। श्री जिनमन्दिर सम्बन्धी चौरासी आशातनाएं १ श्री जिनमन्दिर में खांसना ( कफ़ गिराना )। २ जुआ खेलना (गंजीफा, चौपड़ ताश, शतरंज खेलना)। ३ कलह क्लेश ( झगड़ा) - करना । ४ धनुष आदि की कला सीखना । ५ कुल्ला करना । ६ दांत का में मैल गिराना । ७ पोन खाना । ८ पान का पीक थूकना । ९ गाली देना। है १० टट्टी पेशाब करना । ११ हाथ पैर धोना । १२ फोड़े का ( खुरण्ड) चमड़ा उतारना । १३ कंधे से बालों को बाहना। १४ नख कतरना । १५ रुधिर (खून ) गिराना । १६ भोजन करना ( मिठाई, फल वगैरह खाना )। १७ औषधि ( दवाई ) खाकर पित्त गिराना। १८ वमन या उल्टी करना। १९ दांत गिराना । २० हाथ पैरों में तेल की मालिश करवाना । २१ घोड़ा हाथी आदि चार पांव वाले जानवरों को बांधना । २२ आंख का मैल (गीड ) गिराना । २३ नख का मैल निकालना । २४ गाल का मैल गिराना । २५ नाक का मैल निकालना । २६ माथे का मैल गिराना । २७ शरीर का मैल गिराना । २८ कान का मैल निकालना तथा निकलवाना। २९ भूत, प्रेत, काचाकलुआ, वशीकरण मन्त्र आदि साधन करना । ३० विवाह, सगाई आदि करने के लिये पञ्चायत इकट्ठी करना । ३१ व्यापार, लेन, देन का हिसाब करना । ३२ मन्दिर की : दिवाल में गोवर के कण्डे थापना या गोबर का ढेर करना। ३३ राज का काम वांट देना । ३४ भाई प्रमुखों को धन बांटना । ३५ घर का खजाना। गजा, चौर आदि के भय से मन्दिरजीमें रखना । ३६ पैर पर पैर चढ़ाकर • फोड़े या फुन्सी के सूखे हुए चमड़े को खुरण्ड कहते है। alagaukestrabalicotiladkiynkaniilarilaletiatroiskoolutalkinkalalalat-letstatetri-Mantrietalatka riwar 17 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yaadebatestetrikaaaaaaakalatakalakaaleenakedinlewr.asketrekeleleolndiel-steelskoolankekooloda tetap beatsleelamaskare १३० जैन-रत्नसार Mear-मत्रप्र.प्राण-प्र ण यप्रणयप्रणमननयन्त्र नयनननननन तथा आसन बिछा कर बैठना । ३७ चक्की से दाल दलना । ३८ पापड़ आदि सुखाना । ३९ बड़े आदि बनाना तथा हरे साग वगैरह सुखाना । ४० राजा, भाई, लेनदार के भय से दौड़कर मूल गम्भारे में छिप जाना । ४१ पुत्र स्त्री आदि परिवार में से किसी के मर जाने पर शोक करना । ४२ स्त्री कथा, देश कथा, राज्य कथा, भोजन कथा ये चार विकथा करना । ४३ गन्ने (पौण्डे ) को कतरना तथा शस्त्र बनाना या बनवाना । ४४ सर्दी को दूर करने के लिये अग्नि तापना । ४५ धान आदि पकाना । ४६ रुपये रखना । ४७ जेवर रखना। ४८ विधि से णिस्सीहि नहीं कहना । ४९ छतरी, छड़ी(लकड़ी,बेत) तलवार आदि अस्त्र शस्त्र अन्दर ले जाना । ५० जूता, मोजे (जुर्राव) पहने हुए अन्दर जाना । ५१ राजा पर डुलानेके चमर अन्दर ले जाना । ५२ मन को एकाग्र चित्त में नहीं रखना। ५३ हाथ-पैर दबाना तथा दबवाना । ५४ पुष्पोंकी मालाको पहने हुए अन्दर जाना । ५५ हार मुद्रा, कुण्डल पहने हुए अन्दर जाना । ५६ भगवान के सम्मुख जाने पर दर्शन वन्दन नहीं करना । ५७ एक साड़ी का उत्तरासन न करना । ५८ मुकुट पहने हुए भगवान् के सम्मुख जाना । ५९ विवाह शादी में तुर्राआदि पहने हुए अन्दर जाना । ६० फूलों के सेहरा शिर पर रखना । ६१ नारियल आदि फलों का छिलका गिराना । ६२ गेंद खेलना । ६३ पिता या सम्बन्धियों से नमस्कार करना । ६४ हंसी दिल्लगी करना । ६५ खोटे वचन कहना । ६६ धन पदार्थों को लेने के लिये हठ करना। ६७ युद्ध, (लड़ाई) करना । ६८ गीले बालों को सुखाना। ६९ पद्मासनसे बैठना। ७० खड़ाऊ आदि पहनना । ७१ पैर पसारना । ७२ सुख के वास्ते सिगरेट, बीड़ी, * तम्बाकू खाना तथा पीना। ६३ शरीर को धोकर गन्दा उठाना। ७४ पैर। की धूली झाड़ना । ७५ मैथुन काम क्रीड़ा करना। ७६ मस्तक या कपड़ोंमें से जूये निकालकर जमीनपर गिराना । ७७ भोजन जीमना। ७८ स्त्री पुरुषों गादीके मान के लिये श्रीपूज्य जी महाराज आसन बिछाते है उसपर वे स्वयं नहीं घेठ सकते बल्कि ओघा रख सकते हैं। गुजरात देश के रहने वाले साधु लोग मन्दिरों में आसन : विछा कर बैठते हैं। यह प्रथा शास्त्र से विपरीत तथा उपरोक्त आशातना की सूचक है। धागा Mmmart -11Tmkeepa Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग १३१ के गुप्त चिन्हों को खुला रखकर बैठना । ७९ वैद्यक करना । ८० बिक्री बट्टे तथा व्याज का काम करना । ८१ विस्तर ( शय्या ) बिछाकर सोना । ८२ पीने के वास्ते घड़े में पानी रखना । ८३ मन्दिर पर पतनाला गिराना | ८४ साबुन आदि से स्नान करना । ऊपर लिखी हुई चौरासी आशातनाओं में से कोई भी आशातना जिनमन्दिरमें* अथवा जिनमन्दिर के स्थान में नहीं करनी चाहिये । गुरु महाराज की तेतीस आशातनाएं १ गुरु महाराज के आगे बैठना । गुरु महाराज के आगे खड़े रहना । ३ गुरु महाराज के आगे चलना । ४ गुरु महाराज के नजदीक में बैठना । ५ गुरुओं के पीछे खड़ा रहना । ६ गुरुओं के आगे होकर चलना । गुरुओं के दोनों ओर पास में बैठना । ७ ८ गुरुओं के बराबर चलना । ९ गुरुओं की नकल करते हुए चलना । agnent aolo ko kes 'मन्दिरों में मूल गम्भारा समवसरण का रूपक माना गया है । उसमें तीर्थङ्कर भगवान की प्रतिमा को विराजमान कर पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपातीत अवस्थाओं को मान कर ही पूजन की जाती है । पिण्डस्थ अवस्था के तीन भेद होते हैं। जन्मावस्था, राज्यावस्था, श्रमणावस्था। जन्मावस्था में अंग पूजा की जाती है। अंग पूजा में पश्चामृत, नल, अंगलूहण, केशर, पुष्प । राज्यावस्था में अग्रपूजा की जाती है। अग्रपूजा में अक्षत, नैवैद्य, फल, अर्घ, वस्त्र, आरती । श्रवणावस्था में केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद पदस्थ अवस्था होती है। इसमें भाव पूजा होती हैं | भावपूजा में जिन भगवान् के गुणानुवाद ही करने चाहियें। निरञ्जन, निराकार, ज्योति स्वरूप. सिद्धावस्था को रूपातीत अवस्था कहते हैं । यह पूजन विधान श्राद्धनिकृत्य और देववन्दन भाष्य में है। महाकल्प में ऐसी आज्ञा है, शक्ति होते हुए साधु यदि जिन मन्दिर मे दर्शनार्थ नहीं जावे तो तेल ( तीन उपवास ) का दण्ड लगता है | श्रावक यदि शक्ति होते हुए जिन मन्दिर में दर्शनार्थ नहीं जावे तो वेले (दो उपवास) का दण्ड लगता है। ६ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwww Edutotoot-nuoteliulsilamlaintuk-Install-timlasticlotml-ki-Etalathifilm.linkill-kalalkiller-tartuptl . १३२ ......... जैन-रत्नसार १० गुरुओंके साथ थंडिल (शौच स्थानमें) जाना और उनसे आगे आना। ११ गुरुजी के साथ बाहर से आये हुए शिष्य गुरुजी से पहले मार्ग है के दोषोंकी आलोचना करे। १२ रात्रि में गुरुजी पूछे और बुलावें कि कौन सोया और कौन जागता है और आप जागते हो तदपि "मैं जागता हूँ" ऐसा न कहना। १३ उपाश्रय में श्रावक आवें, उनसे गुरुजी या अपनेसे बड़े पद वालों के बुलाने से पूर्व बातचीत प्रारम्भ करे। ( इसमें गुरुजी और उच्चपद धारियों की आशातना होती है)। १४ आहार लाकर अपने गुरुजी को आहार बिना दिखलाये ही दूसरे साधुओं को दिखलाना । १५ आहारादिका निमन्त्रण गुरुजीको न करके दूसरोंको पहले करना। १६ गुरुजीके बिना पूछे दुसरे साधुओंको आहारका निमन्त्रण देना । १७ गुरुओं को बिना पूछे दूसरों को आहार देना । १८ सरस और स्वादिष्ट आहार स्वयं खाना, गुरुओं को न देना। १९ गुरुओं के वचन सुनकर उत्तर न देना । २० गुरुओं के सम्मुख कोई माननीय पुरुष बातचीत करते हुए बुलावें तो भी कठोर वचनसे उत्तर देना या उनकी अवज्ञा करना । २१ गुरुओं ने अपने पास बुलाया हो तो भी आसन पर बैठे ही बैठे उत्तर देना, पास में नहीं आना। २२ गुरुओं ने पूछा हो तो भी बैठे ही बैठे, क्या आज्ञा है, इस / प्रकार बोलना। २३ गुरु अथवा बड़ोंके साथ असभ्यतापूर्ण वचनों से पुकारना । २४ गुरु बोलें उसी प्रकार अविनय से उत्तर देना । २५ जब गुरु किसी साधु साध्वी अथवा रोगी की सार सम्भाल के लिये आज्ञा देवं तव गुरुजी को कहे कि आप ही सार सम्भाल कीजिये. ऐसे कटु वचन बोल कर अवज्ञा करना । प्रवचन ARRAYATIMATETami ukatar.fimlaitinkalutatist-tallantestantialitstruliarathitals -tst-stat-i t - t t - 1 -RAJA Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwww Aurwwwwwwwwwwwwwwwwww salsasherishali-lashlilarkikalinsarsakseelonlodsliliakalamlilalonlodkath विधि-विभाग २६ जब गुरु धर्म कथा कहें तब शून्य चित्त से सुने, कदाचित् । ध्यानसे सुनकर उनका मान न करे ( अहा ! गुरुजी आप शास्त्रके परमार्थ क्या बतलाते हैं धन्य हैं ) ऐसा कहना चाहिये किन्तु नहीं कहना।। २७ गुरु जब धर्म उपदेश देवें तब बोले कि इसका अर्थ आप बराबर नहीं करते हैं अथवा आपको इसका अर्थ करना नहीं आता है । २८ गुरु जो कथा फरमाते हों उस कथा को बीच में ही भंग करके आप दूसरोंको अथवा सुनने वालों को कथा कहना और समझाना । २९ गुरु जो कथा कहते हों उस कथा से गुरुओं तथा सब सज्जनों को आनन्द प्राप्त हो रहा हो और चित्त लीन हो गया हो, ऐसा जानते हुए भी शिष्य बोले कि महाराजजी ! गोचरी का समय हो गया है इसलिये कथा छोड़िये, नहीं तो गोचरी मिलनी दुर्लभ हो जायगी। ३० गुरुजीनेजो अर्थ बतलाया हो वही अर्थ व्याख्यान बन्द हो जानेके बाद शिष्यवर्गोंके सम्मुख अपनी बुद्धिकी निपुणतादिखानेकेलिये व्याख्यानदेना। ३१ गुरुओं के संथारे का या गुरुओं के पांवों से पांव का स्पर्श हो जाय तो शीघ्र क्षमा न मांगना । ३२ गुरुओं के आसन पर खड़ा रहना या सोए रहना । ३३ गुरुओं से ऊंचे स्थान या बराबर आसन पर बैठना * गुरु वन्दन विधि बराबर गृहस्थ के योग्य शुद्ध कपड़े पहन गुरु के पास जावे । दर्शन होते ही "मत्थएण वंदामि कहना?" बाद में गुरु से कम से कम साढ़े तीन । हाथ दूर रहे । प्रथम तीन खमासमण देवे और बाद में खड़े खड़े इच्छकार बोले और अन्मुहिओमि 'इच्छं खामेमि देवसियंर तक का पाठ बोले । तदनन्तर नीचे बैठ मस्तक नमा कर जीमना ( दहिना ) हाथ भूमि का पर स्थापन कर बायें हाथ की मुट्ठी बांध मुख के पास रख शेष अभुडिओमि सूत्र पूर्ण करे । पीछे यथाशक्ति पच्चक्खाण करे । १-पृष्ठ २।२-अगर प्रातःकाल हो तो राइझ' कहे। * उपर्युक्त आशातनाओं में से कोई भी आशातना नहीं करनी चाहिये । a lalshutorialishakimlassistantialayalakshokdpateletaliatahata kathaharaa s a ktishtotalakarlotstorestateotatnamah Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అనుచరుడు ఉంటుందనుకుంటుందడుగడుగునపడatchattatatatattacks witutwwwwwe womawwamsturmwareaamream जैन-रत्नसार सर्व तपस्या ग्रहण करने की विधि प्रथम शुभ दिन शुभ घड़ी शुभ मुहूर्तमें अच्छे वस्त्र पहन कर गुरुके पास जावे । गुरुजी को वन्दन करके ज्ञान पूजा करे । तदनन्तर गुरु के मुख से (ओली तप ) अथवा जिस तप का भी निश्चय किया हो ग्रहण करे तथा इरियावहियं० पडिक्कमे । फिर एक लोगस्स को काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स. कहे । फिर नीचे बैठ के तप आराधन करनेके निमित्त मुंहपत्ति का पडिलेहण करे । पीछे दो वन्दना देकर स्थापनाचार्यजी को खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् (ओली तप) या जो तप निश्चित किया हो सो बोले "गहणत्यं चेइयं वदावेह” ? इच्छं कह चैत्यवन्दन करे । णमुत्थुणं. पूर्वक अरिहंत चेइयाणं. सम्पूर्ण पढ़ अणत्थ. कह एक । एक णमोकार का चार दफा ध्यान करे तथा थुइयां कहे। फिर नीचे बैठ के प्रगट णमुत्थुणं. कहे । पीछे खड़े हो “शान्तिनाथ स्वामी आराधनार्थ करेमि काउसग्गं.” अणत्थ. कह एक लोगस्स का काउसग्ग पार के निम्न थुई कहे। श्री मते शान्तिनाथाय । नमश्शान्ति विधायिने । त्रैलोक्यस्यामराधीश । मुकुटाभ्यचितांघ्रये ॥१॥ ___पुनः “शान्ति देवता आराधनार्थं करेमि काउसग्गं.” अणत्थ० कह एक णमोकार का काउसग्ग पार “शान्तिः शान्ति करः श्रीमान्, शान्ति दिशतु मे गुरुः । शान्तिरेव सदा तेषां, येषां शान्ति हे गृहे ॥२॥” की थुई बोले ! पश्चात् "श्रुतदेवता आराधनाथ करेमि काउसग्गं अणत्थ.” कह एक णमोकार का काउसग्ग पार थुई कहे । “भुवन देवता आराधनार्थं करेमि काउसगं” अणत्थ. कह एक णमोकार का काउसग्ग पार थुई कहे । "क्षेत्रदेवता आराधनाथ करेमि काउसग्ग” अणत्थ. कह एक णमोकार * चावल, नैवेद्य, फल, नारियल और कम से कम १ रु० ज्ञानपूजा पर अवश्य चढ़ावे । चौकी या पट्टे पर साथिया तीन ढेरी और सिद्धशिलाके आकार का अर्धचन्द्र बना कर मिठाई 4 और फल चढ़ाके वीच में नारियल और रुपया चढ़ा दे, फिर मुखवत्रिका ( मुहपत्ति) के हाथ में ले शुद्ध भावों से जो तपस्या करनी हो इसकी गुरु मुख से विधि करे। प्रमाणपत्रालययणप्रणयनगणनयन्त्रणमा Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Anawrmniwwwin rrarianawarranwrw remawww श्री शक Swatantantrtant tutanka-tra-Tatastmtrintertaimer-tirlinesale-trehakakatnnelketerplicataliriretekaktikaraeairkakokaranalileoletestakaurtorateiloeakiatar.kanlidakiokinaamkakshat-teantaraaseehirelsnelialistaskotalbataonline विधि-विभाग १३५ का काउसग्ग पार थुई कहे । “शासन देवता आराधनार्थ करेमि काउसग्गं" अणस्थ कह एक णमोक्कार का काउसग्ग पार । “या पाति शासनं जैन, सद्यः प्रत्यूह नाशिनी । साभिप्रेत समृद्ध्यर्थं, भूयाच्छासन देवता ॥३॥ थुई कहे । अन्त में “समस्त वेयावृत्ति देव आराधनार्थ करेमि काउसंग्गं.” अणत्थ० कह एक णमोकार का काउसग्ग पार-थुई पढ़े। श्री शक्र प्रमुखा यक्षाः, जिन शासन संस्थिताः। देवान् देव्यस्तदन्येऽपि, संघं रक्षत्वपायतः ॥४॥ ये थुई कहे । तत्पश्चात् नीचे बैठ णमुत्थुणं. पूर्वक जयवीयराय. तक सम्पूर्ण चैत्यवन्दन करे । पीछे खमासमण दे "भगवन् ! (अमुक तप) ग्रहणाथ करेमि काउसग्गं" कह एक लोगस्स का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स० कहे । पीछे खमासमण दे तीन णमोकार गिने । पुनः एक खमासमण दे "इच्छकार भगवन् ! अमुक तप ग्रहण दंडक उच्चरावो जी" कहे । गुरु के 'उच्चरावेमो' कहने पर जो तप ग्रहण किया हो उसी तप का नाम ले गुरु मुखसे तीन बार निम्नलिखित पाठ सुने "अहण्हं भंते ! तुम्हाणं समीवे । ( अमुक तवं ) उव संपज्जत्ताणं विहरामि ( तंजहा )। दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओणं ( अमुक तवं ) खित्तओणं इत्थ वा अणत्थ वा कालओणं जाव परिमाणं, भावओणंजाव गहेणं ण गहिज्जामिछलेणं ण छलिज्जामि, जाव सण्णिवाएणं ण भविज्जामि, जाव अण्णेण वा केणइ रोगायंकणवा परिणाम वसेण । एसो मे परिणामो ण परिवज्जइ । ताव मे एसतवो रायाभियोगेणं, गणाभियोगेणं, बलाभियोगेणं, देवाभियोगेणं,गुरु णिग्गहेणं, वित्तिकंतारेणं, अणत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरे ॥ पीछे गुरु के “हत्येणं सुत्थेणं अत्येणं तदुभएणं सम्मं धारणीयं चिरंपालणीयं गुरु गुणेहिं बुढाहिं णित्थारगापारगा होत्था” कहने पर खमासमण देकर गुरुमुखसे पञ्चाक्खाण करे यदिगुरु न हों तो स्वयं मुखसे उच्चरे। BRahalibaboductioilaoladwitololystalesmati ilnalist-dailsilaletaslilasludeitudenbileolindodesleblosbhedadisiakslnblicleslalishaladislikestinkalnalaikasaalaaliakistratiseatekosloardaslaielplustracelishalGadislndiansantoshsielationsvalienaththatarManun Modea Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ getsARKathshotththiteki Kksablededadaesakolassteadioskoseddkaktikdaddedossadias जैन-रत्नसार admistantrastutimes.indiationakailaisyaktikartatist मनप्रस्थानत्रयप्रनयन्त्रमूलप्रवन्प्रनयन्त्रप्रयाग्रप्रययप्रययप्रयत्न प्रयाप्रश्रमप्र प्रजनन प्रधानमन्त्रप्रन्प्रनप्रजनननननननननन पखवासा तप की विधि प्रथम शुभ दिन शुभ घड़ी गुरु के पास जाकर शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक निरन्तर १५ उपवास करे । यदि शक्ति न हो तो पहले शुक्ल पक्ष की एकम और शुक्ल पक्ष की दूज का उपवास करे । इस तरह अनुक्रम से १५ सुदि पक्ष में पखवासा तप की तपस्या पूर्ण करे। श्री मुनि सुव्रत स्वामी का भाव गर्भित स्तवन सुने । और 'श्री मुनि सुत्रत खामी सर्वज्ञाय नमः ।" इस पद की बीस माला फेरे । तदनन्तर तपग्रहण विधि तथा देव वन्दन इत्यादि की विधि पूर्वोक्त रीति अनुसार सम्पूर्ण तपस्या विधि पूर्ण करे क्योंकि विधि पूर्वक करने से ही उत्तम फल होता है। दश पच्चक्खाण की तप विधि - शास्त्रकारों ने जिस तरह अन्यान्य तपस्याओं का फल समझाया है। जो श्रावक 'दस पञ्चक्खाण' का तप करना चाहें वे पहिले दिन णमुक्कारसी दूसरे दिन पोरिसी, तीसरे दिन साढ़ पोरिसी, चौथे दिन पुरिमड्ड, पांचवें दिन एकासणा छठे दिन णिवि, सातवें दिन एगलठाणा, आठवें दिन दत्ति, नवमें दिन आयंबिल, दशवें दिन उपवास। इस तरह दशों पच्चक्खाण दश दिन में करे, साथ ही स्तवन भी सुने । समाप्त होने पर यथाशक्ति उजमणा करे। इस तपस्या करने वाले को उत्तम गति प्राप्त होती है । महान् ऐश्वर्यशाली होता है । अतएव धर्मानुरागी श्रावक और श्राविकाओं के लिये यह तप करना भी अत्यन्त लाभदायक है। बीस स्थानक तप विधि शुभ दिन शुभ मुहूर्त के समय नन्दी स्थापन करके गुरु के पास विधि पूर्वक बीस स्थानक तपकी ओली उच्चरे। एक ओली दो माससे छह मास पर्यन्त पूरी करे।यदि छह मास की अवधि (समय) में एक ओली न पूरी कर सके तो उसको फिर से शुरू करनी होगी, क्योंकि वह गिनती में नहीं आती। एक ओली के बीस पद होते हैं उन बीसों पदों की बीस दिन में एक एक आराधना करनी होती है। अगर न हो सके तो Lalitin-liETERMERE-liniciahall a llantosaneleiotatistirlienation Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166ుండుటకు పరుగులు తడుపుకుంటుందనుందడుగురుడు సంతరించుకున్న विधि-विभाग १३७ obilgo wwwinA o rekaakistatistatestaskotke atfal66Ghoslosda.bitasakasilosolagstosirlialishathikri kholaki-kakakakakakistakickakistakalayakakakakakakakakakistakakactertainessinhakaterenakakakimbatahatiseasokSRK d an बीस दिनमें एक एक पदकी आराधना करते हैं । इस तरह बीस बीस दिन में एक एक पद की आराधना करके बीसों ओली की तपस्या पूरी करते हैं। शास्त्रकारों का कथन है कि तप आराधन के दिन यदि शक्ति हो तो अट्ठम (तेला)व्रत करके तप आराधन (आरम्भ) करे।क्रमशः बीस अट्ठम (तेले ) के व्रत कर लेने पर एक ओली पूरी होती है। इस तरह चार सौ अट्ठम ( तेले ) के व्रत हो जाने पर बीस ओली की आराधना पूरी हो में जाती है । यदि तप करने वाले में अहमव्रत से आराधन करने की शक्ति न हो तो (वेले ) के व्रत से आरम्भ करे अगर इसकी भी शक्ति न हो तो उपवास द्वारा करे। अगर उपवास से भी करने की शक्ति न हो। तो आयंबिल या एकासण द्वारा तप आरम्भ करे। उस समय शक्ति हो तो अष्ट प्रहरी पौषध करे। यदि अष्ट प्रहरी पौषध करने की शक्ति न हो तो दैवसिक पौषध करे। समस्त पदों की आराधना जहां तक बन सके, पौषध पूर्वक करे । यदि सभी पदों के आराधन में पौषध न कर सके तो आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, साधु, चारित्र, गौतम और तीर्थ इन सात पदों के आराधन के समय अवश्य पौषध करे। इतने पर भी पौषध करने की सामर्थ्य न हो तो देसावगासिक व्रत करे। इसके करने की भी शक्ति न हो तो यथाशक्ति जो व्रत हो सके वही करे और सावध व्यापार का त्याग करे। तपस्वी के लिये ये बात विशेष ख़याल रखने की है कि जन्म मरणादिक के सूतक की तपस्यायें ओली की संख्या में नहीं ली जाती। अतः सूतक आदि के समय की तपस्या ओली में न गिने। स्त्रियों के लिये ऋतुकाल की तपस्या भी वर्जनीय है । अतः स्त्रियों को भी इस बात का विशेष खयाल रखना चाहिये । तपस्या करते समय पौषध देसावगा1. सिक व्रत आदि धार्मिक क्रिया कोई भी न कर सके तो तपस्या के दिन दो बार प्रतिक्रमण करे और तीन बार देव वन्दन करे । . समस्त तपस्यायें करते समय ब्रह्मचर्य का सेवन करे। जमीन पर सोवे । talilablastisationalisticeboolon E K f ak bhAREA i al-shalilialilahtatatistianMaslatonistanisolelasdastalikenlosdalistialadaseslistulosbilit NEET-JERakhitokater 18 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ baitaitantentantestantnita tentantenten tentanton Latest Naa १३८ जैन - रत्नसार सावध व्यापार न करे । असत्य न बोले । सारा दिन तपस्याकी माला फेरने में निकाले | पारणा करनेके दिन देव दर्शन कर गुरु को आहार पारणा करे । अन्तमें अगर सभी प्रकारसे किसी तरहकी भी क्रिया न कर सके तो देवपूजन करवाकर जिनमन्दिरमें गाना बजाना नाटक करे और शुभ भावना भावे और तप के दिन तप पढ़ के गुणभेद प्रमाण संख्या से काउसग्ग करे और तपस्या के गुणों को स्मरण कर उतने ही खमासमण देकर वन्दना करे । उस पढ़ का गुण याद करके उदात्त ( ऊंचे ) स्वर में मुख से उच्चारण करना तथा प्रसन्न चित्त रहना । बीस स्थानक माला और काउसग्ग प्रमाण १ ' णमो अरिहंताणं' २० माला और १२ लोगरस का काउसग्ग करना । २ ‘णमो सिद्धाणं' २० माला और ३१ लोगस्स का काउसग्ग करना । ३ ‘णमो पवयणस्स' २० माला और २७ लोगस्स का काउसग्ग करना । ४ ' णमो आयरियाणं' २० माला और ३६ लोगस्स का काउसग्ग करना । ५ ‘णमो थेराण' २० माला और १० लोगस्स का काउसरग करना ६ ' णमो उवज्झायाणं' २० माला और २५ लोगस्स का काउसग्ग करना । ७ ‘णमो लोएसव्वसाहूणं' २० माला और २७ लोगस्स का काउसग्ग करना । ८ ' णमो णाणस्स' २० माला और ५१ लोगस्स का काउसग्ग करना । ९ ' णमो दंसणरस' २० माला और ६७ लोगस्स का काउसग्ग करना । १० ‘णमो विणयसंपण्णाणं' २० माला और ५२ लांगरस का काउसग्ग करना । ११ ' णमो चारित्तस्स' २० माला और ७० लोगस्स का काउसग्ग करना । १२ ‘णमो बंभव्वय धारीणं २० माला १९ लोगस्सका काउस्ग्ग करना । १३ ' णमो किरिआण' २० माला और २५ लोगस्स का काउसग्ग करना । १४ ' णमो तवस्तीर्ण' २० माला और १२ लोगस्स का काउसग्ग करना । १५ ' णमो गोयमस्स' २० माला और १२ लोगस्स का काउसग्ग करना । १६ 'मो जिणाण' २० माला और ३० लोगस्स का काउसग्ग करना । उनले O in I at tell toll In intitul | Handon York leobalatafotobiel of chet se Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Copie 6 Not strelnita Pret of विधि - विभाग १३६ १७ ‘णमो चरणस्स' २० माला और १७ लोगस्स का काउसग्ग करना । १८ ' णमो णाणस्स २० माला और ५२ लोगस्स का काउसग्ग करना । १९ ' णमो सुअणाणरस' २० माला और २० लोगस्स का काउसग्ग करना । २० 'मो तित्थस्स' २० माला और २२ लोगस्स का काउसग्ग करना । विशेष इतना है की २० माला उसी पद की गिन सकते हैं । प्रथम पद १ अशोक वृक्ष प्रातिहार्य शोभिताय श्रीमदर्हते नमः | २ पञ्चवर्ण जानुदन पुप्प प्रकर प्रातिहार्य शोभिताय श्रीमदर्हते नमः । ३ अति मधुर द्रव्य माधुर्यतोऽपि मधुरतम दिव्यध्वनि प्रातिहार्य शोभिताय श्रीमद नमः । ४ हेम रत्नजटित दण्डस्थितात्युज्वल चमर युगल वीजित व्यजन क्रिया युक्त सत्प्रातिहार्य शोभिताय श्रीमदर्हते नमः । ५ सुवर्णदण्ड रत्नजटित सदा सहचारि सिंहासन सत्प्रातिहार्य शोभिताय श्रीमदर्हते नमः । ६ तरुण तरिणी तेजसोऽप्यति भास्कर तेजोयुक्त भामण्डल सत्प्रातिहार्य शोभिताय श्रीमदर्हते नमः । ७ दुन्दुभि प्रभृत्यनेक आकाशस्थित वादित्र वादनरूप सत्प्रातिहार्य शोभिताय श्रीमदर्हते नमः | ८ सुक्ताजाल झुम्बनयुक्त छत्रत्रय सत्प्रातिहार्य शोभिताय श्रीमदर्हते नमः | ९ स्वपरापाय निवारकातिशय धराय श्रीमदर्हते नमः । १० पञ्चत्रिंशद् गुणयुक्त सुरासुर देवेन्द्र नरेन्द्राणां पूज्याय श्रीमदर्हते नमः | ११ सर्व भाषानुगामि सकल संशयोच्छेदक वचनातिशयाय श्रीमदर्हते नमः । १२ लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञानरूप ज्ञानातिशयेश्वराय श्रीमदर्हते नमः । द्वितीय पढ़ १ मतिज्ञानावर्णि कर्म रहिताय नमः २ श्रुतज्ञानावर्णि कर्म रहिताय नमः | ३ अवधिज्ञानावर्णि कर्म रहिताय नमः । ४ मनः पर्यवज्ञानावर्णि कर्म रहिताय नमः | १ केवलज्ञानावर्णि कर्म रहिताय नमः | ६ निद्रादर्श - नावर्णि कर्म रहिताय नमः । ७ निद्रानिद्रादर्शनावर्णि कर्म रहिताय नमः । ८ प्रचला दर्शनावर्णि कर्म रहिताय नमः | ९ प्रचला प्रचलदर्शनावर्णि कर्म ५५ double theetstakartarkantakt_takkalaka falkents is intrial Int taf nastasi Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैन-रत्नसार रहिताय नमः | १० स्त्यानद्धिं दर्शनावर्णि कर्म रहिताय नमः | ११ चक्षुदर्शनावर्णि कर्म रहिताय नमः १२ अचक्षुर्दर्शनावरण कर्म रहिताय नमः । १३ अवधि दर्शनावर्णि कर्म रहिताय नमः १४ केवलदर्शनावर्णि कर्म रहिताय नमः । १५ शातावेदनी कर्म रहिताय नमः । १६ अशातावेदनी कर्म रहिताय नमः । १७ दर्शन मोहिनी कर्म रहिताय नमः | १८ चारित्र - मोहिनी कर्म रहिताय नमः | १९ नरकायुः कर्म रहिताय नमः | २० तिर्यगायुः कर्म रहिताय नमः । २१ मनुष्यायुः कर्म रहिताय नमः । २२ देवायुः कर्म रहिताय नमः । २३ शुभनाम कर्म रहिताय नमः | २४ अशुभनाम कर्म रहिताय नमः २५ उच्चैर्गोत्र कर्म रहिताय नमः । २६ नीचे - गोत्र कर्म रहिताय नमः | २७ दानान्तराय कर्म रहिताय नमः | २८ लाभान्तराय कर्म रहिताय नमः | २९ भोगान्तराय कर्म रहिताय नमः | ३० उपभोगान्तराय कर्म रहिताय नमः | ३१ वीर्यान्तराय कर्म रहिताय नमः । तृतीय पद १ सर्वतः प्राणातिपात विरताय नमः । २ सर्वतो मृषावाद विरताय नमः | ३ सर्वतोऽदत्तादान विरताय नमः । ४ सर्वतो मैथुन विरताय नमः । ५ सर्वतः परिग्रह विरताय नमः । ६ देशतः प्राणातिपात विरताय नमः । ७ देशतो मृषावाद विरताय नमः । ८ देशतोऽदत्तादान विरताय नमः | ९ देशतो मैथुन विरताय नमः | १० देशतः परिग्रह विरताय नमः | ११ दिशि परिमाणत्रत युक्ताय नमः १२ भोगोपभोग परिमाणत्रत युक्ताय नमः । १३ अनर्थदण्ड विरताय नमः | १४ सामायिकवत युक्ताय नमः | १५ देशावगासिकवत युक्ताय नमः । १६ पोसहोपवासीत्रत युक्ताय नमः । १७ अतिथिसंविभागवत युक्ताय नमः | १८ विधि सूत्रागमाय नमः । १९ वर्णक सूत्रागमाय नमः । २० भय सूत्रागमाय नमः । २१ उत्सर्ग सूत्रागमाय नमः | २२ अपवाद सूत्रागमाय नमः | २३ उभय सूत्रागमाय नमः | २४ उद्यम सूत्रागमाय नमः | २५ सर्वनय समूहात्मक श्री प्रवचनाय नमः | २६ सप्तभङ्गी रचनात्मकाय नमः | २७ द्वादशाङ्ग गुणीपीठिकाय नमः । বিশ্বস্বতন্ত্র ন Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - विभाग चतुर्थ पढ़ १ प्रतिरूप गुणधराय श्री आचार्याय नमः | २ तेजस्वी गुणधराय श्री आचार्याय नमः | ३ युग प्रधानागमाय श्री आचार्याय नमः । ४ मधुर वाक्य गुणधराय श्री आचार्याय नमः । ५ गम्भीर गुणधराय श्री आचार्याय नमः । ६ सुबुद्धि गुणधराय श्री आचार्याय नमः । ७ उपदेश तत्पराय श्री आचार्याय नमः | ८ अपरिश्रावि गुणधराय श्री आचार्याय नमः | ९ चन्द्रवत्सौम्यत्वगुणधराय श्री आचार्याय नमः | १० विविधाभिग्रहमतिधराय श्री आचार्याय नमः | ११ अविकथक गुणधराय श्री आचार्चाय नमः | १२ अचपल गुणधराय श्री आचार्याय नमः | १३ संयम शीलगुणधराय श्री आचार्याय नमः | १४ प्रशान्तहृदयाय श्रीमदाचार्याय नमः | १५ क्षमागुणाय श्रीमदाचार्याय नमः | २६ मार्दवगुणाय श्रीमदाचार्याय नमः । १७ आर्जवगुणाय श्रीमदाचार्याय नमः | १८ निर्लभतागुणाय श्रीमदाचार्याय नमः । १९ तपोगुणयुक्ताय श्रीमदाचार्याय नमः | २० संयमगुण युक्ताय श्रीमदाचार्याय नमः | २१ सत्यधर्म युक्ताय श्रीमदाचार्याय नमः | २२ शौचगुण युक्ताय श्रीमदाचार्याय नमः | २३ अकिञ्चन गुणयुक्ताय श्रीमदाचार्याय नमः | २४ ब्रह्मचर्य गुणयुक्तायश्रीमदाचार्याय नमः | २५ अनित्य भावना भाविताय श्रीमदाचार्याय नमः | २६ अशरण भावना भाविताय श्रीमदाचार्याय नमः | २७ संसार भावना भाविताय श्रीमदाचार्याय नमः | २८ एकत्व भावना भाविताय श्रीमदाचार्याय नमः । २९ अन्यत्व भावना भाविताय श्रीमदाचार्याय नमः | ३० अशुचि भावना भाविताय श्रीमदाचार्याय नमः | ३१ आश्रव भावना भाविताय श्रीमदाचार्याय नमः | ३२ संवर भावना भाविताय श्रीमदाचार्याय नमः | ३३ निर्जर भावना भाविताय श्रीमदाचार्याय नमः | ३४ लोक खभाव भावना भाविनाय श्रीमदाचार्याय नमः | ३५ बोधिदुर्लभ भावना भाविनाय श्रीमदाचार्याय नमः | ३६ दुर्लभ धर्मसाधक भावना भाविताय श्रीमदाचार्याय नमः | 2.50 C ...... १४१ 7.76575 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57hh?q°** 19199191911111 जन-रनसार पलस पढ़ १ नमोलौकिक थरि देशका लोकोत्तर स्थविराय नमः | २ देशस्थरि देशका लोकोत्तर स्वगय नमः | ३ ग्रामस्यविर देशका लोकोतर स्थविराय नमः | १ कुछ स्यविर देशाकाय लोकोत्तर स्थविराय नमः | " लौकिक कुल यरि देशका लोकोत्तर स्यविराय नमः | ६ लौकिक गुरु यावर देशका लोकोत्तर स्थविराय नमः | ७ श्री लोकोत्तर श्रीनंव म्यविराय नमः | ८ लोकोत्तर पर्याय स्थविराय नमः | ९ लोकोत्तर श्रुत विराय नमः | १० लोकोत्तर वय न्यविराय नमः | 2 पद्म पढ़ १ श्री आचारात पाठकाय नमः | २ श्रीमुअगडाङ्गथून पाठकाय नमः | ३ श्रीसमवायाङ्गथुन पाठकाय नमः | १ श्रीटाणामथुन पाठकाय नमः | ५ : श्रीभगवती पाठकाय नमः | ६ श्री ज्ञाना धर्मकथा त पाठकाय नमः । • श्री उपाशकानुन पठाय नमः | ८ श्री अन्नगाश्रुन पाठकाय नमः । ९ श्री अनुत्तरं । बवाईथुन पाठकाय नमः | १० प्रश्नव्याकरणशु पाठकाय नमः | ११ श्री विशद्भुत शटकाय नमः | १२ श्री उबाइउपा ङ्गथुन पाठकाय नमः | १३ श्री रायणी उपाङ्गश्रुत पाठकाय नमः | १४ श्री जीवाभिराम उपघटकाकया । १५ श्री प्रज्ञापन्ना पण उपाङ्गयुग पाठकाय नमः । १६ श्रीकृति उपाजन पाठकाय नमः | १० श्री चक्रमर्जनिपणत्ति उपयुक्त पाठकाय नमः | १८ श्री १५ श्री निरयावली उपङ्गसूर्यनक्षति आथुन पाठकाय नमः । शुन पटकाय नमः २० भी कपिका उपन पटकाय नमः | २६ श्री पुस्तचलिआ उपाङ्गदुत पटकाय नमः | २२ श्रीफिका उधृत पाठकाय नमः | २३ श्री दिशा आहेत पाठकाय नमः | २४ श्री पाठकाय नमः | २: श्री नानार्थव्यय नमः । पढ ९ पृणीय क्षयः सर्वाय नमः । अपाय न गर्द """ 7 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ lates a.sa.koreanskaatanisekslokalatialamlali lockalordbotoodicatoonwlathkalo inlabasaladestostartatasaatonlinestorariantoslationkak विधि-विसाग . ***ใช้ในไteได้ใครไพไร ได้ไวไว้ใดจะได้โปรปักไอ ไค ได้ -0प्रणप्रण श्रमप्र.प्र.प्र.नयत्रणमन्त्र साधुभ्यो नमः । ३ तेजकाय रक्षकेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः ४ वायुकाय है रक्षकेन्यः सर्व साधुभ्यो नमः । ५ वनस्पतिकाय रक्षकेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । ६ त्रसकाय रक्षकेन्यः सर्व साधु-यो नमः । ७ सर्वतः प्राणातिपात बिरतेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । ८ सर्वतः स्मृषावाद विरतेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । ९ सर्वतोऽदत्तादान विरतेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । १० सर्वतो ब्रह्म सेवितेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । ११ सर्वतः परिग्रह विरतेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः। १२ सर्वतो रात्रि भोजन विरतेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । १३ लोभादि कषाय निग्रहेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । १४ श्रोनेन्द्रिय विषय निग्रहेन्यः सर्व साधुभ्यो नमः । १५ चक्षुरिन्द्रिय विषय निग्रहेभ्यः सर्व साधूभ्यो नमः। १६ घ्राणेन्द्रिय विषय विरक्तेभ्यः सर्व साधु-यो नमः ॥१७ रसनेन्द्रिय विषय विरक्तेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । १८ स्पर्शनेन्द्रिय विषय विरक्तेभ्यः * सर्व साधुभ्यो नमः । १९ शीतादि परिपहेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । २० क्षमादि गुण धारकेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । २१ भावविशुद्धेभ्यः सर्व * साधुभ्यो नमः । २२ मनोयोग गुप्तेश्यः सर्व साधु-यो नमः। २३ वचन योग गुप्तेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । २४ काययोग गुप्तेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । २५ मरणान्त उपसर्ग सहेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । २६ अंगोपांग संकुचन संलीनता गुण युक्तेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । २७ निर्दोष संयम योग । युक्तेभ्यः सर्व साधुभ्यो नमः । अष्टम पद १ स्पर्शनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञानाय नमः । २ रसनेन्द्रिय व्यञ्ज-. नावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ३ घ्राणेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ४ श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ५ स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ६ रसनेन्द्रियार्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ७ प्राणेन्द्रियार्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः। ८ चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ९ श्रोत्रन्द्रियार्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः । १० मनअर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः। ११ स्पर्शनेन्द्रिय ईहा मतिज्ञानाय नमः । १२ घ्राणेन्द्रिय ईहा मतिज्ञानाय ได้มีกได้ใครได้ไว้ใดใดใดในใจใน ไม่ได้ไม่ไปได้ไกลได้ในใจให้ใครได้ใครได้ไวไวไวนด้ในไตไร ไว้ได้ไa ได้ไรได้ मन्त्र 044 ใคในไขใดไดไดโหลใสสไตในไดไ+1. ใน 64 : 14 14, ।। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Astartickastasethetokistationerotestostaleaiotirlielaleladekilpelasantalilaihimalayatilateralleletalalaleeketstatistialod-statemarta १४४ जैन-रनसार नमः । १३ रसनेन्द्रिय ईहा मतिज्ञानाय नमः । १४ चक्षुरिन्द्रिय ईहा मतिज्ञानायनमः । १५ श्रोत्रेन्द्रिय ईहा मतिज्ञानाय नमः । १६ मनोकर ईहा मतिज्ञानाय नमः । १७ स्पर्शनेन्द्रियापाय मतिज्ञानाय नमः । १८ रसनेन्द्रियापाय मतिज्ञानाय नमः । १९ घ्राणेन्द्रियापाय मतिज्ञानाय नमः । २० चक्षुरिन्द्रियापाय मतिज्ञानाय नमः । २१ श्रोत्रेन्द्रियापाय मतिज्ञानाय नमः । २२ मनोऽपाय मतिज्ञानाय नमः । २३ स्पर्शनेन्द्रियधारणा मतिज्ञानाय नमः । २४ रसनेन्द्रियधारणा मतिज्ञानाय नमः । २५ घ्राणेन्द्रियधारणा मतिज्ञानाय नमः । २६ चक्षुरिन्द्रियधारणा मतिज्ञानाय नमः। २७ श्रोत्रेन्द्रियधारणा मतिज्ञानाय नमः। २८ मनोधारणा मतिज्ञानाय नमः। २९ अक्षरश्रुतज्ञानाय नमः । ३० अनक्षरश्रुतज्ञानाय नमः । ३१ संज्ञिश्रुत ज्ञानाय नमः । ३२ असंज्ञिश्रुत ज्ञानाय नमः । ३३ सम्यकश्रुत ज्ञानाय नमः । ३४ मिथ्याश्रुत ज्ञानाय नमः । ३५ सादिश्रुत ज्ञानाय नमः । ३६ अनादिश्रुत ज्ञानाय नमः । ३७ सपर्या वसतिश्रुत ज्ञानाय नमः । ३८ अपय॑वसतिश्रुत ज्ञानाय नमः । ३९ गमिकश्रुत ज्ञानाय नमः । ४० अगमिकश्रुत ज्ञानाय नमः । ४१ अङ्ग प्रविष्टश्रुत ज्ञानाय नमः । ४२ अनङ्ग प्रविष्ट श्रुत ज्ञानाय नमः । ४३ अणुगामि अवधि ज्ञानाय नमः । ४४ अनणुगामि अवधि ज्ञानाय नमः। ४५ वर्द्धमान अवधि ज्ञानाय नमः । ४६ हीयमान अवधि ज्ञानाय नमः । ४७ प्रतिपाति अवधि ज्ञानाय नमः । ४८ अप्रतिपाति अवधि ज्ञानाय नमः। ४९ ऋजुमति अवधि ज्ञानाय नमः । ५० विपुलमति अवधि ज्ञानाय नमः । ५१ लोकालोक प्रकाशकाय श्री केवल ज्ञानाय नमः। नवम पद १ जीवाजीवादि तत्वार्थ श्रडान रूप सम्यग् दर्शन गुणाय नमः । २ सुविहित मुनि बहुमानादर रूप सम्यग् दर्शन श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ३ कुलिङ्गी पासच्छेदी असह्य वन सम्यग् श्रद्धान रूप सम्यग् दर्शन गुणाय नमः । ४ अन्य तीर्थी सङ्ग वर्जन सम्यग् श्रद्धान रूप दर्शन गुणाय नमः । ५ श्री जिनागम सुश्रुषालिङ्ग सम्यग् दर्शन गुणाय नमः । aratTERRIEREttikottarashtARTREALYANENDEtHASKHABAR Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Littaritalaahittartisahantitatitisitiడునుడు ఉండడుగడుగను विधि-विभाग Arroward नन्नन्त्रतत्रत्रवत्र यत्रतत्रचनननननननननननननन्त्र ६ बुभुक्षित द्विजाहारेच्छा न्याय धर्मिष्टता लिङ्ग सम्यग्दर्शन गुणाय नमः। ७ देवगुरु वैयावृत्ति कर्णोद्यमन लिङ्ग सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ८ श्री । अर्हद् भक्ति प्रेमादि विनय करण सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ९ श्री सिद्ध विनयकरण सम्यग्दर्शन गुणाय नमः। १० श्री जिन प्रतिमा विनयकरण सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ११ श्री सिद्धान्त भक्ति प्रेमादिकरण सम्यगदर्शन गुणाय नमः। १२ श्रीक्षान्त्यादि धर्मभक्ति प्रेमादि विनयकरण सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । १३ श्री साधुभक्ति बहुमानादि विनयकरण सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । १४ श्री आचार्य भक्तिप्रेमादि विनयकरण सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । १५ श्री उपाध्याय भक्तिप्रेमादि विनयकरण सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । १६ श्रीप्रवचन भक्तिप्रेमादि विनयकरण सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । १७ श्री दर्शन भक्तिप्रेमादि विनयकरण सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । १८ श्री जिन जिनागम रुचि एकान्त वादादि असत्य इत्यवधारण मनःशुद्धि सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । १९ श्रीजिनभक्त्या यन्न सिध्यति तन्नान्यैः सिध्यतीति वचनशुद्धि सम्यग्दर्शन गुणाय नमः। २० श्रीजिनेश्वर भाषितमेव सत्यं नान्यदिति निःशङ्कावधारण रूप सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । २१ सन्देह छेदन भेदन व्यथा सहन जिन देव नमन रूप काम शुद्धि सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । २२ स्वप्नेऽपि परदर्शनाभिलाष रूप निःशङ्क सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । २३ धर्मज शुभ फले कष्ट भवत्येवेत्यादि अवधारण रूप सम्यग्दर्शन गुणाय नमः। २४ अन्य दर्शन गत मान पूजादि चमत्कारं पश्यन्नपि प्रसंशाऽकरण रूप सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । २५ बहुतर कार्योपनयनेऽपि मिथ्यात्वि संगति वर्जन रूप सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । २६ वर्तमान समयार्थ ज्ञापक सम्यग्प्रभावकदर्शन गुणाय नमः । २७ अवितथ उपदेश भव्य जन रञ्जक सम्यग्प्रभावकदर्शन गुणाय नमः । २८ शुद्ध स्याद्वाद तर्क युक्तिबलैः परमत खण्डन सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । २९ गणितानुयोग विशारद बलैः शुभ निमित्त भाषक सम्यगदर्शन गुणाय नमः । ३० इच्छारोध परिणति करी विविध दुईर तप करण रूप सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ३१ पूर्वगत विद्यावलैः श्रीसंघ पीड़ा निवारक रूप सम्यग्दर्शन गुणाय । मनप्रजातन्त्रप्रसन्न అందువులకు ముందుండినందుకు దండుకుంటుందhatia श्रश्रय पत्रप्रपत्र 19 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Patalirtatistatishaliwletelilalihi-Thalishaliliopoli-fiela Yieliolieakistakindialistatinath khaatioint afstrhkatrelimstartstalksattasterstarty जेन-रजसार anwerme.. ... .. ..om. budwaimarimminimumarwarwwwnew. mawwwimwwwraam. कम्यन्त्रणचन्नत्रयमन्त्राप्रमाण-प्रणवjagapug-श्य प्राण PitrintulationshiATTARisingstatekarktetanusa नमः । ३२ प्रबल कार्योत्पन्ने अञ्जन चूर्णादि योगबलै शासनोन्नति करण रूप सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ३३ प्रबल धर्मकारणोपनये अतुल कवित्व शक्तिबलैः नवं नव रस गर्भित काव्येन भूपति मनोरञ्जन रूप सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ३४ गुरु वन्दन प्रत्याख्यानादि क्रिया कौशल रूप भूषण स्तथा अत्यादरभावैविविध क्रिया करण रूप भूषणैश्च भूषित सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ३५ अपार संसार समुद्रोत्तारण तीर्थरूप निपुण गीतार्थ सेवनरूप भूषणाभूपित सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ३६ श्री गुरुदेव संघादि भक्ति करणरूप भूषण भूषित सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ३७ नर देवादि भिरनेक प्रकारैश्चालितोऽपि स्थिरता रूप सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ३८ तीर्थ रथयात्रा संघवस्तिदान दीनोद्धारण परोपकरणादिभिः सकल जनानुमोद कारापण रूप प्रभावना भूषण सम्यग्दर्शन गुणाय नमः । ३९ सर्वाणि सुखादीनि औदयिक भावस्य कर्मणः फलमिति श्रद्धातो दुःखदायकेष्वपि अप्रतिकूल चिन्तनरूप सम्यगुपशम दर्शन गुणाय नमः । ४० सकल दुःख कारण रूपात् पौगलिक भावात विरतो भूत्वा शिवसुखेच्छालक्षण सम्यग्संवेग दर्शन गुणाय नमः । ४१ अतुल पुण्यजं देवेन्द्रादि सुखं कारागार सम मितिबोधन लक्षण सम्यक् निवेद दर्शन गुणाय नमः । ४२ पापोदयात् रोग शोकादिभिःपीडितानां मिथ्यात्वोदयानाम् कुश्रद्धन् कुमार्ग गमनादिकं दृष्ट्वा तदुःख निवारण चिन्तालक्षण सम्यगनुकम्पा दर्शन गुणाय नमः । ४३ राग द्वेषाज्ञानत्रयं परिहत्य जिनेश्वरो,योऽभूत् तस्य वाक्य मन्यथा न भवतीति दृढ़ रंग लक्षण सम्यगास्तिक्य दर्शन गुणाय नमः । ४४ अन्यतीर्थोय चैत्यमन्यतीर्थोयगृहीतं वा चैत्यं तस्य वन्दना करणरूप सम्यक् यतना दर्शन गुणाय नमः । ४५ पर तीर्थीयतैर्ग्रहीतं वा चैत्यस्य नमना करण रूप दर्शन गुणाय नमः । ४६ परतीर्थकैः सह प्रथमालापवर्जन रूप दर्शन गुणाय नमः । ४७. परतीर्थकैः सह पुनः पुनः संलाप वर्जन रूप दर्शन गुणाय नमः । ४८ परतोर्थकानां श्रद्धया अशनादि दानकरण रूप दर्शन गुणाय नमः । ४९ पुनः पुनः पूर्वोक्त विधि पूर्वक सम्भाषण संलापाद्य करण रूप दर्शन गुणाय नमः । ५० द्रव्य क्षेत्रकालादि विषमतया उपायान्तरै m linkARReatmkutaTYAKOLKATREET प्रत्रतत्र प्रश्नपत्रप्रमप्रारक मारवायामम्म्म्मान प्रमाणपत्र प्रजननणयअन्नत्रय मन्त्रमनप्रणप्रणयचनमयात्र Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - विभाग १४७ रात्मत्राणासमर्थश्चेत्तर्हि अपवाद सेवनां जिनाज्ञां ज्ञात्वा राज्ञः अन्यस्यवा मिथ्यात्व नो नगराधिपस्य अनिवार्याज्ञा करणरूप आगार दर्शन गुणाय नमः । ५१ गणैर्निर्भर्त्स्य स्वधर्म प्रतिकूलकारित करणरूपागार दर्शन गुणाय नमः । ५२ बलवता चौरादिभिर्वानिगृह्यमाणः सन् आत्मरक्षणं कृत्वा आत्मशुद्धये प्रायश्चित्तं करिष्यामीति कृत्वा अशुद्ध क्रिया करणरूपागारदर्शन गुणाय नमः । ५३ मिथ्यादृष्टि धर्मद्वेषि क्षुद्रदेवता प्रभावादभिभूतः पूर्वोक्त प्रकारं स्मृत्वा अशुद्ध क्रिया करण रूपागार दर्शन गुणाय नमः | ५४ मातृ, पितृ, कलाचार्य, ज्ञाति वृद्धादिनामाज्ञाभंगे महान् दोष इति स्मृत्वा तदाज्ञा करणरूप गुरु निग्रहागार सेवन रूप दर्शन गुणाय नमः | ५५ पापोदयेन देशान्तरे भक्ष्याहाराभावेन मिथ्यात्वीनां ग्रामे उपायान्तरै शरीर यात्राया अनिर्वाहेन वा अभक्ष्य भक्षण कुमार्ग क्रिया करणरूप वृत्तिकान्तारागार सेवन रूपदर्शन गुणाय नमः | ५६ मूले पुष्टे वृक्षोऽपिसफलः पुष्टोऽपि भवति मूले नष्टे वृक्षो नश्यति तथाव्रतरूप वृक्ष मूलं सम्यक्त्व भावना भावित दर्शन गुणाय नमः ५७ नगरस्य गोपुरमिव धर्मनगरस्य सम्यक्त्वं गोपुरं यदि दर्शनशुद्धिरस्तितर्हिद्वारमुद्राहितमस्ति तद्भावेऽप्यहितमस्ति अतः सर्व धर्मस्य द्वारं सम्यक्त्वमिति भावना भावित दर्शन गुणाय नमः । ५८ यथा मूले पुष्टे प्रासादः पुष्टो भवति तथा सम्यक्त्व दृढ़े धर्मप्रासादो दृढो भवतीति प्रवर्तन रूप भावना दर्शन गुणाय नमः | ५९ सम्यक्त्वगुण रत्ननिधानं तेन विना आत्मनः सहजागुणाः स्थिरतां न भजन्तीति भावना दर्शन गुणाय नमः | ६० यथा कल्पवृक्षलता कामधेनु चिन्ता मण्याद्यनेकरत्नानामाधारः पृथ्वी तथा सम्यक्त्वं सर्व गुणानामाधारः इति भावना दर्शन गुणाय नमः । ६१ दधि दुग्ध घृतादि रसानां भाजन मिव श्रुतशील समसंवेग रूपाध्यात्म रस भाजनं सम्यक्त्वमिति भावना दर्शन गुणाय नमः | ६२ चेतना लक्षणो जीवपदार्थः सन्त्रैकालिकः इति स्वरूपोपयोगरूप सम्यग् स्थान दर्शन गुणाय नमः | ६३ आत्मा द्रव्यास्तिकाय नयेन नित्योऽनुभव वासना युक्तोऽमल अखण्ड निज गुण युक्त आत्मारामोऽस्तीति उपयोग रूपदर्शन गुणाय नमः । ६४ सर्वे जीवाः कुम्भकारवत् कर्मकर्तार इति श्रद्धारूप दर्शन गुणाय नमः । त्रि Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ . जैन-नसार .....................tenthetitutton...la ६५ आत्मा स्वकृत कर्मणां तस्य फलं स्वयं भोक्ता निश्चये नास्तीति श्रद्धा रूप दर्शन गुणाय नमः। ६६ मोक्षपदं अचलमनन्त सुखनिवासं आधि व्याधि रहित परम सुखमस्तिति श्रद्धा रूप दर्शन गुणाय नमः । ६७ मोक्षपदंसम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्रैरेव लभ्यते नान्योपायैरिति श्रद्धा रूप दर्शन गुणाय नमः। दशम पद १ तीर्थङ्कर अनाशातनारूप विनयगुण सम्पन्नाय नमः । २ तीर्थङ्कर भक्ति प्रवणरूप विनयगुण सम्पन्नाय नमः । ३ तीर्थङ्कर बहुमान करणरूप विनयगुण सम्पन्नाय नमः । ४ तीर्थङ्कर श्रुतरूप विनयगुणसम्पन्नाय नमः । ५ सिद्ध अनाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ६ सिद्ध भक्तिः निपुण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ७ सिद्ध बहुमान करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ८ सिद्ध स्तुति करण तत्पर रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ९ सुविहित चन्द्रादि कूलानाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । १० सुविहित चन्द्रादि कूल बहु भक्ति प्रहवण रूप विनय । गुण सम्पन्नाय नमः । ११ सुविहित कूल बहुमान करण. निपुण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । १२ सुविहित कूल संस्तुति करण तत्पर रूप गुण सम्पन्नाय नमः । १३ कौटिकादि सुविहित गण भक्ति बहुमान रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । १४ कौटिकादि सुविहित गण भक्ति करण निपुण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । १५ सुविहित कौटिकादि गण संस्तुति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः। १६ सुविहित गणानाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । १७ श्रीसंघ अनाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः। १८ श्रीसंघ भक्ति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । १९ श्रीसंघ बहुमान करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय । के नमः । २० श्रीसंघ स्तुति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । २१ श्री आगमोक्त क्रिया अनाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । २२ । शुद्धागम क्रिया बहुमान करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ..la.kutalauthelaletinAEROINE-EalnitiatiLaLL-Rasailmkastasini-lilalitatuitmlatantankitanilaukabalatakaitisakriillain t aintaindakotnal लगनश्रम Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ wwwwwwwwwwwwwwwwwanimwww.randiwwyaduviwwwvwuviwwer Lordanterasnastolemamalankestalestani m a विधि-विभाग २३ आगमोक्त शुद्ध क्रिया बहुमान करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । २४ शुद्धागमोक्त क्रिया स्तुति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । २५ श्री जिनोक्त धर्म अनाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । २६ श्री जिनोक्त धर्म भक्ति करण निपुणरूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः २७ श्री जिनोक्त धर्म बहुमान करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । २८ श्री जिनोक्त धर्म करण निपुण रूप विनयगुण सम्पन्नाय नमः । २९ ज्ञानगुण अनाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ३. ज्ञानगुण भक्ति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ३१ ज्ञानगुण बहुमान करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः। ३२ ज्ञानगुण स्तुति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ३३ ज्ञानिजन अनाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ३४ ज्ञानिजन भक्ति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ३५ ज्ञानि जन बहुमान करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ३६ ज्ञानि जन स्तुति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ३७ श्रीमदाचार्य अनाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ३८ श्रीमदाचार्य भक्ति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः। ३९ श्रीमदाचार्य बहुमान करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ४० श्रीमदाचार्य स्तुति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ४१ स्थविर मुनि अनाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ४२ स्थविर मुनि भक्ति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ४३ स्थविर मुनि बहुमान करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ४४ । स्थविर मुनि स्तुति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ४५ श्रीमदुपा ध्याय अनाशातना रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ४६ श्रीमदुपाध्याय भक्ति करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ४७ श्रीमदुपाध्याय बहुमान 1 करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ४८ श्रीमदुपाध्याय संस्तुति करण रूप विनिय गुण सम्पन्नाय नमः । ४९ श्रीगणावच्छेदक अनाशातना करण रूप विनय गुण सम्पन्नाय नमः । ५० श्रीगणावच्छेदक भक्तिकरण रूप १ विनयगुण सम्पन्नाय नमः । ५१ श्रीगणावच्छेदक बहुमान करण रूप विनय lsdonlodaadialoKENGAGAR ledistakalalaptokatostalestialasateletelastetasthiliadowla kotha AARI-Ratotato Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ meritritootent १५० जैन-रत्नसार गुण सम्पन्नाय नमः | ५२ श्रीगणावच्छेदक स्तुति करण रूप विनयगुण सम्पन्नाय नमः । एकादश पढ़ १ सर्वतः प्राणातिपात विरमणत्रत धराय नमः | २ सर्वतः मृषावाद चिरमणत्रत धराय नमः | ३ सर्वतः अदत्तादान विरमणत्रत धराय नमः । ४ सर्वतः मैथुन विरमणत्रत धराय नमः | ५ सर्वतः परिग्रह विरमणव्रत धराय नमः | ६ सम्यग्क्षमा गुणधराय नमः | ७ सम्यग्मार्दव गुणधराय नमः । ८ सम्यगावगुण धराय नमः । ९ सम्यग्मुक्ति गुणधराय नमः | १० सम्यग्तपो गुणधराय नमः | ११ सम्यग्संयम गुणधराय नमः । १२ सम्यग्वोधि दर्शन गुणधराय नमः | १३ सम्यग्सत्य गुणधराय नमः | १४ सम्यसौम्य गुणधराय नमः | १५ सम्यकिंचन गुणधराय नमः | १६ सम्यग्नह्मचर्य गुणधराय नमः | १७ विगत प्राणातिपाताश्रवाय गुणवते नमः | १८ विगत मृषावादाश्रवाय गुणवते नमः | १९ विगत अदत्तादानाश्रवाय गुणत्र नमः | २० विगत मैथुनाथवाय गुणवते नमः । २१ बिगत परिग्रहाश्रवाय गुणवते नमः | २२ श्रोत्रेन्द्रिय विषय विरक्ताय चारित्र गुणवते नमः । २३ घ्राणेन्द्रिय विषय विरक्ताय चारित्रगुणवते नमः | २४ चक्षुरिन्द्रिय विषय विरक्ताय चारित्र गुणवते नमः | २५ रसनेन्द्रिय विषय विरक्ताय चारित्र गुणवते नमः | २६ स्पर्शनेन्द्रिय विषय विरक्ताय चारित्र गुणवते नमः | २७ विजित क्रोधाय चारित्र गुणवते नमः | २८ विजित मान दोषाय चारित्र गुणवते नमः | २९ विजित माया दोषाय चारित्र गुणवते नमः | ३० विजित लोभ दोपाय चारित्र गुणवते नमः | ३१ मनोदण्ड रहिताय चारित्र गुणत्रते नमः | २२ वचनदण्ड रहिताय चारित्र गुणवते नमः | ३३ कायादण्ड रहिताय चारित्र गुणत्रते नमः | ३४ वसति शुद्ध ब्रह्मव्रतयुक्ताय चारित्र गुणवते नमः | ३५ स्त्रीभिः सह वार्ता वर्जन ब्रह्मत्रत: युक्ताय चारित्र गुणवते नमः | ३६ स्त्री सेवितासन वर्जनब्रह्मत्रतयुक्ताय चारित्र गुणत्रते नमः | ३७ स्त्री रूपावलोकन ब्रह्मत्रत युक्ताय चारित्र गुणवते नमः । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - विभाग १५१ ३८ कुड्यन्तरित स्त्री पुरुष संयुक्त वसतिशयन वर्जन ब्रह्मव्रत युक्ताय चारित्र गुणव्रते नमः | ३९ पूर्वक्रीडित क्रीडास्मरण वर्जन ब्रह्मव्रत युक्ताय चारित्र गुणव्रते नमः । ४० अनिमन्त्रिताहारवर्जन ब्रह्मव्रत युक्ताय चारित्र गुणते नमः । ४१ सहसाहार वर्जन ब्रह्मव्रत युक्ताय चारित्र गुणवते नमः । ४२ विभूषणादिना शरीरशोभा वर्जन ब्रह्मव्रत युक्ताय चारित्र गुणवते नमः । ४३ आचार्य वैयावृत्तिकरण सम्यक् चारित्र गुणाय नमः । ४४ उपाध्याय वैयावृत्तिकरण सम्यक् चारित्र गुणाय नमः । ४५ तपस्वि वैयावृत्तिकरण सम्यक् चारित्र गुणाय नमः । ४६ शिष्य वैयावृत्तिकरण सम्यक् चारित्र गुणायनमः । ४७ ग्लान वैयावृत्तिकरण सम्यक् चारित्र गुणाय नमः । ४८ साधु वैयावृत्तिकरण सम्यक् चारित्र गुणाय नमः । ४९ साध्वी वैयावृत्ति - करण सम्यक् चारित्र गुणाय नमः | ५० संघ वैयावृत्तिकरण सम्यक् चारित्र गुणाय नमः | ५१ कुल वैयावृत्तिकरण सम्यक् चारित्र गुणाय नमः | ५२ गण वैयावृत्ति करण सम्यक् चारित्र गुणाय नमः | ५३ सम्यक् चारित्र ज्ञान गुणाय नमः । ५४ सम्यक् चारित्र गुणाय नमः | ५५ सम्यग्दर्शन चारित्र गुणाय नमः | ५६ अनसन तप चारित्र गुणाय नमः | ५७ सम्यगूनोदर तप चारित्र गुणाय नमः | ५८ सम्यग्वृत्ति संक्षेप तपश्चारित्र गुणाय नमः | ५९ सम्यग्सत्याग तपश्चारित्र गुणाय नमः | ६० सम्यक् कायक्लेश तपश्चारित्र गुणाय नमः ६१ सम्यक् संलीनता तपश्चारित्र गुणाय नमः । ६२ प्रायश्रिताभ्यन्तर तपश्चारित्र गुणाय नमः | ६३ विनयाभ्यन्तर् तपश्चारित्र गुणाय नमः । ६४ वैयावृत्ति तपश्चारित्र गुणाय नमः । ६५ सद्भाव तपश्चारित्रं गुणाय नमः । ६६ ध्यानतप चारित्रकायोत्सर्गतप चारित्र गुणाय नमः । ६७ क्रोधजय चारित्र गुणाय नमः | ६८ मानजय - ६९ मायाजय चारित्र गुणाय नमः । ७० लोभजय द्वादश पद चारित्र गुणाय नमः । चारित्र गुणाय नमः । १ मनसा औदारिक विषय अकारण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः | २ मनसा औदारिक विषय अनुमोदन रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः | ३ मनसा • Ya Into Youtaito taiteetec touto textacto Youte touto to to to Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Labeteststechotsaptakokadalatabstricalbalatasteacotasakaesanliadetticoastedalishalestatistialcalatasteetalalistiatabaedaatathisolatakehotstatstetaty roorn manmronmamananmarriwarrrrrrrranamamaAANI 6850kgsponbagsghakhbitabhbhai63333333368053bbbbbbb355268688bbbbbbb6%bhakpotosasu जैन-रनसार औदारिक विषय अननुमोदन रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । ४ वचसा औदारिक विषय अकरण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । ५ वचसा औदारिक विषय अकारण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । ६ वचसा औदारिक विषय अननुमोदन रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । ७ कायेन औदारिक विषय अकरण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । ८ कायेन औदारिक विषय अकारण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । ९ कायेन औदारिक विषय अननुमोदन रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । १० मनसा वैक्रिय विषय अकरण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । ११ मनसा वैक्रिय विषय अकरण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । १२ मनसा वैक्रिय विषय अननुमोदन रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः। १३ वचसा वैक्रिय विषय अकरण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः। १४ वचसा वैक्रिय विषय अकारण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । १५ वचसा वैक्रिय विषय अननुमोदन रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । १६ कायेन वैक्रिय विषय अकरण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः। १७ कायेन वैक्रिय विषय अकारण रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । १८ कायेन वैक्रिय विषय अननुमोदन रूप ब्रह्मचर्य धराय नमः । त्रयोदश पद १ अशुद्ध कायिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । २ अधिकरणिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः। ३ पारितापनिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः।४ प्राणतिपातिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । ५ आरम्भिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । ६ पारिग्रहि क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । ७ माया प्रत्ययिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । ८ मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । ९ अपञ्चक्खाणी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः।। १० दृष्टिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । ११ स्पर्शन क्रिया । प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । १२ प्रातीत्यकी किया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । १३ सामन्तोपनिपातिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते ।। नमः । १४ नैशस्त्रिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः १५ स्वहस्तिकी ।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shastatiotato ta tadeoladisanlalonlinrolakalinsahinidiolatilipisodboolocslatioonblakolasialishsinelaoonlineaaotstomisestardatestsaas.estiters wwwmarwmuvimeowwwwwrarrrrrr.urvasna kattracter-amak-limtur.mentslelrbakokrabartistratishtankaratulathkaratoantattatrka-ki-taki kokr-latinikar विधि-विभाग . १५३ क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः।१६आणवणीकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । १७ विदारणि की क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः ! १८ अनाभोगप्रत्ययिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । १९ अनवकांक्षप्रत्ययिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । २० आज्ञापन प्रत्ययिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । २१ प्रायोगिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः। २२ सामुदायि की क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः। २३ प्रेमकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः । २४ द्वेषकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवतेनमः १२५ इरियावहिकी क्रिया प्रवर्तन रहिताय गुणवते नमः। चतुर्दश पद १ अनशन तपोयुक्ताय नमः । २ उनोदर तपोयुक्ताय नमः । ३ वृत्तिसंक्षेप तपोयुक्ताय नमः । ४ रसत्याग तपोयुक्ताय नमः । ५ कायक्लेश तपोयुक्ताय नमः। ६ संलीनता तपोयुक्ताय नमः । ७ प्रायश्चित्त तपोयुक्ताय नमः । ८ विनयरूप तपोयुक्ताय नमः । ९ वैयावृत्तिरूप तपोयुक्ताय नमः । १० स्वाध्यायकरणरूप तपोयुक्ताय नमः। ११ ध्यान रूपतपोयुक्ताय नमः । १२ कायोत्सर्गरूप तपोयुक्ताय नमः । - पञ्चदश पद १ श्री इन्द्रभूति स्वामी गणधराय नमः । २ श्री अग्निभूति स्वामी गणधराय नमः । ३ श्री वायुभूति स्वामी गणधराय नमः । ४ श्री व्यक्त स्वामी गणधराय नमः । ५ श्री सुधर्मा स्वामी गणधराय नमः । ६ श्री मण्डित स्वामी गणधराय नमः । ७ श्री मौर्यपुत्र स्वामी गणधराय नमः । ८ श्री अकम्पित स्वामी गणधराय नमः । ९ श्री अचल भ्राता स्वामी गणधराय नमः । १० श्री मेतार्यवामी गणधराय नमः ११ श्री प्रभास स्वामी गणधराय नमः । १२ चतुर्विंशति तीर्थङ्कराणांद्विपञ्चाशदधिक चतुर्दशशत (१४५२) गणधरेभ्यो नमः । षोडश पद . १ श्री सीमन्धर जिनेश्वराय नमः। २ श्री युगन्धर जिनेश्वराय नमः । A-tatestrelialesabkardstisalhosrdeclaski kaaloonricsdahtistskarlice haalishalilashashtraYadalisakasisailabadatoleatedleslalprit-listasiralasahhhila nintalathloto plastrailetrigat-likatantr-hares .......ofittint.st...arcitatkar-r.her.ink- :-.......... Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amana rarwa Emainlishatitisatara TLEGRAMMERING M Khattaliotismkakulata జనమును జరపడండి ముందు నడవడం వంట పడిండి నడిపించడం వంటచపడు కుండ నడవడం కురు కు పడదనడవడివడివడివడివడివడివడిగ నడవడం మనం చదువుకునే వరి పండును మరువనములో जैन-रनसार ३ श्री बाहु जिनेश्वराय नमः । ४ श्री सुबाहु जिनेश्वराय नमः । ५ श्री सुजात जिनेश्वराय नमः । ६ श्री स्वयंप्रभु जिनेश्वराय नमः । ७ श्री ऋषभानन जिनेश्वराय नमः । ८ श्री अनन्तवीर्य जिनेश्वराय नमः । ९ श्री सूरप्रभु जिनेश्वराय नमः । १० श्री विशाल जिनेश्वराय नमः । ११ श्री वज्रधर जिनेश्वराय नमः । १२ श्री चन्द्रानन जिनेश्वराय नमः । १३ श्री चन्द्रबाहु जिनेश्वराय नमः । १४ श्री भुजङ्ग जिनेश्वराय नमः । १५.श्री ईश्वर जिनेश्वराय नमः । १६ श्री नेमिप्रभु जिनेश्वराय नमः । १७ श्री वीरसेन जिनेश्वराय नमः १८ श्री महाभद्र जिनेश्वराय नमः । १९ श्री देवसेन जिनेश्वराय नमः । २० श्री अजितवीर्य जिनेश्वराय नमः । सप्तदश पद १ सर्वतः प्राणातिपात विरमण रूप चारित्र धराय नमः । २ सर्वतः मृषावाद विरमण रूप चारित्र धराय नमः । ३ सर्वतः अदत्तादान विरमण रूप चारित्र धराय नमः । ४ सर्वतः मैथुन विरमण रूप चारित्र धराय नमः। ५ सर्वतः परिग्रह विरमण रूप चारित्र धराय नमः । ६ सर्वतः रात्रि भोजन विरमण रूप चारित्र धराय नमः । ७ इर्यासमिति सम्पन्न रूप चारित्र धराय नमः । ८ भाषा समिति रूप चारित्र धराय नमः । ९ एषणा समिति रूप चारित्र धराय नमः।१० आदानभण्डमत्त णिक्खेवणा समिति रूप चारित्र धराय नमः । ११ परिद्वावणिआ समिति रूप निक्षेप चारित्र धराय नमः । १२ मनोगुप्ति रूप चारित्र धराय नमः । १३ वचनगुप्ति रूप चारित्र धराय नमः । १४ कायगुनि रूप चारित्र धराय नमः । १५ मनोदण्ड विरताय चारित्र धराय नमः । १६ वचनदण्ड विरताय चारित्र धराय नमः । १७ कायदण्ड विरताय चारित्र धराय नमः । अष्टादश पद १ श्री आचारांग सूत्राय नमः । २ श्री सुअगड़ांग सूत्राय नमः। ३ श्री ठाणांग सूत्राय नमः । ४ श्री समवायांग सूत्राय नमः । ५ श्री भगवती सूत्राय नमः । - ६ श्री ज्ञाताधर्म सूत्राय नमः । ७ श्री उपाशक दशा s ailithikthamakantastilediodisaniladiekalinsakasastiseasealikhelaikxtantahikittarika Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... .. ........... . wh ........mart ".marria.... reaminerairmirmanen विधि-विभाग १५५ सूत्राय नमः । ८ श्री अंतगड दशा सूत्राय नमः । ९ श्री अनुत्तरोववाई सूत्राय नमः । १० श्री प्रश्न व्याकरण सूत्राय नमः । ११ श्री विपाक सूत्राय नमः । १२ श्री उववाई सूत्राय नमः । १३ श्री रायपसेणी सूत्राय नमः । १४ श्री जीवाभिगम सूत्राय नमः । १५ श्री पण्णवणा सूत्राय नमः । १६ श्री जंबुद्दीव पण्णत्ती सूत्राय नमः। १७ श्री चंदपण्णत्ती सूत्राय नमः । १८ श्री सूरपण्णत्ती सूत्राय नमः । १९ श्री निरयावली सूत्राय नमः । २० श्री पुप्फावली सूत्राय नमः । २१ श्री पुप्फचूलिया सूत्राय नमः । २२ श्री कप्पिआ सूत्राय नमः । २३ श्री वन्हिदशा सूत्राय नमः । २४ श्री चउसरण सूत्राय नमः । २५ श्री संथारापइण्णा सूत्राय नमः । २६ श्री भत्तपइण्णा । सूत्राय नमः । २७ श्री चन्द्राविजपइण्णा सूत्राय नमः । २८ श्री मरणवि। भत्ति पइण्णा सूत्राय नमः । २९ श्री गणि विजापइण्णा सूत्राय नमः । ३० श्री तंदुलवेयालिय पइण्णा सूत्राय नमः । ३१ श्री देवेन्द्रस्तव पइण्णा सूत्राय नमः । ३२ श्री आउरपञ्चक्खाण पइण्णा सूत्राय नमः । ३३ श्री महापच्च क्खाण पइण्णा सूत्राय नमः । ३४ श्री दश वैकालिक मूल सूत्राय नमः। • ३५ श्री उत्तराध्यन मूल सूत्राय नमः । ३६ श्री आवश्यक मूल सूत्राय नमः । ३७ श्री पिंडनियुक्ति मूल सूत्राय नमः। ३८ श्री व्यवहारछेद सूत्राय नमः | ३९ श्रीनिशीथछेद सूत्राय नमः । ४० श्रीमहानिशीथछेद सूत्राय नमः । ४१ श्री दशाश्रुतस्कन्धछेद सूत्राय नमः । ४२ श्री जीतकल्पछेद सूत्राय नमः । ४३ श्री पंचकल्पछेद सूत्राय नमः। ४४ श्री नंदीचूलिआ सूत्राय नमः । ४५ श्री अनुयोगद्वार चूलिआ सूत्राय नमः । ४६ श्रीस्यादस्तिरूपकायस्याद्वाद सूत्राय नमः । ४७ श्रीस्योद्नास्तिभङ्ग प्ररूपकायस्याद्वाद सूत्राय नमः । ४८ श्री स्यादस्तिनास्तिभङ्ग प्ररूपकायस्याद्वाद सूत्राय नमः । ४९ श्री स्याद् वक्तव्य भङ्ग प्ररूपकाय सूत्राय नमः । ५० श्री स्यादस्ति अवक्तव्य भङ्ग प्ररूपकाय सूत्राय नमः । ५१ श्री स्वादनास्ति भङ्ग प्ररूकाय सूत्राय नमः । ५२ श्री स्यादस्ति अव्यक्त भङ्ग प्ररूपकाय सूत्राय नमः । Bartarrinctertaeakisketantialisadalkasarlointstakotishidarliatekartitillapathalletstat-takelatioinik-katirtatist-this-at-talatastritalialistialoiletiokalsaliralalalialericalciuliateletalalalalalalalalalalalaharine Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार जन-रत्नसार www.www.www.www.wwwwwwwwwwwwwwww.rrrrrrr ... . www.www.www.www.wwer hendmlalkageONICSIRSCIENobitasas tr o MitrAYANAYASYC सुसंगति रूप वृद्धानुगत तीर्थ गुणाय नमः । २० सर्वगुण मूल रत्नत्रयी तत्वत्रयी शुद्धता प्रापक रूप विनय तीर्थ गुणाय नमः । २१ धर्माचार्यस्य बहुमान कर्ता स्वल्पोपकारमपि अविस्मर्ता परगुण योजनोपकार करण सदा परहितोपदेशक करण कारण रूप परहितकारि तीर्थ गुणाय नमः । २२ अल्प बहुश्रुत तप क्रियादि योग्यता ज्ञापक, यथानुकूल धर्मप्रापक, सर्व स्वकार्य साक्षिरूप लब्ध लक्ष तीर्थ गुणाय नमः । इत्यादि विधि संयुक्त बीसों ओलिये उत्सव, महोत्सव, प्रभावना, उजमणा पूर्वक सम्पूर्ण करे । यदि जिन शासनकी उन्नतिके वास्ते इतनी शक्ति न होय तो कमसे कम एक ओलीका उत्सव तो अवश्य ही धूमधामके साथ करे। ये विधियें प्राचीन ग्रन्थोंसे संक्षेपमें लिखी गई हैं इसलिये अगर गुरुका संयोग हो तो विस्तारसे बीसों पदोंकी जुदी जुदी विधि गुरुसे समझ के करे । अगर गुरुका संयोग न हो तो इसी विधिके अनुसार भावसे सम्पूर्ण तप करे। तथा बीसस्थानक तपका स्तवन भी उसी दिन पढ़े अथवा सुने और मन्दिरमें बीसस्थानककी पूजा करावे तथा यथाशक्ति बीस बीस ज्ञानोपकरण बनवावे । देवपदका देवमें, ज्ञानपदका ज्ञानमें और गुरु पदका गुरुके ही लिये खर्च करे। समस्त तीर्थोकी यात्रा करे, साधर्मीवत्सल. करे । इत्यादि विधि संयुक्त भावसे जो भव्य जीव 'बीसस्थानक तप की आराधना करते हैं वह तीर्थङ्कर नाम कर्मका उपार्जन कर तीसरे भवमें अनन्त सुखोंको प्राप्त करते हैं। रोहिणी तपकी विधि शुभ दिनमें गुरुके पास रोहिणी तप ग्रहण करे । रोहिणी नक्षत्रके .' इम तपश्चर्या के करनेसे तीर्थङ्कर गोत्रका बंध होता है। श्रेणिक, रावण, कृष्ण आदि जीवोंने इसी तप प्रभावमे आगामी चौवीसीमें तीर्थकर गोत्रका वध किया है। अतः तीर्थकर alamaniandedneementaticleanloa danaanaataanaamanna होंगे। रोहिणी तपके प्रभावसे रोहिणी रानीने अपने जीवनमें कभी भी दुःखका अनुभव नहीं किया। यह तप स्त्रियोंको ही करना चाहिये। HTRArie144444141. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग दिन उपवास करे और बारहवें श्रीवासुपूज्यजीकी पूजन करे आगे अप्ट मङ्गलीकी रचना करे और अष्टद्रव्य चढ़ावे । देववन्दनादिक धार्मिक क्रियायें करके गुरुके मुखसं धर्मोपदेश श्रवण (सुना) करे। गुरुका संयोग न हो सकने पर "रोहिणी तप" स्तवन को भावसे पढ़े या किसी अन्यसे मुने और "श्रीवासुपूज्य स्वामी सर्वज्ञाय नमः" इस पदकी २० माला फरें। इस प्रकार विधि पूर्वक सात वर्ष सात महीनेमें इस तपकी आगधना करनेमे मनोकामना पूर्ण होगी, पुत्रादिकके अभावका शोक सन्ताप दर होगा और मुख सौभाग्यकी वृद्धि होगी। छम्मासी तप विधि जिस प्रकार शासन नायक भगवान महावीर स्वामीने छम्मासी तपकी उत्कृष्ट तपस्याकी उसी प्रकार वर्तमान समयमें उतना बलपराक्रम न होनसे इम तपका होना कठिन है तो भी एक सौ अरसी उपवासोंके करनेसे जीव जघन्य छम्मानी तपके फलोंको प्राप्त कर सकता है। तपम्याकं दिन देव वन्दनादिक धार्मिक क्रियायें कर और छम्मासी तपक स्तवनको भावने मनन पूर्वक पढ़े अथवा सुने । साथ ही साथ "श्री महावीर स्वामी नाथाय नमः" इस मन्त्रकी वीस माला फेरे और जहां वीर प्रभु नामका तीर्थ हो क्षत्रियकुण्ड, पावापुर आदि वहां यात्रा करनेके लिये जावे. शुद्ध भावना भावे, यधागत्ति, नपका उद्यापन करे । इन नपम्याके प्रभावने जीव लघुकमी हो अनन्त सुग्योंको प्राम करना है। बारहमामी तप विधि यम नीर श्री ऋषभदेव न्वामी ने उत्कृष्ट बारहमानी नप की नामा मर्ग अनः भन्य जीवों को भी यह नपन्या अवश्य आदरणीय है। पर नपस्या नादी ममगः बटालानुनार नीन मा माट ( १६. ) भवानी जिस दिन बन सय उन दिन देय बन्दनादिर, प्रनिगमण भाभिनयागाआगनानी नया नयन द वंक पटे अश्या मा. . . मानदेव म्यामा नाथाय नम:" र मन्त्राः Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............. ... .. - rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. ......marrierror an - Thalantointothlalitalhtmlatastrole talkitatasthtoskatretartstainlisastareasnahintastinata.lmistantanaristhousantantriteratulaletal.sanlain tertenbetaulatatatulamkistatemlatalabrtasthi haata haloostinto loolatalasniloslely १६० जैन-रत्नसार माला (जाप) फेरे । तपस्या का विधिपूर्वक यथाशक्ति उद्यापन कर सिद्धाचलजी की यात्रा करे । इस तपस्या के फलस्वरूप तपखी को कप्ट नहीं होता, आनन्द भोगता है । रोग शोक भय आदि दौर्भाग्य की प्राप्ती नहीं होती संसार में यश फैलता है और मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है। अट्ठाइस लब्धि तप विधि। शुभ दिन, शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में गुरु के पास से विनयपूर्वक अट्ठाइस लब्धि तप ग्रहण करे । इस तपस्या में अट्ठाइस उपवास करने होते हैं। जिस दिन जिस लब्धि का उपवास हो उस दिन उसी नाम का जाप करे तथा स्तवन पढ़े या श्रवण करे । यथाशक्ति देव वन्दनादिक प्रतिक्रमण | करे धार्मिक क्रियायें भी करे और उद्यापन करे । इस तपस्या से बुद्धि निर्मल होती है तथा आनन्द होता है ऐसा शास्त्रकारों का कथन है । चतुर्दश पूर्व तप विधि उत्तम दिन देखकर तपस्या ग्रहण करे । इसमें चौदह उपवास करने होते हैं । जिस दिन जिस पूर्व का उपवास हो उसी पूर्व के नामसे २० माला फेरे और स्तवन पढ़े या श्रवण करे। स्तवन में १४ पूर्व के । नाम तथा विधि दी गई है उसी प्रकार गुरु से समझ कर भव्यात्मा तप आराधन करे इस तपस्या से ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय होकर उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है। तिलक तपस्या विधि शुभ दिन, शुभमुहूर्त में गुरु के पास से तिलक तपस्या ग्रहण करके कुल तीस उपवास क्रमशः करे । प्रथम ऋषभदेव स्वामी के छह उपवास करे | इन उपवासों में "श्री ऋषभदेव स्वामी सर्वज्ञाय नमः” इस पद का , दो हजार जाप करे । तत्पश्चात् श्री महावीर स्वामी के दो उपवास करे । इन दो उपवास के समय "श्री महावीर सर्वज्ञाय नमः” इस पद की वीस माला फेरे और यथाशक्ति धर्म ध्यान करे । इनके पीछे क्रमशः बाइस तीर्थङ्करों के बाइस उपवास करे । जिस दिन जिस तीर्थङ्कर का उपवास ไดไไไไไไดไไดไไไดไไดไไไไไไดไดไไไไไไดไไดไดไดไไดไขใจไดตไพศไทยไปไม่ได้ไละไดไไไดไไดไดไไไดไปัจจในไอพไพไรสักไดไอนได้ใจไดสไตไดไลนคไตไลไกใจได้ในไตใจนไดใดใดใดใดไดไไดไดไไไไไไไไไไไไไไไง E Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You tanto foto foto Yatak Yokomitatutto) विधि-विभाग १६१ हो, उस दिन उसी पद की बीस माला फेरे और शेष विधि स्तवन के अनुसार गुरु से समझ कर सम्पूर्ण करे । इस तपस्या से चरम शरीरी तथा अनन्तानन्त सुखों की प्राप्ति होती है । सोलिये तप विधि क्रोध, मान, माया, लोभ, क्रमशः इन चारों कषायों के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन इनके द्वारा एक एक के चार २ भेद होनेसे १६ भेद होते हैं चूंकि ये ही हमारे मोक्षरूपी सुखमें विशेष कर बाधक हैं अतः इनको निवारण करने के लिये तपस्वी को १६ तप की तपस्या करनी होती है । पहले दिन एकासणा, दूसरे दिन णिव्वि तीसरे दिन आयंबिल और चौथे दिन उपवास, इस तरह अनुक्रम से चार बार व्रत करके १६ दिन की तपस्या सम्पूर्ण करे । तपश्रर्या के दिन १६ तप का स्तवन श्रद्धापूर्वक पढ़े अथवा श्रवण करे । तप पूर्ण होने पर यथाशक्ति उद्यापन करे । इस तपस्या से निश्रय ऋद्धि को भोगता हुआ सिद्धि ( मोक्ष ) को प्राप्त करता है । उपधान तप प्रवेश विधि जब बहुत से श्रावक और श्राविकाएं उपधान तप करने वाली हों तो संघ के नाम से अच्छा चन्द्रमा देखना | अगर एक श्रावक या एक श्राविका उपधान तप करे तो अपने नामसे अच्छा चन्द्रमा देख कर उपधानवाही संध्याको गुरु महाराजके पास आ इरियावही • कह कर खमासमण दे अमुक 'उपधान तवे पवेसह' कहे । गुरुके 'पवेसामो कहने के बाद णमुक्कारसी करना, अंगपडिलेहण संदिसाऊँ' कहने पर 'तहत्ति' कहे । पीछे चउ - व्विहार करे या पानी पीवे अथवा भोजन करे इसकी कोई बात नहीं । अगर किसी कारण से संध्या को खमासमण न दी हो तब प्रतिक्रमण के समय से पूर्व तथा पीछली रातमें खमासमण देना । प्रतिक्रमणके समय प्रतिक्रमण करना । णमुक्कारसी का पचवाण करना । पीछे सूर्य के उदय होने पर गुरु महाराज अथवा वाचनाचार्य के पास जाना । वहां प्रथम दो उपधानों 21 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन-रत्नसार में ( णमोकार के और इरियाबही ० के ) प्रारम्भ में अवश्य 'नंदी' की स्थापना करनी और इन्हीं का उत्क्षेप भी नंदी में ही करना । शेप उपधानों में नंदी का नियम नहीं है । उसके बाद सुबहमें पहले उत्क्षेप करे उसके बाद पोसह सामायिक लेवे पीछे दो बन्दना देकर पञ्चकखाण करे फिर मुंहपत्ति पूर्वक सुख तपकी दो वन्दना देवे । उपधाप तप विधि पंच मंगल श्रुत णमोकार उपधान करनेवाला, १२ उपवास, २४ आयंबिल ३५ णिव्वि, ४८ एकास करके १२ उपवासका नियम पूर्ण करे । पीछे णमो अरिहंताणं' से लेकर 'णमोलोए सव्व साहूणं' तक पांच अध्ययनोंकी वाचना एक दिनमें लेवे । उसके बाद 'एसी पंच ' णमोक्कारो०' से लेकर 'पढ़मं हवइ मंगल तक तीन अध्ययनों की दूसरे दिन वाचना देवे । फिर इस 'णमोकार के आठों अध्ययनों की एक ही वाचना एक दिनमें लेत्रे | ६ आयंबिल तथा तेला करे । तेलेके पारने में आयंबिल करे, फिर तेला तथा आयंबिल करे । इस प्रकार तीन तेले और ६ आयंबिल करें और आठों अध्यनों की एक ही दिनमें वाचना लेवे | इस तरह ८ आयंबिल तथा तीन तेले मिलाने से तेरह उपवास हुए | यदि पंच मंगल ' णमोक्कार २० का पहला उपधान अविधि से किया हो तो २० पोसह तथा १२ उपवास करें | और विधिसे किया हो तो १६ पोसह १२ उपवास १ एकास करे | यह वीसड़ नामका पहला तप है | अब दूसरा तप 'इरियावहीं' के उपधानमें आठ अध्ययन तथा ३ अन्त की चूलिका इसमें भी पहले की तरह १२ उपवास आयंबिलादि करे। पीछे ‘इच्छाकारेण संदिसह॰' से लेकर 'जमे जीवा बिराहिया' तक एक वाचना लेनी चाहिये और 'एगिढ़िया ०' से लेकर 'ठामि काउसग्गं०' तक दूसरी वाचना हुई और एक ही वाचना लेनी हो तो पहले की तरह ८ आयंबिल तथा ३ तेले करके लेवे 'इरियाबही . ' श्रुतस्कन्ध का बीसड़ नामका तप अविधि से Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇkhattathalaalalడండడం వచనందనవంతుడattatre विधि-विभाग .. १६३ WwwmannamrunnerminawwarruPARAMPAwarManipurNAPAN ननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननामा किया होतो, २० पोसह, १२ उपवास करे । विधि से किया होतो तो १६ पोसह और १२ उपवास १ एकासण करे । अब तीसरा उपवास भावअरिहंत का तप १९ उपवास का नियम पूर्ण करके ३ वाचना लेवे पहले १ तेला करे पीछे ‘णमुत्थुणं.' से लेकर 'गंध हत्थीणं' तक पहली वाचना। फिर १६ आयंबिल करे 'लोगुत्तमाणं.' से लेकर 'धम्मवरचाउरंतचकवट्टीण' तक दूसरी वाचना लेवे। पीछे १६ आयंबिल करके 'अप्पडियवरणाण०' से लेकर 'सव्वे तिविहेण वंदामि' तक तीसरी वाचना लेवे । यह तीसरा उपधान ‘णमुत्थुणं पैंतीसड़ नामका है यदि विधि से किया हो तो ३५ पोसह १९ उपवास और अविधि से किया हो तो ३९ पोसह २३ उपवास करे। अब चौथे स्थापना अरिहंत श्रुतस्कन्ध का उपधान अध्ययन तीन, जिसमें १ उपवास ३ आयंबिल 'अरिहंत चेइयाणं' से लेकर 'वंदणवत्तियाए, अणत्थ उससिएणं०, से अप्पाणं वोसिरामि तक पहली वाचना, यह स्थापना अरिहंत का चौथा उपधान चउकड़ नामका, जिसमें ४ पोसह २ उपवास १ एकासण करे। नाम अरिहंत चउवीसत्थे का पहले तेला करे पीछे 'लोगस्स उज्जोअगरे.' से 'चउवीसंपि केवली तक पहली वाचना लेवे, फिर १२ आयंबिल करके 'उसभमजिअंचवंदे.' से पासंतहवडमाणं च' तक दूसरी वाचना, फिर १३ आयंबिलकर एवंमए अभित्थुआ० से 'सिद्धासिद्धिं मम दिसंतु' तक तीसरी वाचना लेवे। ये नाम अरिहंत चउवीसत्थेका अट्ठावीसड़ नामका तप विधिसे किया हो तो २८ पोसह २८ उपवास । या १५ उपवास १५ एकासण करे अविधिसे किया हो ३२ पोसह १७ उपवास १ एकासणकरे । सूत्रार्थ श्रुत स्कन्ध पहले १ उपवास पीछे ५ आयंबिल 'पुक्खरवरदीवड्डे०, से लेकर 'सुअस्स भगवओ करेमि काउसग्ग' तक एक वाचना, यह छहा उपधान सूत्रार्थक नामका छक्कड़,६ पोसह ३ उपवास १ एकासण करे। अब सिद्धार्थक श्रुत स्कन्ध सातवां उपधान पोसहसहित १ चउविहार ของใช้ในโรงได้ โดยใดใดใ ดใดใดใดใดใดในใจให้ได้ลดไปใช้ได้ใจดใจให้ใจให้ใคได้จากในปัจจใดใดใดใดใกลไกใจจดใกได้คนดูใดใดไวไกล ใจรักในใจไม่ได้ให้ไวไพไรให้ได้ไปไหวขอให้ใจไกลไกลไe ได้ไขใดใดใดไดให้ได้ใน Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2%ะให้ไปะใช้ในใจใetะใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใจได้นะคะ - जैन-रत्नसार उपवास करे, पीछे 'सिद्धाणं बुद्धाणं.' से 'तारेइ नरं व नारिं वा' तक एक वाचना लेनी चाहिये । यह सातवां उपधान माला का तप है। . ____अथ उपधान तप उत्क्षेप विधिः __प्रथम इरियावही• पडिक्कमे कह मुंहपत्ति पडिलेहे, दो वन्दना देवे पीछे खमासमण देकर उपधान वहन करनेवाला कहे—'पहले उपधान में पंच मंगल महाश्रुत स्कन्ध उक्खेवह' गुरु कहे-'उक्खेवामो।' पहले 'पंच मंगल उपधान महाश्रुत स्कन्ध उक्खेवावणियं नंदी पवेसा वणियं काउसग्गं करावेह' गुरु कहे 'करावेमो ।' पहले उपधान पंच मंगल महाश्रुत स्कन्ध उक्खेवावणियं नंदी पवेसा वणियं करेमि काउसग्गं,अणत्थ० काउसग्ग में लोगस्स. 'चंदेसुनिम्मलयरा' तक चिन्तवन करे । पार कर प्रकट लोगस्स कहें पीछे खमासमण देकर पहले उपधान पंच मंगल महाश्रुत स्कन्ध उक्खेवा वणियं चेइयाइ बंदावेह, गुरु कहे 'वंदावेमो।' वासक्षेपं करावेह, गुरु कहे 'करेमो' पीछे वासक्षेप पूर्वक सम्पूर्ण चैत्यवन्दन करे । ऐसे सब । उपधानोंमें उत्क्षेप जानना चाहिये।इतना विशेष है कि उपधानोंका पहले दो उत्क्षेप नंदी में ही करना चाहिये। शेष उपधानों के विषय में जब नंदी होय तब तो नंदी में करे और जो नंदी नहीं थापे तो प्रातः प्रवेश करने के दिन उत्क्षेप करना चाहिये,लेकिनजोजो उपधान वहन करे उस उसका नामोच्चारण करना चाहिये। उपधान वाचन विधि संध्या को प्रथम चउब्बिहार का पञ्चक्खाण कर इरियावही कह, मुंहपत्तिका पडिलेहणकर, दो वन्दना देवे । “पहले उपधान पंचमंगल महा। श्रुत स्कन्ध का प्रथम वाचन प्रतिग्रहण निमित्तं करेमि काउसग्गं, अणत्थ." । कहकर चारणमोकारकाकाउसग्गपारप्रगट लोगस्त कहे । फिर दो खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदिसह पहिले उपधान पंचमंगल श्रुतस्कन्ध प्रथम वाचन प्रतिग्रहणार्थ चंइयाई वंदावेह' । गुरु के 'वंदावेमो' कहने पर 'वासक्षेप करावेह' कहे। करावेमो कहनेपर पीछे गुरु वासक्षेप करे। तदनन्तर चैत्यवन्दन ཀཱསཱམཱམམྨནྟབམཝཱནྟཧཧཱཧབྷབནིཡཔཱརཱ ཨཱཝཏྟཾཨཱ༤ ཨམཱ ཨཱར་ཨཱརཱབཱ ཨ ཨཱ་མཱཡཱཀ མ དྡྷཾཨཱདཱག “' སཱམཱན པཏྟསམཱབཟཡཱམ། ཤཱཀྐབ དཨཱམཧཱམཧཱམཱཡསཙྩམཧཱཧཱཡཱ ཡྻ न्ट्र कूटप्रन्यूनतन्ना लुन्ज कम्बल बूल्लू ननन वन्यून प्रवद्र.प्र.प्र PATRKAR- Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ยใจได้ในใจไม่ได้ให้ได้ใกได้ใจได้ 6 koli kanhsili kolhahadaileksibleinlabliskiestatish Malialistiane ได้ใจได้ ไตปัด 5 6 ได้ ได้ ไอ ได้ 6 ได้ไค ในไตได้ดใน ไe ใย ด้ AI-Ekakolkatailash JhyakalatakaYYYAKNamlinks. विधि-विभाग १६५ | करे । पीछे उपधान वाही खमासमण देकर दोनों हाथों में मुंहपत्ति ले, मुख को ढांप आधा अंग नमाकर तीन बार पांचों अध्ययनों की वाचना लेवे । हरएक महाश्रुत स्कन्धके समाप्त होनेपर मिच्छामि दुक्कडं कहे।। तप सम्पूर्ण क्रिया निक्षेप विधि जिस दिन तपस्या सम्पूर्ण हो उस अन्तिम दिन की संध्या को चउविहार करके अथवा प्रातःकाल इरियावही० कह, मुंहपत्ति की पडिलेहणा कर दोवन्दना देवे। पीछे 'इच्छाकारेण तुम्भेअम्हं अमुक उपधान तप णिक्खेवह' | कहे । गुरु के णिक्खेवामो कहने पर खमासमण दे 'इच्छाकारेण संदि सह भगवन् अमुक तप निक्खेवणत्थं काउसग्गं करावेह कहे । गुरु के से 'करावेमो' कहने पर इच्छामि० अमुक तप 'णिक्खेवणत्थं करेमि काउसग्गं अणत्थः' कह एक णमोक्कार का काउसग्ग पार कर खमासमण देवे । पीछे अमुक उपधान तप णिक्खेवणत्थं चेइयाई वंदावेह कहे । गुरु के वंदावमो कहने पर चैत्यवन्दन करे । पडिपुण्णा विगय पारण विधि प्रभात समय गुरु के पास आकर अगर अलग प्रतिक्रमण किया हो। तो मुंहपत्ति की पडिलेहण कर दो बन्दना देवे । अगर गुरु के साथ प्रतिक्रमण किया हो तो भी दो वन्दना देवे । गुरु के 'पवेयणं पवेह कहने. पर 'पडपुण्णो विगय पारणयंकरेहति' कहे । फिर स्वइच्छानुसार पञ्चक्खाण करे। पीछे गुरु के सामने 'उपधान में अभक्ति या आशातना करी हो तो उसके लिये मिच्छामि दुक्कडं' कहे । क्षमा श्रमण विधि । उपधान वहन करने वाला व्यक्ति प्रभात समय में गुरु के पास * आकर गुरु की आज्ञा से 'इरियावही पडिक्कमे कह आगमन आलोचना करके पोसह सामायिक लेकर दो खमासमण पूर्वक पडिलेहण और अंग ॥ । पडिलेहण करे। पीछे मुंहपत्ति पडिलेहण करके पहले खमासमण से 'ओही । ४. पडिलेहण संदिस्सावेमि' । दुसरी खमासमण देकर 'ओही पडिलेहण' करूं। ใจ ได ได้ 6 ระดใช้ได้ 6 6 6 6 6 6 6 6 akatpak h ได้ ให้ไe ใคงใจ ไต ใจ ได 19 โค to 66 6th ไป5% ได้ ได้ ได้ t.ketstalkswarendra-THATARREARSwamanart 61 ไต ได้ไอโอไอ โอใจ ไอไร ใจได ไข ไy ใจปัด ใจไหม x Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ mamiwwwwwwwwww www wwwimarwas www.mmmmmmmmmmmmmnew అవును जैन-रत्नसार पीछे मुंहपत्ति पडिलेहण करके गुरु को वन्दन करे। पीछे गुरु कहे 'पवेयणं पवेह, तब उपधान वहन करनेवाला कहे इच्छा० अमुक उपधान निमित्तं निरुद्धं वा तवं करावेह । गुरु कहें-उपवासे आयंबिलेनिरुद्देति एकासणे, ऐसा कहे । पीछे १० खमासमण अनुक्रम से कहे-बहुवेलं संदिस्सादेमि १ बहुवेलंकरेमि २ वइसणं संदिरसावेमि ३ वइसणं ठाएमि ४ सज्झायं संदिस्साएमि ५ सज्झायं करेमि ६ पांगरणो,संदिस्साउं ७ पांगरणो पडिग्गहूं ८ कट्ठासणो संदिस्साउं ९ कछासणो पडिग्गहूं १० । इसके बाद मुंहपत्ति पडिलेहण करके दो वन्दन देवे, गुरु कहे सुख तप, तब उपधान । व्रत करने वाला कहे आपके प्रसाद से सुख है। . अब तीसरे पहर पडिलेहण करने के बाद स्थापना के आगे गुरुके हुकुम से इरियावही पडिकमे कह पहले खमासमण से पडिलेहण करूं दुसरे खमासमण से पोसहसाला प्रमाजू ऐसा कह कर मुंहपत्ति पडिलेहण करे। ऐसे दो खमासमण पूर्वक अंगपडिलेहण और मुंहपत्ति पडिलेहण करे। यहांपर अंग शब्दसे 'करिपट्ट' (कणदोरा, करधनी) जानना ऐसा गीतार्थोंने कहा है । पीछे वसति प्रमार्जन कर वहां पर उसी दिन यदि भोजन किया हो तब तो पहरने का वस्त्र पडिलेहण करे । बाकी वस्त्र पडिलेहण नहीं करे । और यदि उस दिन उपवास हो तो एक भी वस्त्र पडिलेहण करने की जरूरत नहीं है । पीछे गुरु के पास आकर 'इरियावही' पडिक्कमे कह पडिलेहणा करे अंग पडिलेहण गुरु के सामने करे । पीछे 'सज्झाय संदिस्सावेमि' सज्झाय करेमि आठ णमोकार का ध्यान करे। पीछे मुंहपत्ति पडिलेहण करके २ वन्दना देवे । तिविहार अथवा चउविहार का पञ्चक्खाण कर १० खमासमण अनुक्रम से इस प्रकार दे ओही पडिलेहण संदिस्साउं १ ओही पडिलेहण करूं २ सज्झाय संदिस्सा ३ सज्झाय करूं ४ वेसणू संदिस्साउं ५ वेसणू ठाउं ६ कट्ठासणो संदिस्साउं ७ कट्ठासणो पडिग्गहूं ८ पांगरणो संदिस्साउं ९ पांगरणो पडिग्गहूं १० । पीछे मुंहपत्ति पडिलेहण करके दो वन्दना दे सुख మనము మనముననున్ననననననననననన తనననననన Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग १६७ साता पूछे पीछे सर्वोपकरण पडिलेहण करे टट्टी पेशाबके स्थान आदिकी पडिलेहण करे, और जिस दिन भोजन करे उस दिन पौन प्रहर पडिलेहण के बखत थाली कटोरादिक सर्व उपभोग के पात्रादिक पडिलेहण करे | उपवास के दिन पडिलेहण नहीं करे। तीसरे पहर की विधि तथा पक्खी प्रतिक्रमण में असिज्झाई काउसग्ग न करे तो आगामी पक्खी तक सर्व सिद्धान्त की असिज्झाई हो । इरियावही ० का पाठ भी पढ़ना नहीं भूले । इसलिये असिज्झाई में भी असिज्झाई का काउसग्ग करना चाहिये युग प्रधान श्रीजिनचन्द्र सूरिजी महाराज ने महोपाध्याय श्रीसागरचन्द्र गणि से पूछा तब ऐसा ही जबाब मिला योगारम्भ की यह विधि है | यहां चउमासी के योगारम्भ में वर्ष और महीने की शुद्धि का मुहर्त नहीं देखना चाहिये दिन शुद्ध देखना । मृदुध्रुवचरक्षिप्रे, बारे भौमं शनि बिना । आघाटनं तपोनंद्या, लोचनादि शुभं शुभम् ॥१॥ उपधान* तप विवरण गाथा । श्री मुहपत्ति पण्णासं, अट्ठारस आसणम्मि पडिलेह | दंडे पत्ते सोलस, कप्पे पणवीस गोयमा ॥१॥ पणवीस चोलपट्टे, गुरु कंबल तहय चेवसंथारे । कहासणे अट्ठारस, जपे दंडेअ पंचेव ॥२॥ इति प्रतिलेखणा । पण उववासा याम, अट्ठयं कुह अट्ठमं अंते । णमोक्कार उवहाणं, इत्तियमित्तं इरिया || १ || सक्कत्ययंमि तहएगं, अहमं अंबिलाणबत्तीसं । अरिहंत चेइयत्थए, चउत्थ माया मतियगं च ॥२॥ चउवीसत्थए मट्ठ मेगं, पणवीस हुँति आयामा । - णाणत्थयंमि चउत्थं, आयामा पंच उवहाणं ||३|| चउवीसं उववासा, एगासी अंबिलाण सव्वंगं । पंचोत्तरं च पोसह, सय वहाणे सुजाणे ||१|| * इस तपस्याका प्रचार विशेष गुजरात देशमें है । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल १६८ जैन-नसार बारस बारस एगो, पणवीस अट्ठाइ पाण पण्णरस । अट्ठय उववासा, सव्वंगं सढ चउसठ्ठी ॥५॥ वकार सहिय पोरिसी, पुरमढ्ढ अवढ्ढ एग दुभत्तेहिं । एगट्ठाणय णिविगई, विलेहिं अत्थं विलेणं च ॥६॥ पण याला चउबीसं, सोलस चउचउहि अट्ठहि कम्मेणं । चउइ दुहिय एगेणय, आयरणाहोइ उववासे ॥७॥ पैंतालीस आगम तप विधि www.ron गुरु के पास शुभ दिन पैंतालीस आगम तप ग्रहण करे और दृज, पञ्चमी, अष्टमी, ग्यारस तथा चौदस आदि ज्ञान तिथिके दिन अनुकमसे उपवास और एकास करे । जिस दिन जिस आगम का जाप करना हो उस दिन उस आगम का जाप करे और पढ़ें । सिद्धान्त लिखावे, शास्त्र छपवावे, पढ़नेवालों की यथाशक्ति सहायता करे और ज्ञान की वृद्धि करे । पैंतालीस आगमका स्तवनपढ़ अन्यथा किसी दूसरे से श्रवण करे । इस प्रकार ४५ दिन पूर्ण होने पर पैंतालीस आगम की पूजा करावे । मन्दिर अथवा - उपाश्रय में ज्ञानोपकरण चढ़ावे । इस तपस्या के फलस्वरूप जड़ता तथा मूर्खता का नाश हो सुबुद्धि और शुद्ध आत्मज्ञान प्राप्त होती है । ४५ आगमों का जाप भी ४५ आगमों के स्तवन के साथ दिया गया है । ग्यारह गणधर तपस्या विधि शुभ दिन शुभ मुहूर्त्तमें गुरुके मुखसे ११ गणधर तप ग्रहण करे । ग्यारह दिन उपवास या एकासणा करे । जिस दिन जिस गणधर महाराज का तप हो उस दिन उन्हींके नामकी २० माला का जाप करे । स्तवन के साथ ही ग्यारह गणधरों के जाप दिये गये हैं । चूंकि ये भगवान् महावीर स्वामी के प्रमुख शिष्य थे, जाति के ब्राह्मण थे, और द्वादशाङ्गी वाणी के रचयिता थे । अतः माङ्गलिक होने पर भव्यात्माओं के लिये ये तप भी Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - विभाग १६६ आदरणीय है । इसलिये भव्य जीव गणधर तप की आराधना करें तथा गौतम रास पढ़ें अथवा सुनें । तप के पूर्ण होनेपर गणधरों की पूजा करावे, गुरु महाराजों की भक्ति करे और दान देवे, यथाशक्ति साधर्मी वत्सल करे । इससे अन्तमें पुण्य उपार्जन हो अनन्त (मोक्ष) अक्षय सुख की प्राप्त होती है । णमोक्कार तप विधि शुभ दिन गुरु के पास णमोक्कार तप ग्रहण करे । जिस पद के जितने अक्षर हों उतने ही उपवास करे, उसी पदकी २० मालाका जाप करे । णमो अरिहंताणं ७ उपवास तथा इसी पद की २० माला का जाप करे । णमो सिद्धाणं ५ उपवास तथा इसी पद की २० माला का जाप करे । णमो आयरियाणं ७ उपवास तथा इसी पद की २० माला का जाप करे । णमो उवज्झायाणं ७ उपवास तथा इसी पद की २० माला का जाप करे | णमो लोए सव्वसाहूणं ९ उपवास तथा इसी पदकी २० माला का जाप करे । एसो पंच णमोक्कारो ८ उपवास तथा इसी पदकी २० मालाका जाप करे । सव्वपावप्पणासणो ८ उपवास तथा इसी पद की २० माला का जाप करे । मंगलाणं च सव्वेसि ८ उपवास तथा इसी पदकी २० माला का जाप करे । पदमं हचइ मंगलं ९ उपवास तथा इसी पद की २० माला का जाप करे । इस प्रकार ६८ उपवास करे और प्रतिदिन णमोक्कार तप का स्तवन पढ़े । तप पूर्ण होनेपर यथाशक्ति उद्यापन करे । चौदह पूरब का सार इस णमोक्कार तप के करनेवालेको अनेक सम्पदायें प्राप्त होती हैं और अन्तमें शाश्वत मोक्ष पद की प्राप्ति होती है । जयति संयुक्त नवपद ओली विधि चैत्र सुदी ७ से अथवा आसोज सुदी ७ से ओली शुरू करे । कदाचित अगर तिथि घटी हो तो छह से, अगर बढ़ी हो तो अष्टमी से शुरू करे । नौ दिन बरावर आयंबिल करे । भूमि को शुद्ध करके चौकी अथवा पढ़े के ऊपर सिद्ध चक्रजी की स्थापना करे । 22 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ b anninthaila १७० ilitatiడుదనందనవనందదదదదదదది కుడవసాక जैन-रत्नसार wwwwwwwwwwwwwwwwwwwriwomewwwrarusuawmraniwaranaamaaranamannmanmaina సమయమున తపోమ హానవవనతనంలోనే .. प्रभात समयमें राई प्रतिक्रमण करके, वस्त्रों की पडिलेहण करे फिर मन्दिरजी में अथवा जहां सिद्ध चक्रजीकी स्थापना की हो वहां आकर पांच णमुत्थुणं० से वन्दना करे । पीछे नव मन्दिरों के दर्शन कर नव चैत्यवन्दन करे, अगर नव मन्दिरों का योग न हो तो एक ही मंन्दिर में * एक बार चैत्यवन्दन करना चाहिये । हमेशा दिनमें तीन बार पूजा करे, । प्रातःकाल वासक्षेप से पूजा करे। दोपहर के समय स्नात्र पूजा कर अष्ट प्रकारी पूजा करे और शाम को धूप, दीप से पूजा करे। दोपहर के समय गुरु के पास आकर राई आलोवे । अन्मुडिओमि के पाठ सहित आयंबिल का पच्चक्खाण लेवे । प्रथम अरिहन्त पद का वर्ण श्वेत (सफेद ) है अतएव चावल और गरम पानी से आयंबिल करे। पीछे अरिहन्त के बारह गुणों को विचार कर नमस्कार करे। प्रत्येक गुणोंके पूर्व में इच्छामि०१ से खमासमण देना चाहिये । इस प्रकार नमस्कार करके अणत्थ०२ कहकर १२ लोगस्स का काउसग्ग कर प्रगट लोगस्स. कहे । पीछे स्वस्थान पर जाकर चैत्यवन्दन करे । पच्चक्खाण पार आयंबिल करे । पीछे चैत्यवन्दन कर पाणहार पच्चक्खाण करे। 'ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं' इस पद की २० माला फेरे । श्रीपाल चरित्र पढ़े अथवा सुने । पौन पहर दिन बाकी रहने से तीसरी बार णमुत्थुणं से देव वन्दन करे । फिर सामायिक ग्रहण कर दिन रहते प्रतिकमण करे तथा मन्दिरजी में धूप पूजा कर आरती करे । सोने के पूर्व इरियावही०३ पडिक्कम कर चैत्यवन्दन करे । राई संथारा गाथा पढ़े अथवा सुने । जहां तक निद्रा न आवे वहां तक नवपद के गुणों का स्मरण करे । मन, वचन, काया से ब्रह्मचर्य का पालन करे । द्वितीय दिवस विधि इसी तरह दूसरे दिन भी प्रभातिक क्रिया करे । सिद्ध पद का लाल वर्ण है अतएव गेहूंका आयंबिल करे 'ॐ ह्री णमो सिद्धार्ण' इस पदकी २० తమతమ పావనముననుండattack १-पृष्ठ २। २-पृष्ठ ४१३-पृष्ठ ३१४-पृष्ठ ५८| लमत्रान्वयनमन्त्र बन्न नपत्रपत्र नबनननननननन्वन्त्रत्रयमपचनननननगगन Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~~~~,~;" विधि-विभाग १७१ माला फेरे । सिद्धपदके आठ गुण हैं अतएव ८ नमस्कार खमासमण सहित करे और अणत्य० कहे आठ लोगस्स का काउसग्ग करे | शेष विधि पूर्वोक्त करे । तृतीय दिवस विधि पूर्वोक्त विधि से प्रभातिक कृत्य करे। आचार्य पद का पीला वर्ण है। अतएव चने का आयंबिल करें। 'ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं' की २० माला फेरे । आचार्य पढ़के गुणों का खमासमण सहित छत्तीस नमस्कार करे | इस प्रकार करके अणत्य० पूर्वक ३६ लोगस्स का काउसग्ग करे पीछे पार कर एक लोगस्स० कह पूर्वोक्त शेष विधि सम्पूर्ण करे | चतुर्थ दिवस विधि ह्रीं णमो उवज्झायाणं' की २० माला फेरे । मूंग का आयंविल करे | उपाध्याय पद के गुणों को खमासमण सहित २५ नमस्कार करे । इस रीति से पच्चीस नमस्कार कर, अणत्य० सहित पच्चीस लोगस्स, का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स • कहें । पूर्वोक्त शेष सम्पूर्ण विधि प्रथम दिन की तरह करे | पञ्चम दिवस विधि ‘ॐ ह्री णमो लोए सव्वसाहूणं इस पद की २० माला फेरे । साधु पढ़ का रंग काला होने से उड़द का आयंबिल करे । साधु पद के सत्ताइस गुणों को खमासमण पूर्वक नमस्कार करे । सत्ताइस लोगस्स का काउसग्ग करे । शेष सम्पूर्ण विधि पूर्ववत् करे इन पञ्च परमेष्ठी के सब गुणों का जोड़ १०८ होता है अतएव माला में भी दाने १०८ होते हैं । षष्टम दिवस विधि 'ॐ ह्रीं णमो दंसण' की २० माला फेरे । दर्शन पढ़ का वर्ण सफेद होने से चावल का आयंबिल करें । सम्यक्त्व के ६० गुणों की खमान्नमण पूर्वक नमस्कार करे । १९४५ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఆ తరపున నుండుటకు తన వంతు వరకు చదువు చదవడం వలన పాడిన పావు గంట తర తరుగురు వండిన గుండు కవచం దుకు వంచనకు గురవుతుందట డివుండినది మనకు తలనుండి १७२ जैन-रत्नसार atkareindesistakestratatatatattitretclotholestatestakootacottattotaarateestorat.kkkakkabaaptashatasterstitishtakaalikattacksattootobilestolatikalaanasaladney पीछे ६७ लोगस्स का काउसग्ग करना। शेष विधि पूर्ववत जानना। सप्तम दिवस विधि "ॐ ह्रीं णमो णाणस्स' इस पद की २० माला फेरे। ज्ञान पद का उज्वल वर्ण है अतः चावल का आयंबिल करे। ज्ञान पद के गुणों को खमासमण पूर्वक ५१ नमस्कार करे। इस प्रकार ५१ नमस्कार करके । पीछे अणत्थ० पूर्वक ५१ लोगस्सका काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स. कहे । शेष विधि पूर्वोक्त है । अष्टम दिवस विधि ॐ ह्रीं णमो चारित्तस्स' इस पद की २० माला फेरे । चारित्र पद का उज्वल वर्ण है अतएव चावल का आयंबिल करे। चारित्र पद के गुणों को खमासमण पूर्वक ७० नमस्कार करे। इस प्रकार ७० नमस्कार करके । अणत्थ. सहित ७० लोगस्स का काउसग्ग पार प्रगट लोगरस० कहे । शेष विधि पूर्ववत् है । नवम दिवस विधि ___ॐ ह्रीं णमो तवस्स' इस पद की २० माला फेरे । चावल का आयंबिल करे । तप पद के गुणों को खमासमण पूर्वक ५० नमस्कार करे । प्रत्येक गुण के पूर्व में खमासमण देवे । इस विधि से ५० नमस्कार करके अणत्थ० पूर्वक पचास लोगरस का काउसग्ग पार प्रगट लोगस्स. कहे । शेष विधि पूर्वोक्त समझना । अन्त में नवमें दिन अधिक भक्तिभाव पूर्वक विधि अनुसार नवपद मण्डल पूजा करावे ( नवपद मण्डल पूजा विधि आगे दी गई है।) १० दिन तप का उद्यापन करे । मन्दिर के खाते में और ज्ञान के के खाते में तथा गुरु को यथाशक्ति दान करे । साधर्मीवत्सल करे । M Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ వదులు తుందటడులు వుండునుడు గురువును తడపడుతుండటం దగర పడు विधि-विभाग १७३ rrrrrrrrrammar nemamrpawormananeer नवपद जयति (वन्दना). नक पद जयति, चैत्यवन्दन, स्तवन थूई अरिहन्त पद की १२ जयति ॥१॥ अशोक वृक्ष प्रातिहार्य संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः॥ २ ॥ पुष्प वृष्टि प्रातिहार्य संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥ ३ ॥ दिव्य ध्वनि प्रातिहार्य संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥ ४ ॥ चामरयुग प्रातिहार्य संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥५॥ स्वर्ण सिंहासन प्रातिहार्य संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥६॥ भामण्डल प्रातिहार्य संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥७॥ दुन्दुभि प्रातिहार्य संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥८॥ छत्रत्रय प्रातिहार्य संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥९॥ ज्ञानातिशय संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥१०॥ पूजातिशय संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥११॥ वचनातिशय संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥१२॥ अपाया पगमातिशय संयुक्ताय श्री अरिहन्ताय नमः ॥ अरिहन्त पद चैत्यवन्दन जय जय श्री अरिहन्त भानु, भवि कमल विकाशी । लोकालोक अरूपि रूप, सम वस्तु प्रकाशी ॥१॥ समुद्घात शुभ केवले, क्षय कृत मल राशी । शुक्ल चरम शुचि पाद से, भयो वरन अविनाशी ॥२॥ अन्तरङ्ग रिपु गण हणिए, हुए अप्पा अरिहन्त । तसु पद पंकज में रहत, हीर धरम नित सन्त ॥३॥ अरिहन्त पद स्तवन श्री तेरम गुण बसि के कन्त, कर्म कुभंजे श्री अरिहन्त मन मानले । अष्ट समय में समयें तीन, सर्व आहार थी होवे हीन मन मानले ॥१॥ बादर का ये मन वच भोग, तनु तनु से फुन दृढ़ तनु योग मन मानले । सूक्ष्म काय ते मन वच रोक, निज वीर्य ताकं कर फोक मन मानले ॥२॥ * तीर्थकर भगवान को केवल ज्ञान होनेके वाद विहारकाल में उपरोक्त अतिशय होते है। Beliandlalonlinoloniatelnelialecketelwalisiakhalandarlarkikheleelakaalatkirimerokelewrinkakirloskenairlmisleeleoinkinlaololarlaliplinairankieiroilatiniantrellookindialorlelalasardaalathortioristiatestantastentilatathelasasudsystatus Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arrerana... Prerrecreerererererererererererere ఇంతవరకు ముందు ముందు గుండు వరకు చదువు చదువును ముందు నుంచునపడినపుడు యువతను పడిన సమంత నునుపమను పట్టు १७४ जैन-रत्नसार . संज्ञी मात्र के मन व्यापार, बे इन्द्रिने वाक्य प्रचार मन मानले । । आदि समय रह्यो पण कसु जीव, सूक्ष्म लह्यो तिण जोगअतीवमनमानले ॥३॥ एषां योग थी समये एक, हीना संख गुणों कर छेक मन मानले । समया संखे जोग निरोध, कृत्वा जो लह्यो जोगी सोध मन मानले ॥ वेद समें ना हारता पाय, कुशल कहे ते श्री जिनराय मन मानले । तेरमें गुण में गुण समें देव, आपो सा जग नित मेव मन मान समाप्रमग्राममन न अरिहन्त पद थुई सकल द्रव्य पर्याय प्ररूपक, लोका लोक स्वरूपो जी । केवलज्ञानकी ज्योति प्रकाशक, अनन्त गुणे करि पूरो जी ॥ तीजे भव थानक आराधी, गोत्र तीर्थङ्कर नूरो जी । वारे गुणांकरी एहवां अरिहन्त, आराधो गुण भूरो जी ॥१॥ श्री सिद्ध पद की ८ जयति ___॥१॥ अनन्त ज्ञान संयुक्ताय श्रीसिद्धाय नमः॥२॥अनन्त दर्शन संयुक्ताय श्री सिद्धाय नमः ॥३॥ अव्याबाध गुण संयुक्ताय श्री सिद्धाय नमः ॥॥ अनन्त चारित्र गुण संयुक्ताय श्री मिद्धाय नमः ॥५॥ अक्षय स्थिति गुण संयुक्ताय श्री सिद्धाय नमः ॥६॥ अरूपी निरंजन गुण संयुक्ताय श्री सिद्धाय नमः ॥७॥ अगुरु लघु गुण संयुक्ताय श्री सिद्धाय नमः ॥८॥ * अनन्तवीर्य गुण संयुक्ताय श्री सिद्धाय नमः ॥ सिद्ध पद चैत्यवन्दन श्री शैलसी पूर्व प्रान्त, तनुहिनत भागी। पुच पओग असंग से, ऊरध गत जागी ॥१॥ समय एक में लोक प्रान्त, गये निगुण निरागी। चंतन भूपं आत्म रूप, सुदिसा लहि सागी ॥२॥ केवल दंसण णाणथी ए रूपातीत स्वभाव, सिद्ध भये तसु हीर धर्म, वन्दे धरि शुभ भाव ॥३॥ * सिद्ध भगवान् में यह आठ गुण मोक्ष में जाने के बाद पैदा हो जाते हैं। •PRAKALost talatabadattitisatistatataditilashtanitattoobhangstatistattattattitudotbhetitikimottitilbhalebissauththkaththikaitbudhlata KEYEN --- -77maratrina তেল-নুভশশুণত্বশান্তস্বলশ্বশ্বখণ্ডৰ্ম্মম্মম্মম্মম্মম্মম্মম্ম Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******* विधि-विभाग सिद्ध पद स्तवन थारे महंला ऊपर मेह झरोखे बीजली || (ए चाल ) अप्ट वरस नग मास हीना कोडी पूर्व में, म्हारा लाल ही ना कोडी पूर्व में । उत्कृष्टी करे बास संयोगी धाम मे || म्हारा लाल संयोगीधाम में अजांगीके अन्त तजे भवभव्यता म्हारा लाल तजे भव भव्यता । शैलेशी १७५ हे कर्म द गुणश्रेणिता म्हारा लाल दले गुण श्रेणिता ॥ १॥ ह्रस्वाक्षर पञ्च काल रहे ते योग में म्हारा लाल रहे तेयोगमें । तेरस प्रकृति नो अन्त करीने अन्तमें (म्हारालाल करीने अन्तमें) || गमण करे नगरज स्से अक्रिय होयने (म्हारालाल अक्रिय होयने ) पुव्व पयोग असंग स्वभाव अवधने म्हारालाल स्वभावबंधने ||२|| इषु गुण नव परमाण योजन लक्षे कही म्हारालाल योजन लक्षे कही । वर्त्तुल विसदा भाष निरा लंबन सही म्हारालाल निरालंवन सही ॥ मध्ये योजन अष्ट घनाकृति अन्त में महालाला घनाकृति अन्त में । मक्षी पक्ष थी हीणभणी सिद्धान्त में म्हारालाला भणीसिद्धान्त में ||३|| तनु पब्भारा नाम शिला से योजने म्हारालाल शिला से योजने । लघु अंगुल बत्तीस प्रमाण अवगाहना म्हारालाल प्रमाण अवगाहना । वृद्धि धन शत पञ्च गुणासे हीनता, म्हारा लाल गुणासे हीनता मिलिया एकमें अन्त अवाधा नाल ही म्हारा लाल अबाधा नाल ही ||४|| अष्ट प्राण धरि रम्य सिरीही जो सही म्हारालाल सिरीही जो सही, बीजो पढ़ श्री सिद्ध घरो मन गेह में म्हारालाल धरो मन गेह में । कुशल भये जग जीव मिलांगा ते हमें म्हारारालाल मिलांगा ते हमें ||५|| सिद्ध पढ़ थुई अष्ट काम कू दमन करीनें, गमन कियो शिववासीजी । अव्यावाध सादि अनादि, चिदानन्द चिराशीजी || १|| परमातम पद पूर्ण विलाशी, अघ धन दाय विनाशीजी । अनन्त चतुष्टय शिव पढ़ ध्यावी, केवल ज्ञानी भाषीजी || २ || Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रनसार Prera wwwmarmarw armirand . .. ............... .... ใด ใดใด ไพไรได้ไไดได้ ได้ ไดจะไดได้ใน นได คน, ที่ได้ให้ได้ไผศไe ไว้ในใจไดไไไดไไดได้ใจนไดพาดไดไหนใดจงใจไดไอดไนไต ไอนไขใดใดไดไไดได้จองไว้ใจได้ ใจป้อม आचार्य पद की ३६ जयति १ प्रतिरूप गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः। २ मूर्यवत्तेजस्वी गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । ३ युगप्रधान गुण संयुक्ताय श्री आचायाय नमः । ४ मधुर वाक्य गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । ५ गांभीर्य गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । ६ धैर्यगुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । ७ उपदेश गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । ८ अपरि श्रावी गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । ९ सौम्य प्रकृति गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । १० शीलगुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । ११ अविग्रह गुण * संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । १२ अविश्यक गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । १३ अचपल गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । १४ * प्रशान्त बदन गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । १५ क्षमागुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । १६ ऋजुगुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । १७ । मृदु गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । १८ सर्व संग मुक्ति गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः १९ द्वादश विधि तप गुण संयुक्ताय श्री आचायाय नमः । २० सप्तदश विधि संयम गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः ।। २१ सत्यव्रत गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । २२ शोच्य गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । २३ अकिंचन गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । २४ ब्रह्मचर्य गुण संयुक्ताय श्री आचार्याय नमः । २५ अनित्यभावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । २६ असरण भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः | २७ संसार स्वरूप भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । २८ । एकत्व स्वरूप भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । २९ अन्यत्व भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । ३० अशुचि भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । ३१ आश्रव भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । ३२ संवर भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः | ३३ निर्जरा भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । ३४ लोक स्वरूप भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । ไกโลงได้ ลดไดไดไดดไไไไไไไไดไไดไดไดไไดไไไไดไไไไไไไไ มีใคงไปัดไดไขคไต มี ไฟังคมีใดไดไไไไไไไไไไดไไดไไดไไไไดไคลใดได้ไงไไดไไดไไดไไไดไปันใดไไดไไดไได้ YA fet ไดได้งได้ ไม่ ไดไคลไดไไไไดไไดได้ไม่ไกลได้ดไปในดงไงใA Aadhaling ได้ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग १७ ३५ वोधि दुर्लभ भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । ३६ धर्म दुर्लभ भावना भावकाय श्री आचार्याय नमः । आचार्य पद चैत्यवन्दन जिन पद कुल मुख रस अनिल, मित रस गुणधारी । प्रबल सबल घन मोह की, जिणतें चमुहारी ॥१॥ ऋचादिक जिन राज गीत, नय तय विस्तारी । भव कूपें पापे पड़त, जग जन निस्तारी ॥२॥ पंचा चारी जीव के, आचारज पद सार । तिन. कू वन्दे हीर धर्म, अष्टोत्तर सौ बार ॥३॥ आचार्य पद स्तवन खंति खड़ग थी जेणे, हण्यो क्रोध सुभट सम देणें हो ( गणपति गुणपेखी ) मान महागिरि वयरें।अति शोभन मद्दव वयरें हो ( गणपति गुणपेखी ) ॥१॥ दंभ रूप विषवेली वर अञ्जव कीले ठेली हो (गणपति गुणपेखी ) । मूर्छा बेल थी भरियो, लोह सागर मुत्तं तरियो हो ( गणपति गुण पेखी ) ॥२॥ मदन नाग मद हीनो, जिण दम शम जन्त्रे कीनो हो (गणपति गुणपेखी)। मोह महा मल्ल ताड्यो, पुण वैराग मुगरे पाडयो हो । ( गणपति गुणपेखी) ॥३॥ दोष गयंद वश कीनो, धरि उपशम । अंकुश लीनो हो (गणपति गुणपेखी ) अंत रंग रिपु भेद्या, सुर वर पिण जिणणिपेध्या हो ( गणपति गुणपेखी) || रसकृति गुण थी लीनो । मृन अरथे आगम पीनो हो (गणपति गुणपखी ) । आचारज पढ़ रहवा, धरि जीव कुशलता सेवो हो ( गणपति गुणपेखी ) ||५|| आचार्य पद थई पंचाचार के पाले उजवाले. दोर रहित गुणधार्ग जी । गुण छत्तीने आगम धारी, द्वादश अंग विचारी जी ॥ . या महागज में : Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ నుండి నడుము చుటttalat h tahatahattarintibiotitatitis sistatatatatats १७८ जैन-रत्नसार गनपत्र salelandisialistkilatiotailiticlestiotilakobalatkariilialilialilinderinlannel बनननननननननननननननननननयमन प्रस्त-ऋग्रस्ट प्रबल सबल घनमोह हरण कू, अनिल समो गुणवाणी जी। क्षमा सहित जे संयम पाले, आचारज गुणध्यानी जी ॥१॥ उपाध्याय पद की २५ जयति १ आचारांग सूत्र पठनगुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । २ सुयगडांग सूत्र पठन गुण युक्ताय श्रीउपाध्याय नमः । ३ श्री ठाणांग सूत्र पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः। ४ श्री समवायांग सूत्र पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । ५ श्री भगवती सूत्र पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । ६ श्री ज्ञाता सूत्र पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । ७ श्री उपाशक दशा सूत्र पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । ८ श्री अंत गड दशा सूत्र पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । ९ श्री अणुत्तरोववाई सूत्र पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । १० श्री प्रश्न'व्याकरण सूत्र पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । ११ श्री विपाक सूत्र पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । १२ उत्पाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । १३ आग्रायणी पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय * नमः । १४ वीर्य प्रवाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । १५ । अस्ति प्रवाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । १६ ज्ञान प्रवाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । १७ सत्य प्रवाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । १८ आत्म प्रवाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । १९ कर्म प्रवाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । २० प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । २१ विद्या प्रवाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । २२ अबिंध्य प्रवाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । २३ प्राणायाम प्रवाद पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय. नमः । २४ क्रियाविशाल पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । २५ लोक बिन्दुसार पूर्व पठन गुण युक्ताय श्री उपाध्याय नमः । * उपाध्याय महाराज २५ गुणोंकरके सहित होते हैं, वर्तमानमें ११ अङ्ग १२ उपाङ्ग ६ छेद ग्रंथ १० पइण्णा ६ मूलसूत्र इन ४५ आगमोंके जानकार होने चाहिय ।। KHATEENEMNANGIKARATETrkinrokarist.tokistantitariksha k t-Kaantertainsteacticalbactatulati k alaatkaristo नत्रजननयनमन्त्र Paamrosगधग्रनल्यऋणयप्रणप्रणश्रवस्त्रअननननननयमावली Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ నరుడు నడుము అమlectriticallడుడుడalalalalalalalalathటుందhtalakattathala विधि-विभाग ............... १७६ .. minarurnwww......... andostantialanloglosledislaG उपाध्याय पद चैत्यवन्दन धन धन श्री उवझाय राय, सठतां धन भंजन । जिनवर दिसत दुवाल संग, कर कृत जग रंजन ॥१॥ गुण वण भंजण मण गयंद, सुय शृणि किय गंजण । कुणा लंघ लोय लोयणे, जत्थय सुय मंजण ॥२॥ महाप्राण में जिन लह्योए, आगम से पद तुर्य। - तिन पें अहि निशि हीर धर्म, वन्दे पाठक वर्य ॥३॥ उपाध्याय पद स्तवन सांवलिया अलगा रहोनें (ए चाल)हुयने हुयने हुयनेदुरी हुयने। चेतन भाखें सठने (दुरी हुयने ) तूं मुझ पास क्यू आवे (दुरी हुयने ) तुझ ने | कुण बतलावे (दुरी हुयने )। तो संगे निज पंचेन्द्रीनो, रचना चरम भुलाणो । णाणावरणी खय उपशम से भावेन्द्री मंडाणो (दुरी हुयने) ॥१॥ द्रव्येते परजाप्ते कीना, जाति नामव्यपदेशे, एवंतो गो तुरग गजादिक, क्षणकर्मे उपदेशे ( दुरी हुयने ) ॥२॥ इत्यादिक बहु मुझ कू शंका, तेरे संगे लागी। नील वर्ण की समता सेती, मैं भयो तोसूं रागी ( दुरी हुयने ) ॥३॥ उपकहिये हणियो भवि यानो, अधियां लाभत आय । आधीनां मन पीड़ाना में, मायो येन विलायें ( दूरीहुयने ) ॥४॥ आधिक्ये स्मरिये वर आगम सूत्र से ते उवझाय । तत्सेवा ते हणि सठतां कू चेतन. कुशलता पाय ( दूरी हुयने ) ॥५॥ उपाध्याय पद थुई अंग इग्यारे चउ दे पूरब, गुण पचवीसनाधारीजी। सूत्र अरथधर पाठक कहिये जोग समाधि विचारीजी ॥ तपगुण सूरा, आगम पूरा, नयनिक्षेपै तारीजी ॥ मुनि गुणधारी गुण विस्तारी, पाठक पूजो अविकारी जी ॥१॥ . odalpatibiotibanaimalakareesh Yasmital IndianR ainkinYAYAakanki k eeyatmakatekasisit-throamrahtikottarts रकमम लयप्रवराष्ट्रप्रयागंध-प्रचन्द्र i te Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन-रत्नसार wwwwwwwwwwwwwww www. DialolanaeiolinesscdiachanlalitAREERIAGESMarreHA ATHAGRA साधु पद की २७ जयति ॥१॥प्राणातिपात विरमणवत युक्ताय श्रीसाधवे नमः॥२॥मृषावाद विरमणबत युक्ताय श्री साधवेनमः ॥३॥ अदत्तादान विरमणबत युक्ताय श्री साधवे नमः ॥४॥ मैथुन विरमणव्रत युक्ताय श्री साधवेनमः ॥५॥ परिग्रह विरमण व्रत युक्ताय श्रीसाधवे नमः॥६॥ रात्रि भोजन विरमण व्रत युक्ताय श्री साधवेनमः ॥७॥ पृथ्वी काय रक्ष काय श्री साधवेनमः ॥८॥ अप्पकाय रक्षकाय श्री साधवेनमः ॥९॥ तेऊकाय रक्षकाय श्री साधवेनमः ॥१०॥ वाउकाय रक्षकाय श्री साधवेनमः ॥११॥ वनस्पतिकाय रक्षकाय श्री साधवेनमः ॥१२॥ त्रसकाय रक्षकाय श्री साधवेनमः ॥१३॥ एकेन्द्रिय जीव रक्षकाय श्री साधवेनमः ॥१४॥ बेइन्द्रिय जीव रक्षकाय श्री साधवेनमः ॥१५॥ तेइन्द्री जीव रक्षकाय श्री साधवे नमः ॥१६॥ चौरिन्द्री जीव रक्षकाय श्री साधवे नमः ॥१७॥ पञ्चेन्द्री जीव रक्षकाय श्री साधवेनमः ॥१८॥ लोभ निग्रह काय श्री साधवेनमः ॥१९॥ क्षमा गुण युक्ताय श्री साधवेनमः ॥२०॥ शुभभावना भावकाय श्री साधनमः ॥२१॥ प्रति लेखनादि क्रिया शुद्ध कारकाय श्री साधवे नमः ॥२२॥ संयम योग युक्ताय श्री साधवेनमः ॥२३॥ मनो गुप्ति युक्ताय श्री साधवेनमः ॥२४॥ वचन गुप्ति युक्ताय श्री साधवेनमः ॥२५॥ कायगुप्ति युक्ताय श्री साधवे नमः ॥२६॥ शीतादि द्वाविंशति परीसह सहन तत्पराय श्री साधवे नमः ॥२७॥ मरणान्त उपसर्ग सहन तत्पराय श्री साधवेनम: ॥ साधु पद चैत्यवन्दन दसण णाण चरित्त करी, वर शिव पद गामी। धर्म शुक्ल सुचि चक्रसे आदिम खय कामी ॥१॥ गुण पमत्त अपमत्त पें, भये अंतरजामी । मानस इन्द्रिय दमन भूत, सम दम अभिरामी ॥२॥ चारित्र धन गुण गण भरयो ए पंचम पद मुनिराजीतत्पद पंकजं नमत है हीर धर्म के काज ॥३॥ - * साधुओं में ये सत्ताइस गुण अवश्य होने चाहिये। .पालगणना प्रणालगनगणनणणय क्रमप्राणू Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - विभाग साधु पद स्तवन मालन मालन मत कहो (ए चाल ) निकषाया जग जन कहे । धारे चउगति वसन सेरोसहो ( मुनिन्दजी ) राग हीन भय तू करे । (साहिबा ) शिव रमणी से हेतु हो । ( मुनिन्दजी ) ॥ १ ॥ सर्व प्रमाद तजी रहे ( साहिबा ) छडे पूरब कोड़ हो ( मुनिन्दजी ) शत सो गम आगम करे ( साहिबा ) पामें कर्म निकन्द हो ( मुनिन्दजी ) || २ || प्रचला निद्रा में रही ( साहिबा ) | बारम गुणनो वास हो ( मुनिन्दजी ) ॥ स्थिति रस घात प्रमुख करे । ( साहिबा ) जो गुण संख्यातीत हो ( मुनिन्दजी )||३|| तोपिण तिण जगमें लही । ( साहिबा ) त्रिक घन गुण नीख्यात हो ( मुनिन्दजी ) ॥४॥ रयण त्र्यसे शिव पथें ( साहिबा ) साधन परवर जीव हो । मुनिन्दजी ) साधु हवइ तसु धर्ममें ( साहिबा ) कुशल भवतु जीव हो ( मुनिन्दजी ) ॥५॥ श्री साधु पद थुई सुमति गुपति कर संयम पाले, दोष बयालीस टाले जी । षट्काया गोकुल रखवाले, नव विध ब्रह्म व्रत पाले जी ॥ पञ्च महाव्रत सूधा पाले, धर्म शुल्क उजवाले जी । क्षपक श्रेणी करि कर्म खपावे, दमपद गुण उपजावे जी ॥१॥ सम्यक्त्व दर्शन पद की ६७ जयति १ परमार्थ संस्तव रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । २ परमार्थ ज्ञातृ सेवन रूप सद्दर्शनाय नमः | ३ व्यापन्न दर्शन वर्जन रूप सद्दर्शनाय नमः | ४ कुदर्शन वर्जन रूप सद्दर्शनाय नमः | ५ शुश्रूषा रूप सद्दर्शनाय नमः । ६ धर्म राग रूप सद्दर्शनाय नमः । ७ वैयावृत्ति रूप सद्दर्शनाय नमः | अर्ह विनय रूप सद्दर्शनाय नमः । ९ सिद्ध विनय रूप सद्दर्शनाय नमः | १० चैत्य विनय रूप सद्दर्शनाय नमः | ११ श्रुत विनय रूप सद्दर्शनाय नमः । १२ धर्म विनय रूप सद्दर्शनाय नमः । १३ साधुवर्ग १८१ · Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J L L L J J J J J F * ************ जैन - रत्नसार t x t d t t t d t ett: १८२ विनय रूप सद्दर्शनाय नमः | १४ आचार्य विनय रूप सद्दर्शनाय नमः । १५ उपाध्याय विनय रूप सद्दर्शनाय नमः । १६ प्रवचन विनय रूप सद्दर्शनाय नमः । १७ दर्शन विनय रूप सद्दर्शनाय नमः | १८ संसारे जिन सारमिति चिन्तन रूप सद्दर्शनाय नमः | १९ संसारे जिन मति सार चिन्तन रूप सद्दर्शनाय नमः | २० संसारे जिन मत स्थित साध्वादिसार मिति चितवन रूप सद्दर्शनाय नमः | २१ शंका दूषण रहिताय सद्दर्शनाय नमः। २२ कांक्षा दूषण रहिताय सद्दर्शनाय नमः | २३ विचिकित्सा रूप दूषण रहिताय सद्दर्शनाय नमः | २४ कुदृष्टि प्रशंसा दूषण रहिताय सद्दर्शनाय नमः | २५ तत्परिचय दूषण रहिताय सद्दर्शनाय नमः | २६ प्रवचन प्रभावक रूप सद्दर्शनाय नमः | २७ धर्म कथा प्रभावक रूप सद्दर्शनाय नमः | २८ वादी प्रभावक रूप सद्दर्शनाय नमः । २९ नैमित्तिक प्रभावक रूप सद्दर्शनाय नमः | ३० तपस्वी प्रभावक रूप सदर्शनाय नमः | ३१ प्रज्ञप्तादि विद्या मृत्प्रभावक रूप सद्दर्शनाय नमः | ३२ चूर्ण जनादि सिद्ध प्रभावक रूप सद्दर्शनाय नमः | ३३ कवि प्रभावक रूप सद्दर्शनाय नमः | ३४ जिनशासने कौशलता भूषण रूप सद्दर्शनाय नमः | ३५ प्रभावना भूषण रूप सदर्शनाय नमः | ३६ तीर्थ सेवा भूषण रूप सदर्शनाय नमः | ३७ धैर्यता भूषण रूप सदर्शनाय नमः | ३८ जिन शासने भक्ति भूषण रूप सद्दर्शनाय नमः । ३९ उपशम गुणरूप सदर्शनाय नमः । ४० संवेग गुण रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । ४१ निर्वेद गुण रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । ४२ अनुकम्पा गुण रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । ४३ आस्तिक गुण रूप सद्दर्शनाय नमः । ४४ पर तीर्थकादि वन्दन वर्जन रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । ४५ पर तीर्थकादि नमस्कार वर्जन रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । ४६ पर तीर्थकादि आलाप वर्जन रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । ४७ पर तीर्थकादि संलाप वर्जन रूप सद्दर्शनाय नमः । ४८ पर तीर्थकादि असनादिक दान वर्जन रूप श्री सद्दर्शनाय नमः | ४९ पर तीर्थकादि गंध पुष्पादि प्रेषण वर्जन रूप श्री सद्दर्शनाय नमः | ५० राजाभियोगाकार युक्त श्री सद्दर्शनाय नमः | ५१ गणाभियोगाकार युक्त श्री शुশशुद्ध wwwwww ww*** Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అంద charithaharashtakడుదురుచatheritalactites marnamannarranmeramanarare.. sahakatathakhatatalalalatakhatawket-listinatikahiki fikalipak h विधि-विभाग सद्दर्शनाय नमः । ५२ बलाभियोगाकार युक्त श्री सद्दर्शनाय नमः । ५३ सुराभियोगाकार युक्त श्री सदर्शनाय नमः । ५४ कांतार वृत्याकार युक्त श्री सद्दर्शनाय नमः । ५५ गुरु निग्रहाकार युक्त श्रीसद्दर्शनाय नमः ५६ सम्यक्त्व चारित्र धर्मस्य मूलमिति चिंतन रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । ५७ चारित्र धर्म पुरस्य द्वारमिति चिंतन रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । ५८ चारित्र धर्मस्यप्रतिष्ठानमिति चिंतन रूप. श्री सद्दर्शनाय नमः । ५९ चारित्रधर्मस्याधार चिंतन रूप श्री सदर्शनाय नमः । ६० चारित्र धर्मस्य भाजनमिति चिंतन * रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । ६१ चारित्र धर्मस्य निधि सन्निभूमिति चिंतन | रूप श्री सद्दर्शनाय नमः । ६२ अस्ति जीवेति श्रद्धान स्थान युक्त श्री सद्दर्शनाय नमः। ६२ सत्य जीव नित्येति श्रद्धान स्थान युक्त श्री सद्दर्शनाय नमः । ६३ सत्य जीव श्रद्धान स्थान युक्त श्री सद्दर्शनाय नमः । ६४ सत्य जीव कर्माणि करोतीति श्रद्धान स्थान युक्त श्री सद्दर्शनाय नमः । ६५- सत्य जीव कर्माणि वेदयतीति श्रद्धान स्थान युक्त श्री सद्दर्शनाय नमः। ६६ जीव स्यास्ति निर्वाणमिति श्रद्धान स्थान युक्त श्री सदर्शनाय नमः । ६७ अस्ति पुनर्मोक्षोपयेति श्रद्धान स्थान युक्त श्री सद्दर्शनाय नमः । दर्शन पद चैत्यवन्दन हुय पुग्गल परियट्ट अड्ड परमित संसार । गंठि भेद तब करि लहे। सब गुण आधार ॥१॥ क्षायक वेदक शशि असंख उपशम पणवार । विना जेण चारित्र णाण, नहिं हुए शिव दातार ॥२!! श्री सुदेव गुरु धर्म नीए । रुचि लंछन अभिराम । दरशन कं गणि हीर धर्मअहनिश करत प्रणाम॥३॥ दर्शन पद स्तवन रामचन्द्र के बाग आवो मोह रह्योरि (ए चाल ) देवें श्री जिनराज । गुरुते साधु भण्योरी । धर्म जिनेश्वर प्रोक्त। लंछण बोधि तणोरी ॥१॥ वोध लाभ के काज । सप्तम नरक भलो री । तेण बिना सुरलोक । तासे अधिक बुरोरी ॥२॥ मिथ्या तापे तप्त, बोध ही छांह लहेरी । उपशम ___* ६७ भेदों करके सहित जीव सम्यक्त्वी होता है। isatttailabletastakalkatahkkakkakkakkakisthatantahshaasiilashtaknhataishali takalaletaterate tath totatute t-te telytones Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H قومی می بینیم فریقی میر عمر ع بر قیمت مری کی تعمیر کی م ی کی بی بی بی کے کو عمر قید معه نهم محرم بر مجموعی م عرفیع عج رحیمی محرم بی بی بی بی بی بی ترجیحی بی مریم a lomasalaalalalantalialestialistianitlestatialalalalalalalanilialetitila . जैन-रत्नसार क्षायक वेद ईश्वर तीन कहेरी ॥३॥ भव सायर हे अपार, कुण अस्ताघ कटोरी। जसु लाभे ते होय गोस पद मात्र खरोरी ॥४॥ यद् भावें अप्रमाण, णाण चारित्त भलोरी, बोध धर्म में जीव, लाभे कुशल कला री ॥५॥ दर्शन पद थुई जिन पण्णत्त तत्व सुधा सरधे, समकित गुण उजवाले जी। भेद छेद करि आतम निरखी, पशु, टाली सुर पावे जी॥ प्रत्याख्याने सम तुल भाख्यो, गणधर अरिहंत सूरा जी। ए दरशण पद नित नित बंदो, भव सागर को तीराजी ॥१॥ ज्ञान पद की ५१ जयति १ स्पर्शनेन्द्रि व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमः । २ रसनेन्द्री व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ३ प्राणेन्द्री व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ४ श्रोत्रेन्द्री व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ५ स्पर्शनेन्द्री अर्थावग्रह मति| ज्ञानाय नमः । ६ रसनेन्द्री अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ७ घ्राणेन्द्री अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः । ८ चक्षुरिन्द्री अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः। ९ श्रोत्रेन्द्री अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमः । १० मन अर्थावग्रह मतिज्ञानाय * नमः । ११ स्पर्शनेन्द्री ईहा मतिज्ञानाय नमः । १२ रसनेन्द्री ईहा मति ज्ञानाय नमः । १३ घ्राणेन्द्री ईहा मतिज्ञानाय मनः । १४ चक्षुरिन्द्री ईहा। । मतिज्ञानाय नमः। १५ श्रोत्रेन्द्री ईहा मतिज्ञानाय नमः । १६ मनेकरी ईहा मतिज्ञानाय नमः । १७ स्पर्शनेन्द्री अपाय मतिज्ञानाय नमः । १८ सरसनेन्द्री अपाय मतिज्ञानाय नमः । १९ घ्राणेन्द्री अपाय मतिज्ञानाय नमः । २० चक्षुरिन्द्री अपाय मतिज्ञानाय नमः । २१ श्रोत्रेन्द्री अपाय मतिज्ञानाय नमः । २२ मनेकरी अपाय मतिज्ञानाय नमः । २३ स्पर्शनेन्द्री धारणा मतिज्ञानाय नमः । २४ रसनेन्द्री धारणा मतिज्ञानाय नमः । २५ घ्राणेन्द्री धारणा मतिज्ञानाय नमः । २६ चक्षुरिन्द्री धारणा मतिज्ञानाय नमः । २७ n dianslitieskamkalalesalesti n ineappleri mlilabananesanninkalalahnebaladalal गायत्रबननननननननननननननननननननननन Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग wwamramma rwaririm ww... .. ..... . . . .. . श्रोनेन्द्रिय धारणा मतिज्ञानाय नमः । २८ मनोधारणा मतिज्ञानाय नमः ।। २९ अक्षर श्रुत ज्ञानाय नमः । ३० अनक्षर श्रुत ज्ञानाय नमः । ३१ संज्ञी श्रुत ज्ञानाय नमः । ३२ असंज्ञी श्रुत ज्ञानाय नमः । ३३ सम्यक् श्रुत ज्ञानाय नमः । ३४ असम्यक् श्रुत ज्ञानाय नमः । ३५ सादि श्रुत ज्ञानाय नमः । ३६ अनादि श्रुत ज्ञानाय नमः । ३७ सपर्यवसति श्रुत ज्ञानाय नमः । ३८ अपर्यवसति श्रुत ज्ञानाय नमः । ३९ गमिक श्रुत ज्ञानाय नमः । ४० अगमिक श्रुत ज्ञानाय नमः। ४१ अंगप्रविष्ट श्रुत ज्ञानाय नमः। ४२अनंग प्रविष्ट श्रुतज्ञानाय नमः। ४३ अणुगामि अवधि ज्ञानाय नमः। ४४ अणुणगामि अवधि ज्ञानाय नमः । ४५ वढमान अवधि ज्ञानाय नमः । ४६ हीयमान अवधि ज्ञानाय नमः । ४७ प्रतिपाती अवधि ज्ञानाय नमः । ४८ अप्रतिपाती अवधि ज्ञानाय नमः । ४९ ऋजुमति मनः पर्यव ज्ञानाय नमः । ५० विपुलमति मनः पर्यव ज्ञानाय नमः । ५१ लोकालोक प्रकाशक श्री केवल ज्ञानाय नमः५ । ज्ञान पद चैत्यवन्दन क्षिप्रादिक रस राम चन्हि, तिम आदम णाण । भाव मिलाप से जिन जनित, सुय बीस प्रमाण ॥१॥ भव गुण पज्जव ओहि दोय, जगलोचन णाण । लोकालोक स्वरूप जाण, इक केवल भाण ॥२॥णाणा वरणी नास थिये, चेतन गाण प्रकाश । सप्तम पद में हीर धर्म, नित चाहत अवकाश ॥३॥ ज्ञान पद स्तवन म्हारे अति उछरंगे (ए चाल ) जिनवर भापित आगम भणिया तत्त्व यथा स्थिति गमियाजी ॥ ( म्हारे जगजन तारू) ते उत्तम वर णाण कहावे. भविजन अह निशि चाहें जी (म्हारे जगजन तारू ) ॥१॥ भक्षा ३ भक्ष कुपंथ सुपंथा । पेयापेय अग्रन्या जी (म्हारे जगजन तारू ) देव . . -मतिमान के २८ मेद होने है। २-श्रुतनानक १४॥ ३-अवधिमानक अमरन्याने मैदयहां मुख्य छ भेद दिये गये है, मनपर्यव के २ मेट हैं। ४-- पेयलमान का भेद है। 3 मदगो मिलाने से ५१ मंद होते हैं। Pontillatala1.1-1almlaterialatrinmentilatolaint-fast-trietalaletati-i-lioinledies-to-stotal-indainlaindaiantet-kutaladal-intosiati-i-luirituatalakaali-in- letter-tulathi--- Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन - रत्नसार कुदेव अहित हित धारी । जाणे जेण विचारी जी ( म्हारे जगजन तारू ) ॥२॥ श्रुतमति दोय छे इन्द्रिय सारूं तेण परीक्ष विचारूं जी ( म्हारे जग - जन तारू ) ओही मण केवल हे वारू । जीव प्रत्यक्ष सुधारूं जी (म्हारे जगजन तारू ) ||३|| अयवि जस्सवलें जग जाणें लोकादिक अनुमानें जी ( म्हारे जगजन तारू ) त्रिभुवन पूजें जासु पसायें । धारी शुभ अध्य वसायें जी (म्हारे जगजन तारूं ) ||४|| णाणा वरणी उपशम क्षय थी, चेतन णाणकुं विलसे जी (म्हारे जगजन तारू ) सप्तम पद में भविजन हरखें । निश दिन कुशलता निरखें जी ( म्हारे जगजन तारू ) ||५|| ज्ञान पद धुई मति श्रुति इन्द्रिय जन्नित कहिये । लहिये गुण गम्भीरा जी। आतम धारी गणधर विचारी, द्वादश अंग विस्तारी जी ॥ अवधि मन पर्यव केवल चलि प्रत्यक्ष रूप अवधारो जी ॥ ए पञ्च ज्ञान कूं वन्दो पूजो भविजन नें सुखकारो जी ॥१॥ श्री चारित्र पद की ७० जयति १ प्राणातिपात विरमण रूप चारित्राय नमः | २ मृषावाद विरमण रूप चारित्राय नमः | ३ अदत्तादान विरमण रूप चारित्राय नमः । ४ मैथुन विरमण रूप चारित्राय नमः | ५ परिग्रह विरमण रूप चारित्राय नमः | ६ क्षमा धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः ७ आर्य धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः । ८ मृदुता धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः । ९ मुक्त धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः | १० तपो धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः ११ संयम धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः । १२ सत्य धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः । १३ शौच धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः | १४ अकिंचन धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः | १५ बम्भ धर्म रूप चारित्रेभ्यो नमः | १६ पृथ्वी रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः । १७ उदग् रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः । १८ तेउ रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः । १९ वाउ रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः | २० वनस्पति रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः | २१ द्वीन्द्रिय रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः | २२ त्रीन्द्रिय रक्षा Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग wwwmummmmomrammernamamawrammaanwrmwarrant १८७ संयम चारित्रेभ्यो नमः । २३ चतुरिन्द्रिय रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः। २४ पञ्चेन्द्रिय रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः । २५ अजीव रक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः । २६ प्रेक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः । २७ उपेक्षा संयम चारित्रेभ्यो नमः ।२८ अतिरिक्त वस्त्र भक्तादि परठण त्याग रूप संयम चारित्रेभ्यो नमः । २९ प्रमार्जन रूप संयम चारित्रेभ्यो नमः । ३० मनः संयम चारित्रेभ्यो नमः । ३१ वाक् संयम चारित्रेभ्यो नमः । ३२ काया संयम चारित्रेभ्यो नमः । ३३ आचार्य वेयावृत्य रूप संयम चारित्रेभ्यो नमः । ३४ उपाध्याय वेयावृत्य रूप संयम चारित्रेभ्यो नमः । ३५ तपस्वी वेयावृत्य रूप चारित्रेभ्यो नमः । ३६ लघु शिष्यादि वेयावृत्य रूप चारित्रेभ्यो नमः । ३७ ग्लान साधु वेयावृत्य रूप चारित्रेभ्यो नमः । ३८ साधु वेयावृत्य रूप चारित्रेभ्यो नमः । ३९ श्रमणोपासक वेयावृत्य रूप चारित्रेभ्यो नमः । ४० संघ वेयावृत्य रूप चारित्रेभ्यो नमः । ४१ कुल वेयावृत्य रूप चारित्रेभ्यो नमः । ४२ गण वेयावृत्य रूप चारित्रेभ्यो नमः । ४३ पशु पण्डकादि रहित वशति वसण ब्रह्म गुप्त चारित्रेभ्यो नमः । ४४ स्त्री हास्यादि विकथा वर्जन ब्रह्म गुप्त चारित्रेॐ भ्यो नमः । ४५ स्त्री आसन वर्जन ब्रह्म गुप्त चारित्रेभ्यो नमः । ४६ स्त्री । अंगोपांग निरीक्षण वर्जन ब्रह्म गुप्त चारित्रेभ्यो नमः । ४७ कुड्यन्तर सहित स्त्री हाव भाव . सुनन वर्जन ब्रह्म गुप्त चारित्रेभ्यो नमः । ४८ पूर्व स्त्री संभोग चिंतन वर्जन ब्रह्म गुप्त चारित्रेभ्यो नमः । ४९ अति सरस आहार वर्जन ब्रह्म गुप्त चारित्रेभ्यो नमः । ५० अति आहार करण वर्जन ब्रह्म गुप्त चारित्रेभ्यो नमः। ५१ अंग विभूषण वर्जन ब्रह्म गुप्त चारित्रेभ्यो नमः । । ५२ अणशण तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः । ५३ ऊणोदरी तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः । ५४ वित्ति संखेव तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः। ५५ रस त्याग तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः । ५६ काय क्लेश तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः। ५७ संलेखणा तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः। ५८ प्रायश्चित्त तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः । ५९ विनय तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः। ६० वेयावच्च तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः। ६१ सज्झाय तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः । catitattatoot-tant-t-thritarasathistatist-t-alty-attatakestatistsko t kekakot liatelliAYEl.EL.Eleshthan Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-नसार १८८ ६२ ध्यान तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः । ६३ उपसर्ग तपो रूप चारित्रेभ्यो नमः | ६४ अनन्तज्ञान संयुक्त चारित्रेभ्यो नमः । ६५ अनन्त दर्शन संयुक्त चारित्रेभ्यो नमः | ६६ अनन्त चारित्र संयुक्त चारित्रेभ्यो नमः । ६७ क्रोध निग्रह करण चारित्रेभ्यो नमः । ६८ मान निग्रह कारण चारित्रेभ्यो नमः । ६९ माया निग्रह करण चारित्रेभ्यो नमः । ७० लोभ निग्रह करण चारित्रेभ्यो नमः * चारित्र पद चैत्यवन्दन जस्स पायें साहु पाय, जुग जुग समितें दे । नमन करें सुभ भाव लाय, फुण नरपति वृन्दे ॥१॥ जंपे धरि अरिहंत राय, करि कर्म निकन्दें सुमति पंच तीन गुप्ति युत, दे सुक्ख अमन्दें ॥२॥ इखु कृति मान कषाय थीये, रहित लेत शुचिवंत । जीव चरित कूं हीर धर्म, नमन करत नित संत॥३॥ चारित्र पद स्तवन निर्विकल्प अज निर्गुणी, चिदा भास निरसंग ( सुज्ञानी सांभलो ) मूर्तिहीन चेतन करे, रूपी पुद्गल रंग ॥ ( सुज्ञानी सांभली ॥१॥ स्यर्द्धक कारण वर्गणा, कार्ये कारण भाव ( सुज्ञानी सांभलो ) मता । लब्धा संख स्वभाव ( सुज्ञानी सांभलो ) ||२|| में। वृद्धि लहे जुगमान ( सुज्ञानी सांभलो ) । मध्ये अंते द्वौ तेजाण ( सुज्ञानी सांभलो ) ||३|| सहकारी मानस मुखा । कारण रम्य बलेण ( सुज्ञानी सांभलो ) प्राप्ता हासु प्रकारता सप्त प्रभृत कातेन ॥ ( सुज्ञानी सांभलो ) ॥४॥ तद्रो धन रूपी भलो । चेतन संयम धाम ( सुज्ञानी सांभलो ) कर धन मिल पद धर्म में कुशल भवतु अभिराम ॥ ( सुज्ञानी सांभलो ) ॥५॥ कृत्वा जोग सुधा पर्याप्ता लघु जोग वसु समये लहे । चारित्र पद थुई करम अपचय दूर खपावे, आतम ध्यान लगावें जी ॥ बारे भावना सूधी भावे, सागर पार उतारें जी ॥ * चारित्रधारी पुरुषों में ये ७० गुण अवश्य होने चाहिये । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .armammeerana arrium APorarorrars KhettATIMilitan विधि-विभाग १८६ षट् खंड राज को दुर तेजीने, चक्री संयम धारें जी ॥ एहवो चारित्र पद नित बंदो, आतम हित गुण कारेंजी ।। तप पद की ५० जयति १ यावत्कथित तपसे नमः । २ इत्वर तप भेद तपसे नमः । ३ बाह्य ऊणोदरी तपभेद तपसे नमः । ४ अभ्यन्तर ऊणोदरी तपभेद तपसे नमः । ५ द्रव्य तप वित्ती संखेप तपभेद तपसे नमः । ६ क्षेत्र तप वित्ती संखेप तपभेद तपसे नमः । ७ काल तप वित्ती संखेप तपभेद तपसे नमः । ८ भाव तप वित्ती संखेप तपभेद तपसे नमः । ९ काय क्लेश तपभेद तपसे नमः । १० रस त्याग तपभेद तपसे नमः।११ इन्द्रिय कषाय योग विषयक संलीणता तपसे नमः । १२ स्त्री पशु पण्डकादि वर्जित स्थान अवस्थित संलीणता तपसे नमः । १३ आलोयण प्रायश्चित्त तपसे नमः । १४ पडिकमण प्रायश्चित्त तपसे नमः । १५ मिश्र प्रायश्चित्त तपसे नमः । १६ विवेक प्रायश्चित्त तपसे नमः। १७ उपसर्ग प्रायश्चित्त तपसे नमः । १८ तप प्रायश्चित्त तपसे नमः। १९ भेद प्रायश्चित्त तपसे नमः। २० मूल प्रायश्चित्त तपसे नमः । २१ अणवस्थित प्रायश्चित्त तपसे नमः । २२ पारंचिय प्रायश्चित्त तपसे नमः । २३ त्याग विनय रूप तपसे नमः । २४ दर्शन विनय रूप तपसे नमः । २५ चारित्र विनय रूप तपसे नमः । २६ गुर्वादिक मन विनय रूप तपसे नमः । २७ वचन विनय रूप तपसे नमः । २८ काय विनय रूप तपसे नमः । २९ उपचारक विनय रूप तपसे नमः । । ३० आचार्य वेयावच्च तपसे नमः । ३१ उपाध्याय वेयावच्च तपसे नमः। ३२ साधु वेयावच्च तपसे नमः । ३३ तपस्वी वेयावच्च तपसे नमः । ३४ लघु शिष्यादि वेयावच्च तपसे नमः । ३५ गिलाण साधु वेयावच्च तपसे नमः । ३६ श्रमणोपासक वेयावच्च तपसे नमः । ३७ संघ वेयावच्च तपसे नमः। ३८ कुल वेयावच्च तपसे नमः । ३९ गण वेयावच्च तपसे नमः । ४० वायणा तपसे नमः । ४१ प्रच्छना तपसे नमः । ४२ परावर्त्तना तपसे नमः । ४३ । अनुप्रेक्षा तपसे नमः । ४५ धर्मकथा तपसे नमः । ४५ आध्यान निवृत्त ataliateralialkath fotottesteliakelilariasistatutekaliliahtakalasalaikishanthetilakshan kashilies-lanbalatinkalakatalalaletstattootnistraintainistrato-t1314 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन - रत्नसार तपसे नमः । ४६ रौद्रध्यान निवृत्त तपसे नमः । ४७ धर्मध्यान चितन ४९ बाह्य उपसर्ग तपसे तपसे नमः। ४८ शुक्ल ध्यान चितन तपसे नमः नमः | ५० अभ्यन्तर उपसर्ग तपसे नमः |# तप पद चैत्यवन्दन श्री ऋषभादिक तीर्थनाथ, तद्भव शिव जाण । विहि अंतेरपि बाह्य, मध्य द्वादश परिमाण ॥१॥ वसु कर मित आमो सही, आदिक लब्धि निदान। भेदें समता युत क्षिणें, दृग्धन कर्म विमान ||२|| नवमों श्री तपपद भलोए, इच्छा रोध स्वरूप । वंदन से नित हीर धर्म, दुरभवतु भव कूप ॥३॥ तप पढ़ स्तवन बारस भेद भण्या जिन राजे । बाह्य मध्य तणा जग काजे रे ॥ ॥ शिवपदनी श्रेणी ॥ तिण भव सिद्धि तणा वर ज्ञाता । जिणवर पिण तप ना कर्त्ता रे ॥ शिव• ॥१॥ शमता सहिते जिनते भारी । भली कर्म चमूं पिण हारी रे ॥ शिवपदनी श्रेणी ॥ जीव कनक से कर्म कचोरा | दहे जोरा रे ॥ शिवपदनी श्रेणी ॥२॥ तप तरु वरना कुसुम ते ऋद्धि । देव नर नी फलते सिद्धिरे ॥ शिवपदनी श्रेणी ॥ पाप सकल है तम नी राशी । तप भानू से जाये नाशी रे || शिवपदनी श्रेणी ॥३॥ जस्स पसायें लहिये बारू । लब्धा सगली जग हित कारू रे || शिवपदनी श्रेणी ॥ अति दुक्कर फुण साध्यत हीना । काम तातें वारू कीना रे ॥ शिवपदनी श्रेणी ॥४॥ इच्छा रोधन रूपी कहिये । तप पद ही चेतन बहिये रे || शिव पदनी श्रेणी ||५|| तप पद थुई इच्छा रोधन तपतें भाख्यो, आगम तेह नो साखी जी । द्रव्य भाव से द्वादश दाखी, जोग समाधि राखी जी ॥ चेतन निज गुण परिणत पेखी, ते हित तप गुण दाखी जी । लब्धि सकल नो कारण देखी, ईश्वर से मुख भाखी जी ॥१॥ * तपेश्वरियों में ये ५० गुण अवश्य होने चाहियें। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amaanaaseetairtelarakeetakarrested-takenarelarakakar s akalatakarmkakkarhadeistakeseksihotstalksekshara १६१ ............... विधि-विभाग Etะนใจได้ไอ ได” नन्दीश्वर द्वीप तपस्या विधि शुभ घड़ी शुभ मुहूर्त में गुरु के पास जा कर तप ग्रहण करे । नन्दीश्वर द्वीप के चारों दिशाओं में कुल ५२ चैत्यालय हैं ५२ अमावस्थामें ५२ उपवास करे । जिस दिन जिस महाराज के नाम का उपवास हो उसी नाम की २० माला फेरे प्रतिक्रमण, देवचन्दन दोनो वक्त करे । और ५२ फेरी देवे । १ श्री ऋषभाननजी सर्वज्ञाय नमः २ श्री चन्द्राननजी सर्वज्ञाय नमः ३ श्री वारिषेण जी सर्वज्ञाय नमः ४ श्री वर्धमानजी सर्वज्ञाय नमः इन चारों नामों को तीन दफा उल्टा और सीधा गिने। एक और जाप करेअनुक्रम से १३ उपवास करने से एक ओली सम्पूर्ण होती है । चार ओली करने से ये तप सम्पूर्ण होता है । तप सम्पूर्ण होने पर शक्ति के अनुसार तप का उद्यापन करे । नन्दीश्वर द्वीप की पूजा करावे, मंगल गावे । ज्ञान पूजा गुरु पूजा करे साधर्मी वत्सल करे । अगर शक्ति हो तो एक २ दिशा में १३-१३ पहाड़ों की रचना करके इस प्रकार चारों दिशाओं में ५२ पहाड़ों की रचना करे । प्रत्येक दिशा के मध्य में अंजन गिरि, चारों तरफ चार श्वेत पर्वत, चारों तरफ चार दधिमुख पर्वत, और चारों तरफ चार रतिकर पर्वत इस तरह एक दिशा में १३ पर्वत हुए । चारों दिशाओं में इसी तरह स्थापना करे । कुल ५२ हुए । उनपर बावन बिम्बों की स्थापना करे । इनकी पूजा में ५२ स्थापना, ५२ नारियल, ५२ अंगलूहणे याने सभी वस्तुएं ५२-५२ । होनी चाहिये क्रम से एक एक काव्य पढ़ कर जल चन्दनादि अप्ट द्रव्य से अंग पूजन आदि करे । इससे अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है ऐसी । शास्त्रों की आज्ञा है। ॐ नोट-नन्दीश्वर ठोप के ऊपर बावन जिनालय है और उनमें शाश्वती चौमुखी प्रतिमाएं विराजमान है। ไดไไไไไดไคได้ไหนไตได้ใจไดไดไไไไดดไทใจใกคไตใจไจใคไอคไฟไดไไไไไไไไไขไดปัจจไไดไไดไไไดไคลได้ในคใดไดไไดไไไไllะไตใจใจใดถึงใจไจนไดไตใจให้ไไไไดไฟองเงไลน์ ....... . ...... Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ కంటtiడatchడదండరhatattaiahడుదుడుగుడుగుడు १६२ जैन-रत्नसार अष्टापद ओली विधि चैत्र सुदी ८ से पूर्णमासी तक अष्टापदजी की ओली करने की। भी परम्परा प्रचलित है । इसमें प्रतिक्रमण देववन्दन देवपूजा इत्यादिक सब विधि 'नवपदजी की ओली' की तरह ही करते हैं। विशेषता इतनी ही है | कि 'श्री अष्टापद तीर्थाय नमः' की २० माला गिने । अरिहन्त पद के बारह गुणों को नमस्कार करे । बारह लोगस्स का कायोत्सर्ग करे । आयंबिल अथवा एकासणे का पञ्चक्खाण करे । पीछे पूर्णमासी के दिन अष्टापदजी पर्वत की स्थापना करके विधि युक्त चौवीस भगवान की पूजा करे एवं करावे । चैत्र और आसोज में इस तरह दो ओली करने से चार वर्ष में, एक ओली करने से ८ वर्ष में सम्पूर्ण होती है। पारणे के दिन ओली का उद्यापन करे । साधर्मी वत्सल करे । यथाशक्ति दान देवे। ज्ञान पञ्चमी पूजा विधि प्रथम पवित्र जगह में चौकी के ऊपर ज्ञान ( पैंतालीस आगम ) की स्थापना करनी। उसके आगे पांच नाजके पांच साथिये करे। पांच फल, पांच नैवेद्य, पांच फूल तथा पांच बत्तीका दीपक करे। अगर बत्ती अथवा धूप करे पीछे निम्न गाथा पढ़ेणमंति सामंत महीवणाह, देवाय पूयं सुविहेय पुचि । भत्तीयचित्तं मणिदामएहिं, मंदार पुफ्फ पसवेहिणाणं ॥१॥ तहेव सड्ढा मणिमुत्तिएहिं, सुगंधपुफ्फेहि वरंसि एहिं । पूयंति वदंति णमंति णाणं, णाणस्स लाभाय भवक्खयाय ॥२॥ इसको पढ़कर ज्ञान पूजा करे । इसी तरह द्रव्य पूजा करके भाव पूजा करे । भावपूजा में प्रथम खमासमण देवे । पीछे इरियावहियं०१ अणत्थ०२ कहकर एक लोगस्स का काउसग्ग करे। पार कर लोगस्स. पढ़े फिर बैठ EXERAYANESAMACtstakshakakkerroritarikakirtalkokakakakakakakakaratmakatarLRECASielithilpearerapan th inetriRIATEDGRANDARMA-listeniEL १-पृष्ठ ३।२- पृष्ठ४। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22kkkakakakakirasoksishaletstaleBhakalesiskeksial MERENGENISoisekseetaketasexkakakkarokattharth विधि-विभाग । कर मुंहपत्ति की पडिलेहणा करे । तत्पश्चात् दो वन्दन देवे । बाद पांच * खमासमण देकर ज्ञान का चैत्यवन्दन करे । म नमस्कार कह णमुत्थुणं०२, जावंति चेइयाइं०, जावंत केविसाहु०, 1. नमोऽर्हत०, चैत्यवन्दन कह 'प्रणमू श्री गुरु पाय०' स्तवन कहे । फिर जयवीयराय०३ अणत्थ० कहकर एक णमोक्कारका कायोत्सर्ग करे। पीछे निम्न थुई कहे : देविंद बंदिय पएहि परूवयाणि, णाणाणि केवल मणोहि मई सुयाणि । पंचावि पंचम गई सिय पंचमीए, पूया तवो गुणरयण जियाणदितु ॥१॥ पीछे 'ज्ञान आराधवानिमित्तं करेमि काउसग्गं' ऐसा कह तस्सउत्तरी. अणत्य० पूर्वक एक लोगस्स का काउसग्ग पार कर 'बोधागाधं.' गाथा से कायोत्सर्ग पूर्ण करे । पीछेआभणि बोहियणाणं, सुयणाणं चेव ओहिणाणं च । तह मणपज्जव णाणं, केवलणाणं च पंचमयं ॥१॥ यह स्तुति कहे। ___ तदनन्तर खमासमण पूर्वक श्री मतिज्ञानाय नमः श्री श्रुत ज्ञानाय नमः श्री अवधिज्ञानाय नमः श्री मनः पर्यव ज्ञानाय नमः श्री समस्त लोकालोक भास्कर केवलज्ञानाय नमः पांच नमस्कार करे । अगर समय हो तो ज्ञान५ की, ५१ खमाखमणपूर्वक नमस्कार करे जो कि पूर्व नवपद जी के गुणने में लिख आए हैं। “ॐ ह्रीं णमो णाणस्स" इस पद की २० माला फेरे और अन्त में गुरु महाराज से ज्ञान पञ्चमी पर्व का व्याख्यान सुने। इसके बाद यदि 1 स्थिरता हो तो ग्यारह अंगों की सज्झाय पढ़े। nkitatertakelectikiokirtuntaliaantakh kakh kriAKRA Rakkakakakakak-RAYAKAIRAJharnatakindialik RTNEReak-taka kastotkokharnatkhe Dalalithalalita fotosladhakeka Yadaraskarnathalchandrakankshatraditoriakhalilatantana AAPirompititialistkistsbhath tohtokickass toothyra rakheko thokatokickakharkatirthata.lathkkalkattoot-at-tatusalethalathe a Prastarctretatutnatant १-पृष्ठ ६।२-पृष्ठ ५१३--पृष्ठ ६।४-पृष्ठ १८ गाथा ३।५-१८४ । *स्वर- मस्तपदक 25 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rssakakakkartastiboritertaalotarashatantracetheatestasthaayatastestrotatoesktopatsettikkasatsshrutisahay १६४ जैन-रनसार बनवत्रत्रतत्रत्रक- प्रतत्रत्रनयनत्रपत्र संस्कृत ज्ञान पूजा (मालिनी छन्द) प्रकटित परमाणे, शुद्ध सिद्धान्त सारे। जिन पति समयेऽस्मिन्, शारदासन्दधान । जगति समय सारम्, कीर्तितः सन्मुनीन्द्रैः । स वसतु मम चित्ते, सश्रुत ज्ञान रूपं ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रुत पूजन ज्ञानाय नमः ॥ यह पढ़ पुस्तकों के ऊपर कुसमाञ्जली (चढ़ावे ) उछाले । जल पूजा (द्रुत विलम्बित छन्द) अतुल सौख्य निधान मनायिकं, शिव पदं विपदन्ति करं परं। जिगमि पुर्जिननाथ मुखोद्गतं, समय सार महं सलिलैर्यजे ॥१॥ ॐ ह्रीं, मति श्रुतावधि मनपर्यव केवलज्ञानेभ्यो जलं यजामहे स्वाहा ॥ ( यह पढ़कर जल चढ़ावे ) चन्दन पूजा (द्रुत विलम्बित छन्द) विषमयारिक सप्तम विन्द्यया, त्रिभुवनं प्रति बोध मयन्नयन् । उदय मन्त्र गतो वर चन्दनैः, समय सार सहस्र करोऽचिंते ॥१॥ ॐ ह्रीं मति श्रुतावधि मनपर्यव केवल ज्ञानेन्यो चन्दनं यजामहे स्वाहा ॥ ( यह पढ़कर चन्दन चढ़ावे) पुष्प पूजा ( द्रुत विलम्बित छन्द) शुभ पदार्थ मणी द्युतिभिद्युतम्, प्रहत दुईर मोह तमोभरं । समय सार निधिवदरिद्रतां प्रशमनाय महामिसरोरुहैः ॥१॥ ॐ ह्रीं मति श्रुति अवधि मनपर्यव केवल ज्ञानेभ्यो पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥ (यह पढ़कर पुष्प चढ़ावे ) धूप पूजा [ द्रुत विलम्बित छन्द ] दृगबबोधसुवृत्त महौषधं, शमित जन्मजरामरणामयं । अगुरभिर्गुरु भक्ति भरादह, समयसारमसार हरं यजे ॥१॥ ॐ ह्रीं मति श्रुति अवधि । मनपर्यव केवल ज्ञानेभ्यो धूपं यजामहे स्वाहा ॥ ( यह पढ़कर धूप खेवे ) RastritrakarKERAIKOuratikshakakahikarilesianRaicliliariaNEHAKARMilinomiadiadalatakikarishtott a प्रत्रप्रपत्र rinakaithakakolatikahikarada-Rattactatina Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ బటడండకుడదువుతుండుడు ఉలుడు చందురుడుడిపుడు కనుక కన్ను కుడుచుకుడుకు ముడుపులు विधि-विभाग १६५ marmanwwwanmmmmmmm - ๒ องค ได้ใจได ย อ ด ด ด ไต ไตใดใดใกใจได พอไคย ๆ ใจใๆ ไดใจไคงใจได้ในใจ PATNIReatmEA ttatkantakataramanthettraramstiple TREEEEntkhatpatitivistantial ferterstratoratorikarkistattaraikaktreampitil-katrehiketstatitiskasathibite thilitilistiat.se दीप पूजा [ द्रुतविलम्बित छन्द ] विमल केवल बोध विधायिनी, समय सार मई किल देवता । हत तमः प्रशरैर्मणि दीपकैः, भगवती महती परिपूजये ॥१॥ ॐ ह्रीं मति श्रुति अवधि मनपर्यव केवल ज्ञानेभ्यो दीपं यजामहे स्वाहा ।। (यह पढ़कर दीपक खेवे ) अक्षत पूजा (द्रुत विलम्बित छन्द) भव विपक्षत चेतन सत् सुखं, मदन मज्वर सन्समनौषधम् । शुभ निधं प्रतिबोधित सबुध, समयसार मिमै स दर्यजे ॥१॥ ॐ ह्रीं मति श्रुतावधि मनपर्यव केवल ज्ञानेभ्या अक्षतं यजामहे स्वाहा ॥ ( यह पढ़ कर अक्षत चढ़ावे) नैवेद्य पूजा ( द्रुत विलम्बित छन्द) प्रसृतरामरनाथ मुखोद्गतम्, शुचिवचः कुसुमोत्कर पूजितं समय सार मपार रसान्वितं, चरूवरैप्रयजे शिवशर्मणे ॥१॥ ॐ ह्रीं मति श्रुति अवधि । मनपर्यव केवल ज्ञानेभ्यो नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ॥ ( यह पढ़कर नैवेद्य, चढ़ावे) फल पूजा [द्रुत विलम्बित छन्द] समयसार मई त्रिदशापगा, परम हंस कुलोद्भव सूचिका । त्रिभुवनं । कलुषक्षय कारिणी, शुभफलैः पुनती परिपूजये ॥१॥ ॐ ह्रीं मति श्रुति अवधि मनपर्यव केवल ज्ञानेभ्यो फलं यजामहे स्वाहा ॥ ( यह पढ़कर फल คงไอไ9 โดยได้โดดไตไก โดยใดใดใดได้ไงใดในไตไอใดใดใดไดไไรใจไดไดโอไดดไดไคไตไคน คนใดใดได้ใจได้ ใครไดไไดไค-วัด चढ़ावे ) __.. वस्त्र पूजा [ द्रुत विलम्बित छन्द ] विषम जाड्यविनाश पटीयसी, स्फुटतर प्रतिभैक निवन्धनं । समयसार मई श्रुतदेवता, मृदुदुकूलपटैदिमानये ॥१॥ ॐ ह्रीं मति श्रुति अवधि * मनपर्यव केवल ज्ञानेभ्यो वस्त्रं यजामहे स्वाहा ॥ ( यह पढ़कर वस्त्र । चढ़ावे ) เช่น 1 2 . 2 - . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार अर्घ पूजा* ( पृथ्वी छन्द) सरोरुह शुभाष्यतैः सरस चन्दनैर्निर्मितं, कनत्कनक भाजन स्थितमम मुदा । अभिष्ट फल लब्धये परम पद्म नन्दीश्वरः, खुताय वितराम्यहं समयसार कल्पद्रुमं ॥१॥ ॐ ह्रीं मति श्रुति अवधि मनपर्यव केवल ज्ञानेभ्यो अर्धं यजामहे स्वाहा ॥ ( यह पढ़कर अर्ध चढ़ावे ) १६६ पुनः पूजा २ जल पूजा ( शार्दूलविक्रीडित छन्द) श्रीमत्पुण्य धुनी प्रवाह धवलां, स्थूलोच्छलच्छीकरै रालीनालि कुलानि कल्मषधिये, बोत्सारयन्ति मुहुः । नीलाम्भोरुहवासितोदर, लसद्भृङ्गार नालस्नुतां । 7 वार्धारां श्रुतदेवतार्च्चन विधौ, सम्पादयाम्यादरात् ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्राग्रे जलं समर्पयामि । चन्दन पूजा श्री मन्नन्दन चन्दन द्रुम भव, श्रीखण्ड सारोद्भवैः । सद्यो मीलित जात्यकुङ्कम रसैः कर्पूर सम्मिश्रितैः ॥ वाग्देवीमिव तोष्टुवद्भिरभितौ, मत्तालिझंकारिभिः, याज्मि श्रुतदेवतामभिमतैर्गन्धैर्मनोनन्दनैः ||२|| ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्रा चन्दनं समर्पयामि । पुष्प पूजा श्रीमत्कल्पतरु प्रसून रचितैरम्लान मालागुणैः । गन्धान्धीकृत चञ्चरीक निकर, व्याहार झंकारिभिः । वाग्देवीमभिपूजयामि रचितै, रम्यैश्च पुष्पोत्करैः ॥३॥ सौवण्यैरथ राजतैः शतदलैर्मुक्तामयैर्दामभिः । ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्राग्रे पुष्पं यजामहे स्वाहा | * सम्वत, १६२४ माधव मासे शुक्लपक्षे तिथौ १२ बुधवासरे लिपि कृता श्रीसवाई जयपुर नगर मध्ये मुनि वृद्धिचन्द्रेण स्वस्यार्थं । 9179 नत्र Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग धूप पूजा श्री मद्भृङ्ग तरङ्ग ताङ्ग घटनैः, स्वर्मोक्ष सोपानताम् । विभ्राणैरिव वभ्रुधूम धूपैर्व्यापिभिरापतन्मधु कराघातैरघध्वंसिभिः । - www V पटलैरातिर्य्यगूर्वायतः । सम्प्रीत्या परिपूजयामि धवलां जैनेश्वरीं भारतीम् ||४|| ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्रात्रे धूपं समर्पयामि । दीप पूजा श्रीमद्भिः सुरलोक सार मणिभिः, स्पर्द्धामिवाऽऽतन्वताम् । १६७ दीपानां निकरैरपाकृत तमः खण्डैरखण्ड प्रभैः । निर्द्धमैः कनकावदातरुचिभिनेंत्र प्रियैरुज्ज्वलां, जैनेन्द्रीं वचनावलीं मुनिमुखाम्भोज स्थितां संयजे ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्राग्रे दीपं समर्पयामि । अक्षत पूजा श्री मद्भिः सुरसिन्धु फेण, धवलैः शाल्यक्षतैरक्षतैः । श्रोत्रैरर्थचयैरिव स्फुट तरैः सन्निश्चितैर्निस्तुषैः ॥ वाग्देवीं ललित स्मितां ज्वलतरैः पुण्याङ्कररपर्द्धिभिः । भक्त्याऽद्य श्रुतदेवतां भगवतीमभ्यर्च्चयामो वयं ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्राग्रे अक्षतं समर्पयामि । नैवेद्य पूजा श्री मद्भिः कलधौत पात्र निहितैः, पीयूषपुण्योपमैः । पुण्यानामिवराशिभिश्वरुवरैरामोदवद्भिर्भृशम् । प्राज्य क्षीर घृत प्रभूत दधिभिः, सम्मिश्रितैः पावनैः, वाग्देवीं नृ सुरासुरैरुपचितां जैनेश्वरीं प्रार्च्चये ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्राग्रे नैवेद्यं समर्पयामि । Date YoY****** ******** Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ Jotain to Ya Yes to Y LLLLL जैन - रत्नसार फल पूजा श्री मत्पुण्य फलैरिवाति मधुरैः कैश्चिच्च नाना रसैः । हृधैर्माद्यदलि प्रतान विरुतैरारब्ध गीतैरिव । भास्वत्कल्पतरूद्भवैः फल शतैः, भक्त्या यजे सॅफलीं । वाग्देवीं जिनचन्द्र वृन्द महितां, मुक्त्याङ्गनासंफलीं ॥८॥ ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्राग्रे फलं समर्पयामि । वस्त्र पूजा श्री मतरल दुकूल पट्ट सुमहैश्चीनादि देशोद्भवैः, काबीजैन वृहत्पटोल निचयैः, सक्षम कौशेयकैः । अन्यैः शिल्पि विनिर्मितैः शुभतमैः कैश्चिच्च नानाविधैः । वाग्देवीमभिपूजयामि रुचिरैर्वस्त्रैर्विचित्रैर्मुहुः ॥९॥ ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्राग्रे वस्त्रं समर्पयामि । आभरण पूजा श्री मत्काञ्चन पञ्च रत्न कटकैः, केयूर हाराङ्गदैः । पट्टी नूपुर कर्णपूर मुकुटैः, ग्रैवेयकैः कुण्डलैः ॥ प्रालम्बाभरणांऽगुलीयकमणी, स्रब्झ खलाऽऽभूषणैः । वाणीं लोक विभूषणां प्रति दिनं, सम्पूजयाम्याहतीम् ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्राने आभरणं समर्पयामि । ग्यारहवीं पुष्पाञ्जलि ( सगधरा छन्द) गन्धाढ्यः स्वच्छतोयैर्मलतुष रहितैरक्षतैर्दिव्यगन्धैः, श्रीखण्डैः सत्प्रसूनैरलि कुल कलितैः सन्निवेद्यैः स वस्त्रैः । धूपैः संधूपिताशैर्बर फल सहितैर्भासुरैः सत्प्रदीपैः । वाग्जैनीं पूजितालं दुरित विरहितं वाञ्छितं नः प्रदेयात् ॥११॥ ॐ ह्रीं श्रीं समग्र सूत्राग्रे पुष्पाञ्जलिं समर्पयामि । द्रव ॐ *************************** Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Htterritasekarbattrakarmathadoaskssedakaplestockholasaliliotestostaticalstatithiatisastratishtakarks विधि-विभाग . ไคศ.ไพศ ในไอศคไตได้ ไดไไไไไไดไคน คนใจไดไไดไไไดไจ : ไ . अन्त्य प्रार्थना अर्हद्वक्त्र प्रसूतं गणधर रचितं द्वादशांङ्गं विशालम् । चित्रं बह्वर्थ मुक्तं मुनि गण वृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भिः ॥ मोक्षानद्वार भूतं ब्रत चरण फलं ज्ञेय भाव प्रदीपं । भक्त्या नित्यं प्रवन्दे श्रुत महमखिलं सर्व लोकैक सारम् ॥१२॥ (वंशस्थ छन्द) जिनेन्द्र* वक्त्रं प्रति निर्गतो वचो, यतीन्द्र भूति प्रमुखैर्गणाधिपैः । श्रुतं धृतं तैश्च पुनः प्रकाशितं, शरवेद सङ्ख्यं प्रणमाम्यहं श्रुतम् ॥१३॥ दिवाली पूजन विधि पहले पूजन के समय जहां पूजन करानी हो वहां सुन्दरचित्रों से एवं अन्यान्य सजावट की चीजों से सुशोभित कर लेना चाहिये। __शुभ मुहूर्त तथा चौघड़िया एवं शुभतिथि तथा शुभदिन और शुभ नक्षत्रमें प्रथम नवीन बही ( जिसको जितनी बहियों की आवश्यकता हो उतनी बहिये खोल ) उत्तम चौकी या पट्टे पर पूरब या उत्तर की दिशा में स्थापन करे पूजन करनेवाला हाथमें मौली बांधे और पत्तों की बन्दरवाल दरवाजों पर बांधे और नीचे दोनों तरफ घड़ों के ऊपर डाभ'' (नारियल ) रखे और अन्यान्य दिव्याभरणों से अलङकृत हो सुन्दर पवित्र आसन को ग्रहण करे सामने एक उत्तम चौकी या पट्टा रख उसपर 1. चांदी की रकेवी में शारदाजी की मूर्ति या चित्र स्थापन करे । इसके बाद जल, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, फल श्रीशारदादेवी के पूजन * महोपाध्याय श्रीराज सोमगगि विरचते श्रुतस्कन्ध श्रुतपूजा सम्पूर्णमगमन।। ये दोनां पूजायं प्राचीन ग्रन्थों से लिखी गई है इनमें नान पञ्चमा की शान्त्रपूजन किस नियमानुसार अप्टप्रकारी पूजन करनी चाहिये इसका खुलासा वर्णन उपरोक्त पूजा के श्लोकों न पाया जाता है अतः संस्कृत प्रेमियों को इससे लाभ लेना चाहिये। फदा नारियल । मकान को भी सजाना चाहिये । l-ในใจได้ ในวงใยในคน ในใจได้ 1 ไ ด้ 1 ไalใจใน โซได้ใหได้ไม่ไปไหน? ใคใจ ไดคนไดไตง- ไ." ใน” ได้.... เอง, 11:41 . " นะ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 의의 빛의 의의무의 빛빛빛의 없었었었어 있일범의 맛있 bbbbbby Yohbarbratkabbxby xX X X X S जैन-रत्नसार २०० के समय प्रत्येक मन्त्रों को पढ़कर मूर्ति के सम्मुख चढ़ावे । पूजा कराने वाला विद्वान् तथा पूजा करने वाला एवं गन्ध चन्दनानुलिप्त तथा सुन्दर पवित्र वस्त्रों से विभूषित होना चाहिये इस तरह उपरोक्त सब सामग्री सम्पन्न हो जानेपर सुन्दर लेखनी तथा स्याही और दवात लेकर नीचे लिखे अनुसार बही में निम्नलिखित पदों को लिखें । . wwwwwwwwwwwww ७४॥ वन्देवीरम् | श्री परमात्मने नमः श्री गुरुभ्यो नमः श्री सरस्वत्यै नमः, श्री गौतमस्वामीजी जैसी लब्धि, श्री केशरियाजीसा भण्डार, श्री भरतचक्रवर्त्ती जैसी ऋद्धि प्राप्त हो एवं बाहूबलजीसा बल, श्री अभय कुमारजीसी बुद्धि और कयवन्नासेठतना सौभाग्य एवं धन्नाशाली भद्रजीसी, सम्पत्ति प्राप्त हो । इतना लिखने के बाद नया वर्ष, नया मास एवं दिन तथा तारीख को सात लकीरों में लिखे इसके बाद १ से ९ तक पहाड़ की चोटी की तरह "श्री" लिखे अगर बही* छोटी हो तो ५ या ७ "श्री" लिखे | श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री * नया सम्वत् प्रारम्भ होता है । जैनियों को दिवाली के दिन ही नये बहीखाते बदलने चाहिये क्योंकि दिवाली से to taste to stateste tots its a tots Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rakshakikthase tastetotra-tobtaimtorolalita taitrakootb allakoka-kolesortableshoboorkstroscattatradasterstudies विधि-विभाग २०१ ArAnd maraaNamannama hKETARIAAREETAIEEETukatitatiktatatutikAMKshirsanskaskirtsARKEIRATRAINYAARtarkatarkarshmakar तत्पश्चात् ऊपर लिखे अनुसार नीचे कुङ्कम से स्वस्तिक लिखे इसके बाद श्री शारदाजी के सम्मुख जलधारा देकर श्री गुरुजी के द्वारा वासक्षेप * करावे तत्पश्चात् हाथमें अक्षत कुङ्कम ( रोली ), फूल लेकर नीचे लिखा हुआ श्लोक पढ़े। मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतम प्रभुः । मङ्गलं स्थूलभद्राद्याः, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥१॥ इस श्लोक को पढ़कर मूर्ति के सम्मुख चढ़ा दे। बही पूजा उपरोक्त विधि से श्री शारदा पूजन समाप्त हो जानेपर जल, चन्दन, फूल, धूप, दीप, अक्षत इत्यादि अष्ट प्रकारीके द्वारा प्रत्येक बार नीचे लिखे मन्त्र को पढ़ता हुआ पूजन करे । ॐ ह्रीं श्रीं भगवत्यै केवल ज्ञान स्वरूपायै लोकालोक प्रकाशकायै सरस्वत्यै जलं समर्पयामि । इस तरह उच्चारण करता हुआ हरएक सामग्री चढ़ावे इस प्रकार पूजन समाप्त हो जानेपर शारदा की निम्नलिखित आरती कपूर से करे। शारदा आरती जय जय आरती ज्ञान दिनन्दा, अनुभव पद पावन सुख कंदा ॥ जय० ॥१॥ तान जगत के भाव प्रकाशक, पूरण प्रभुता परम अमंदा ॥ जय० ॥२॥ । मतिश्रुति अवधि और मनपर्यव, केवल काटै सब दुखदंदा ॥ जय० ॥३॥ भवजल पार उतारण कारण, सेवो ध्यावो भवि जन वृन्दा ॥ जय० ॥४॥ । शिवपुर पंथ प्रगट ए सीधा, चौमुख भाखे श्री जिनचन्दा ॥ जय० ॥५॥ . * दिवाली पूजन के दिन रुपया चांदी सोने के शिक्के आदि पदार्थों का पूजन करना हैं और अन्य मतावलम्बियों से पूजा कराना जैनशास्त्रानुसार मिथ्यात्त्वकी पुष्टी करना है इसलिये सम्यक्त्वी श्रावकको दिवाली पूजनमें यह सव कार्य नहीं करने चाहिये। Polilaatials fookislikhaalisticksortialightdearthokishthaakhbiticlickileolapleakelicitatial-aliladhakiataliseksikot-lokelkatackefel-adislo.kolka riEKAKKAREEkakakakakakakutek-tattharanataka k talentilathkalai thakutartialatathokatariat e FIREEKRITatka stersttatoy. Monthles 26 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Exantact--60335A kadilaksGrter -not- deathtostatestosterytall सार k ot-tionaletalistashibalainthamstatistinarralleletal RARYTattattatratorsta.ht-tapakista २०२ जैन-रत्नसार अविचल राज मिले याही सौं, चिदानन्द मिलै तेज अमंदा ॥ जय० ॥६॥ ___ आरती पढ़ने के बाद शारदा स्तोत्र पढ़े । शारदा स्तोत्र वाग्देवते भक्ति मतां स्वशक्तिः, कलाय विभ्रासित विग्रहामे । बोघं निशुद्धं भवति विधत्तां, कलाय विभ्रासित विग्रहामे ॥१॥ । अङ्क प्रवीणा कलहंस पना, कृतस्मरेणा नमतानिहंतुम् । अङ्क प्रवीणा कलहंस पत्रा, सरस्वती शश्वद पोहताह ॥२॥ ब्राह्मी विजेषिष्ठ विनिद्र कुंदं, प्रभावदाता घनगर्जितस्य । स्वरेण जैत्री ऋतुनां खकीये, प्रभावदाता घनगर्जितस्य ॥३॥ मुक्ताक्षमाला लसदौषधीशाम्, शृज्वलाभाति करेत्वदीये । मुक्ताक्षमाला लसदौषधीशाम्, वा प्रेक्ष्य भेजे मुनियोऽपिहर्षम् ॥४॥ ज्ञानं प्रदातु प्रवणा ममाति, शयालुनांनां भव पातकानि । त्वंनेभुषां भारति पुण्डरीक, शयालुनांनां भव पातकानि ॥५॥ प्रोढ़ प्रभावा समपुस्तकेन, ध्यातासि येनांसि विराजि हस्ता । प्रोढ़ प्रभावा समपुस्तकेन, विद्या सुधा पूरमदर दुःखाः ॥६॥ तुभ्यं प्रणामः क्रियते मयेन, मरालवेन प्रमदेन गातः । अति प्रतापै भुविरस्य नम्रः, मरालयेन प्रमदेन वातः ॥७॥ रुच्यार विदं भ्रमदं करोति, वेलं यदि योऽर्चततेऽप्रिंयुग्मं । रुच्यार विंदं भ्रमदं करोति, स स्वस्थगोप्टि विदुषां प्रविश्य ॥८॥ पाद प्रसादात्तवरूपसंपत, लेखाभिरामोदितमानवेशः। अवेन्नरः सुक्ति भिरेवचिन्तो, लेखाभिरामोदितमानवेशः ॥९॥ सितांशुकांते नयनाभिरामा, मूर्ति समाराध्य भवेन् मनुष्यः । . सितांशुकांते नयनाभिरामा, धकारसूर्यक्षितिपावतंशः ॥१०॥ , येन स्थितं त्वाममुसर्वतीर्थ्यः, समाजितामानत मस्तकेन । . दुर्वादिनां निर्दलितं नरेन्द्र समाजितामानत मस्तकेन ॥११॥ सर्वज्ञ वक्ता वरतामसमंकलीना, मालींगती प्रयण मंथर पादशैन । कन्न रसन्न SnalishikenlistakabalektraditattxxAANAatalikakakakikikatarelirkiriraikikaltaharlalitaraitadkatundiceladakisatirealistsbillianthal-in- h .batatakat i i tratBET-retariatatutotalsiltoot Litelastetradaakirtamarhatnantarashatate Koirstotsabr Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRArorketorterstothapkaractiktaksesakskootakalatkretokadak-decordotkaise karokar विधि-विभाग २०३ lotatasank shatrakakiroatiala lexitasanaxialistindiaticlexit सर्वज्ञ वक्ता वरतामसमंकलीना, प्रोणीतु विश्रुतयशा श्रुतदेवतानः ॥१२॥ कृप्तस्तुति निविडभक्ति जड़पृक्तैः, गुफैगिरामितिगिरामधि देवता सा।। वालीनुकंपइतिरोपयतु प्रसाद, उमेरादृशं मपि जिनप्रभसूरिवर्या ॥१३॥ - चैत्री पूनम पर्व श्री आदिनाथ भगवान् के प्रथम गणधर श्री पुण्डरीक स्वामी इसी चैत्र मास की पूर्णिमा के दिन मोक्ष गये और अनन्त भव्यात्माओं की में यहां आत्मसिद्धी होने से इस परम पवित्र तीर्थ की यात्रा करने से अपूर्व लाभ होता है और अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है। कहा है :त्रैलोक्ये यानि तीर्थानि, तेषां यद्यात्रया फलम् । पुण्डरीक गिरेर्यात्रा, तदेकापि तनोत्यहो ॥१॥ चैत्रस्य पूर्णिमास्यांतु, यात्रा शत्रुञ्जयाचले । स्वर्गापवर्ग सौख्यानि, कुरुते करगाण्य हो ॥२॥ अर्थात् तीन लोकों के सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह पुण्य श्री पुण्डरीक ( शत्रुञ्जय ) तीर्थाधिराज की एक ' ही यात्रासे होता है और चैत्री पूर्णिमाके दिन जो भव्य शत्रुञ्जय तीर्थ की । यात्रा करते हैं वे स्वर्ग और मोक्ष के अनन्त सुखों को प्राप्त करते हैं । अगर यात्रा करने की सामर्थ्य न हो तो अपने नगर में, मन्दिर अथवा किसी पवित्र स्थान में यथासाध्य श्री शत्रुञ्जय पर्वत की स्थापना करके, पुण्डरीक स्वामी का ध्यान करने से भी भव्यजीव कर्मों का क्षयकर मोक्ष प्राप्त करते हैं अतएव सबको इस दिन सिद्धाचलजी की स्थापना करके विधिपूर्वक सुव्रताचरण करना चाहिये । ___ चैत्री पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल सब प्रभातिक कृत्य करके मन्दिरजी में जावे और पूजा करे । तदनन्तर चावलों की ढेरी बनाकर सिद्धाचलजी की स्थापना करे और पुण्डरीक गणधर अथवा श्री ऋपभदेव स्वामी का a mahakinehtatiohotoshindi kotalAsstate-AAT AAshtail- thisuate thing । इसके बाद गौतम स्वामी का अप्टक पढ़े जो आगे दिया गया है। "इन्द्रभूति वाभूति पुत्र । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ htttttttt LLLL जैन - रत्नसार २०४ I चन्दन, बिम्ब स्थापन करे । चावलों से श्री तीर्थाधिराजको वधावे । केशर, से पर्वत की पूजा करे । तब श्री संघ मिलकर पर्वत के चारों तरफ तीन प्रदक्षिणा देवे और पूजा शुरू करे । एकाग्रचित्त से अष्ट मङ्गलीक की स्थापना करके मूल प्रतिमा को पञ्चामृत से स्नान करावे । दश णमोक्कार गिनकर दश फूल या फूलमालाएं, दश फल, श्रीफल, अनार, नारंगी फल चढ़ावे । पट्टेपर दश साथिये करे । दश दीपक करे । दश जाति के मिष्टान्न, नैवेद्य चढ़ावे । कपूरकी आरती करे। पीछे सिद्ध गिरि गुणमित चैत्यवन्दन करके २१ खमासमण' देवे । 'श्री सिद्धक्षेत्र पुण्डरीक गणधराय नमः' इस पद को दश बार नमस्कार करे । फिर 'श्री शत्रुञ्जय पुण्डरीक आराधनार्थं करेमि काउसग्गं' अणत्थ० ' कहकर दश लोगस्स का उद्यापन की सामग्री १५ चंदुए, १५ पिछवाई, १५ बन्दरवाल, १५ चौपड़, १५ रुमाल, १५ ठवणी, १५ स्थापनाजी, १५ आसन, १५ पूजनी, १५ पूजनीकी दण्डी, १५ दवात, १५ कलम, १५ कागज, १५ पुड़िया, १५ पुस्तक, १५ पूठे, १५ पूठियां, १५ ओघे, १५ पात्रे, १५ मोरपीछी, १५ चन्दन मुटु, १५ धूपदाने, १५ कलश, १५ रकेवी, १५ कटोरी, १५ दीपक ( लालटेन सहित ), १५ अंगणे, १५ केशरकी पुड़िया, १५ वॅवर । चैत्री पूनम के पांचों १ श्री सिद्धाचलजी का चित्रपट, १ पट्टा । सिद्धाचल पर्वतकी पूजा के लिये पुण्डरीक गणधर की तथा ऋषभदेव भगवान् की प्रतिमा | १ घण्टा, १ घड़ियाल, १७० फूलमाला, १७० नारियल, १७० सुपारी, १७० मिठाई, १७० फल, १७० कपूर की पुड़िया आरती के लिये, १७० जल के कलश, १७० केशर की कटोरी, १७० दीपक, १७० अंगलहणे, १७० कलश पञ्चामृत, १७० फूल गुलाब के । दोपहर में श्री सिद्धाचलजी की पूजा करने की सामग्री १ ध्वजा, २ जल, ३ चन्दन, ४ पुष्प, ५ धूप, ६ दीपक, ७ अक्षत, ८ नैवेद्य, ६ फल, १० गुलाब जल, ११ मंगलूहका जोड़ा हरएक पूजा में यथाशक्ति नगदी अवश्य चढ़ावे । * पश्चामृत दूध, दही, घृत, केशर, मिश्री । + हरएक बार वन्दनपूर्वक । १- पृष्ठ ४ । प्र पूजन की सामग्री র Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * Y Y X X विधि - विभाग २०५ काउसग्ग करे, अगर समय थोड़ा हो तो एक लोगस्स का काउसग्ग करे पारकर ‘णमो अरिहंताणं ० ' पूर्वक श्री तीर्थाधिराज की स्तुति कहे । इसी तरह बीस, तीस, चालीस तथा पचास इन चारों पूजा के भेदों के बारे में भी समझ लेना। विशेषता इतनी ही है दूसरी पूजा में सब विधि बीस, बीस करनी। तीसरी पूजा में सब विधि तीस, तीस करे । इसी प्रकार चौथी पूजा में ४० और पांचवीं में सब विधि पचास, पचास करे | श्री ' सिद्धक्षेत्र पुण्डरीकाय मन:' इस पद की २० माला फेरे । पांचों पूजाओं में एक एक ध्वजा चढ़ानी चाहिये अगर ऐसा न हो सके तो कम से कम पांचों पूजाओं के निमित्त एक ध्वजा चढ़ावे । इस तपको कम से कम एक वर्ष, मध्यम सात वर्ष और उत्कृष्ट १५ वर्ष तक करे । I करे | तप सम्पूर्ण हुए पीछे शत्रुञ्जयजी की यात्रा करे । ज्ञान पूजा यथाशक्ति साधर्मी वत्सल करे । श्री सिद्धाचल चैत्यवन्दन ( हरि गीत छन्द) युग आदि प्रभु आदिने जिसको सनाथ बना दिया, पूरब नवाणु वार निजपद शरण दे पावन किया । जिसके अणु अणु में भरा है दिव्य तेज अनुत्तरं, तेजोमयं तमहं सदा प्रणमामि सिद्धगिरीश्वरम् ॥१॥ योगी तथा भोगी जहां निज साध्य साधनता वरें, हैं अन्तराय अनंत उनका अन्त भी जल्दी करें । संसार में सर्वोच्चपद पावें अचल सुख निर्भरं, तं साध्य-सिद्धिकरं सदा प्रणमामि सिद्धगिरीश्वरम् ॥२॥ जह पुण्यमृर्त्ति अनन्त साधक साधुओं की भावना, सन्ताप हर देती विमल बलशालिनी संभावना | विस्तारती आत्मिक अनन्त सुकान्त गुण रत्नाकरं, तं दिव्य-भावभरं सदा प्रणमामि सिडगिरीश्वरम् ||३|| alm to taulanta toile text data toloit états to Intlo tant totul t Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rasokhaskhabarssessettesekebsik ashatharthroetbhesarksattraktarike २०६ जैन-रनसार लालूप्रेशन प्रबद्रमप्रभूत्र gariksh hamakalatkarishkakkalaatkaateindiabkahaniaritimiliarkestakka प्रप्रनप्रबननननन.प्र.प्र.प्र.प्रतत्र r बहती विमल धारा जहां शत्रुजयी सुखदा नदी, जो दूर करती है अनादि कुकर्म की सारी बदी। का है आत्मभूमि में बहाती शान्त रस सुख निर्झरं, विमलाचलं तमहं सदा प्रणमामि सिद्धगिरीश्वरम् ॥४॥ पापी अधम जन भी जहां तप-जप करें हो संयमी, होवें अपाप सुधन्य वे उनके न हो कुछ भी कमी। वे मुक्तिरमणी रमण सुख भोगें अशेष अनश्वरं, ____तमहं महा महिमामयं प्रणमामि सिद्धगिरीश्वरम् ॥५॥ जहँ अन्धकार विकार का लवलेश भी रहता नहीं, अविवेक पूरित विकलता का अंश भी रहता नहीं । जहँ हृदय होता है प्रकाशित सच्चिदात्मक भास्वरं, ध्येयं मतं तमहं सदा प्रणमामि सिद्धगिरीश्चरम् ॥६॥ जो है रजोमय आप पर परके रजोगुण को हरे, है आप खूब कठोर पर जो और को कोमल करे। आश्चर्यका अवतार तारक जो भवोदधि दुस्तरं, सत्यं शिवं तमहं सदा प्रणमामि सिद्धगिरीश्वरम् ॥७॥ जहँ क्रोध मान तथैव माया लोभका चलता नहीं, जहँ पूर्व सुकृतके बिना जाना कभी मिलता नहीं। जो है स्वयं जड़ किन्तु हरता है जड़त्व सुदुर्धर, जन-शंकरं तमहं सदा प्रणमामि सिद्धगिरीश्वरम् ॥८॥ जहँ रोग शोक वियोग सारे नाश हैं होते सही, दुर्भाग्य दुःख विशेष कर ढूंढे जहां मिलते नहीं। सौभाग्य सुख प्रतिपद जहां पाते सुभव्य मनोहरं, . परमोत्तमं तमहं सदा प्रणमामि सिद्धगिरीश्वरम् ॥९॥ जहँ पंचकोटि सुसाधुगण से चैत्र पूनम पर्व में, श्री पुण्डरीक गणाधिनायक हैं गए अपवर्ग में । ক্ষয়শ্বর রুরুত্বপৱম্বরাদণস্বরুদ্ধ krartalilankaalikaalaikaldainabatahilialisakilikaalaakhisaweshani प्रत्रत्र- Pakiseeds lio ম Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** JYKK विधि - विभाग सुखसिन्धु विभु भगवान् श्रीहरिपूज्यपद पाए परं Yester Year २०७ सविनय कवीन्द्र सुकीर्तितं तं नौमि सिद्धगिरीश्वरम् ॥१०॥ इसके बाद "जंकिंचि ०", "णमुत्थुणं.”, “जावंति चेइआइं.”, “जावंतकेवि साहू०”, “ नमोऽर्हत्०” कहकर श्रीशत्रुंजय तीर्थराज का गुण गर्भित १० गाथा का स्तवन कहें । श्री सिद्धगिरि स्तवन गाथा १० सुण सुण से गिरखामी, जगजीवन अन्तर जामी । हूं तो अरज करूं सिर नामी, कृपानिध विनती अवधारो । भवसागर पार उतारो निज सेवक चान वधारो, कृपानिध विनती अवधारो ॥ १॥ प्रभु मूरति मोहन गारी, निरख्यां हरखै नरनारी । जाऊं बारीहूं वारहजारी, कृपानिध बीनति अवधारो ||२|| हिवकिसिय विमासण कीजै, मुझ ऊपर महरधरीजै । दिलरंजन दर्शनदीजै, कृपानिधवीनति अवधारो ||३|| आजसयल मनोरथफलिया, भव भावना पातक टलिया । प्रभू जो मुझसे मुख मिलिया, कृपानिध वीनति अवधारो ||१|| समरया संकट टलिजावै, नवनव नित मंगलथावे | मुझ आतमपुण्य भरावे, कृपानिधवीनति अवधारो ||५|| करजोड़ी वीनति कीजे, केशर चन्दन चरचीजै । दिन धन धन तेह गिणीजै कृपानिधवीनति अवधारो ||६|| प्रभुदरश सरसलहि तोरो, अति हरषित हुवों चितमोरो । जिमदीठां चन्द चकोरो, कृपानिधवीनति अवधारो ||७|| परतिख प्रभु पञ्चम आरे, वीस महाभय संकट वारे । सहुसेवक काजसुधारे कृपानिधवीनति अवधारो ||८|| सेवो स्वामी सदासुखदाई, कामणा नरहैघर कांई । बाधे संपति शोभा सवाई. कृपानिधवीनति अवधारो || ९ || नाभिराय कुलवरचन्दा, भव जन मन नयन अनन्दा | ओलगे सुर असुरसुरिंदा, कृपानिधवीनति अवधारी ॥१०॥ जयकारी ऋषभ जिनन्दा, ग्रह समधर परम अनन्दा | वन्दे श्री जिनभक्ति सूरिन्दा कृपानिधवीनति अवधारो ||११|| ने के से मुडदे Wiebeleid te bereketiet tereolokangralVottag Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Coteststobot tet ctet res sa * * * * * * * * * * * * *********** २०८ 6666666****४.tatt जैन-रत्नसार सिद्धगिरि स्तुति विमलाचल मण्डण जिनवर आदि जिनन्द, निरमम निरमोही केवल ज्ञान दिनन्द | जे पूर्व निवाणं बारघरी आनन्द, सेना गिरिशिखरे समवसर्या सुखकन्द ॥१॥ इस प्रकार चैत्यवन्दन स्तवन स्तुति कहने के बाद श्री सिद्धगिरि जयति १ श्री शत्रुञ्जाय नमः । २ श्री पुण्डरीकाय नमः | ३ श्री सिद्धक्षेत्राय नमः । ४ श्री विमलाचलाय नमः । ५ श्री सुरगिरये नमः । ६ श्री महागिरये नमः | ७ श्रीपुण्यराशये नमः । ८ श्रीपर्वताय नमः । ९ श्रीपर्वतेन्द्राय नमः । १० श्री महातीर्थाय नमः | ११ श्री शाश्वताय नमः | १२ श्री दृढ़शक्तये नमः । १३ श्री मुक्तिनिलयाय नमः | १४ श्री पुष्पदन्ताय नमः । १५ श्री महापद्माय नमः । १६ श्री पृथ्वीपीठाय नमः । १७ श्री सूरभद्र - गिरये नमः | १८ श्री कैलाशगिरये नमः । १९ श्री पातालमूलाय नमः । २० श्री अकर्मकर्त्रये नमः | २१ श्री सर्वकामपूर्णाय नमः । ये सिद्धगिरि की खमासमणपूर्वक २१ जयति देवे । श्री सिद्धाचल चैत्यवन्दन ( द्रुतविलम्बित छन्द) जय अनन्त गुणाकर शङ्कर ! जय महोदय हेतु निरन्तर ! | जय भयङ्कर दुःख निघर्षण ! जय गिरीश्वर पावन दर्शन ! ॥१॥ जय सुदुर्गति पाप निवारण ! जय महा भव सागर तारण ! | जय यशोधर मोह तमोहर ! जय महालय भूत महेश्वर ! ॥२॥ जय महाघृति तेज विराजित ! जय भवोदय दुर्गुण वर्जित ! 1 जय विशाल विभुत्व समाश्रित! जय गिरीश्वर योगि सुसेवित ! ॥३॥ जय निरंजन पुण्य पढ़ाश्रय ! जय सुज्जुजुल सिद्धिरमालय ! | जय निरामय निर्भय निर्मल ! जय गिरीश्वर सिद्ध महाबल ! || 부 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ka d ethlataka.bliktilgolkatibahbbi.-radatatak-t68M.SAREE २०६ .. waamawwwanmaamirmwameramanianmawww ............ विधि-विभाग जय शमोन्तम भूमि विशेषित ! जय वरिष्ठ विशिष्ठतया स्थित !। जय महाप्रभ तीर्थ अनुत्तर ! जय गिरीश्वर शुद्धि महत्तर ! ॥५॥ शिवरमा मुख दर्शन के लिए, अचलता गुण शिक्षण के लिए। सशिव निश्चल सिद्धगिरीश्वर, शरण लूं मरणादि अगोचर ॥६॥ अमर के घर की नित नौकरी, सुरलता सुरधेनु करें खरी। अमर सेव्य गिरीश्वर तें कहो, कित रहे. समता उन अहो ॥७॥ विकट मोहमहा भट को हरा, कर निज प्रभुता गुणसे भरा । मनु जयध्वज मूर्त किया खड़ा,गुणी गणेन गिरीश्वर को बड़ा ॥८॥ न जिसके बहिरात्म अभव्य भी, पुनित दर्शन पा सकते कभी । नयन दर्शन दर्शन ही नहीं, हृदय दर्शन दर्शन है सही ॥९॥ सुख सुदुःख समुत्थित भोग में, भवन या वन योग वियोग में । अमम हो विमलाचल जोरहें, सहज ने विमलाचल हो रहे ॥१०॥ . सुतर हो भव सागर सर्वथा, विलय जन्म जरा मरण व्यथा । बल विकाश अनन्त अनन्त हो, स्मरण में यदि तीर्थ जयन्त हो॥११॥ सुजन जो विमलाचल में चलें, विषय चोर नहीं उनको छलें । कुपथमें खलके बल होत हैं, सुपथमें खल निर्बल होत हैं ॥१२॥ गिरि अनेक यहां पर हैं खड़े, गगन में अति उन्नत हो अड़े। मिल रही उनमें कुछ भी भला, पर कहो विमलाचल की कला ॥१३॥ अविरलोद्यत पुण्य प्रकाशके, सुहित कारक सिद्ध गिरीशके । निकटमें यदि दोष ननाश हो, रवि व घूक निदर्शन खास हो ॥१४॥ सु विमलाचलको तजे, स्वहित अन्य तथैवच जो भनें । सुरमणी तज पत्थर वे गहें, प्रथम के गुण थानक में रहें ॥१५॥ कुमति जो विमलाचल दर्शन तें सही, कुटिल कर्म कभी रहते नहीं। किमु मदोडत हस्ति समूह भी, न मृगनाथ विलोक भगें कभी ॥१६॥ सफल जन्म घड़ी दिन है वही, अतुल भक्ति नदी जिसमें वही । नवह जन्म घड़ी दिन भी नहीं, सु विमलाचल भक्ति जहां नहीं ॥१७॥ जय सदागम सिद्ध पदोदय ! जय सुसेवक जन्तु कृताभय ! Amakoottostarthakathakantakarate.lokikalaakikikatti ladakikikaRKaEA4trikileanIEARESTitbilalestindiealthballiantalihinbiaatkaalana-TREYada n .gr.. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० Kebacchi kasa kare Yetoylethal tolette hothoot ch जैन - रत्नसार ******* " जय कषाय वनान्तक, पावक ! जय कलंक निवारक, पावक ॥१८॥ जय सुखोदधिवर्द्धक चन्द्रमा ! जय जनाम्बुज बोधन अर्यमा ! जय विभो भगवत्व गुणाधिक ! जय भवाम्बुधि तारक नाविक ॥ १९ ॥ जय सदा हरि पूज्य गिरीश्वर ! जय महा महिमा अजरामर ! जय कवीन्द्र सुगीत यशोनिधे ! जय महाजय पुण्य पयोनिधे ॥ २० ॥ इस प्रकार चैत्यवन्दन कहकर "जंकिंचि ०" कहे बाद "णमोत्थुणं० " कहे जावतिचेइयाई • “ जावंत केविसाहू.” “नमोऽर्हत० " कहकर बीस गाथाका श्री सिद्धाचल तीर्थराज का स्तवन पढ़े । श्री आबूब्जी स्तवन गाथा २० यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । यात्रा भणी उमहेज्यो तुम्हे नर भव लाहोलीज्योरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । पंचतीरथ मांहेछाजे आबू मारूडैदेश विराजेरे, यात्रीडा भाई आवूजीनी यात्रा करज्यो स्वरगथी वादै लागो उंचो अंबरिये जाइ लागो रे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो ॥ १॥ एतो देवानो वास कहावै निरखन्ता त्रिपति नथावेरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो। एतोडूंगरियाने राजा एहनी है बारह पाजारे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो || २ || छह ऋतु वास बणायो एतो चंपला अंवला छायोरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । सखर झरणा झाझा जिहां तिहाघनवेल्याआझारे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो || ३ || भार अढारे वणराई एतो इहां हिज निजरे आइरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । दहदिशि परिमल आवै फूलडानो रंगसुहावैरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो ||४|| ऊपर भूमि विशाला देवल दीहा रलियालारे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । विमलमन्त्री बरदाई चक्केसरिदेवी सहाई रे, यात्रीडा भाई आबू - जीनी यात्रा करज्यो ||५|| पोरवाडवंश दीपतो जिणदलपति साही जीतोरे, * आबूजी में मूलनायक भगवान् ऋषभदेवजी की प्रतिमा है अतः यह स्तवन यहां पर लिखा गया है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Babasa विधि-विभाग २११ यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । देवल तेण करायो पाहण आरास - मंडायोरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो ॥६॥ झीणी झीणी कोरणी झेरयो दलमाखण जेम उकेरयोरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । नवि नवि भांति बणाई जिहांतिहां कोरणिया झिणाई रे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो ॥७॥ उत्तरे पाहण जेतो जोखीजे पाहणतेतोरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । आदिजिनेसर स्वामी प्रतिमा थापी हितकामीरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो || ८ || उगणीसकोडसोनइया द्रव्य लागत करि जस लीयारे, यात्रीडा भाई आबूजीनीयात्रा करज्यो । करजोड़ीने आगे मन्त्री जिनवर पाय लागेरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो ||९|| पूठे चढ़िया हाथी मंडाणापति साह साथीरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । इणदेवल समवड कोई भूमंडलमांही न होईरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करो ||१०|| बलि तिणवंश विगताला वस्तुपाल अने तेजपालारे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । देवनमी ऋद्धिपाई इहां तियां पिण सफल कराई रे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्री करज्यो ||११|| तेहवो जिणहरपासे वार कोडनी लागतिभासेरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । देवराणी जेठाणी आलानी अजब कहाणीरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो ||१२|| इहां देवल सोहवधारी नेमनाथजी बालब्रह्मचारीरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । कस वट पाहण केरी मूरत सुरमा रंग हेरीरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो || १३ || देवल वाडोदीठो तो लागै नयणै मीठोरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । तिहांकेई देवल पासे लोक जोवेघणो तमासोरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो ||१४|| त्रिणगाउआगल जाइये देवल देखी सुख लहियेरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । चौमुखप्रतिमा च्यारो आदिनाथ देवजुहा - रोरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो ||१५|| सोबनमें साते झिंगमिंग रही दिन रातोरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । मणचबदेसे चम्माली जिण बिंत्रनो भार निहालोरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी wwwwww Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ritalike ในไตไดไไไ ไดอะไนไม้ไปได้ ในไทย 2. ไสได้ไง RRIORSatatalatalatkasakakkarathi hotENTError- at- A २१२ जन-रत्नसार । यात्रा करज्यो ॥१६॥ श्रीमाली भोम सो भागी जिणवरथी जसु लय लागीरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । एहनी करणी वाहवाही इहांलीयो । लखमी लाहोरे, यात्रीडा भाई आजीनी यात्रा करज्यो ॥१७॥ ए डूंगरियै आवी जिण यात्रा करे मनभावीरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो । जिहांतिहां पूजरचावे नाटकिया नाच करावेरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो ॥१८॥ रातीजोगो दिवरावो जिनवरना जसगुण गावोरे, यात्रीडा भाई आजीनी यात्रा करज्यो । साहमीवच्छल कीन्यो, जातडलीनो जसलीजोरे, यात्रीडा भाई आवजीनी यात्रा करज्यो ॥१९॥ आगेथी आवी चाली वातां केई अचरज वालीरे, यात्रीडा भाई आबूजीनी । यात्रा करज्यो । सुणियेछे जे कोई अहिणाणे जोज्यो तेई रे, यात्रीडा भाई आवूजीनी यात्रा करज्यो ।।२०॥ एतीरथ गुणगावो यात्रा नोफलते पावरे, यात्रीडा भाई भावूजीनी यात्रा करज्यो । एतीरथसमतोलेकुण आवे रूपचन्द बोलेरे। यात्रीडा भाई आबूजीनी यात्रा करज्यो ॥२॥ इस प्रकार जयवियराय. अरिहंतचेझ्याणं० अणत्य. कह एक णमोकार का काउसग्ग करे। सिद्धिगिरि स्तुति ___ सुदी पक्षनी पूनम चैत्रमास शुभवार, विधिसेति लहिये आगम साख विचार । इम सोले वरस लग धरिये ज्ञानउदार, करतां नरनारी पामें भवनोपार ॥१॥ स्तुति कह निम्न खमासमणपूर्वक जयति देवे । श्री सिद्धगिरि जयति १ श्री शत्रुञ्जाय नमः । २ श्री पुण्डरीकाय नमः । ३ श्री सिद्धक्षेत्राय नमः । ४ श्री विमलाचलाय नमः। ५ श्री सुरगिरये नमः । ६ श्री महागिरये नमः । ७ श्री पुण्यराशये नमः । ८ श्री पर्वताय नमः। ९ श्री पर्वतेन्द्राय नमः । १० श्री महातीर्थाय नमः । ११ श्री शाश्वताय नमः । १२ श्री दृढ़शक्तये नमः । १३ श्री मुक्तिनिलयाय नमः । १४ श्री पुष्पदन्ताय नमः । १५ श्री महापद्माय नमः । १६ पृथ्वीपीठाय नमः । १७ श्री सुभद्र শিক্ষাগুরুত্বপূর্ণ স্বাদুল ในสไ# # ใคร • ใช้ไม้สัก ผู้ที่มีระยไtlel #ดไทยส ไฟ khetmattreatmatalathernationalistastiststarNERA Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग २१३ मा Srrr... ............................ ใดใดได้ใจได้ ที่ใดได้ใน ไดปัดไ% โดยได้ให้โอไอ ๆ ได้ไซต์wwให้ได้ให้ใครครองครัดในไตได้ । गिरये नमः । १८ श्री कैलाशगिरये नमः । १९ श्री पातालमूलायनमः । । २० श्री अकर्मकाय नमः । २१ श्री सर्वकामपूरणाय नमः । श्री सिद्धगिरि चैत्यवन्दन (दोहा) श्री सिद्धाचल सकल सुख, सागर सिद्धि निधान । दुःख निवारण सिद्धि हित, वन्दं धर बहुमान ॥१॥ श्री सिद्धाचल पर सुजन, जो सीधा चल जाय । भव वन में भूले न वह, अजरामर पद पाय ॥२॥ श्री सिद्धाचल शिखर पर, शिवरमणी अधिवास । गुण थानक नर जो पढ़ें, पावें सौख्य विलास ॥३॥ श्री सिद्धाचल अचल पद, आश्रित जन आधार । मोह महारि नरेश का, जहां न दण्ड प्रचार ॥४॥ श्री सिद्धाचल उच्चता, करे नीचता नाश। कर्म शिकारी का जहां, चले न कोई पाश ||५|| श्री सिद्धाचल जो लखे, आतम अन्तर रूप । वे जन निर्धन भी यहां, होवें त्रिभुवन भूप ॥६॥ श्री सिद्धाचल निकट में, प्रकट महोदय योग । विकट तमोगुण को हरे, · भरे अतट सुख भोग ॥७॥ श्री सिद्धाचल क्षेत्र की, 1 महिमा अपरम्पार । नित्य घनाघन कर्म बिन, देता फल विस्तार ॥८॥ श्री । सिद्धाचल सम यहां, है सिद्धाचल आप । अनुपमेय उपमा रहित, गुण हैं। । भरे अमाप ॥९॥ भीम भवोदधि डूबते जीवों का आधार । द्वीप अनुत्तर सुखद यह, सिद्धाचल जयकार ॥१०॥ शान्त अपूर्व गिरीश यह, शत्रुञ्जय सुविशेष । भूति भोग वृष वर शिवा. लम्बन रुद्र न लेश ॥१॥ पुरुषोत्तम श्रीपद नरक, नाशक अभिनव भाव। पर वृष भेदी है न यह, गिरिवर पुनित प्रभाव ॥१२॥ ब्रह्म सनातन वरविधि पावन परम पुराण । है सिद्धाचल किन्तु भव लय, कारण परमाण ॥१३॥ तिमिर हारि खरकर सुभग, मित्र अनन्त प्रकाश । यह सिद्धाचल है अहो !, अस्त रहित अवकाश ॥२॥ राज राज अमृत निधि, सोम कला गुण धाम, औषधीश है सिद्धगिरि, निलाञ्छन उद्दाम ॥१५॥ घन आश्रय सुरपथ परम, विशद विष्णुपद खास । है अनन्त यह तीर्थपति, पर नहीं शून्याकाश ||१६|| रसमय जीवन इधर महा, मोद हेतु घनरूप । धूम योनि पर है न यह, सिद्धगिरीश अनूप ดไอดน โกคาปัด 1 อโศพไปได้ใจ ได้คนได้ในใจไดทอนปั่น steelครได้ลใจใดใดไกลไผetคให้ฟัง ได้ใครใคไหนใคร ครั้งที่ 1 1 0 1 ด้ใจไปได้ไง Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Salahita K aam...wwrearran.m .... h alitKERAYAN K नत्रजननननननननननन प्रमाणपत्र नवनग्राम २१४ जैन-रनसार ॥१७॥ धर्मराज समवति गुण, महासत्य यमराज । है सिद्धाचल किन्तु यह, मृत्यु विनाशक साज ॥१८॥ धर्मधातु श्रीधन सुगत, महा बोधि भगवान् । है सिद्धाचल पर न है, क्षणिक वाद परधान ॥१९॥ श्रीनन्दन प्रद्युम्न पद, कला केलि अभिराम । है सिद्धाचल विश्व में, पर नहीं मन्मथ काम ॥२०॥ क्षमा मूर्ति अचलाकृति, सर्वसहा समान । श्री सिद्धाचल है सदा, पर नहिं कुपद विधान ॥२१॥ संवर जीवन सर्वतो मुख घन रस परिणाम । है सिद्धाचल सर्वथा, पर नहिं जड़ता धाम ॥२२॥ रत्नाकर पावन निधि, दिव्य महाशय नव्य । पर सागर जल निधि नहीं, यह सिद्धाचल भव्य ॥२३॥ पावक तमनाशक शुचि, मल जड़ता क्षय हेतु । है न हुताशन सिद्धिगिरि, शिव मन्दिर वर केतु ॥२४॥ जगत्प्राण शीतल महा बल पवमान अमान । नूतन सिद्धाचल अहो, अप्रकम्प गुणवान ॥२५॥ जय जय सिद्धाचल विमल गुण जय जय गिरिराज ! । जय जय अनुभव सिद्धपद जय त्रिभुवन सिरताज ॥२६॥ जय जय सुख सागर विभो ! जय जय जगदा धार !। जय तीर्थेश्वर जय अभय, दाता जय जयकार ! ॥२७॥ जय . भगवन् अघहर सदा, जयशत्रु अय भाव ! । जय साधक सिद्धिस्थिते! al जय सुव्रत विधि दाव ! ॥२८॥ जय सुरगण नायक हरि, पूज्य दयामये देव ! । जय जय मोह महोदधि, शोषकपद स्वयमेव ॥२९॥ जय सविनय सुकवीन्द्र गण कीर्तित गुणमणिमाल । जय सुचिरंजय सिद्धगिरि, शरणागत प्रतिपाल ॥३०॥ चैत्यवन्दन के बाद “जंकिंचि०, णमोत्थुणं०, जावंति. चेइयाई, जावंत केविसाहू, नमोऽर्हत.” कहकर श्रीसिद्धाचलजी का तीस गाथा स्तवन कहे। . सिद्धगिरि स्तवन गाथा ३० मंगल कमला कंद ए, सुखसागर पूनम चन्द ए। जगगुरु अजिय जिणंद ए, शांतीसर नयणानन्द ए॥१॥ बिहुं जिनवर प्रणमेव ए, बिहुं गुण गाइस संखेव ए । पुण्य भंडार भरेसुए, मानव भव सफल करेसु ए ॥२॥ askilanakikatkaliRintellikirilalitilankakatitisarliationalishapatiKitaliakistaktishalindialiksexkkk प्रधानपत्र k kkk SANTACTORAAS Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ satokkuktadoktsaktatolestaticallstatekotatoescalesledesbeskolestatekakkakedantestsestarte प्रस्तस्त्र प्र प त्र ... न.प्र.प्र. विधि-विभाग २१५ कोडहि लाख पचास ए, सागर जिणशासन भास ए । रिसह जिनेसर बंस ए, उवझाय सरोवर हंस ए ॥३॥ इण अवसर तिहां राजियो ए, राजा जितशत्रु जग गाजियो ए । विजया तसु घर नार ए, बिहुँ रमयति पासासार ए॥४॥ कूख हि जिन अवतार ए तिण राय मनाव्यो हार ए । उयर वस्यो दसमास ए, पभु पूरी जननी आस ए ॥५॥ बिहुँ जण मन आणंदियो ए, सुत नाम अजिय जिण तो दियो ए । तिहुअण सयल उछोह ए, क्रम क्रम बाधे जगनाह ए ॥६॥ हंस धवल सारिस तणी ए, गति सुललित निजगति निरजणी ए । मलपति चालै गैल ए, जाणे नयण अमीरस रेल ए ॥७॥ अवर न समो संसार ए, वलि ज्ञान विवेक विचार ए । गुण देखी गज गह गह्यो ए, लंछन मिसि पग लागी रह्यो ए ॥८॥ जोवन वय जब आवियो। ए, तब वर रमणी परणावियो ए । पीय साधै सब काज ए, प्रभु पालै पुहवी राज ए ॥९॥ हिव हथणाउर ठाम ए, विश्वसेन नरेसर नाम ए। राणी अचिरा देव ए, मनहर सुखमाणे बेव ए ॥१०॥ चवदह सुपने परवरयो ए, अचिरा उयरें सुत अवतरयो ए । मानव देवबखाणियो ए, चक्कीसर जिनवर जाणियो ए ॥११॥ देस नयर हुय संत ए, तिण नाम दियो श्री शांत ए। जिन गुण कुण जाणे कही ए, त्रिहुं भुवणे तसु ओपमा नहीं ए। ॥१२॥ नयण सलूणो हिरण लो ए, वन सिंहे बीहै एकलो ए। नयण समाधि निरोध ए, इण नयणे नारि विरोध ए ॥१३॥ गीतही राग सुरंग ए, पिण पभणै लोक कुरंग ए । तो ऊलग्यो ससि संक ए, तिण पाम्यो नाम कलंक ए ॥१४॥ इण पर मृग अति खलभल्यो ए, भय भंजण सामि सांभल्यो ए। आणदियो मन आपणो ए, पाय सेवे मिस लंछन तणो ए ॥१५॥ लीलापति परणे घणी ए, नवनविय कुमर राया तणी ए । बल छल अरियण जोगवे ए, पीय राय भली पर भोगवे ए ॥१६॥ कुमर तणे मंडल समें ए, पंचास सहस वरसां गमे ए । तो तेजे दिणयर जिसो ए, ऊपन्नो चक्करयण तिसो ए॥१७॥ साधी भरह छ खंड ए. वरतावी आण अखंड ए। चवद रयण नव निहि सही ए, वसु सोल सहस जक्खें अही ए॥१८॥ सहस बहुत्तर । में पुर वरा ए, बत्तीस मौडबद्ध नरवरा ए। पायक गामै कोड़ ए, छिन्नवे नमें ปังไอไอดไขปังปังใจในไอดใสไรไม่ไดปัฐนไปใช้งใจไว้ใจใจได้ไว้ในคลได้ใจไดได้ใจคนใดใดไอไดไไดไไไไไไดไว้ในใจใครองใจ ในใจใคคปัจจดใจไปของคนไตใจไดพใดได้ใจได้ ในไle Aleled ledดไดไไไไไไไไไไไไง प्र.प्र.प्र.प्र.न.प्र.प्रत्र प्रा.प्र.प्र नत्र Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Padmastisatok o tathakhabbatatakhattsasiatestasaktebrtastictatorotelasantee जैन-रत्नसार काठमप्रवन्धनपू x ज बे कर जोड़ ए ॥१९॥ हय गय रहवर जुजुवा ए, लख चौरासी मन्दिर, हुआ ए । लाख त्रि वाजिन घमघमें ए, बत्तीस सहस नाटक रमें ए ॥२०॥ * रूप जिसी सुरसुन्दरी ए, लक्षण लावण्य लीलाभरी ए । जंगम सोहग देहरी ए, ऐसी चौसठ सहस अंतेउरीए ॥२१॥ अवरज ऋद्धि प्रकार ए, मणि कंचण ।। रयण भंडार ए । ते कहिवा कुण जाण ए, वपुवपुरे पुण्य प्रमाण ए ॥२२॥ इम चक्कीसर पंचमो ए, चोथो दुसम सूसम समो ए । वरस सहस पचवीस ए, सब पूरी मनह जगीस ए ॥२३॥ इण पर बिहुँ तीर्थकरा ए, चिर पालिय राज विविध परा ए । जाणी अवसर सार ए, बिहुं लीधो संयम भार ए ॥२४॥ बिहुँ खम दम धीरम धरी ए, बिहुं मोह मयण मद परिहरी ए। बिहुँ जिण झाण समाण ए, बिहुं पाम्या केवलज्ञान ए ॥२५॥ बिहुं देवहि कोडहि मैमहि ए, बिहुँ चोतीसै अतिसय सहि ए । समवसरण बिहुँ ठाण ए, बिहुँ योजन बाणि बखाण ए ॥२६॥ नाचे रणकत नेउरी ए, बिहुँ आगली इंद अंतेउरी ए। दृगमिग जोवे जग सहू ए, रंगहि गुण गावै सुर बहू ए ॥२७॥ बिहुँ सिर छत्र चमर विमला, बिहुं पगतल नव सोवन कमला । बिहुँ । जिण तणे विहार ए, नवि रोग न सोग न मारि ए ॥२८॥ बिहुँ उवयार भुवन भरी ए, बिहुँ सिद्धि रमणि सयम्वरी ए । बिहुँ भञ्जी भव फंद ए, बिहुँ उदयो परमाणंद ए ॥२९॥ इम बीजे ने सोलमो ए, जाणे चिन्तामणि सुर तरु समो ए।थुणि अति संझ विहाण ए, तिहां इह परिभव नविहांण ए ॥३०॥ बिहुँ उच्छव मंगल करणा बिहु संघ सयल दुरिय हरणा । बिहुवर कमल वनण वयणा, बिहुँ श्री जिनराय भुवण रयणा ॥३१॥ इम भगते भोलिमतणी ए, श्री अजिय शांति जिण थुय भणि ए । सरण बिहु जिण पाय ए, श्री मेरु नन्दन उवझाय ए ॥३२॥ इस प्रकार स्तवन कहकर जयवियराय. अरिहंत चेइयाणं. अणत्थ. कह निम्न स्तुति पढ़े। उपयुक्त स्तवन अजितनाथस्वामी और शान्तिनाथरवामी का प्राचीन पुस्तकों में तीमगाथा का स्नवन न होने से यहां दे दिया गया है ये दोनों ही तीर्थकर शत्रुभय पर्वत पर । समवसरे थे। ཛཱནཱཐཱ༩ ; ཙཱཎསཱ ཨཱརོཔོནཱ ཨཱ ཨཱིཔཧཱ ཨཱ་༔ ཤཱམསྶ ཡཱ་ནིཡམཎཱཡཱ, ཨཱ • *, ཨཱཨཱཡཱ ཙྩམས་རྒྱུ་ཡག ། ཀཱཡ། ཏོག, ད ནཱཨཱཡཱ པདག་ AEANXXXANTheadlineDabaliDCOORDARom न -11- 2 a nmmmm 241-22-2214 %20AM རྨ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ akttarakatanatarabakiathlo.RUAtithililatesMiGOGANDARIDAYeaK Atmarate.storestha विधि-विभाग २१७ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww an - ramv... Amwamir. katahattakikarakalash kakalilinbreakikhakikipakistankikularlarlahikarina on.onkatinipkot.krinlinterfier.ki.liokarnintainkileakiokarne.katokuttekadashik सिद्धगिरि स्तुति सेत्रुजामंडण आदिदेव, हूं अहनीस समरूं ताससेवे । रायणतल पगलां प्रभुतणा, पूजी सफल फलसोहामणा ॥१॥ श्री सिद्धगिरि जयति . १ श्री शत्रु ञ्जयाय नमः। २ श्री पुण्डरीकाय नमः। ३ श्री सिद्धक्षेत्राय नमः। ४ श्री विमलाचलाय नमः ।। ५ श्री सुरगिरये नमः । ६ श्री महागिरये नमः । ७ श्री पुण्यराशये नमः। ८ श्री पर्वताय नमः । ९ श्री पर्वतेन्द्राय नमः । १० श्री महातीर्थाय नमः । ११ श्री शाश्वताय नमः । १२ श्री दृढ़शक्तये नमः । १३ श्री मुक्तिनिलयाय नमः । १४ श्री पुष्पदन्ताय नमः । १५ श्री महापद्माय नमः । १६ श्री पृथ्वीपीठाय नमः । १७ श्री सुभद्रगिरये नमः । १८ श्री कैलाशगिरये नमः । १९ श्री पातालमूलाय नमः । २० श्री अकर्मकाय नमः । २१ श्री सर्वकामपूरणाय नमः । ये सिद्धगिरि की खमासमणपूर्वक जयति देवे । श्री सिद्धाचल तीर्थराज चैत्यवन्दन परमातम पदची लहें, पुण्डरीक गणनाथ । चैत्री पूनम पर्वमें, पंचकोटि न मुनिसाथ ॥१॥ पुण्डरीक गुणधाम यह, पुण्डरीक गिरिराज । यातें पावन तीर्थ जय, पुण्डरीक सिरताज ॥२॥ मंजुल मन मोहन जहां, पसरे परम । सुवास । पुण्डरीक गिरिराज यह, पुण्डरीक पद खास ॥३॥ कर्म विकट शठ गजघटा, नाशे अपने आप । पुण्डरीक गिरिराज है, पुण्डरीक परताप ॥४॥ मोह महा धनतिमिर भर, झटपट होवे दुर । पुण्डरीक गिरिराज पर, पुण्डरीक गुण नूर ॥५॥ नमि विनमी विद्याधरा, दो कोटी मुनि संग । शत्रुञ्जय गिरिराज पर, कर कर्मों से जंग ॥६॥ शत्रुञ्जय कर आतमा, वर्ण गन्ध रस हीन । रूप अरूपी होगए, निजगुण सुख लयलीन ॥७॥ दश कोटी मुनि संगमें, द्राविड वारिखिल्ल । गए सिद्धगति सिद्धगिरि, नाश किया भव : सल्ल ॥८॥ वैभाविक पर्याय से, विरहित हो कर जीव । स्वाभाविक पर्याय पा, हुए सिद्धगिरि शिव ॥९॥ साढे आठ कोटि यहां, यदुपति कृष्ण Barakhanaatmtaarakshitamarpalkokamehtakodarali.skatonbitoslocattsbrrakastahikitalionlaosclosureshsanlalishamitals halosantarah nisatiseDEEPTESTRallationlenlaiminanmins tottaranslati 9.atkarmakatar.nlm.hit.h 28 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LGmatathorisadekakkarles-a-CEskestreamistakoottotopiahtisatatatata tatatahatetstatertare जैन-रनसार REAxar mariawaad Meditate stantrikhalasirplcationalitientistatition- l प्रणयप्रगतमामयप्रकवनमत्रसप्रमाणपत्र प्रनयनत्रजनप्रमाणप्रत्रन कुमार । प्रद्युम्नादिक शिव गए, कर भव सागर पार ॥१०॥ पांडव पांच * महाबली, विजयी हो संसार । सिद्धि वधू स्वामी हुए, अजरामर अवतार ॥११॥ परम जैन धर्मी परं, अन्य लिंग पद धार । नव नारद पाए यहां, शिव सुख अपरंपार ॥१२॥ द्रव्य समर्थक भावका, अन्तर उन्नत भाव । भावे भव भय नाश हो, यहां यही गुण दाव ॥१३॥ सब उन्माद व रोग के, हेतु धातुका शोष । करे द्रव्य संलेखना, यहां सदा सुख पोष ॥१४॥ निज गुण रोधक कर्म सह, राग द्वेषका रोध । यहां भाव संलेखना, करे स्वगुण । प्रतिशोध ॥१५॥ भविजन होते हैं यहां, शान्त कान्त शुचि अंग । पुण्यामृत कल्लोलमें, करके स्नान सुरंग ॥१६॥ ज्ञानावरण वियोगते, लोकालोक अशेष । जाने केवल ज्ञान पा, यहां अनन्त विशेष ॥१७॥ यहां दर्शनावरणका, होते नाश अनन्त । वस्तुगत सामान्यता, दर्शन होत अनन्त ॥१॥ पुद्गल संगत वेदनी, कुटिल कर्म हो नाश । अव्याबाध अनन्त सुख, होत यहां सुप्रकाश ॥१९॥ यहां मोहके नाश तें, हो मिथ्यात्व अभाव । गुण अनन्त सम्यक्त्व में, प्रकट रमण सुभाव ॥२०॥ चंचल नयन निमेष सम, आयुषका कर अन्त । पावें थिति भविजन यहां, अक्षय सादि अनन्त ॥२१॥ नाम कर्म इन्द्रिय विषय, रहें नहीं लवलेश । यहाँ निरंजन सिद्धता, अनुभव होत विशेष ॥२२॥ गौत्र कर्म नाशे यहां, प्रकटे समतो रूप । और अगुरु लघु योगते, सुखमय रूप अनूप ॥२३॥ अन्तराय के अन्तसे, पसरे वीर्य अनन्त । दानादिक शुभ लब्धियां, निज सत्ता विलसंत ॥२४॥ निज गुण ठाठ मिटा रहे आठ कर्म संयोग । तीर्थराज पे आतमा, उनका करे वियोग ॥२५॥ मित्रा तारादिक विशद, आठ दृष्टि उल्लास । योग अंगकारण यहां, पावें परम विकाश ॥२६॥ खेद खेप आदिक यहां, आठ दोष हो दूर। सहज महोदय हो यहां, परम योग अंकूर ॥२७॥ यम नियमादिक आठ विध, योग योग निर्धार । यहां आठ विध कर्मका, होता है संहार ॥२८॥ भव गुण आठों कर्मके, बन्ध सुदुःख निदान । उदय और उदीरणा, निज सत्ता सन्धान ॥२९॥ यहां निजातम वीर्य से, गुणठाणा क्रम रूढ़। भेद करें भव्यातमा, पावें गूढ़ निगूढ़ ॥३०॥ नहीं पांच संस्थान जहां, और। जलचन्द्रनयन्त्रणमा i khitakalakNAGay-closluslati b iotiabilionkanyatilakatraRati Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग २१६ न वेद विकार | पांच वर्ण दो गंध रस, पांच न जहां प्रचार ||३१|| स्पर्श आठ होते नहीं, जहां न होती देह । जन्म नहीं न जरा जहां, यही दिव्य गुण गेह ||३२|| सिद्ध अचल शाश्वत सकल, पुनरागमन विहीन | चौदराज लोकान्त थिति, लोकोत्तर सुख पीन ||३३|| पर गुण कारकता नहीं, न जहां ग्राहक शक्ति | कर्तृत्वादिक भाव जहं, निज पदमें ही व्यक्ति ॥३४॥ उत्पाद व्यय ध्रुवगुणी, आतम द्रव्य अभंग । गुण पर्यायों में सदा, पूर्ण समाधि सुरंग ||३५|| अस्ति नास्ति आदिक जहां, विद्यमान सतभंग | स्यादवाद सुख सिन्धु में, भेदाभेद तरंग ||३६|| चउगति चक्कर से परे, परम सिङगति सार | सिद्धाचल चढ़ते उसे, पाते हैं नर नार ||३७|| तीर्थराज महिमा अगम, अलख अगोचर रूप । त्रिभुवनमें सबसे बड़ा, यही सर्व सिर भूप ||३८|| जय सुख सागर पुण्डरीक, जय जय श्री भगवान् । जय सुर गणनायक हरी, पूज्य महोदय थान ||३९|| जय जय श्री आनन्द घन, देव चन्द्रपरधाम । नित कवीन्द्र कीर्तित करूं, प्रातः काल प्रणाम ॥४०॥ चैत्य वन्दन के बाद “जंकिंचि०”, “णमोत्थुणं.”, “जावंति चेइयाइं . ", " जावंत केवि साहू ० ", " नमोऽर्हत.” कहकर श्रीसिद्धाचल तीर्थाधिराज का चालीस गाथा का स्तवन पढ़े । 1 सिद्धाचल तीर्थराज स्तवन गाथा ४० परम कल्याण हितकारी, विमल गिरिराज जयकारी | विजय जय कीर्तिगुणधारी, विमल गिरिराज जयकारी || ढेर || कल्पतरु काम कुम्भादि, न इसकी शान रखते हैं। समीहित दिव्यफलदाता, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० १ ॥ यहां आते हुये जन के, अलौकिक भाव होते हैं । अनूठा क्षेत्र उपकारी, बिमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० २ ॥ जलाता क्रोध अग्नि है, जगत को पर यहां आते । स्वयं जल राख होता है, बिमल गिरिराज जयकारी || परम० ३ || बड़ा जो मान का पर्वत, जगत को मानता नीचा । वही नीचा यहां होता, विमल गिरिराज जयकारी || परम० १॥ न माया डाकिनीकामी, यहां कुछ जोर चलता है | हमेशा दूर 1 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vartseitera rtistkharkatirantakehatise-kakh trehakakakakarktekarketikakkalert २२० जैन-रनसार wwwwwwwwwwwwwwwwwwamrawraramin PlayeriagyeeM RANAMAHAamittaithilithiansatarrotalathkailabak रहती है, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ५ ॥ यहां पर लोभ का सागर, सहज में सूख जाता है। महा तेजो मयी मूर्ति, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ६॥ कलुषित भावना वाली, कुलेश्या कृष्ण नीलादि। यहां पर नाश होती हैं, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ७॥ सुलेश्या तेज पद्मादि, विमल गुण भावना वाली। यहां सुविकाश पाती हैं, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ८॥ निमित्तों की शुभाशुभता, शुभाशुभ काम करती हैं। जगत के शुभ निमित्तों में, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ९ ॥ अकारण काम कोई भी, यहां होते नहीं देखा । सुकारज में सुकारण है, विमल गिरिराज जयकारी । परम० १०॥ सफल काल स्वभावादि, यहां पर पुष्ट होते हैं । सुकारण कारणों का है, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ११॥ यहां पर आतमा होती, प्रमाणित सच्चिदानन्दी । नयों से • और प्रमाणों से, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० १२ ॥ अहेतु हेतु, वादों से, प्रतिष्ठित निर्विवादी है। परम गुण प्राप्त विधि हेतु, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० १३ ॥ स्वभाविक व्यंजना पर्याय, अनुभव खूब होता है । यहां पर आतमा का सत, विमल गिरिराज जयकारी । परम० १४ ॥ निजावस्था रमणता में, अनन्ते अर्थ पर्याया। यहां प्रत्यक्ष होते हैं, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० १५ ॥ असत् सत् आदि * सत भंगे, अरथ पर्याय संवेदन । यहां होता विशदतर वर, विमल गिरि राज जयकारी ॥ परम० १६ ॥ असत् सत वा उभयरूपे, त्रिभंगे व्यंजना में होती । यहां निज आत्म की अनुपम, विमल गिरिराज जयकारी । परम० ॥ १७ ॥ तपस्वी भव्य गुण योगी, यहां पर शुद्ध ध्यानी हो । 'अनन्ते । सिद्ध होते हैं, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० १८ ॥ चराचर धन्य वे जगमें, यहां जो जीव रहते हैं । भवोदधिपार करते हैं, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० १९॥ विराधक और आराधक, यहां पर बन्ध अरु मुक्ति । सहज में प्राप्त करते हैं, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० २० ॥ है. यहां यात्रा करें पूजा, चतुर्विध संघ भक्ति जो। सकल सुर शिव सुखी होवे, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० २१ ॥ नरक में पापफल भोगे, जलजलालाबानमन्वनयन्त्रमन्द्रमा गग rexploditillapshikhika hillticarilalita tratilakalairtantinatialailertainlandnanlahabaleanik नगन h alipadlinalesedralian teerleadainchilnatak Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-1-1-1-1-1-%eesaas tasy Jaste विधि - विभाग २२१ 1 यहां पर यात्रियों को जो । सतावें दुःख दें या तो, विमलगिरिराज जयकारी ॥ परम० २२ ॥ जिनेश्वर तुल्य जिन प्रतिमा, सुपूजा को विमलजल से । यहां करते विमल गुण हो, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० २३ ॥ यहां चन्दन सुखद पूजा, सकल सन्ताप हर करके । मनोहर दिव्य पढ़ देवें, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० २४ ॥ यहां वर पुष्प पुंजों की, सुगन्धी दिव्य मालाए ं । चढ़ाते सिद्धगति चढ़ते, विमल गिरिराजं जयकारी ॥ परम० २५ ॥ दशांगी धूप करने से, यहां जन पाप हरते हैं । अशुभ दुर्गन्ध को टारे, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम ० २६ ॥ यहां पर दीप करने से, तिमिर भर नाश होता है । पुनित परकाश होता है, विमल गिरिराज जयकारी || परम० २७ ॥ सरल शुभ अक्षतों का जो, करें स्वस्तिक यहां पर वे । चतुर्गति चूर देते हैं, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० २८ ॥ सरस नैवेद्य ढोते हैं, यहां जो पुण्य पावें वे । अनाहारक परमपदको, विमल गिरिराज जयकारी || परम० २९ ॥ अनुत्तर फल चढ़ावें जो, यहां फल दिव्य पाकर वे । करम फल मुक्त होते हैं, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ३० ॥ यहां पर आरती करते, निजारति दुःख लय होवे । महोदय प्राप्त होता है, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ३१ ॥ सुमंगल दीप करने से, अमंगल भाव हटते हैं । परम मंगल यहां होवे, विमल गिरिराज जयकारी || परम० ३२ || यहां पर द्रव्य पूजा भी, समुन्नत भाव प्रकटाती । हरे फिर भाव भव भय को, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ३३ ॥ यहां पूजक हुए होवें, सदा स्वाधीन सुख भोगी । महागुण पूज्यतावाले, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ३४ ॥ प्रभु श्रीकेवलज्ञानी, प्रमुख तीर्थंकरों की भी। यहां सिद्धि हुई शाश्वत, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ३५ ॥ यहां शुक सेलगादिक ने, खपाये आठ कर्मों को । हुए अकलंक आनन्दी, विमल गिरिराज जयकारी || परम० ३६ || यहां रघुवंश रामादिक, विजेता द्रव्य अरु भावे | अभयपद पूर्णता पाए, विमल गिरिराज जयकारी || परम० ३७ ॥ निजाम में यहां आते, प्रकटता पूर्ण सुखसागर । न दुःख का लेश रहता है, tualndacinal ptotoslmolest pertatilotsoba Yeotects toletestbotaot of otest-Iotnatastestuot; Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जन-रत्नसार विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ३८ ॥ यहां जो भक्त आते हैं, सही भगवान् होते हैं | अनिर्वचनीय महिमामय, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ३९ ॥ सुगुरु हरिपूज्य पद पावन, कवीन्द्रों से सुकीर्तित हैं । सदा वन्दे सदा वन्दे, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम ० ४० ॥ *** A tarkestaar A स्तवन के बाद "जय वीयराय” "अरिहंत चेइयाणं” “अणत्य” ४० अथवा १ लोगस्स का कायोत्सर्ग करे । काउसग्ग पार कर " नमोऽर्हत्" कहकर स्तुति कहे श्री शत्रुञ्जय स्तुति श्री शत्रुञ्जय गिरि तीरथसार गिरवर माहें जेम मेरु उदार, ठाकुर राम अपार मन्त्रमांहि नवकारज जाणुं । तारामा हे जेमचन्द्र वखाणुं जलधर मांहे जल जाणुं पंखी मांहे जेम उत्तमहंस, कुल मांहे जिम ऋषभनोवंश नाभितणो जे अंश क्षमावंत मांहे जेम अरिहंता । तपसूरा मुनिवर महंता, शत्रुञ्जय गिरि गुणवंता ॥ १ ॥ श्री सिद्धगिरि जयति ||१|| श्री शत्रुञ्जयाय नमः ||२|| श्री पुण्डरीकाय नमः ||३|| श्री सिद्धक्षेत्राय नमः || || श्री विमलाचलाय नमः ||५|| श्री सुरगिरये नमः ||६|| श्री महागिरये नमः ||७|| श्री पुण्यराशये नमः ||८|| श्री पर्वताय नमः || ९ || श्री पर्वतेन्द्राय नमः ॥ १० ॥ श्री महातीर्थाय नमः || ११|| श्री शाश्वताय नमः ||१२|| श्री दृढ़क्तये नमः || १३ || श्री मुक्तिनिलयाय नमः || १४ || श्री पुष्पदन्ताय नमः ||१५|| श्री महापद्माय नमः || १६ || श्री पृथ्वीपीठाय नमः ॥१७॥ श्री सुभद्रगिरये नमः || १८ || श्री कैलाशगिरये नमः ||१९|| श्री पातालमूलाय नमः ||२०|| श्री अकर्मकाय नमः ||२१|| श्री सर्वकाम पूरणाय नमः । ये सिद्ध गिरिकी खमासमणपूर्वक जयति देव Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tartatta a shtration t hthahar विधि-विभाग २२३ ............. wwwwwwwM wwwwwwwwwmar ........... . Hardiuwaraavan . องใดใดในปรุง ใจจไดไ Rat-naash katulatarAREfiniti tattimlataraja Path tiharelina tantanatakarsataratatvart श्री शत्रुञ्जय तीर्थराज चैत्यवन्दन ॐ अहं पद पुण्यतम, त्रिभुवन पावन धाम । पुण्डरीक गिरिराज है, प्रतिदिन करूं प्रणाम ॥ १ ॥ अगमगुणी तीर्थेश की, महिमा अपरम्पार । सुरगुरु अथवा शारदा, कहत न पावें पार ॥ २ ॥ लघुमति गति अति भक्ति से, हूँ प्रेरित मैं आज । सुध बुध अपनी भूलकर, गाऊ तीरथ राज ॥ ३ ॥ तारक गुण धारक यहां, हैं सव तीरथ रूप। द्रव्य भाव के । भेद से, एक अनेक सरूप ॥ ४ ॥ जम्बू दक्षिण भरत में, सोरठ देश विशेष । तीर्थराज राजे वहां, त्रिकरण नम हमेश ॥ ५ ॥ सिद्धाचल संसार में, तीर्थ शिरोमणि सार । दर्शन वन्दन स्पर्शतें, भविजन तारण हार ॥६॥ शत्रुजय श्री पुण्डरीक, विमलाचल अभिराम । सुरगिरि महागिरि आदि गुण, मय ध्याऊं शुभ नाम ॥ ७ ॥ निजघर बैठे भावसे, जो तीरथ शुभ नाम । जाप करें उनके यहां, नाशे पाप तमाम ॥ ८॥ केवलज्ञानी आदि दे, तीर्थंकर अरिहंत । सिद्ध हुए होंगे तथा, काल अनन्तानन्त ॥ ९॥ ऋषभदेव स्वामी यहां, पूर्व नवाणं वार । रायण रूंख समोसरे, जिनवर जगदाधार ॥ १० ॥ पुण्डरीक गणधर गुणी, पंच कोटि मुनि संग। चैत्री पूनम में यहां, भोगें सौख्य अभंग ॥ ११ ॥ नमि विनमि विद्याधरा, दो . कोटि मुनिसाथ । फागण सुदि दशमी हुए, शिव रमणीके नाथ ॥ १२ ॥ चैत्र वदी चउदश दिने, शत्रुजय आधार । नमि पुत्री चउसठ लहें, शिव मन्दिर अधिकार ॥ १३ ॥ द्राविड़ वारिखिल्ल मुनि, दश कोटि अनगार । कार्तिक पूनम में यहां, पाये पद अविकार ।। १४ ॥ पांडव पांच तथा यहां, नव नारद ऋषिराज । प्रद्युम्नादिक यादवा, पाये अविचल राज ॥ १५ ॥ नेमि बिना तेवीस जिन. पावन गुण भण्डार । समवसरे गिरिराज पे, करतेपरउपकार ॥ १६ ॥ अजित शान्ति जिननाय दो, रहें यहां चउमास । आतमगुण उज्वल किये, सहज समाधि विलास ॥ १७ ॥ थावच्चा मुत सेलगादिक, मुनि केइ कोड़। कठिन कर्म जंजीर को, यहां झपट दें तोड़ ॥ १८ ॥ भरतेश्वर के पाटपे. असंख्यात भूपाल । सिद्धाचल पे सहज : में, छोड़ें भव जंजाल ॥ १९ ॥ जालि मयालि प्रमुख मुनि, आतम गुण ไดไไดไไดไดไe - ไอดใจไครไดไคลไดไขปัสดไฟไดเคสไอใครใจใคงไวพไตรไดคงคางได ไอ “ไอใจไฝจะจงใจไดไฮโดง ปังใจใจไew. a tkinnrnatiriktiohinath- edteeไดไไดไไไห้ใช้ ใจง คงไ -----trator or ด้ ใจไดไไไไไ + Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YahaniyaheetahkokakkekkkdadoeskoskakAKREAK-karkatokkokarNARENatasharelatiohsbhitenite २२४ mmenwwwwwwwwwwwwwin Mramannermaneurneamainturn. ... प्रधानमन्त्र प्राप्रप्रयाग्रामपत्रमग्राममननप्रा जैन-रत्नसार उद्दाम । प्रकटा कर पावें यहां, परमातम विश्राम ॥ २० ॥ सिद्ध अनन्तों के परम, पुनीत शान्त अणुयोग। मूर्तरूप यह सिद्ध गिरि, टारे भव दुःख | भोग ॥ २१ ॥ सिद्ध रूप की साधना हित सुन्दर आकार । सिद्धायतन | यहां करें, त्रिविध ताप अपहार ॥ २२ ॥ काल चाल से जीर्ण बे, होते हैं | निर्धार । तीर्थ भक्त भाविक करें, उनका जीर्णोद्धार ॥ २३ ॥ इस अवसपिणि काल में, हुए असंख्य उद्धार । उनमें भी सोलह बड़े, हुए विदित संसार ॥ २४ ॥ ऋषभ देव उपदेशतें, भरत भरतपति खास । करें प्रथम उद्धार को, पावन पुण्य प्रकाश ॥ २५ ॥ भरत आठवें पाट में, दण्डवीर्य भूपाल । उद्धारक दूजे हुए, जिन शासन उजमाल ॥ २६ ॥ इशानेन्द्र उद्धार को, करे तीसरी बार । दर्शन दर्शन योगते, तीन जगत जयकार ॥ २७ ॥ चौथे सुरलोकेशने, किया चतुर्थोद्धार । तीर्थ भक्ति करते भविक, पावें भवोदधि पार ॥ २८ ॥ पंचम पंचम देवपति, तीर्थोद्धारक धन्य । तीरथ सेवा जो करें, ता सम धन्य न अन्य ॥ २९ ॥ भुवनपतिअधिपति करें, छठा जिर्णोद्धार । होता जिर्णोद्धार में, अठगुण पुण्य प्रचार ॥ ३० ॥ तीरथ वर उद्धार को, करें सातवीं बार । सगर चक्रवर्ती जयी, तीरथ भक्त उदार ॥ ३१ ॥ व्यन्तरेन्द्र सुनकर करें, अभिनन्दन जिन। पास । अष्टम वर उद्धार को, आठ करम धन नाश ।। ३२ ॥ नवमें उद्धारक हुए, चन्द्रयशा नरनाथ । चन्द्रप्रभु के पौत्रवर, शिव रमणी के नाथ ॥ ३३ ॥ निज पितु शान्तिजिनेश के, सुनकर शुभ उपदेश । दशवें उद्धारक हुए, चक्रधरेश विशेष ॥ ३४ ॥ मुनिसुव्रत स्वामी समय, दशरथ सुत श्रीराम । ग्यारहवें उद्धार को, करें परम गुणधाम ॥ ३५ ॥ निज जननी कुन्ती कथन, पाण्डु पुत्र सुविचार । पाप नाश कारण किया, बारहवां उद्धार ॥ ३६ ॥ विक्रम संवत एकसौ-आठ बीतते सार । पोरवार जावड़ करे, तेरहवां उद्धार ॥ ३७ ॥ संवत वार तिहत्तरे, बाहडदे श्रीमाल । चौदहवा, उद्धार कर, वरे विजय वरमाल ॥ ३८ ॥ संवत तेर इकहत्तरे, श्रीयुत । समराशाह । पनरहवां उद्धार कर, पाये पुण्य अथाह ॥ ३९ ॥ पनरह सौ । सत्यासी में, दोसी कर्माशाह । सोलहवां उद्धार कर, पाई शिवपुर राह ॥४०॥ स्त्रप्रतिप्रश्रमप्रताप बनननननन्त्रप्रपत्र प्रस्त Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Akhtatashatak-hdkakistiatatatatistikahakatatistialashaindisanta kalolockadashalisakesistashatatealthcateekarakanthatestant PRARArrammmmmmmmmmmmmarriomamiwwwmaniranamawonwww. Duratiretrikakirasokhtakatrkari-kate-totrest-iphotakatrkubaratekarotikakaitishtAtakaritakikatthatarkitsarkatarenariestikskitarakshatkatokilakdiliakkakki-ki-kokinaashakakopicialisaharana विधि-विभाग तीर्थोद्धारक धन्य यों, सुजन सुगुण भण्डार । हुए तथा होंगे सही, अजरामर अविकार ॥ ४१ ॥ तीर्थेश्वर संयोगते, तीथेश्वर पद योग । त्रिभुवन में तिहुंकाल में, पावें भवि सुख भोग ॥ ४२ ॥ जिन मन्दिर प्रतिमा पुनित, शत्रुजय शुभ भाव । करें करावें धन्य वे, पावें परम प्रभाव ॥ ४३ ॥ उत्तर गुण से हीन भी, साधु वेश अधिकार । तीर्थराज में प्रणमते, प्रकटे लाभ अपार ॥ ४४ ॥ शत्रुजय को भेटते, पापी होत अपाप । काती पूनम पर्व में, भाव प्रभाव अमाप ॥ ४५ ॥ जयतु सनातन सिद्ध गिरि ! जयतु विजयदातार । जयतु पाप सन्ताप हर, जयतु सार-संमार ॥ ४६ ॥ जयतु अधम उद्धार कर, जय जय पालन हार । जय अविकारी भाव धर,जय जय गुण भण्डार ॥ ४७ ॥ जय सुखसागर जय विभो ! जय भगवन् गिरिराज। । जय योगीश्वर गम्यपद, जय तीरथ सिरताज ॥ ४८ ॥ जय सुरगणनायक हरि-पूज्य रुचिर रुचि धार । जय अध्यात्म विकाश हित, पुष्ट हेतु विस्तार ॥ १९ ॥ जय अनन्तं अति शान्त गुण, सिद्ध सिद्धि सुखदाम । | जय "कवीन्द्र" कीर्तित ! सदा, सविनय करूं प्रणाम ॥ ५० ॥ चैत्यवन्दन के बाद “जकिंचि"--"णमोत्थुण"--"जावंति चेइयाई"जावंत केवि साहू"-"नमोऽर्हत् कहकर निम्न लिखित स्तवन कहे (लघु शत्रुञ्जय रास) दोहा-आदि जिनन्द दिनन्द सम, ज्योतिरूप जगतेय । आतम गुण परकाश कर, भवियण कुं सुखदेय ॥१॥ वाग्देवी प्रणमी करी, सद्गुरु शीश नमाय । सिद्धक्षेत्र का गुण कहू, सुभताने सुभत्याय ॥२॥ सुभता वचने चालतां, सदा सुरंभी देह । सुरपति नरपति सहुन में, या में शिव सुख तेह ॥३॥ सुमता जिन चेतन भणी, समझावे चित आय । प्रथम बात एही कहुं, सुणो भविक चितलाय ॥४॥ ( ढाल मारूजी की ) सुमता कहें चेतन भणी, साहिबजी, छोड़ो मिथ्या जाल हो । इक चित्ते एगिरि सेविये सा०, जो निज गुणनी चाह हो ॥ इक० ५॥ काल Barakhandrasheadliardadtakestralaatkalin MaladaslitatialishalisaekssockholesthapkindialoKisleakpdesakakirtial testiclestialaalakalbelistiblinikishalilahkanticlesladishaktishali l abalibahadik ketkatialistiblikasTHE-BK 29 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REArkkkek sikasikaran BrkRREENEtalatkukkakeforderat dexaks kratika- २२६ जैन-रत्नसार ariasa . Risila Yasanlatasalarmirekaatailatasthaobrastakshetatateethalaladalatasthat आल अनादी से रह्यो सा०, कुमति कथन वस होय हो भव मांहे भमतां दुःख सह्या सा० इक० ॥६॥ जन्म मरण करि नव नवा सा०, नट ज्युं वेश बनाव हो । चउगति में नाटक तुम कियो सा. इक० ||७|| नरक निगोद। में तुम रह्या सा०, क्षण नहीं पाम्यो सुख हो । किम भूलो दुःख देखी जिसा सा० इक० ॥८॥ देव मनुष्य अवतार में सा०, मोह बिडम्बना दुःख हो । चित्तधरने दुर्जन छोड़िये सा० इक० ॥९॥ बल अपणो फोरयां बिना सा०, दुर्जन न पड़े पाय हो । जस लिजे दुर्जन क्षय करी सा० इक०॥१०॥ * मुझकू कहये न संभरी सा०, तो पिण अवसर देख हो। तुम आगे बात सकु कही सा० इक० ॥११॥ उत्तम नर जिणने को सा. होय गुण अवगुण जाण हो । बलि जाणे मित्र कुमित्रने सा० इक० ॥१२॥ मुझ से। प्रेम धरी करी सा०, कीजे वचन प्रमाण हो। जिन मारग उत्तम आदरो साइक० ॥१३॥ चारित्र धर्मनी आगन्या सा०, धारो शिरपर आज हो । जिम पामो रंग वधामणा सा० इक० ॥१४॥ सुध सरधा जलकुं ग्रही सा०, र बोबे समकित बीज हो । नवपल्लव धर्मतरु ऊये सा० इक० ॥१५॥ उत्तम नर सुरपति पणो सा०, पुप्प सुगंधो जाण हो। फल इनका शिव सुख पामस्यो सा० इक ॥१६॥ उत्तम ज्ञान प्रकाश से सा०, सहु देखे निज रूप हो । परमातम पदकुं पिछाणिये सा० इक० ॥१७॥ तु मुझ बल्लभ है सदा सा०, तुम गुण अपरम्पार हो। परमातम पद तुंही अछे सा. इक० ॥१८॥ पिण निश्चे व्यवहार में सा०, निश्चे नयकु जाण हो । व्यवहारे शुद्ध क्रिया करी सा० इक० ॥१९॥ निज निज शक्ति अनुसरे सा०, पाले व्रत मन शुद्ध हो । नव पदनोध्यान हियेधरी सा० इक० ॥२०॥ सिद्धगिरि प्रवहण चढ़ी सा०, वेगे शिवपुर जाय हो। भवसागर पार पामो सुखे सा० इक० ॥२१॥ इण परि सुमता आयके सा०, समझावे भविचित्त हो । सुख पामें समझे भवि जीके सा० इक० ॥२२॥ (दोहा)-इण पर सुमता वयण सुण, आसन भव्वी जीव । हरषा धरी व्रत आदरे, धर्म अमृत * रस पीव ॥२३॥ सिद्धगिरि इक अवसरे, आया वीर जिणंद । इन्द्रादिक सहु आयने, वान्द्या धर आणंद ॥२४॥ सिद्ध गिरीना गुण सहू, सुणवा SS मन्त्रमन्त्री चन्द्रन्य न्त्रणमा genMeeder-ferejare a ktepathakKhataila l ituti A. MA h italilai.kiladailadMENTARYAN Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ust to 6% 4 -%%%%ได้ ใ% ได้นั้ นได้ อ อ น ไ js विधि-विभाग , f the tk-%e ki s t ได้ 4 ช.ม २२७ ........ ........ - u. annuwar.vommarawamawaaturumuviwwwmuminiuonmaramannamrat b saithaaran Kaithaloreshasreta tisleakistaircatoothalkotalby Yonlis BAnimadaniliatelianimli tri-katina tantabai.shemistamitatistskokanalemantastinationkancertretinospeakes thakaka-shakakakakakaaspitalistskoolantrokhastreliefiBobal-linkirefokieodharanlentialantahareenionlalk भवि चित्त धार । प्रभु पद पंकज, नमन कर, बैठा करी इकतार ॥२५॥ भगवन् दीनी देशना, सिद्धं गिरी सम आज । जगमें कोइ तीरथ नहीं, परतिख शिवपुर पाज ॥२६॥ काल अनादी से रह्यो, नाम ठाम परसिद्ध । साधु अनन्ता इण गिरे, अणसण लही शिव लिड ॥२७॥ नाम लियां सहु भय टले, दुःख दारिद्र होये दुर। दिन दिन अधिकी संपदा, पामे सुख भरपूर ॥२८॥ ( ढाल) ____ जंबू द्वीपने मांहे कह्यो रे लाल दक्षिण भरत प्रमाण रे, भविक नर । सहु देशां माहे सिरे रे लाल, सोरठ देश बखाण रे भ० ॥२९॥ इण गिरनी महिमा बड़ी रे लाल, कहे न सके कोई पार रे भ० । वीर जिणंदे भाखियो रे लाल ॥३०॥ विमलाचल प्रणमं सदा रे लाल, श्राद्ध गुणों सम नाम रे भ० । घर बैठां शुभ भाव थी रे लाल, ध्यान कियां सुख पाम रे भ० ॥३१॥ प्रथम अनादी काल से रे लाल, अनंत सीधा इहां आय रे भ० । अनंत साधु बलि सीधसी रे लाल, प्रणम ए गिरी राय रे - भ० ॥३२॥ फागुण सुदी दशमी दिने रे लाल, पूरब निन्नाणु बार रे। आदि जिणंद समोसरया रे लाल, चरण नमं सुखकार रे भवि० वीर० ॥३३॥ पुण्डरीक गणधर नम रे लाल, पंच कोड़ी मुनि साथ रे भ० । चैत्री पूनम दिन आयने रे लाल, झाली शिवपुर बाथ रे भ० * वी० ॥३४॥ नमि विनमि दो दो कोड़से रे लाल, इण गिरि कीनो बास रे भ० । फागुण सुदी दशमी दिने रे लाल, अविचल ज्यो प्रकाश रे भ० वी० ॥३५॥ नमि पुत्री चौसठ कही रे लाल, अणसण लही शिव पाय रे भ० । द्राविड़ संघ काती पून में रे लाल, दश कोड़ी सीधा इहां आय रे भ० वी० ॥३६॥ राम भरत पांडव कह्या रे लाल, बलि नारद नव आय रे भ० । थावच्चा सेलग मुनी रे लाल, जालि मयालि शिव पाय रे भ० वी० ॥३७॥ अजित शान्ति चौमासो रहा रे लाल, भविजीवां हित काज रे भ० । नेम बिना सहु आविया रे लाल, ए शिव पुरनी पाज रे भ० নুরুললুরুত্বৰুৱলম্বন্বয় ছিল tskostatisthkkotaborahilosotalk Yastratastich historiklankanda.toladakih treatmladaki Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार २२८ वी० ||३८|| साधु अनन्ता प्रतित्रकं केरे रे लाल, सीधा ध्यान लगाय रे भ० । मनमोहन गिरि सेवतां रे लाल, पातिक दूर पुलाय रे भ० वी० ॥३९॥ (दोहा) - कर जोड़ी नित प्रति नर्मू, सहू साधु मन भाय । सेश्रुंज महातम ग्रंथ से, भेद सुणो चितलाय ||४०|| भरतादिक सें आज लग, सोले उद्धार कहाय । ग्रन्थांतर में जेहना, भेद कह्या समझाय ॥ ४१ ॥ संप्रति काले ए रह्यो, षोड़समो उद्धार । करमचन्द डोसी तणो, जश रहो जग विस्तार ||४२|| देव भुवन जिम शोभता, नव बसी चैत्यना भाव । सुरपति नरपति सहु नमें, प्रगट्यां आतम दाव ||४३|| सहु बिम्बनी संख्या कहु, जेनव वसिमें होय । मूल नायक वसिनाम में, प्रगट कहु हुं जोय ||४४ || ( ढाल ) शत्रुंजय गिरि रे । ए चाल प्रथम विमल वि नमो रे नमो प्रणम् ए गिरि राय नेरे, धन्य दिवस थयो आज रे । सुमता ने सुपसाय थी रे, मनवंछित फल्या काज रे प्र० ||४५ || आयने रे, पूज्या जिन प्रतिबिम्ब रे | सभी चैत्यों में सोभता रे, छप्पन सै छप्पन बिम्ब रे प्र० ||४६|| नाभिराय सुत जाणिये रे, मूल नायक छवि शान्ति रे । मोती बसी में बिम्ब रह्या रे, पंचवीस सै बयालीस क्रांतिरे प्र० ॥४७॥ बाला वसि में सोमता रे, प्यार से षट् बिम्ब जाण रे । मूल नायक दो वसीतणारे, आदिनाथ गुण खाण रे प्र० ||४८ || अद्भुत बिम्ब मनोहरू रे, इग्यारे कर~ ऊंची जाण रे । विस्तार मान नब हाथ नो रे, मुझ बल्लभ जिम प्राण रे प्र० ||४९ || चौथी प्रेमा वसी हुं नमूं रे, आदिनाथ जगनाथ रे । पांच से अड़तीस जिहां रह्या रे, बिम्ब मिल्यां सहु साथ रेप्र० ॥ ५० ॥ अजितनाथ स्वामी तणी रे, पांचमी हेमावसी थाय रे 1 अड़सठ ऊपर तीन सै रे, बिम्ब नमूं गुण गाय रे प्र० ॥ ५१ ॥ ऊजम वसी छडी जाणिये रे, पद्म प्रभु जग भाग रे । ऋषभानन चन्द्रानने रे, वारिषेण वर्धमान रे प्र० || ५२|| बावन जिनाला शाश्वता रे, चौमुख नन्दीसर भाव 1 গশ प्र Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amour wwwwwwwwwwwwwwa.maavasna rathaKratantrtantraKAREstimattarthrithth threathtakitant-fake-tula fat-RAM विधि-विभाग । २२६ रे। च्यार से गुण तीस शोभता रे, बिम्ब अनोपम राव रे प्र० ॥५३॥ मूल नायक पार्श्व प्रभुतणी रे, प्रतिमा साकर वसि मांय रे। और तैयासी । बिम्ब छ रे, नयणे दीठां सुख पाय रे प्र० ॥५४॥ आदिनाथ छीपा वसी रे, बीस बिम्ब सुविशाल रे। नवमी खरतर वसी बिम्बनी रे, ओपमा रवि जिम भाल रे प्र० ॥५५॥ आदिसर चौमुख तणी रे, प्रतिमा चार सुखदाय रे। और बिम्ब तेवीस सै रे, पंचदश देख्यां मन भाय रे प्र० ॥५६॥ वारे सहस त्रिण सै ऊपरे रे, अठावन बलि होय रे । इम नववसि सहु बिम्बनी रे, संख्या कही में जोय रे प्र० ॥५७॥ पांडव मन्दिर जाणिये रे, मरुदेवी ट्रंक सुखकार रे । शासन देवीनी मंदरी रे, नेमचवरी धर्मद्वार रे प्र० ॥५८॥ रायण तल पगला नमू रे, गणधर मन्दिर जाय रे । चवदे से बावन तणा रे, नित नित प्रणमं पाय रे प्र० ॥१९॥ पुण्डरीक छवि मोहिनी रे, देख्या मन वस थाय रे । भीम कुंड शुचि जल भरयो रे, सूर्य कुण्ड जल नाय रे प्र० ॥६०॥ त्रिण षट् बारे गाउनी रे, भमती देउ तीन रे। उलका झोलहु दरसण करी रे, सिद्ध शिला सिद्ध चीण रे प्र० ॥६१॥ चेलणा तलाई में शोभती रे, अजित शान्ति धुंभ आत रे। भाडवा डूंगर हस्तगिरि रे, कदमगिरि कीनी जात रे प्र० ॥६२॥ इत्यादिक दरशण करी रे, सिद्ध बड़ सेवू आय रे । अगणित चरण प्रभुतणा रे, नमन करूं मन लाय रे प्र० ॥६३॥ देवपुरी जिम सोभतो रे, डूंगर अतिहि · विशाल रे। सहु जनपदना जातरी रे, पूजे सहस मिल भाल रे प्र० ॥६४॥ इम सिद्धगिरि मन लायने रे, त्रिकरण नमूं तिहुं काल रे। और नमूं सहु भव्यने रे, जे शुद्ध आज्ञा पाल रे प्र० ॥६५॥ प्रतिदिन ए गिरिवर चढ़ी रे, अष्ट द्रव्य । लेइ हाथ रे । द्रव्य भाव पूजा करे रे, मोहन सहु जगनाथ रे प्र० ॥६६॥ (दोहा)-इण परि संख्या बिम्बनी, करि आतम सुखदाय । अधिक बिम्ब कोई थापसी, नमसुं चित्त लगाय ॥६७॥ मन्द बुद्धि संयोग से, रही होय कछु भूल । तोपिण ओगुण छांडके, संघ हुवे अनुकूल ॥६८॥ प्रवल पुण्य संयोग से, मुझ सरिया सव काज । दरशण पायो गिरि तणो, पाम्यो जग यश आज ॥६९|| दान शील तप भावना, भेद धरमना चार । भाव बिना ప్రమునుండి తనను మతతతమవుతుందని మంతకమణిపోతుతనమును మనము 16604rantik ----...--.---.. నందుకు Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •ww.dive Akalikhabartibidietrier-take-Y Elder-tarai-Echodikhakakakak 3. A -% ใete-fie ได้เปิดใจ%%% ของ Get 3 สัจ ด้าน ไม่ต้อง จัง จนได้ไAle tie-Heeleder २३० जैन-रत्नसार ....................... . . . सहु छार सम, भाव सहु मुखत्यार ॥७॥ जिन प्रतिमा जिनसारखी, भगवन् वचन प्रमाण । भावधरी प्रभु पूजता, लहिये सुख निर्वाण ॥७॥ शिव सुख से विमुखजिके, मिथ्या दृष्टी जीव । जिन प्रतिमा उत्थापकर, बांधे भवनी नींव ॥७२॥ धन्य दिवस जे ऊग में, मुझ आवे शुभ भाव.। मनवंछित सुख जब मिले, प्रगटे निज गुण दाव ॥७३|| चिन्तामणि सुरतरु समो, ए तीरथ सुखकार । दिन प्रति गुण को समर के, पामं भवजल। पार ॥७॥ (दाल) सेठेज साधु अनन्ता सीधा, ए तीरथ नी अद्भुत महिमा, धारो चित्त मझार रे। पंच प्रमाद विषय सुख छंडी, भेटो गिरि सुखकार रे ए तीरथ० ॥७५॥ मनुषा जन्म * पायके जे भवि, भेटे नहि गिरि एह रे। ते नर गरभा वासे कहिये, पशु सम गिणती तेह रे ए तीरथ० ॥७६॥ जो तीरथ नी महिमा सुण के, उत्थापे निज बुद्धि रे । ते नर काल अनन्तो भमसी, दुर्लभ पामें सिद्ध रे ए तीरथ० ॥७७॥ इम जाणी मन भावधरी ने, भवि मिल आवे धाय रे । छहरी संयुत गिरि कु सेवे, प्रातः उठ मन भाय रे ए तीरथ० ॥७८॥ इह भव पर भव मांहे कीधा, जे नर पाप अधोररे । ते इण गिरि के फरसण सेती, दूर होय सहु चौर रे ए तीरथ० ॥७९॥ रोग सोग सहु नामें नासे, तूटे करम कठोर रे । दुष्ट देव देवी कामण सहु, भागे तीरथ जोर रे ए तीरथ० ॥८०॥ आलोयणा लेई प्रभु साखे, पाप मेल सहु धोय रे । क्षण * में निज गुण उज्वल पामें, रजक दृष्टान्त तु जोय रे ए तीरथ० ॥१॥ समक्तिधारी जे सुर वरनी, थापना रही इहां जोय रे । धर्म बंधव जाणी वसु द्रव्ये, पूजा करे सहु कोय रे ए तीरथ० ॥८२॥ देव सहाये सहु संघ मांहे, आनन्द मंगल होय रे। ईत उपद्रव भय नहिं व्यापे, दुख दरिद्र सहु खोय रे ए तीरथ० ॥८३॥ तीरथ यात्रा कर तीरथनी, भगति करो * मन शुद्ध रे। तीर्थकर पिण तीर्थ नमीने, दे उपदेश सुबुद्धि रे ए तीरथ० ॥८४|| निज निज शक्ति प्रमाणे जे भवि, सेल क्षेत्र निज बित्त मानव लगत्र मन्त्रमन्त्री चन्द्र ar. s ekxx. kariLalbu l karniosanilianitrilitarian Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Patantrattitutdardbtitlestonoktasanat-3-12-to-statestrelestorsarkt* stititik girl विधि-विभाग a m ३ । खरचे निज मा मुख सुणिया, काजरे ए limilam-famleseLIrbelimsainindianar ใดในใจ ใจ ได้ศ, ไค เดอโก คนคนโดนโดน 2 ๆ ไดจอ ใจน้องไอจนคนอไจโยง ได้ไปคงจะ มองไปๆมใจไกล แสง - RAL-Imli-lanki- kamaithlakar.kutantankirl-in E रे । खरचे निज मन भावधरी ने, पामें सहु जग कित्त रे ए तीरथ० ॥८५॥ र जिम तीरथ गुण गुरु मुख सुणिया, परतिख पाम्यां आज रे । इण विधि बिम्ब चरण सहु बंदी, सारया आतम काज रे ए तीरथ० ॥८६॥ धन ए चैत्री पूनम दिवसे, सन् उगणी सै तीस रे । धन्य घड़ी धन्य बेला एहि ज, पाम्या त्रिभुवन ईश रे ए तीरथ० ॥८७॥ दीन दयाल दयानिधि * उत्तम, ऋषभदेव जिनराय रे । एहिजा देव रह्या त्रिभुवन में, मोहन गुणना दाय रे ए तीरथ० ॥८८॥ (दोहा)-कर जोड़ी विनती करूं, सुणो गरीब निवाज । कर्म सधन दुरे करी, दीजे त्रिभुवन राज ॥८९॥ मोसे अधम संसार में, कर्म सधन बस होय । तप जप संयम नहिं पले, किम पामु पद तोय ॥९०॥ जे तुमरी आज्ञा धरे, तेहने दो जग राज। एह में प्रभु . अचरज नहीं, अचरज मुझने काज ॥९१॥ शशि गुण माहरो देखके, खमिये सहु अपराध । तुमरा वचन हिये वस्या, अचल अमृत रस स्वाद ॥१२॥ तीन तत्व चौरंग से, रंगाणी मुझ देह । अब मिथ्या तपतंग को, रङ्ग चढ़े नहिं रेह ॥९३॥ तुम सहाय जोमाहरो, चेतन निज गुण पाय । तो अविचल आज्ञा धरूं तन मन वचन लगाय ॥९४॥ इम विनती प्रभुनी करी, समकित निर्मल काज । द्रव्य क्षेत्र काल भाव बिन, मिले न शिवपुर राज ॥९५॥ रत्न जडित सिंहासने, रयण आभूषणसार । अद्भुत रथ बैठे प्रभु, उच्छव करे नरनार ॥१६॥ (ढाल ) आज महोच्छव रंग रलीरी, ____ आज उच्छव दिन मुझ मन भायो आ० । संघ सहु मिल गावे वधाई, रथ बैठा सोहे जिनरायो आज० ॥९७|| वीणा मृदंग ताल कंसाला, मधुर ध्वनी अंबर रही छायो आज० ॥९८॥ मुर्शिदाबाद पूरव दिशि छाजे, अजीमगंज गंगा पार बसायो आ० ॥९९॥ बुद्धसिंह विसनचंद मिल भाई, गोत्र दुधेडिया मांही कहायो आ० ॥१००|गिरि महिमा सुण भाव धरीने, विधिसे यात्र करी सुख पायो आ० ॥१०॥ पुण्य संयोग मिल्यो मोहे सजनी, आनन्द दायक संघ सवायो आ० ॥१०२|| आज अंगन मोय । mra t reer...----.... metimi rrrrr.. R E IAntart.....Error latute to.khnni.htrateratulater.ctTME-READ ไละโดดไปใครใคปันปฯ ได้ไงไงไกโด, คนไร ไel ไต,6%ไม่ไ9 ในหl4Y4.ใจ ไมโอนเงไก.ป. *1 ฟัง “คนดง คนมั่นคงออก-นื่อยไป Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ To Do Tootectedto Yo Yontacts tooto Y. जैन-रत्नसा २३२ सुरतरु फलियो, दुःख दारिद्र सहु दूर गमायो आ० ॥१०३॥ आज मनोरथ सहु मुझ फलिया, आज आनन्द मंगल बरतायो आ० ॥ १०४ ॥ गुरु खरतर जिन आज्ञा पालक, सोहें हंस सूरि महारायो आ० ॥ १०५॥ पाठक पद लायक गुण शोभित, सुगुण प्रमोद चैतन गुण पायो आ० ॥१०६॥ विद्या विशाल वाचक सुखदायक, पंडित लक्ष्मी प्रधान पसायो आ० ॥१०७॥ तासु सीस मोहन हित जाणी, उत्तम ए तीरथ गुण गायो आ० ॥ १०८ ॥ Pertan इस प्रकार स्तवन कहके जयवीयराय • अरिहंत चेइयाणं • अणत्य • कह एक णमोक्कार का काउसग्गपार निम्न स्तुति पढ़े । सिद्धगिरि स्तुति सेन्त्रुञ्जागिरि नमिये ऋषभदेव पुण्डरीक, शुभ तपनी महिमा सुणगुरु मुख निरभीक । शुद्धमन उपवासे, विधिसं चैत्य बन्दनीक । करिये जिन आगल, टाली वचन अलीक ॥१॥ 1 श्री सिद्धगिरि जयति १ श्री शत्रुञ्जयाय नमः | २ श्री पुण्डरीकाय नमः | ३ श्री सिद्धक्षेत्राय नमः । ४ श्री विमलाचलाय नमः | ५ श्री सुरगिरये नमः | ६ श्री महागिरये नमः | ७ श्री पुण्यराशये नमः । ८ श्री पर्वताय नमः । ९ श्री पर्वतेन्द्राय नमः | १० श्री महातीर्थाय नमः | ११ श्री शाश्वताय नमः । १२ श्री दृढ़शक्तये नमः । १३ श्री मुक्तिनीलाय नमः | १४ श्री पुष्पदन्ताय नमः | १५ श्री महापद्माय नमः । १६ श्री पृथ्वीपीठाय नमः । १७ श्री सुभद्रगिरये नमः । ४८ श्री कैलासगिरये नमः | १९ श्री पातालमूलाय नमः | २० अकर्मकाय नमः । २१ श्री सर्वकामपूरणाय नमः । ये सिद्धगिरि की खमासमणपूर्वक जयति देव पांच क्रोड़ साधुओंके साथ पालीताणा तीर्थ ( सिद्धाचलजी तीर्थ ) पर चैत्र सुदी १५ के दिन ऋषभदेव स्वामी के प्रथमगणधर पुण्डरीक स्वामी *** Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yatrakaesrtkessorsttismeshdbhabhartistskoshooto.sxebsksattatestoratikkatapost.caree Wwwwww wonww नगनननननन्यग्रमणप्रत्राप्रमाण FRahmalishshaliphalatasootilbhagananata Kapadantatoladkiokiantosholebr विधि-विभाग २३३ अनशन करके मोक्ष गये हैं इसीलिये इस पर्वत का नाम पुण्डरीकगिरि पड़ा है। सर्व तपस्या पारण विधि प्रथम अक्षत, नैवेद्य, फल, नगदी से ज्ञान पूजा करके इरियावहियं पडिकमामि० पीछे अमुक तप पारवा निमित्त मुहपत्ति पडिलेहूं ? ऐसा कह मुहपत्ति का पडिलेहण कर दो वंदना देवे । पीछे खमासमण दे “इच्छा कारेण संदिसह भगवन तुब्भे अमं अमुक तप पारावेह” कहे। गुरु के “पारावेमो” कहने पर पुनः खमासमण दे “इच्छाकारेण संदिसह भगवन् अमुक तप णिक्खेवणत्थं काउसग्गं कारावेह" । गुरु के “कारावेमो" कहने पर आठ स्तुतियों का देव वन्दन करे। तत्पश्चात् "अमुक तप पारणार्थ करेमि काउसग्गं० अणत्थ.” कह एक णमोकार का काउसग्ग पार थुई कह लोगस्स० कह णमुत्थुणं. कहे । पीछे नीचे बैठकर "भगवन् अमुक तप करते कोई अविधि या आशातना करी हो तथा जो कोई दूषण लगा हो उसके लिये मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं और ज्ञान भक्ति द्रव्य से भाव से किया होय सो प्रमाण फलदायक होजो" ऐसा कहे। गुरु के "णित्थारगा” पारगा होत्था । कहने पर पञ्चक्खाण करे । तदनन्तर 'अमुक' तप आलोयणा निमित्तं करेमि काउसग्गं० १६ णमोकार का काउसग्ग करे। पीछे यथाशक्ति स्वाध्याय करे गुरु भक्ति करे तथा स्वामीवत्सल कर याचकों को दान देवे, सन्मान करे । शान्ति पूजा विधि शुभमास,शुभतिथि,शुभवार,शुभ नक्षत्र,शुभघड़ी, शुभदिन, शुभमुहूर्त में पूजन करनेवाला तथा जिसकी तरफ से पूजन करायी जाय उसका चन्द्र में बल देखकर सात से लेकर एकसौ आठ तक स्नात्रिये जिन मन्दिर में में प्रतिमाजी के आगे पञ्च परमेष्ठी का पट्टा और दाहिनी तरफ दशदिकपाल * के तथा बायीं तरफ नवग्रहों के पट्टों को स्थापित करे इसके बाद एक a प्रत्रग्रन न.प्रय प्रजातनचन्नप्रवन्य tib ahia fistialaskaalo जननननननननननननन्त्र- Rasaikash kisbstithilakiNotankitatistation thatohtofastisaar 30 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैन-रत्नसार MilasaulikhMaulikali titi traula k thakur-Irritates listAREAKERCENThlila ka bhutniskashtamokatahkaRKARKakikat kolraki kakakaktak Hairmaaranasina Kakkartanate (टोकनी ) या घड़ा १ तांबा, मट्टी या पीतल के बड़े घड़े को सफेद । खड़िया से पोते और पोतकर एक साथिया अन्दर और पांच साथिये बाहर करें उस घड़े को पीतल या तांबे की परात (थाल) में घड़ोंची पर घड़ेको रखे। घड़ेके चारों तरफ चार सुपारी लगा दें जिससे घड़ा हीले नहीं फिर एक तिपाईं बड़े घड़े पर रखे उस पर एक छोटे घड़े को बीच में सुराख करके रखे उसको भी खड़िया से पोतकर पांच साथिये करे दोनों धड़ों में पञ्चरत्नर की पोटली मैनफल मरोडफली और एक एक फूलों का हार बांध देना चाहिये। फिर पञ्चरङ्गी३ इक्कीस खजली (पापड़ी) चारों तरफ बांधे । और एक मोलीका पिण्डा बनावे और घड़ेके सुराखमें उसे निकाल कर रस्सी में पापड़ी पोवे और चारों तरफकी खजलियों के बीच की रस्सी में बांध देवे । मोली का पिण्ड ठीक घड़े में विराजमान की हुई प्रतिमाजी की शिखरी पर ही होना चाहिये टेढ़ा नहीं होना चाहिये इसके बाद स्नात्री लोग। * अपने हाथ में मैनफल मरोडफली वांध स्नात्रपूजाट करावे तथा करे । दुध, दही, घृत, मिश्री केशर इनका पञ्चामृत बनाकर रखे इसके बाद पान होने चाहिये इनके ऊपर चावल, सुपारी बादाम, पांच तरह का मेवा, इलायची, लौंग, बतासे, फल, पैसे नगद तैयार रखे फिर आत्मरक्षा स्तोत्र ॐ परमेष्ठी नमस्कारं सारं नव पद्मात्मकं । आत्मरक्षा करं वज पञ्जराभं स्मराम्यहम् ॥१॥ ॐ णमो अरिहंताणं शिरस्क शिरसि स्थितम् । ॐ णमो सव्व सिद्धाणं मुखे मुख पटम्बरम् ॥२॥ halati kala thukaindiatiohilitatulaikleeasiniremAhilantoshitanatharitra hitichutilablebritannilialishalwarkaridab १घड़ा तांये का शुद्ध होता है। पञ्चरत्न, चांदी, सोना, मोती, मूंगा, माणक । ३यदि पाच रंग की पापड़ी न हो तो एक रंग से भी काम चल सकता है। ४स्नात्र पूजा में स्थापना का १) रुपया 1) आना निछरावल करना उपयुक्त है आगे मन्दिरजी को जैसा नियम हो। r datlabarikalestonkhixLitetaxy . 21- Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tasethikatha.tarkrarkitasksiketikotek विधि-विभाग Yashwakentertattatkaarticost - २३५ ได้ใจได้ใจได้ไพร ... ......ww.in wineerNam ใจไว้ในใจได้ยาวนาให้ในปัจจพงใช้ไลคโตสไปังใจใฯ พระรใช้งานโดใจ ใจ ขได้ไฟในไดน ใคงได้ดใด คงไม่ได้ คงๆ จะคงอดได้ให้ไวไอดได้จ%%%นักงา คใตดใจให้ใจใคดโดนใจเพสันจะใ ॐ णमो आयरियाणं अङ्ग रक्षातिशायिनी। ॐ णमो उवज्झायाणं आयुधं हस्तयोदृढम् ॥३॥ ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं मुच्छके पादयो शुभे । एसो पञ्चणमोकारो शिलावतमयीतले ॥४॥ सव्वपावप्पणासणो वप्रो वजमयो वहिः । मंगलाणं च सव्वेसिं खादिरंगार खातिका ॥५|| स्वाहान्तं च पदंज्ञेयं पढमं हवइ मंगलं । वोपरि वज़मयं पिधानं देह रक्षणे ॥६॥ महाप्रभावा रक्षेयं क्षुद्रोपद्रव नाशिनी । परमेष्ठी पदोद्भता कथितापूर्व सूरिभिः ॥७॥ यश्चैवं कुरुते रक्षा परमेष्ठी पदैस्सदा । तस्य न स्याद्भयं व्याधि राधिश्वापि कदाचनः ॥८॥ यह स्तोत्र तीनबार पढ़कर आत्मरक्षा करावे । आत्मरक्षा करनेवाले स्नात्रियों को गुरु महराज की तरफ ध्यान रखना चाहिये कि वह स्तोत्र पढ़ते हुए किस किस अङ्ग पर हस्तस्पर्श (हाथ फेरते) करते हैं उसी तरह स्नात्रियों को भी अपने शरीर पर हाथ फेरना चाहिये। सिरपर मुंह पर सब शरीर पर हाथों की मुट्ठी दृढ़ बांधनी चाहिये मूंछ पर हाथ फेरते हुए पैरों तक हाथ फेरना चाहिये शिखा (चोटी) पर हाथ रखकर जमीन को हाथसे बजाना चाहिये जबतक स्तोत्र पूरा न हो भगवान् की तरफ हाथ जोड़े रहना चाहिये । इसके बाद तीन णमोकार मंत्रके द्वारा स्नात्रियों की शिखा (चोटी) में गांठ दे यदि चोटी न भी होय तो बालों में मौली बांध कर शिखा का स्थापना करके तीन गांठ दे देवे । इसके बाद ॐ ह्रीं श्रीं असिआउसाय ३ नमो नमः । इस मंत्रको तीनवार स्नात्रियों के कान में सुनावे । इसके बाद मन्दिरजी में जितने भी अधिष्ठायक देव हों दादाजी., भैरूजी, यक्षजी, ई. देवीजी आदि का अप्टद्रव्य से पूजन करे, करावे । क्षेत्रपालजी तथा भैरूंजी। ใ5ใจรใจได้ในอนาคตในใจไ **ผจง-โจทั้งใจ% ไพโดยใช้ ด้ในใจไอไอได้ในใจได้ใจได้ ให้ใครได้งใจงได .* - -"...".. ไดนางใน 1.ค 16 หรือในไต Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R a ditiatashattrakshatar.kirtartothkaryakrantiktattatokhetarakpohtsANgakarsatyaka २३६ जैन-रत्नसार LAT-slash- S rrrrrrrrrrrrrrrrrone ... -.m e rnamarrrrrr . .. . .. .... ran. e प्रत्ययस्य नन्नयनननननननन्त्रणप्रणयन प्र rieslestatisteil-talo-Iladeisleadlrdestablect-sholactathokiatestlebradst- t को तैल तथा इत्र वरक, सिन्दूर चढ़ाकर उनका पूजन तथा आवाहन करे। पान ४२, बादाम ४२, किसमिस १६०, लवंग १६०, चावल पावभर, बतासा ४२ पैसे ४२ और पञ्च परमेष्ठी, दशदिक्पाल तथा नवग्रहों की भेटना में चांदी चढ़ावे और पञ्च परमेष्ठी से आधी आधी भेट दशदिक्पाल तथा नवग्रहों पर चढ़ानी चाहिये बीचके पट्टे पर पंचपरमेष्ठी सहित ज्ञान, दर्शन, माला के आकार की स्थापना करे दाहिनी तरफ के पट्टे पर दशदिक्पाल बायीं तरफ के पट्टे पर नवग्रह की स्थापना करते समय उनका आवाहन मंत्र पढ़ावे, या पढ़े। पञ्चपरमेष्ठी आवाहन मन्त्र ___ अर्हन्त ईशा सकलाश्वसिद्धा, आचार्य वर्या अपि पाठकेन्द्राः। मुनीश्वरा सर्व समीहितानि, कुर्वन्तुरत्न त्रययुक्त भाजः ॥१॥ इस मन्त्र के कहने के बाद कुसमाञ्जली छिड़के। इतना करने के बाद पंचपरमेष्ठीके पट्ट की। निम्न श्लोकों से पूजा करे। पञ्चपरमेष्ठी पूजन मन्त्र (अरिहंत पद पूजन मन्त्र ) अथाष्टदल मध्यान्ज कणिकायां जिनेश्वरान् । आविर्भूतोल्लसद्वोधाना व्रतस्थापयाम्यहम् ॥१॥ इस मन्त्रके पढ़ने के बाद जल, चन्दन, धूप, दीप चढ़ाके अरिहंत पद पर पान चढ़ावे । सिद्ध पदपूजन मंत्र ___तस्यपूर्वदले सिद्धान्, सम्यक्त्वादि गुणात्मकान् । निश्रेय सम्पद प्राप्तान निदधे भक्ति निर्भरः ॥२॥ यह मन्त्र पढ़के जल, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप चढ़ाकर सिद्धपद पर पान चढ़ावे, उसके बाद आचार्य पद का मन्त्र बोले । ___ आचार्य पद पूजन मन्त्र स्थापयामिततः सूरीन् दक्षिणेऽस्मिन् दले मले चरतः पञ्चधाचारान् षट् । चन्च कन्यवनप्रवचनवप्रवनवप्रवद्रप्रवद्रक ratilottilak-lalayalashtalksibihrrailikinitiatiTele लमशालामा जनप्रजनन t elaatkaaliaTalkin Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tentantiul, tentrata tootnotentato to to to Trakealistentothe taste विवि-विभाग २३७ त्रिंशद्गुणैर्युतान् । ॐ ह्रीं श्रीं सूरीभ्योः नमः स्वाहा । कह जल चन्दनादि चढ़ा आचार्य पद पर पान चढ़ावे । उपाध्याय पद पूजन मन्त्र द्वादशाङ्ग श्रुताधारान् शास्त्राभ्यनतत्परान् निवेशयाम्युपाध्यायान् पवित्र पश्चिमे दले । ॐ ह्रीं श्रीं उपाध्यायेभ्यो नमः स्वाहा । इस मन्त्र से उपाध्याय पद पर पान जल चन्दनादि चढ़ावे | साधु पद पूजन मन्त्र व्याख्यादि कर्म कुर्वाणान् शुभध्यानैकमानानउद्गपुत्रगतान् वारान् साध्याशीससुव्रतान् ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीं साधुभ्यो नमः स्वाहा। पढ़ जल चन्दनादि चढ़ा साधु पदपर पान चढ़ावे । दर्शन पढ़ पूजन मन्त्र जिनेन्द्रोक्त मत श्रद्धा लक्षणे दर्शने यजे । मिध्यात्व मथनं शुद्धं नस्तमीशान सद्दले ॐ ह्रीं श्रीं दर्शनपदेभ्यो नमः स्वाहा ||६|| इस मन्त्र से जल चन्दनादि चढ़ा दर्शन पद पर पान चढ़ावे | ज्ञान पद पूजन मन्त्र अशेष द्रव्य पर्याय रूपमेवाव भासकं ज्ञानमाग्नेयपत्रस्थं पूजयामि हिता वहम् । ॐ ह्रीं श्रीं ज्ञानपदेभ्यो नमः स्वाहा ॥७॥ यह मन्त्र पढ़ जल, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप चढ़ा ज्ञान पढ़ पर पान चढ़ावे | चारित्र पद पूजन मन्त्र सामायिकादिभिर्भेदैश्चारित्रं चारु पञ्चधा संस्थापयामि पूजार्थ पत्रह नैऋते क्रमात् ॐ ह्रीं श्रीं चारित्रपदेभ्यो नमः स्वाहा ||८|| यह मन्त्र पढ़ जल चन्दन पुप्प धूप दीप चढ़ा चारित्र पद पर पान चढ़ाने, चढ़ाने के बाद लाल वस्त्र से पट्टे को ढांक दे और मोली से साढ़े तीन आंटे देकर बांध दें उसके बाद फल फूल अक्षत सत्र मिठाई रख कर चांदी की भेंट चढ़ा । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Radhkrtekbesooby-ebdayaparbatook-recteristylentikki-basRAT-Akhasathisrg २३८ जैन-रत्नसार PRIdolrala- .... wwwwwwwwwwwwwwwwwww wwwww.orru wrwww REKATA नमनत्यनयन प्रधानमत्रतत्रमनधनपत्रणप्रत्रत्रवन नत्रनमन्त्रन्त्र भेट मन्त्र अर्हन्त ईशा सकलाश्च सिद्धा आचार्यवर्या अपिपाठकेन्द्रा मुनीश्वराः । सर्व समीहितानि, कुर्वन्तुरत्न त्रययुक्तभाजः । इस मन्त्रके पढ़ने पर भेटना चढ़ा दे। फिर दशदिक्पालों का आवाहन कर हाथमें कुसुमाञ्जली लेवे मंत्र बोलने पर छिड़क दे। दशदिगपाल आवाहन मन्त्र दिक्पाला सकला अपि प्रतिदिशं स्वस्वंबलं वाहनम्, शस्त्रहस्तगतं विधाय भगवतस्नात्रे जगदुर्लभे । आनंदोल्वणमानसा बहुगुणां पूजोपचारोचयं, सन्ध्यायाप्रगुणं भवन्ति पुरुतो देवस्थलब्धासन ॥१॥ इस मन्त्रके पढ़ने पर कुसुमाञ्जली पट्टे पर छिड़क दे और दशदिक्पालों के पट्टे की पूजन। Y ENAMEANAMANA-NAMANAYankhilaashaliliale AHATMANAAMKAnkaiatientedindialistialishantaba करे। nanaa प्रबलन प्र इन्द्रदिग्पाल पूजन मन्त्र ॐ इन्द्राय पूर्व दिगधीशाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणाई भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिंगृहाण जलंगृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतंगृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान्मुद्रां गृहणन्तु शान्तिं तुष्टिंपुष्टि ऋद्धिवृद्धि उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्रीं श्रीं इन्द्राय नमः। यह मन्त्र पढ़कर इन्द्र दिग्पाल पर पान चढ़ावे अग्नि दिग्पाल पूजन मंत्र ॐ अग्नये सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिनोट-जहां कहीं भी शान्ति पूजा अढ़ाई महोत्सव, नवपदमण्डल पूजा हो उसमें उस नगर का नाम, मन्दिरजी के मूलनायकजी का नाम, करनेवाले का नाम अमुक' शब्द को जगह, बोलना चाहिये और जहां जो नदी हो उसका नाम भी कहना चाहिये। n aanindian armara t ipatel जातन्त्र प्रता Kग्रस्ययनमगतग्रमण प्रयत्न करत प्रयत्न Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 विधि - विभाग २३६ णार्द्धभरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे असुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिं गृहाण गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु गृहणन्तु सर्वोपचारान्मुद्रां गृहणन्तु अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्रीं श्रीं अग्नये नमः || २ || इस मन्त्र के पढ़ने पर अग्नि दिग्पाल पर पान जलं गृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं शान्ति तुष्टि पुष्टि ऋद्धिं वृद्धिं उदयं चढ़ावे । *** यम दिग्पाल पूजन मंत्र ॐ यमाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणार्द्ध भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अन्नागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलि गृहाण जलं गृहन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान्मुद्रां गृहणन्तु शान्ति तुष्टि पुष्टि ऋद्धि वृद्धि उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ ह्रीं श्रीं यमाय नमः ||२|| यह मन्त्र पढ़ यमदिग्पाल पर पान चढ़ावे । नैऋत दिग्पाल पूजन मंत्र ॐ नैऋताय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणा भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण वलि गृहाण जलं गृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारानमुद्रां गृहणन्तु शान्ति तुष्टि पुष्टि ऋद्धि वृद्धिं उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ ह्रीं श्रीं ऋताय नमः ||४|| इस मन्त्रको पढ़के नेॠत दिग्पाल पर पान चढ़ावे | वरुण दिग्पाल पूजन मंत्र ॐ वरुणाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीप Tetincts Ya Pimpr" SPIRITTE Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arabhattarabhas its trainst Rana thotakaashtakaasankatah २४० जैन-रत्नसार L A L CHILAMG.MLAslim..india. a दक्षिणाई भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलि गृहाण जलंगृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान् मुद्रां गृहणन्तु शान्ति तुष्टि पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ ह्रीं श्रीं वरुण दिग्पालाय नमः ॥५॥ यह मन्त्र पढ़कर वरुण दिग्पाल पर । पान चढ़ावे । वायव्य दिग्पाल पूजन मंत्र ॐ वायव्याय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणाई भरत क्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे । अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिं गृहाणजलं गृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान् मुद्रां गृहणन्तु शान्ति तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धि उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ ह्रीं श्रीं वायव्याय नमः ॥६॥ इस मन्त्र से वायव्यदिग्पाल पर पान चढ़ावे । कुबेर दिग्पाल पूजन मंत्र ___ॐ कुबेराय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बु द्वीपे । दक्षिणाई भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानी भूय बलिं गृहाण बलिं गृहाण जलं गृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान्मुद्रां गृहणन्तु शान्ति तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ ह्रीं श्रीं कुबेराय नमः॥७॥ इस मन्त्र से कुबेरदिक्पाल पर पान चढ़ावे । ईशान दिग्पाल पूजन मंत्र ॐ ईशानाय सायुधाय, सवाहनाया सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणाई भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिनचैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे । মশলগ্নশ্বৰুন্ধত্বম্বন্ধ सनननननननननननननननननननननवलप्रलयूनतमन्त्र प्रमाणप्रत्र-प्रत्ननगमनमत्रप्रावणबत्रप्रपत्र llindiraskaryakisatisfierruinedictiladkariscolorMachhatarnaakriMartiactacleseseaki ate Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAHIsha Kakkathaxbagkataka raastatindakoddesaotalk talaskiladkeo kokhabKeybihar potestosane विधि-विभाग AnmoleokailbastikobsolutialaclesosiahtistirlinkoaliancelestialHATIONatokigs Rakestaste अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिं गृहाण जलं गृह्णन्तु चन्दनं गृह्णन्तु पुष्पं गृह्णन्तु धूपं गृह्णन्तु दीपं गृह्णन्तुअक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यंगृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारानमुद्रा गृहणन्तु शान्ति तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ ह्रीं श्रीं ईशानायनमः ॥८॥ इस मंत्रको पढ़कर ईशान दिग्पाल पर पान चढ़ावे। ब्रह्म दिग्पाल पूजन मन्त्र ___ब्रह्मणे सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणाई भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिं गृहाण, जलं गृह्णन्तु चन्दनं गृह्णन्तु पुष्पं गृह्णन्तु धूपं गृह्णन्तु दीपं गृह्णन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान्मुद्रां गृहणन्तु शान्ति तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धि उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ ह्रीं श्रीं ब्रह्मणे नमः ॥८॥ इस मंत्र को पढ़कर ब्रह्मदिग्पाल पर पान चढ़ावे ।। .. नाग दिग्पाल पूजन मन्त्र ___ॐ नागाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणाई भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिनचैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिं गृहाण जलं गृह्णन्तु चन्दनं गृह्णन्तु · पुष्पं गृह्णन्तु धूपं गृह्णन्तु दीपं गृह्णन्तु अक्षतं गृहणन्त नैवेद्य गहणन्तु फलं गृहणन्त सर्वोपचारन्मुद्रां गहणन्तु शान्ति तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्रीं श्रीं नागाय नमः ॥१०॥ इस मंत्र से नागदिग्पाल पर पान चढ़ावे । इसके बाद दशदिक्पाल के पट्टे को लाल टल के कपड़े से ढांक कर मोली से तीन आंटे देकर बांध दे फिर दशदिकपाल के पट्टे के आगे फल फूल मिठाई अक्षत आदि रख चांदी की भेंट चढ़ावे । Nploalitis-to-hote-YAN-Andfastest-MAAYBaokaalikatibekale n tina Todaxcketerolbk **प्र 31 णालमुगागरागरागणमत-मल्ललगायत Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UPEEChetrotsaakabballot-todatokatyarthieldh takkabalhkokalkalakhsibilitatikutte २४२ wwwwwwwwwwammananmanne जैन-रनसार भेटना मन्त्र ( शार्दूल बिक्रीड़ित ) दिक्पाला सकला अपि प्रतिदिशं स्वं स्वं बलं वाहनम् शस्त्रं हस्तगतं विधाय भगवत् स्नाने जगदुर्लभे आनन्दोल्वण मानसा बहुगुणं पूजोपचारो | चयं,सन्ध्याया प्रगुणं भवन्ति पुरुषो देवस्य लब्धासन ॥१॥ इस मंत्र के कहने पर दशदिग्पाल के आगे चढ़ा दे। SrabhatatakalakaternatitloY-TIT-JhalartA1-Y (वायव्य कुबेर (उत्तर) ईशान Ekanket वरुण (पश्चिम) (ब्रह्म ) ऊर्ध्वलोक अधोलोक इन्द्र( पूरव) -LEAN Palle S KRITYASARDalaleta | ( ladki ) ak दशदिग्पालों को पट्टे पर इस तरह विराजमान करना चाहिये। नवग्रह आवाहन मन्त्र ( वसन्त तिलका) ___ सर्वे ग्रहा दिनकर प्रमुखा व कर्मः, पूर्वोपनीति फल दान करा जनानाम् । पूजोपचार निकर स्व करेषु लात्वा, सत्वांगतः सकल तीर्थकराचनेऽत्र ॥१॥ इस मन्त्र से कुसुमाञ्जली नवग्रह के पट्टे पर चढ़ावे (छिड़के)। नवग्रह पूजन मन्त्र (सूर्य पूजन मन्त्र) ___ॐ नमो सूर्याय सहस्र किरणाय रक्त वर्णाय सायुधाय सवाहनाय सपरि| कराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणाई भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानी NationalitikanikaalakatatatistkixEkaku Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Partitatattatasketikacaretakerteekerakoraldkiataktebar-keret-texdestinatakatfordeekstateferektakespeareka विधि-विभाग २४३ ammarwa......mmmmmwwwwwwwwwww.ne.m.. Sabaik محی عمومی می می میری مہم کے ترمیمی بیمه ای و تخبرنامه امینی भूय बलिं गृहाण बलिं गृहाण जलं गृह्णन्तु चन्दनं गृह्णन्तु पुष्पं गृह्णन्तु। धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान् मुद्रां गृहणन्तु अत्रपीठे तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ सूर्याय नमः ॥१॥ इस मन्त्र को पढ़ कर सूर्य ग्रह पर पान चढ़ावे । चन्द्र पूजन मन्त्र ॐ नमो चन्द्राय श्वेतवर्णाय षोडशकला परिपूर्णाय रोहिणीनक्षत्रस्य अधिपते सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणार्द्ध भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिं गृहाणं जलं गृह्णन्तु चन्दनं गृह्णन्तु पुष्पं गृह्णन्तु धूपं गृह्णन्तु दीपं गृह्णन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान् मुद्रां गृहणन्तु अत्रपीठे तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ चन्द्रायः नमः ॥२॥ यह मन्त्र पढ़ कर चन्द्रग्रह पर पान चढ़ावे । मङ्गल पूजन मन्त्र ____ॐ नमोभौमाय रक्तवर्णाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बु में द्वीपे दक्षिणाई भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिन चैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिं गृहाण जलं गृह्णन्तु चन्दनं गृह्णन्तु पुष्पं गृह्णन्तु धूपं गृहणन्तु दोपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान् • मुद्रां गृहणन्तु अत्रपीठे तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ भौमाय नमः ॥३॥ यह मन्त्र पढ़ कर मङ्गल ग्रह पर पान चढ़ावे । बुध पूजन मन्त्र ॐ नमो बुधाय नील वर्णाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणाई भरत क्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिनचैत्ये अमुक a letkibhaibhsa iske thsanchaaniisanlonlinensitishshalkinilialishalilialisaslilisinlisahkilabilil leslarkitakista-dishaakasmikashatistiatkamlalsothalokaktisamledishak h AREKARE Y Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ****** * Prakas जैन - रत्नसार *******N e non renn पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानी भूय बलि गृहाण बलिं गृहाण जलं गृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान् मुद्रां गृहणन्तु अत्रपीठे तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ बुधाय नमः || ४ || यह मन्त्र पढ़ कर बुध ग्रह पर पान चढ़ावे । Sa te te det to JLS w बृहस्पति मन्त्र · ॐ नमो बृहस्पतये पीतवर्णाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् द्वीपे दक्षिणार्द्ध भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिनचैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलि गृहाण बलिं गृहाण जलं गृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान्मुद्रां गृहणन्तु अत्रपीठे तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ बृहस्पतये नमः | इस मन्त्र से बृहस्पति ग्रह पर पान चढ़ावे ! - शुक्र मन्त्र ॐ नमो शुक्राय श्वेतवर्णाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणा भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिनचैत्ये अमुक पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिं गृहाण जलं गृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृणन्तु अक्षतं गृणन्तु नैवेद्य ं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान्मुद्रां गृहणन्तु अत्रपीठे तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ शुक्राय नमः | यह मन्त्र पढ़ कर शुक्र ग्रह पर पान चढ़ावे । I शनि मन्त्र ॐ नमो शनैश्वराय कृष्णवर्णाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणार्द्ध भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिनचैत्ये अमुक Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95.1-4 1111 fontttttttocks to sessest forests tastya विधि - विभाग पूजा महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिं गृहाण जलं गृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान्मुद्रां गृहणन्तु अत्रपीठे तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा शनैश्चराय नमः । - यह मन्त्र पढ़कर शनि ग्रह पर पान चढ़ावे । राहु मन्त्र ॐ नमो राहवे पञ्चवर्णाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणार्ड भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिनचैत्ये अमुक पूजा शनि (पश्चिम) सूर्य (मध्य) dattatrey+ गृहाण जलं महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलि गृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुष्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु गृह अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान्मुद्रां गृहणन्तु अत्रपीठे तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा राहवे नमः | इस मन्त्र से राहु ग्रह पर पान चढ़ावे | ॐ बृहस्पति (उत्तर) बुध (ईशान) (केतु (वाव) शुक्र (पूर्व ) २४५ ( नवग्रहों को पट्टे पर इस तरह विराजमान करना चाहिये । केतु मन्त्र - ॐ ॐ नमो कतव पञ्चवर्णाय सायुधाय सवाहनाय सपरिकराय अस्मिन् जम्बुद्वीपे दक्षिणार्द्ध भरतक्षेत्रे अमुक नगरे अमुक जिनवत्ये अमुक पूजा *- * foto both to yotnot to taste **** 1 to totn to totos - Inada totatoot ba Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Chhi kesath petroreakists keretstalkswakottotosadotakaladkisexobkaarohtotreatorstepteheart time जैन-रत्नसार BAKAASANAAD AAKC महोत्सवे अमुकाराधिते अत्रागच्छ अत्रागच्छ सावधानीभूय बलिं गृहाण बलिं गृहाण जलं गृहणन्तु चन्दनं गृहणन्तु पुप्पं गृहणन्तु धूपं गृहणन्तु दीपं गृहणन्तु अक्षतं गृहणन्तु नैवेद्यं गृहणन्तु फलं गृहणन्तु सर्वोपचारान्मुद्रां गृहणन्तु अत्रपीठे तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः उदयं अभ्युदयं कुरु कुरु स्वाहा ॐ केतवे नमः। यह मन्त्र पढ़ कर केतु ग्रह पर पान चढ़ावे । . दशदिक्पाल नवग्रहों की पूजा करने के बाद बलिवाकुल शुद्ध स्थान पर निम्न श्लोक बोल कर चढ़ाना चाहिये। अथ दशदिक्पाल बलि मन्त्र ऐरावतः समारूढ़ः शक्र पूर्व दिशिस्थितः । संघस्यशान्तयेसोऽस्तु बलि पूजां प्रयच्छतु ॥१॥ पूर्वदिशा की तरफ जल चन्दन बलिवाकुलादि चढ़ावे ॥१॥ अग्निदिक्पाल सदावह्नि दिशोनेता पावको मेष वाहनः । संघस्यशान्तयेसोऽस्तु बलि पूजां प्रयच्छतु ॥२॥ अग्निकोण में बलिवाकुलादि चढ़ावे ॥२॥ यमदिक्पाल दक्षिणस्यां दिशःस्वामी यमोमहिषवाहनः । संघस्यशान्तयेसोऽस्तु बलिपूजां प्रयच्छतु ॥३॥ दक्षिणदिशा की तरफ बलिवाकुलादि चढ़ावे ॥३॥ नैऋतदिक्पाल यमापरान्तरालोको नैऋतः शिववाहनः । संघस्यशान्तयेसोऽस्तु बलि पूजां प्रयच्छतु ॥४॥ नैऋतकोण में बलिवाकुलादि चढ़ावे ॥४॥ वरुणदिक्पाल यः प्रतीचीदिशोनाथः वरुणोमकरस्थितः । संघस्यशान्तयेसोऽस्तु बलि पूजां प्रयच्छतु ॥५|| पश्चिमदिशा की तरफ बलिवाकुलादि चढ़ावे ॥५॥ वायव्यदिकपाल हरिणोवाहनं यस्य वायव्याधिपतिर्मरुत् । संघस्यशान्तयेसोऽस्तु बलि पूजां प्रयच्छतु ॥६॥ वायव्यकोण में बलिवाकुलादि चढ़ावे ॥६॥ मंगलमुगलमा प्रदायक कम्प्यूट्यूटनगलागलामा प्रस्ताव प्रस्तावना Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ectacturertistrestaterstistskitcobble-to-historishsessishtosbhaitraditionarietatorykickassttikature २४७ mmnarrammarrrrrrrrrrrrrrorresrorrenomenoramireemernmenmmmmmarmerrrrrrrrrrrrrrrrren विधि-विभाग 4.นคนคได้ไมไดใจไว้ใจใคยใยคน โซโรโรงใจใครไปได้ 5 คน बलि वाकुल वासक्षेप मन्त्र ॐ ह्रां ह्रीं सर्वोपद्रवं बिम्बस्य रक्ष रक्ष स्वाहा । ॐ णमो अरिहंताणं । ॐ णमो सिद्धाणं । ॐ णमो आयरियाणं । ॐ णमो उवज्झायाणं । ॐ णमो लोए सव्व साहूणं । ॐ णमो आगासगामीणं । ॐ णमो चारणलहीणं जेइमे किण्णर कि पुरुष महोरग गरुड़ गंधव्व जक्ख रक्ख पिसाय भूय डाइणप्पभइओ जिण घर णिवासिणो सण्णिहि याय ते सव्वे विलेवण धूव पुप्फ फल वइवसणाहि बलि पडिच्छं ता तुहिकरा भवंतु पुट्टिकरा संतिकरा भवंतु । सव्वं जणं करंतु सव्वोजिणाणं संहाण पभावओ पसण्ण भावओ सव्वस्थ रक्खं करंतु सव्व दुरियाणि णासंतु सव्व सिव मुव समंतु संति तुहि पुट्टि सिव सत्थयण कारिणो भवंतु स्वाहा । ___पातालाधिपतिर्योऽस्तु सर्वदा पद्मवाहनः । संघस्यशान्तयेसोऽस्तु बलि पूजां प्रयच्छतु ॥१०॥ अधोदिशा की तरफ बलिवाकुलादि चढ़ावे ॥२०॥ दशदिग्पालों को बली चढ़ाने के समय जल, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, १० पैसे, पान आदि चढ़ाने के बाद चंवर डुलावे, शीशा दिखावे, शङ्ख, घड़ियाल, झांझ आदि बजावे इसके बाद अखण्डजल की धारा देवे । __ निम्नलिखित १८ स्तुतियों द्वारा क्रिया करे । देव वन्दन विधि पहले इरियावही खड़े होकर पढ़े चार णमोकार का ध्यान करे, उसके बाद लोगस्स० कहे फिर तीन दफे भगवान् को नमन करे और णमुत्थणं. सव्वेतिविहेण वंदामि तक कहने के बाद अरिहंत चेइयाणं. करेमि काउसग्गं खड़े होकर करे अणत्थ. उससिएणसे अप्पाणं वोसिरामि तक कहकर एक णमोकार का कायोत्सर्ग करे और नमोर्हत्सिद्धा. कहकर निम्नलिखित स्तुति कहे : 6ไลนใดไอโคโตโองได้ดไดA ใจงใจในไตไว้ในใจให้ได้ในใจใน ไทโตได้ในนัดอะไนนี้ใจไยฝันไจโรงปัดนี้ให้ได้โดนจได้ในจอไอโอดโอนในไว้ได้ไte ปัดให้เป็นไปสักคไดองไe * सात अनाजों के नाम गेहूं, चना, उड़द, मूंग, जव (जौ), मकई, बार। यह सतनजा उवालते हैं और उबाल कर चढ़ाते हैं। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V ERathkhtakathlettohtothkhtbhAtith-12thTAKATARATHIKARAarambharatrubhasa २४८ मन्त्रालयका प्रमाणपत्रमनप्रप्रयागमनमनमाननगर जैन-रत्नसार वीर स्तुति ॥१॥ यदंघ्रि नमना देव, देहिनः सन्ति सुस्थिताः। तस्मै नमोऽस्तु वीराय, सर्व विघ्न विघातिने ॥१॥ कहकर पारे पीछे लोगरस० सब्बलोए अरिहंत० वंदण वत्तियाए० अणत्थ० कह एक णमोकार का काउसग्ग करे और दूसरी स्तुति कहे। स्तुति ॥२॥ सुरपति नत चरण युगान् नाभेय जिनादि जिनपतीन्नौमि, यद्वचन पालन पराः जलांजलिं ददतु दुःखेभ्यः ॥२॥ कहने के बाद पारे पीछे पुक्खरवरदी. वंदणवत्ति. अणत्य० कह एक णमोकार का काउसग्ग करे पीछे तीसरी स्तुति कहे। स्तुति ॥३॥ वदन्ति वृन्दारगणाग्रतो जिनाः सदर्थतो यद्रचयन्ति सूत्रतः । गणाधिपास्तीर्थ समर्थनक्षणे, तदङ्गिनामस्तुमते न मुक्तये ॥३॥ कहने के बाद। पारे पश्चात सिद्धाणं बुद्धाणं. वेयावच्चगराणं० अणत्थ. कह एक णमोकार का काउसग्ग करे पीछे चौथी स्तुति कहे । स्तुति ॥en शक्रः सुरा सुरवरैस्सह देवताभिः सर्वज्ञ शासन सुखाय समुद्यताभिः । श्रीवर्धमान जिनदत्त मति प्रवृत्तान् , भव्याञ्जना भवतु नित्यममङ्गलेभ्यः ॥४॥ स्तुति कहकर पारे पीछे बैठे णमुत्थुणं. कहकर खड़े हो "श्रीशांतिनाथ देवाधिदेव आराधनाथ करेमि काउसग्गं, वंदणवत्ति० अणत्य. कह एक णमोक्कार का काउसग्ग करे । शान्ति जिन स्तुति ॥५॥ रोग शोकादिभिदोषैः रञ्जिताय जितारये । नमः श्री शान्तये तस्मै विहिता नत शान्तये ॥१॥ फिर 'श्रीशान्ति देवता निमित्तं करेमि काउसग्गं * अणत्थ. कह एक णमोकार का काउसग्ग करे बाद में निम्न लिखित स्तुति कहे। andolesalinstallanteditatialais-allectiotatistialititiati-tamanleakistindietkakANATASTEYAHARAVELEASEASTERNATiratKKARNEYamaskattratikaashar নম্বথুরুন্ধু ম্বন্বন্বন্বন্বন্বন্বন্বন্বন্বন্বন্বন্দর Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Antantasketerateeliratkisaaraahatirectronicientirdisanelectronmendslinest-dailasstatererterstandan विधि-विभाग २४६ ARSAARA AARNecese aamarparrow-MARAram u te thatni.lifatuitikatinathotilarlationshiktatistilathkarlimlastickerakAREntetstskirtantarashatisthitionalitehsihatirinainalihatibleindiahelicioliticarianiellestinians शान्ति देवता स्तुति ॥६॥ श्री शान्ति जिन भक्तोय भव्याय सुख सम्पदम् । श्री शान्ति देवता देयादशान्तिमपनीयते ॥१॥ इसके बाद 'श्रीश्रुत देवता निमित्तं करेमि काउसग्गं अणत्थ० कह एक णमोकार का काउसग्ग करे पीछे निम्नलिखित स्तुति पढ़े। श्रुतदेवी स्तुति ॥७॥ सुवर्णशालिनी देयात, द्वादशाङ्गी जिनोद्भवाः । श्रुतदेवी सदामह्य-मशेष श्रुत सम्पदम् ॥१॥ इसके बाद 'श्री भुवन देवता निमित्तं करेमि काउसग्गं. अणत्थः' कह एक णमोक्कार का काउसग्ग करे बाद में निम्नलिखित स्तुति पढ़े। भुवनदेवी स्तुति ॥८॥ चतुर्वर्णाय संघाय, देवी भुवन वासिनी । निहत्य दुरतान्येषा, करोतु सुख मक्षयम् ॥१॥ पीछे क्षेत्रदेवता निमित्तं करेमि काउसग्गं.' अणत्थ. कह एक णमोक्कार का काउसग्ग करे और क्षेत्रदेवता की निम्नलिखित स्तुति पढ़े। क्षेत्रदेवता स्तुति ॥९॥ ___यासां क्षेत्रगताः सन्ति, साधवः श्रावकादयः । जिनाज्ञां साधयन्तस्ताः, रक्षन्तु क्षेत्रदेवता ॥१॥ उक्त स्तुति कहने के बाद श्री अम्बिकादेवी निमित्तं करेमि काउसग्गं' अणत्थ. कह एक णमोक्कार का काउसग्ग करे और निम्नलिखित अम्बिकादेवी की स्तुति कहे। ___ अम्बिका देवी स्तुति ॥१०॥ अम्बानिहन्तु डिम्बामे सिद्ध बुद्ध समन्विता। सिते सिंहें स्थितागौरी वितनोतु समीहितम् ॥१॥ निम्नोक्त स्तुति कहने के बाद 'श्री पद्मावती देवी निमित्तं करेमि काउसग्गं अणत्य. कह एक णमोक्कार का काउसग्ग में करे बाद में पद्मावतीदेवी की स्तुति कहे । ไขใดไl๖ คนจะได้ไ% ใช้ไดไคโรไl, โจงใด โรงโป้ออาใจใดนัดคงคาใดได้ใจ ให้ได้ใกคไอสัดสังกะไดได้โดนใจใกใจในปัจจไปัดไขใจปัดได้ใกไทใดใดใดจะได้ไอดไดโอดใจได้ไปรักใดใดใจให้ใจงใจนักพรต วัดใจงใจของใจ% ได้ให้ได้ โดยไMeeใจได้ 1 ในไอ-ใช้ได้ไงน่ะ Smahittoh.kottit 32 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ afratector-tr २५० colo to tonto to Youto to Yauta Ya Ya Yot staita to Youto Youta testo tanto tostante roto test to जैन - रत्नसार *********** पद्मावती देवी स्तुति. ॥११॥ धराधिपति पत्नीर्या देवी पद्मावती सदा । क्षुद्रोपद्रवतः सामां पातु फुल्लत फणावली ॥१॥ पूर्वोक्त स्तुति कहने के बाद 'श्री चक्रेश्वरी देवी निमित्तं करेमि काउस्सगं' अणत्थ• कह एक णमोक्कार का काउसग्ग करे बाद में स्तुति कहे । श्री चक्रेश्वरीदेवी स्तुति ॥१२॥ चचच्चक्रधराचारु प्रवाल दल सन्निभा । चिरं चक्रेश्वरी देवी नन्दतानि भान्मां ॥१॥ इस स्तुति को कहने के बाद 'श्री अच्छुप्तादेवी निमित्तं करेमि काउसग्गं' अणत्य• कह एक णमोक्कार का काउसग्ग करने के बाद स्तुति कहे । श्री अच्छतादेवी स्तुति ॥ १३॥ खड खेटक कोदण्ड बाणपाणिस्तड़ित द्युतिः । तुरङ्ग गमनाच्छुता कल्याणानिकरोतुमे ||१|| निम्नोक्त स्तुति कहने के बाद में 'श्री कुबेर देवता निमित्तं करेमि काउसग्गं' अणत्थ० कह एक णमोक्कार का काउसग्ग करे और स्तुति कुबेर देवता की कहे । श्री कुबेर देवता स्तुति ॥ १४॥ मथुरापुरी सुपार्श्वः श्री पार्श्व स्तूप रक्षका । श्री कुबेरो नगा रूढ़ा सुतकावतुवो भयात् ॥ १॥ यह स्तुति कहने के बाद 'श्री ब्रह्म देवता निमित्तं करेमि काउसग्गं" अणत्य० कह एक णमोक्कार का काउसग्ग करे बाद स्तुति कहे । श्री ब्रह्मदेवता स्तुति ॥१५॥ ब्रह्मशान्ति समां पायादपायाद्वीरसेवकः । श्रीमत्सत्य पुरेसत्या येनकीर्तिः कृतानिज ॥ १॥ इसके बाद 'श्री गोत्रदेवता निमित्तं करेमि काउसग्ग अणत्थ० कह एक णमोक्कार का काउसग्ग करे और गोत्र देवता की स्तुति कहे । ন श्री गोत्र देवता स्तुति ॥ १६॥ या गोत्रं पालयत्येव सकलापायतः सदा । श्री गोत्र देवता रक्षां शंकरो - Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G 2005 kaththastrkathakborhootbathti tbottotohtasketbahhttttart.kkkkanane विधि-विभाग O 21-hittohtakini tattsbiractists R OL E inion -m ktolarkatt -LR ..........rat.LE म त नतांगिरां ॥१॥ पीछे 'श्री शक्रादि समस्त देवता निमित्तं करेमि काउसग्ग' अणत्थ. कह एक णमोक्कार का काउसग्ग करे पीछे स्तुति कहे। शक्रादि समस्त देवता स्तुति ॥१७॥ श्री शक्रप्रमुखायक्षाः जिनशासन संस्थिताः । देव्या देव्यस्तदन्येऽपि संघ रक्षत्वपायतः ॥१॥ यह स्तुति कहने के बाद 'श्री शासनदेवी निमित्तं * करेमि काउसग्गं' अणत्थ. चारलोगस्स या सोलह णमोकार का काउसग्ग करे पीछे शासन देवता की स्तुति कहे । श्री शासनदेवी की स्तुति ॥१८॥ श्रीमद्विमानमारूढ़ा यक्षमातङ्ग सेविताः । सा मां सिद्धायिकापातु चक्रे चापेषु धारिणी ॥१॥ बाद में लोगस्स. कहके बैठे पीछे चैत्य वन्दन णमुत्थणं०, जयवीयराय० पर्यन्त कहे। . ____ इस प्रकार सब क्रिया विधान कर बड़े घड़े में पञ्चतीर्थजी की प्रतिमा और नवपदजी का गट्टा शान्ति१ स्नात्रर करनेवाले को एक स्वास से तीन णमोकार गिन कर स्थापित करे उनके आगे पांच सुपारी पांच बादाम थोड़े में से चावल, चांदी नगदी, भगवान् के सम्मुख भेटस्वरूप रक्खे प्रतिमा स्थापना करने के बाद दो रनात्रिये अपने दो हाथों में पञ्चामृत से भरे हुए । बड़े बड़े कलश लेकर मैनफल मरोडफली बांध दे दो स्नात्रिये पञ्चामृत 1 से उन दोनों बड़े कलशों को भरते रहें एक स्नात्रिया चवर डुलावे एक नात्रियो केशर का छींटा और फल एक एक णमोकार मन्त्र पढ़कर बड़े घड़े में प्रतिमाजी पर चढ़ावे और दो स्नात्रिये एक एक णमोकार गिन शान्ति पूजा करनेवाले स्नात्रियों को एकासण तप और अष्टप्रहर ब्रह्मचर्य का पालन करना परमावश्यक है यदि इतनी तपस्या भी करना मंजूर न हो तो उन्हें स्नात्रिया नही यनना चाहिये। २ स्नान का जल शान्ति पूजा वाले घड़े में हो डाल दे। नोट-दशदिग्पाल तथा नवग्रह पूजन मन्त्रों में गृहन्तु की जगह गृहणन्तु थप गया है। पाटर वर्ग गृहन्नु पढ़ें। -मंशोधक r akrilankaarishtatakartatishthitiate that ............ -st...... ......1-3 ..................... millentitatustanka-30. . . ... ...--..----- - Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Notarikaak ketreetprakshatratiotestsistak raddatestakeskareoledeeksharalekedarlakakakk जैन-रनसार a rratekardostoaksatta జమునను याप्रबननननननननननननननननननननननननननननननन प्रस्ताजनप्रस्तानमन्त्र कर एक एक जलधारा देना शुरू करें तीसरी धारा (बराबर) अखण्डरूप से जबतक सप्तस्मरण का पाठ समाप्त न हो तबतक जलधारा बन्द न करें और पांच स्नानिये सप्तस्मरण१ का पाठ प्रारम्भ करें घड़ा जब प्रतिपूर्ण भर जाय तब एक एक णमोक्कार मन्त्र पढ़ कर जलधारा बन्द करदें। इसके बाद एक स्वास से तीन णमोक्कार पढ़कर प्रतिमाजी तथा नवपद गट्टे को बड़े घड़े से बाहर निकाले और निकाल कर जल चन्दन से अष्ट प्रकारी पूजा करे पीछे आरती करे आरती करने के बाद विसर्जन करने के लिये जल का कलश, केशर की कटोरी और कुसुमाञ्जलि हाथ में लेकर निम्नलिखित मन्त्र पढ़े। - विसर्जन मन्त्र आह्वानं नैव जानामि, नैव जानामि पूजनं । विसर्जनं नैव जानामि, त्वमेव शरणं मम ॥१॥ आज्ञाहीनं क्रियाहीनं, मन्त्रहीनं च यत्कृतं ।। तत्सर्व क्षम्यतां देव, प्रसीद परमेश्वरः ॥२॥ शकाद्या लोकपालादिशि विदिशिगता शुद्ध सद्धर्मशक्ताः। आयाता स्नात्र काले, कलुषहृतिकृते तीर्थ नाथस्यभक्त्याः ॥ न्यस्ता शेषा पदाद्या विहित, ' शिवसुखाः स्वापदं साम्प्रतन्ते । स्नात्रे पूजामवाप्यस्वमति, कृतिमुदो यान्तु कल्याणभाजः ॥३॥ यह मन्त्र पढ़कर पट्टों को स्थान से हटा दे फिर इसी मन्त्र से दशदिग्पालों२ को जहां बलिवाकुल चढ़ाया हो उनको अपने स्थान से నడువనను తన కవచమును మనకు తడుమునననన తననంతరము మనమంతను తన మనవడు తనను १ सप्तस्मरण का पाठ बहुत शुद्ध स्पष्ट रीत्यानुसार घड़ा पूर्ण होने पर ही समाप्त करे शान्ति पूजा में जलधारा के समय सप्तस्मरण के पाठ करने की ही आज्ञा है । , २ कई शहरों के मन्दिरों में नियम है कि दशदिग्पालों को जहा वलिवाकुल चढ़ाया जाता है वहां विसर्जन के समय मे भी जैसे प्रारम्भ में चढ़ाया जाता है वैसे ही विसर्जन के समय में भी चढ़ाया जाता है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIR A t ... .A E rristictornicatistatementation-kalhistorical-at-restaclestialestrolestiatataayatatien विधि-विभाग २५३ ... .. .. हटा दे शान्तिर पूजा की विधि समाप्त होने पर ज्ञानभक्ति गुरुभक्ति३ सधर्मीभक्ति४ करे। शान्ति पूजा की सामग्री ___घड़ा बड़ा, घड़ा छोटा, पट्टे तीन पञ्चपरमेष्ठी दशदिग्पाल नवग्रह, दो कलश टूटीदार बड़े, तिपाई, पीण्डी (घड़ोंची), लाल कपड़ा, सफेद कपड़ा, चावल, बादाम, बतासे, पिस्ता, लौंग, मिश्री, सुपारी, छुहारे, चिरोंजी, पान, इत्र, तेल, फल पांच तरह के, फूल पांच तरह के, रोली, मोली, धूप, दीपक, घी, खीर, बडे, पापडी, लापसी, वरक, नारियल, केशर, मिठाई पांच तरह की, दुध, दही, गुलाब जल, कपूर, पञ्चरत्न की पोटली, सतनजा, पैसे ( रेजगी), नगद रुपये, मैनफल, मरोडफली, सिन्दुर, नौ रंग के नौ कपड़े। नवपद मण्डल पूजा विधि स्वात्रियों का कर्त्तव्य है कि नवपद मण्डल पूजा करने से पहिले पांच, सात, नौ, ग्यारह, इक्कीस इकत्तीस से एक सौ आठ तक जितने । भी स्नात्रिये मिल सकें उन सबको पहिले अंग शुद्ध करने के लिये निम्नलिखित मन्त्रित जल से स्नान कराना चाहिये यदि स्नान कर भी। चुके हों तो भी इन मन्त्रों द्वारा निम्न क्रिया अवश्य करनी चाहिये । जल मन्त्र ॐ ह्रीं अमृते अमृतोद्भवे अमृत वर्पणि अमृतं श्रावय श्रावय स्वाहा । इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर जल शुद्धि करे । खान मन्त्र ___ॐ ह्रीं अमले विमले विमलोद्ववे सर्व तीर्थ जलोपमे पां पां यां वां अशुचि शुचि भवामि स्वाहा । इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर ग्नान करे । .१ शान्ति पूजा, नवपद मण्डल पूना, बीमाधानक मण्डल पूजा, प्रदिमाटल रा नारप्रनिष्टा आदि मियाविधान का कार्य ग्रन्थों को कदापि ना कराना चाहिये । जान की पूजन को मेंटना चढ़ाये। गुरुओं की भेंट चढ़ावें। १ मारमी भाइयों को प्रभावन दे साधी वत्सल को Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ no testoste Lost textestostecto ya to test to to to to to tits: २५४ twestostentactecta • How Yeston tertentesta Tastertonbet to totalista tot जैन - रत्नसार वस्त्र शुद्धि मन्त्र ॐ ह्रीं आं कों नमः । इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर वस्त्र शुद्ध करके पहने । तिलक मन्त्र ॐ आं ह्रीं क्रों अर्हते नमः । इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर तिलक करे । मयणफल मरोडफली शुद्धि मन्त्र ॐ ह्रीं अवतर अवतर सोमे सोमे कुरु कुरु वल्गु वल्गु सुमन से सोमन से महु महुरे ॐ कवली कः क्षः स्वाहा । इस मन्त्र से मयणफल मरोड़ी फली मौली से बांध शुद्ध करके दाहिने हाथ में बांधना चाहिये । यह क्रिया करने के बाद अङ्ग-रक्षा स्तोत्र तीन बार पढ़े । अङ्गरक्षा स्तोत्र ॐ परमेष्ठी नमस्कारं सारं नवपदात्मकम् । पञ्जराभं स्मराम्यहम् ||१|| शिरस्कं शिरसिस्थितम् । आत्मरक्षा करं वज्र ॐ णमो अरिहंताणं ॐ णमो सव्व सिद्धाणं ॐ णमो आयरियाणं मुखेमुख पटम्बरम् ||२|| अङ्गरक्षातिशायिनी । ॐ णमो उवज्झायाणं आयुधं हस्तयोर्ड ढम् ||३|| ॥३॥ पादयोश्शुभे । शिलावजू मयीतले ॥४॥ वज्र मयोवहिः । ॐ णमो लोए सव्व साहूणं मुच्छके एसो पञ्च णमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं स्वाहान्तं च पदं ज्ञेयं वोपरि वज्रमयं पिधानं महा प्रभावा रक्षेयं क्षुद्रोपद्रव परमेष्ठी पदोद्भूता कथिता पूर्व वप्रो खादिरंगार पढ़मं हवइ देह खातिका ॥५॥ मंगलम् ।. रक्षणे ॥६॥ नाशिनी । सूरिभिः ||७|| Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atmakataakaastistianshikestantastethalanki-katrikalatktoto katok frielationslialeshadristoshathokathadolestatestreliatisthlestatistone AAAAAAAAAAmanammarAmar Lalkalanki thako kala kakulationsliviaslist-nilachihinfiniobilind Tinki-lantists danlitilandisnoi tatists-listialisa- M विधि-विभाग यश्चैवं कुरुते रक्षां परमेष्ठी पदैरसदा । तस्य नस्याद्भयं व्याधिराधिश्चापि कदाचनः ॥८॥ ये स्तोत्र तीन बार पढ़कर अङ्गरक्षा करे । पीछे तीन बार णमोकार मन्त्र से मन्त्र कर चोटी में गांठ देवे तथा तीन दफा ॐ ह्रीं श्रीं असि आउसाय नमः । मन्त्र पढ़कर सब स्नात्रियों के कानों में फेंक देवे । इतनी विधि तो हर कोई पूजा प्रतिष्ठा मण्डलादिक में स्नात्रियों को पहले अवश्य करनी, करानी चाहिये । पीछे मन्दिरजी में अधिष्ठायक देव देवी जो होय उन सबकी पूजा करावे, अष्टद्रव्य चढ़ावे । पीछे चमेली आदि के तैल में हींगलू अथवा सिन्दुर मिलाकर 'क्षेत्रपालजी की पूजा करे, चांदी का वरक अथवा पन्नी से अङ्ग रचना करे, इत्र, जल, चन्दन, फल, धूप, नैवेद्य, फल, जल, इत्यादि सर्व द्रव्य 'ॐ क्षेत्रपालाय नमः' ऐसा कह मन्त्र पढ़कर चढ़ावे । पीछे मण्डलजी के दाहिने तरफ 'दशदिक्पाल के पट्टे की स्थापना करे, एक एक दिक्पाल की पूजा पढ़के जल, चन्दनादि सर्व द्रव्य, नागर बेल के पान सहित चढ़ाता रहे। 'दशदिक्पाल' की पूजा करे बाद ऊपर एक टूल का वस्त्र ( कसम्बल) वस्त्र मौली से * बांधे। आगे सर्व द्रव्य सहित भेंट चढ़ावे, दीपक करे। पीछे बायें तरफ नवग्रह के पट्टे की स्थापना करके पूर्वोक्त रीति से पूजा करे। पीछे स्नात्रियों को 'अठारह स्तुतियों की देव वन्दन' करना चाहिये । यहां पर 'दशदिक्पाल तथा नवग्रह' के पूजा का मन्त्र और देव वन्दन की विधि विस्तार के भय से नहीं लिखी है। वह पहले ही शान्ति पूजा में लिख आये हैं। उसी प्रकार से सर्व विधि करें या करायें। पीछे मण्डलजी की पूजन करावे। मण्डल पूजन विधि प्रथम दोनों तरफ मौली की बत्ती बना कर घृत का दीपक करे और दोनों दीपक चार पहर तक अखण्ड रहें। पीछे सोने चांदी के कलश में शुद्ध जल भरा हुआ लेकर सात णमोक्कार गिने और 'ॐ ह्रीं पृष्ठ २२३ । ASTidioliatistaraikolaTRENGTHASYATHI lalalisakitatistiatinathtaretaketertrentiatahkattator Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R atineetadpedioakedalkardokdotakoskeladakeseksh makdaksadhterialianxxkkkadkeekakiadeoreakdidatphtoratedkarate जैन-रनसार । २५६ मन- ..NIMARAror Mariamromm अन्नप्रायवनप्रणमननयमाप्रमाणपत्र प्रतापग्रमग्रमा मनगरनारायण जीरावल्ली पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा' इस मन्त्र से सात बार जल मन्त्रित कर मण्डलजी के चारों तरफ धार देवे । ऊपर भी थोड़ा छींटा देकर पवित्र करे, धूप खेवे । पीछे नौ तार की मौली के साढ़े तीन आंटे पूर्वोक्त मन्त्र से देवे और मैनफल मरोडफली चारों कोनों में बांधे। पीछे केशर की कटोरी हाथ में लेकर 'ॐ आं ह्रीं श्रीं अर्हते नमः' इस मन्त्र से मन्त्रित कर मण्डल के ऊपर केशर का छींटा देवे। पीछे केशर, चन्दन, कुंकुम (रोली) लेकर मण्डलजी के चारों ओर तीन बार लगावे । पीछे वासक्षेप, पुष्प हाथ में लेकर 'ॐ भूरसीभूतधात्री विश्वधारायै नमः' इस मन्त्र से सात बार मन्त्रित कर मण्डल के बीच में पूजा करे । फिर आचार्य, गुरु हाथ में वासक्षेप लेकर 'ॐ ह्रीं श्रीं अर्हत् पीठकाय नमः' इस मन्त्र से सात बार। मन्त्रित कर मण्डल पर वासक्षेप करे । इसके बाद स्वात्रियें हाथ में पुष्प चावल लेकर तीन बार मण्डल को बधावे । नीचे चावलों का स्वस्तिक ( साथिया) करके रुपया नारियल स्थापना में धरे । एक स्नात्रिया मन्दिर के अन्दर से प्रतिमाजी को लाकर त्रिगड़े के ऊपर मन्त्र पढ़ कर स्थापना करे । मण्डलजी के बीच में प्रतिमा जी रखने का यह मन्त्र पढ़े ॐ नमोऽर्हत् परमेश्वराय चतुर्मुखाय परमेष्ठिनेदिक कुमारी परि पूजिताय चतुःषष्ठी सुरा सुरेन्द्र सेविताय देवाधि देवाय त्रैलोक्य महिताय अत्र पीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा । इस मन्त्र को पढ़ कर नौ प्रतिमा अथवा एक प्रतिमा स्थापित करे। इस तरह मण्डल पूजा करे ।। प्रथम वलय पूजा प्रथम एक रकेबी में श्वेतगोला, श्वेतवस्त्र, श्वेत ध्वजा, आठ कर्केतक रत्न, चौतीस हीरे, हाथ में लेकर अरिहन्त पद की पूजा करे। अरिहन्त पद पूजा अथाष्ट दल मध्याब्ज कर्णिकायां जिनेश्वरान् । आविर्भूतालसद्वोधानाव्रतः स्थापयाम्यहम् !!१॥ निश्शेष दोषंधन धूमकेतून्नपार संसार समुद्र * मण्डलजी पर प्रतिमाजी को विराजमान करने की रीति कहीं कहीं है। 29AYATREATYANARTMERIKANEMitayaiotstatutiyerabatahkrriticarciniahitiasattaGRICKMATL KERattrate लालपूटयूट्रल प्रणप्रणप्रत्रनगणनगलनग्राननगणत्रयनिग्रनल्यतया Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ k BkKhasokathokalaashtretcsaotificatekathakilaookmarkethalakk विधि-विभाग kkk.htotttaintere २५७ PPPRMANP marrrAAMRAPAwwamruire 5.dthul.insaAAMKAYAlast-alilalalalaakhaateelpakinladakikthasaratalelaynilanka Tialhalala Yoga The * सेतून् । यजैस्समस्तातिशयैक हेतून , श्रीमज्जिनानाम्बुज कर्णिकायाम् ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीं अर्हद्भ्यो नमः स्वाहा । सिद्ध पद पूजा । पीछे रकेबी में लाल गोला, लाल ध्वजा, लाल वस्त्र, ८ माणिक रत्न, ३१ मूंगे, सर्वद्रव्य हाथ में लेकर सिद्ध पद की पूजा करे--तस्य पूर्व दले सिद्धान् सम्यक्त्वादि गुणात्मकान् । निः श्रेयसम्पदं प्राप्तान निदधे भक्ति निर्भरः ॥३॥ तत्पूर्व पत्रे परितः प्रणष्टः दुष्टाष्ट कर्मामधिगम्य शुद्धिः । । प्राप्तान्नरान्सिद्धि मनन्तबोधान् , सिद्धान् यजे शान्तिकरान्नराणाम् ॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीं सिद्धेभ्यो नमः स्वाहा ।। आचार्य पद पूजा ___ पीछे रकेबी में पीला गोला, पीली ध्वजा, पीला वस्त्र, ५ गोमेदकरत्न, ३६ सोने के फूल, जल लेकर आचार्य पद की पूजा करे । __स्थापयामि ततः सूरीन् दक्षिणेऽस्मिन् दलेमले । चरतः पञ्चधाचारान् षट् त्रिशद्गुणैर्युतान् ॥५॥ सूरी सदाचार विचारसारान्नाचारयन्तः खपरान् यथेष्ठम् । उग्रोपसर्गक निवारणार्थमभ्यय॑याम्यक्षत गन्ध धूपैः ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीं सूरीभ्यो नमः स्वाहा।' उपाध्याय पद पूजा । ___पीछे हरा गोला, हरी ध्वजा हरे मूग के लड्डू, हरा वस्त्र, ४ इन्द्रनील, २५ मरकेतकरत्न (पन्ना), लेकर उपाध्याय पद की पूजा करे । - द्वादशाङ्गश्रुताधारान् शास्त्राध्ययन तत्परान् । निवेशयाम्युपाध्यान् पवित्रे पश्चिमे दले ॥७॥ श्री धर्मशास्त्राण्यनिशं प्रशान्त्यैः पठन्तियेऽन्यानपि पाठयन्ति । अध्यापकांस्तां न पराब्जपत्रैः स्थितान्यवित्रान् परिपूजयामि ॥८॥ 'ॐ ह्रीं श्रीं उपाध्यायेभ्यो नमः स्वाहा ।' साधु पद पूजा पीछे रकेबी में काला गोला, काली ध्वजा, काला वस्त्र, उड़द के लड्डू, 1 ५ राजपट्ट, २७ अरिष्टरत्न (नीलम), जल लेकर साधु पद की पूजा करे ।। स्वयम लय अनन्त्र मन्त्रालय k ala Teekaalanakianilosotrothitaalaadasyatantaram.NAT- I tathahattatr. 33 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lastsettsaptisthorthakhakatoketatishtootbalatcaonkathto.tattookatestantsekaartistskotokirtaste rwarermanoranraaneeran AmrarurammarAmraoMMAMAMAM ఇతరతరం తన మనసున మ २५८ जैन-रत्नसार व्याख्यादिकर्म कुर्वाणान्, शुभध्यानैक मानसान् । उदक पत्रगतान् । वारान, साध्वाशीस सुव्रतान् ॥९॥ वैराग्यमन्तर्वचसि प्रसिद्धं, सत्यं तपो द्वादशधाशरीरे । येषामुदक्यवगतान सुकृतान् पवित्रान् , साधून्सदातान् परिपूजयामि ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्रीं सर्वसाधुभ्यो नमः स्वाहा।' दर्शन पद पूजा पीछे एक रकेबी में श्वेत गोला, श्वेत ध्वजा, श्वेत वस्त्र, ६७ मोती लेकर दर्शन पद की पूजा करे। जिनेन्द्रोक्त मतश्रद्धा लक्षणे दर्शने यजे । मिथ्यात्व मथनेशुद्धं नरत मीशान् सदले ॥११॥ ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग्दर्शनाय नमः स्वाहा ।' ज्ञान पद पूजा फिर रकेबी में श्वेत गोला, श्वेत ध्वजा, श्वेत वस्त्र, चावल के लड्डू, ५१ मोती लेकर ज्ञान पद की पूजा करे । ____ अशेष दोष पर्याय रूपमेवावभासकं । ज्ञानमाग्नेय रूपस्थं पूजयामि हितावहम् ॥१२॥ ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् ज्ञानाय नमः स्वाहा ।' चारित्र पद पूजा फिर रकेबी में श्वेत गोला, श्वेत ध्वजा, श्वेत वस्त्र, ७० मोती लेकर चारित्र पद की पूजा करे। सामायिकादिभिर्भेदै श्चारित्रं चारु पञ्चधा । संस्थापयामि पूजार्थं पत्रेह नैऋतेः क्रमात् ॥१३॥ ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् चारित्राय नमः स्वाहा ।' तप पद पूजा इसके बाद फिर रकेबी में श्वेत गोला, श्वेत ध्वजा, श्वेत वस्त्र, ५० 1 मोती लेकर तप पद की पूजा करे। द्विधा द्वादशधाभिन्नं पूते पत्र तपः स्वयं । निधाययामि भक्त्याय वायव्यां दिशि शर्मदम् ॥१४॥ ॐ ह्रीं श्रीं सम्यक् तपसे नमः स्वाहा। నము -1 నామద హనమnames गाललगानामग्रवनप्रवलयप्रणमनन गणल्या गल्लामनग्रन Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ thitakshekshetrekkenatasterskatdakisaksedositieskobrobsketchesheetstakkakkakekakkakakirticle विधि-विभाग २५६ alathokiETRANKahtukaratikretake-PatrotarstrataknHEREktase 012tut-stotrstarrotest-tattar-ONERatopatakshatratika- t नमस्कार श्लोक निःस्वेदत्वादि दिव्यातिशय मय तनून् , श्री जिनेन्द्रान् सुसिद्धान् । सम्यक्त्वादि प्रकृष्टाष्टक गुणभृदाचार साराश्च सूरीन् । शास्त्राणि प्राणिरक्षा प्रवचन रचना सुन्दराण्यादि संज्ञम् । तत्सिध्यैः पाठकानां यतिपति सहितानयाम्यर्घ दानैः ॥१५॥ इत्थमष्ट दलं पद्मं पूरयेदर्हदादिभिः । स्वाहान्ते प्रणवाद्यश्च पदैविघ्ननिवृत्तये ॥१६॥ ॐ ह्रीं श्रीं अहँ असिआउसाय सम्यग् । दर्शन ज्ञान चारित्र तपसेभ्यो ह्रीं श्रीं अहं परमेष्टिन् परमनाथ परमदेवाधि देव परमार्हन् परमानन्त चतुष्टय परमात्मने तुभ्यं नमः । द्वितीय वलय पूजा पीछे दुसरे वलय में १६ कोठे हों उनमें एक एक कोठा छोड़ के आठ अवर्गादि वर्गों की स्थापना करे और बाकी के आठ खानों में अनाहत पदों की स्थापना करे। ____ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं' यह मन्त्र पढ़कर मिश्री, लवंग चढ़ावे और आठ कोठों में से पहले कोठे में अवर्गादि स्वर स्थापित करे बाकी । सात कोठों में व्यञ्जन वर्गों की स्थापना करे उनमें किसमिस या अंगूर मुनक्का चढ़ावे । ॐ ह्रीं णमो अणिहंताणं' मिश्री लवंग चढ़ावे ॥१॥ अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः ॐ ह्रीं स्वरवर्गाय नमः । इस जगह १६ द्राक्षा चढ़ावे ॥२॥ ॐ ह्रीं णमो अरिहंतोणं' मिश्री लवंग चढ़ावे ॥३॥ क ख ग घ ङ ॐ व्यञ्जन कवर्गाय नमः । १६ द्राक्षा चढ़ावे ॥४॥ ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं' मिश्री लवंग चढ़ावे ॥५॥ च छ ज झ ञ ॐ ह्रीं चवर्गाय नमः । १६ द्राक्षा चढ़ावे ॥६॥ ॐ णमो अरिहंताणं मिश्री लवंग चढ़ावे ॥७॥ ट ठ ड ढ ण ॐ ह्रीं टवर्गाय नमः। १६ द्राक्षा चढ़ावे ॥८॥ ॐ ह्रीं णमो , अरिहंताणं' मिश्री लवंग चढ़ावे ॥९॥ त थ द ध न ॐ ह्रीं तवर्गाय नमः । १६ द्राक्षा चढ़ावे ॥१०॥ ॐ णमो अरिहंताणं, मिश्री लवंग चढ़ावे ॥११॥ प फ ब भ म ॐ ह्रीं అడవులను తమవంతు తడుముకు 2 tuctidwar----date-1- 2. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र ५५ family They deshatter takatahat thokat karaok जैन-रत्नसार itatea to tonto to Toptantent tinctactants Enstanta clot *****ING IN २६० पवर्गाय नमः । १६ द्राक्षा चढ़ावे ॥१२॥ ॐ णमो अरिहंताणं, मिश्री . लवंग चढ़ावे ॥१३॥ य र ल व ॐ ह्रीं यवर्गाय नमः । ३२ द्राक्षा चढ़ावे ॥१४॥ ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं, मिश्री लवंग चढ़ावे ||१५|| श ष सह ॐ ह्रीं शवर्गाय नमः | ३२ द्राक्षा चढ़ावे ॥ १६ ॥ सब ९६ द्राक्षा और य र ल व श ष स ह २ इन दोनों वर्गों में ६४ द्राक्षा चढ़ावे । तृतीय चतुर्थ पञ्चम वलय पूजा आठ परमेष्ठी पदों में 'ॐ ह्रीं परमेष्ठिने नमः स्वाहा' ऐसा आठ ४८ छुहारे एक रकेबी में लेकर बार कह कर आठ विजोरा चढ़ावे | एक - एक छुहारा लब्धिपद पर चढ़ावे । ॐ ह्रीं अहं णमो जिणाणं ॥१॥ ॐ ह्रीं अहं णमो ओहि जिणाणं ॥२॥ ॐ ह्रीं अहं णमो परमोहि जिणाणं ॥३॥ ॐ ह्रीं अहं णमो सव्वोहि जिणाणं ॥४॥ ॐ ह्रीं अहं णमो अणतोहि जिणाणं ||५|| ॐ ह्रीं अहं गमो कट्ट बुद्धीणं ॥६॥ ॐ ह्रीं अहं णमो वीय बुद्धीणं ॥७॥ ॐ ह्रीं अर्ह णमो पयानुसारीणं ॥८॥ ॐ ह्रीं अहं णमो आसी विसा ||९|| ॐ ह्रीं अहं णमो दिठ्ठी विसाणं ॥ १०॥ ॐ ह्रीं अहं णमो संभिण्ण सोयाणं ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं अहं णमो सयंसंबुद्धाणं ॥१२॥ ॐ ह्रीं अहं णमो पत्तेय बुद्धाणं ॥ १३॥ ॐ ह्रीं अहं णमो बोहि बुद्धीणं ||१४|| ॐ ह्रीं अर्ह णमो उज्जु मईणं ||१५|| ॐ ह्रीं अहं णमो विउलमईणं ॥ १६ ॥ ॐ ह्रीं अहं णमो दस पुत्रीणं ॥ १७॥ ॐ ह्रीं अहं णमो चउदस पुब्बीणं ॥ १८ ॥ ॐ ह्रीं अहं णमो अहंग निमित्त कुसलाणं ||१९|| ॐ ह्रीं अर्हं णमो विउव्वण इट्टिपत्ताणं ||२०|| ॐ ह्रीं अहं णमो विज्जाहराणं ॥२१॥ ॐ ह्रीं अहं णमो चारण लहीणं ॥२२॥ ॐ ह्रीं अहं णमो पणासमणाणं ॥२३॥ ॐ ह्रीं अहं णमो आगासगामीणं ||२४|| ॐ ह्रीं अर्ह णमो खीरासवेणं ॥ २५॥ ॐ ह्रीं अहं णमो सप्पिया सवाणं ||२६|| ॐ ह्रीं अहं णमो महुआसवाणं ||२७|| ॐ ह्रीं अहं णमो अमिया सवाणं ||२८|| ॐ ह्रीं अहं णमो सिद्धायाणं ||२९|| ॐ ह्रीं ० अहं णमो भयवया 724 samsa Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a nt Fatathakeoaasirketitiirairtel-santheorietarikekoctobioesdisk-lefinit-katreeker-interst- t विधि-विभाग wnawwarwww. nnuaire wwwwwwwwrrmwarewinnr . i kata lontot at Ataith to bituita lor ornar Pontet la tratament de la ro Informat talath Palt Falmat at theletro महाइ महावीर वडमाण बुद्धरिसीणं ॥३०॥ ॐ ह्रीं अहं णमो उग्ग तवाणं ॥३१॥ ॐ ह्रीं अहँ णमो अक्खीण महाणसियाणं ॥३२॥ ॐ ह्रीं अहं णमो वढ्ढमाणाणं ॥३३॥ ॐ ह्रीं अहं णमो दित्ततवाणं ॥३४॥ ॐ ह्रीं अहं णमो तत्ततवाणं ॥३५॥ ॐ ह्रीं अहं णमो महातवाणं ॥३६॥ ॐ ह्रीं अहं णमो घोर तवाणं ॥३७॥ ॐ ह्रीं अहं णमो घोर गुणाणं ॥३८॥ ॐ ह्रीं अहं णमो घोर पडिक्कमाणं ॥३९॥ ॐ ह्रीं अहँ णमो घोर गुण वंभयारीणं ॥४०॥ ॐ ह्रीं अहं णमो आमोसही पत्ताणं ॥४१॥ ॐ ह्रीं अहं णमो खेलो सही पत्ताणं ॥४२॥ ॐ ह्रीं अहं णमो जल्लो सही पत्तोणं ॥४३॥ ॐ ह्रीं अहं णमो विप्पोसही पत्ताणं ॥४४॥ ॐ ह्रीं अहं णमो सम्बोसही पत्ताणं ॥४५॥ ॐ ह्रीं अहं णमो मणवलीणं ॥४६॥ ॐ ह्रीं अहँ णमो वयणवलीणं ॥१७॥ ॐ ह्रीं अहं णमो कायवलीणं ॥४८॥ ॐ ह्रीं अहँ अड्याल लब्धि पदेभ्यो नमः। इसी तरह लब्धि पद का नाम बोल तीसरे चौथे पांचवें वलय की पूजा में ४८ छुहारा चढ़ावे । षष्ठ वलय मण्डलजी में 'ह्रींकार' से 'क्रोंकार तक । छठे वलय में आठ गुरु पादुकाओं पर आठ अनार निम्न मन्त्रों से चढ़ावे । ॐ ह्रीं अर्हत् पादुकाभ्यां नमः ॥१॥ ॐ ह्रीं सिद्ध पादुकाभ्यां नमः ॥२॥ ॐ ह्रीं आचार्य पादुकाभ्यां नमः ॥३॥ ॐ ह्रीं गुरु पादुकाभ्यां नमः ॥४॥ ॐ ह्रीं परम । पादुकाभ्यां नमः ॥५॥ ॐ ह्रीं अदृष्ट गुरु पादुकाभ्यां नमः ॥६॥ ॐ ह्रीं । अनन्त गुरु पादुकेभ्यो नमः ॥७॥ ॐ ह्रीं अनन्तानन्त गुरु पादुकेन्यो । नमः ॥८॥ ॐ ह्रीं श्रीं अप्ट गुरु पादुकेभ्यो नमः स्वाहा । इसी तरह छठे वलय में आठ दाडिम चढ़ावे । सप्तम वलय सातवें वलय में आठों दिशाओं में जयादिदेवियों की स्थापना कर, आठ नारंगी चढ़ावे । ॐ ह्रीं जयायै नमः स्वाहा ॥१॥ ॐ ह्रीं । मन्म यानन्द्रनगमननप्रवननगन्नमवारमन्त्रमन्ना gihilationleonghadotiplestndlesdesily nintyali tarly fralhalualia to loole linkyalaato falnilogiaalaalo notosnalishaalentedinate Jindaslely, karterla thalirin seola tanhaleralneberolalsotrinalnakalnathalis wale in Kondesnetunerimpleyhitne denlyalratraleelnilanthan tende foolumik Timlrollelete turatiile trottoa tai Verileri Bila Yulintirta toata Scotia 11 Verificate ftorle la Prelo lontorkan kualitenda Prefeito Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 900 on goo २६२ जैन-नसार wwww जम्भायै नमः स्वाहा ||२|| ॐ ह्रीं विजयायै नमः स्वाहा ॥३॥ ॐ ह्रीं भायै नमः स्वाहा ||ell ॐ ह्रीं जयन्त्यै नमः स्वाहा ॥ ५॥ ॐ ह्रीं मोहायै नमः स्वाहा ॥६॥ ॐ ह्रीं अपराजितायै नमः स्वाहा ॥७॥ ॐ ह्रीं अम्बायै नमः स्वाहा ||८|| अष्ट वलय । आठवां वलय में सोलह विद्या देवियों की स्थापना कर चांदी की वरक लगाई हुई सुपारियां चढ़ावें । यथा - १ ॐ ह्रीं रोहिण्यै नमः । २ ॐ ह्रीं प्रज्ञप्त्यै नमः | ३ ॐ ह्रीं वज्रशृङ्खलायै नमः । ४ ॐ ह्रीं वज्रा कुशायै नमः | ५ ॐ ह्रीं चक्रेश्वर्यै नमः । ६ ॐ ह्रीं पुरुषदत्तायै नमः । ७ ॐ ह्रीं काल्यै नमः । ८ ॐ ह्रीं महाकाल्यै नमः । ९ ॐ ह्रीं गौयै नमः । १० ॐ ह्रीं गान्धार्यै नमः । ११ॐ ह्रीं सर्वास्त्र महाज्वालायै नमः । १२ ॐ ह्रीं मानव्यै नमः । १३ ॐ ह्रीं वैरोट्यायै नमः | १४ ॐ ह्रीं अच्तायै नमः | १५ ॐ ह्रीं मानस्यै नमः । १६ ॐ ह्रीं महा मानस्यै नमः । नवम वलय फिर २४ शासन देवोंकी स्थापना कर २४ सोने के बरक लगी हुई सुपारी चढ़ावे । ॐ त्रिमुखाय नमः |४ १ ॐ गोमुखाय नमः । २ ॐ महायक्षाय नमः | ३ ॐ यक्षनायकाय नमः । ५ ॐ तुम्बुरवे नमः । ६ ॐ कुसुमाय नमः । ॐ ७ मातङ्गाय नमः । ॐ विजयाय नमः । ९ ॐ अजिताय नमः । १० ॐ ब्रह्मणे नमः | ११ ॐ यक्षराजाय नमः । १२ ॐ कुमाराय नमः । १३ ॐ षण्मुखाय नमः । १४ॐ पातालाय नमः । १५ ॐ किन्नराय नमः । १६ ॐ किम्पुरुषाय नमः । १७ ॐ गन्धर्वाय नमः | १८ राजाय नमः | १९ ॐ कुबेराय नमः । २० ॐ वरुणाय नमः । २१ ॐ भृकुटये नमः | २२ ॐ गोमेधाय नमः । २३ ॐ पाश्र्वाय नमः | २४ ॐ ॐ ब्रह्म शान्तये नमः । ॐ यक्ष Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग Jultistrenind -1-20TJanatand पीछे नवमें वलय के बायें तरफ २४ शासन देवियों की स्थापना कर २४ चांदी की बरक लगी हुई सुपारियां चढ़ावे । यथा १ ॐ चक्रेश्वर्यै नमः। २ ॐ अजित बलायै नमः । ३ ॐ दुरितार्य नमः । ४ ॐ काल्यै नमः । ५ ॐ महाकाल्यै नमः । ६ॐ श्यामायै नमः । ७ ॐ शान्तायै नमः । ८ ॐ भृकुट्यै नमः। ९ सुतारकायै नमः । १० ॐ अशोकायै नमः। ११ ॐ मानव्यै नमः ।। १२ ॐ चण्डायै नमः। १३ ॐ विदितायै नमः। १४ ॐ अंकुशाये नमः । १५ ॐ कन्दर्पायै नमः । १६ ॐ निर्वाण्यै नमः । १७ ॐ बलायै नमः । १८ ॐ धारिण्यै नमः । १९ ॐ धरण प्रियायै नमः । २० ॐ नरदत्तायै नमः । २१ ॐ गान्धायै नमः । २२ अम्बिकायै नमः । २३ ॐ पद्मावत्यै नमः । २४ ॐ सिद्धायिकायै नमः । दशम वलय दशवे वलय में चारों दिशाओं में चार द्वारपालों की स्थापना कर । वलिवाकुलले ॐ कुमुदाय नमः, पूर्व दिशा की तरफ । ॐ अञ्जनाय नमः, दक्षिणदिशा की तरफ । ॐ वामनाय नमः, पश्चिमदिशा की तरफ । ॐ पुष्पदन्ताय नमः, उत्तरदिशा की तरफ चढ़ावे । चार विदिशा की तरफ चार वीर पद पर वलिवाकुल चढ़ावे । १ ॐ मणिभद्राय नमः । २ ॐ पूर्णभद्राय नमः । ३ ॐ कपिलाय नमः । ४ ॐ पिङ्गलाय नमः । इसी तरह दशवें वलय में आठों दिशा में, चार द्वारपाल. चार वीर स्थापना करे । एकादश वलय पीछ ग्यारहवें वलय में पूर्ण कलश के आकार ( रवम्प ) में ऊपर किया हुआ सिद्धचक्रजी के गले के स्थान नवनिधान पद पर नव चांदी गोने के कलशों में यथाशक्ति नगदी रखकर चढ़ावे । नोट-जगा मण्डलजी पं उपर चमेश्वरी शामन यो आदि की मूनि भी विराजमान a rlaniARE-- - -2-22 :22 :1-12-1-1 - 1...... . ..tri Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26thi fadali barokaised to takes kal-brityNGaonkkake kkebtakahakalesarkatattatohrattitl २६४ जैन-रत्नसार H .. नामस्तनमग्र प्रबन्यजन्तनम्रतमन्नननननननननननननननननननननननन नवनिधान मन्त्र १ ॐ नैसर्पकाय नमः । २ ॐ पाण्डुकाय नमः । ३ ॐ पिङ्गलाय नमः । ४ ॐ सर्व रत्नाय नमः । ५ ॐ महापद्माय नमः । ६ ॐ कालाय नमः । ७ ॐ महाकालाय नमः । ८ ॐ माणवाय नमः । ९ ॐ शङ्खाय नमः। द्वादश वलय पीछे बारहवें वलय में कुष्माण्ड व कोहला, (सीताफल) हाथमें लेकर दाहिने नेत्र के पास 'ॐ ह्रीं विमलस्वामिने नमः ।' कहकर चढ़ावे । फिर | कोहला व (कुष्माण्ड) फल हाथ में लेकर बायें नेत्र के पास 'ॐ क्षेत्रपालाय नमः ।' ऐसा कहकर चढ़ावे । पीछे कोहला व ( कुष्माण्ड ) फल हाथ में नीचे दाहिनी तरफ 'ॐ. चक्रेश्वर्यै नमः' कहकर चढ़ावे । पीछे कोहला फल हाथ में लेकर नीचे बायीं तरफ 'ॐ अप्रसिद्ध सिद्धचक्राधिष्टकाय नमः' कहकर चढ़ावे । त्रयोदश वलय पीछे दशों दिशाओं में इन्द्रादिक् दशदिक्पालोंछ की पूजा करे। १ ॐ इन्द्राय नमः । २ ॐ अग्नये नमः । ३-ॐ यमाय नमः । ४ ॐ नैऋताय नमः । ५ ॐ वरुणाय नमः । ६ ॐ वायव्याय नमः । ७ ॐ कुबेराय नमः । ८ ॐ ईशानाय नमः।९ ॐ नागाय नमः । १० ॐ ब्रह्मणे नमः। चतुर्दश वलय चौदहवें वलय में भी नीचे पेंदी के मध्य भाग में नवग्रहों की पूजा ।। करे । १ ॐ सूर्याय नमः । २ ॐ सोमाय नमः । ३ ॐ भौमाय नमः । ४ बुधाय नमः । ५ ॐ बृहस्पतये नमः । ६ ॐ शुक्राय नमः। ७ ॐ शनैश्चराय नमः । ८ ॐ राहवे नमः । ९ ॐ केतवे नमः । * कई जगह दशदिग्पालों पर कई स्थानों के मन्दिरों में वेसन के लड्डू भी चढ़ते हैं। 9bhahanasalutsthlalitARABEATABAIXXNXCAYANAYARINASEXSAX.KYATREAKISTAT E -1-X. . भगवन्तनमनन्त्र कात्रप्रवत्रत्र - IITTTTTTTTI Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yaashkshatinAkski t halitieshishLocacaorapalmalrakasmikAYATMelloetestsidartarrate विधि-विभाग PANMAnwar PLthaientistKKAKKARKIKATARNAMM o इस तरह नवपद की बड़ी पूजा कराकर नवपदजी की आरती करे। पीछे नवपदजी का निम्न चैत्यवन्दन करे । जो धुरि श्री अरिहंत मूल दृढ़ में पीठ पइडिओ। सिद्ध सूरि उवझाय साहु चिहुँ साह गरिडिओ॥ दंसण णाण । चरित्त तव पड़िसाहे सुंदरु । तत्तक्खर सिरि वग्ग लद्धि गुरु पय दल डंबरू ।। दिशिवाल जक्ख जक्खिणी पमुह सुर कुसुमेहि अलंकियो। सो सिद्धचक्क गुरु कप्पतरु अमइमन बंछिय दियउ ॥१॥ पीछे जंकिंचि० णमोत्थुणं. नमोऽर्हत सिद्धा. कहकर नवपदजी का स्तवन पढ़ कर जय* वीयराय अणत्थ कह एक णमोकार का काउसग्ग करे और नवपदजीकी स्तुति । कहे। पीछे गुरुके पास वासक्षेप ले ज्ञानपूजा, गुरुपूजा करे, धूप खेवे, । नगदी चढ़ावे | पीछे यथाशक्ति साधर्मी वात्सल्य करे। इसके बाद पूर्वोक्त विसर्जन की विधि करे। नवपद मण्डल पूजन की सामग्री __९ गोले, ८ कर्केतक रत्न, ३४ हीरे, ८ माणक, ३५ मूगे, ५ गोमेदक, ३६ सोने के फूल, ४ इन्द्रनील, ३५ मरकेतक रत्न ( पन्ना), ५। राजपट्ट, २७ अरिष्टरत्न, ६७ मोती, ५१ मोती, ७० मोती, ५० मोती, ९ ध्वजा, ९ अंगलूहण, ६ कटोरी में १६-१६ दाख, २ कटोरी में ३२-३२, इस तरह कुल १६० दाख, ८ बिजोरा, ८ मिश्री के कुजे या १६-१६ मिश्री के टुकड़े, ८ कटोरी में १६-१६ लवंग, मिश्री की कटोरी में या मिश्री के कुजे, ४८ छुहारे, ८ अनार, ८ नारंगी, ६४ सुपारी, २४ ३ यक्षजी के २४ यक्षणीजी और १६ विद्या देवी । ९ कलश चांदी या सोने के, ४ सीताफल, ४ (कुष्माण्ड) पेठे, दशदिग्पालों की भेंट, नवग्रहों की भेंट, यथाशक्ति नवपदों में भेंट अवश्य चढ़ावे । विंशस्थानक मण्डल पूजन विधि शुभदिन शुभघड़ी शुभनक्षत्र शुभमुहूर्त में पूजा करानेवाले का चन्द्रमें चल देखकर विंशस्थानक मण्डल बनावे सब स्नात्रियों को अङ्गशुद्धि, वस्त्र । -REriticiasaratrikaatankrt.inka-take-tulatakaitrifieldikalinsulinfistinationshinetratimkistiation insaktartlinkok.inkhaskar_KHARA mpokisodialistianithalilialestialisualbalalaladiol r . .titutentiareena tubratak.infinit kulkrista o udlalakaratalistialistantialinalistiallysislalatkailast Titletitillatatalelateletelndalaidar 34 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ॐkamste जैन-नार शुद्धि, शिखाबन्धन, मैनफल, मरोडफली, मण्डलजी के तथा अपने हाथ में मोली बांधना चाहिये । केशर, चन्दन, कुंकुम ( रोली ) मण्डलजी में बन्धी हुई मोली में लगा दे । देववन्दन दशदिक्पालों तथा नवग्रहों की पूजन भी करनी चाहिये और भेंट आदि सब क्रियायें नवपद मण्डल पूजन के समान ही करनी चाहिये । प्रथम वलय प्रथम पद + पूजा 1 णमो णंतविण्णाण सदंसणाणं, सहाणंदिया सेसजंतू गयाणं । भवांभोज वित्थेयणे वारणाणं, णमो बोहियाणं वराणं जिणाणं । ॐ ह्रीं श्रीं अर्हद्भूयो नमः स्वाहा ॥१॥ सोने का बरक लगा हुआ गोला, ध्वजा चढ़ावे । २६६ ******* द्वितीय पद पूजा लोगग्गभागोपरि संठियाणं, बुद्धाण सिद्धाण मणिदियाणं । णिस्सेस कम्मक्खय कारगाणं, णमोसया मंगल धारगाणं । ॐ ह्रीं श्रीं सिद्धेभ्यो नमः स्वाहा ॥२॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । तृतीय पद पूजा अनंत संसुद्ध गुणायरस्स, दुक्खंधया रुग्गदिवायररस । अनंतजीवाण दयागिहस्स, णमो णमो संघचउव्विहस्स । ॐ ह्रीं श्रीं प्रवचनाय नमः स्वाहा ॥३॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । चतुर्थ पद पूजा कुवादिकेलि तरु सिंधुराणं, सूरीसराणं मुणिबंधुराणं । धीरतसंतज्जिय , मंदराणं, णमो सयामंगलमंदिराणं । ॐ ह्रीं श्रीं आचार्येभ्यो नमः स्वाहा ||४|| गोला, ध्वजा चढ़ावे । पञ्च पद पूजा सम्मत्त संयम पतित भविजन, अतिथिरकरता भला । अवगुण अदृषित गुणविभूषित, चन्दकिरण समोज्जला । अष्टाधिकादशसहससीलांगरथ + हरएक पद में नगदी अवश्य चढ़ानी चाहिये । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ కు 1 జన 1 13.2 as thడిన తరు. నగరంపలు ముందు antadhata . 14 विधि-विभाग ___ २६७ ॥ । रुचिर धाराधरा भवसिन्धु तारण प्रवरकारण णमो थिवरमुणीसरा । ॐ ह्रीं श्री स्थविराय नमः स्वाहा ॥५॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । षष्ट पद पूजा सम्वोहिबीजंकुर कारणाणं, णमो णमो वायग वारणाणं। कुव्वोहिदंति हरिणे सराणं, विग्घोघसंताव पयोहराणं । ॐ ह्रीं श्रीं उपाध्यायेभ्यो नमः स्वाहा ॥६॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे। सप्त पद पूजा संतजियासेसपरीसहाणं, णिस्सेस जीवाणदयागिहाणं । सण्णाण पज्जाय तरु वणाणं, णमो णमो होउतवोधणाणं । ॐ ह्रीं श्रीं साधुभ्यो नमः स्वाहा ॥७॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । अष्ट पद पूजा छदव्य पज्जाय गुणायरस्स, सयापयासी करणोधुरस्स । मित्थत्त अण्णाण तमोहरस्स, णमो णमो णाणदिवायरस । ॐ ह्रींश्रीं सम्यग् ज्ञानाय नमः स्वाहा ॥८॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । नवम पद पूजा अणंतविण्णाण सुकारणस्स, अणंत संसार विदारणस्स अणंत कम्मावलि धंसणस, णमो णमो णिम्मल दंसणस्स । ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् दर्शनाय नमः स्वाहा ॥९॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । । दशम पद पूजा आणंदियासेस जगज्जणस्स, कंदिलु पादामल ताचणस्स । सुधम्मजुत्तस्स दयासयस्स, णमो णमो श्री विणयालयस्स । ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् विनयाय नमः स्वाहा ॥१०॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । एकादश पद पूजा कम्मापकतारदवाणलरस, महोदयाणंद लया जलरस । विण्णाण पंके म्हकारणस्स. णमो चरित्तस्स गुणापणस्स । ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् चारित्राय । नमः स्वाहा ॥१॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । .NETRI..1KIYFROLKK KARKakkhilKharkhkhara. pathi- 11-1. .. . . . .. . Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ 1nola in boly in an In Ayilarly to take fotoko yache taste to the termath trika taster जैन - रत्नसार instastestos द्वादश पद पूजा सग्गापवग्गग्गसुहृप्पयरस, सुणिम्मलाणंत गुणालयस्स । सव्वव्वया भूषण भूषणस्स, णमोहि शीलस्स अदुसणस्स । ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् ब्रह्मचर्या नमः स्वाहा ||१२|| गोला, ध्वजा चढ़ावे । त्रयोदश पद पूजा विसुद्धसद्धाण विभूषणस्स, सुलद्धि संपत्ति सुपोषणस्स । णमो सदाणं त गुणपदस्स, णमो णमो सुद्धक्रियापदस्स । ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् क्रियायै नमः स्वाहा ||१३|| गोला, ध्वजा चढ़ावे । चतुर्दश पद पूजा लडीसरोजा वलितावणरस, सुरूव संलग्ग सुपावणरस । अमंगलाणो कुह दुदवस्स, णमो णमो णिम्मल सत्तवस्स । ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् तपसे नमः स्वाहा ||१४|| गोला, ध्वजा चढ़ावे । पञ्चदश पढ़ पूजा अनंत विष्णाण विभायरस्स, दुवालसंगी कमलाकरस्स । सुलडवासा जयगोयमस्स, णमो गणाधीसर गोयमस्स । ॐ ह्रीं श्रीं गौतमाय नमः स्वाहा ॥१५॥ गोला, ध्वजा छढ़ावे । षोड़श पद पूजा सव्वाति सवासवाणं, सुरा सुरा घोसर वंदियाणं । रवींदुर्बियामल सगुणा, दयाधणाणंहि णमोजिणाणं । ॐ ह्रीं श्रीं जिनेभ्यो नमः स्वाहा ॥१६॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । सप्तदश पद पूजा सव्वंदिया पार विकार दारी, अकारणा सेसजणोवगारी । महाभवातं करणा पहारी, जयौ सदा सुद्ध चरितधारी । ॐ ह्रीं श्रीं चारित्रधारीभ्यो नमः स्वाहा ॥१७॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । अष्टादश पद पूजा सुद्धक्रिया मंडलमंडणस्स, संदेह संदोह विखंडणस्स । मुत्ति उपादान Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि-विभाग ยูไน-นังxx.lekteel: freedes el tYY ใ นรา คใจในแวะไรคได้คให้ลาไน terคไทคไออกในใจ ' ใจ' सुकारणस्स, णमोहिणाणस्स जसोधणस्स । ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् ज्ञानायनमः स्वाहा ॥१८॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । एकोनविंशति पद पूजा अण्णाणवल्ली वणवारणरस, सुबोहिबीजांकुर कारणरस । अणंतसंसुद्ध गुणालयस्स णमो दया मंदिर सत्थयस्स । ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् श्रुताय नमः स्वाहा ॥१९॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । विंशति पद पूजा ___तुभ्यं नमः सकल विश्व वशंकराय, तुभ्यं नमः स्त्रिजगति जन शङ्कराय । तुभ्यं नमो भुवन मण्डन मण्डनाय, तुभ्यं नमोऽस्तु जिनपङ्क विखण्डनाय । ॐ ह्रीं श्रीं सम्यग् तीर्थपदेभ्यो नमः स्वाहा ॥२०॥ गोला, ध्वजा चढ़ावे । द्वितीय वलय ___ इसके बाद दूसरे वलय में ६४ इन्द्रों के नामों की स्थापना कर पूजन करे और ६४ अखरोट चढ़ावे । १ ॐ सौधर्मेन्द्राय नमः स्वाहा । २ ॐ ईशानेन्द्राय नमः स्वाहा । ३ ॐ सनतकुमारेन्द्राय नमः स्वाहा । ४ ॐ माहेन्द्राय नमः स्वाहा । ५ ॐ ब्रह्मेन्द्राय नमः स्वाहा । ६ ॐ लान्तकेन्द्राय नमः स्वाहा । ७ ॐ शुक्रन्द्राय नमः स्वाहा । ८ ॐ सहस्त्रारेन्द्राय नमः स्वाहा । ९ ॐ आनतेन्द्राय : नमः स्वाहा । १० ॐ प्राणतेन्द्राय नमः स्वाहा । ११ ॐ आरणेन्द्राय । नमः स्वाहा । १२ ॐ अच्युतेन्द्राय नमः स्वाहा । १३ ॐ चन्द्रेन्द्राय नमः । खाहा । १४ ॐ सूर्येन्द्राय नमः स्वाहा । १५ ॐ चमरेन्द्राय नमः स्वाहा । १६ ॐ बलीन्द्राय नमः स्वाहा । १७ ॐ धरणेन्द्राय नमः रवाहा । १८ ॐ । भूतन्द्राय नमः स्वाहा । १९ ॐ वेणुदेवेन्द्राय नमः स्वाहा । २० ॐ वणु दालीन्द्राय नमः स्वाहा । २१ ॐ हरिकान्तेन्द्राय नमः स्वाहा । २२ ॐ हरिस्सहन्द्राय नमः स्वाहा । २३ ॐ अग्निशिखन्द्राय नमः स्वाहा । २४ॐ अग्निमाणवेन्द्राय नमः स्वाहा । २५ ॐ पूर्णेन्द्राय नमः स्वाहा । २६ ॐ morexxreameree R aat ใคไตศได้ใจไดไคไดลใจ%% 14ให้ไ% - ไทย ไนไl, " ", " โผน “! .. ๑๑๑๑ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PANKadhkekarettohtokerdihistambakesab kratikhakaraheshsakass torrent to telechar hathoki २७० जैन-रत्नसार -rrrrromrama 225THABladiasisteasibios2017MadhaRAMRomalindiaHEAirlittle विशिष्टेन्द्राय नमः स्वाहा । २७ ॐ जलकान्तेन्द्राय नमः स्वाहा । २८ ॐ जलप्रभेन्द्राय नमः स्वाहा । २९ ॐ अमितगतीन्द्राय नमः स्वाहा । ३० ॐ मितवाहनेन्द्राय नमः स्वाहा । ३१ ॐ बेलवेन्द्राय नमः स्वाहा । ३२ ॐ प्रभंजनेन्द्राय नमः स्वाहा । ३३ ॐ घोषेन्द्राय नमः स्वाहा । ३४ ॐ महाघोषेन्द्राय नमः स्वाहा । ३५ ॐ कालेन्द्राय नमः स्वाहा । ३६ ॐ महाकालेन्द्राय नमः स्वाहा । ३७ ॐ सरूपेन्द्राय नमः स्वाहा । ३८ ॐ प्रति रूपेन्द्राय नमः स्वाहा । ३९ ॐ पूर्णभद्रेन्द्राय नमः स्वाहा । ४० ॐ * माणवेन्द्राय नमः स्वाहा । ४१ ॐ भीमेन्द्राय नमः खाहा। ४२ ॐ महा भीमेन्द्राय नमः स्वाहा । ४३ ॐ किन्नरेन्द्राय नमः स्वाहा । ४४ ॐ किंपुरुषेन्द्राय नमः स्वाहा । ४५ ॐ सत्पुरुषेन्द्राय नमः स्वाहा । ४६ ॐ महापुरुषेन्द्राय नमः स्वाहा । ४७ ॐ अमितकायेन्द्राय नमः स्वाहा । ४८ ॐ महाकायेन्द्राय नमः स्वाहा । ४९ ॐ गीतरतीन्द्राय नमः स्वाहा । ५० ।। ॐ गीतयशेन्द्राय नमः स्वाहा । ५१ ॐ सन्निहितेन्द्राय नमः स्वाहा । ५२ ॐ सामानिकेन्द्राय नमः स्वाहा । ५३ ॐ धानेन्द्राय नमः स्वाहा । ५४ ॐ विधानेन्द्राय नमः स्वाहा । ५५ ॐ ऋषीन्द्राय नमः स्वाहा । ५६ ॐ ऋषिपालेन्द्राय नमः स्वाहा । ५७ ॐ ईश्वरेन्द्राय नमः स्वाहा । ५८ ॐ महेश्वरेन्द्राय नमः स्वाहा । ५९ ॐ वत्सेन्द्राय नमः स्वाहा । ६० ॐ विशालेन्द्राय नमः स्वाहा। ६१ ॐ हास्येन्द्राय नमः स्वाहा । ६२ ॐ श्रेयेन्द्राय नमः स्वाहा । ६३ ॐ हास्यरतेन्द्राय नमः स्वाहा । ६४ ॐ महा श्रेयेन्द्राय नमः स्वाहा । तृतीय वलय इसके बाद १६ विद्या देवियों के नाम की स्थापना कर पूजा करे और १६ सुपारी चांदी के बरक लगी हुई चढ़ावे । १ ॐ रोहिण्यै नमः स्वाहा । २ ॐ प्रज्ञप्त्यै नमः स्वाहा । ३ ॐ वज्र शृङ्खलायै नमः स्वाहा । ४ ॐ वजांकुशायै नमः स्वाहा । ५ ॐ चक्र श्वर्यै नमः स्वाहा । ६ ॐ पुरुपदत्तायै नमः स्वाहा । ७ ॐ काल्यै नमः མོགཱགཱགཱ་ཨཱ ཨཱཀཱི ཀཱནཱ ཨཱཨཱཡཱཝཀཱཡཱནྟི ནཱ ཨཱིཀཱཀྐནཱཧཱིཧཱུྃཨཱཧཱ ཨཱཝཱ་གཱཧཡ། ཨཱ་པཱཧཱ' ཡཧཱ ཀ ཀཱ་ག་ཨལ། , ཨཱམཱ ཀཱ་མཱ་ཡཱཾ r', པདྨ་ 1 5-31TMANAKAMANGSTER22 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - विभाग २७१ स्वाहा | ८ ॐ महाकाल्यै नमः स्वाहा । ९ ॐ गौर्यै नमः स्वाहा । १० ॐ गान्धाय्र्यै नमः स्वाहा । ११ ॐ महाज्वालायै नमः स्वाहा । १२ ॐ मानव्यै नमः स्वाहा । १३ ॐ वैरोट्यायै नमः स्वाहा । १४ ॐ अच्युतायै नमः खाहा | १५ ॐ मानस्यै नमः स्वाहा । १६ ॐ महामानस्यै नमः स्वाहा । चतुर्थ वलय इसके बाद २४ शासन देवों के नामों की स्थापना करे और सोने के बरक लगी हुई २४ सुपारी चढ़ावे । १२ ॐ १ ॐ गोमुखाय नमः स्वाहा । २ ॐ महायक्षाय नमः स्वाहा । ३ ॐ त्रिमुखाय नमः स्वाहा । ४ ॐ यक्षनायकाय नमः खाहा । ५ ॐ तुम्बुरवे नमः स्वाहा । ६ ॐ कुसुमाय नमः स्वाहा । ७ ॐ मातङ्गाय नमः स्वाहा । ८ ॐ विजयाय नमः स्वाहा । ९ ॐ अजिताय नमः स्वाहा । १० ॐ ब्रह्मणे नमः स्वाहा | ११ ॐ यक्षराजाय नमः स्वाहा । कुमाराय नमः स्वाहा । १३ ॐ षण्मुखाय नमः स्वाहा । १४ အ पातालाय नमः स्वाहा | १५ ॐ किन्नराय नमः स्वाहा । १६ ॐ गरुड़ाय नमः स्वाहा । १७ ॐ गन्धर्वाय नमः स्वाहा । १८ ॐ यक्षेन्द्राय नमः स्वाहा | १९ ॐ कुबेराय नमः स्वाहा । २० ॐ वरुणाय नमः स्वाहा । २१ ॐ भृकुटये नमः स्वाहा | २२ ॐ गोमेधाय नमः स्वाहा । २३ ॐ पार्श्व - यक्षाय नमः स्वाहा । २४ ॐ ब्रह्मशान्तये नमः स्वाहा । पञ्च वलय १ ॐ चक्रेश्वर्यै नमः स्वाहा । २ ॐ अजितबलायै नमः स्वाहा । ३ ॐ दुरितायै नमः स्वाहा | ४ ॐ काल्यै नमः स्वाहा । ५ ॐ महाकाल्यै नमः स्वाहा । ६ ॐ श्यामायै नमः स्वाहा । ७ ॐ शान्तायै नमः स्वाहा । ८ ॐ भृकुट्यै नमः स्वाहा । ९ ॐ सुतारकायै नमः स्वाहा । १० ॐ अशोकायै नमः स्वाहा । चण्डायै नमः स्वाहा । १३ ॐ ११ ॐ मानव्यै नमः विदितायै नमः स्वाहा । स्वाहा । १२ॐ १४ ॐ अंकुशायै *******Yorke Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LabhakarkiathkhtosahitihaasakaitianetseharkatitheliabkReathetiksakshistothkhare २७२ animuvwww . word जैन-रत्नसार नमः स्वाहा । १५ ॐ कन्दर्पायै नमः स्वाहा । १६ ॐ निर्वाण्यै नमः स्वाहा। १७ ॐ वलायै नमः स्वाहा । १८ ॐ धारिण्यै नमः स्वाहा। १९ ॐ धरणप्रियायै नमः स्वाहा । २० ॐ नरदत्तायै नमः स्वाहा । २१ ॐ गान्धाय्य नमः स्वाहा । २२ ॐ अम्बिकायै नमः स्वाहा । २३ ॐ पद्मावत्यै नमः स्वाहा । २४ ॐ सिद्धायिकायै नमः स्वाहा । षष्ट वलय इसके बाद छठे वलय में ९ नवनिधानों के नामों की स्थापना कर पूजा करे और ९ कलश चढ़ावे । १ ॐ नैसर्पकाय नमः स्वाहा । २ ॐ पाण्डुकाय नमः स्वाहा । ३ ॐ पिङ्गलाय नमः स्वाहा । ४ ॐ सर्वरत्नाय नमः स्वाहा । ५ ॐ महापद्माय नमः स्वाहा । ६ ॐ कालाय नमः स्वाहा । ७ ॐ महाकालाय नमः स्वाहा। ८ ॐ माणवाय नमः स्वाहा । ९ ॐ शङ्खाय नमः स्वाहा । सप्त वलय पांच रक्षकों के नामों की स्थापना कर पूजा करे और ५ सीताफल चढ़ावे । १ॐ विजयस्वामिने नमः स्वाहा । २ ॐ क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा । ३ ॐ चक्रेश्वर्यै नमः स्वाहा । ४ ॐ धरणेन्द्राय नमः स्वाहा । ५ ॐ पद्मावत्यै नमः स्वाहा । अष्ट वलय इसके बाद दशदिग्पालों के नामों की स्थापना करके पूजा करे और पान अष्टद्रव्य सहित नगदी चढ़ावे । १ॐ इन्द्राय नमः स्वाहा। २ ॐ अग्नये नमः स्वाहा । ३ ॐ यमाय नमः स्वाहा । ४ ॐ नैऋताय नमः स्वाहा । ५ ॐ वरुणाय नमः स्वाहा । ६ ॐ वायव्याय नमः स्वाहा । ७ ॐ कुबेराय नमः स्वाहा । ८ ॐ ईशानाय । नमः स्वाहा । ९ ॐ नागाय नमः स्वाहा । १० ॐ ब्रह्मणे नमः स्वाहा । त्रिचनाप्रवन नगन्यत्र प्रश्न पत्र प्रत्र Arcाल्यूष्ाानमनटल हस्तानमानस्थलमा Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ whitectiడుగడునుడుచుకుంటుండగుండుగుడుదండుడు विधि-विभाग २७३ romanama wimmaamwaminwwwwwwwwwwwwwwwwwwwsannamarawaiwwwwwwamanna సమావడము వడివడుతనమునందుకు नवम् वलय इसके बाद नवग्रहों के नामों की स्थापना कर पूजा करे और पान अष्टद्रव्य सहित नगदी चढ़ावे । १ ॐ सूर्याय नमः स्वाहा । २ ॐ चन्द्राय नमः स्वाहा । ३ ॐ भौमाय नमः स्वाहा । ४ ॐ बुधाय नमः स्वाहा । ५ ॐ बृहस्पतये नमः स्वाहा । ६ ॐ शुक्राय नमः स्वाहा । ७ ॐ शनैश्वराय नमः स्वाहा । ८ ॐ राहवे नमः स्वाहा । ९ ॐ केतवे नमः स्वाहा । इसके बाद बलिवाकुलादि सब विधि नवपद मण्डल के समान ही चढ़ावे । विंशस्थानक की सामग्री ___ पञ्चपरमेष्ठी, दशदिग्पाल, नवग्रहों के पट्टे, लाल कपड़ा, सफेद कपड़ा चावल, बतासे, बादाम, पिस्ता, लौंग, मिश्री, सुपारी, छुहारे, चिरौंजी, पान, इत्र, तेल, फल, फूल, पांच तरह के मिठाई पांच तरहकी, रोली, मौली, धूप, दीपक, घी, खीर, बड़े, पापड़ी, लापसी, बरक, नारियल, केशर, मैनफल, मरोडफली, पैसे, नगदी, अंगलूहण, गोले, ध्वजा, अखरोट, सीताफल, पेठे, सिन्दुर, सतनजा, गुलाबजल । . ऋषि मण्डल पूजा विधि शुभ दिन, शुभ घड़ी, शुभ नक्षत्र, शुभ मुहूर्त में पूजा करानेवाले का चन्द्रबल देख कर ऋषिमण्डल जो चौबीसीजी का मण्डल कहा जाता है नव पदजीके मण्डलके समान ही बनवावे सब स्नात्रियोंको उसकी विधि जैसे अङ्ग शुद्धि, वस्त्र शुद्धि, शिखा बन्धन, मैनफल, मरोड फली, मौली, मण्डलजी के तथा अपने हाथों में बांधना चाहिये और केशर, चन्दन, कुंकुम (रोली ) मण्डलजी की मौली में लगा दे। देववन्दन दशदिग्पाल तथा नवग्रहों की पूजन भेट आदि की सब क्रियायें नव पद मण्डल पूजा के समान ही है। మన పోత న totatotraratnakaracteristics ऋऋऋत्रनयनपत्रगान 35 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Babitarahattisastakishtialitientisastesethihokatokorellatastratak-christshatakstakatsobatsas २७४ जैन-रत्नसार alमत्रत्रग्रनल्यूप्रप्रनयन्त्रमनप्रसननननननननननननननननननननननननननन तक प्रथम वलय पूजा पहले वलय में चौबीस तीर्थङ्करों के नामों की स्थापना कर उनकी पूजा करे २४ गोले चढ़ावे। १ श्री आदिनाथाय नमः स्वाहा । २ श्रीअजितनाथाय नमः स्वाहा । ३ श्री सम्भवनाथाय नमः स्वाहा । ४ श्री अभिनन्दने नमः स्वाहा। ५ श्री सुमतिनाथाय नमः स्वाहा । ६ श्री पद्मप्रभवे नमः स्वाहा । ७ श्री . सुपार्श्वनाथाय नमः स्वाहा । ८ श्री चन्द्रप्रभवे नमः स्वाहा । ९ श्री सुविधिनाथाय नमः स्वाहा । १० श्री शीतलनाथाय नमः स्वाहा । ११ श्री श्रेयांसनाथाय नमः स्वाहा । १२ श्री वासुपूज्याय नमः स्वाहा । १३ श्री विमलनाथाय नमः स्वाहा । १४ श्री अनन्तनाथाय नमः स्वाहा । १५ श्री धर्मनाथाय नमः स्वाहा । १६ श्री शान्तिनाथाय नमः स्वाहा । १७ श्री कुन्थुनाथाय नमः स्वाहा । १८ श्री अरनाथाय नमः स्वाहा । १९ श्री मल्लिनाथाय नमः स्वाहा । २० श्री मुनिसुव्रताय नमः स्वाहा । २१ श्री नमिनाथाय नमः स्वाहा । २२ श्री नेमिनाथाय नमः स्वाहा । २३ श्री पार्श्वनाथाय नमः स्वाहा । २४ श्री वर्धमानाय नमः स्वाहा । मण्डल में ओंकार और क्रौंकार है वहां १४-१४ बकारों को चार स्थानों में बनावे और पूजा करे। १ ॐ ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब नमः । २ ॐ ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब नमः। ३ ॐ ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब नमः। ४ ॐ ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब ब नमः । १ ॐ ह्रीं अर्हद्भूयो नमः स्वाहा । २ ॐ ह्रीं सिद्धे। भ्यो नमः स्वाहा । ३ ॐ ह्रीं आचार्येभ्यो नमः स्वाहा । ४ ॐ ह्रीं उपाध्या येभ्यो नमः स्वाहा । ५ ॐ ह्रीं साधुभ्यो नमः स्वाहा । ६ ॐ ह्रीं ज्ञानेभ्यो नमः स्वाहा । ७ ॐ ह्रीं दर्शनेभ्यो नमः स्वाहा । ८ ॐ ह्रीं चारित्रेभ्यो नमः स्वाहा । इन आठ पदों में आठ गोले पदों के रंग के अनुसार चढ़ावे । द्वितीय वलय पूजा दूसरे वलय में दशदिग्पालों के नामों की स्थापना कर पान चढ़ावे ।। जलप्रलय Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atterstoctabetattatrakhtaecsetiatailedatorilalitarprdasatirpeeratakootakatesterstatestadailcetakistrataette "จากใจจะได้สะ r ta-REATEMEET-ENERAPExararte ดใจในงในใke 11-tistKILLETITLErittenti-E-E-AtINEAAEET विधि-विभाग २७५ १ ॐ इन्द्राय नमः स्वाहा । २ ॐ अग्नये नमः स्वाहा । ३ ॐ यमाय नमः स्वाहा । ४ ॐ नैऋताय नमः स्वाहा । ५ ॐ वरुणाय नमः ६ ॐ वायव्याय नमः स्वाहा । ७ ॐ कुबेराय नमः स्वाहा । ८ ॐ ईशानाय नमः स्वाहा । ९ नागाय नमः स्वाहा । १० ॐ ब्रह्मणे नमः स्वाहा । तृतीय वलय नवग्रहों के नामों की स्थापना कर पूजा करे और पान चढ़ावे ।। १ ॐ सूर्याय नमः स्वाहा । २ ॐ चन्द्राय नमः स्वाहा । ३ ॐ मङ्गलाय नमः स्वाहा । ४ ॐ बुधाय नमः स्वाहा । ५ ॐ वृहस्पतये नमः स्वाहा । ६ ॐ शुक्राय नमः स्वाहा । ७ ॐ शनैश्चराय नमः स्वाहा । ८ ॐ राहवे नमः स्वाहा । ९ ॐ केतवे नमः स्वाहा । चतुर्थ वलय ____ खर तथा व्यञ्जनों की स्थापना करके पूजा करे और किसमिस और है. मिश्री और सुनहरी बरक लगे हुए ८ गोले चढ़ावे । - १ अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः। २ क ख ग घ ङ । ३ च छ ज झ ञ। ४ ट ठ ड ढ ण । ५ त थ द ध न । ६ प फ ब भ म । ७ य र ल व । ८ श ष स ह । पञ्च वलय इसके बाद ग्यारह गणधरों की स्थापना करके उनकी पूजा करे। १ ॐ ह्रीं इन्द्रभूतये नमः स्वाहा । २ ॐ ह्रीं अग्निभूतये नमः स्वाहा । ३ ॐ ह्रीं वायुभूतये नमः स्वाहा । ४ ॐ ह्रीं व्यक्ताय नमः खाहा। ५ ॐ ह्रीं सुधर्मणे नमः स्वाहा । ६ ॐ ह्रीं मण्डिताय नमः स्वाहा । ७ ॐ ह्रीं मौर्य पुत्राय नमः स्वाहा । ८ ॐ ह्रीं अकंपिताय नमः स्वाहा । ९ ॐ ह्रीं अचलनात्रे नमः स्वाहा । १० ॐ ह्रीं मेतार्याय नमः । स्वाहा । ११ ॐ ह्रीं प्रभासाय नमः स्वाहा । नोट-शान्ति पूजाको आदि लेकर जितनी भी पूजायें है इन सवोंमें कृया कराने वाले को तथा रशमी धोती देनी चाहिये और स्नात्रियों को धोती, चहर, मुखकोश देना อะใช้ไว้ใ%%%%%%%%%%%ได้ใใใใดใดในใจไยไอโอได้ใจใ% 66 คน คนใจไรไรในใจไว้ใจได้ ในใจไไไดไป Matruttantr..................Art- จ นน...ในใจองค' 1.1 चाहिये। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैन-रत्नसार wwnerrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrone aamanawarm ENilipinsicalcohdnisdisantalidaladiadiathleoashaliniainlishalilionilisatialalalitarH षष्ट वलय इसके बाद ४८ लब्धि पदों के नाम तथा उनकी पूजन करे और | बरक लगे हुये ४८ छुहारे चढ़ावे । १ ॐ हीं अहं णमोजिणाणं । २ ॐ ह्रीं अहं णमोओहिजिणाणं । ३ ॐ ह्रीं अहं णमो परमोहिजिणाणं । ४ ॐ ह्रीं अहं णमो सम्बोहि जिणाणं । ५ ॐ ह्रीं अहं णमो अणंतोहि जिणाणं । ६ ॐ ह्रीं अहं णमो कबुद्धीणं । ७ ॐ ह्रीं अहं णमो बीयबुद्धीणं । ८ ॐ ह्रीं अहं णमो पयाणु सारीणं।९ ॐ ह्रीं अहं णमो आसीवीसाणं।१० ॐ ह्रीं अहं णमो दिट्ठी वीसाणं । ११ ॐ ह्रीं अहं णमो संभिण्णसोयाणं । १२ ॐ ह्रीं अहं णमो सयं संबुद्धाणं । १३ ॐ ह्रीं अहं णमो पत्तेयबुद्धाणं । १४ ॐ ह्रीं अहं णमो बोहि बुद्धीणं । १५ ॐ ह्रीं अहं णमो ऋजुमईणं । १६ ॐ ह्रीं अहं। णमो विउलमईणं । १७ ॐ ह्रीं अहं णमो दशपुव्वीणं । १८ ॐ ह्रीं अहं णमो चउदश पुवीणं । १९ ॐ ह्रीं अहं णमो अडंग महानिमित्त कुशलाणं । २० ॐ ह्रीं अहं णमो विउव्वईणंइद्विपत्ताणं । २१ ॐ ह्रीं अहं णमो विजाहराणं । २२ ॐ ह्रीं अहं णमोचारणलहीणं । २३ ॐ ह्रीं अहं पणासमणाणं । २४ ॐ ह्रीं अहं णमो आगासगामीणं । २५ ॐ णमो खीरासवाणं । २६ ॐ ह्रीं अहं णमो सप्पिआसवाणं । २७ ॐ ह्रीं अहं णमो महुआसवाणं । २८ ॐ ह्रीं अहं णमो अमिआसवाणं । २९ ॐ ह्रीं अहं णमो सिद्धायणाणं । ३० ॐ ह्रीं अहं णमो भगवया महइमहावीर वडामाण बुद्ध रिसीणं । ३१ ॐ ह्रीं अहं णमो उग्गतवाणं । ३२ ॐ ह्रीं । अहं णमो अक्खीण महाण सियाणं । ३३ ॐ ह्रीं अहं णमो बढ्माणाणं । ३४ ॐ ह्रीं अहं णमो दित्ततवाणं । ३५ ॐ ह्रीं अहं णमो तत्ततवाणं । ३६ ॐ ह्रीं अहं णमो महातवाणं । ३७ ॐ ह्रीं अहं णमो घोरतवाणं ।। ३८ ॐ ह्रीं अहं णमो घोरगुणाणं । ३९ ॐ ह्रीं अहं णमो घोरपक्किमाणं। ४० ॐ ह्रीं अहं णमो बंभयारीणं । ४१ ॐ ह्रीं अहं णमो आमोसही । पत्ताणं । ४२ ॐ ह्रीं अहं णमो खेलोसहीणं । ४३ ॐ ह्रीं अहं णमो Boy ho ARANAKYAkaistKELEASEXEYHARAdaalatetX XDEAKSEKEE Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - विभाग २७७ जल्लोसहीणं । ४४ ॐ ह्रीं अहं णमो विप्पोसहि पत्ताणं । ४५ ॐ ह्रीं अहं णमो सव्वोसहिपत्ताणं । ४६ ॐ ह्रीं अहं णमो मणवलीणं । ४७ ॐ ह्रीं अहं णमो वयणवलीणं । ४८ ॐ ह्रीं अहं णमो कायवलीणं । सप्तम् वलय इसके बाद चौबीस तीथङ्करों के पिता के नामों की स्थापना तथा पूजन करे और २४ सुपारी सोने के बरक लगी हुई चढ़ावे । १ ॐ नाभये नमः स्वाहा । २ ॐ जितशत्रवे नमः स्वाहा | ३ ॐ जितारये नमः स्वाहो । ४ ॐ संवराय नमः स्वाहा । ५ ॐ मेघाय नमः स्वाहा । ६ ॐ धराय नमः स्वाहा । ७ ॐ प्रतिष्ठाय नमः स्वाहा । ८ ॐ महसेनाय नमः स्वाहा । ९ ॐ सुग्रीवाय नमः स्वाहा । १० ॐ दृढ़रथाय नमः स्वाहा । ११ ॐ विष्णवे नमः स्वाहा । १२ ॐ वासुपूज्याय नमः स्वाहा । १३ ॐ कृतवर्मणे नमः स्वाहा । १४ ॐ सिंहसेनाय नमः स्वाहा । १५ ॐ भानवे नमः स्वाहा । १६ ॐ विश्वसेनाय नमः स्वाहा । १७ ॐ सूराय नमः स्वाहा । १८ ॐ सुदर्शनाय नमः स्वाहा । १९ ॐ कुम्भाय नमः स्वाहा । २० ॐ सुमित्राय नमः स्वाहा । २१ ॐ विजयाय नमः स्वाहा । २२ ॐ समुद्रविजयाय नमः स्वाहो । २३ ॐ अश्वसेनाय नमः स्वाहा । २४ ॐ सिद्धार्थाय नमः स्वाहा । इसके बाद माताओं के नामों की स्थापना तथा पूजन करे और २४ सुपारी सोने के बरक लगी हुई चढ़ावे । १ ॐ मरुदेव्यै नमः स्वाहा । २ ॐ विजयायै नमः स्वाहा । ३ ॐ सेनायै नमः स्वाहा । ४ ॐ सिद्धार्थायै नमः स्वाहा । ५ ॐ सुमङ्गलायै नमः स्वाहा । ६ ॐ सुशीमायै नमः स्वाहा । ७ ॐ पृथ्वीमातायै नमः स्वाहा । ८ ॐ लक्ष्मणायै नमः स्वाहा । ९ ॐ रामायै नमः स्वाहा । १० ॐ नन्दायै नमः स्वाहा | ११ ॐ विष्णवे नमः स्वाहा । १२ ॐ जयायै नमः स्वाहा | १३ ॐ श्यामायै नमः स्वाहा | १५ ॐ सुव्रतायै नमः स्वाहा । स्वाहा । ९४ ॐ सुयशायै नमः १६ ॐ अचिरायै नमः स्वाहा । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैन - रत्नसार Jonado escola २७८ १७ ॐ श्रियै नमः स्वाहा । १८ ॐ देव्यै नमः स्वाहा । १९ ॐ प्रभावत्यै नमः स्वाहा । २० ॐ पद्मावत्यै नमः स्वाहा । २१ ॐ विप्रायै नमः स्वाहा । २२ ॐ शिवायै नमः स्वाहा । २३ ॐ वामायै नमः स्वाहा । २४ ॐ त्रिशलायै नमः स्वाहा । अष्ट वलय इसके बाद २४ शासन देवों के नामों की स्थापना कर पूजा करे सोने के बरक लगी हुई २४ सुपारी चढ़ावे । १ ॐ गोमुखाय नमः स्वाहा । २ ॐ महायक्षाय नमः स्वाहा । ३ ॐ त्रिमुखाय नमः स्वाहा । ४ ॐ यक्षनायकाय नमः स्वाहा । ५ ॐ तुम्बुरवे नमः स्वाहा । ६ ॐ कुसुमाय नमः स्वाहा । ७ ॐ मातङ्गाय नमः स्वाहा । ८ ॐ विजयाय नमः स्वाहा । ९ ॐ अजिताय नमः स्वाहा । १० ॐ ब्रह्मणे नमः स्वाहा । ११ ॐ यक्षराजाय नमः स्वाहा । १२ ॐ कुमाराय नमः स्वाहा | १३ ॐ षण्मुखाय नमः स्वाहा । १४ ॐ पातालाय नमः स्वाहा | १५ ॐ किन्नराय नमः स्वाहा । १६ ॐ गरुड़ाय नमः स्वाहा । १७ ॐ गन्धर्वाय नमः स्वाहा । १८ ॐ १९ ॐ कुबेराय नमः स्वाहा । २० ॐ वरुणाय भृकुटये नमः स्वाहा । २२ ॐ गोमेधाय नमः स्वाहा । यक्षाय नमः स्वाहा । २४ ॐ ब्रह्म शान्तये नमः स्वाहा । यक्षराजाय नमः स्वाहा । नमः स्वाहा । २१ ॐ २३ ॐ पार्श्व नवम् वलय इसके बाद चौबीस शासन देवियों के नामों की स्थापना कर पूजा करे और चांदी के बरक लगी हुई २४ सुपारी चढ़ावे । १ ॐ चक्रेश्वर्यै नमः स्वाहा । २ ॐ अजितवलायै नमः स्वाहा । ३ ॐ ॐ दुरितायै नमः स्वाहा । ४ ॐ काल्यै नमः स्वाहा । ५ महाकाल्यै नमः स्वाहा । ६ ॐ श्यामायै नमः स्वाहा । ७ ॐ शान्तायै नमः स्वाहा । ८ ॐ भृकुट्यै नमः स्वाहा । ९ ॐ सुतारकायै नमः स्वाहा | १० ॐ अशोकायै नमः स्वाहा । ११ ॐ मानव्यै नमः स्वाहा । १२ ॐ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि - विभाग २७६ चण्डायै नमः स्वाहा | १३ ॐ विदितायै नमः स्वाहा । १४ ॐ अंकुशायै नमः स्वाहा । १५ ॐ कन्दर्पायै नमः स्वाहा । १६ ॐ निर्वाण्यै नमः स्वाहा । १७ ॐ बलायै नमः स्वाहा । १८ ॐ धारिण्यै नमः स्वाहा । १९ ॐ धरणप्रियायै नमः स्वाहा । २० ॐ नरदत्तायै नमः स्वाहा । २१ ॐ गान्धार्यै नमः स्वाहा। २२ ॐ अम्बिकायै नमः स्वाहा । २३ ॐ पद्मावत्यै नमः स्वाहा | २४ सिद्धायिकायै नमः स्वाहा । इसके बाद २४ सहायक देवियों के नामों की स्थापना करके पूजा करे और चांदी के बरक लगी हुई २४ सुपारी चढ़ावे । १ ॐ ह्रियै नमः स्वाहा । २ ॐ श्रियै नमः स्वाहा । ३ ॐ धृत्यै नमः स्वाहा | ४ ॐ लक्ष्म्यै नमः स्वाहा । ५ ॐ गौर्यै नमः स्वाहा । ६ ॐ चण्डायै नमः स्वाहा। ७ॐ सरस्वत्यै नमः स्वाहा । ८ ॐ जयायै नमः स्वाहा । ९ ॐ अम्बायै नमः स्वाहा । १० ॐ विजयायै नमः स्वाहा । ११ ॐ क्लिन्नायै नमः स्वाहा । १२ ॐ अजितायै नमः स्वाहा । १३ ॐ नित्यायै नमः स्वाहा | १४ ॐ मदद्रवायै नमः स्वाहा । १५ ॐ कामाङ्गायै नमः स्वाहा | १६ ॐ कामवाणायै नमः स्वाहा । १७ ॐ सानन्दायै नमः स्वाहा । १८ नन्दमाल्यै नमः स्वाहा । १९ ॐ मायात्यै नमः स्वाहा । २० ॐ मायावित्यै नमः स्वाहा। २१ ॐ रौद्रथै नमः स्वाहा । २२ ॐ कालायै नमः स्वाहा । २३ ॐ काल्यै नमः स्वाहा । २४ ॐ कालप्रियायै नमः स्वाहा । दशम् वलय इसके बाद १६ विद्या देवियों के नामों की स्थापना कर पूजाकरे और सोने के वरक लगी हुई १६ सुपारी चढ़ावे । १ ॐ रोहिण्यैनमः स्वाहा २ । ॐ प्रज्ञप्त्यै नमः स्वाहा । ३ ॐ वज्रशृङ्खलायै नमः स्वाहा ४ । ॐ वज्राकुंशायै नमः स्वाहा ५ । ॐ चक्रेश्वर्यै नमः स्वाहा ६ । ॐ नरदत्तायै नमः स्वाहा । ७ ॐ काल्यै नमः स्वाहा । ८ ॐ महाकाल्यै नमः स्वाहा । ९ ॐ गौर्यै नमः स्वाहा । १० ॐ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ htatestsabkripatraokaoksattatrnamakosetabobstetnepashtothapkiddisabtackre MarathokiabletEMAKKAkaastroMANRAMETE RNATAKA प्रमऋऋऋऋत्रप्रवननग्रन्यग्रतत्रत्रग्रऋत्रनयनपत्रमाणनामनगमूल्यनगणना २८० जैन-रत्नसार गान्धाय नमः स्वाहा। ११ ॐ ॐ महाज्वालायै नमः स्वाहा । १२ॐ मानव्यै नमः स्वाहा । १३ ॐ वैरोट्यायै नमः स्वाहा । १४ ॐ अच्छुप्तायै नमः स्वाहा । १५ ॐ मानस्यै नमः स्वाहा । १६ ॐ महामानस्यै नमः स्वाहा । एकादश वलय इसके बाद नवनिधानों के नामों की स्थापना कर पूजा करे नव कलश चढ़ावे । १ ॐ नैसर्पकाय नमः स्वाहा । २ ॐ पाण्डुकाय नमः स्वाहा । ३ ॐ पिङ्गलाय नमः स्वाहा । ४ ॐ सर्वरत्नाय नमः स्वाहा । ५ ॐ महापद्माय नमः स्वाहा । ६ ॐ कालायनमः स्वाहा । ७ ॐ महाकालाय नमः स्वाहा । ८ ॐ मानवाय नमः स्वाहा । ९ ॐ शङ्खाय नमः स्वाहा । द्वादश वलय इनकी पूजा कर चौंसठ इन्द्रों के नामों की स्थापना कर पूजा करे सोने के बरक लगी हुई ६४ सुपारी चढ़ावे। . १ ॐ सौधर्मेन्द्राय नमः स्वाहा । २ ईशानेन्द्राय नमः स्वाहा । ३ ॐ सनत्कुमारेन्द्राय नमः स्वाहा । ४ ॐ माहेन्द्राय नमः स्वाहा । ५ ॐ ब्रह्मेन्द्राय नमः स्वाहा । ६ लोन्तकेन्द्राय नमः स्वाहा । ७ ॐ शुक्रेन्द्राय नमः स्वाहा । ८ ॐ सहस्रारेन्द्राय नमः स्वाहा । ९ ॐ आनतेन्द्राय नमः स्वाहा । १० प्राणतेन्द्राय नमः स्वाहा । ११ ॐ आरणेन्द्राय नमः स्वाहा । १२ ॐ अच्युतेन्द्राय नमः स्वाहा । १३ ॐ चन्द्राय नमः स्वाहा। १४ ॐ सूर्येन्द्राय नमः स्वाहा । १५ ॐ चमरेन्द्राय नमः स्वाहा। १६ ॐ बलीन्द्राय नमः स्वाहा । १७ ॐ धारणेन्द्राय नमः स्वाहा । १८ ॐ भूतेन्द्राय नमः स्वाहा । १९ ॐ वेणुदेवेन्द्राय नमः स्वाहा । २० ॐ वेणुदालीन्द्राय नमः स्वाहा । २१ ॐ कान्तेन्द्राय नमः स्वाहा । २२ ॐ हरिस्सहेन्द्राय नमः स्वाहा । २३ ॐ अग्निशिखेन्द्राय नमः स्वाहा । २४ ॐ अग्निमाणवेन्द्राय नमः स्वाहा । २५ ॐ पूर्णेन्द्राय नमः स्वाहा । २६ ॐ विशिष्टे CKEECHEENAMEk ataka Maratha *सवस्त्र। लगानमनत्रनगणवल्पमतमूल्यमाप्रपा Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ infotantolaitante विधि - विभाग २८१ *******... । ३६ ॐ । ३८ ॐ न्द्राय नमः स्वाहा । २७ ॐ जलकांतेन्द्राय नमः स्वाहा । २८ ॐॐ जलप्रभेन्द्राय नमः स्वाहा | २९ ॐ अमितगतीन्द्राय नमः स्वाहा । ३० ॐ मितवाहनेन्द्राय नमः स्वाहा । ३१ ॐ बेलवेन्द्राय नमः स्वाहा । ३२ ॐ प्रभंजनेन्द्राय नमः स्वाहा । ३३ ॐ घोषेन्द्राय नमः स्वाहा । ३४ ॐ महाघोषेन्द्राय नमः स्वाहा । ३५ ॐ कालेन्द्राय नमः स्वाहा महाकालेन्द्राय नमः स्वाहा । ३७ ॐ सरूपेन्द्राय नमः स्वाहो प्रति रूपेन्द्राय नमः स्वाहा । ३९ ॐ पूर्णभद्रेन्द्राय नमः स्वाहा । ४० ॐ माणवेन्द्राय नमः स्वाहा | ४१ ॐ भीमेन्द्राय नमः स्वाहा । ४२ ॐ महा भीमेन्द्राय नमः स्वाहा । ४ ३ ॐ किन्नरेन्द्राय नमः स्वाहा । ४४ ॐ किंपुरुषेन्द्राय नमः स्वाहा | ४५ ॐ सत्पुरुषेन्द्राय नमः स्वाहा । ४६ ॐ महापुरुषेन्द्राय नमः स्वाहा । ४७ ॐ अमितकायेन्द्राय नमः स्वाहा । ४८ ॐ महाकायेन्द्राय नमः स्वाहा । ४९ ॐ गीतरतीन्द्राय नमः स्वाहा | ५० ॐ गीतयशेन्द्राय नमः स्वाहा । ५१ ॐ सन्निहितेन्द्राय नमः स्वाहा । ५२ ॐ सामानिकेन्द्राय नमः स्वाहा । ५३ ॐ धात्रेन्द्राय नमः स्वाहा | ५४ ॐ विधात्रेन्द्राय नमः स्वाहा । ५५ ॐ ऋषीन्द्राय नमः स्वाहा | ५६ ॐ ऋषिपालेन्द्राय नमः स्वाहा । ५७ ॐ ईश्वरेन्द्राय नमः स्वाहा । ५८ ॐ महेश्वरेन्द्राय नमः स्वाहा । ५९ ॐ वत्सेन्द्राय नमः स्वाहा । ६० ॐ विशालेन्द्राय नमः स्वाहा । ६१ ॐ हास्येन्द्राय नमः स्वाहा । ६२ ॐ हास्यरतेन्द्राय नमः स्वाहा | ६३ ॐ श्रेयेन्द्राय नमः स्वाहा । ६४ ॐ 4 महा श्रेयेन्द्राय नमः स्वाहा । सससससस त्रयोदश वलय इसके बाद आठ सिद्धियों के नामों की स्थापना कर पूजा नारंगी चढ़ावे | १ ॐ अणिमासिद्धये नमः स्वाहा । स्वाहा । ॐ गरिमासिद्धये नमः स्वाहा । स्वाहा | ॐ प्राप्तिसिद्धये नमः स्वाहा । 36 को ८ २ ॐ महिमासिद्धये नमः ४ ॐ लघिमासिद्धये नमः ६ ॐ प्रकाम्यसिद्धये नमः Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrorm मनमनगटप्रमाणपत्रव्यप्रनत्रयमनमानस्यनननननननननननननन्यनम Dishixxxkakkaktixxxxxsex.vedetkarsears arriasisristiakkattakatahksexkisoriastatistiatixatesy २८२ जैन-रत्नसार खाहा । ७ ॐ ईशित्वसिद्धये नमः स्वाहा । ८ ॐ वशित्वसिद्धये नमः स्वाहा । चतुर्दश वलय इसके बाद चार कोने में चार द्वारपालों के नामों की स्थापना कर पूजा करे। १ श्री गौतमस्वामिने नमः । २ श्री धरणेन्द्रोरक्षतु । ३ श्री पद्मावति रक्षतु । ४ श्री वैरोट्या रक्षतु । ऋषिमण्डल पूजन की सामग्री २४ गोले, ८ गोले, ५२ पान, ६ कटोरीमें १६-१६, २ में ३२-३२ किसमिस, ४८ छुहारे, २४ सुपारी, २४ सुपारी, २४ सुपारी, २४ सुपारी, २४ सुपारी, १६ सुपारी, ९ कलश, ६४ सुपारी, ८ मिश्री के कुञ्ज, ८ नारंगी। __. अष्टापद मण्डल पूजा विधि प्रथम शुभदिन, शुभघड़ी, शुभमुहूर्त, शुभनक्षत्र और कराने वाले का चन्द्र बल देखकर अष्टापद मण्डल की स्थापना में गोलाकार रूप चौवीसों भगवान् के नामों की स्थापना करके पूजन करे और मैनफल, मरोडफली, मौली, शिखावन्धन, अङ्गरक्षा, देववन्दन तथा दशदिग्पाल, नवग्रहों के पट्टों की पूजन भेट आदि, सब क्रियायें नवपद मण्डल पूजा विधि के समान ही करे पीछे अष्टद्रव्य चौबीसों भगवानों पर चढ़ावे । प्रथम जिन पूजा मन्त्र श्री नाभेयजिनेशत्वं, नन्द्यायतसिदांशुकः। यथाकुमुद्रती नेता, नन्यायतसितांशुकः । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्री ऋषभदेव स्वामीअत्रवेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ॥१॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे ।। . द्वितीय जिन पूजा मन्त्र उपाध्वमतितं भक्त्या, कन्दधाना मनेकपं। प्रणतो द्वोधितं ज्ञान, कन्द AkalisatioratiolatiotkatialisticlestatKKAMALAYAKKHELARAMMAREKHANEYANAVEENERYERAIKELYANValeslakiNikitHIXMASTRYIESMATAASikaki rahahahar tamilar Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arishtha మదనపడదవ డమండలము adirt Tr-nashikaratahililonitorArthatantrakhitralastasiaka fathso विधि-विभाग २८३ धाना मनेकपं । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्री अजितनाथ स्वामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ स्वाहा ॥२॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । तृतीय जिन पूजा मन्त्र श्री सम्भव प्रपन्नाये, समयंते सदादरात् । तेसंसार वनान्मुक्ति, समयंते सदादरात् ॥ॐ ह्रीं श्रीं अहँ ऐं श्रीसम्भव स्वामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ स्वाहा ॥३॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । चतुर्थ जिन पूजा मन्त्र येऽभिनन्दयतेतीर्थ, राजपाद सभाजनाः। विलसन्तिचिरंतेऽत्र, राजपाद सभाजनाः ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीअभिनन्दन स्वामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ स्वाहा ॥४॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे ।। पचम जिन पूजा मन्त्र पूजितां हृद्वयीमुक्त्ये; कान्ताराजीवमालया । सुमते तब लीनाह, कान्ताराजीवमालया।ॐ ह्रीं श्रीं अहँ ऐं श्रीसुमति स्वामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ वाहा ॥५॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । - षष्टम जिन-पूजा मन्त्र पद्मप्रभ सुदृष्टीनां, भूरिशोभातपोदयाः । हन्यात्तमांसि पूषेव, भूरिशोभातपोदया। ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीपद्मप्रभ स्वामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ स्वाहा ॥६॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । सप्तम जिन पूजा मन्त्र सुपार्श्वतत् श्रुतं श्रुत्वा दर्पकोपक्रमानल। मुञ्चन्ति जन्तवश्शान्ता, दर्पकोपक्रमानलं । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीसुपार्श्व स्वामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ स्वाहा ॥७॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । अष्टम जिन पूजा मन्त्र भवांश्चन्द्र प्रभेन्द्रेण, यैरभाजि समुन्नतः। भवांश्चन्द्रप्रभेन्द्रेण, तैर osinderlistantlnitialisa tola titishsantoto phone-ltdelhindistortant adakatanta raalottlett.thy intoshionlentative Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ KKKKK****** जैन - रत्नसार 1 भाजिसमुन्नतः । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीचन्द्र स्वामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ||८|| अष्टद्रव्य चढ़ावे । नवम जिन पूजा मन्त्र सुविधेत्वद्विधिं प्राप्य प्रमाद्यन्त्य समाहितः । येतेश्रेयः श्रियंस्त प्रमाद्यत्य समाहितः । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीसुविधि स्वामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ स्वाहा ||९|| अष्टद्रव्य चढ़ावे । दशम जिन पूजा मन्त्र " सेवतेशीतलस्त्वां ये, देव सम्पन्न केवलः । अपिमुक्तिर्भवेत्तेषां देवसम्पन्न केवलं । ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह ऐं श्रीशीतलस्वामी अत्र वेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ॥१०॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे | 1 एकादश जिन पूजा मन्त्र श्रीश्रेयांसतनूभाजां, परमोक्षगतिर्भवान् । अनंतान्सत्व विश्रांतं परमोक्ष गतिर्भवान् । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीश्रेयांशस्वामी अत्र वेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ॥११॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । द्वादश जिन पूजा मन्त्र वासुपूज्य नवस्वर्ण, नीरजारूढ सक्रमः । हरत्वं विरहं मोहं नीरजारूढ सक्रमः । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्री वासुपूज्यस्वामी अत्र वेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ॥१२॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । त्रयोदश जिन पूजा मन्त्र विमलत्वां प्रतिस्वंये, रञ्जयन्ति मनोभवं । अपिदुर्जय मुच्चैस्ते, रञ्जयन्ति मनोभवं । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्री विमलस्वामी अत्र वेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ॥१३॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । चतुर्दश जिन पूजा मन्त्र जग्मिवां समनं तत्वां, नमस्यन्ति महापदम् । येतेविश्व त्रयी लक्ष्मी, Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ open we testeda 6666666666 states tastes teste विधि - विभाग २८५ नमस्यन्ति महापदम् । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीअनन्तस्वामी अत्र वेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ||१४|| अष्टद्रव्य चढ़ावे | पञ्चदश जिन पूजा मन्त्र नाश्रुतस्तव सिद्धान्तो, येनावीत नयस्ततः । वरंधर्म जिनद्धर्मा, येनावीत नयस्ततः । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्री धर्मस्वामी वेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ॥१५॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । षोड़श जिन पूजा मन्त्र श्री शान्तेदेहिनांदेहि, सारङ्ग विदधेधृतिं । शर्म कर्म ततेरंक, सारङ्ग वितं । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीशान्ति स्वामी अत्र वेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ॥१६॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । सप्तदश जिन पूजा मन्त्र कुन्थुनाथस्तु पन्थानं, विधुतारो विषादृतः । पुंसां तन्यात् पिनाकी च विधुतारो विषादृतः। ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीकुन्थुस्वामी अत्र वेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ||१७|| अष्टद्रव्य चढ़ावे । अष्टादश जिन पूजा मन्त्र येनत्वं नाचितः कर्म, वनवैश्वा नरोपमः । सो अरनाथ कुधीर्भन्या, वनवैश्वा नरोपमः। ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीअरस्वामी अत्र वेदिका पीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ॥१८॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । एकोनविंशति जिन पूजा मन्त्र नांधीपद्मसुतः सिद्धि प्रतिपन्न सदारुणः । येनते भिद्यते मल्ले, प्रतिपन्न सदारुणः। ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीमल्लिस्वामी अत्र वेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ||१९|| अष्टद्रव्य चढ़ावे | CAREERMELAT Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lestactecta tostato २८६ जैन - रत्नसार विंशति जिन पूजा मन्त्र श्री सुव्रत जीनाधीशा, मक्षमालोप लक्षितं । विरंचि मिवसेवड, मक्षमालोप लक्षितं । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीमुनीसुव्रतस्वामी अत्र वेदिकापीठे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा ||२०|| अष्टद्रव्य चढ़ावे । एक विंशति जिन पूजा मन्त्र देव्योऽपित्वद्गुणोद्गाना, सहामंदरसानुगाः । गायन्तित्वां नमे भक्त्या सहामंदर सानुगाः । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीनमि खामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ स्वाहा ||२१|| अष्टद्रव्य चढ़ावे । द्वाविंशति जिन पूजा मन्त्र तृष्णातापात्वया वर्ष, शमितादान वारिणा, श्री नेमे जनतांराध्य, शमितादानवारिणा । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीनेमी खामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ स्वाहा ||२२|| अष्टद्रव्य चढ़ावे । त्रयोविंशति जिन पूजा मन्त्र पार्श्वदेवः सदाकृप्त, महाहार तरंगिताः । नाटयन्ति चरित्रन्ते महाहार तरंगिताः । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्री पार्श्वस्वामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ स्वाहा ॥२३॥ अष्टद्रव्य चढ़ावे । चतुर्विंशति जिन पूजा मन्त्र वीरोजिनपतिः पातुः, तत्वानः काञ्चनश्रियं । विभ्रन्नमेषु निस्सीमां तत्वानः काञ्चनःश्रियं । ॐ ह्रीं श्रीं अहं ऐं श्रीपार्श्वस्वामी अत्र वेदिकापीठेतिष्ठतिष्ठ स्वाहा ||२४|| अष्टद्रव्य चढ़ावे । इसी प्रकार अष्टापदजी का मण्डल बनवावे जैसे इसमें गिनती दी है वैसे ही भगवानों को पहचानना चाहिये । चचारिदक्खिणाये, पच्छिमओ अट्ठ उत्तराई । दशपुव्वाए दो अट्ठा, वयं * PASSESS Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ ..rrmwwwvomwwwwwwwwwwwwwr 'WWWWWWMMA 21.7% ను తన పరువునురుగు గుడalathachala chi డవతరగతులు పరమ నేను నడుం వంపులు గును. । विधि-विभाग . २८७ मिवंदे चउव्वीसं ॥१॥ पुव्वाइ उसमजियं दक्खिणओ संभवाइ चत्तारि पच्छिमसुपासमाई धम्माई दशउत्तरओ ॥२॥ tastrotstratorsttimetaste अष्टापद* मण्डल उत्तर ॥ १५-१६-१७-१८-१६-२०-२१-२२-२३-२४ ।। t atretretakkarulhattest-Mar-ke-la-REKiskasatkatiladkik पश्चिम ।।७-८-६-१०-११-१२-१३-१४॥ त्रिवेदिकमध्य अशोकवृक्ष Healkardiolintosh Yealistiatahkaleeliarrerakirdhaliphariknilinoslokasealistialipeeinlishalilablast-aliskolankiahelnoloskinnaarkeshabdakini fastak krenakala.trekhkhetakindialonlesmastakakkaktoolutatutatin ॥ १-२॥ -retatihatinATHAKREElect-kat 2-2-8-॥ TIOf-talaik fakki A अष्टापद" मण्डलसामग्री २४ गोले, २४ ध्वजा, २४ अंगलूहणे, २४ दीपक, २४ फल, २४ । मिठाई, धूप, नगदी रुपये, २४ नारियल । सब वस्तु चौबीस चौबीस होनी चाहिये। 21...tant-tt..tat.........REPAR * इस अष्टापदजी पर्वत पर भरतचक्रवर्ती चा बनाया हुआ मन्दिर है और उसमें अपने । । अपने वर्ण तथा शरीर प्रमाण की प्रतिमाएं विराजमान हैं। गुरु भक्ति और साधर्मी भक्ति करे। . athth histatulat 1 1.मनग्रपूज्दातमन्ना -1... Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० संख्या १४ दीक्षातप | दो उपवास -- س س ---- to س नित्यभक्त س له Mom2000001 6m xx com auramomorror سه سه سد لله س ------------------------ सिंहपुर तीर्थङ्कर पट्ट परिचय | १५ दीक्षातिथि १६ दीक्षापरिवार | १७ दीक्षा नगरी | १८ छमस्थकाल | १६ दीक्षावस्त्र किस अवस्थामें | चैत्रवदी ८ ४००० अयोध्या १००० वर्षे अवस्था ३ माघसुदीह | १००० १२ ॥ मार्गशीर्पसुदी १५ ॥ सावत्थी माघसुदी १२ ।.. अयोध्या वैशाखसुदी कोशलपुर कर्तिकवदी १३ कौशाम्बी ६ महीने ज्येष्ठसुदी १३ बनारस पौषवदी १३ चन्द्रपुर मार्गशीर्पवदी ६ काकन्दी माघवदी १२ भदिलपुर फागुनवदी १३ फागुनसुदी १४ ६०० चम्पापुर माघसुदी४ । १००० कम्पिलपुर वैशाखवदी १४ , अयोध्या माघसुदी १३ | " रत्नपुर । २ , ज्येष्ठवदी १४ ।" हस्तिनापुर वैशाखवदी ५ ।" गजपुर मार्गशीपसुदी ११ ॥ नागपुर मार्गशीर्षसुदी ११ ३०० मिथिला | अहोरात्री फागुनसुदी १२ । १००० राजगृह । ११ महीने आपाढ़सुदीह मिथिला श्रावणसुदी ६ द्वारिका ५४ दिन पौषसुदी ११ ३०० बनारस ८४ दिन मार्गशीर्पवदी१० एकाकी कुण्डलपुर | १२वर्ष १ पक्ष । जैन-रत्नसार س س س س س ---- سدر तीन उपवास दो उपवास ہ س س " सदी " " کہ یہ तीन उपवास दो उपवास عمل Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या १ २ ६ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १६ २० २१ २२ २३ २४ २० दीक्षा वस्त्र १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ • तीर्थङ्कर पट्ट परिचय २१ दीक्षा स्थान २२ पारणा २३ पारणे का तप २४ दानदेनेवाले सिद्धार्थ बिहार वन वन चम्पक वन सहश्र वन सहचार वन "" "3 " "" १४ 97 " ود "3 22 " 33 A2A:: " " " 19 " " 33 27 " "5 35 नील गुफा सहश्रार वन सहचार वन अरुणस्वेत वन नियखण्डव वन इक्षरस पारणा खीर "" 71 35 "" 35 31 " 93 S 33 15 " १३ 59 55 "9 ל לי " "" "7 11 १ वर्ष २ दिन ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४०० २ २ २ २ २ २ २. २ २ २ 37 " " 55 " "9 " "7 "" 35 22 לי 39 99 17 " 15 ל >> ע 33 59 श्रेयांस कुमार ब्रह्मदत्त सूरदत्त इन्द्रदत्त धर्मदत्त सुमित्र धर्ममित्र पुष्पदत्त पुनर्वसु नन्द सुनन्द जय विजय पद्म सोमदत्त महेन्द्रदत्त सोमदत्त अपराजित विश्वसेन ऋषभसेन दीनदत्ता वरदत्ता धनदत्ता बहुलदत्त निगोह सप्तर्पण शान्ति पियाल प्रियंगु छत्ताह सिरस नागरुख मलिका प्रियंगु तंदुग पाडल २५ ज्ञान वृक्ष जम्बू असत्थ दीपापर्ण नन्दी तिलग चम्पक अशोक चम्पक वकुल वेडसी धव शालवृक्ष विधि-विभाग २६ १ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ संख्या २६ ज्ञानतप سه उपवास ر له م له لم لم له له J لم له له तीर्थङ्कर पट्ट परिचय २७ ज्ञान नगरी | २८ ज्ञान तिथि २६ शिष्य गणधर नाम ३०गणधरसंख्या | ३१ शिष्यणीनाम प्रयाग नगरी | फागुन वदी ११ | पुण्डरीक गणधर | ८४ ब्राह्मी साध्वी अयोध्या , पौप सुदी ११ । सिहसेन , फालगु " सावत्थी , कात्तिक वदी चारु १०२ श्यामा अयोध्या वज्रनाभ अजिता अयोध्या | चैत्र सुदी ११ चमर । | १०० काश्यपि कौशाम्बी | चैत्र सुदी १५ सुव्रत । १०७ रति बनारस | फागुन वदी ६ विदर्भ सोमा चन्द्रपुरी फागुन वदी ७ | दत्त सुमना काकन्दी कार्तिक सुदी ३ / वराहक वारुणी भहिलपुर ॥ | पौष सुदी १४ आनन्द | माघ वदी ३० | गोशुभ धारणी चम्पापुर , माघ सुदी २ सुभूम। धरणी कम्पिलपुर | पौष सुदी ६ मन्दर वेशाख वदी १४ | यशोधर पद्मा रनपुर " पौष सुदी १५ | अरिष्ट हस्तिनापुर" पौष सुदी ६ चक्रायुध हस्तिनापुर, चैत्र सुदी ३ स्वयम्भू दामिनी मिथिला कार्तिकसुदी १२ कुम्भ रक्षिता मथुरा मार्गशीषेसुदी १२ अभिक्षक " बन्धुमती राजगृह फागुन वदी १२ इन्द्र १८ पुष्पवती मथुरा मार्गशीर्षसुदी १२ शुभ अनिला गिरनार आश्विनवदी ३० वरदत्त यक्षदिन्ना बनारस चैत्र वदी ४ आर्यदिन्न पुष्पचूला ॥ ऋजुवालिकानदी वैशाख सुदी १० इन्द्र चन्दनवाला, जैन-रत्नसार सिंहपुर م م अयोध्या " XX शिवा م له له m शुचि م له له. له له سه سما Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ साधु संख्या ८४००० २००००० २००००० ३००००० ३२०००० ३३०००० ३००००० २५०००० २००००० १००००० ८४००० ७२००० ६८००० ६६००० ६४००० ६२००० ६०००० ५०००० ४०००० ३०००० २०००० १८००० १६००० १४००० तीर्थङ्कर पट्ट परिचय ३३ साध्वी सख्या ३४ श्रावकसंख्या ३५ श्राविकासंख्या ३६ देशविहार । ३७ मोक्ष परिवार ३००००० ३५०००० ५५४००० आर्य-अनार्य १०००० (साधु साध्वी) ३३०००० २६८००० ५४५००० १००० ३३६००० २६३००० ६३६००० १००० ६३०००० २८८००० ५२७००० ५३०००० २८१००० ५१६००० ४२०००० २७६००० ५०५००० ३०८ ४३०००० २५७००० ४६३००० ५०० ३८०००० २५०००० ४६६००० १००० १२०००० २२६००० ४७१००० १००० १००००६ २८९००० ४५८००० १०३००० २७६००० ४४८००० १००००० २१५००० ४३६००० १००८०० २०८००० ४२४००० ६०० ६२००० २०६००० ५१४००० ७०० ६२४०० २०४००० ४१३००० १०८ ६१६०० १६०००० ३६३००० ६०० ६०६०० १७६००० ३८१००० १००० ६०००० । १८४००० ३७२००० १००० ५५००० १८३००० ३७०००० ५००" ५००० १७२००० ३५०००० १००० ४१००० १७०००० ३४८००० अनार्य १००० ४०००० १६६००० ३३६००० ३८००० १६४००० ३३६००० अनायें | ३३ ३६००० १५६००० ३१८००० , अनार्य । एकाकी विधि-विभाग २६३ - Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या । ३८ मोक्ष संलेखणा ६ उपवास | एक महीना लाख वर्ष चप &009 00 चैत्र सुदी १ " सिंह 2 तीर्थङ्कर पट्ट परिचय | ३६ निर्वाणतिथि ४०निर्वाणधाम | ४१ दीक्षा पर्याय ४२ आयु प्रमाण ४३ राशी नाम माघ वदी १३ । अष्टापद | एक लक्ष पूर्व ८४ लाखपूर्व वर्ष धन राशी चैत्र सुदी ५ सम्मेतशिखर चैत्र सुदी५ । वैशाख सुदी ८ मिथुन मार्गशीर्षवदी ११ . कन्या फागुन वदी ७ । तुला भादवा वदी ७ बृश्चिक भादवा सुदी ५० हज धन वशाख वदी २ २५ हजार पूर्व धन श्रावण वदी ३ २१ लाख वर्ष मकर आपाढ़ सुदी १४ चम्पापुरी ५४ लाख वर्ष कुम्भ आषाढ वदी ७ । सम्मेत शिखर | १५ लाख वर्षे ६० मीन चैत्र सुदी५ । ७५०००० " ३० ॥ मीन ज्येष्ठ सुदी५ २५०००० कर्क ज्येष्ठ वदी १३ २५००० वैशाख वदी १ २३७५० ६५००० मार्गशीर्पसुदी १० २१००० ८४००० फागुन सुदी १२ ५४००० 1५५००० ज्येष्ठ वदी ७५०० ३०००० वैशाख वदी १० २५०० १०००० आपाढ़ सुदी ८ गिरनार गिरी ७०० , १००० " कन्या | श्रावण सुदी ८ सम्मेतशिखर १०० " तुला | कार्तिक वदी ३० | पावापुरी - ७२. कन्या जैन-रत्नसार मेष १७ वृप १८ १६ मीन मेप मेप २३ २ उपवास - Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या १ २ ३ ४ ७ ८ Ε १० ११ १२ १३ १४ १५ y w 2 v w ~ ~ ~ ~ १६ १७ २१ २२ २३ उत्तराषाढ़ा नक्षत्र रोहिणी नक्षत्र मृगसिरा पुनर्वसु मघा चित्रा विशाखा अनुराधा १८ रेवती २४ मूला पूर्वापाढ़ा श्रवणा शतभिखा उत्तराभाद्रपद रेवती पुष्य भरणी २० श्रवण कृतिका अश्विनी ४४ नक्षत्र नाम अश्विनी चित्रा विशाखा उत्तराफाल्गुनी ४५ शासन गोमुख यक्ष महा यक्ष त्रिमुख यक्ष यक्षनायक यक्ष तुम्बुरु कुसुम मातङ्ग विजय अजित ब्रह्मा यक्षराज कुमार पण्मुख पाताल किन्नर गरुड़ गन्धर्व यक्षराज कुवेर वरुण भृकुटी गोमेध पार्श्व ब्रह्मशान्ति 37 75 "3 " " 91 35 19 39 " ין 32 , " ,, " १३ "" 17 तीर्थङ्कर पट्ट परिचय यक्ष ४६ शासन यक्षणी चक्रेश्वरी देवी अजितबला देवी दुरितारी देवी काली महाकाली श्यामा शान्ता ਅਫੀ सुतारका अशोका मानवी चण्डा विदिता अंकुशा कन्दर्पा निर्वाणी 17 1" $5 " 33 79 बला धारिणी धरणिप्रिया " "3 नरदत्ता गान्धारी अम्बिका पद्मावती सिद्धायिका ני 22 " , 7 33 15 " "" 11 " " ४७ पूर्वजन्मनाम पूर्व वज्रनाभ कुमार विमल नाभ कुमार धर्मसिंह कुमार सुमित्र धर्ममित्र सुन्दरबाहू दीप बाहू युग बाहू लट्ठ बाहू दिन्न बाहू इन्द्र दिन्न सुन्दर महीधर सिंहरथ मेघरथ रूपी सुन्दर सेन नन्द सिंहगिरि अघलसल शस्त्र " "" 15 ,, "" 35 77 " >> "" , " " " "" " "3 31 सुन्दर सेन 17 सुवर्ण बाहू " नन्द ४८ पूर्व भव मे पढ़े हुए शास्त्र १४ पूरव पढ़ ११ अंग पढ़े " "" 55 ,, 17 ,3 "" 9, " 31 17 13 "3 57 39 21 " " לל " 95 " "2 39 در 22 7 در دو 13 17 १. , " 27 39 دو 3 " " " विधि-विभाग २६५ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ................... raulashtat....sealitbulutatasthanikat.hdnxn मन्मन्ननगम मन्त्रालयअन्यत्रतत्र प्रधानमन्त्रमनयनन्यायप्रणमननप्रयाग्रप्रयन जैन-रनसार शिलान्यास (नीव) भरने की विधि - शुभदिन, शुभघड़ी, शुभमुहूर्त, शुभनक्षत्र में पञ्चतीर्थजी की प्रतिमा जहां नींव खोदी गई हो वहां ले जावे और स्नात्रपूजा, दशदिग्पालों तथा नवग्रहों के पट्टों की स्थापना, बलिवाकुलादि का सब कार्य शान्तिपूजा के समान ही करना चाहिये। जिस कोण में नींव खोदने का मुहूर्त हो उस कोण में गड्ढा खुदवावे उस गड्ढे में पृथ्वी की पूजन करे। पृथ्वी पूजन मन्त्र ॐ पृथिव्यै नमः 'जलंसमर्पयामि यह कह जल चढ़ावे और इसी मन्त्र से रोली का छींटा, पुप्प धूप, दीपक, मूंग, अक्षत ( चावल ), दुव ( हरी घास ), गुड़, बतासे, सुपारी आदि चढ़ावे । एक ताम्बे के लोटे में सवासेर घी, चौखंटा रुपया, पुरानी मोहर, पञ्चरत्न की पोटली डाल दे और सोने का सांप (नाग) को नैर्ऋतकोण में नागिनी को नाग के बायीं तरफ लोटे में बैठावे और लोटे को ढक दे ऊपर से नारियल रख लाल कपड़े से बांध दे। .ladakhstalhubabitasbarahat.LtushaileadealrukutubidiohathitradichuthalaliKITALKIYANKSutilathimilailailaaliNAA . MAABETH ___ॐ पृथ्वी पतये नमः यह मन्त्र पढ़ लोटे को गढे में रख दे। जो लोटा रखनेवाला हो उसके हाथ में गुरु मोती की राखी बांध कर तिलक * करे और 'ॐ अनन्ताय नमः जलं समर्पयामि जलका छींटा, गुड़, दूव इसी मन्त्र से चढ़ावे और गढ़े को चारों तरफ से गज गज भरतक भरवा दे खास तौर पर पांच ईटे शुद्ध जल से साफ कर पूजन करनेवाला ! रखे । और विसर्जन का सब कार्य पूर्ववत् करना चाहिये। . जल यात्रा महोत्सव विधि शुभदिन शुभघड़ी शुभनक्षत्र शुभमुहूर्त में जल यात्रा के वास्ते गङ्गा नोट-जहां नदी हो वहां उसी नदी के जल से ईटे शुद्ध करनी चाहिये। शिलान्यास विधि करानेवाले को भेंट अवश्य देनी चाहिये। eilaili k i .lankaalakailalkilatika Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******** Fototo to to २६७ विधि - विभाग आदि नदियों पर जाने के लिये निम्नलिखित क्रिया करें पहले मट्टी के कलश ७-९-११-३१-४१ से लेकर १०८ तक लेने चाहिये उन कलशों में अन्दर तथा बाहर रोली के ५ साथिये करे उनके अन्दर ५ सुपारी एक एक रुपया वगैरह और बाहर एक-एक पञ्चरत्न की पोटली एक एक फूल माला मैनफल मरोडफली बांधे उनपर एक एक नारियल रखे पीछे स्नान्त्रिये भी अपने हाथों में मैनफलमरोडफली बांधे और अंग शुद्ध करे | ॐ कल्मष दह दह स्वाहा । इस मन्त्र को ७ बार पढ़कर चित्त ( मन ) शुद्ध करे फिर अङ्ग रक्षा करे ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं पादौ रक्ष रक्ष ||१|| इस मन्त्र को ६ बार पढ़कर पैरों पर हाथ फेरे । ॐ ह्रीं मो सिद्धाणं कटिं रक्ष रक्ष ||२|| इस मन्त्र से करधनी पर हाथ फेरे । ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं नाभि रक्ष रक्ष ॥३॥ इस मन्त्र से ( सूंडी ) पर हाथ फेरे । ॐ ह्रीं णमो उवज्झायाणं हृदयं रक्ष रक्ष ||४|| इस मन्त्र से हृदय की रक्षा करे । ॐ ह्रीं णमो लोएसव्वसाहूणं ब्रह्माण्डं रक्ष रक्ष ||५|| ७ बार इस मन्त्र से मस्तक पर हाथ फेरे । ॐ ह्रीं एसोपञ्चणमोक्कारो शिखां रक्ष रक्ष ॥६॥ ७ बार इस मन्त्र से चोटी पर हाथ फेरे । ॐ ह्रीं सव्वपावप्पणासणो आसनं रक्ष रक्ष ॥७॥ ७ बार इस मन्त्र से आसन पर हाथ फेरे । ॐ ह्रीं मंगलाणं च सव्वेसिं आत्मचक्षू रक्ष रक्ष ||८|| ७ बार इस मन्त्र से हृदय पर हाथ फेरे | ॐ ह्रीं पढमंहवइ मंगलं पर इस मंत्र से चक्षू पर हाथ फेरे फिर पूर्ववत अङ्गरक्षा स्तोत्र पढ़े इसके बाद दशदिग्पाल, नवग्रह, आवाहन, वलिवाकुल आदि सब कार्य शान्ति पूजानुसार करे । और सब स्नात्रिये निम्नलिखित मन्त्रों से अंग शुद्धी करें । चक्षू रक्ष रक्ष । ७ बार ॐ ह्रीं अमृते अमृतोद्भवे अमृत वर्षिणि अमृतं श्रावय श्रावय स्वाहा ||१|| इस मन्त्रको सात बार पढ़कर दन्तधावन कुल्ला करने का जल मन्त्रे । ॐ ह्रीं यक्षसेनाधिपतये नमः ||२|| इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर दन्तधावन करे | s But for two text tatuato (and Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amrare.. ...mmm rtalikatih hamateriakistakalatakarahatranslafa Polnake deshab.dailcilaile theilailendidelorlekalipindialashilabahinilailalilikithalihatilakalika-Mankothail जैन-रनसार ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कामदेवाधिपति ममाभीप्सितं पूरय पूरय स्वाहा ॥३॥ सात बार इस मन्त्र को पढ़ कर मुख धोवे । ॐ ह्रीं अमले विमले विमलोद्भवे सर्व तीर्थ जलोपमे पां पां बां बां अशुचिना शुचिर्भवामि स्वाहा ॥ell इस मन्त्र को सात बार पढ़कर स्नान करने का जल मन्त्र और स्नान करे । ॐ ह्रीं ॐ क्रौं नमः ॥५॥ सात बार इस मन्त्र को पढ़ कर धोती उत्तरासन धारण करे। ॐ नमो आँ ह्रीं क्रौं अर्हते नमः इस मन्त्रको सात बार पढ़कर केशर या चन्दन से मस्तक में तिलक करे । ॐ ह्रीं अवतर २ सोमे सोमे कुरु कुरु वल्गु वल्गु निवल्गु निवल्गु सुमनसे सोमनसे महुमहुरे ॐ कवलि कः क्षः स्वाहा । इस मन्त्रको सात बार पढ़कर मैनफल मरोडफली हाथमें बांधे । . ॐ ह्रीं अहं भूर्भुवः स्वधाय स्वाहा । इस मन्त्र को सात बार पढ़कर मस्तक पर वासक्षेप करे। इस प्रकार अपना अङ्ग शुद्ध कर भगवान् की प्रतिमा को पालकी या रथ में विराजमान करे और गाजे बाजेके साथ गङ्गा आदि महानदी पर जावे और वहां जाकर एक थाली में लहंगा, ओढ़नी, चूड़ी का जोड़ा, मेंहदी, मिठाई, फल, फूल, नगदी आदि सब सामग्री सजाकर गङ्गादेवी की पूजन करे । मध्य धारा में जाकर अष्टद्रव्य से निम्न मन्त्र के द्वारा जल की पूजन करे। क्षीरोदधि स्वयंभूश्च सरे पद्मा महाहदे । शीता शीतोदकाकुण्डे जले - स्मिन् सन्निधिं कुरु ॥१॥ गङ्गे च जमुने चैव गोदावरी सरस्वती । कावेरी नर्मदा सिन्धो, जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु ॥२॥ इसके बाद निम्न मन्त्र से मन्त्रे हुए कलश से जल निकाले । A MAKAMA ANDERARMAKKHAIRAMAYamitatistina kpREAKKAREKHA THAPAGhatantrasRTHEATRAPHiteshtakaharaska NANETanaloricalamithal ilab a k arathi RELI Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ heartstranslatest trailer that is the state विधि-विभाग eจไดไไไไไทยไอดในใจได้ในระดในไท โคโคลดใดใดใดได้ลได้ แต่ได้ ไeeใน iss is the o8 Mgles is the ___ॐ ह्रीं अमृते अमृतोद्भवे अमृत वर्षिणि अमृतं श्रावय श्राव्य से से क्लीं क्लीं ब्लू ब्लू ह्रां ह्रीं द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ह्रीं जलदेवी देवान् अत्रागच्छ अत्रागच्छ स्वाहा । इसके बाद इस मन्त्र से जलदेवी को बलि चढ़ावे । ____ ॐ आँ ह्रीं क्रौं जलदेवी पूजावलिंगृहाण गृहाण स्वाहा । इसके बाद गङ्गादेवी को अष्टद्रव्य से निम्न मन्त्र पढ़ कर जल चढ़ावे । , १ ॐ ह्रीं क्लीं ब्लं जलं समर्पयामि स्वाहा । २ ॐ ह्रीं क्लीं ब्लं चन्दनं समर्पयामि । ३ ॐ ह्रीं क्लीं ब्लं पुष्पं समर्पयामि । ४ ॐ में ब्लू धूपं समर्पयामि । ५ ॐ ह्रीं क्लीं ब्लू दीपं समर्पयामि । ६ ॐ में ब्लू अक्षतं समर्पयामि । ७ ॐ ह्रीं क्लीं ब्लू नैवेद्य समर्पयामि । ८ ॐ ह्रीं क्लीं ब्लू फलं समर्पयामि । ९ ॐ ह्रीं क्लीं ब्लू वस्त्रं समर्पयामि । ____ इसके बाद जलके सम्पूर्ण कलशों पर नारियल रख ऊपर से लाल कपड़ा बांध देवे और विसर्जनादि सब कार्य पूर्ववत् करे 1 और गाजे वाजे के साथ ही वापिस अखण्ड जल*धारा देता हुआ मन्दिर में आवे । भगवान् के दाहिनी तरफ कलशों को रखे और । अधिष्ठायक क्षेत्रपाल ( भैरूं ) जी की पूजा निम्न मन्त्र से करे । १ ॐ ह्रीं क्षा क्षीं क्षं ः क्षों क्षः क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा जल चढ़ावे । २ ॐ ह्रीं क्षां क्षीं क्षं झै क्षौं क्षः क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा चन्दन चढ़ावे । क्षा क्षी झू ः क्षों क्षः क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा पुप्प चढ़ावे । क्ष क्षौं क्षः क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा तेल चढ़ावे । झू क्षों क्षः क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा सिन्दुर चढ़ावे । झू क्ष क्षौं क्षः क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा धूप चढ़ावे । क्षी झू झें क्षों क्षः क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा दीपक चढ़ावे । १८ ॐ ह्रीं क्षा क्षी क्षुः क्षों क्षः क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा अक्षत चढ़ावे । Shuttlelete พใด ไพไปยได้ใN.ได้ไกลไหล ไหลไคลได้ไกดไดใจใครจะ ไพโดยดูโreใกลไกใจได้งได้ใจได Tave ใน ให้ 06 M - e 8 8 8 ho ho ho ho ho 8 8 28 F-65-6 "FAGE ไทยใจไกลไกลโคไeteele ในไอดไฟไดหนองปลไก 4 les * प्रतिष्ठा अष्टान्हिकादि उत्सवों में ही जलयात्रा निकाली जाती है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You fon for You Lontan to top tontotantotantonton font fontantent to toto to to to to to to to to to to to tonton for to Foto to to to beate जैन - रत्नसार ३०० ९ ॐ ह्रीं क्षां क्षीं क्षं क्ष क्ष क्ष क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा नैवेद्य चढ़ावे । १० ॐ ह्रीं क्षां क्षीं क्षू क्ष क्ष क्षः क्षेत्रपालाय नमः स्वाहा फल चढ़ावे | और आरती करे पीछे णमुत्थुणं० जावंति चेइयाइं० जावंत के बिसाहू • नमोऽर्हतसिद्धा॰ उवसग्गहरं० जयवीराय तक सम्पूर्ण चैत्यवन्दन करे | यह सब कार्य समाप्त होने पर ज्ञानभक्ति, गुरुभक्ति साधर्मी वत्सल या प्रभावना करे । ॥ इति विधि-विभाग ॥ al, area on testents Vo Yoto Tonkonteste Yes, Yo Yesto taste Ye Yaaronto tootnot Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र 62 ** ** * ***** Sets पूजा - विभाग स्नात्र* पूजा ॥ दोहा ॥ चउतीसे अतिसय जुओ, वचनातिसय संयुक्त । देखि भवि, सिंहासण सो परमेसर संपत्त ॥१॥ ॥ ढाल ॥ सिंहासन बैठा जग भाण, देखि भविजन गुणमणि खाण । जे दीठे तुझ निम्मल झाण, लहिये परम महोदय ठाण कुसुमाञ्जलि मिलो आदि जिणंदा तोरा चरणकमल चौबीस, पूजोरे चौबीस, सौभागी चौबीस, वैरागी चौबीस, जिणंदा । ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् आदि जिनेन्द्राय कुसुमाञ्जलि यजामहे स्वाहा ||२|| चरणों पर टीकी दीजिये भवभवनोला हो लीजिये । कुसुमाञ्जली चढ़ावे । चरणों पर केशर चढ़ावे । ॥ गाथा ॥ जो णियगुण पज्जवरम्यो, तसु अणुभव एगन्त । सुहपुग्गल आरोपतां, जोति सुरंग निरन्त ॥ ३ ॥ ॥ ढाल || जो णि आतमगुण आनंदी, पुग्गल संगे जेह अफंदी | जे परमेसर निजपद लीन, पूजो प्रणमो भव्य अदीन । कुसुमाञ्जलि मिलो शान्ति जिणन्दा तोरा चरण कमल चौबीस, पूजोरे चौबीस, सौभागी चौबीस, बैरागी चौवीस, जिणंदा ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद्शान्ति जिनेन्द्राय कुसुमाञ्जलिं यजामहे स्वाहा ||४|| घुटनों पर टीकी दीजिये भव भवनोलाहो लीजिये । कुसुमाखली चढ़ावे घुटनों पर टीकी देवे । - प्रथम हाथ की हथेली मे पुष्प या कुसुमाञ्चली (पीले चावल) लेवे । Toto to trocento Treboto to to torta to t to to to to to to to to to i dorts to to test to Yocto to to to torta Yn to Yo Yo ito to to to Yacts to I do to start to tostante tortil 1 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ stohtottarashatalatabashba t athaabita-tiatisexykistaketakitaaraatxtastotkoshshnate जैन-रनसार ي و من میں کی ہی عده هم تم سے wuurwwwwwwwwwwwwwwwwamrernawwwwwwwwwwww Humit ॥गाथा ।। णिम्मल णाण पयास कर, णिम्मल गुण संपण्ण । णिम्मल धम्म वएसकर, सो परमप्पा धण्ण ॥५॥ . ॥ ढाल ॥ लोकालोक प्रकाशक नाणी, भविजन तारण जेहनी वाणी । परमानन्द तणी नीसाणी, तसु भगतें मुझ मति ठहराणी ___कुसुमाञ्जलि मिलो नेमि जिणंदा तोरा चरण कमल चौबीस, पुजोरे चौबीस, सौभागी चौबीस, वैरागी चौबीस, जिणंदा । ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् नेमी जिनेन्द्राय कुसुमाञ्जलिं यजामहे स्वाहा ॥६॥ हाथों पर टीकी दीजिये भव भवनो लाहो लीजिये। कुसुमाञ्जली चढ़ावे दोनों हाथों में टीकी देवे। ॥ गाथा ॥ जे सिञ्झा सिझंति जे, सिझसंति अणंत । जसु आलंबन ठवियमण, सो सेवो अरिहंत ॥७॥ ॥ ढाल ॥ शिव सुख कारण जेह त्रिकाले, सम परिणामें जगत् निहाले । उत्तम साधन मार्ग दिखा ले इन्द्रादिक जसु चरण पखाले ॥ - कुसुमाञ्जलि मिलो पार्व जिणंदा, तोरा चरण कमल चौबीस, पुजोरे चौबीस, सौभागी चौबीस, वैरागी चौबीस, जिणंदा। ॐ हीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् पार्श्व जिनेन्द्राय कुसुमाञ्जलिं यजामहे स्वाहा ॥८॥ कन्धों पर टीकी दीजिये भवभवनो लाहो लीजिये । कुसुमाञ्जली चढ़ावे और दोनों कन्धों पर टीकी देवे । ॥ गाथा ॥ सम्मट्ठिी देस जय, साहु साहुणी सार ॥ आचारज उवज्झाय मुणि, जो णिम्मल आधार ॥९॥ ATMardastaratalestrarakitadetoticatextutetonatepstartetstartetratakakarandbalatatatelescortankarAREE kakkastotstatekar stadke delectricitator " नप्रणय सरगन्जमग्रमणधप्रबन्धन बना ग्र Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ htakattinattentitation డ వగానుండ డంతblestatisticatterest Ba se x पूजा-विभाग २०३ raawwwwwwwd naamannamrammawammamrawa K Ab o Rakhlorakhnailakshasokharirantidat.sa srabased that anAmA t a tir Indlerietaria irlistiatila Kh ॥ ढाल ॥ चउविह संघे जे मन धार्यो, मोक्ष तणो कारण निरधारयो । विविह कुसुम वर जाति गहेवी, तसु चरणे प्रणमंत ठवेवी । कुसुमाञ्जलि मिलो वीर जिणंदा तोरा चरण कमल चौबीस, पूजोरे चौबीस, सौभागी चौबीस, वैरागी चौबीस, जिणंदा । ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् वीर जिनेन्द्राय कुसुमाञ्जलिं यजामहे स्वाहा ॥१०॥ मस्तक पर टीकी दीजिये भवभवनो लाहो लीजिये । कुसुमाञ्जली चढ़ावे और मस्तक पर टीकी देवे । । ॥ वस्तुछंद ॥ सयल जिनवर सयल जिन वर, नमिय मनरंग। कल्लाणकविहि संठविय करि सुधम्म सुपवित्त सुन्दर सय इग सत्तरि तित्थंकर इक समय विहरंति महियल चवण समय इगवीस । जिण, जम्म समय इगवीस ॥ भत्तिय भावे पूजिया करो संघ सुजगीस ॥११॥ भव तीजे समकित गुण रम्या। जिनभक्ति प्रमुख गुण परिणम्या ॥ तजि इन्द्रिय सुख आसंसयना। करि थानक वीसनी सेवना ॥१२॥ अति राग प्रशस्त प्रभावता। मनभावना एहवी भावता ॥ सविजीव करूं शासन रहसी ॥ ऐसी भावदया मन उल्लैसी ॥१३॥ लहि परिणाम एहवं भलू ॥ निपजाविय जिनपद निरमलं ॥ आउ बंध विचे एकभवकरी । श्रद्धा संवेग ते थिर धरी ॥१४॥ तिहां थी चविय लहे नरभव उदार ॥ भरते तिम एरवतेज सार ॥ महाविदेह विजय परधान ॥ मध्यखंडे अवतरे जिन निधान ॥१५॥ ॥ ढाल ॥ ___पुण्ये सुपने ए देखें मनमां हरख विसेसें । गजवर उज्जल सुन्दर ॥ निरमल वृषभ मनोहर ॥१६॥ निरभय केशरी सींह। लखमी अतिहि अ वाह ॥ अनुपम फूलनी माला । निरमल शशि सुकुमाला ॥१७॥ तेज तरण rocialokhabaronlentistianelosatssoobstaclesorticotbaleolasalambalatialaatmasantiplosistemalinilipielialisti Int-fatiotisthur..hantiatubalaturur.Bata-tiatefinish Tili-finkista-to-riti Maratrinat... aneletiolokaiset=troditiedoslarkonlientrange ***मयूरभूगल गान लागलपन यूटयूट्यू का अनन्त Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ wrrammarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrammar जैन-रत्नसार अति दीपै । इन्द्रध्वजा जगजीपे ॥ पूरण कलश पंडूर। पद्मसरोवर पूर ॥१८॥ इग्यारमें रयणायर । देखे माताजी गुणसायर ॥ बारमें भुवन विमान, तेरमें रतन निधान ॥१९॥ अगनिशिखा नीरधूम । देखें माताजी अनुपम ॥ हरखी रायनें भाखें ॥ राजा अरथ प्रकासे ॥२०॥जगपति जिनवर। सुखकर । होसे पुत्र मनोहर ॥ इन्द्रादिक जसु नमसे। सकल मनोरथ फलसे ॥२१॥ (वस्तुछंद ) पुण्य उदय २ । उपना जिननाह ॥ माता तब रयणी समें। देखि सुपन हरखंत जागीय ॥ सुपन कही निज कंतने, सुपन अरथ सांभलो साभागीय त्रिभुवन तिलक महागुणी ॥ होसे पुत्र । निधान, इन्द्रादिक जसु पाय नमी करसे सिद्धि विधान ॥२२॥ ॥ ढाल ॥ सोहमपति आसन कंपीयो । देई अवधे मन आणंदीयो। मुझ आतम निरमल करण काज ॥ भवजल तारण प्रगट्यो जहाज ॥२३॥ भव अटवी पारग सत्थवाह, केवल नाणाईगुण अगाह । शिव साधन गुणअंक्रूर जेह ॥ कारण उलट्यो आषाढि मेह ॥२४॥ हरख विकसे तब रोमराय । वलयादिकमां निज तनूं न माय ॥ सिंहासनथी ऊठयो सुरिन्द। प्रणमंतो जिन आनन्द कन्द ॥२५|| सगअड़पय समुहा आवितत्थ । करी अंजली प्रणमिअ मत्थ सत्य ॥ मुख भाखे ए क्षण आज सार । तियलोय पहूदीठो उदार ॥२६॥ रे रे निसुणो सुरलोय देव विषयानल तापित तनु समेव । तसु शान्तिकरण जलधर समान मिथ्याविष चूरण गरुड़वान ॥२७॥ ते देव जगत्तारण समत्य । प्रगट्यो तमु प्रणमी हुवो सणत्य ॥ इम जंपी शकस्तव करेवी । तब देव देवी हरखे सुणेवी ॥२८॥ गावे तब रंभा गीतगान । सुरलोक हुवो मंगल निधान । नरक्षेत्रे आरज वंसठाम ॥ जिनराज बधे सुर हर्ष धाम ॥२९॥ पिता माता घरे उच्छव अलेख । जिन शासन मंगल * अति विशेष । सुरपति देवादिक हरखसंग। संयम अरथी जननें 8ไรในไตไอได้ใดได้ไerไกใดใดไกลได้ใจได้ไงไปัดฝดใครได้ไหนไดไไไไรในใจไม่ได้มไดได้ในไดไไดไไไไไไไไไไไไไไไดไไดไปัจในงใจใจใ%ไทยนได้ใช้ไอใจได้ ให้ใคไขใจงใจฟังในในปัจในปัจงไรได้ใน Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IF tots to Youtout to Youto to to to to to to to to Youto to to Yada York Is Is Lexo Yo Yo Got Lt bbbbbb klikkkki पूजा - विभाग ३०५ उमंग ||३०|| शुभवेला लगनें तीर्थनाथ । जनम्या इन्द्रादिक हर्ष साथ ॥ सुखपाम्यां त्रिभुवन सर्वजीव । बधाई बधाई थई अतीव ॥ ३१ ॥ ॥ ढाल ॥ श्रीतीर्थपतिनो कलश मज्जन गाइये सुखकार । नरक्षेत्र मंडण दुह विहंडण ॥ भविक मन आधार । तिहां रावराणा हर्ष उच्छव ॥ थयो जग जयकार । दिशि कुमरि अवधि विशेष जाणी । लह्यो हर्ष अपार ||३२|| निअ अमर अमरी संग कुमरी । गावती गुण छंद । जिन जननी पासे आय पहुंती || गह गहति आनन्द || हे माय तें जिनराज जायो । शुचि वधायो रम्म । अम्हजम्म निम्मल करण कारण ॥ करिस सूईअ कम्म ||३३|| तिहां भूमि २ सोधन दीप दरपण बाय बीजणधार | तिहां करिय कदली गेह जिनवर || जननि मज्जनकार | वर राखड़ी ३ जिनपाणि बांधी ॥ दीये इम आसीस । युगकोड़ कोड़ी चिरंजीवो धर्मदायक ईस ||३४|| ॥ ढाल ॥ जगनायकजी त्रिभुवन जगहितकारए परमातमजी चिदानन्द घनसारए ||५|| उल्लालानी । जिन रयणीजी दश दिश उज्जलता घरे || शुभ लगनेजी ज्योतिष चक्र ते संचरे । जिन जनम्याजी जिन अवसर माता घरे || तिण अवसरजी इन्द्रासन पिण थरहरे ||३६|| ॥ त्रोटक ॥ थरहरे आसन इन्द्र चिंते कवण अवसर ए बन्यो । जिन जन्म उच्छव काल जाणी अतिहि आनंद ऊपन्यो || निज सिद्ध संपति हेतु जिन वर जाणि भगते ऊमह्यो । विकसन्त वदन प्रमोद वधते देवनायक गहगह्यो ||३७|| तब सुरपतिजी घंटानाद १ फूल या अक्षत हाथमें लेकर भगवान् के सम्मुख उछाले फिर तीन फेरी देकर णमुत्थुणं से सव्वेतिविहेण वंदामि तक पढ़े और दाहिने हाथ में रोली का साथिया करके मौली बांधे । २ जमीन को वस्त्र से शोधन करे, दीपक, शीशा दिखावे, पंखा हिलावे । ३ भगवान् के दाहिने हाथ में मौली बांधे । ४ घण्टा बजावे | 39 || ढाल || कराव ए । सुर लोकेजी घोषणा एह Yokotelot Animia ta ta tetesthe tasteele tail. Yo to to to You! In In Your Tarinade, Yo Yo Youtout toute to I Tauta Voulante & ita Yo You, L. You' Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m apMRAPAM ... ..rnawwar -AMAPAMPARAM RAM mr.me...amare เป็นไรไป ไมค ไอ “ไรใดในใจ ในใจไปในใจนี้ THE Lutamtir lostalmlatorturlatestantial-11-101ETalendallottenderliatest1IMircle-lettolatrelialeristoticlestialistastriti-in-listialiNistoleatraleemali.kolkatestealistiatiotsleakisticalEEPiclestantialeairstbalakhstindiatratikalatakalatara जैन-रनसार द्विरावए । नरक्षेत्रेजी जिनवर जन्म हुवो अछे । तसुभगतेजी सुरपति मन्दिर गिर गछे ॥३८॥ ॥त्रोटक | गछे मन्दिर शिखर ऊपर भुवन जीवन जिनतणो । जिन जन्म उच्छव करण कारण आवजो सवि सुरगणो ।। तुम शुद्ध समकित थास्ये निरमल देवाधिदेव निहालतां । आपणा पातिक सर्व जासे नाथ चरण परसालतां ॥३९॥ ॥ ढाल ॥ इम सांभलजी सुरवर कोडि बहू मिली । जिन वन्दनजी मन्दरगिरि साहमी चली ॥ सोहम पतिजी जिन जननी घर आविया । जिन माताजी । बन्दी स्वामी बधाविया ॥४०॥ ॥ त्रोटक ॥ बधाविया जिनवर हर्प बहुले धन्य हूं कृतपुण्य ए । त्रैलोक्यनायक देवदीठो मुझ समो कुण अन्य ए, हे जगत जननी पुत्र तुम्हचे मेरु मज्जन , वरकरी । उच्छंग तुम्हचै वलिय थापिस आतमा पुण्ये भरी ॥४॥ || टाल || - सुरनायकजी जिन निज कर कमले ठव्या । पांच रूपे जी अतिसय महिमाये स्तन्या ॥ नाटक विधिजी तव बत्तीस आगल बहे । सुर कोडीजी जिन दरसणने ऊमहे ॥४२॥ ॥त्रोटक ।। सुर कोडकोड़ी नाचती बलिनाय शुचि गुण गावती । अप्छरा कोड़ी हाथ जोड़ी हाव भाव दिखावती । जय जयोतूं जिनराज जग गुरु एम दे आशीषए । अम्हत्राण शरण आधार जीवन एक तं जगदीश ए॥४२॥ ॥ ढाल || सुरगिरिवरजी पांडुक वनमें चिढू दिसे । गिरिसिल परजी सिंहासण * दोनों हाथ से चावल या फूल उछाले । detel, ไงไร ใจไงได้ใจไปใน “ขน๘ le จนคนไหนองไรในปัง ปังใจใน+นนี้ได้มีกฝั่งได้ 1%ใจน - - ดอะระ จนในใจนาง โคม นี้ งงงงงงงงงงงงงงง.. मन्द्रस्यन्दन्द्राभलकान्द्रकान्त Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** - Jansh JokeScotsavyatas tat tareekers पूजा - विभाग ३०७ शर्के जिन खोले ग्रह्या । चउसहेंजी तिहां सास बसे || तिहां आणीजी सुरपति आवी रह्या ||४४|| ॥ त्रोटक ॥ आविया सुरपति सर्व भगतें कलश श्रेणि बणाव ए, सिद्धार्थ पमुहा तीर्थ औषधि सर्व वस्तु अणाव ए अच्चूयपति तिहां हुकम कीनो देव कोडा कोडिने । जिन मज्जनारथ नीर लावो सवे सुर कर जोडिने ||१५|| 1 ॥ ढाल ॥ आत्म* साधन रसी देव कोड़ी हसी, उल्लुसीने धसी क्षीरसागर दिशी । पउमदह आदि दह गंग पमुहा नई, तीर्थजल अमल लेवा भणी ते गई ||४६|| जाति अड कलश करि सहसअठोत्तरा, छत्र चामर सिंहासणे सुभतरा । उपगरण पुष्पचंगेरि पमुहा सवे, आगमें भासिया तेम आणी ठवे ॥४७॥ तीर्थ जल भरिय करी कलश करि देवता, गावता भावता धर्म उन्नतिरता । तिरिय नर अमरने हर्ष उपजावता, धन्य अम्ह शक्ति शुचि भक्ति इम भावता || ४८ || समकितें बीज निज आत्म आरोपता कलश पाणीमिसे भक्ति जल सींचता । मेरुसिहरोवरि सर्व आव्या वही । शक्रउच्छङ्ग जिन देखि मन गह गही ||४९|| ॥ गाथा || हंहो देवा हो देवा अणाई कालो अदिपुव्वो । तिलोयतारणो । तिलोयबंधू | मिच्छन्तमोहविद्धंसणो । अणाई तिष्ण विणासो ॥ देवाहि देवो दिव्वो दिव्वो हिअय कामेहिं ॥ ५० ॥ जेल ॥ ढाल ॥ एम पभणति वण भुवन जोईसरा । देव वेमाणिया भत्ति धम्मायरा । केवि कप्पटिया केबि मित्ताणुगा । केई वररमण वयणेण अइ उच्छगा ॥५१॥ * यहां से सब स्नात्रियों को पश्चामृत के कलश लेकर खड़े होना चाहिये । toria You to tacticatos Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ నగదును దుమారమందుకున్నదractitiotisg ३०८ Patrhakikhaliltakalamaalisaka मन्त्रमनप्रनगणनन ग्रन्ननग्रनल्ट likhlalibhitalirtilitinatioticline जैन-रनसार ॥ वस्तु छन्द ॥ तत्थ अच्चुय तत्थ अच्चुय इन्द्र आदेश कर जोड़ी सर्व देवगण, लेइ कलश आदेश पामीय अद्भुत रूप सरूप जुय । कवण एह पुछंति सामिय इन्द्र कहे जगतारणों पारग अम्हपरमेश, नायक | दायक धम्मणिहि करिये तसु अभिशेष ॥५२॥ ॥ ढाल ॥ पूर्ण कलश* शुचि उदकनि धारा । जिनवर अंगे न्हामें । आतम निरमल भाव करता वधते शुभ परिणामें। अच्युतादिक सुरपतिमज्जन लोकपाल लोकंत। सामानिक इन्द्राणी पमुहा इम अभिषेख करंत ॥ ५३ ॥ पू० ॥ ॥ गाथा ॥ तव ईसान सुरिंदो, सक्क पभणेइ करि हु सुप्पसाओ । तुम अंके महणाहो, खिणमित्तं अह्म अप्पेह ॥५४॥ ता सक्किंदो पभणेई, साहमिय। वच्छलंमि बहुलाहो । आणाइ वंतेणं गिह होउ कयत्याभो ॥१५॥ ॥ ढाल | सोहम सुरपति वृषभ रूप करि । न्हवण' करे प्रभु अंगे। करिय विलेपण पुफ्फणिमाला ठवि आ भरण अभंगे ॥ सो० ॥५६॥ तब सुरवर बहु जय जय रख कर । निश्चय धरि आणंद । मोक्ष मार्ग सारथ पति पाम्यो ॥ भांजि सं भवफंद ॥ सो० ॥५७॥ कोडिबत्तीस सोवन्न उवोरी। वाजंते वरनाद ॥ सुरपति संघ अमर श्रीप्रभुने । जननीने सुप्रसाद ॥ सो० ५८ ॥ आणी थापी एम पयंपे अझ निसतरिया आज । पुत्र तुम्हारो धणीय हमारो ॥ तारण तरण जहाज ॥५९॥ सो० ॥ मात जतन करि राखजो एहने तुह्म सुत अह्म आधार । सुरपति भक्ति सहित नंदीसर । करे जिन भक्ति उदार ॥६०॥ सो० ॥ निय निय कप्प * इस जगह से थोड़ी थोड़ी जल धारा चढ़ावे । • यहां पूर्णतया भगवान् को पञ्चामृत से अभिपेख करावे । यहां निछरावल अवश्यमेव करें। TRAClastiderOGRAMGANESCERNMEAN H प्रभू ग्रन ARIESetolhSAYLatinathakheksiilm WOM TOPा जनमत्र-मन्वयनमा Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అ నునతనయుడు తనన ననన .chatarnatasatisticate . ३०६ r at .. .man...................... .................. జనవరhattarts starti. o ale-r--E-Indi-r-r-triARI-Mathurfitti-tab తలువడుతుందని మనవంతుడు మనవడు पूजा-विभाग में गया सवि निर्जर। कहतां प्रभु गुणसार ॥ दीक्षा, केवल ज्ञान, कल्या णक इच्छा चित्त मझार ॥ सो० ६१॥ खरतरगच्छ जिन आणारंगी.। । राजसागर उवज्झाय ॥ ज्ञान धरम दीपचंद सुपाठक । सुगुरू तणे सुपसाय ॥ सो० ६२॥ देवचन्द्र जिन भगतें गायो जनम महोच्छव छंद ॥ बोधबीज अंकूरो उलस्यो ॥ संघ सकल आणंद ॥ सो० ॥६३॥ ॥ ढाल ॥ इम पूजा भगतें करो। आतम हित काज ॥ तजिय विभव निज भावना। रमतां शिवराज ॥६॥ इ० ॥ काल अनंते जे हुवा । होसे जेह जिणंद । संपई सीमंधर प्रभु। केवल नाण दिणंद ॥इ०॥ ६५ ॥ जनम महोछव इण परे, श्रावक रुचिवंत । बिरचे जिन प्रतिमा तणो, 1 अनुमोदन खंत ॥ इ० ॥६६॥ देवचन्द्र जिन पूजना । करतां भवपार । जिन पडिमा जिन सारखी । कही सूत्र मझार ॥ इम० ६७ ।। . अष्ट प्रकारी पूजा जल पूजा ॥ दोहा ॥ गंगा मोगध क्षीरनिधि, औषध मिश्रित सार । कुसुमे वासित शुचिजलें, करो जिन स्नात्र उदार ॥१॥ ॥ ढाल ! मणि कनकादिक अडविध , करि भरि कलस सफार । शुभ रुचि जे जिनवर नमें तसु नहिं दुरित प्रचार ॥ मेरु शिखर जिम सुरवर जिनवर। हवण अमान । करता वरता निज गुण समकित वृद्धि निधान ॥२॥ ॥छन्द ॥ : . हर्ष भरि अपसरावन्द आवे । स्नात्र करि एम आसीस भावे । जिहां लगे सुरगिरि जंबु दीवो । अमतणा नाथ जीवातिजीवो ॥३|| ..furt-REATML----r-teria-52-61-- r మనువడుతుం . .. డ ...... గా . ..........font.......... Natatantalita . . . यह पूजा पढ़ने के बाद जल से स्नान करावे । -14 - 14 . Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम ३१० । जैन-रत्नसार नप्रगमनत्र प्रकल्पग्रस्पर मनमनन्त्रमनप्रनय प्रस्नानानन्-Ramailor ॥ श्लोक ॥ . विमल केवलभासनभास्कर, जगति जन्तु महोदयकारणं । जिनवरंबहुमान जलौघतः, शुचि मनः स्नपयामि विशुद्धये ॥४॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमजिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ॥५॥ ___ अर्थ-मैं शुद्ध मन से निर्मल केवलज्ञानरूपी किरणों के उद्योतक और संसारी जीवों के महान् उदय के कारण जिनेन्द्र भगवान् को बहुत आदर के साथ जलों से अपनी आत्मशुद्धी के लिये स्नान कराता हूं |१|| चन्दन पूजा ॥ दोहा॥ बावन चन्दन कुंकुमा, मृगमदने धनसार ॥ जिन तनु लेपे तसु टले, मोह सन्ताप विकार ॥१॥ ॥ ढाल ॥ सकल सन्ताप निवारण तारण सहु भविचित्त । परम अनीहा अरिहा तनु चरचो भविनित्त ॥ निज रूपे उपयोगी धारी जिन गुणगेह । भाव चन्दन सुह भावथी टाले दुरित अछेह ॥२॥ ॥चाल॥ जिन तनु चरचतां सकल नाकी । कहे कुग्रह ऊष्णता आज थाकी ॥ सफल अनिमेपता आज म्हां की । भव्यता अम्ह तणी आज पाकी ॥३॥ ॥श्लोक ॥ सकल मोहतमिश्र विनाशनं, परम शीतल भाव युतं जिनं । विनयकुंकुम चन्दन दर्शनैः, सहज तत्त्वविकाशकृतेऽर्चये |४|ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमजिनेन्द्राय । चन्दनं यजामहे स्वाहा ॥५॥ अर्थ-परमतत्व प्रकाश के लिये सम्पूर्ण मोह ( अनानरूपी ) अन्धकार के दूर करनेवाले एवं परम शान्त स्वभावसे युक्त जिनेन्द्र भगवान्को मैं विनयल्पी कुलम (फेशर) और दर्शनरूपी * चन्दनों से पूजा करता है। 2xt JamabKHEMASKisketbathletinkali kaline kilxBEHAYThridebakrilatiotishnike-babAREIGARERAKASO22.2.2 Mas. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KY...JX *****_!! यातें २ घुटनों पे टीकी दें – जानु पूजा - विभाग 594 eetheartstakantaladder tayJJJJA. नवअंगी भाव पूजा ॥ दोहा ॥ चरणां पे टीकी दें—पर उपगारी चरणयुग, अनन्त शक्ति स्वयमेव । अनुभव सेव ॥१॥ प्रथम पूजिये, आतम पूजा, दूसरी, समाधि भूमिका जान । आतम साधन ज्ञान ले, शुद्ध दशा पहिचान ॥२॥ हाथों पे टीकी दें—कर पूजा जिनराज की, दिये सम्वच्छरी दान | ते कर मुझ मस्तक ठबू, पहुँचे पद निर्वाण ॥३॥ कन्धों पे टीकी दें - भुजवल शक्ति जानके, पूजा करूं चित लाय । रागादिमल हटायके, आतम गुण दरशाय ॥४॥ मरतक पे टीकी दें- सिर पूजा जिनराज की, लोकशिरोमणि भाव । चउगति गमन मिटायके, पंचम गति सम भाव ॥५॥ ललाट पे टीकी दें - लिलवट पूजा सार है, तिलक विधि विश्राम । वदन कमल वाणी सुनें, पहुंचे निज गुणधाम ||६|| कण्ठ पे टीकी दें— कण्ठ पूजा है सातमी, वचनातिशय वृन्द । सप्त भेद पेंयालीस श्रुत, अनुभव रस नो कन्द ॥७॥ हृदय पे टीकी दें - हृदय कमलनी पूजना, सदा वसो चित माह | गुण विवेक जागे सदा, ज्ञान कला घट छाह ॥८॥ नाभी पे टीकी दें - नाभी मण्डल पूजके, षोड़श दलको भाव । मन मधुकर मोही रह्यो, आनन्द घन हरपाव ॥९॥ पुष्प पूजा ॥ दोहा ॥ ३११ ^^^^^^ nnnnnn w शतपत्री वर मोगरा, चम्पक जाइ गुलाव | केतकी दमणो बोलसिरि, पूजो जिन भरि छात्र ||१|| **+1++++++1+Yatayatr ''""' ********** Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Balotolatioedootoshraikistskolhindishak o arokalottesterstitishkikataktohataru जैन-रत्नसार प्रबन्धन प्र कल्प प्रजनन प्रलप्रमाणन प्रवद्रप्रसान्यन्तनमन्त्रजप्रत्यक || ढाल || अमल अखण्डित विकसित मण्डित, शुभ सुमनी घन जाति । लाखीनो टोडर ठयो, आंगी रचो बहुभांति । गुण कुसुमें निज आतम मण्डित करवा भव्य, गुणरागी जड़त्यागी पुष्प चढ़ावो नव्य ॥२॥ ॥चाल ॥ जगधणी पूजतां विविध फूलें, सुरवरा ते गणेक्षण अमूले खन्ति धर मानवा जिन पद पूजे, तसुतणा पाप संताप धूजे ॥३॥ ॥ श्लोक ॥ विकचनिर्मलशुद्ध मनोरमैः, विशदचेतनभावसमुद्भवैः । सुपरिणाम प्रसूनघनैनवैः, परम तत्त्वमयं हि यजाम्यहं ॥४॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमजिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥३॥ पुष्प चढ़ावे । (अर्थ)- खिले हुए निर्मल पवित्र तथा सुन्दर एवं शुद्ध अन्तः करण के भाव से समुत्पन्न नवीन सुपरिणाम रूप फूल मैं परमतत्व मयजिनेन्द्र भगवान् को चढ़ाता हूं। धूप पूजा कृष्णागर मृगमद तगर, अम्बर तुरक लोबान । मेल सुगन्ध घनसार घन, करो जिनने धूपदान ॥१॥ ॥ दाल॥ धूपघटी जिम महमहे, तिम दहे पातक वृन्द । अरति अनादिनी जावे, पावे मन आनन्द । जे जन पूजे धूपे, भवकूपे फिर तेह । नावे पावे ध्रुवघर, आवे सुक्ख अछेह ॥२॥ ॥ चाल जिनघरे वासतां धूप पूरे, मिच्छत्त दुर्गन्धता जाई दुरे । धूप जिम सहज ऊर्द्धगत स्वभावे, कारिका उच्चगति भाव पावे ॥३॥ ॥श्लोक ॥ सकलकर्ममहेंधनदाहनं, विमलसंवरभावसुधूपनं । अशुभ पुद्गल Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SITE KEYtral Lab KINN to output tent to intentar tant ***+1994493979 पूजा - विभाग संगविवर्जितं, जिनपतेः पुरतोऽस्तु सुहर्षितः || ४ || ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ||४|| धूप खेवे । अर्थ - यह अपवित्र वस्तुओं के सम्पर्क से रहित तथा समस्त कर्म रूपी विशाल काष्ठ को जलाने वाला हर्ष के साथ मेरे द्वारा दिया हुआ शुद्ध सम्बर भावरूप जो सुन्दर धूप वह जिनेन्द्र भगवान् के आगे खेता हूं । दीप पूजा ॥ दोहा ॥ 40 ******* मणिमय रजत ताम्रना, पात्र करी घृत पूर । बत्ती सूत्र कसुंबनी, करो प्रदीप सनूर ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ मंगल दीप वधावो गावो जिन गुणगीत, दीपतणी जिम आलिका मालिका मंगलनीत । दीपतणी शुभज्योती द्योती जिन मुखचन्द, निरखी हरखो भविजन जिम लहो पूर्णानन्द ॥२॥ ॥ चाल ॥ ३१३ जिन गृहे दीप माला प्रकासे, तेहथी तिमिर अज्ञान नासे । निज घटे ज्ञानज्योती विकासे, तेहथी जग तणा भाव भासे ॥३॥ ॥ श्लोक ॥ भविक निर्मलबोध विकाशकं, जिन गृहे शुभदीपकदीपनं । सुगुणराग विशुद्धसमन्वितं दधतु भावविकाशकृतेजनाः ||५|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमज्जिनेन्द्राय दीपं यजामहे स्वाहा ||५|| दीपक चढ़ावे । अर्थ - भक्तजन मंगल तथा निमल ज्ञानके प्रकाशक सुन्दर गुण एवं सच्चे प्रेमसेयुक्त सुन्दर दीपकका प्रकाश अपने हृदयभावके विकाशके लिये जिनेन्द्र भगवान्‌ के मन्दिर में चढ़ावे । अक्षत पूजा ॥ दोहा ॥ सार । अक्षत अक्षत पूरसुं, जे जिन आगे स्वतिक रचतां विस्तरें, निजगुण भर विस्तार ॥१॥ నా మనసును మ తలనడమన Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जैन-रत्नसार || ढाल || उज्जल अमल अखण्डित मण्डित अक्षत चंग, पुञ्जत्रय करो स्वस्तिक अस्तिक भावे रंग । निज सत्ताने सन्मुख उन्मुख भावे जेह, ज्ञानादिक गुणठावे भावे स्वस्तिक एह ||२|| Yeste to You's Yet todenn wwww. wwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwww... ॥ चाल ॥ स्वस्तिक पूरतां जिनप आगे, स्वस्ति श्रीभद्र कल्याण जागे । जन्म जरा मरणादि अशुभ भागे, नियत शिव शर्म रहे तासु आगे ||३|| ॥ श्लोक ॥ सकल मंगलकेलि निकेतनं, परम मंगलभावमयं जिनं । श्रयत भव्यजना इति दर्शयन्, दधतु नाथपुरोऽक्षतस्वस्तिकं ||४|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमज्जिने - द्रा अक्षतं यजामहे स्वाहा || ६ || अखण्ड चावल चढ़ावे । अर्थ-सम्पूर्ण मंगलके विहारस्थान तथा परम मंगल भाव जिनेन्द्र भगवान्को सब लोग आश्रय करते हैं यह दिखलाते हुये भव्यजन, हे नाथ आपके आगे कल्याण कारक अक्षत चढ़ावें । नैवेद्य पूजा ॥ दोहा ॥ सरस सुचि पकवान बहु, शालि दालि घृत पूर । धरो नैवेद्य जिन आगले, क्षुधा दोष तसु दूर ॥१॥ ॥ ढाल || लपनश्री वर घेवर मधुतर मोतीचूर, सिंह केसरिया सेविया दालिया मोदक पूर | साकर द्वाख सींघोड़ा भक्ति व्यञ्जन घृतसद्य, करो नैवेद्य जिन आगले जिम मिले सुख अनवद्य ॥२॥ ॥ चाल ॥ ढोवतां भोज्य परभाव त्यागे, भविजना निज गुणे भोज्य मांगे । अम्हमणो अम्हतणो सरूप भोज्य, आपजो तातजी जगत् पूज्य ||३|| Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ นอน tant.assa r tatahka .. पूजा-विभाग ३१५ ॥श्लोक ॥ सकल पुद्गल संग विवर्जनं, सहज चेतनभावविलासकं । सरस भोजन नव्यनिवेदनात, परमनिर्वृतिभावमहं स्पृहे ॥१॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने 3. अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमज्जिनेन्द्रीयनैवेद्यं यजामहे स्वाहा ॥७॥ मिठाई (पकवान) चढावे। ___अर्थ हे भगवन् सम्पूर्ण अपवित्र जड़ पदार्थों से रहित और स्वाभाविक चेतनभावको देनेवाले नवीन तथा सरस भोजन आपको निवेदन करनेसे मैं परम निर्वृति भाव (मोक्ष) को प्राप्त करना चाहता हूं। फल* पूजा ॥ दोहा॥ पक्क बीजोरूं जिन करें, ठवतां शिवपद देइ । सरस मधुर रस फल गिणे, इह जिन भेंट करेइ ॥१॥ ॥ ढाल | श्रीफल कदली सुरंग नारंगी आंबा सार, अंजीर बंजीर दाडिम करणा पट्बीज सफार । मधुर सुस्वादिक उत्तम लोक आनन्दित जेह, वर्ण गन्धादिक रमणीक बहुफल ढोवे तेह ॥२॥ ॥चाल | फलभर पूजतां जगत स्वामी, मनु जगति ते लहे सफल पामी । सकल मनुध्येय गतिभेद रंगे, ध्यावतां फल समाप्ति प्रसंगे ॥३॥ ॥ श्लोक ॥ कटुककर्म विपाक विनाशनं, सरसपक्वफलबजढीकनं । वहति मोक्षफलस्य प्रभाः पुरः, कुरुत सिद्धिफलाय महाजनाः ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञान शक्तये जन्मजरामृत्यु निवारणाय श्रीमजिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा ॥८॥ श्रीफल, सुपारी, नीला फल, प्रमुख चढ़ावे । अर्थ-ई नवनवृन्द आप उत्तम मोक्षफलक प्रभु (मोक्ष के देनेवाले) जिनेन्द्र भगवान : फे आगे मिद्धि फल प्राम करने के निमित्त कडुवे कर्म के परिणाम फल को नाश करने वाले सरस मया परं फलों को घटाइये । .... ไว้ใ% ใช้ได้ปังๆได้อยโดดไได้ในใจไหlectiYY4Y66Wได้ในไetlook ให้ปัดดได้ดได้จะลงได้ในไงได้รักใครให้ใคให้ได้ดใดใดใจได้ใดใดได้คะ ใคจไดไคตใจใใใครไดไไดไไดไจ ใจตะไคได้ใจไงไงไง ไปคไelelet - All อยปักดไไไ ม่อนใครไดates ...... ......... ........................ .. मात्र पृजा तथा अप्ट प्रकारी पूजा उपाध्याय देवचन्दजी महाराज की उनाई हुई है। - - Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sakettreetkaarti teriakk-der-rakt-tarietkar aeraakersistarresistiane ३१६ जैन-रत्नसार अर्घ पूजा e-ketankikatta.stoletstreakiststalksexeathsolkata ttitutiNatiot-tantakkimaakhta-larfault-arhala hrewafaltadiularkonka-Aliasanta-lik ॥ दोहा ॥ इम अडविधि जिन पूजना, विरचे जे थिर चित्त । मानवभव ‘सफलो करे, वाधे समकित वित्त ॥१॥ ॥ ढाल ॥ अगणित गुणमणि आगर नागर वन्दित पाय, श्रुतधारी उपगारी | श्रीज्ञानसागर उवझाय। तासु चरणकज सेवक मधुकर पय लयलीन, श्रीजिन पूजा गाई जिनवाणी रसपीन ॥२॥ ॥ चाल॥ सम्बत् गुणयुत अचल इन्दु, हर्ष भरी गाइयो श्रीजिनेंदु । तासु फल सुकृत थी सकल प्राणी, लहे ज्ञान उद्योत धन शिव निसाणी ॥३॥ ॥ श्लोक ॥ इति जिनवरवृन्दं भक्तितः पूजयन्ति सकल गुणनिधानं देवचन्द्र स्तुवन्ति । प्रतिदिवसमनन्तं तत्त्वमुद्भासयन्ति, परमसहजरूपं मोक्षसौख्यं श्रयन्ति ॥४॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमज्जिनेन्द्राय अर्घ यजामहे स्वाहा ॥९॥ चारों कोन में जल की धार देवे । अर्थ-इस पूर्वोक्त प्रकार से जो मनुष्य समस्त गुणों के निधान देववन्द्रजी उनकी तरह आनन्ददायक एवं श्रेष्ठ जिनेन्द्र को पूजन और स्तुति करते हैं तथा प्रतिदिन अनन्त परमतत्व है को मनन (विचार) करते है वे मोक्षरूपी परम सुख को सहज में ही प्राप्त कर लेन है। वस्त्र पूजा शको यथा जिनपतेः सुरशैलचूलाः, सिंहासनोपरि मितस्नपनावसाने । दध्यक्षतैः कुसुमचन्दन गन्धधूपैः, कृत्वार्चनन्तु विदधाति सुवरत्रपूजां ॥३|| तद्वत् श्रावकवर्ग एप विधिनालङ्कारवस्त्रादिकं, पूजां तीर्थकृतां करोति सततं शक्त्यातिभक्त्याहतः । नीरागस्य निरञ्जनस्य विजितागतस्त्रिलोकीपतः, : वस्यान्यस्य जनस्य निर्वृतिकृते क्लेशक्षयाकांक्षया ॥२॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने । anormer : TET storrotstatthar M Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *****a forest.. पूजा-विभाग ३१७ अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमज्जिनेन्द्राय वस्त्रं यजामहे स्वाहा ||१०|| वस्त्र चढ़ावे | अर्थ - जिस प्रकार इन्द्र ने सुमेरु पर्वत के शिखर के ऊपर आसन पर स्थित जिनेन्द्र भगवान् को स्नान कराने के पश्चात् दही, अक्षत, गन्धादिक के द्वारा पूजन करके पीछे वस्त्र से पूजा की थी उसी प्रकार यह श्रावक वर्ग सदा अपनी शक्ति, भक्ति एवं आदर के साथ वीतराग निरंजन तथा अजात शत्रु त्रिलोक के स्वामी जिनेन्द्र भगवान् की पूजा अपनी तथा अन्यान्य मनुष्यों की मुक्ति एवं क्लेश क्षय की कामना से करें । नमक* उतारण पूजा अह पड़ि भग्गापसरं, पयाहिणं सुणिवयं करिऊणं । पड़इ सलूणतण लज्जियंच, लहू अवहरति ॥ १ ॥ पिक्खेविणं सुह जिण वरह दीहर नयण सलूण । न्हाचइ गुरु मच्छह भरिय, जलग पइस्सईलूण ||२|| लूण उतारिह जिणवरह, तिष्णि पयाहिणि देव । तड़ तड़ शब्द करंतिये, विज्जाविज्जजलेण ॥३॥ जं जेण विज्जव थुई, जलेण तं तहइ अत्यसद्दस्स | जिनरूपा मच्छरेणवि, फुट्टइ लूणं तड़ तड़स्स ||४|| नमक उतारे | ॥ गाथा || सव्ववि सुणिवइ जलविजल, तंतह भ्रमणइ पास । अहवि कयंतस्स णिम्मलओ, णिग्गुण बुद्धि पयास ||५|| जलण अणें विणु जलणिहि पास, भरवि कज्जल भावहि पास । तिष्णि पयाहिणि दिण्णिय पास, जिम जिय छुटइ भव दुहपास ||६|| जल णिम्मल कर कमलहि लेचिणुं, सुरवर भावहि : मुनिवई सेवणुं । पभणई जिणवर तुहपइ सरणं, भय तुइ लग्भइ सिद्धि गमणं ||७|| नमक जलमें गेरे । पुष्पमाला पहरावण पूजा उष्णय पयय भत्तरस, नियठाणं संठिय कुणंतरस | जिण पासे भमिय जणस्स, पिच्छनुह हुयवहे पड़णं ॥ १॥ सव्वी जिणप्पभावो, सरिसा सरिसेसु जेण रचंति सव्वण्णूण अपासे, जड़स्स भ्रमणं ण संकमणं ॥२॥ अच्चंत छह पट भगवान् पर नमक उतार कर अग्नि में गेरे । " या पट नमक जल मे गंरे । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yaskass to जैन - रत्नसार ३१८ दु:करं पिहु, हुयवह णिबड़ेण जड़ेन कथं । आणा सव्वष्णूर्ण ण कया सुकयत्थ मूलमिणं ||३|| यह कहकर माला पहनावे | **k hib फूल पूजा उवणेव मंगलेवो, जिणाण सुह लालि संवलिया । तित्थपवत्तय समई, तियसे विमुक्का कुसुम बुट्ठी || १|| यह कहकर प्रभुके सम्मुख फूल उछाले । वरसता, वृहत् नवपद-पूजा प्रथम श्री अरिहंतपद - पूजा ॥ दोहा ॥ परम मंत्र प्रणमी करी, तासु धरी उर ध्यान । अरिहंतपद पूजा करो, निज निज शक्ति प्रमाण ||१|| || काव्य ॥ जियंतरागार जिणेसुणाणे सप्पाडि हेराइ समप्पहाणे संदेह संदोहरयं हरंते, झाहणिचंपि जिणेरिहंते ||२|| उप्पण्ण सण्णाण महोमयाणं, सप्पाडि हेरा सणसंठियाणं । सदेसणाणंदिय सज्जणाणं, णमो णमो होउ सयाजि - णाणं ॥३॥ णमोणंत संत प्रमोद प्रदानं, प्रधानाय भव्यात्मने भारवताय ॥ थया जेहना ध्यानथी सौख्यभाजा, सदा सिद्धचक्राय श्रीपालराजा ॥४॥ कर्या कर्म दुर्मर्म चकचूर जेणे, भला भव्य णवपद ध्यानेन तेणें ॥ करी पूजना भव्य भावे त्रिकाले, सदा वासियो आतमा तेण काले ||५|| जिके तीर्थकर कर्म उदये करीने, दिये देशना भव्यने हित धरीने । सदा आठ महापाडिहारे समेता, सुरेशे नरेशे स्तव्या ब्रह्मपूता ||६|| करचा घातिया कर्म चारे अलग्गा, भवोपग्रही चार छे जे विलग्गा ॥ जगत्पंच कल्याणके सौख्य पायें, नमो तेह तीर्थंकरा मोक्षमामें ॥७॥ तीरथपति अरिहा नमूं, निज वीरज बड वीरो जी ॥ ती० ८ ॥ ॥ ढाल ॥ धरम धुरन्धर धीरो जी ॥ देसना अमृत Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అ hits వదనమునం డ atatatatatatatisticate ....... पूजा-विभाग t ॥चाल॥ na k alap वर अखय निर्मल ज्ञान भासन सर्व भाव प्रकासता, निज शुद्ध श्रद्धा आत्म भावे चरण थिरता वासता ॥ जिन नामकर्म प्रभाव अतिशय प्रातिहारज शोभता, जगजन्तु करुणावन्त भगवन्त भविकजनने थोभतो ॥९॥ ॥ ढाल ॥ (श्रीसीमंधर साहिब आगे)। तीजे भव वर थानक तप करी, जिन बाध्यूं जिन नाम ॥ चउसठ इन्द्रे पूजित जे जिन, कीजे तासु प्रणाम रे । भविका सिद्धचक्र पद वन्दो रे ॥ भ० ॥ जिम चिरकाल अनन्दो रे ॥भ० ॥ उपशम रसनो कन्दो रे ॥ भ० ॥ रत्नत्रयीनो वृन्दो रे ॥ भ० ॥ सेवे सुरनर इन्दो रे ॥ भ० सि० १० ॥ जेहने होय कल्याणक दिवसे, नरकें पिण उजवायूँ । सकल अधिक गुण अतिशय धारी, ते जिन नमि अघ टालू रे ॥ भ० सि० ११ ॥ जे तिहुं नाण सम्मग्ग उपन्ना, भोग करम. खिण जाणी। लेइ दीक्षा शिक्षा दिये जगने, ते नमिये जिन नाणी रे ॥ भ० सि० १२ ॥ महागोप महामाहण कहिये, निर्यामक सत्थवाह ॥ ओपमा एहवी जेहने छाजे, ते जिन नमिये उछाहे रे ॥ भ. सि० ॥ १३ ॥ आठ प्रातिहारज जसु छाजे, पैंतीस गुणयुत वाणी ॥ जे प्रतिबोध करे जगजनने, ते जिन नमिये प्रोणी रे ॥ भ० सि० १४॥ ॥ ढाल ॥ - अरिहन्तपद ध्याता थको, व्वह गुण पर्याये रे ॥ भेद छेद करि आतमा, अरिहन्त रूपी थायरे ॥१५।। वीर जिणेसर उपदिसे,तुम सांभलजो चित लाई रे ॥ आतम ध्याने आतमा, ऋद्धि मिले सब आई रे ॥ वी० १६ ॥ ॐ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय । श्रीमत्सिद्धचक्राय अरिहन्तपदे अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा ।। alesalilosonlendavaadlinistkaalistiantali.pelostreetialchithikalancaksisanileolandstablankalantatistialaskadabbtiohlilonlodasisaslilhisiokpathokiadioaratbhashislockashakreike Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IskedIMAMTARAKxsekashankskakArASHTakekatokri.KATRE ३२० जैन-रनसार द्वितीय श्री सिद्धपद पूजा ॥दोहा॥ दुजी पूजा सिद्ध की, कीजे दिल खुशियाल । अशुभ करम दुरे टले, फले मनोरथ माल ॥१॥ - ॥काव्य ॥ दुट्ठ कम्मावरणप्पमुक्के, अणंत णाणाइ सिरी चउक्के । समग्ग लोगग्ग पयप्प सिद्धे झाएह णिच्चंपि समत्त सिद्धे ॥२॥ सिद्धाण माणंद रमाल याणं, णमा णमो णंत चउक्कयाणं । सम्मग्ग कम्मक्खय कारगाणं, जम्मंजरा दुक्ख णिवारगाणं ॥३॥ करी आठ कर्म क्षय पार पाम्या, जरा जन्म मरणादि भय जेण वाम्या । निरावरण जे आत्मरूपे प्रसिद्धा, थया पार पामी सदा सिद्धाबुद्धा ॥४॥ त्रिभागोन देहा वगाहात्मदेशा, रह्या ज्ञानमयजातिवर्णादिलेशा ॥ सदानन्दसौख्याश्रिता ज्योतिरूपा, अनाबाध अपून र्भवादी स्वरूपा ॥५॥ ॥ ढाल ॥ सकल कर्ममल क्षय करी, पूरण शुद्ध स्वरूपोजी। अव्याबाध प्रभुतामई, आतम संपत भूपो जी स० ॥६॥ ॥ चाल॥ जे भूप आतम सहज संपति, शक्ति व्यक्तिपणे करी। स्वद्रव्यक्षेत्र स्वकालभावे, गुण अनंता आदरी ॥ स्वस्वभाव गुणपर्याय परणति, सिद्धसाधन परभणी, मुनिराज मनसरहंस समवड, नमो सिद्ध महा गुणी ॥७॥ ॥ ढाल || समय पएसंतर अणफरसी चरम तिभाग विसेस । अवगाहन लही जे शिव पुहता, सिद्ध नमो ते असेस रे ॥भ० ८॥ पूर्व प्रयोगने गति परिणामे, बंधनछेद असंग। समय एक ऊरधगति जेहनी, ते सिद्ध प्रणमो रंग रे॥ भ. सि. ९॥ निरमल सिद्धशिलाने ऊपर जोयण एक लोकंत । सादि अनंत तिहां थिति जेहनी, ते सिद्ध प्रणमो संत रे ॥ भ० सि० १०॥ प्रचार प्रATrk Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Started that t here पूजा-विभाग ३२१ जाणे पिण न सके कही पर गुण, प्राकृत तिम गुण जास । ओपमा विण नाणी भवमांहे, ते सिद्ध दिओ उल्लास रे ॥ भ० सि० ११ ॥ ज्योतिसं ज्योति मिली जसु अनुपम, विरमी सकल उपाधि । आतमराम रमापति सुमरो, ते सिद्ध सहज समाधि रे ॥ भ. सि. १२ ॥ ॥ ढाल ॥ ___रूपातीत स्वभावजे, केवल दसण नाणी रे। ते ध्याता निज आतमा, होय सिद्ध गुण खाणी रे॥ वी० १२ ॥ सांभ लजो चितलाई रे०। ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् सिद्ध चक्राय सिद्धपदे अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । तृतीय श्रीआचार्य पद पूजा ॥दोहा॥ हिव आचारज पदतणी, पूजा करो विशेष । मोहतिमिर दुरे हरे, सूझे भाव अशेष ॥१॥ ॥काव्य ॥ णतंसुहंदेइ पियाणमाया, जंदितिजीवा णिहसूरि पाया, तुम्हाहुते चेव सया सहेह, जमुक्खसुक्खाइलहुँ लहेह ॥२॥ सूरीणदुरीकयकुग्गहाणं, णमो णमो सूरिसमप्पहाणं । सद्देसणादाणसमायराणं, अखंड छत्तीस गुणायराणं । नमूं सूरिराजा सदा तत्त्वताजा, जिनेंद्रागमें प्रौढ़ साम्राज्यभाजा षट् वर्गवर्गित गुणे शोभमाना, पंचाचारने पालवे सावधाना ॥३॥ भविप्राणिने देशना देशकाले, सदा अप्रमत्ता यथा सूत्र आले । जिके शासना धार दिग्दन्तकल्पा, जगत्ते चिरंजीवजो शुद्ध जल्पा ॥४॥ ॥ ढाल ॥ . आचारज मुनिपति गणी, गुणछत्तीसेधामो जी। चिदानंद रसस्वादता, परभाव निकामोजी आ० ॥५॥ ॥चाल ॥ निक्काम निरमल शुद्ध चिधन, साध्य निज निरधारथी ॥ वरज्ञान జరగనుండునటుడుడుడతడుపడుతున్న మంచు మననందుడుకులు తమ వంతున పయనంతరములు 41 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३२२ Ramer Singer - ATT जयप्रयागपत्रप्रणप्रत्रअन्त्र जैन-रत्नसार दरशन चरण वीरज, साधना व्यापार थी। भवि जीवबोधक तत्त्वशोधक, सयलगुण सम्पतिधरा । संवर समाधि गत उपाधि, दुविध तपगुण आदरा ॥ ढाल | पांच आचार जे सूधा पाले, मारग भाखे साचो । ते आचारज नमिये तेहसं, प्रेम करीने जाचो रे ॥भ० सि०॥७॥ वर छत्तीसगुणेकरि शोभे, युगप्रधान जगमोहें । जगमोहे न रहे खिण कोहे, सूरि नमूं ते जोहे रे ॥ भ० ८ सि० ८॥ नित अप्रमत्त धरम उव एसे नहिं विकथा न कषाय । जेहने ते आचारज नमिये, अकलूस अमल अमाय रे ॥ भ० सि. ९ ॥ जे दिये सारण वारण चोयण, पडिचोयण वलि जनने । पटधारी गच्छथम्भ आचारज, ते मान्या मुनि मनने रे ॥ भ० सि० १० ॥ अत्यमिये जिन सूरज केवल, वन्दी जे जगदीवो ॥ भुवन पदारथ प्रगटनपटु ते, आचारज चिरंजीवों रे ॥ भ० सि. ११ ॥ ॥ ढाल || ध्याता आचारज भला, महामंत्र शुभ ध्यानी रे॥ पंचप्रस्थाने आतमा, आचारज होय प्राणी रे ।। वी० १२ ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्युनिवारणाय श्रीमसिद्धचक्राय आचार्य पदे अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा ॥१३॥ चतुर्थ श्रीउपाध्यायपद पूजा ॥दोहा॥ गुण अनेक जग जेहना, सुन्दर शोभित गात्र । उवझायपद अरचिये, अनुभव रसनो पात्र ॥१॥ ॥ काव्य॥ सुत्तत्थसंवेगमयेसुएणं, संगीर खीरायमविस्सुएणं, पीणंति जेते उवज्झायराए, झाएह णिच्चपि कयप्पसाए ॥२|| सुतत्थ वित्थारणतप्पराणं, णमो णमो वायगकुंजराणं । गणस्स संधारण सायराणं, सव्वप्पणावज्जिय मच्छराणं ॥३॥ नहीं सूरिपिण सूरिगुणने सुहाया, नमं वाचका त्यक्त मदमोह ELEEKEEditationalislelalitatistiarrESHIANTERESTINGallestialistirlinistmashantatantalilan a t णमत्ररात्र onal Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of tento to to to to not toutoutrotate to tritants for tonton tantarts पूजा-विभाग ३२३ माया || बलि द्वादशांगादि सूत्रार्थदाने, जिके सावधाने निरुद्धाभिधाने ॥४॥ धरे पंचवर्गवर्गितगुणौधा, प्रवादिद्विपोच्छेदने तुल्य सिंहा ॥ गुणीगच्छसंधारणे स्तम्भपूता, उपाध्याय ते वन्दियेचित्प्रभूता ॥५॥ ॥ ढाल ॥ खंतिजुआ, मुत्तिजुआ अज्जव मद्दवजुत्ताजी ॥ सच्चंसोयअकिंचना, तवसंयम गुणरत्ताजी खं० ॥|६|| ॥ चाल ॥ जे रम्या ब्रह्मसुगुप्तिगुप्ता, सुमति सुमता श्रुतधरा । स्याद्वाद बादई तत्त्वसाधक, आत्मपर भविजनकरा ॥ भवभीरुसाधन धीरशासन, वहनधोरी मुनिवरा । सिद्धान्तवायनदान समरथ नमो पाठक पदधरा ||७|| || ढाल ॥ द्वादशअंगसिज्झाय करे जे, पारगधारग तासु । सूत्र अरथ विस्तार रसिक ते, नमो उवज्झाय उल्लास रे ॥ भ० सि० ८ ॥ अर्थसूत्रने दानविभागे, आचारज उवज्झाय । भवन्त्रिणे जे लहे शिवसंपद, नमिये ते सुपसाये रे ॥ भ० सि० ९ ॥ मूरख शिष्यनीपाये जे प्रभु, पाहण पल्लव आणे । ते उवज्झाय सकलजन पूजित, सूत्र अर्थ सवि जाणे रे ॥ भ० सि० १० ॥ राजकुमर सरिखा गणचिंतक, आचारजपद योग, जे उवज्झाय सदा ते नमतां, नावे भवभय सोग रे ॥ भ० सि० ११ ॥ बावनचंदनरस सम वयणे, अहित ताप सब टाले । ते उवज्झाय नमिजे जे वलि, जिनशासन उजवाले रे ॥ भ० सि० १२ ॥ । ॥ ढाल ॥ तप सज्झाये रत सदा, द्वादश अंगनो ध्याता रे । उपाध्याय ते आतमा, जगबंधव जगभ्राता रे ॥ वी० १३ ॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् सिद्धचक्राय श्री पाठकपड़े अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । torontocentrotritonta tanterlotestit tattoo tatooin to In taitostentaitaiteile in Ya toute food intantratand at Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vintactarterta tautaita tostavite taitaitaita tauta torta Venta Vartaniantaita tootelictestants to contentanta instantentestant ३२४ ********* जैन - रत्नसार ވރށނ ގނގތމ ތrތ ގިތ wwwwww CINN पंचम श्रीसाधुपद पूजा ॥ दोहा ॥ मोक्षमारग साधनभणी, सावधान थया जेह । ते मुनिवर पद बंदता, निरमल थाये देह ॥ १॥ ॥ काव्य ॥ खंतेय दंतेय सुगुत्तिगुत्ते, मुत्तेपसंते गुण जोग जुत्ते । गयप्पमाए हयमोहमाए, झाएहणिच्चं सुणिराय पाए ||२|| साहूण संसाहियसंजमाणं णमो णमो शुद्धयामाणं । तिगुत्तगुत्ताण समाहियाणं, मुणीण माणंद पर्याडआणं ॥ करे सेवनासूरिवायग गणीनी, करूं वर्णना तेहनीसी मुणीनी । समेता सदा पंचसमितेत्रिगुप्ते, त्रिगुप्ते नहीं काम भोगेषु लिप्ते ॥३॥ वली बाह्य अभ्यंतरे ग्रन्थटाली, हुई मुक्तिनेयोग चारित्रपाली । शुभष्टाङ्गयोगे रमें चित्तवाली, नमूं साधुने तेह्र निज पापटाली ||४|| ॥ ढाल ॥ सकल विषयविष वारिने, निक्कामी निस्संगी जी । भवदव ताप समाबता, आतम साधन रंगीजी ॥ स० ५ ॥ ॥ चाल ॥ जे रम्या शुद्ध स्वरूप रमणे, देह निर्मम निर्मदा, काउसग्गमुद्रा धीर आसन व्यान अभ्यासी सदा । तप तेज दीपे कर्म जीपे नैव छीपे परभणी | मुनिराज करुणासिंधु त्रिभुवन वन्दु ं प्रणम् हितभणी ॥६॥ || ढाल || जिम तरुफूले भमरो वैसे, पीड़ा तसु न उपाय । लेई रस आतम संतोषे, तिम मुनि गोचरी जाय रे ॥ भ० ७ ॥ पांच इन्द्रीने जे नित जीते षट्काया प्रतिपाल । संजम सतर प्रकार आराधे, बन्दू दीनदयाल रे ॥ भ० सि० ८ || अठारसहस सीलांगना धोरी, अचल आचार चरित्र | मुनिमहंत जयणायुत बंदी, कीजे जनम पवित्र रे ॥ भ० सि० ९ ॥ नवविध ब्रह्मगुप्त जे पालें, बारे विह तपसूरा । एहवा मुनि नमिये जां Contacta toate trolitontone Tartint to te ५६ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BACK ३२५ rommmmmmmmmmmmmm................... o lekhawala.larkaleesakalipasatisfielhotoaligatha पूजा-विभाग . प्रगटे, पूरव पुण्य अंकूरा रे ॥ भ० सि० १० ॥ सोनातणी परे परीक्षा दीसे, दिन दिन चढ़ते वानें । संयम तप करतां मुनि नमिये, देशकाल अनुमाने रे॥ भ० सि. ११॥ ॥ ढाल ॥ ___ अप्रमत्त जे नित रहे, नवि हरखे नवि सोचे रे। साधु सुधा ते आतमा, स्यूं मुंड़े स्यूं लोचे रे ।। वी० १२ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् सिद्धचक्राय साधु पदे अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा। षष्ट श्री दर्शनपद पूजा ॥दोहा॥ जिनवर भाषित शुद्ध नय, तत्त्वतणी परतीत । ते सम्यग्दर्शन सदा, आदरिये शुभ रीत ॥१॥ ॥ काव्य ॥ जंदव्वछक्काइ सुसदहाणं, तं दसणं सव्वगुणप्पहाणं । कुनाह बाही उवयंतिजेण, जहाविसुद्धेण रसायणेण ॥२॥ जिणुत्त तत्ते रुइ लक्खणस्स, णमो णमो जिम्मल दंसणस्स । मिच्छत्त णासाइ समुग्गमस्स, मूलस्स धम्मस्समहा दुमस्स ॥ विपर्या सहो वासनारूपमिथ्या, टले जे अनादी अछेजे कुपथ्या । जिनोक्ते हुइ सहजथीशुद्धध्यान, कहियदर्शनंतेहपरमंनिधानं ॥॥ बिनाजेहथीज्ञान मज्ञानरूपं, चरित्रंविचित्रं भवारण्यकूपं । प्रकृतिसातने उपसमें क्षय तेह होवें, तिहांआपरूपेसदा आपजोवें ॥४॥ ॥ ढाल ॥ सम्यग् दरसण गुण नमो, तत्त्व प्रतीत सरूपीजी। जसु निरधार । स्वभावछे, चेतन गुण जे अरूपी जी स० ॥५॥ MNANEXYailanilolistialadlialis. galati kasleliatisticli istorihili thulishKhilati youthshikslndlailashokila lbarindiakiladeabilithililati islata leelpadiadrilathi-el-14 ॥ चाल॥ जे अनूप श्रद्धा धर्म प्रगटे सयल पर ईहां टले, निजशुद्ध सत्ता भाव Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ilaita.kine जैन-रत्नसार प्रगटे अनुभव करुणा उच्छले । बहु मान परिणतवस्तु तत्त्वे अहव सुरकारण पणे, निज साध्य दृष्टे सरब करणी तत्त्वता संपति गिणे ॥६॥ ॥ढाल || शुद्धदेव गुरु धर्म परीक्षा, सद्दहणा परिणाम । जेह पामीजे तेह नमीजे, सम्यग्दर्शन नाम रे ॥ भ० सि० ७ ॥ मल उपशम क्षय उपशम जेहथी, जे होइ त्रिविध अभंग । सम्यग्दर्शन तेह नमीजे, जिनधरमें दृढ़ रंग रे ॥ भ० सि. ८ ॥ पांच बार उपशम लहीजे, क्षयउपशमीय असंख । एक बार क्षायक ते सम्यक् , दर्शन नमिये असंख रे ॥ भ० सि० ९ ॥ जे विण नाण प्रमाण न होवे, चारित्र तरु नवि फलियो। सुख निरवाण न जेविण लहिये, समकित दरशन बलिओ रे ॥ भ० सि० १०॥ सडसठ बोले जे अलंकरियो, ज्ञान चारित्रनुं मूल । समकितदर्शन ते नित प्रण शिवपंथनु अनुकूल रे ॥ भ० सि. ११ ॥ ॥ ढाल ॥ समसंवेगादिक गुणा, क्षयउपशम जे आवे रे । दर्शन ते हिज आतमा, स्यूं होय नाम धरावे रे ॥ वी० १२ ॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् सिद्धचक्राय दर्शन पदे अष्ट द्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा ॥ सप्तम श्री ज्ञानपद पूजा ॥ दोहा॥ सप्तम पद श्रीज्ञाननो, सिद्धचक्र तपमाह । आराधीजे शुभ मनें, दिन दिन अधिक उच्छाह ॥१॥ ॥ काव्य ॥ णाणं पहाणंजय सिद्ध चक्कं, तत्ताववोहिक्क मयं प्रसिद्ध। धरेह चित्तावसहे फुरंतं, माणक दीवुव तमोहरत॥२॥ अण्णाण सम्मोहतमो हरस्स, णमो णमो णाण दिवायरस्स ॥ पंचप्पयारस्सु वगारगरस, सत्ताणसव्वत्थपयासगस्त । हुई जेह थी ज्ञानशुद्धप्रवोधे, यथावर्णणासे विचित्राविबोधे ॥ तिण LKAKKAREEKEinlisa..lissanliadaKAJilabalkalaakhlaaaaaisihmlhalini-kholidabaalilariyana.tanthalalitihaMINATiladiKARAANAIYALATK atat.... ..thahaLamar Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा - विभाग ३२७ जाणिये वस्तुषट्द्द्रव्यभावा, न होवेविकत्था निजेच्छास्वभावा ||३|| हुई पंचमत्यादि सुज्ञानभेदे, गुरुपासथी योग्यता तेहवेदें । वली ज्ञेय हेया उपादेयरूपें लहेचित्तमां जेम ध्याने प्रदीपें ॥४॥ भव्य नमो गुण ज्ञानने, अनंतता, भेदाभेद स्वभावें जी ॥ ढाल ॥ स्वपर प्रकाशक भावें जी । पर्याय धरम ॥ भ० ॥५॥ ॥ चाल ॥ जे मोक्ष परणति सकल ज्ञायक बोधभाव विलासता, मति आदि पंच प्रकार निरमल सिद्धसाधन लंछता । स्याद्वादसंगी तत्त्वरंगी प्रथम भेद अभेदता, सवि कल्पने अविकल्प वस्तु सकल संशय छेदता ||६|| ॥ ढाल ॥ भक्ष अभक्ष न जे विण लहिये, पेय अपेय विचार | कृत्य अकृत्य न जे बिन लहिये, ज्ञानते सकल आधार रे ॥ भ० सि० ७ ॥ प्रथम ज्ञान ने पीछे अहिंसा, श्रीसिद्धान्ते भाख्यूँ | ज्ञानने वन्दो ज्ञान मनिन्दो, ज्ञानी ये शिवसुख चाख्यूं रे ॥ भ० सि० ८ ॥ सकल क्रियानूं मूल ते श्रद्धा, तेहनूं मूल जे कहिये । तेह ज्ञान नित नित बन्दीजे, ते विन कहो किम रहिये रे ॥ भ० सि० ९ ॥ पंच ज्ञानमांहे जेह सदागम, स्वपर प्रकाशक तेह | दीपकवर त्रिभुवन उपगारी, वलि जिम रवि शशि मेह रे ॥ भ० सि० १०॥ लोक ऊरध अधतिर्यग्ज्योतिष, वैमानिकने सिद्धी । लोक अलोक प्रगट सब जेहथी, ते ज्ञाने तुझ शुद्धी रे ॥ भ० सि० ११ ॥ ॥ ढाल ॥ ज्ञानावरणी जे कर्मे छें, क्षय उपशम तसु थाये रे । तो होइ एहिज अतिमा, ज्ञान अबोधता जाये रे ॥ वी० १२ ॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् सिद्धचक्राय ज्ञानपदे अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमत्रत्रतत्र ग्रनल्स्प्रनल्यान्ट्रन्यूवल्ललनवाला ३२८ जैन-रत्नसार अष्टम श्री चारित्रपद पूजा ॥ दोहा ॥ अष्टम पद चारित्रनो, पूजो धरी उम्मेद । पूजत अनुभवरस मिले, पातिक होय उच्छेद ॥१॥ ॥ काव्य ॥ . सुसंबरं मोह गिरोहसारं, पंचप्पयारं विगयाइयारं । मूलोत्तराणेगगुणं पवित्तं, पालेहणिच्चं पिहु सच्चरित्तं ॥२॥ आराहिया खंडिअ सक्कियस्स, णमो णमो संजम वीरियरस । सम्भावणासंग विवट्टिअस्स, णिव्याणदाणाइ समुज्जयस्स ॥ वलि ज्ञानफलते धरिये सुरंगे, निरासंसता द्वार रोधे प्रसंगे। भवांभोधि संतारणे यान तुल्यं, धरूं तेह चारित्र अप्राप्त मूल्यं ॥३॥ हुई जासु महिमा थकी रंक राजा, वलि द्वादशांगी भणी होय ताजा । बलिपापरूपोपि निप्पाप थायें, थई सिद्ध ते कर्मने पार जायें ॥४॥ ॥ ढाल ॥ चारित्रगुण वलि वलि नमो, तत्त्वरमण जसु मूलो जी। पर रमणीयपणो टले, सकल सिद्धि अनुकूलो जी ॥चा० ५।। ॥चाल ॥ प्रतिकूल आश्रव त्याग संयम तत्त्व थिरता दममयी, शुचि परम खंति । मुनिन्द सेपद पंच संवर उपचयी ॥ सामायिकादिक भेद धरमें यथाख्याते पूर्णता, अषीय अकुलस अमल उज्जल काम कसमल चूर्णता ॥६॥ ॥ ढाल | देशविरत ने सर्वविरत जे, ग्रही यतिने अभिराम । ते चारित्र जगत् जयवन्तो कीजे तासु प्रणामे रे ॥ भ० सि० ७ ॥ तृण परे जे षखंड सुख छंडी, चक्रवर्त पिण वरियो, ते चारित्र अखय सुखकारण, ते मैं मनमाहि धरियो रे ॥ भ० सि० ८ ॥ हुआ रंक पणे जे आदर, पूजत इन्दनरिन्द ॥ अशरण शरण चरण ते वाहूं, वरिओ ज्ञान आनन्दे रे ॥ भ० सि. ९॥ बार मास पर्यायें जेहने, अनुत्तर सुख अतिक्रमिये । शुक्ल शकल SAKAMARIYAKHILal tattatok H AMAaditalittli-TRAMANANESH Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा-विभाग ફટ अभिजात्य ते ऊपरि, ते चारित्रनें नमिये रे ॥ भ० सि० १० ॥ चयते आठ करमनो संचय, रिक्त करे जे तेह || चारित्र नाम निरुक्ते भाख्युं, वन्द्व गुणगेह रे ॥ भ० सि० ११ ॥ || ढाल || जाणि चारित्र ते आतमा, निजस्वभावमांहि रमतो रे । लेश्या शुद्ध अलंकरयो, मोहवने नवि भमतो रे ॥ वी० १२ ॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् सिद्धचक्राय चारित्रपदे अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । नवम श्री तपपद पूंजा ॥ दोहा ॥ करमकाष्ठ प्रति जालवा, परतिख अगिन समान । ते तपपद पूजो सदा, निर्मल धरिये ध्यान ॥१॥ करमखपावे चीकणा, भाव मंगल तप जाण । अडतालीस लब्धी ऊपजे, नमो नमो तप जगभाणं ॥२॥ ॥ काव्य ॥ वज्झं तहाभिंतर भेयमेयं, कयाइ दुम्भेय कुकुम्मभेयं दुक्खक्खयत्यं, कय पावणासं तवंतवेहा गमियं णिरासं ||३|| एयाई जेकेविणबप्पयाइ, आराहियं तिष्ठ फलप्पयाई, लहंति ते सुक्ख परंपराणं, सिरिसिरिपालणरेस रुव ||४|| कम्ममोन्मूलण कुंजररस, णमो णमो तिब्बतवोयरस्स । अणेग लडीण णिबंधणरस, दुसज्झअत्थाणय साहणस्स ||५|| इय णवपयसिद्धि लडि वीज्जास मिद्धं पयड़िय सरवग्गं ह्रीतिरेहा समग्गं । दिसिवय सुरसारं खोणिपीढावयारं, तिजय विजयचक्कं सिद्धचक्कं नमामि ||६|| निकालिक पणे कर्मकपाय टाले, निकाचितपणें वाधितां तेह वाले । कह्यो तेह तप बाह्य अभ्यंतर दुभेदे, क्षमायुक्ति निर्हेत दुर्व्यान छेड़ें ||७|| होइ जासु महिमा थकी लब्धि सिद्धि, अवांछकमणे कर्म आवर्ण शुद्धिः । तपो तेह तप जे महानंद हेते, होइ सिद्धि सीमंतिनी निज संकेते ॥८॥ इम नव पढ़ ध्यावें परम 12 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Itata Yastouts to t जैन-रत्नसार ३३० आनंद पावें, नव भव शिव जावें देव नर भवजन्म पावें । ज्ञानविमल गुण गावें सिद्धचक्र प्रभावें, सवि दुरित सकावें विश्व जयकार पावें ॥९॥ || ढाल || इच्छारोधन तप नमो, बाह्य अभ्यन्तर भेदें जी । आतम सत्ता एकता, पर परणति उच्छेदें जी इ० ॥१०॥ ॥ चाल ॥ उच्छेद कर्म अनादि संतति जेह सिद्धिपणों वरे, शुभ योग संग आहार टाली भाव अक्रियता करें | अंतरमुहूरत तत्त्व साधे सर्व संबरता करी, निज आत्मसत्ता प्रगट भावें करो तपगुण आदरी ॥११॥ ॥ ढाल || इम नवपद गुणमंडलं, चउ निक्षेप प्रमाणें जी । सात नये जे आदरें, सम्यग्ज्ञाने जाणें जी इ० ॥१२॥ ॥ चाल ॥ निरधारसेती गुणे गुणनो करइ जे बहुमान ए । जसु करण ईहा तत्त्व रमणे, थाये निरमल ध्यान ए ॥ इम शुद्धसत्ता भलो चेतन सकल सिद्धि अनुसरें, अक्षय अनंत महंत चिदघन परम आनंदता वरे ॥ १३ ॥ ॥ कलश ॥ इम सयल सुखकर गुणपुरंदर सिद्धचकपदावली, सबिलद्धिविज्जा सिद्धि मंदिर भविक पूजो मन रली । उवज्झाय वर श्रीराजसागर ज्ञान - धर्म सुराजता, गुरु दीपचंद सुचरण सेवक देवचन्द्र सुशोभता ॥ १४॥ ॥ ढाल || जाणता त्रिहुं ज्ञान संयुत ते भवमुगति जिनंद । जेह आदरें कर्मख - पेवा, ते तपसुरतरु कंदें रे ॥ भ० सि० १५ ॥ करम निकाचित पिण क्षय जायें, क्षमा सहित जे करतां, ते तप नमिये तेह दीपावे, जिनशासन उजनंता रे ॥ भ० सि० १६ ॥ आमोसही पमुहा बहु लद्धि, होवे जासु प्रभावें । अष्ट महासिद्ध नवनिध प्रगटे, नमिये ते तप भावें रे ॥ भ० এMass. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "" 1.3+44 44311524998 पूजा - विभाग ३३१ · मि० १० || फल शिव सुख मोटू सुरनरवर संपति हनूं फूले । ते तप गुर नम सरिखो वंदु शम मकरंद अमूले रे ॥ भ० सि० १८ ॥ सर्व्व मंगलमाहि पहली मंगल, वर्णवियो जं ग्रंथे । ते तप पढ़ त्रिकरणं नितनमियं वरसहाय शिवपंथे रे ॥ भ० सि० १९ ॥ इम नवपद गुणतो तिहां लीनों, हुआ तनमय श्रीपाल । सुजस विलासे चौथे खंडे, एह इग्यारमी हारे ॥ भ० सि० २० || || हाल || 3 इच्छाधन संवरी परणित समता योगे रे । तप ते एहिज आतमा, बरते निजगुण भोगे रे || वी० २१ ॥ आगमनी आगमतणां भाव ते जाणी साची । आतमभावें थिर हुआ, परभावे मतराची रे || वी० २२ ॥ अट सकल समृद्धिने, घटमांहे ऋद्धि दाखी रे । तिम नवपद ऋद्धि जाणजो, आतमगम के साखी रे || वी० २३ योग असंख्य छे जिन का, नवपद मुख्य तें जाणो रे । एतणं अवलंविने आतम ध्यान प्रमाणों रे || वी० २४ ॥ ढाल बारमी एहवी, चौथे खंडे पूरी रे । वाणी वाचक जसतणी. कोइ नहीं रही अधूरी रे || वी० २५ ॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् free पप अष्ट द्रव्यं मुद्रां यजामहे खाहा | सत्रह भेदी पूजा प्रारम्भ ॥ दोहा ॥ भाव भले भगवंतनी, पूजा सतर प्रकार परकीची हौपदी, अंग छटे अधिकार ||१|| ॥ राग सम्पदो || 2313732 ११ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇరువరhestarted r ithaharam thatsattartshirthataraka tittalacha जैन-रत्नसार merrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrammarne ramanaraameramaanwarAMAMAN नत्रजननननननननन प्रणप्रत्र प्रमाणपत्र प्रमान ॥ गाथा ॥ ण्हवण विलेवण वत्थयुगं, गंधारहणं च पुष्फरोहणयं । मालारोहण वणयं, चुण्ण पडागय आभरणे ॥३॥ मालकला वसुंधरं, पुष्पं पगरं च । अट्ट गुण मंगलयं । धूव उखेवो गीययं, नर्से वजं तहा भणियं ॥४॥ ॥दोहा ॥ सतर सुविध पूजापवरं, ज्ञाता अंगमझार । द्रुपदसुता द्रौपदी परे, करिये विधि विस्तार ॥५॥ ॥राग देशाख ॥ पूर्व मुख सोवनं, करि दशन पावनं अहत धोती धरी उचित मानी । विहित मुख कोशके, क्षीरगंधोदके, सुभृत मणिकलश करि विविध वानी । नमिवि जिनपुंगवं लोम हस्तेनवं, मार्जनं करिय वा वारि वारि । भणिय कुसुमाञ्जली, कलशविधि मन रली, नवति जिन इंद्र जिम तिम आगरी ॥६॥ ॥ दोहा ॥ परमानंद पीयूष रस, न्हवण मुगति सोपान । धरम रूप तरु सींचवा, जलधर धार समान ॥७॥ पहिली पूजा साचवे, श्रावक शुभ परिणाम । शुचि पखाल तनु जिनतणी, करे सुकृत हितकाम ॥८॥ ॥राग सारंग तथा मल्हार ॥ पूजा सतर प्रकारी, सुणियो मेरे जिणवर की। परमानंद अति छल्यो री सुधारस, तपत बुझी मेरे तन की ॥ पू० ९॥ प्रभुकं विलोकि नमि जनत प्रमार्जित, करत पखाल सुचिधार विनकी । न्हवण प्रथम निजव्यजन पुलावत, पंक' वरष जैसे धन घनकी ॥ पू० १० ॥ तरणि तरुण भव सिंधु तरणकी, मंजरी संपदफल वरधनकी। शिवपुर पंथ दिखावण दीपी, धूमरी आपद वेल मरदनकी ॥ पू० ११ ॥ सकल कुशल रंग F न -प्र -IITS निकलनात Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा - विभाग ३३३ मिल्योरी सुमतिसंग, जागी सुदिश शुभ मेरे दिनकी । कहे साधु कीरति सारंग भरि करतां, आस फली मेरे मनकी ॥ पू० १२॥ द्वितीय विलेपन* पूजा ॥ राग रामगिरी ॥ गात्र लूहें जिन मनरंगसु रे देवा || गा० ॥ सखरसुधूपित वाससूं हां हो रे देवा वाससूं । गंध कसायसुं मेलिये, ए नंदन चंदन चंद लिये हां हो रे देवा ॥ नं० ॥ मांहे मृगमद कुंकुम भेलीये, कर लीये रयणपिंगाणी कचोलिये हां हो रे देवा क० ॥ १॥ पग जानु कर खंधे सिरे रे हां हो रे देवा । भाल कंठ उदरंतरे । दुख हरे हां हो रे देवा । सुख करे तिलक नवे अंग कीजिए । दूजी पूजा अनुसरे हां हो रे देवा अ० | श्रावक हरि विरचे जिम सुरगिरे । तिम करे हां हो रे देवा । जिण पर जन मन रंजीए ॥२॥ ॥ राग ललितमां दोहा || करहुं विलेपन सुख सदन, श्रीजिनचंद शरीर | तिलक नवे अंग पूजतां, लहे भवोदधि तीर ||३|| मिटे ताप तसु देहको, परम शिशिरता संग | चित्त खेद सवि उपसमें, सुखमें समरसि रंग ॥४॥ ॥ राग बिलावल ॥ विलेपन कीजे जिनवर अंगे। जिनवर अंग सुगंधे ॥ वि० ॥ कुंकुम चंदन मृगमद यक्षकर्द्दम, अगरमिश्रित मनरंगे ॥ वि० ५ ॥ पग जानू कर खंधे सिर, भालकंठ उर उदरंतर संगे । विलुपित अघ मेरो करत विलेपन, तपत बुझति जिम अंगे || वि० ६ || नवअंग नव नव तिलक करत ही, मिलत नवे निधि चंगे, कहे साधु तन शुचिकर सुललित पूजा । जैसे गंग तरंगे ॥ वि० ७ ॥ ' इस पूजा के बाद प्रतिमाजी पर जरासी जल का धारा देवें । दूसरा स्नात्रियां केशर की कटोरी लेकर खड़ा रहे । केशर चढ़ावे । 학생및 수학 Yotato-%********** You acts to Testarte tarda nott Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार poorn / IN तृतीय वस्त्रयुगल पूजा ॥ दोहा ॥ वसनयुगल उज्वल विमल, आरोपे जिन अंग । लाभ ज्ञान दर्शन लहे, पूजा तृतीय प्रसंग ॥१॥ ॥ राग गोडी ॥ कमल कोमलघने, चंदने चर्चिते, सुगंध गंधे अधिवासिया ए । कनकमंडित हिये लालपल्लवशुचि, बसनयुग कंत अतिवासिया ए ॥२॥ जिनप उत्तम अंगे, सुविधिशको यथा, करिय पहिरावणी ढोइये ए । पाप लूहण अंगे, लुहणुं देवने, चस्त्र युगपूंज मल धोइये ए ॥३॥ ॥ रागवैराडी ॥ ३३४ """INING IS " ************ देव दुष्य जुग पूजा बन्यो है जगत गुरु, देव दुष्य हर अब इतनो मागं रे । तूंहिज सब ही हित तंहिज मुगति दाता, तिण नाम प्रभु चरणे लागूं रे ॥ दे० ४ ॥ कहे साधु तीजी पूजा केवल दंसण नाण, देव दुष्य मिंश देहुँ उत्तम वागूं रे | श्रावक अंजलि पुट सुगुण अमृत पीतां, सविराडे दुख संशय धुरम भागूं रे ॥ दे० ५ ॥ चतुर्थ वासक्षेप पूजा राग गोडी दोहा ॥ पूज चतुर्थी इण परे, सुमति वधारे वास । कुमति कुगति दूरे हरे, दहे मोह दल पास ॥१॥ ॥ रागसारंग ॥ ॥ हांहो रे देवा ॥ कुसुम ए ॥ हांहो रे देवा ॥ वास हांहो रे देवा बावन चंदन घसि कुंकुमा चूरण विधि विरचे वासु ए चूरण चंदन मृगमदा, कंकोल तणो अधिवासु दशोदिशि वासते, पूजे जिन अंग उवंग ए ॥ हांहो रे देवा || लाछि भुवन अधिवासिया, अनुगामिकी सरम अभंगू ए ॥२॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Artishtakatt e पूजा-विभाग ॥ राग गोडी तथा पूर्वी ॥ मेरे प्रभुजी की आणंद, पूजो में ॥ वास भुवन मोह्यो सब लोए, संपदा भेलकी ॥ पूजा० ३ ॥ सत्तर प्रकारी पूजा विजय, देवा तत्ता थेई । अप्परमित्त गुण तोरा चरण नेवाकि ॥ पूजा० ॥ ४ ॥ कुंकुम चन्दनवासे, पूजीये जिनराज तत्ता थेई। चातुर्गति दुखें गौरी चातुर्थी धनकि ॥ पूजा० ॥ ५॥ पंचम पुष्पारोहण पूजा ॥दोहा॥ मन विकसे तिम विकसतां, पुष्प अनेक प्रकार । प्रभुपूजा ए पंचमी, पंचम गति दातार ॥ १ ॥ ॥राग कामोद ॥ चंपक केतकि मालति ए, कुंद किरण मुच कुंद। सोवन जाइ जूईका, बिउलसिरि अरविंद ॥ २ ॥ जिनवर चरण उवरि धर ए, मुकुलित कुसुम अनेक । शिव रमणीवाहवासे वर वरे, विधि जिन पूज | विवेक ॥ ३॥ ॥राग कानडा ॥ सोहेरी माई वरषे मन मोहेरी माई वरणे। विविध कुसुम जिनचरणे ॥ सो० ॥ विकसी हसिअ जंपे साहिबकू, राखि प्रभु हम .. सरणे ॥ सो० ४ ॥ पंचम पूजा कुसुम मुकलितकी, पंचविषय दुख हरणे । ॥ सो० ॥ कहे साधुकीरति भगति भगवंतकी, भविक नरा सुख करणे ॥सो०५॥ षष्ट मालारोहण* पूजा || राग आशावरी दोहा॥ छठी पूजा ए छती, महा सुरभि पुप्फमाल । गुण गूंथी थापे गले, जेम टले दुखजाल ॥१॥ * माला चढ़ावे। Buslaslatialaddindelaakhelastetaliliakisticialishaleticlestiatistialistialiliatalalithiasmakalilarialitilandilinkilakaisalciniaalilial-kalai kalelai -ARMAKAMAAYaasarahladisiakshimalayaNAMATAsahashmaithunt Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ***N NEW जैन - रत्नसार * 2 222 2 तृतीय वस्त्रयुगल पूजा ॥ दोहा ॥ वसनयुगल उज्वल बिमल, आरोपे जिन अंग । लाभ ज्ञान दर्शन लहे, पूजा तृतीय प्रसंग ॥१॥ ॥ राग गोडी ॥ कमल कोमलघने, चंदने चर्चिते, सुगंध गंधे अधिवासिया ए। कनकमंडित हिये लालपल्लवशुचि, वसनयुग कंत अतिवासिया ए || २ || जिनप उत्तम अंगे, सुविधिशको यथा, करिय पहिरावणी ढोइये ए । पाप लूहण अंगे, लुहणुं देवने, चस्त्र युगपूंज मल धोइये ए ॥३॥ ॥ राग वैराडी ॥ देव दुष्य जुग पूजा बन्यो है जगत गुरु, देव दुष्य हर अब इतनो मागूं रे । तूंहिज सब ही हित तूंहिज मुगति दाता, तिण नाम प्रभु चरणे लागूं रे || दे० ४ ॥ कहे साधु तीजी पूजा केवल दंसण नाण, देव दुष्य मिश देहुं उत्तम वागूं रे । श्रावक अंजलि पुट सुगुण अमृत पीतां, सविराडे दुख संशय धुरम भागू रे ॥ दे० ५ ॥ चतुर्थ वासक्षेप पूजा ॥ राग गोडी दोहा ॥ पूज चतुर्थी इण परे, सुमति वधारे वास । कुमति कुगति हरे हरे, दहे मोह दल पास ॥१॥ ॥ रागसारंग ॥ हांहो रे देवा बावन चंदन घसि कुंकुमा चूरण विधि विरचे वासु ए चूरण चंदन मृगमदा, कंकोल तणो अधिवासु दशोदिशि वासते, पूजे जिन अंग उवंग ए भुवन अधिवासिया, अनुगामिकी सरम अभंगू ॥ हांहो रे देवा ॥ कुसुम ए ॥ हांहो रे देवा ॥ वास ॥ हांहो रे देवा || लाछि ए ॥२॥ ५६ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Balarakatthalalikolkataatka पूजा-विभाग ३३५ ॥राग गोडी तथा पूर्वी ॥ मेरे प्रभुजी की आणंद, पूजो में ॥ वास भुवन मोह्यो सब लोए, संपदा भेलक्री ॥ पूजा० ३ ॥ सत्तर प्रकारी पूजा विजय, देवा तत्ता थेई । अप्परमित्त गुण तोरा चरण नेवाकि ॥ पूजा० ॥ ४ ॥ कुकुम चन्दनवासे, पूजीये जिनराज तत्ता थेई। चातुर्गति दुखें गौरी चातुर्थी धनकि । ॥ पूजा० ॥ ५॥ पंचम पुष्पारोहण पूजा ॥ दोहा ॥ मन विकसे तिम विकसतां, पुष्प अनेक प्रकार । प्रभुपूजा ए पंचमी, पंचम गति दातार ॥ १ ॥ ॥ राग कामोद ॥ चंपक केतकि मालति ए, कुंद किरण मुच कुद। सोवन जाइ 1 जूईका, बिउलसिरि अरविंद ॥ २ ॥ जिनवर चरण उवरि धर ए, मुकु लित कुसुम अनेक । शिव रमणीवाहवासे वर वरे, विधि जिन पूज विवेक ॥ ३॥ ॥ राग कानडा ॥ ___सोहेरी माई वरपे मन मोहेरी माई वरणे । विविध कुसुम जिनचरणे ॥ सो० ॥ विकसी हसिअ जंपे साहिबकू, राखि प्रभु हम, सरणे ॥ सो० ४ ॥ पंचम पूजा कुसुम मुकलितकी, पंचविषय दुख हरणे, ॥ सो० ॥ कहे साधुकीरति भगति भगवंतकी, भविक नरा सुख करणे ॥सो०५।। षष्ट मालारोहण पूजा ॥ राग आशावरी दोहा ॥ छही पूजा ए छती, महा सुरभि पुप्फमाल । गुण गूंधी थापे गले, जेम टले दुखजाल ॥१॥ - -------- a latkalikotatilisata-ladainiclinitaliasisatadkalaMASTAlishalalistantialakata r ikslastetirlistiatistanishtoleat.ladiminatantaletastntriclestatistatstatuteLatasawal... माला पटाये। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ suchhattleiolo-tantoshhhhh STRETimkatinkali lotka tetatistate brothplatasabasakkh esarsakshtriarte जैन-रनसार నడishండును. Shabani-finakichiketkalambinirubilaritamarhlakalakaaskotkatiot-karki-bhoirolioanitalbkak ॥राग रामगीरी गुजराती ॥ ' आहो नाग पुन्नाग मंदार नव मालिका, आहो मल्लिकासोग पारिधे । कली ए । आहो भाला, मरुक दमणक आहो बकुल तिलक वासंतिका, आहो लाल गुलाल पाडल भेली ए ॥२॥ आहो जासुमणि मोगरा बेउला मालति, आहो पंच वरणे गंथी मालती ए ॥ आहो माल जिन कंठ पीठे ठवी लहलहे, आहो जाणी संताप सहु पालती ए ॥३॥ ॥राग आशावरी ॥ देखी दामा कंठ जिन अधिक एधति नंद, चकोरकू देखि देखि देखि जिम चंद । पंचविध वरण रची कुसुमाकी जैसी, रयणावलि सुहमंद ॥ दे. ३॥ छट्ठी रे तोडर पूजा तब डार धूजे, सब अरिजयणहारे छंद । कहे साधुकीरति सकल आशा सुख, भविक भगति जे जिण वंद ॥ दे० ४ ॥ ___ सप्तम वर्ण पूजा ॥दोहा॥ केतकि चंपक केवडा, शोभे तेम सुगात । चाढो जिम छढतां हुवे, सातमिये सुखशात ॥१॥ ॥राग केदारा गौडी ॥ कंकुमे चर्चिते विविध पंच वरणके, कुसुमसुं हारे अइहो । कुन्द गुल्लाबसू चंपको दमणकू, जाससूं ए। हारे अइहो सातमी पूजमें अंग, आलंकिये ए। अंग आलंक मिश माननी मुगति, आलिंगिये ए ॥१॥ ॥राग भैरवी ॥ पंच वरणकी आंगी राचि, अह वो कुसुमकी जाती ॥ ५० ॥ कुन्द मुचकुन्द गुलाब शिरोमणि, कर करणी सोवन है जाती ॥६०२॥ दमणक मरुक पाडल अरविंदो, अंश जूई बेउल है वाती ॥ ५० ॥ पारधि चरण कलार मंदारो, विन पट कूल बनी है भाती ॥ पं० ३ ॥ सुरनर किन्नर रमणिअ गाती, भैरव कुगति व्रत है दाती ॥ पं० ४ ॥ * फूल चढ़ावे। k Tweethakalakrishna నామనసును ముందుకు akakakistaleolanathalalkhkhalonekattail M ATAPolitook : Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा-विभाग ३३७ ResmarakshashanaKE अष्टम गंधवटी पूजा ॥दोहा॥ सुख देवा दुःख मेटवा, यही आपकी वान । मुझ गरीबकी वीनती, सुन लीजे भगवान ॥१॥ अपनी अपनी गरज को, अरज करें सब कोय । मैं गरजी अरजी करूं, कि जैसी मरजी होय ॥२॥ शान्तिनाथ साता करो, तन मन करो अनन्द । आप तो पूरणब्रह्म हो, जगत उजागर चन्द ॥३॥ सिद्धाचल समरूं सदा, सोरठ देश मझार । मानव भव पामी करी, चन्दु बारम्बार ॥४॥ शत्रुञ्जय सरिखा गिरवरूं, ऋषभ सरीखा देव । पुण्डरीक सरिखा गणधरूं, वलि वलि वन्दू हेव ॥५॥ श्री केशरियानाथजी, तुम हो मोटा देव । आनधरूं शिर ताहरे, करूं तुम्हारी सेव ॥६॥ यह चार शरणे जगतमें, और न शरणा कोय । इनको तो ध्याते थके, मन वंछित फल होय ॥७॥ दया सुगति तरु वेलडी, रोपी आदि जिनन्द । श्रावक कुलमण्डण भई, सींची सर्व जिनन्द ॥८॥ हत्था जेह सुलक्षणा, जे जिनवर पूजन्त । जे जिनवर पूज्या नहीं, पर घर काम करन्त ॥९॥ वाडी चम्पो मोगरो, सोवन कूपलियांह । पास जिनेसर पूजसां, पांचू अंगुलियांह ॥१०॥ जिवडा जिनवर पूजिये, पूजाना फल होय । राजनमें परजानमें, आण नलोपे कोय ॥११॥ पूरव विदेह विराजते, श्री सीमंधर स्वाम । सेवा करस्यां प्रभुतणी, नित उठ लेस्यां नाम ॥१२॥ itakalasahasratiscalistiaksharinakalanchoesladakipoleslessistanlishket NYe-blassoctokiaalikekotatisionlesale Kaladalat Kaala Teriaanshikanth here 43 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्त्र BaththaikbhaKARLERKahaanbhabhikita bhatnashtarnktrnhotkhaorate ३३८ जैन-रत्नसार wwPurwasnawware LateMalatiadialistialistialankibhaitadesktethalalithalisahelalbaleko MasalkhaMaitialistadtikaiastiseetaar प्रजननत्र.प्र.पू.यटनप्रपत्र गणतनमननननननननन फूला केरे बाग में, बैठा श्री जिनराज । ज्यू तारा में चन्द्रमा, त्यू शोभे महाराज ॥१३॥ जग में तीरथ दो बडा, शत्रुञ्जय गिरनार । इण गिरि ऋषभ समोसर या, उणगिरि नेमकुमार॥१४॥ भावे जिनवर पूजिये, भावे दीजे दान । भावें भावना भाविये, भावें केवल ज्ञान ॥१५॥ मोहनी सूरत पास की, मो मन रही लुभाय । ज्यों मेंहदी के पात में, लाली लखी न जाय ॥१६॥ प्रभु नाम की औषधी से, सब संकट टल जाय । रोग शोक दारिद्र दुःख, दर्शन से भग जाय ॥१७॥ राजमती गिरवर चढी, वन्दन नेम कुमार। स्वामी अजहु न वावड़े, मो मन प्राण अधार ॥१८॥ धन ते साई पंखिया, बसे जो गढ़ गिरनार । चूंच भरे फल फूल सू, चाढ़े नेम कुमार ॥१९॥ श्री केशरिया नाथ कू, नमन करूं चितलाय । ऋद्धि बुद्धि मोहि दीजिये, दिन दिनअधिक सवाय ॥२०॥ श्री केशरिया नाथ के, केशर हंडा कीच । मरुदेवा के लाडले, बसे पहाड़ां बीच ॥२१॥ धंदोकर धन जोडियो, लाखां ऊपर कोड । मरती वेला मानवी, लियो कंदोरो तोड ॥२२॥ प्रभुजीका नाम कल्याण है, गुरुका वचन कल्याण । सकल सभा कल्याण है, जब प्रगटीराग कल्याण ॥२३॥ फूल इतर घी दुधमें, तिलमें तेल छिपाय । ज्यों चेतन जड़ कर्म संग, बंधे ममत दुख पाय ॥२४॥ ज्यों श्वास फल फूल में, दही दृध में धी। पावक काप्ठ पाषाण में, ज्यों शरीर में जी ॥२५॥ . . aataalikaalaalamkhalakSTERamleshamshimli'AKENARAYENG E R Y Bankskksatta ম্ম ম্বম্বন্ধস্বল্পভদুখবছa চলুতফরুল্করুম্মম্ম Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఏtarthasarathi దమయంతుడుండడం వందనమునకు ३३६ यमनकामनयन्यन्त्र बन्न नचल्नश-न्न प्रधानमन्त्रि मन्त्र ___ पूजा-विभाग ए सम्यक्त्वी जीवडा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तरगति न्यारा रहे, जिम धाय खिलावे वाल ॥२६॥ सोरठ राग सोहामणी, मुखे न मेली जाय । ज्यू ज्यू रात गलतियां, त्यू त्यू मीठी थाय ॥२७॥ सोरठ थारा देशमें, गढ मोटो गिरनार । नित उठ यादव वांदस्यां, स्वामी नेम कुमार ॥२८॥ जो हूंती चंपो बिरख, वा गिरनार पहार । फूलन हार गुथावती, चढती नेम कुमार ॥२९॥ रे संसारी प्राणिया, चढ्यो न गढ गिरनार । जैनधर्म पायो नहीं, गयो जमारो हार ॥३०॥ धन वा राणी राजे मती, धन वे नेम कुमार । शील संयमता आदरी, पहोतां भवजल पार ॥३१॥ दया गुणोंकी वेलडी, दया गुणोंकी खान । अनंत जीव मुगतें गया, दया तणे परमान ॥३२॥ ॥ दोहा सोरठो रागमां ॥ सुमती पूजा आठमी, अगर सेलारस सार । लावोजिन तनु भावशं, गंधवटी घनसार ॥३३॥ ॥राग सोरठ॥ कुद किरण शशि ऊजलो जी देवा, पावन घस घन सारोजी। आछो सुरभि शिखर मृग नामिनो जी देवा, चुन्न रोहण अधिकारोजी ॥ आ० ॥३४॥ वस्तु सुगंध जब मोरियोजी देवा, अशुभ करम चूरीजेजी ॥ आ० ॥ अंगण - सुरतरु मोरियोजी देवा, तव कुमती जन खीजे जी * तब सुमती जन रीझें जी ॥३६॥ ॥राग सामेरी ॥ पूजोरी माई, जिनवर अंग सुगंधे ॥ जि० ॥ पू० ॥ गंधवटी घनसार । उदारे, गोत्र तीर्थंकर बांधे ॥ पू० ॥३८॥ आठमी पूजा अगर सेल्हा रस, গল্পগুঞ্জনুক্ষন্দুলুক্ষণ 'PRAKAKKENAREKKAaradhikahikikatrikKARENAKSHEKHARJANKAkshetstakorakoobsoolatakakaki मन्त्रमणप्रत्रमन्त्र Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAKAkelattesttikai t rakarxi.chutoshradstedtatstandardestroy जैन-रनसार Hamarrrrrrrrrrrrrernamamamurararuaarmirarir rrrrrrrrrrrrrrrrrrror Bahit x * ना मनत्रजननशास्त्र मन्नान प्राप्त प्रधान मनमानस्य स्वयम ३४० लावे जिन तनु रागे। धार कपूर भाव घन बरषत, सामेरी मति जागे ॥ पू० ॥३८॥ नवम ध्वज पूजा ___॥ दोहा ॥ मोहन ध्वज घर मस्तके, सूहव गीत समूल ॥ दीजे तीन प्रदक्षिणा, नवमी पूज अमूल ॥१॥ ॥ वस्तु छंद ॥ सहस जोयण सहस जोयण हेममय दंड, युतपताक पंचे वरण । घुम घुमंत घूघरीय बाजे, मृदु समीर लहके गयण ॥ जाण कुमति दल सयल भाजे, सुरपति जिम विरचे ध्वजा ए, नवमी पूज सुरंग ॥ तिण परे श्रावक ध्वज वहन, आपे दान अभंग ॥२॥ ॥राग नट्टनारायण ॥ - जिनराजको ध्वज मोहना, ध्वज मोहना रे ध्वज मोहना ॥ जि० ॥ मोहन सुगुरु अधिवासियो ए करि पंच सबद त्रिप्रदक्षिणा । सधव वधू शिरसोहणा ॥ जि. ३ ॥ भांति वसन पंच वरण बन्यो री, विध करि ध्वज को रोहणां । साधु भणत नवमी पूजा नव, पाप नियाणां खोहणां ॥ शिव मंदिरकू अधिरोहणा, जन मोह्यो नट्टनारायणा । जि० ४ ॥ दशम आभरण पूजा ॥ राग केदारामां दोहा ॥ दशमी पूजा आभरण की, रचना यथा अनेक । सुरपति प्रभु.अंगे रचे, तिम श्रावक सुविवेक ॥१॥ शिर सोहे जिनवर तणे, रयण मुकुट झलकंत । तिलक भाल अंगद भुजा, श्रवण कुंडल अतिकंत ॥२॥ ॥राग गुंडमल्हार ॥ पांच पिरोजा नीलू लसणीया, मोती माणक लाल लसणीया, हीरा सोहे रे, मन मोहे रे धुनी चुनीपुल कर केतना, जातिरूप सुभग अंक ___ * जिन गुरुजी को वासक्षेप करने के लिये बुलाये उनको भेटना अवश्य देना चाहिये। tdaeiletaxantriksisteetixRAHArrakaslesharamshalakatalesedhiKEINKela hiketireohit-Entertainabletalilabahilialeola Talaalialisalilialemiliarliame-hileolaloondilanmiled नया प्रयत्न कन्नमवशरमनपाला प्राधान्यान्न पत्रपत्रित Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रमभ्रत्र चर्चৎদপশখখল YYYYY पूजा - विभाग ३४१ अंजना, मन मोहे रे ॥३॥ मौलि मुकुट रयणे जड्यो, काने कुण्डल हांरे । अति जुगते जुड्यो, उरहारू रे मनवारू रे || ४ || भाल तिलक बांहे अंगदा आभरण दशमी पूजा मुदा । सुखकारू रे, दुखहारू रे ||५|| ॥ राग केदारो ॥ प्रभु शिर सोहे, सुकुट मणि रयणे जड्यो । अंगद बाहु तिलक भालस्थल, एहु नीको कौन घड्यो ॥ प्र० ६ ॥ श्रवण कुण्डल शशि तरुण मंडल जीपे, सुरतरुसें अलंकर्यो । दुख केदार चमर सिंहासन, छत्र शिर उवरि धरथो, अलंकृत उचित वरयो ॥७॥ एकादश पुष्पगृह पूजा ॥ दोहा ॥ फूलघरो अति शोभतो, फूंदे लहके फूल | महके परिमल महमहा, ग्यारमी पूजा अमूल ॥१॥ ॥ राग रामगिरी ॥ मुचकुन्द वर विचिक कोज अंकोल रायबेलि नव मालिका, कुन्द हांरे अइही० वि० ए० ॥ तिलक दमणक दलं मोगरा परिमलं, कोमला पारिध पाडलं हां रे अ० पा० ए ॥ प्रमुख कुसुमें रचें त्रिभुवनकूं रुचे, कुसुम गेहे विच तोरणूं, हां रे अ० तो० ए ॥ गुच्छ चन्द्रोदयं झुम्बका उष्णयं, जालिका गोख चित चोरणूं हां रे अ० चो० ए ॥२॥ ॥ राग रामगिरी ॥ मेरो मन मोह्यो माई, आणंद झिले । असत उसत दाम बघरी मनोहर, देखत तत्र, सब दुरित खिले || फू० ३ ॥ कुसुम मंडप भगुच्छ चन्द्रोदय, कोरणि चारु विनाण सजे । ग्यारमी पूज भणी है गमगिरि विध विमाण, जैसे तिपुरभजे ॥ कृ० ४ ॥ Antoniantartante Juntant to fifts / Yunite tank Lt Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ restoresaravasant direto toote tect din torto tact In Intact text de tacte You the testato Yo Yo Yout जैन-रत्नसा *** Wwwwww द्वादश पुष्पवर्षा पूजा || दोहा मल्हार रागां ॥ वर बारमी पूजमें, कुसुम बदलिया फूल | हरण ताप सवि लोकको, जानु समा बहु मूल ॥१॥ ॥ राग भीम मल्हार देशी कडखानी ॥ मेघ वरसें भरी, पुप्फ बादल करी, जानु परिमाण करि कुसुम पगरं । पंच रणे बन्यो, धिकच अनुक्रम चण्यो, अधोवृन्ते नहीं पीड पसरं ॥ मे० २ ॥ वास महके मिले, भमर भमरी मिले, सरस रसरंग तिण दुख निवारी | जिनप आगे करे, सुरप जिम सुख वरे, बारमी पूज तिण पर अगारी ॥ मे० ३ ॥ ॥ राग भीम मल्हार ॥ पुप्फ वादलीया वरसे सुसमां ॥ अहो पु० ॥ योजन अशुचिहर वरसे गंधोदक, मनोहर जानु समां ॥ पु० ४ ॥ गमन आगमनकी पीर नहीं तसु, इह जिनको अतिशय सुगुणे । गूंजत गुंजत मधुकर इमप भणे, मधुर वचन जिन गुण थूणे || ५० ५ ॥ कुसुम सुपरि सेवा जो करे, तसु पीडा नहीं सुमणे सुमणे । समवसरण पंचवरण अधोवृत, विबुध रचे सुमणा सुसमा ॥ पु० ६ ॥ बारमी पूज भविक तिम करे, कुसुम विकसि हसि उच्चरे । तसु भीम बंधण अधरा हुवे, जे करहिं जे जिन नमें ||०|| त्रयोदश अष्ट मंगलीक पूजा || दोहा राग कल्याणमें ॥ तेरमी पूजा अवसरे, मंगल अप्ट विधान । युगति रचे सुमते सही, परमानन्द निधान ॥१॥ ॥ राग बसंत ॥ अखंड गुणें भिला सालि रजत तणा तंदुला अतुल विमल मिला, ए । श्लषण समाजकं, विध पंच वर्णकं, मेलि मंगल लिखे, सयल मंगल आखे, चन्द्रकिरण जैसा ऊजला ए ॥ जिनप आगे स्थानक धरे ए । तेरमी पूजाविधि तेरमी मन मेरे, अष्ट मंगल अष्ट सिद्धि करे ए ||अ०२ || Inst slentertain thats noble fails tasyati instratio etadanta ।। • and mal abe ६ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *A tt oriekcivirat-re sI3yindiatesti-furthermoonkattactartstonstitatert1rstition.in पूजा-विभाग ३४३ नयन प्र.प्र.प्राणभूत्रप्रकला प्रपत्रपत्रअ.नत्र चन्चममन्त्रिमनमत्रत्र- 113114 ॥राग कल्याण ॥ हो तेरी पूजा बणी है रसमें । अप्ट मंगल लिखे, कुशल निधान, .तेज तरणके रसमें ॥ हां० ३ ॥ दर्पण भद्रासन नंद्यावर्त्त पूर्ण कुभ, मच्छयुग श्रीवच्छ तसुमें। वर्धमान स्वरितक पूजा मंगलिक, आनंद कल्याण सुखरसमें ॥ हां० ४॥ चतुर्दश धूप पूजा ॥ दोहा ॥ गंधवटी मृगमद अगर, सेल्हारस घनसार । धरि प्रभु आगल धूपणा, चउदमि अरचासार ॥१॥ ॥ राग वेलावल ॥ कृष्णागर कपूरचूर, सोगंध चम्पे पूर। कुदरुक्क सेल्हारस सार, गंधवटी घनसार ॥२॥गंधवटी घनसार चंदन मृगमदा रस भेलिये, श्रीवास धूप दशांग, अंबर सुरभि बहु द्रव्य मेलिये ॥ वेरुलिय दंड कनक मंडित, धूपदाणु कर | धरे । भववृत्ति धूप करंति भोगं, रोग सोग अशुभ हरे ॥३॥ ॥ रोग मालवी गौडी॥ सब अरति मथनमुदार धूपं, करति गंध रसाल रे ॥ देवा कर० ॥ धाम धूमा वलीय धूसर, कलुष पातिक गाल रे ॥ देवा, स. ४ ॥ ऊर्ध्वगति सूचंति भविकं, मघ मधे करनाल रे ॥ दे० ॥ चौदमी वामांग पूजा, दिये रयण विशाल रे । आरती मंगल माल रे, मालवी गौडीताल रे ।।स०५॥ पंचदश गीत पूजा ॥ दोहा ॥ कंट भले आलाप करी, गावो जिनगुण गीत । भावो अधिकी भावना, पनरमि पूजा प्रीत ॥१॥ ॥श्री राग ॥ आर्यावृत्तं ॥ यद्वदनंतकेवल, मणंत फल मस्ति जैन गुणगानं । । สัดส่งได้ใหะโตไคลโดยได้นัดไดไไดดป้องให้ จะได้ไอได้สักกะใจได้ใจไปัดให้ได้ยัดไส้สัดใจไปัดฝดได้ไม่ได้งได้ใจจัดได้ฟ้องใช้ในห้ใจได้ เขากให้ใครไพได้ใจได้ใครเคยโดน นักคงในไอไดไไดได้ใจได้ ในใจคนใจไดป้อ ได้โพด) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३५८ जन-रनसार गुणवर्णतानवाद्यैर्मात्रामापालयेर्युक्तं ॥२॥ सप्त स्वरसंगीतः. स्थानर्जयनादि तालकरणेश्च ॥ चंचुरचारी चारी, गीतं गानं मुपीयूपं ॥३॥ ॥श्री राग ॥ जिनगुण गानं, श्रुत अमृतं, तार मंद्रादि अनाहत तानं, केवल जिम तिम फल अमृतं ॥ जि० ॥ell विबुध कुमार कुमरि आलापे, मुरज उपांग नाद जनितं । पाठ प्रबंध धुओप्रतिमान, आयति छंद मुरति सुमितं ॥५॥ शब्दसमान रुत्र्यो त्रिभुवनकं, मुर नर गावे जिन चरितं । सप्तस्वर मान शिवश्री गीतं, पनरमि पूज हरे दुरितं ॥ जि० ॥६॥ षोडश नृत्य पूजा ॥दोहा॥ कर जोडी नाटक करे, सजि सुन्दर सिणगार । भव नाटक ते नवि भमे, सोलमी पूजा सार ||१|| ॥ राग शुद्ध नट्ट ॥ काव्यं । शार्दूलविक्रीडित वृत्तं । भावा दिप्पिमणासुचारु चग्णा, संपुण्ण चंदाणणा, सप्पिम्मासम रूप वेस वयसो, मत्तभ कुम्भत्रणा लावएगा सगुणापि कम्स रवई, गगाइ आलावणा कुम्मारी कुमरावि जैन पुग्ओ. णचंति सिंगारणा ॥२॥ ॥ गद्यं ।। नागणं ने असयं कुमार कुमरीओ मृरियाभेणं दवणं मंदिठा रंग मंडवे पविद्या जिण णमंता गायंता वायंता णचंतेत्ति ॥३॥ ॥ गगनट्ट त्रिगुण ॥ नाचंति कुमार कुमर्ग, द्रागडदि नत्ता येइया । द्रागइदि द्रागदिक्कि. घागि योगिनि. मुग्वे नत्ता वइया ॥ ना० ॥॥ वेणु वीणा मज बाजे. मोलही सिणगार साजे. तन नननन्नानझ्या, घणण पणण . घमक, ग्ण या गड्या ॥ना !! क मंनि कंनको नमणी. मंजरी संकार करगी. नोति कुमग्यिा. हलकत हावादि भावं. दददनि भागमा :- m ..-: m- -:.:.. . - 7:- - - - .:. . . ... Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा-विभाग ॥ ना० ॥६॥ सोलमी नाटक्क पूजा, सुरियाभे रावण्ण कीनी। सूगंध तत्ता थेइया, जिनप भगते भविक लीणा, आणंद तत्ता थेइया ॥ ना० ॥७॥ सप्तदश वाजिन पूजा ॥ दोहा ॥ ततधन सुखिरे आनघे, वाजिन चउविध वाय । भगत भली भगवंतनी, सतरमी ए सुखदाय ॥१॥ सुरमद्दल कंसालो, महुयर मद्दल सुवज्जए पणवो । सुरणारि णंदि तूरो, पभणेइ तं णंद जिणणाह ॥२॥ ॥ राग मधु माधवी ॥ तूं नंदिआनंदि बोलत नंदी, चरण कमल जन्तु जगत्रय वंदी । ज्ञान निरमल बावन मुख वेदी, तिवलि बोले रंग अतिही आनंदी ॥ तूं० ॥३॥ भेरी गयण वजंती, कुमति त्यजंती। सेवे जैन जयणाएवंती, शासन, जयवंत नदंती। उदयसिंह परिपरिय वदन्ती ।। तू. ॥४॥ सेव भविक मधु माधव फेरी, भवना फेरी णप्पभणंती, कहे साधु सतरमी पूजा वाजिन सब, मंगल मधुर ध्वनिकरहकहति ॥ तू० ॥५॥ कलश ॥ राग धन्या श्री ॥ भवि तूं भण गुण, जिनके सब दिन, तेज तरणि मुख राजे । कवित शतक आठ थुणत शक्रस्तव, थुय थुय रंग हम छाजे ॥ भ० ॥६॥ अणहिलपुर शांति शिवसुख दाई, नवनिधि सिद्ध आवाजे । सतर सुपूज सुविधि श्रावककी भणी मैं भगति हित काजे ॥ भ० ॥७॥ श्री जिनचन्द्रनूरि खरतर पति, धरम वचन तसु राजे । संवत् सोल अटार श्रावण धुरि, पंचमी दिवस समाजे ॥ भ० ॥८॥ दया कलश गुरु अमरमाणिक्यवर, तासु पसाय सुविधि हुइ गाजे । कहे साधुः कीरति करत जिन संस्तव, शिवलीला सुख साजे । भ० ॥९॥ : : यह पूजा साधु कीर्तिजीकी बनाई हुई है और सम्बत् १६१८ श्रावण वदी ५ को बनी है। Patthalitistiaramatatiplosbillikirledioarcislikaturiplomaeatiniloiraladalndinslatiohiddosnokatariahinilatialalithiashlilalal-la kaambandarlahiadanleolalalarinila inik N....... ---- - - -- Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार -जलका कलश, केशर, अंगलूहण, वासक्षेप, फूल अनेक वर्णके, फूलोंकी माला, धूप की गोली, ( गन्धवटी ) ध्वजा १, आभूषण, फूलधरा, फूलों की बरसा और गुलाबजल गुलाबपास में भर कर छिड़के, अष्टमङ्गलीक, धूप इसके बाद पूर्ववत अष्ट प्रकारी पूजा करे । विंशतिस्थानकर पूजा श्री जिनेन्द्रपद पूजा ॥ दोहा ॥ सुख संपति दायक सदा, जगनायक जिनचंद | विधन हरण मंगल करण, नमो नाभि नृप नंद ॥१॥ लोकालोक प्रकाशिका, जिनवाणी चित धार । विंशतिपद पूजन तणो, कहस्यं विधि विस्तार ॥२॥ जिनवर अंगे भाखिया, तप जप विविध प्रकार । विंशतिपद तपसारिखूं, अपर न कोई उदार ॥३॥ दानशील तप जप क्रिया, भाव बिना फल हीन । जैसे भोजन लवण बिन, नहीं सरस गुण पीन ॥४॥ जे भवियण सेवें सदा, भावे स्थानक बीश । ते तीर्थंकर पद लहे, वंदे सुरनर ईश ॥५॥ ३४६ ॥ ढाल ॥ श्री अरिहंत पद सिद्धपद ध्यावो, प्रवचन आचारिज गुण गावो । स्थविर पंचम पद पुनरुवझाया, तपसि नाण दंसण मन भाया ||६|| १ एक श्वास से तीन णमोकार गिनकर सधवा स्त्रियां ध्वजा शिर पर रख कर गाजेबाजे के साथ तीन फेरी देवें और पुजारी शंख बजाता रहे । ( मरुस्थल ) मारवाड़ देश में इस ध्वजा को ग्रहण कर सधवा स्त्रियां बड़े समारोह के साथ नगर में घुमाती हैं । २ पृष्४ ३०६ ३ जलका कलश, अंगलूहूण, केशरकी कटोरी, फूल, धूप, दीपक, अक्षत, नैवेद्य, फल, नारियल, हरएक पूजा में उपर्युक्त सामग्री के साथ कम से कम एक रुपया अवश्य होना चाहिये । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I nts that allahabharatattal katakshatra takshashi t alu ३४७ Mrrrrr i पूजा-विभाग ॥ उलालो ॥ मनभाव विनया वश्यकामल, शील किरिया जाणिये । तप विविध उत्तम पात्र, वेया वच्च समाधि वखाणिये। हित कर अपूरव नाण संग्रह, धरो मन सुजगीश ए। श्रुत भक्ति पुनि तीरथ प्रभावन, एह थानक वीश ए ॥७॥ ॥ ढाल॥ Moledkihinkillestraliabiliolini-kolelicolalbaliksikandeediakhloklekhalialistialishakilitaliabililobiglaish - एह थानक वीश जग जयकारा, जपतां लहिये जिनपद सारा ।। करम निकंदे विसवा वीशे, भाख्यां जगतारक जगदीशे ॥६॥ . ॥ उलालो ॥ जगदीश प्रथम, जिणंद जगगुरु, चरम जिनवरजी मुदा । भव तीसरे पद सकल सेवी, लही जिनपति संपदा ॥ बावीश जिनवर, सकल सुखकर, इंद्र जसु गुणगाइये । इग दोय त्रिण, सह पद जपीने, तीर्थपति पद पाइये ॥९॥ ॥दोहा॥ अरिहंतादिक पद सदा, भजिये तप करि शुद्ध । अति निर्मल शुभ योगता, करिके तसु गुण लुद्ध ॥१०॥ विमल पीठ त्रिक तदुपरे, ठविये जिनवर वीश । पूजन उपगरण मेलि करी, अरचीजे- सुजगीश ॥११॥ एक एक ए पद तणो, द्रव्य पूज परकार । पंच अष्टविध जाणिये, सत्तर इगविस सार ॥१२॥ अष्ट जातिना कलश करि, विमल जले भरपूर । पूजो भवियण सहु मुदा, होय सकल दुख दूर ॥१३॥ सोहे सहु परमेष्ठिमें, जिनवरपद अभिराम । वेद निक्षेप सुमरिये, वधते शुभ परिणाम ॥१४॥ ॥ राग देशाख ॥ (पूर्वमुखसावनं,) सकल जगनायकं परमपद दायकं, लायकं जिनपदं विमलभानं । a lisakaliEXAMINIKKKaleli.halibdib A NEEYAKAISAudiktatathe Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... wwuruwar wer overwearnerrmusivanmararunaam marwareneurmernmummer EXSXEXEMARATEEKERSAHARAPEETH A RMATHAKH | ३४८ जैन-रत्नसार चतुरधिकतीस अतिशय अमल बारगुण वचन पणतीस गुणमणिनिधानं ॥ हां रे अइयो १५ ॥ सुख करण जिन चरण पद्मसेवित सदा, अमर सुर असुर नर हृदयहारी । एह जिनवर तणी आण पूरण सदा, दाम जिम जगतजन शिरसिधारी ॥ हां रे अइयो १६ ॥ जिनप पद दरस, पारस । फरसते हुवे । प्रगट निज रूप, परिणति विभासं । तजिय बहिरात्म, गिरि सारता भवि लहे, अनुपमं आत्मकांचन प्रकाशं ॥ हारे अइयो १७ ॥ हुवई जिनराज पद, जाप रवि किरणते, तुरत बहु दुरित भव तिमिर नाशं । घनचिदानन्द वरकंदघन भवि लहे, तीर्थंकर चरण कमलाविलासं॥ हां रे अइयो १८ ॥ वर विबुध मणि लही काच लघु सकलको, ग्रहण करवा कवण कर | पसारे । तिम लही जिन चरण शरण शुभ योगसे, अपर सुरसरण कुण | हृदय धारे ॥१९॥ प्रभु तणे पंच कल्याण केरे दिने,प्रगट तिहुँ लोकमें हुयो उजेरो । भविक देवपाल श्रेणिक प्रमुख जिन नमी, बांधियो गोत्र जिनराज केरो ॥२०॥ जेह त्रिण काल नित नमें जिन हरपसू, तेह भवजल तरे जनम त्रीजे । अधिक भव यदि करे तदपि निश्चय करे, सप्त वलि अष्ट भव करीय सीझे ॥२१॥ ॥ काव्य॥ णमो णंतविण्णाण, सदसणाणं सयाणंदिया सेस जंतूगणाणं ॥ भवांभोज वित्थेयणे वारणाणं, णमो बोहियाणं वराणं जिणाणं ॥२२॥ ॐ ह्रीं। श्री अर्हद्भ्यो नमः । द्वितीय श्री सिद्धपद पूजा . ॥ दोहा॥ तनु त्रिभागके घटनतें, घन अवगाहन जास । विमल नाण दंसण कियो, लोकालोक प्रकाश ॥१॥ अविनाशी अमृत अचल, पदवासी अविकार । अगम अगोचर अजर अज, नमो सिद्ध जयकार ॥२॥ ARASHTRAMAYANAKINilaikaloilminessmanenmililialisaniaksharn i ng Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ BREAMERakhile Anmmmmmarananewww SKALA nitalathHamarokatholest a पूजा-विभाग ॥ राग सोरठ ॥ (कुंदकिरण शशि उजलो रे देवा, ) ___ अनुभव परमानंद सं रे वाला, परमातम पद वन्दो रे, करम निकंदो वंदिने रे वाला, लहि जिन पद चिर नंदो रे ॥३|| गगन पएसंतर वली रे वाला, समयान्तर अणफरसी रे द्रव्य सगुण परजायनारे वाला, एक समय विद दरसी रे ॥४॥ एक समय ऋजुगति करी रे वाला, भए परमपद गामी रे । भांगे सादि अनंतमा रे वाला, निरुपाधिक सुखधामी रे ॥५॥ अखिल करममल परिहरी रे वाला, सिद्ध सकल सुखकारी रे। विमल चिदानन्द घनथया रे वाला, वर इकतीस गुणधारी रे ॥६॥ उत्पन्नता वलि विगमता रे वाला, ध्रुवता त्रिपदी संगे रे। प्रभुमें अनंत चतुष्कता रे वाला, सोहे समक्रम भंगे रे ॥७॥ पनर भेदें ए सिद्ध थया रे वाला, सहजानंद स्वरूपी रे। परम ज्योतिमें परिणम्या रे वाला, अव्यावाध अरूपी रे ॥८॥ जिनवर पिंण प्रणमें सदा रे वाला, एहने दिक्षा अवसरे रे । तिण प्रभुपद गुणमालिका रे वाला, कंठे धरिये सुमरे रे ॥९॥ हस्तिपाल भवि भगतिसं रे वाला, सिद्ध परमपद भजिने रे। पद श्रीजिन हरवं लह्यो रे वाला, परगुण परणति तजिने रे ॥१०॥ ॥काव्य ॥ __लोगग्गभागोपरि संठियाणं, बुद्धाणसिद्धाण मणिदियाणं । णिस्सेस कम्मक्खय कारगाणं । णमोसया मंगल धारगाणं ॥११॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धेभ्यो नमः। तृतीय प्रवचनपद पूजा ॥दोहा॥ पद तृतीय प्रवचन नमो, ज्यूं न भमो संसार । गमो कुगति परिणमनता, दमो करण भयकार ॥१॥ जैसें जलधर वृष्टि ते अखिल फलद विकसाय । , तैसे प्रवचन भक्तितें, शुभ परिणति हुलसाय ॥२॥ tistiali.dasiaishalink-AalaakistakeMiclentialistinctinderlichiticishalilialishalinlistiadialikickastasialilialismislelonalilialealeramilaitiatalaikatitialilabledkaladditoilet Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० st Yashasta haatasheet case जैन-रत्नसार ॥ श्री राग ॥ ( जिनगुणगानं श्रुत अमृतं, > - प्रवचन ध्यानं सुखकरणं, परिहरिये सहु विषय विकारं, करिये प्रवचन आचरणं ॥ प्र० ३ ॥ सप्त भंगी भूषित ए प्रवचन, स्यादवाद मुद्राभरणं । सप्त नयात्मक गुणमणि आगर, बोधबीज उत्पति करणं ॥ प्र० ४ ॥ जैसे अमृत पान करणतें, हवइ सकल विष संहरणं । तैसे प्रवचन अमृत पाने, कुमति हलाहल प्रविशरणं ॥ प्र० ५ ॥ प्रवचनको आय ए कहिये, सकलसंघ तसु अधिकरणं । तिण ए संघ चतुर्विध प्रवचन, ए पद अखिल कलुष हरणं ॥ प्र० ६ ॥ यदि भविजन तुम ए चाहतु हो, मुगति रमणिजन वशकरणं । करण तीन इक करि तप करियें, प्रवचन पद समरण धरणं ॥ प्र० ७ ॥ जिनवरजी पण ए तीरथने, प्रणमे मध्यसमवसरणं । भवजल तारण तरणि समानं, ए तीरथ अशरण शरणं ॥ प्र० ८ ॥ जिम भरतेसर संघ भगति करि, लहियो पुण्यफला चरणं । चकी पद अनुभवि वलि शिवपद, लीध करिय करम निर्ज - रणं ॥ प्र० ९ ॥ नरपति संभवजिन हरषे करि, आराधो प्रवचन चरणं । करम निकंदी थयो जगदीसर, जिन परमा उर आभरणं ॥ प्र०१० ॥ ॥ काव्य ॥ अनंतसंसुद्ध गुणायरस्स, दुक्खंधयारुग्गदिवायरस्स । अनंतजीवाण दयागिहस्स, णमो णमो संघचउव्विहस्स ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्रीप्रवचनाय नमः | www. चतुर्थ आचार्यपद पूजा ॥ दोहा ॥ ININKIN おたちを पद चतुर्थ नमिये सदा, सूरीसर महाराज । सोहम जंबू सारिखा, सकल साधु सरताज ॥१॥ सारण चारण चोयणा, पडिचोयण करतार | प्रवचनकज विकसायवा, सहस किरण अवतार ॥२॥ lobbit todatatattvakbasna2013 | Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Thai amsteriorter accorreloadeihindikatakaialistiard i पूजा-विभाग ॥ राग रामगिरी ॥ (गात्र लूहें, ए) आचारज पद ध्याइये रे बाला, तासु विमल गुण गाइये । पाइये हांहो रे वाला पाइये। जिनपति पद जगशिर तिलो रे॥ आ० ३ ॥ जिन शासन उजवालतां रे वाला, सकलजीव प्रतिपालतां । ॥ पालतां हां ॥ पालतां चरण करण मग चालतां रे ॥ आ० ४॥ सूरि सकल गुण सोहता रे वाला, सुरनर जन मन मोहता ॥ मोहता हाहो० ॥ भवियणने पडिबोहता रे ॥ आ० ५ ॥ पंचाचार विराजता रे वाला, सजल जलद जिम गाजता ।। गाजता हाहो० ॥ सूरि सकल सिर छाजता रे ॥ आ० ६ ॥ उपदेशामृत वरसता रे वाला, दुरित ताप सहु निरसतां ॥ निरसतां हांहो० ॥ परमातम पद फरसतां रे ॥ आ० ७ ॥ धरम धुरंधरता धरा रे वाला, जग बांधव जग हितकरा ॥ हितकरा हांहो० ॥ खपर समय बिहु गणधरा रे ॥ आ० ८ ॥ पद श्रीजिन हरष ग्रह्यो रे वाला, सूरीसर पद तप वह्यो ॥ तप वह्यो हांहो० ॥ पुरुषोत्तम नृप शिव लह्यो रे ॥आ०९॥ ॥ काव्य ॥ कुवादि केलि तरु सिंधुराणं, सूरीसराणं मुणिबंधुराणं । धीरत्तसंतजिय मंदराणं, णमो सया मंगलमंदिराणं ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्यभ्यो नमः । पंचम स्थविरपद पूजा ॥ दोहा ॥ द्विविध स्थविर जिनवर कह्या, द्रव्य भाव परकार | लौकिक लोकोत्तर वली, सुणिये भेद विचार ॥१॥ जनकादिक लौकिक थविर, लोकोत्तर अणगार । पंचम पदमें जाणिवे. द्वितीय स्थविर अधिकार ॥२॥ ॥ गग सारंग ॥ निन नमिये अविर मुनीलग पंचमड़ा जन धारक बाग्क, कुमति जगत जय हितकग ॥ नि० ३ ॥ ----------- ----- -- -- arreleasantrwahilianismtrintentialentiatalarineetatutnastas -in-..' ' Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vidiogotiatrikabetboatkoseboatshatobhdoshtottakshastothtobakoartsaakstate जैन-रत्नसार rrenmaarne.or. ............... ........... ......... .................................................... Bক্ষপ্তঞ্চগ্নরুঙ্কগ্বপ্নগুঞ্চল্কপুঞ্চল্পঃন্বন্তুরুগ্নঝঙ্কল্পঞ্চস্কন্তুষ্টঙ্কক্কক্কক্কক্কক্কন্ধঃঃঃঃষ্কক্কক্কক্কক্ষপ্লঙ্কল্পগু संयम योगे सीदति बालक, ग्लानादिक सहु मुविवरा । एहने उचित सहाय दीयन ते, वारे एहना दुःखभरा ॥नि०४॥ पर्याय वय श्रुत त्रिविध ए थविरा, वीसरु साठ समो परा । वयधर समवायाधिक पाठक, एह थविर गुण आगरा ॥ नि० ५ ॥ त्रीजे अंग कह्या दस थविरा, रत्नत्रयीना गुणधरा । ते इह निर्मल भावे अहिवा, भविक सरोज दिवाकरा ॥ नि० ६ ॥ क्षीरजलधिसम अतिहि गंभीरा, सुरगिरि गुरु धीरज धरा, शरणागत तारणता धारा, ज्ञानविमल जल सागरा ॥नि०७॥ श्रुत पद धीरज ध्यान करणते, द्रव्यादिक ज्ञातावरा । तेह स्वरूप रमण कह्या थविरा, नहीय धवल केशांकुरा ॥ नि० ८॥ एह थविरपद सेवी भगते, पदमोत्तम वसुधेशरा। पद श्रीजिन ‘हरषे तिण लहिये, मुनिवर कुमुद निशाकरा ॥ नि० ९ ॥ ॥काव्य ॥ सम्मत्तसंयम, पतित भविजन, अतिहि थिर करता भला। अवगुण अदूषित, गुण विभूषित, चंदकिरण समुज्जला । अष्टाधिकादश सहस शीलांग, रथ रुचिर धाराधरा । भवसिंधु तारण, प्रवर कारण, नमो थविर मुनीसरा ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री स्थविराय नमः । षष्ट उपाध्यायपद पूजा ॥दोहा ॥ प्रवरनाण दरसण चरण, धारक यति धर्म सार । समितिपंच त्रिण गुप्तिधर, निरुपम धीरजधार ॥१॥ चरण कमल जेहनां नमें, अहोनिश सुर नर राय । जडता गिरिदारण कुलिश, जयजय श्री उवज्झाय ॥२॥ ॥ राग भैरव ॥ (पंच वरणक आंगी राची) भाव धरी उवझाया वंदो, विजयकारी । श्रीउवझाय परमपद बंदी, लहो जिनपद अतिशय धारी ॥ भा० ॥३॥ कुमति मदतरु भंजन सिंधुर, सुमतिकंद धन हैं अवतारी । अंग दुवालस भणे भणावे, शिष्य भणी चित RAAJasteresHITHAKTARIKAAREENahatathiottpadtattarashatatatasterstitiartEMATAARAAMAamatma nabaddapalliACRO2ODORALoenwlANISATERatanimal রুক্ষণগুক্ষণ#*#* Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ใคไขใดใด ได้ไป, free, 14-16.โคไต ไต ไอนใครในใจใคงไ% ผงปัดไขใดไอนไขใจได้ดใจได u rtottar-REPRENERAratan katurautamrakarmirior-listiakatestantrk=tEa-ki fhath khukaitrina tinkawara karanatakar rotikarton ratantrwritak.kolar.krritaarantosbe पूजा-विभाग । हितधारी || भा० ४॥ सकल सूत्र उपदेश दियणते, वाचक अति विमलाचारी । भव त्रीजे अमृत सुख पावे, सुर असुरेन्द्र मनोहारी ॥ भा० ५॥ हय गय वृष पंचानन सरिखा, करमफंद वर नर वारी । वासुदेव वासव नृप, दिनकर विधु भंडारि तुलाधारी ॥ भा० ६ ॥ जंवू सीता नदीकांचन गिरि, चरमजलधि ओपमा भारी । ए ओपमा बहुश्रुतनी जाणी, उत्तराध्ययन कही सारी ॥ भा० ७ ॥ अनल पंचविंशति गुण मणि निधि, सकल भुवन जन उपगारी । संशय तिमिर हरण वासर मणि, पाप ताप ओतपवारी भा०८॥ प्रवर शङ्ख पय भरियो सो हे, तिम ए ज्ञान चरण चारी, महेन्द्रपाल पाठकपद सेवा लहियो जिनपद विजितारी ॥ भा० ९ ॥ काव्य॥ सव्वोहि बीजांकुर कारणाणं, णमो णमो वायग वारणाणं । कुचोहि दंती हरिणेसराणं विग्घोष संताव पयोहराणं ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः ॥११॥ सप्तम साधुपद पूजा ॥दोहा॥ जाणे जिनवाणी सरस, स्यादवाद गुणवंत । मुनि कहिये शिव पंथने, साधे साधु कहत ॥१॥ शमता रस जल झीलता, विशदानंद स्वरूप । तिण पाम्यो पद सप्तमे, नमो नमो मुनि भूप ॥२॥ ॥राग भीम मल्हार ॥ (मेघ बरसे भरी पुष्प बादल करी,) भक्ति धरि सातमे, पद भजो मुनिवरा, सुखकरा विजित इंद्रिय विकारा । गुण सतावीश भूषण करी शोभिता, क्षोभिता विकट क्रम सुभट सारा ॥भ० ॥ चरण सत्तरि परम, करण सत्तरि धरा, शिव करण नाण किरिया प्रधाना । प्रतिदिन दोप, आहारना वरजिता, सप्त चालीस यति धरम निधाना ॥भ० ४॥ मदन मद भंजता, कुमति जन गंजता, भक्त जन रंजता शांति धरिया । ได้ไขใจจดใต้ปัดไขปัดปัจให้ใคปัจให้ใคงไดฟันใน ในปัจจในไตใจใดใดปิดใจ ไดไปัญใจไปได้ในใจได้ไปจไป, โอไอนไดง ในปัจ4 ไอไลฯ ในใจไว ไม่ mat 43 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rashatanAmakalikharelobaltakKHEKAISimlgaonline.fitelishalmistorial-sp-livlioladkirtantialipkarthepa.......findinhalestoh harashtAlo-ta-topieleasilanthyakala kark ansistashaiJharokar Dolakitaliratrn.imilindeaitakalastararamanankikaltakalailindiatekerlanakickrticarithik k जैन-रत्नसार सुमति धरिया सदा चरण परिया जना, तारिया ज्ञान गंभीर दरिया ॥भ०५॥ तृणमणि सम गिणे चतुर विध धर्मना, परम उपदेश दायक उदारा । बहिरभ्यंतर भिदा, बारविध अति कठिन, तप तपे सकल जिउ अभयकारा ॥ भ० ६ ॥ वलि अठावीश, मनहरण गुण लब्धि निधि, सातमे छह गुणठाण वसिया । सप्त भय वारका, प्रवरजिन आगन्या, धारका स्वगुण परिणमन रसिया ॥ भ० ७ ॥ पंच परमाद, कल्लोलताकुल महा, पार संसार सागर जहाजा । विविध नव वाडि युत, शील व्रतके धरा, मधुर निज वाणि रंजित समाजा ।। भा० ८ ॥ कोडि नव सहस थुणिये महामुनिवरा, वीरभद्र जिम करिय साधु सेवा । परम पद जिन हरष, सूं ग्रह्यो तसु तणा, चरण कज युग नमे सकल देवा ॥ भ० ९ ॥ ॥ काव्य ॥ संतज्जिया सेसपरिसहाणं, णिस्सेस जीवाण दयागिहाणं । सण्णाण पज्जाय तरूवणाणं, णमो णमो होउ तवोधणाणं ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री सर्वसाधुभ्यो नमः। अष्टम श्री ज्ञानपद पूजा ॥ दोहा ॥ विमल गाण वर किरण किय, लोकालोक प्रकाश । जीत लही निज तेजसें, जिण अनंत रविभास ॥१॥ सहु संशय तम अपहरे, जय जय णाण जिणंद । णाण चरण समरणथकी, विलय होय दुख दंद ॥२॥ ॥राग घाटी ॥ (मेरो मन बस कर लीनो, जिनवर प्रभु पास,) भावे ज्ञान वंदनकरिये, शिव सुख तरूकंद । जिनचन्द्र पद गुण धरिये, वरिये परमआनंद ॥भा०३॥ मतिनाण श्रुत पुनरवधि, मनपरयव जाण । लोकालोक भाव प्रकाशी, वर केवल नोण ॥ भा० ४ ॥ पंच ए इकावन भेदे, कह्यो । जिनवर भान । जगजीव जडता छदे, ज्ञानामृत रसपान ॥ भा० ५॥ atahik i thalirtankipuliatimahialistic a r tonsibikakiratram Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ k akakistakestant jerk kakkake-kisk tode.ketstaktrakhtakaterdh xexekskskskskskskkardo keeaket-shkarskateketakkakkakka पूजा-विभाग arwarelimirrr-morrorrrrrrrrrre ...................... ३५५ Imrararrrrr ... .. .rarmirrn Hamshala halokhatosladkiokatinkalrn f-kiska tarikakio kanthalismitalickslastainlisaslilahshalisakistakalasa बिन ज्ञान कीधी किरिया, होय तसु फल ध्वंस । भक्षाभक्ष प्रगट ए करिये, | जिम पय जल हंस । भा० ६ ॥ वरनाण सहित सुकिरिया, करी फल दातार । हुवो ज्ञान चरण रसीला, लहो भवजलपार ॥ भा० ७ ॥ ज्ञानानंद अमृत पीधो, भरतेसर महाराय । तिणमें अमृत पद लीधो, सुरपती गुण गाय ॥ भा० ८ ॥ सेवी ज्ञान जयत नरेशें, भये जिन महाराज । सोहे ज्ञान ए त्रिभुवनमें, सहु गुणपरि सिरताज ॥ भा० ९॥ ॥ काव्य ।। छद्दव्व पज्जाय गुणायरस्स, सया पयासी करणाधुरस्स । मिच्छत्त अण्णाण तमोहरस्स, णमो णमो णाणदिवायरस ॥१०॥ ॐ ह्रीश्रीज्ञानाय नमः । नवम दर्शनपद पूजा ॥दोहा॥ दरसण आश्रय धर्मनी, एहना षट् उपमान । दरसण बिन नहि चरणविधी, उत्तराध्ययने जान ॥१॥ जिन दरसण फरस्यो भलो, अंतर मुहुरतमान । अर्द्धपुद्गल परियट रहे, तसु संसार वितान ॥२॥ ॥ राग कामोद ॥ (चंपक केतकि मालती. ) जिणदरसण मुझ मन वस्यो ए, हा रे अइयो मन वस्यो ए, उपजत परम आनन्द । जिन दरसण दरसण दिये, विमल नाण तरु कंद ॥३॥ दरसण मोह रिपु जीतिया, ए॥ अ० ॥ वरदरसण उलसंत । दरसण घट परगट हुवा, भवियण भव न भमंत ॥४॥ जिनवर देव सुगुरु व्रती ए ॥ अ० ॥ केवली कथित जिनधर्म । तीन तत्त्व परिणति . रमे, ते दरसण करे शर्म ॥५॥ जिन प्रभु वचनोपरि सदा ए ॥ अ० ॥ थिर 2. सरदहण धरंत । इण लक्षणतें जाणिये, समकितवंत महंत ॥६॥ इग दुगति चउ शर दस विहा ए, सतसठि भेद विचार ॥ अ०॥ वलि परतीत समकित भण्यो, द्रव्य भाव परकार ॥७॥ द्रव्ये जिण दरसण का एक nsahityalsonaliKAMAX-Hikinilahsolishitasatis h bhootokahtott Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ జనవరయుతమతమ వురుడు తన కుమారుని जैन-रनसार Putiar ............ ... । • - 00-row weiven- arun ... ...mour videurana PAGE . म M aharasREAKNESSXAXMANYANESHKES त्रप्रवनप्रवद्र" haktistskotta | ॥ अ० ॥ भावे समकित सार । द्रव्यते दरसण भावतो, दरसण कारण धार ॥८॥ द्रव्यते दरस यदिगत वली ए ॥ अ० ॥ तदपि उत्तर हितकार । सय्यंभव जिनदरसणो, पायो दरसण सार ॥९॥ दरसण विण किरिया हता ए॥ अ० ॥ अंक बिना जिम बिंदु । बलि हणियो विन चन्द्रिका, वासरमें जिम इन्दु ॥१०॥ हरिविक्रम नृप सेवतो ए ॥ अ० ॥ दरसण पद अभिराम । पद श्रीजिन हरषे धयू, वधते शुभ परिणाम ॥११॥ ॥ काव्य ॥ अणंत विण्णाण सुकारणस्स, अणंत संसार विदारणस्स । अणंत कम्मावलि धंसणस्स, णमो णमो णिम्मलदसणस्स ॥१२॥ ॐ ह्रीं श्री दर्शनाय नमः। दशम विनय पद पूजा ॥दोहा॥ विनय भुवन रंजन करे, विनये जस विस्तार । विनय जीव भूषित करे, विनये जयजयकार ॥१॥ विनय मूल जिनधर्मनूं , विनय ज्ञान तरुकंद । विनय सकलगुण सेहरो, जयजय विनय समंद ॥२॥ ॥रागसामेरो ॥ ( पूजोरी माई, जिनवर अंग सुगंधे,) ध्यावोरी माई, विनय दशम पद ध्यावो । पंच भेद दश विध तेरस विध, बावन भेद गणेशे । छयासठ भेद कह्या आगममें, विनयतणा सुविशेषे ॥ ध्या० ३ ॥ तीर्थंकर सिद्ध कुल गण संघा, किरिया धर्म वरनाणा । नाणी आचारज मुनि थविरा, पाठक, गणि गुण जाणा ॥ ध्या० ४ ॥ ए अरिहादिक तेरस पदनो, विनय करे जे . भावे । ते तीर्थकर पद अनुभविने, अमृतपद सुख पावे ॥ ध्या० ५ ॥ जिम कंचनमें मृदुगुण लाभे, नहीय कालिमा पावें । तिण ए सकल धातुमें उत्तम, नाम कल्याण कहावे ।। ध्या० ६ ॥ तिम विनयीमें हो मृदुता गुण, rakarana-MAHARA गल्यापाogajariponroporonpoaranाल्पवयनमनत्र athokistanisetatialalitativederlackana t alTAILStage Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ attracteకు Mahడుకుంటుండగడం మనం पूजा-विभाग ERERatottarashariritutartarika-AIRKARKEE Kita-koh thatantaliatestakathakikatatatatak-lish malnitish KAKKARTA Testatik BEENabkrtistskobakaitig । कुमति कठिनता नासे । कृष्णादिक लेश्यानी मलिनता, जाये विनय गुण भासे ॥ ध्या० ७॥ दोय सहस अरु अधिक चिहत्तर, देववंदन निरधारो। गुरु वंदन विधि चारसे बाणूं , भेद करी उर धारो ॥ ध्या० ८ ॥ तीर्थकरादिकनो मन रंगे, विनय चरण शुभ ध्यायो । धन नामा भविजन शुभयोगे, पद जिन हर्षे पायो ॥ ध्या० ९ ॥ ॥काव्य ॥ आणंदिया सेसजगजणस्स, कुंबिंदु पादामलताचणस्स । सुधम्म जुत्तस्स दयासयरस, णमो णमो श्रीविणयालयस्स ॥१०॥ॐ ह्रीं श्रीविनयाय नमः ॥ एकादश चारित्रपद पूजा ॥दोहा॥ इग्यारमपद नित नमू, देश सरव चारित्र । पंक मलीनता दूर करी, चेतन करे पवित्र ॥१॥ एह चरण सेवन करे, रंक थकी सुरराय । तीन जगतपति पद दिये, जसु सुरनर गुणगाय ॥२॥ ॥राग सारंग ॥ (बावन चंदन धसि कु०,) चरण सरण मुझ मन हरयो, सुख करण हरण धन पाप ए ॥ हां हो रे वाला ॥ एह चरण जलधर हरे, अज्ञान तरुणतर ताप ए ॥ हां. ३ ॥ आठ कषाय निवारता, देशविरति प्रगट हुवे खास ए॥ हां ॥ चार कषाय निवारिया, समविरति लहे गुणवास ए॥ हां. ४ ॥ इगवासर सेव्यो थको, शुद्ध सर्व संवरचारित्र ए ॥ हां० ॥ परमानंद धन पद दिये, सुरलोक जनित सुखचित्र ए ॥ हां० ५ ॥ भवभय तरुगण छेदवा, ए संयम निशित कुठार ए । हां० ॥ ज्ञान परंपर करण छे, अमृत पदनो हितकार ए ॥ हां. ६ ॥ चरण अनंतर करण छ, निरवाण तणो निरधार ए ॥ हां० ॥ सरवविरति शुद्ध चरणसे पामे अरिहंत पद सार ए ॥ हां० ७॥ वरस चरण परजायमें, अनुत्तर सुख अतिक्रम होय ए । हां० ॥ सतर भेद चारित्रना, कहिया Paraknesiardioralhatkareliatetdehstreakistak-rokmalarakiral-diakamkarakakiralekalentestak-READhakikattotalb h akarisahialalkoreachest-traliandroidiseshindislokalradhhakAstrolorleaderstakalaya D Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Stotk otthrottottakhatateghrathkrtstakh faths kodabrorobreaktadokteindedoktrearrirektos जैन-रनसार कारटा मन्त्रणवनग्राम जिन आगम जोय ए ॥ हां० ८ ॥ देशथीं सम संयम विषे, उज्जलता | अनंत गुण थाय ए ॥ हां० ॥ अरुणदेव सेवी चरणने, भये जगगुरु जिन महाराय ए॥ हां. ९॥ ॥काव्य ॥ कम्मोघकतार दवाणलस्स, महोदयाणंद लयाजलस्स । विण्णाण पंकेरुहकारणस्स, णमो चरित्तस्स गुणापणस्स ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्रीचारित्राय नमः । द्वादश ब्रह्मचर्य पद पूजा ॥दोहा॥ सुरतरु सुरमणि सुरगवी, काम कलश अवधार । ब्रह्मचर्य इण सम का, कामित फलदातार ॥१॥ जिम जोतिसियां रजनिकर, सुरगणमें सुरराय । तिम सहु व्रत शिर सेहरो, ब्रह्मचरज कहिवाय ॥२॥ ॥राग काफी जंगलो ॥ (भलो प्रभुगुण वाल्हा हो,) भवभयहरणा शिवसुखकरणा, सदा भजो ब्रह्मचारा हो ॥ भ० ॥ शील विबुध तरु प्रतिपालनकों, कहि जिनवर नववारा हो ॥ भ० ३ ॥ दिव्योदारिक करण करावण, अनुमति विषय प्रकारा हो ॥ भ० ॥ त्रिकरण जोगें ए परिहरिये, भजियें भेद अढारा हो ॥ भ० ४ ॥ कनक कोडिनो दान दिये नित, कनक चैत्य करतारा हो ॥ भ० ॥ एहथी ब्रह्मचरज धारकनो, फल अगणित अवधारा हो ॥ भ० ५॥ सहस चौरासी श्रवण दान फल, शुभब्रह्मव्रतफल सारा हो ॥ भ० ॥ विजयसेठ विजया सेठाणी, उभय पक्ष ब्रह्मधारा हो ॥ भ० ६ ॥ भये सुदर्शन सेठ शीलसें, मुगतिवधू भरतारा हो ॥ भ० ॥ सहस अढार शीलांगरथ धारा, धारि करो निसतारा हो ॥भ०७|| सिंहादिक वसुभय तरु भंजन, सिंधुर मद मतवारा हो ॥ भ० ॥ कलहकारि नारदऋषि सरिखे, तरयो भवजलधि अपारा हो ॥ भ० ८ ॥ पञ्चक्खाण विरति नहिं एहमें, ए ब्रह्मव्रत उपगारा हो ॥ भ० ॥ सकल सुरासुर किन्नर प्रल प्रजनन स्वतन्त्रतत्र प्रस्त Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Saradastactaredabrdusareko katokstonkoldertakoserotodermathakoadeotathokkathakatke पूजा-विभाग ३५६ mmmmmmmmmmm s PANYMakaraakrrarekarporattrakeMedka.kakotany-leaderdaikolackatholichelor | नरवर, धरिय भगति हितकारा हो ॥ भ० ९॥ ब्रह्मचरज व्रतधर नरवरके, प्रणमें चरण उदारा हो ॥ भ० ॥ दशमे अंगे भणियो नरवर्मा, नरपति गुण आधारा हो ॥ भ० १० ॥ ब्रह्मचरजव्रत पाल ला पद, जिन हर्षे जयकारा ॥ भ० ११ ॥ ॥ काव्य ॥ सग्गापवग्गग्ग सुहप्पयरस, सुणिम्मलाणंत गुणालयस्स । सव्वव्वया भूसण भूसणस्स, णमोहि सीलस्स अदृसणरस ॥१२॥ ॐ ह्रीं श्रीब्रह्मचर्याय नमः। त्रयोदश क्रियापद पूजा ॥दोहा॥ करम निरजरा हेतु हे, प्रवर क्रिया गुण खाण । जिनशासननी स्थिति रहि, किरियारूपे जाण ॥१॥ भुवनमांहि किरिया मही, सकल शुद्ध विवहार । प्रवरनाण दरिसणतणो, शुद्ध किरिया सिणगार ॥२॥ ॥ राग मालवी गौडी ॥ (सब अरति मथनमुदार धूपं,) ___शुभध्यान किरिया हृदय धरिने, धर्म सकल उरधार रे । * आर्त रौद्रनी हेतु किरिया, अशुभ पणबीस बार रे ॥ शु० ३ ॥ । ज्ञानवंत अशस्त्र भट है, किरिया शस्त्र वतंस रे। सुभटनाणी क्रियाशस्त्रे, करयकर्म अरिध्वंस रे ॥ शु० ४ ॥ ज्ञानसेंती वदे शिव । यदि, तेरमें गुण ठाण रे । एकनाणे करि जिनेसर, किमु न लहे निरवाण रे ॥ शु० ५॥ जिनप शैलेशीकरण करी, चउदमे गुणठाण रे । सरवसंबर चरण करणे, लहे पद निरवाण रे ॥ शु० ६ ॥ ए अनंतर अमृत कारण, कह्यो जिनवर भान रे। सरब संबर चरण किरिया, न शिव इण विणु जान रे ॥ शु० ७ ॥ एक नाणे इक क्रिया में, न शिव वितरण शक्ति रे। कहे जिनवर उभय योगें, लहे भविजन भक्ति रे ॥ शु० ८ ॥ गरल मिश्रित s hotokalsbiharidabadnayikabootaosbbcshtribeshkolalariracalesisexalatkashy Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bhaktib ottoishitelegatifoliationairaok-STAKABARDASnitiataithilantatsetootstatstatistate INNAAPARAAEreverencecar ३६० जैन-रनसार . सरस भोजन, अशुभ परिणति धार रे । अमृत संयुत तेह भोजन, रुचिर परिणति कार रे ॥ शु० ९॥ ज्ञानसहिता तेम किरिया, करि करे निसतार रे। ज्ञानविणु किरिया न दीपे, मनोगत फलसार रे ॥ शु० १० ॥ ज्ञान परिणत रमी किरिया, तेह किरिया सार रे। भयो हरिवाहन जिनेसर, शुद्ध किरिया धार रे ।। शु० ११ ॥ ॥ काव्य ॥ विशुद्धसद्धाण विभूसणस्स, सुलद्धि संपत्तिसुपोसणस्स । णमो सदागंत गुणप्पदस्स, णमो णमो सुक्किरियापदस्स ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं श्रीक्रियायै नमः ॥ १३ ॥ चतुर्दश तप पद पूजा। ॥ दोहा ॥ समतारस युत तपरुचिर, भणियो जिन जग भान । शिवसुर सुख चंदन फलद, नंदनविपिन समान ॥१॥ सघन करम कानन दहन, करन विमल तप जान । विपिन धूमकेतुन समो, जय तप सुगुणनिधान ॥२॥ ॥ राग कल्याण ॥ (तेरी पूजा बनी है रसमें, ) मेरी लागी लगन तप चरणें। सकल कुशल में प्रथम कुशल ए, दुरित निकाचित हरणें ॥ मे० ३ ॥ जैसे गणधरकी जिनचरणे, चातककी जल धरणे ॥ मे० ॥ जैसी चक्रवाककी अरुणे, चकोरकी हिमकर किरणें ॥ मे० ४ ॥ जिनवर पण तदभव शिव जाणे, त्रण चउ नाण सुकरणे ॥ मे ॥ तदपि सुकोमल करण चरणने, ठवय कठिन तप करणें ॥ ५ ॥ कपट सहित तप चरणधरणते, वांछित फल नवि तरणें ॥ मे० ॥ नित ए दंभ रहित तपपदके, सुरपति गण गुण वरणें ॥ मे० ६ ॥ पीठ महापीठ al मुनि मल्लीजिन, पूरव भव तप सरणें ॥ मे० ॥ रहिया तदपि कपट नवि छंड्या, भये स्त्री गोत्राचरणे ॥ मे० ७ ॥ दृढप्रहारी पांडव घनकरमी, छंड्या ।। লক্ষ অসম্পন্ন অশ্বগন্মাক্ষলক্ষলক্ষ 2eप्रयत्नयननननननननननननननननननननननननननननन ETARINEMilink-TAAHELIYANAGARAATAKATARIAATithil-884TAG ननPARIES E KATIHAd-total Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ జపానుthathaik a rranty మము .........mernamann... अन्नन्नयनत्र य पूजा-विभाग करमा वरणें ॥ मे० ॥ तपसे शोभ लही त्रिभुवनमें, केवल कमलाभरणे ॥ मे० ८ ॥ लाख इग्यारह असी हजारा, पंच सहसदिन खिरणें ॥ मे० ॥ मासखमण करि नंदन मुनिवर, पाम्यो फल शिव धरणे ॥ मे० ९ ॥ तप करियो गुणरयण संवत्सर, खंधक समतादरणे ॥ मे० ॥ चउदसहस मुनि में कह्यो अधिको, धन्नो तप आचरणे ॥ मे० १० ॥ बाह्यअभ्यंतर भेदें ए तप, बार भेद अधिकरणें ॥ मे० ॥ वसने कनककेतु पाम्या पद, जिन हरणे भवतरणें ॥ मे० ११ ॥ त्रतत्र ॥ काव्य॥ प्र लखीसरोजावलितावणस्स, सरूवसंलग्ग सुपावणस्स। अमंगलाणो कुहदुद्दवरस, णमो णमो णिम्मल सत्तबस्स ॥१२॥ ॐ ह्रीं श्री तपसे नमः । पंचदश गौतमपद पूजा ॥ दोहा ॥ . गौतम गणधर पनरमे, पद सेवो सुप्रसन्न । वलि सहु जिन गणधर नमो, चौदेसे बावन्न ॥१॥ दान सकल जगवश करे, दान हरे दुरितारि । मन वांछित सहु सुख दिये, दान धरम हितकारि ॥२॥ ॥राग सोरठ॥ (तेरी प्रीति पिछानी हो प्रभु मैं,) पनरम पद गुण गाना हो भवि ।। पनरम० ॥ भाव धरी करिये मन रंगे, परम सुपात्रे दाना हो भवि पनरम० ॥ ३ ॥ पात्र कह्या द्रव्य भाव । दुभेदें, द्रव्यलंछन ए जाना ॥ हो भवि प० ॥ सर्वोत्तम उत्तम हुवे भाजन रतनकनक रूपाना ॥ हो भवि प० ॥ ४ ॥ मध्यम पात्र कहीजे एहवा, ताम्र धातु निपजाना ॥ हो भवि प० ॥ पात्र लोहादिक अपर जातिना, तेह जघन्य कहाना ॥ हो भवि प० ॥ ५ ॥ भावपात्रनो लंछन कहिये, सुणिये सुगुण सयाना ॥ हो भवि प० ॥ पंचम चरणधरे वलि वरते क्षीणमोह गुण ठाना ॥ हो भवि प० ॥६॥ रतनपात्र सम ते सर्वोत्तम, पात्र कह्यां जिन Saatholoclinedusariladasthalalalahkakakakakakakistanohasamabakistakalalailitishshaskalatatishshikitishs0SYNishshapaktiplineNotebalatakobapoompatibhattasootikhaitakistake सन्नतप्रधान- -- -Aawara "लयमल्ललल्याणकालल्लामाल 46 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అవునందు నందనవనం wwwAawaranwwwwmoveursawar. జనవరతనము వున్న మన जैन-रत्नसार भाना हो भवि प०॥ प्रवरनाण किरिया धर मुनिवर लाभालाभ समाना॥हो * भवि प० ॥ ७ ॥ ते कांचन भाजन सम कहिये, भवजल तारन याना ॥ हो भवि प० ॥ शुद्ध मन द्वादश व्रत दरसन धर, तारपात्र सम | जाना ॥ हो भवि प० ॥८॥ शुद्ध समकितधर, श्रेणिक परमुख, रह्या अवि रति गुणठाणा ॥ हो भवि प० ॥ ताम्रपात्र सम एहने कहिये, भावी गुणमणि खाना ॥ हो भवि प० ॥९॥ अपर सकलजन मिथ्यादृष्टी लोहादि पात्र गिनाना ॥ हो भवि प० ॥ जिनशासन रंगे रंगाना, वाचंयम सुप्रमाना ॥ हो भवि प० ॥१०॥ एहने दान दिया शिव लहिये, एह सुपात्र पहिचाना'॥ हो भवि प० ॥ पंचदान दशदान निकरमें, अभयसुपात्र महिराना ॥ हो भवि प० ॥११॥ नरवाहन शुभ पात्र दानतें, भये जिन हरष निधाना ॥ हो भवि प० ॥ शालिभद्र वलि सुरसुख लहियो, सुरनर करय वखाना ॥ हो भवि प० ॥१२॥ ॥काव्य ॥ अणंतविण्णाण विभायरस्स, दुवाल संगी कमलाकरस्स । सुलद्धवासा जयगोयमस्स, णमो गणाधीसर गोयमस्स ॥१३॥ ॐ ह्रीं श्रीगौतमाय नमः। षोडश वैयावृत्य पूजा ॥दोहा॥ सोलम पद में जाणिये, वेयावच्च विधान । अखिल विमल गुणमणितणो, सोहे प्रवरनिधान ॥१॥, जिनसूरी पाठक मुनी, बालक वृद्ध गिलान ।। तपसी चैत्य संघ, करो वेयावच्च प्रधान ॥२॥ ॥राग जंगली ॥ (मुने म्हासे कब मिलशे मन मेलू ) सेवोभाई, सोलमपद सुखकारी । श्रीजिनचंद्र प्रमुख दशपद नो, करो वेयावच्च भारी ॥३॥ श्रीतीर्थंकर त्रिभुवन शंकर, अवर केवली हारी। मनपर्यवधर अवधिनाणधर, चौदपूरव श्रुतधारी ॥ से० ४ ॥ दशपूर्वी उत्कृष्ट ममममममननननननननननन्मन्बूण मूल्यवानमनग्राना-वस्थू SHARIRA M AYANENEkalakk नचक्रवत्रण -Karatahikattachi.velamNE Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा - विभाग ३६३ .. चरणधर, लब्धिवंत अणगारी । ए जिन कहिये इन बंदनतें, भवि हुवे जिन अवतारी ॥ से० ५ ॥ जिनमन्दिर बिम्ब करिय भरावे, पूज करे मनुहारी । वेयावच्च कहीये ए जिनकी, करिये भवजलतारी ॥ से० ६ ॥ आचारज परमुख नवपदकी, वेयावच्च विजितारी । भक्तिपूर्व वस्त्रौषध अनजल, देवे गुणविस्तारी ॥ से० ७ || पंचसय मुनिनी करिय वेयावच्च, पूरबभव व्रतचारी । भरत बाहुबलि चक्रीपदभुज, बलि लह्यो वरी शिवनारी ॥ से० ८ ॥ नंदिषेण सुलसा मुनिजनकी, करीय वेयावच्च सारी । तिनसे स्वर्गलोकमें दुईकी, भई प्रशंसा भारी || से० ९ ॥ इत्यादिक सोलमपद उधरे, बहुलभव्य कमजारी । तिनसे इन वेयावच्च पदकी, वारि जाउं वार हजारी || से० १० ॥ नृप जीमूतकेतु सोलमपद, सेवी भये दुखवारी । श्रीजिन हरष धरी हरिवंदित, शरणागत निसतारी ॥ से० ११ ॥ ॥ काव्य ॥ मण सव्वातिसया सयाणं, सुरासुराधीसर वंदियाणं । रबिंदु बिंबा - मल सग्गुणाणं, दयाधणाणं हि णमो जिणाणं ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनेभ्यो नमः । सप्तदश समाधि पद पूजा ॥ दोहा ॥ सतरम पदमे सेविये, सहु सुख करण समाधि । जिन सेवनतें भविकनो, गमे व्याधि अरु आधि ॥ १ ॥ ब्रह्मनगर पथ विचरतां, पर पाथेय समान । ए समाधि पद जाणिये, सुरमणि किये हैरान ॥२॥ ॥ राग कहरो ॥ ( बाजे तेरा बिछुआ रे ) मेरी रे समाधि चरण चित बसियो, तसु गुण समरण कियो मन बसियो || मे० ॥ सकल जगत जन जिनकुं स्तुवतुहैं, अनुभवरंगे अतिहि विकसियो || मे० ३ || द्रव्यत भावत दुविध समाधि, सुरतरु मानूं नित Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ............................. ३६४ जैन-रनसार Fan नित भुवन विलसियो। असनं वसन सलिलादिक भक्ति, करिय संघनी करुणा रसियो ॥ मे० ४ ॥ द्रव्य समाधि प्रथम ए सुनिये, कह्यो जिन । लोकालोक दरसियो । सारण वारण चोयण प्रमुखे, पतित सुथिर करे धरम । हरसियो ॥ मे० ५ ॥ भाव समाधि द्वितीय ए कहिये, जो करे सो जिन चरण फरसियो। सकल संघ को जो उपजावत, दुविध समाधि दुरित तसु नसियो ॥ मे० ६ ॥ सुमति पंच त्रण गुपति धरे नित, सुरगिरिवरनो धीरज करसियो । जगत जंतु अघ तपत हरनकू अनुभव अमृत धार वरसियो ॥ मे० ७ ॥ ध्यान अनल करमेंधन दाहत, जिनसें परगुण परणति . खिसियो । ए मुनितरणि तेज सम दीपत, अमृत सुखामृतपान तरसियो ॥ मे० ८ ॥ इन पदमें ऐसे मुनि जनके, समरनतें हुय जग अवतसियो । ए पद सेवी नृपति पुरंदर, भये जगपति जिन हरष हुलसियो । मे०९॥ प्रयत्नानलप्रयत्न अस्पताल ल्यायत्रतत्र वस्त्र प्रस्त्र 'PRIMAaplizatistiantatistianilisakatranslatakhtaretakstatistrictiotishshtolasavantalil || काव्य ॥ yantalidasalishak सविदिया पारविकारदारी, अकारणा सेसजणोवगारी। महाभयातंकगणापहारी, जयो सदा शुद्ध चरित्तधारी ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं श्रीचारित्रधारिभ्यो नमः । अष्टादश ज्ञानपद पूजा ॥ दोहा.॥ श्रुत अपूर्व अहिवं सदा, अष्टादश पद मांहि । इण पद सेवक जिन तणा, सहु संकट भय जांहि ॥१॥ जैसी कुमतिनि शुद्धता, घोर तपे करि होय । तत् अनंत गुण शुद्धता, सुज्ञानीकी जोय ॥२॥ (दिलदार यार गबरू, राखुरे हमारा घटमें) जिन चन्द्र नाम तेरा, महाराज ज्ञान तेरा। जीते रे विकट भव भेटने, सदपूर्वज्ञान धरणा ॥ वितरे जिनेन्द्र चरणा, करे सर्व कर्म हरणा ॥ जी० ३ ॥ जगमें महोपकारी, भय सिन्धु वारि तारी, कुमतांधता विदारी ।। जी० ४ ॥ सहु भावनो प्रकाशी, परम स्वरूप वासी, परमात्म irihsikheATARAathtdainik.l-TiTar-ke-Pradwale Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I n testantsethrdarshikskskskobaonkkiesktooteobhrabankikebab tockroketakskoshtikhittoide पूजा-विभाग s सद्मवासी ॥ जी० ५ ॥ बिनु हेतु विश्वबंधु, गुण रत्न राशि सिंधु, समता पियूष अंधू ।। जी० ६ ॥ स्याद्वाद पक्ष गाजे, नयसप्तसे विराजे, एकान्त पक्ष भाजे । जी. ७ ॥ लहि तीर्थ पाव तारा, इनसे जिनेन्द्र सारा, भविका किया उधारा ॥ जी० ८ ॥ पद सेवि ए नरिन्दा, भये सागरादि चन्दा, जिन हर्षके समन्दा ॥ जी. ९॥ ॥ काव्य ॥ सुद्धक्किया मंडल मंडणस्स, संदेह संदोह विखंडणस्स । मुत्ती उपादाण सुकारणस्स, णमोहि नाणस्स जसोधणस्स ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानाय नमः । एकोनविंशतितम श्रुतपद पूजा ॥ दोहा ॥ पाप ताप संहरण हरि, चंदन सम श्रुत हार ।। तत्त्व रमण कारण करण, अशरण शरण उदार ॥१॥ इगुनवीस पदमे भजो, जिनवर श्रुतनी भक्ति । इनपद वंदनसे लहे, विमलनाण युत शक्ति ॥२॥ ॥ राग ।। (ब्रजवासी कानतें मेरी गागर ढोरी रे) भविजन श्रुतभक्ति, चरण शरण उर धरिये रे । ए श्रुतभक्ति सुमंगल माल, विमल केवल कमलावरमाल ॥ भवि० ३ ॥ सकल द्रव्यगण गुणप। योय, प्रगट करण ए श्रुत मन भाय । अतुल अनंतकिरण समवाय, धरण तरणगण सम कहिवाय ॥ भ० ४ ॥ ए श्रुतकुमति युवतिन संग, अगणित रमण तणो करे भंग । अरथे भाख्यो श्रीजिनराज सूत्रे गणधर मुनि सिर ताज ॥ भ० ५ ॥ ए श्रुत सागर अगम अपार, अनंत अमल गुणरयणा धार । भवभय जलनिधि तरण जहाज निसुणी मगन भई सकल समाज ॥ भ० ६ ॥ भवकोटी लगे तप करी जीव अज्ञानी करे जितनी सदीव । कर्मनिरजरा तितनी होय, ज्ञानीके इक क्षणमें जोय ॥ भ० ७॥ एक सहस कोडि छसहकोडि, चतुरतीस कोडि अक्षर जोडि । अडसठि लाखहु alahakiclestatislcolaskalkalaakolahabakaratacardialpotohelalistialisoltikdalisonkelalockagladsiolicleshonalidadasticialistinioditionalishalirialiladrenakaasharadhakalphalustriolendradisiakalentistinentasterdiciar-oltdosbe Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nxnsaktakkarketkarktetexkakakakakar saktehtty kkkarakhters kkkkakkertehnaketrain जैन-रनसार SAHARANASIKKIMata r a m .ketAMANANEEY सात हजार, अडसय असीय प्रमित चितधार । भ० ८ ॥ इतने वरनसे इक पद होय, एक श्लोकका गणित ए जोय । इक पदको परिमाण ए जाण, इण पदसे आगम परिमाण ॥ भ० ९ ॥ तीन कोडि अरु अडसठि लाख, सहस वैयालिस ए पद भाख । इतने पदसे अंग इग्यार, केरी गणना भवि चित धार ।। भ० १० ॥ बारम दृष्टिवादको मान, असंख्यात पदको पहिचान । इनको चौदपूरव इक देश, इसको पार लह्यो है गणेश ॥भ०११॥ एह दुवालस अंग उदार, एहनी जइये नित बलिहार । एहनी द्रव्यभाव बहु भक्ति, करिये धरिये जिनपदयुक्ति ॥ भ० १२ ॥ रत्नचूड नृप सुखमा धार जिनश्रुत भक्ति करी हितकार । भये जिन हरष परमपद दाय, जिनके सुर नरपति गुण गाय ॥ भ० १३ ॥ ॥काव्य ॥ अण्णाणवल्ली वणवारणस्स, सुबोहिबीजांकुरकारणस्स । अणंतसंसुद्ध गुणालयस्स, णमो दयामंदर सत्थुयस्स ॥१४॥ ॐ ह्रीं श्रीश्रुताय नमः । विंशतितम श्री तीर्थपद पूजा ॥ दोहा ॥ प्रवचनीय अरु धर्मकथी, वादि निमित्ती जाण । तपसी विद्या सिद्ध पुनि, कवि एह मुनिभाण ॥१॥ भाव तीर्थ प्रभुजी कह्या, प्रभावीक ए अष्ट । तीर्थ प्रभावन जे करे, ते फल लहे विशिष्ट ॥२॥ ॥राग धन्या श्री॥ तीरथ परभावन जयकारा ॥ ती. जिनसे भव सागर जल तरिये; ते । तीरथ गुण धारा ॥ ती. ३ ॥ जिनके गणधर तीरथ कहिये, वलि सहु संघ सुखकारा । एह महा तीरथ पहिचानो, वंदि लहो भवपारा | ती० ४ ॥ अडसठ लौकिक तीरथ तजि करि, भज लोकोत्तर सारा । द्रव्यभाव दोय भेद लोकोत्तर, स्थिर जंगम भयहारा ॥ ती० ५॥ पुंडरीक पर मुख पंच Tollipiminsleelonlordenimlaskelescomlalbelamboleelaelialetallelodlalita A SElimithililianiantertainalishanMATRArtistshaalanaaranaitikalakhainik Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा-विभाग ....... ................................................. .................. .................... .. ...... । तीरथ, चैत्य पंच परकारा। एह वर तीरथ थावर कहिये, दीठां दुरित । बिदारा ॥ ती० ६ ॥ श्रीसीमंधर प्रमुख वीश जिन, विहरमान भवतारा । में दोय कोडि केवल विचरंता, जंगम तीर्थ उदारा ॥ ती० ७ ॥ संघ चतुर्विध, जंगम तीरथ, जिन शासन उजियारा । वर अनंत गुण भूषण भूषित, हैं जिनको नमत जिनसारा ॥ ती० ८ ॥ ए तीरथ परभावन करिये, शुभ भावन आधारा । शिव कज जल विंशति तम पदकी, जाऊं प्रतिदिन बलिहारा ॥.ती. ९ ॥ ए तीरथ परभावन करतो, मेरु प्रभु अविकारा । पद जिन हर्ष लहीने तरिया, भवभय जलधि अपारा ॥ ती० १० ॥ ॥ काव्य ॥ महा महानन्दपद प्रदाय, जगत्रयाधीश्वर वंदिताय । जिनश्रुत ज्ञान पयोनदाय, नमोऽस्तु तीर्थाय, शुभंददाय ॥११॥ ॐ ह्रीं श्रीतीर्थाय नमः । विशतितम पद स्तुति ॥राग गरबो ॥ (सुणि चतुर सुजाण परनारी सूंप्रीतड़ी) चित हरख धरी, अनुभव रंगे बीस परमपद वंदिये । शिवं रमणि वरी, केवल सखिय सहाय, करी । चिर नंदिये । ए वीस 'चरण असरण सरणा, चिर संचित दुरित तिमिर हरणा । नित चित ए पद समरण धरणा !!१॥ ए पद समरण जिण 1 चित धरिया, तरिया तरसे तरे भव दरिया । सदानंत भविक सहु भयहरिया ॥ चि० २ ॥ ए पद गुण सागर मनुहारा, वर्णन तरणी ए बहुहारा । इन्द्रादिक सुर न लह्यो पारा ॥ चि० ३॥ ए पद अतिशय महिमा धारा, आश्रित पद कमला भरतारा । जिनचन्द्रानन्द घन पद कारा ॥ चि० ४ ॥ जिन हर्ष सूरिन्द के शिव करणा, चन्द्रामल गुण विंशति चरणा हुययो प्रभु अरज ए अब धरणा ॥ चि० ५॥ - कलश ए वीश थानक भुवन नंदन अघ निकन्दन जानिये । विवुधेन्द्र चन्द्र नरेन्द्र वंदित पद जिनेन्द्र बखानिये । ए वीश पद भव जलधि तारण, AdrobatehphirurtaliationkrankarpitkiriekisairticislikakkalinkalahaMailickakirkeAMAlienskrichakeliacokriandereirankalankirlialikirlineselittloolertatislerkariskeletalal-didi holalelatitatulatort.1. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BAtkira- e - ३६८ जैन-रत्नसार । तरण गुण पहिचानिये ॥ इम जाणि भविजन कुशल कारण, वीश पद उर आणिये ॥१॥ इह वरस* चन्द्र दिनेन्द्र हरिमुख, विधि नयन छिति मिति धरूं । तिह मास भादव -धवलदल तिथि, पंचमी रविवासरूं । बंगाल - जन पद जहां विराजित, शिखर तीरथ गिरिवरूं । सहु नगर शोभित, अजीमगंजपुर द्वितीय बालूचर पुरूं ॥२॥ खरतर गणेशर विजित मुरगुरु, विमल गुण गिरिमाधरा । गुण भवन भविजन नलिन कानन नित विकाशन दिन करा । मुनिचन्द्र श्रीजिनलाभ सुरीन्द सुगुरु महीयल युगवरा ॥ सकलेन्द्र बंद्य जिनेन्द्र शासन मंडना नितहित धरा ॥३॥ तसु पट्ट उज्जल शिखरि गणवर, उदय गिरि वासर करा। योगीन्द्र वृन्द नरेन्द्र वंदित, चरणपंकज गणधरा । आचार पंच, छतीस गुणधर, सकल आगम सागरा॥ युगप्रवर श्री, जिनचन्दसूरि गुरु सकलसूरीसरा ॥४॥ तसु चरण कमल, बियुगलसेवन, अहनिशि मधुकरता धरी । पुन सुगुरुपद, अरबिंद युगनी है कृपा नित चित आदरी ॥ गणधार श्रीजिन हरषसूरी, हरषधर धन अघहरी। या बीस पदकी विविध पूजन, विधि तणी रचना करी ॥५॥ మనతనమునందనవనందనవనమునంతయుగtests attacks KKRANTEEMAMHEMANTrotharototadalNLINEKehliadionlailaalachilanat a L ऋषि मण्डल पूजा ' प्रथम पूजा ॥ दोहा ॥ प्रणमी श्रीपारस विमल, चरणकमल सुखदाय । ऋषिमंडल पूजन · रचं, वरविध युत चितलाय ॥१॥ नंदीश्वर मंदिर गिरे, शाश्वत जिन महाराज | अरचे अड विधि पूजसे, जिमि समस्त सुरराज ॥२॥ तिम चितजिनपति गुणधरी, श्रावकसमकित धार । विरचे जिन चौबीस की, अडविधि पूज उदार ॥३॥ * यह पूजा श्री जिनहर्षसूरिजी महाराज की बनाई हुई है और सम्वत् १८७१ के लगभग भादवा सुदी ५ को बनी है। aterkonkhathanashlil Page #393 --------------------------------------------------------------------------  Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जैन - रत्नसार द्वितीय श्री अजित जिन पूजा ॥ दोहा ॥ जय जिनंद दिणंद सम, लखि भविजन विकसात । परमानंद सुकंद जल, विजया मात सुजात ॥१॥ ॥ राग ॥ ( आय रहो दिल बागमें प्यारे जिनजी, ) ● एक अरज अवधारिये अजित जिन एक अरज अवधारिये || अजित जिनेसर, जग अलवेसर, कूरम निजर निहारिये । तारण तरण विरुद सुणि तेरो, आयो शरण तिहारिये ॥ अजित जिन एक० २ ॥ चरम सिंधु भवभय जल निपतित, चरण पतित मोहे तारिये । परमानन्द धन शिव वनितानन, कंज मधुपान सुकारिये ॥ अजित० ३ ॥ चिर संचित घन दुरित तिमिर हर, तुम जिन भये तिमिरारिये । कहे शिवचन्द अजित प्रभु मेरे । एह अरज न विसारिये || अजित ० ४ ॥ ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलब्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः विविध नव्य मधु प्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ||५|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद्अजित जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुप्पं, धूपं, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा । तृतीय श्री सम्भव जिन पूजा ॥ दोहा ॥ जय जितारि सम्भव सदा, श्री सम्भव जिनराज । सकल लोक जिण जीत लिये, जीतो मोह समाज ॥१॥ जैनाकर सेवां तेज सनूर | गुण पूर, भक्ति भाव पूरण उरधार, मुक्तिपुरी पथसार ||२|| Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ poketrekssexhdhdhoteszkrkrarekskratistkhtereakitrekshetrierwisktat thaderisis essestakeseksixtectory पूजा-विभाग ॥ राग बेलाउल ।। (गंधवटी घनसार केसर, मृगमदारस भेलीये ) अपरिमित वर शिखर सागरधार सम्भव कार ए, जिनराज सम्भव पाय वंदो लहो भवजल पार ए । वलि जलधि जात सुजात कुंजर कुम्भ • भंजन जानिये, तसु जनक नाम समान नामा भए जिन उर आनिये ॥३॥ जसु चरण पंकज मधुर मधुरस पान लय लागी रह्यो, मिल करि सुरासुर खचर व्यंतर भमर नितचित ऊमह्यो। जसु चरणकमलेप्लवग लांछन कनक सुवरण कायए । सहु भुवन नायक सुमति दायक जननि सेना जायए ॥४॥ जसु मधुरवाणी जगवखाणी पैंतीसवर गुणधारिणी । संसार सागर भय कराभर पतित पार उतारिणी । स्याद्वाद पक्ष कुठार धारा कुमति मद तरु दारिणी, प्रभुवाणि नित शिवचन्द्र गणिके हुवो मंगलकारिणी ॥५॥ ॥ काव्य ॥ ___ सलिल चन्दन पुष्प फलबजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधु प्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥६॥ ॐ ह्रीं परमपरमामने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् सम्भव जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूपं दीपं, अक्षतं, नैवेद्य, फलं, वस्त्रं, मुद्रा यजामहे स्वाहा। चतुर्थ श्री अभिनन्दन जिन पूजा ॥दोहा॥ श्री चतुर्थ जिनवर सदा, पूजो भविचित लाय । भक्ति युक्ति संकट हरण, करण तीन सुखथाय ॥१॥ ॥राग सोरठ ॥ (कुंद किरण शशि ऊजलो रे देवा०,) संवर नन्दन जिनवरू रे वहाला अभिनन्दन हितकामी रे । जगदभिनन्दन जगगुरु रे वहाला, दुरित निकन्दन स्वामी रे ॥२॥ लोकालोक प्रकाशता रे वहाला, करता अविचल धामी रे । अव्यावाध अरूपिता Kalakakakakakaraokkakakakakakashradsetokatkarsa Pachheskosalsakacilitati ki fodh wakistastronokra KYAKirakshitakhtakot-is-tealinikita ineerthatants Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैन - रत्नसार रेवाला, विमल चिदानन्द खामी रे ॥३॥ वांछित पूरण सुरमणि रेवहाला, ए प्रभु अंतरजामी रे । ऐसे जिन महाराज रे वहाला, शिवचन्द नमें शिर नामी रे ||४|| ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलब्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधु प्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ||५|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् अभिनन्दन जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं पुष्पं, धूप, दीप, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां जाम स्वाहा । पञ्चम श्री सुमति जिन पूजा ॥ दोहा ॥ पञ्चम जिननायक नर्मू, पंचमि गति दातार । पंचनावर विमल कज, वन विकसन दिनकार ॥१॥ ॥ राग कैरवो ॥ ( बंसी तेरी वैरिणी बाजे रे, ) सुद्धभाव चितथिर घरिके रे । पूजा सुमति जीणंद ॥ सुद्धभाव० ॥ जिन भक्तिकरण रसीला, लहो परम आनंद ॥ सुद्धभाव० २ ॥ जिनराज सुमति समन्दा, करें कुमति निकन्द । प्रभुना चरण अरविन्दा, चंदे असुर सूरिन्द | सुद्ध० ३ || कनकाभ तनु द्युति सोहे प्रभु सुमंगलानन्द । करुगोपशम रस भरिया, बंदे नित शिवचन्द || सुद्ध० ४ ॥ ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलब्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ||५|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् सुमति जिने - न्द्राय जलं चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा । " Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा - विभाग षष्ट पद्मप्रभ जिन पूजा ॥ दोहा ॥ हिव षष्टम जिनवर तणी, पूजन करो उदार । भविचित भक्ति धरि करी, सुख संपति करतार ॥१॥ ॥ राग सारंग ॥ ३७३ ( बाबन चंदन घसि कुम कुमा० ) हां होरे देवापदम प्रभु मुख चन्द्रमा, नित सकल लोक सुखदाय ए ॥ हां० ॥ हरिसुर असुर चकोरड़ा, नित निरख रह्या ललचाय ए ॥ हां ॥ २ ॥ जिन मुख वचन अमृत तणो, जे श्रवण करे भवि पान ए ॥ हां ॥ ते अजरामरता लहे, हरिगण करे जसु गुण गान ए || हां० ॥३॥ घर नृप कुल नभ दिन मणि, प्रभु मात सुशीमा नंद ए ॥ हां ॥ प्रभु दर्शनतें प्रति दिने, होज्यो शिवचंद आनन्द ए ॥ हां० ॥४॥ ॥ काव्य ॥ 5 " सलिल चन्दन पुष्प फल व्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिजे ॥५॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् पद्म प्रभ जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा | सप्तम सुपार्श्व जिन पूजा ॥ दोहा ॥ श्रीसुपार्श्व सुरतरु समो, कामित पूरण काज । भोभविजन पूजो सदा, वसुविधि पूज समाज ॥१॥ ॥ राग कल्याण ॥ ( मेरा दिल लाग्या जिनेश्वर से ) मेरी लागी लगन जिनवरसे ॥ मेरी० ॥ जैसे चन्द चकोर भमरकी, केतकि कमल मधुरसे || मे० ॥ एह सुपारस प्रभु भये पारस, गुणगण Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैन - रत्नसार समरण फरसे || मे० ॥ चेतन लोह पणो परिहरके, हुय ले कंचन सरिसे, || मे० ॥२॥ ए प्रभु करुणा करकूं धरिले, उर जिम कमल भमरसे ॥ मे० ॥ जे भविजिन पद लगन घरे तसु, नहिं भय मरण असुरसे ॥ मे० ॥३॥ मात पृथ्वी तनु जात तनु द्युति, सम शुभ कंचन सरसे ॥ मे० ॥ कहें शिवचन्द्र चित्त नित मेरो, रहो प्रभु पद लय भरसे ॥ मे० ॥४॥ isrockbay **** ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलवजैः, सुविमलाक्षत दीपसुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ||५|| ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् सुपार्श्व जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा | अष्टम श्रीचन्द्र प्रभ जिन पूजा ॥ दोहा ॥ अष्टम जिनपद पूजिये, विविध कष्ट हरनार । अष्टसिद्धि नवनिधि लहे, जिन पूजन करतार ॥१॥ ॥ राग भीम मल्हार देशी कडखानी ॥ ( मेघ बरसे भरी पुप्फ बादल करी ) परमपद पूर्व गिरिराज परि उदय लहि, विजित परचन्द्र दिनकर अनन्ता | चन्द्रप्रभ चन्द्रिका विमल केवल कला, कलित शोभित सदा जिन महन्ता || २ || परम ० ॥ कुमतिमत तिमिर भर हरिय पुन भूरि भवि कुमुद सुख करिय गुणरयण दरिया । गहिर भव सिंधु तारण तरणि गुण, धारि भव तारि जिनराज तरिया || परम० ||३|| राखिये आज मोहि लाज जिनराज प्रभु, करण सुख चरण जिन शरण परिया । परम शिवचंद पदपद्म मकरंद रस, पान नित करण तत्पर भरीया || परम० ||४|| ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुप्प फलत्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा - विभाग ३७५ नव्य मधुप्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ॥५॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जलं चन्दनं पुष्पं, धूपं दीपं अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहेस्वाहा । नवम श्री सुविध जिन पूजा ॥ दोहा ॥ सुविध सुविध समरण थकी, कामित फल प्रकटाय । अतीगहन संसार वन, बहुल अटन मिट जाय ॥१॥ ॥ राग ॥ ( चंपक केतिक मालती, ) सुविध चरणकज वंदिये ए, नंदिये अति चिरकाल । शिव तरवारि निकंदिये ए, विघन कंद तत्काल || हां ए० २ || आज जन्म सफल भयो, दीठो प्रभु दीदार | तनु मन हग विकसित भये, जिम कज लखि दिनकार || हां ए० ३ || अमृत जलधर वरसियो, भवि उरक्षेत्र मझार । दर्शन सुरतरु ऊगियो, शिव फलनो दातार ॥ हां ए० ४ ॥ ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलवजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ||५|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् सुविध जिने - न्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा । दशम श्री शीतल जिन पूजा ॥ दोहा ॥ मुझ तन मन शीतल करो, श्री शीतल जिनराय । तुम समरण जलधारसे, अंतर तपत पुलाय ॥१॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S tatishthr ३७६ that a akakattalitariate जैन-रनसार the S ॥राग घाटो॥ ( दादा कुशल सुरिन्द०) मेरे दीन दयाल तुम भये सकल लोक प्रतिपाल। सुणि शीतल जिनवर महाराज, चरण शरण धर्यो प्रभुनो आज ॥ मेरे दीन० ॥ न नमू सहु सविकारी देव, करतूं चरण कमलनी सेव ॥ मेरे० २ ॥ जैसे सुमिरण करतल पाय, कुण ले कांच सकल हुलसाय । तुम सम सुरवर अवर न कोय, हेर हेर जग निरख्यो जोय ॥ मेरे० ३ ॥ प्रभु दर्शन जलधर घनघोर, लखिय नृत्य करै भविजन मोर । पद शिवचन्द्र विमल भरतार, अरज एह, उर धारिये सार ॥ मेरे० ४ ॥ काव्य॥ सलिल चन्दन पुष्प फलबजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः। विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥५॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने । अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् शीतल जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा। एकादश श्री श्रेयांस जिन पूजा ॥दोहा॥ श्रीश्रेयांस जिनेन्द्र पद, नद द्युति सलिलाधार । जे नेत्रे मज्जन करे, ते शुचि हुई विधुतार ॥१॥ ॥ राग ॥ ( सोहम सुरपति वृषभ रूप करि न्हवण०,) श्रीश्रेयांस जिनेश्वर जग गुरु, इन्द्रिय सदनसमंद हैं । जसु वसु विध पूजन से अरचो, उर धरि परमानन्द हैं ॥ ए समकित धर श्रावक करणी, हरिणी भविमन रंग हैं। विजय देव जिन प्रतिमा पूजी, जीवाभिगम उपांग हैं ।। श्री. २ ॥ सूरियाभ प्रभु पूजन करियो, राय पसेणी उपांग म हैं । ज्ञाता अंगे द्रौपदी श्राविका, पूज्या जिन प्रति बिम्ब हैं । काल अनंत EENETHAMEEDEntrancreathtakaletastatin-attarashatathakatratikaMAHESTEELECRECEMARAKHARASimiliarrestertop a k e st ainik Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा - विभाग भमसी भव वनमें, मंदुमती भय भ्रान्त हैं | श्री० ३ ॥ विष्णु मात तनु जात नृप, विमल कुलंबर हंस हैं । सकल पुरन्दर अमर असुरगण, शिरोवरि प्रभु अवतंस हैं । इम सुरवरनी परिश्रावक जे, पूजे जिन उछरंग हैं । शिवचन्द्र परमपद लहिये, निश्चय करि भव भंग हैं || श्री० ४ ॥ ただただきます ३७७ ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलव्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ॥ ५॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् श्रेयांस जिने - न्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं वस्त्रं, मुद्रां जाम स्वाहा । द्वादश श्री वासुपूज्य जिन पूजा ॥ दोहा ॥ हिव बारम जिनवरतणी, पूजन करिये सार । भाव भक्तियुत भवि सदा, द्रव्य भक्ति चितधार ॥१॥ ॥ राग ॥ ( सब अरति मथन मुदार धूपं ) 45 सकल जगजन करत वंदन, जया नंदन सामि रे दुरित ताप निकन्द चन्दन, परम शिव पद गामि रे ॥ देवा० २ ॥ नृपति वर वसुपूज्य नृप कुल, विपिन नंदन जात रे । सुहरि चंदन नंद नंदन, नंद मदकिय घात रे || देवा० ३ || वासु पूज्य जिनेन्द्र पूजो सकल जन महाराज रे । करत नुति शिवचन्द्र प्रभु ए, निखिल सुर सिरताज रे ॥ देवा० ४ ॥ ॥ काव्य || सलिल चन्दन पुष्प फलव्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ||५|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् वासुपूज्य la todenteone's tank tonto to to to Yects Yo Yo to Yocto do to Ya l Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ebratra andutodalotate- ३७८ N-Y-ANKalaksheetalalitali-Featest neelakiate tarakash aartistatistskarat-krt जैन-रत्नसार Praman. mms. जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूप, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्र, मुद्रा यजामहे स्वाहा। त्रयोदश श्री विमल जिन पूजा ॥दोहा ॥ विमल विमल प्रभु कर मुझे, मलिन कर्म करो दुर । तेरम प्रभु रमिये सदा, मुझ उर मझि गुणपूर ॥१॥ ॥ ढाल ॥ (सिद्ध चक्र पद वंदो रे भ०) । विमल चरण कज वंदो रे, वंदनसे आनन्दो रे । जसु गणधर मुनिवर गण मधुकर, सेवत पद अरविन्दो। श्याम उदर सुगति मुक्ता फल, कृतवर्मा नृप वंदो रे ॥ भवि० २ ॥ सहुजग मंडल विमल करणकू, जिन शासन नभ चंदो। उदय भयो भवि कुमुद विकसवा, वर गुण रयण समंदो रे ॥ भवि० ३ ॥ यदि भव बंध हरण भवि चाहो, प्रभु वंदी चिरनंदो । विमल चिदानन्द धन मय रूपी, नित बंदत शिवचन्दो रे ॥भ०४॥ ॥काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलवजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः। विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥५॥ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् विमल जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा । चतुर्दश श्री अनन्त जिन पूजा ॥दोहा॥ हिव चउदम जिन पूजतां, हरिये विषय विकार । भो भवियण सुणिये सदा, ए प्रभु सरणाधार ॥१॥ ॥ ढाल ॥ ( पंचवर्णी अंगी रची०,) पूज करणी प्रभुजीनी दुरित निवारी ॥ दुरित० ॥ अनंत तरणि हिम Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा-विभाग ३७६ I किरण तरुण तर, किरण निकर जीता है भारी । अनंत नाणवर दर्शन तेजे, प्रभुसूं यशोदर हैं अवतारी ॥ पू० २ ॥ लोकालोक अनंत द्रव्य गुण, पर्याय प्रकट करण है हारी । तातें अन्वय युत जिन धरियो, अनंत नाम अति है मनुहारी ॥ पू० ३ ॥ सिंहसेन नृप नंदन वंदन करते इन्द्रचन्द्रे सुखकारी । सादि अनंत भंग स्थिति धरियो, पद शिवचन्द्र विजयये - धारी ॥ पू० ४ ॥ ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलनजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ||५|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् अनन्त जिने - न्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूप, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा । पञ्चदश श्रीधर्म जिन पूजा ॥ दोहा ॥ भानुभूप कुल भानुकर, पनरम जिनसुर सार । शोभित सहु जग विपिनजन, हरष फलद जलधार ॥१॥ ॥ ढाल || धर्म जिनेश्वर धरम धुरंधर, जग बन्धव जग बाला । सुव्रता नंदन पाप निकंदन, प्रभु भये दीन दयाला | मैं वारिजाऊं २ ॥ प्रभु धीरज गुण निरखि अमर गिरि, लजि लीनो अचला धारा । जिन गंभीरता चरम सिंधु लखि, किय लोकान्त विहारा ॥ मैं० धर्म० ३ ॥ ए जिन चंद्र चरण अरचनते, लहि जिन पति अवतारा । करम वैरि दल करि भवि लहिस्यो, पद शिवचन्द्र उदारा ॥ मैं० धर्म० ४ ॥ ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलब्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ||५|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने Inotonten in Yastertorten tenants to frotects its tentaclestonte to vote totorte tela tented to totalentrated Youtoutant You to trita tartetesten av locks to rotor tottertontent in to to 're Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RaatshaayatarakestatekarActokamatechntereetitimetabooshtrabiaenakaastestobokatondolestati state ३८० जैन-रत्नसार ३८० . .. . " श्रमप्रभूत्रप्रवन नगणनामा प्रयाप्रमाप्रश्न CAMKATARAKrikashatraramparantIATEKARKET4355552 2 अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् धर्म जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुप्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा। षोडश श्री शान्ति जिन पूजा ॥दोहा॥ अचिरा उदरे अवतरी, शांति करी सुखकार । मारि विकार मिटायके, नामधरयो शांतिसार ॥१॥ ॥ राग विभास ॥ (भावधरि धन्य दिन आज सफलो गिj,) शान्ति जिनचंद्र निज चरण कज शरण गत, तरणि गुणधारि भववारि तारी । कुमति जन विपिन जनि, कुमति घन वृतनि तति, छितिन शितधार तरवार वारी ॥ शां० २ ।। एक भव पद उभय चक्रधर तीर्थकर, धारिया वारिया विधनवारी। सकल मद मारिया, विमल गुण धारिया सारिया भक्ति वंछित अपारी ॥ शा० ३॥ हरिण लंछन धरा, वर्ण सुवरण करा, सुरवरा हित धरा गत विकारी । मोहभट धरणि धरगण हरण वजूधर, कुमुद शिवचन्द्र पद रजनिकारी ॥ शा० ४ ॥ ॥काव्य ॥ ___सलिल चन्दन पुष्प फलवजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥५॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् शान्ति जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूप, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा। सप्तदश श्री कुन्थु जिन पूजा ॥ दोहा ॥ सतरम जिनवर दीपसम, मझि भवसागर जाण । भक्ति युक्ति नित पूजिये,लहिये अमल विनाण ॥१॥ IERRESS RELEADERSHEKHAKESTREEThain ATTARAKHtiohakiri Exation Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shందనందుడు యుగంధరుడు మదురుగtarrestrike पूजा-विभाग ३८१ www innrntistiatistatistiatili-REATINCT402-tanki- kLYA అనంతరం తనననన తదనం ॥ ढाल॥ (अरिहन्त पद नित ध्याइये) कंथु जिणंद गुण गाइये ॥ वारि० ॥ मन वंछित फल पाइये रे । । प्रभु समरण लय लाइये ॥ वारि० ॥ भविभव तजि शिव जाइये रे ॥ । कुंथु० ॥२॥ भव जलगत निज आतमा ॥ वा० ॥ करुणा उर धरि ताइये। रे । चरण करण उपयोगिता ॥ वा० ॥ ग्रहण करण कू धाइये रे ॥ वा० ॥ कुं० ॥३॥ ए प्रभु दर्शन जीव ने ॥ वा० ॥ अनुभव रसनो दाइये रे। वर शिवचन्द विमल बधे, दिन दिन शोभा सवाइये रे ॥ कुं० ॥४॥ ॥ काव्य ॥ ___ सलिल चन्दन पुष्प फलबजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥५॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् कुंथ जिनेन्द्राय जलं, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा । अष्टादश श्रीअरनाथ जिन पूजा ॥दोहा॥ जिन अठारमो ध्याइये, भविजन चित्त मझार । करण तीन इककर मुदा, प्रतिदिन जयजयकार ॥१॥ ॥राग ॥ (वसंत संग लागी ही आवे, कुण खेले तोसं होरी रे ) निज विमल भक्तिसे अर जिनसे नित रमिये रे ॥ निज०, नि० ॥ निजगुण निजगुण तुल्य करणकं, चंचल चित हिय दमिये रे ॥ नि० ॥२॥ सुमति युवति संयम उर धरिके, कुमति नारि संग गमिये रे ॥ नि० ॥ अनुभव अमृत पान करणते, विषय विकृत विष दमिये रे ॥ निज० अर० ॥३॥ जिनवर संग रमण दव अनले. पंक सघन वन घमिये रे । कहे शिवचन्द्र जिनेन्द्र रमणसे, भवरणमें नवि भमिये रे ।। निः || .THAPTERNATAYARTHATAFAIRMATHAKHARAYAMAHARASHTRAFF త రం Par t reerstar.EL.Eta.ke istraliadeletirthalalnetelarki-tierotalalalaolateletastendindiatest a Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ Lex Xx Sex Ste It Strota testestato Tootects जैन - रत्नसार ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलव्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ||५|| ॐ ह्रीं परम परमाहमने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् अरनाथ जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा । एकोनविंश श्रीमल्लि जिन पूजा ॥ दोहा ॥ उगणीसम जिन चरणकज, भमर होय लयलाय । सेवे तसु भवि भमरता, अगणित दुरित विलाय ॥१॥ ॥ ढाल ॥ मल्लिजिणंद उपकारी रे ॥ वाला मल्लि० ॥ मैं तो वारी जाऊं वार हजारी रे || वाला० मल्लि० ॥ कुंभ नरेश्वर गगनांगण में सहस किरण अवतारी रे || वाला • मल्लि० || २ || पूरव भव षमित्र नरेन्द्र प्रति, बोधि सिन्धु भवतारी । वेदत्रयी चिर ही तनु धारथो, सकल संघ सुखकारी रे || वाला० मल्लि० ||३|| शकल कुशल हरि चंदन तरुवर, नंदन वन अनुकारी रे। संघ चतुरविध भूरि खचरगण प्रणत चन्द्र अनुहारी रे || वाला • मल्लि० ॥४॥ ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फल व्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधु प्रवरान्नकैः जिनममीभीरहं वसुभिजे ||५|| ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् मल्लि जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूप, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ut t ototaarateelersatishnilialist kohlish Breakab lastistialatanle destostsKEktarrottarakhnet पूजा-विभाग ३८३ ย-โthairะ : -BATATTATREATki.er.ETE................ ได้น้องได้นะคในคดดไปัดได้ไงไอดได้อะไee HE-/- titiAirliAATHTTraisinal-I- T a -T-FAMIL विंशतितम श्रीमुनिसुव्रत जिन पूजा ॥दोहा ।। पद्मोत्तर वर पद्मनद, गत पर पद्म समान । विंशतितम जिन पूजिये, केवल लच्छि निधान ॥१॥ ॥ राग गरवो (ढाल)॥ (सुण चतुर सुजाण, परनारीसे प्रीति कबहु नहिं कीजिये) मुनि सुव्रत जिनेन्द्र सुनिजर धरि मुझपर वर दरशन दीजिये । प्रभु दरश प्रीति निरुपाधिकता, करिये लहिये शिव साधकता । तब तुरत मिटे सब बाधकता ॥ मु० २ ॥ अमृतमें साध्य पणो विलसे, प्रभु दरशन साधनता उलसे । तव मुझमें साधकता मिलसे ॥ मु० ३॥ भिन्नादि करणता यदि विघटे, एकाधि करणता यदि सुघटे। तवमुझ शिव साधकता प्रकटे ॥ मु० ४ ॥ एकाधिकरणता मुझ करिये भिन्नाधिकरणता परिहरिये । शिवचन्द्र विमल पद तब वरिये ॥ मु० ५ ॥ ॥काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलवजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥६॥ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् मुनिसुव्रत जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्य, फलं, वस्त्रं, मुद्रा यजामहे स्वाहा । एकविंशतितम श्री नमि जिन पूजा ॥दोहा॥ अंतर वैरि नमाविया, तब लहियो नमि नाम । भविजन ए प्रभु पूजसे, सरिये वंछित काम ॥१॥ i - k GETAJEVAKAIRET-TataiT-Tiliatu3 Yไอดใจได้ไกลโคโคไดลใจใดใจ" ให้ใจได้ในครัวได้ใจใครใจดไว้ในใจได้ในคใดได้โดนใจ ใช้ใจไดไไดดไปังไจจได้ในใจงจได” ไดใจให้ใจได้ E ........LAT . ........ ลดนใwwwง" ใน .. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ॥ राग (ढाल ) ॥ ( हम आये हैं शरण तिहारे, तुम प्रभु शरणागत तारे, ) श्रीनमि जिनवर चरण कमलमें, नयन भमर युग धरियें रे । तिण किय गुण मकरंद पानसे, चेतन मदमत करियें रे || वारि चेतन० २ ॥ एह चरण कज अहनिश विकसे, परकज निसि कुमलावे रे | ए न वले बलि तुहिन अनलसे अपर कमल बल जावे रे ! वा० ॥ ए पद कज गुण मधुरस पीवत, जीव अमरता पावे रे । अपर कमल रस लोभी मधुकर, कजगत गज गिल जावे रे || वा० ४ ॥ परकज निजगुण लच्छिपात्र हैं, पदकज संपद् दवें रे । तातें पद शिवचन्द्र जिणंदके अहनिशि सुरवर सेवें रे || वा० ५ ॥ ३८४ ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुप्प फलवजैः सुबिमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्य्यजे ||६|| ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् नमि जिने - न्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूप, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा । द्वाविंशतितम श्री नेमी जिन पूजा ॥ दोहा ॥ बावीसम जिन जगगुरू, ब्रह्मचारि विख्यात । इण वंदन चंदन रसे, पाप ताप मिट जात ॥१॥ ॥ राग रामगिरि (ढाल ) | ( गात्र लूहे जिन मन रंगसूं रे देवा ) नेमि जिणंद उर धारिये रे, विषय कषाय निवारिये रे । वारिये हां रे वाला वारिये, ए जिनने न विसारिये रे || वा० २॥ जलधर जिम प्रभु गरजता रे, देशना अमृत बरसता रे । बरसता हां रे वाला वरसता, भविक मोर Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E MENTalimater l adhaMT+TEST-STI-TITAT पूजा-विभाग सुनि उलसता रे॥ वा० ३॥ समवसरण गिरि परिहर या रे, भामंडल चपला वह्या रे। चपला वह्या, सुरनर चातक ऊमह्या रे वा०४॥ बोध बीज उपजावियो रे, भवि उर क्षेत्र बधावियो रे । भविक मुगति फल पावियो रे । वा० ५॥ ॥ काव्य ॥ सलिल चन्दन पुष्प फलबजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः विविध नव्य मधु प्रवरान्नकैः जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥६॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् नेमि जिनेन्द्राय जलं, चन्दनं, पुष्पं, धूप, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा। त्रयोविंशतितम श्रीमत्पावं जिन पूजा ॥दोहा॥ अश्वसेन नंदन सदा, वामोदर खनि हीर । लोक शिखर शोभे प्रभू, विजित कर्मबड़ वीर ॥१॥ ॥ राग॥ (बाजे तेरा बिछुआ बाजे,) पास जिणंदा प्रभु मेरे मन बसिया । शिव कमलानन कमल विमल कल, तर मकरंद पान अति रसिया | वामानन्दन मोहनि मूरत, सकल लोक जनमन किय वसिया ॥ पास जि. २ ॥ परम ज्योति मुख चंद विलोकत, सुरनर निकर चकोर हरसिया । अंजन गिरि तनु दुति जिन जलधर, देशना अमृतधार वरसिया ॥ पास जि० ३ ॥ पिय करि भवि चिरकाल तरसिया, मुगति युवति तनु तुरत फरसिया । कुमुद सुपद शिवचन्द्र जिणंदिनी, वारिजाऊं मन मेरो अतिह हुलसिया ॥ पास जि० ४ ॥ ॥ काव्य ॥ ___ सलिल चन्दन पुप्प फलबजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥५॥ॐ ह्रीं परमपरमात्मने । अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमद् पार्श्व जिने gะไดไม่ได้ในไดไอได้ในไรทันไจ ไeใน r ในไดนาไปัวใจย-นังXไelatitis ได้จโด - Geไดไอคง ๕ ใน ทั้งนี้ ได้ใช้งใจไว้ในใจยังไง -----kathinral...HELLE.JHAathikatantali-E-TRAELA-ATALLERKathai-distriJitutimatm ใดในใจไปัดใจ วัดไร ใจงใจนัก “ไร 4 คน ใครได้ไปในไดนั้นนอนเป็น ใตไป .1 ป.ในองนะ --------- -- 49 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 వ డ న న న న న న న lot r tistu .......................... ...mor numm Makhhinath-ta-taktishARAKESTR MustardstiktakaahaEEKAAKAAMYRIGADEMOHAMMKARKahadaslesarilalikincatooscollectikdialistiakelinearlialisa disboratokkkkeGalsoksikaliprataskoasletteshkkokhothakERA న న న जैन-रत्नसार न्द्राय जलं चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षत, नैवेद्यं, फलं, वस्त्र, मुद्रां यजामहे स्वाहा । चतुर्विंशतितम श्रीमहीर जिन पूजा ॥ दोहा ॥ इक्ष्वाकु कुल केतु सम, त्रिशलोदर अवतार । ए प्रभुनी नित कीजिये, विविध भक्ति सुखकार ॥१॥ ॥ राग ॥ (तेज तरण सुख राजे,) चरम वीर जिनराया, मेरे प्रभु चरम वीर जिनराया। सिद्धारथ कुल मंदिर ध्वज सम, त्रिशला जननी जाया । निरुपम सुन्दर प्रभु दर्शन तें, सकल लोक सुख पाया ॥ मेरे० २ ॥ वामा चरण अंगुष्ट फरसते, सुर। | गिरिवर कंपाया । इन्द्रभूतिगणधर मुख मुनिजन, सुरपति वंदित पाया ॥ मेरे० ३ ॥ वर्तमान शासन सुखदाया, चिदानंद घनकाया। चन्द्र किरण गुण विमल रुचिर धर, शिवचन्द्र गणि गुण गाया ॥ मेरे० ४ ॥ वरसनंद* मुनि नाग धरणि मित, द्वितीयाश्विन मनभाया । धवल पक्ष पंचमि तिथि शनियुत, पुरजय नगर सुहाया ॥ हां मेरे० ५ ॥ श्रीजिन हर्ष सूरीश्वर साहिब, वर खरतर गच्छराया । क्षेमकीर्ति शाखा भूषण मणि, रूपचन्द्र उवझाया ॥ मेरे० ६॥ महापूर्व जसु भूरि नरेश्वर, वंदे पद हुलसाया । तासु शिष्य वाचक पुण्यशील गणि, तसु शिष्य नाम धराया ॥ मेरे०७ ॥ समय सुन्दर अनुग्रही ऋषिमंडल, जिनकी शोभा सवाया। पूज रची पाठक शिवचन्दे, आनंद संघ बधाया ॥ मेरे० ८ ॥ ॥काव्य ॥ सलिल चन्दन पुप्प फल व्रजैः, सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधुप्रवरान्नकैः, जिनममीभिरहं वसुभिर्यजे ॥९॥ ॐ ह्रीं परम परमा ___* यह पूजा उपाध्याय श्री शिवचन्द्रजी महाराज की बनाई हुई है और सं० १८७६ मे दूसरे आसोज सुदी ५ शनिवार को वनी है। E EtotirthankarratictatoilatkilithiliticBEEnihilatikahanistanALHinditatistantra. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 l at-that-s tate tariantasticated thatarnaak TankattaTalkstatistatest talath tatataset.ss.statemestestosa पूजा-विभाग ३८७ manmmmmm THE-1-1.Anktors-Bakht-at-htye Bato kashitahatotalbko xakikatahkariwaka alakatarnatmakathakattitutha-TattelaratmlarkialkarATA- K i मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय मद्वीर जिनेन्द्राय जलं", चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, वस्त्रं, मुद्रां यजामहे स्वाहा। शासन पति पूजा प्रथम जल पूजा ॥दोहा॥ सरस्वती जगदीश्वरी, श्रुतदेवी सुखदाय । जिन मुख उद्भव भारती, नमों शारदा माय ॥१॥ बर्धमान जिनवर नमं, जिन शासन सरदार । विघ्न हरण मंगल करण, नमू मंत्र नवकार ॥२॥ तूं दायक सोवन गुरू, वाकू करूं प्रणाम । दीवाली पूजन रचं, वीर जिनेश्वर नाम ॥३॥ पूजा शिव सुख दायिनी, कहतूं सूत्र प्रमाण । शासनपति महावीर के, पूजो छह कल्याण ॥४॥ ॥सोरठा ॥ जल चन्दन वरफूल, धूप दीप अक्षत महा । नैवेद्य फल पटकूल, ध्वजा अर्घ आरात्रिका ॥५॥ ॥दोहा॥ उत्तम जल कलशा भरी, पूजो त्रिशलानंद । निर्मल होवे आतमा, दिन दिन होत आनंद ॥६॥ ॥ कवाली ॥ ( राम कहने का मजा जिसकी जबां पर आगया ) आज मैं आया शरणमें, नाथ करुणा कीजिये । कठिन कमों में पड़े जल, चन्दन, पुष्प, धूप, दीपक, अक्षत, नैवेद्य, फल, नारियल, वस्त्र और नगदी : सब चीजे चौबीस चौवीस होनी चाहिये । samsutariraimittalior-kakikthakas k aktadkathakakistakalakka Yakshakakikthakhtitihashikkathah talathkhtilade data ilaletilekhkhtihila thakathkdanta haikhubhakaashave omtamansatna. r -ME-- *- f 2 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇందుండి నడుం మడుగురుడుడు దుర్కు जैन-रत्नसार ३८८ tatishtatatatara Akasttitatiotikakksator PostalentialalidateJait.Diastaramatmasamratratakhahanistanekar n తననం తరువాత తన నంతన తంతుతం తననం తననం తననంత గ skrittikవననననన తననం की लाज अब रख लीजिये ॥ जातिकी एक ब्राह्मणी थी, देवा नंदा नाम था। ऋषभदत्तकी वो वधू थी, विप्रकुल उजला दिया ॥ आज० ७ ॥ शुक्ल छह आषाढ की, रात्री पटल से छा रही। देवानंदा ब्राह्मणीने, अल्प निद्रा ले लई ॥ आज० ८॥ माता बनाई आपने, उसके उदर अवतार ले। दिवस ब्यासी रहे उनके, मनोरथ सब फल चले ॥ आज० ९॥ इंद्र के आदेश से, हरनेगमेषी आ परे। उस ब्राह्मणी की ! कोखसे, सिद्धार्थ के घरमें धरे ॥आज० १० ॥ शास्त्र इसको गर्भ हर, कल्याण कह अपना लिया । आपने उस ब्राह्मणी का, नाम अजरामर किया ॥ आज० ११ ॥ (किससे करिये प्यार यार खुदगरज जमाना है) महावीर जिनचंद नंद, सिद्धारथ राजा के ॥ प्राणत स्वर्गलोक से आए, क्षत्रीकंड नगर मन भाए। त्रिशला उदर अवतार लियो, नंदन महाराजा के ॥ महा० १२ ॥ आश्विन वदि तेरस दिन आए, माता उदर गर्भ कहलाए । धनद देव भंडार भरे, तत्क्षण महाराजाके ॥ महा० १३ ॥ स्वप्न चतुर्दश मात निहारी, सचराचर सब भए सुखारी । घर घर मंगल माल होत, दिन दिन महाराजा के ॥ महा० १४ ॥ चैत्र सुदी तेरस दिन आया, तीनलोक में आनंद छाया । जन्म लीन महाराज घरे, सिद्धारथ राजा के ॥ महा० १५ ॥ सकल भुवन में कर उजियारे, दास चतुरके कारज सारे । करे जन्म अभिषेक सुरासुर, पति महाराजा के ॥ महा० १६ ॥ (चाल इन्द्रसभा) पाप कर्म सवि धोवन कारन, सुद्ध चेतन परकास । जल पूजन कर शासन पतिकी, निर्मल आतम भास ॥१७॥ (रागिनी भैरवी त्रिताल) । प्रभुजी को सुरपतिस्नात्र करावे, सुर नर सवि सुख पावे ॥ उत्तम कलश सुवर्ण रजत के, नीर सुगंध भरावे । क्षीरोदक गंगोदक आने, atakaSHRESTHeadinelaililialidasTilickmat hakhaatibiotilatikahikitstate in Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा - विभाग ३८६ सर्वौषधि जल लावे || प्र० १८ ॥ तीर्थोदक वर पद्मद्रहोदक, जल अभिषेक करावे | कल्याणक अभिषेक करे जो, दास चतुर गुण गावे ॥ प्र० १९ ॥ ॥ श्लोक ॥ वीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महितो, वीरंबुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपः । बीरे श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीरभद्रंदिश ॥ २० ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा । द्वितीय चन्दन पूजा ॥ दोहा ॥ केशर चन्दन मृगमदा, अंबर और बरास । लेई पूजी सिद्धार्थसूं, महावीर हरि रास ॥१॥ ( कितनीक दूर तेरी काशी रे पांडे ) शासनपति महावीर रसीले, शासनपति महावीर रसीले ॥ छप्पन दिक्कुमरी गुण गावे, आवे जिनवर तीर रसीले । चौसठ सुरपति पांडुक वन में, पूजे जिनवर वीर रसीले ||२|| ताल मृदंग दुंदुभी बाजे, सरनाई गंभीर रसीले । ताथेइतान करत सं वनिता, तीर करे प्रभु तीर रसीले ||३|| देव सकल सुरनाथ हुकुम से, लावे तीरथ नीर रसीले । घसि चन्दन घनसार विलेपन, लावे सुरवर धीर रसीले ||४|| शकइंद्र पड़ गए संशय में, देखाबाल सरीर रसीले । संशय मोचन चरण परससे, मेरु चलायो धीर रसीले ||५|| थर थर कांप गये सुरपति सुर, देखि अतुल चल वीर रसीले । दास चतुर अब प्रभुकूं पूजे, कुंकुम चंदन सीर रसीले ॥६॥ ( चाल इन्द्रसभा ) शुद्धतम चन्दन करि घिसिये, ज्ञानादिक गुण साथ | सौरभ प्रगटे सकल लोक के, होय निरंजन नाय ||७|| bitritantests Vestestostectoctection to In texta Yo Yo tortoptants Jo Yo Yo Yo Yo Yo Yo Yo Yo Yo Yo Yo interact-tant to imta tatanta tpls late to tanley test actor of Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार ( रागनी त्रिताल ) भक्ति वाले ! शासन नायक, सेव अब पूज निरंजन देव ॥ केशर चंदन मृगमद भेली, और बरास मिलेव । क्रम जानूं कर कंध सीस भाल गल, नव अंग पूजन भेव ॥ भ० ८ ॥ मेरो साहिब प्राण पियारो, जो है देवाधिदेव । याके अंग परस सुख उपजे, वो मुख कहि न सकेव ॥ भ० ९ ॥ प्रभुगत रागी अद्भुत रागी, यह आश्चर्य कहेव । हे अनियारे अखियन वारे, दास चतुर सुख देव ॥१०॥ ॥ श्लोक ॥ ३६० वीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महितो, वीरंबुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः || वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं, वीरस्य घोरं तपः । वीरे श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः, श्री वीरभद्वंदिश ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहें स्वाहा । तृतीय पुष्प पूजा ॥ दोहा ॥ अपतित भूमि सुगन्ध शुभ, धौत प्रमार्जित फूल । पंच वरण भाजन भरी पूजन समकित मूल ॥१॥ ( दिलदार यार गबरू राखूं घूंघट का पट में ) सुनिये विनय हमारी, महावीर नाम वारे । हम बाल मित्र आए, आज्ञा पिता कि पाए । खेलन कुं जीव चाहे, महावीर नाम वारे । सुनिये ० ||२|| आछी अशोक वारी, उसमें खिली है क्यारी । फूलन बहार न्यारी, महावीर नाम वारे | सुनिये ० ॥३॥ चाले सखा बुलाए, वन वाटिकामें आए | फूलनके हार पाए, महावीर नाम चारे | सुनिये ||१|| अज्ञान का पठाया, सुर एक मूर्ख आया । करि नाग रूप धाया, महावीर नाम वारे | सुनिये ० ||५|| आके सखा पुकारा, आता है नाग कारा । सुनके उछार डारा, महाबीर नाम बारे | सुनिये० ||६|| पुनि कीन दुष्ट Janandantakof Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ r a tattatrakantayak Karamatlabrdaskarketiolookstatistkhataalestialistastat-isleakintoostestedistrictetst-listencate-rathitakistateag पूजा-विभाग .... ३६१ AAAAAAAPP. . . i kalatakarsannathakhab nthalalad4takini-Adhatiethatantnhdh -----bikhatarra हैं माया, प्रभुने उसे दवाया। अब दास सिर नमाया, महावीर नाम वारे । सुनिये ॥७॥ ॥ इन्द्रसभा ॥ हृदय कमलदल स्थित परमेश्वर, चिदानंद भगवान । वाके गुण कुसुमावलि करके, पूज सकल सुखदान ||८|| राग मालवी गौडी पूज हो कल्याण प्रभुका, सकल सुर सुख दाय ये देवा । पंच सायक दुःखदायक, नास तसु हो जाय ये देवा, नास०।मालती मुचकुंद दमणो, केतकी सरसाय ये देवा,केतकी। पडल चंपक मोगरा सिति, बोलश्री वरलाय ये देवा बोलश्री० ॥९॥ पांच वरण प्रमोद दायक, कुसुम घन वर साय ये देवा कुसुम० । भक्ति भाव प्रमोद करिके, सरस दाम बनाय ये देवा, सरस० ॥१०॥ नाम मेरो प्राण जीवन, देख मन हुलसाय ये देवा, देख० । चतुर । सागर दासने अब लियो हृदय लगाय ये देवा, लियो० ॥११॥ ॥श्लोक ॥ वीरः सर्व सुरासुरेन्द्र महितो, वीरं बुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः । वीरात्तीर्थ मिदं प्रवृत्त मतुलं, वीरस्य घोरं तपः । वीरेश्री धृतिकीर्ति कान्ति निचय, श्रीवीरभद्रं दिशः ॥१२॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा ।। चतुर्थ धूप पूजा ॥दोहा॥ शुद्धौषध चूरन करी, द्रव्य सुगन्ध मिलाय । प्रभु सम्मुख करिये हवन, कर्म समिध जल जाय ॥१॥ ( उद्धवजी कब दर्शन देंगे, बंशी के बजाने वाले ) सांइयां अब कब मिलना होगा, कहे नंदीवर्धन भाई ॥ तुम ! संयम मारगमें जाते, हम ऊपर दया न लाते । अब काह करें हम नाथजी, ไอติใดใกคได้ฟัด ชัดไดไคคุไดโอดไตปลไกได้ไงจะใครคไดโอดโดดไปคไดคใตโดดไไดดได้ฟักไขคตไกปิดไกลไดในปัดไดโอด16ดไตใจโดยไม่ได้ได้ในไตรงๆได้ไว้ใจ 16 ได้ไว้ใดได้ลดได้ใจได้งอได้ไขใดไดไค ไซ ได้ใจ ไอจงได , ไค 6.1 hikAIRAT----------- r antier-mstr katuralhala-lefilmanta.fmi-for-touttar ไม่ได้ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैन - रत्नसार ना रहे पिता अरु माई || सांइयां० २ ॥ मगसर वदि दशमी आई, इन्द्रादिक इन्हें बधाई । अब संयम लेते सांइयां, सब जीवको सुखदाई ॥ सांइयां ० ||३|| यह संयम मारग बँका, नहिं इसमें कुछ भी शंका | यह नहीं सोवनी लंका, कइ कष्ट परे दुखदाई || सांइयां ० ॥ ४॥ संसार सकल दुखखानी, कइ मरे जा रहे प्रानी । यह सांची विधि तुम जानी, इस कारण चले दुराई ॥ सांइयां० || ५ || प्रभु संयम लेकर भारी, सचि कर्म समिध कूंजारी | कहे दास चतुर बलिहारी, कर जोड़ि वीर जिन राई || सांइयां ० ॥६॥ ॥ इन्द्रसभा ॥ अष्ट कर्म वनदाह करन धन, है तप अग्नि समान | पिंडपात्र करि धूप करेसो, पावे निर्मल ज्ञान ॥७॥ ( रागनी एमन कल्याण, धीमें त्रिताले की ठुमरी ) तूं ईश्वर प्राण पति मेरा, और न कोई सहायक मेरा ॥ तूं ही जगतारक दुःख निवारक, असरन जनको सरन है तेरा । कृष्णागुरु अरु मृगमद अंबर, लेइ घनसार लोबान सु गहेरा || तूं० ८ ॥ धूप करों प्रभु सम्मुख तोरे, सरस सुगंध अति सुख देरा । दास चतुर कूं पार उतारो, मैं हूँ प्रभु शरणागत तेरा ॥ तूं० ९ ॥ ॥ श्लोक ॥ वीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महतो, वीरंबुधाः संश्रिता । बीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः । वीराचीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपः । वीरे श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीरभद्रंदिश ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REATMASIttarterArt s ARATARATHI-RINTANKartikNAwearrantart..........ne ३ पूजा-विभाग पञ्चम दीप पूजा ॥ दोहा॥ शुद्ध हवी शुभ पात्रमें, शुद्ध वर्तिका जोय । करि दीपक पूजे प्रभू, मोह तिमिर क्षय होय ॥१॥ (रागनी मांड) महावीर प्रभूने तप संयम दीपाया हैंजी वाह, वाह वाह जी हो हो हो हो महावीर प्रभूने ॥ चंड कौशिक फणी आयके, दियो आपके डंक । महाराज उसको अष्टम स्वर्ग पठाया हैंजी वाह ॥ वाह० २ ॥ शुल हस्त धर है दैत्यनें, दिये कष्ट अति घोर । बलिहारी उसको सिद्धारथ समझाया हैंजी वाह ॥ वाह. ३ ॥ संगम सुर एक नीचनें, दिये घोर उपसर्ग । सुरराज उसको मुग्दर मार भगाया हैंजी वाह ॥ वाह. ४ ॥ कानोंमें कोले दई, गवली नीच अजान । जिनराज उसपर शान्ति भाव दरसाया हैंजी वाह ।। वाह. ५ ॥ तप दीपक दीपाय के, मोह तिमिरक्षय कीन । महावीर प्रभूके दास चतुर, गुण गाया हैंजी वाह ।। वाह. ६ ॥ ॥ इन्द्रसभा ॥ चेतन पात्र सुकर्म वर्तिका, दुखद कर्म हवि होय । ज्ञान ज्योति प्रगटे तनु भीतर, तम अज्ञानको खोय ॥७॥ (रागनी भैरवी ) प्राण मेरे ल्यो सुप्रदीपक आज, साहेब गरीब निवाज ॥ तं परमेश्वर तं जगदीश्वर, तूही सुधारन काज। तेरी अखियन पर मैं वारी, १ जाऊँ हूँ महाराज ।। प्रा० ८ ॥ तुमसे मेरा प्रेम देखके, होय कर्मको लाज।। अब जो साहेब प्रेम मिटादो. तो मुझ होय अकाज ॥ प्रा० ९ ॥ दीग्छ । पड्यो अब रूप तुम्हारो. इस दीपकके साज । दास चतुरके वांछित फल गए. रंक निपायो राज ॥ प्र० १० ।। लोक॥ वीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महतो. बीयुधाः नंश्रिताः । वीणाभिहतः Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ attarintiki dattatha Attarintists ३६४ .............www.rimar - wrar.nawwar PREMAMALDERaisindianRAMKARANAMATLABITAL- Tee नप्रवलनग्रनल्ल ल्ललावल्याणपत्रानननननननककककक जैन-रत्नसार स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपः । वीरे श्री धृति कीति कान्ति निचयः श्री वीरभद्रंदिश ॥११॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय दीपं यजामहे स्वाहा । षष्ट अक्षत पूजा ॥दोहा॥ पंचवर्ण अक्षत सरस, भरि कंचनके थाल । अक्षत प्रभु गुण गायके, पूजों दीन दयाल ॥१॥ ( कृष्ण घर नंद के आये, सितारा हो तो ऐसा हो) वीर सिद्धार्थके नंदन, जिनेश्वर हो तो ऐसे हों ॥ शुदी वैशाख की दशमी, मिला है ज्ञान जिनवर को । कटे हैं फंद कर्मों के, महावीर हों तो ऐसे हों ॥ वीर० २॥ मिला एक आय अभिमानी, इन्द्र भूती ब्राह्मण था। बनाया शिष्य अरु गणधर, गणेश्वर हों तो ऐसे हो ॥ वीर० ३ ॥ दधि बाहन नरेश्वर की, धिया चंदन सुबाला थी। किया पर वर्तिनी उसको, दयावर हों तो ऐसे हों ॥ वीर० ४॥ मंखली पुत्र क्रोधा ने, जलाए दोय मुनिवर को। किया नहिं क्रोध कुछ उसपर, क्षमाधर हों तो ऐसे हों ॥ वीर० ५ ॥ जमाली दुष्ट निन्हव को, दिया सुरलोक रहने को। चतुरसागर मुनीजनके, महेश्वर हों तो ऐसे हो ॥ वीर० ६॥ ॥इन्द्र सभा ॥ अक्षत द्रव्य मोक्ष सुख अक्षत, अक्षत केवल ज्ञान । अक्षत तत्त्व योनि पुनि अक्षत, पांचों अक्षत जान ॥७॥ (रागनी आशावरी) नाथ तेरे अक्षत सुख से यारी, मैंने करलइ है सुखकारी ॥ तेरे घर में भूख न प्यासा, जन्म नहीं नहिं मारी । रोग न शोक न वृद्ध न बाल न, ये सब अचरजकारी ॥ ना. ८ ॥ स्वामी शिव वनिताको Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा-विभाग ३६५ रसियो, जाने सब संसारी । क्षणभर अक्षत सुख नहिं छोड़े, लोक कहें ब्रह्मचारी ॥ ना० ९ ॥ तूं नहिं हमरी ओर निहारे, हमने काह बिगारी । तेर कारण पियारे, हम तरसत हैं भारी || ना० १० ॥ तेरे कारण बन बन भटकी, खाक बदन में डारी । दास चतुर की ओर न देखे, अब क्या मरजी तिहारी ॥ ना० ११ ॥ www. ॥ श्लोक ॥ वीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महतो, वीरं बुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्त मतुलं, वीरस्य घोरं तपः । वीरे श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीरभद्वंदिश ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा | सप्तम नैवेद्य पूजा ॥ दोहा ॥ सरस शुची पक्वान्नले, भरि नैवेद्य के थाल । शासनपति महावीरके, आगे घरों रसाल ॥१॥ ( तर्ज बनजारे की ) महावीर जिनेश्वर ज्ञानी, सुखदायक बोले वानी ॥ करि समवसरण सुर राजा, गढ कांगुर ओ दरवाजा । विचरल पीठिका जानी, महावीर जिनेश्वर ज्ञानी ॥२॥ आशोक वृक्षकी छाया, सिर चामर छत्र धराया । सुर दुदुभि नाद वखानी, महावीर जिनेश्वर ज्ञानी ॥३॥ तहां बैठि परिषदा बारा, भामंडलका उजियारा । सभि देखत जिनवर कानी, महावीर जिनेश्वर ज्ञानी ॥४॥ पशुपक्षी सुरनर सारे, भिनभिन देसावर वारे । सभि समझ परे जिनवानी, महावीर जिनेश्वर ज्ञानी ॥५॥ वाणी अमृत रस बरसे, सुनि सकल परषदा हरपे । कहे दास चतुर सुख खानी, महावीर जिनेश्वर ज्ञानी ||६|| ***** to Yo Yevale Yo Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-नार ॥ इन्द्रसभा ॥ पांच सुमति पंचेंद्रिय निग्रह, सोहि सरस पक्कान्न । रस अनंत युत मिष्ट पदारथ, ले पूजों भगवान ||७|| ( रागनी कांगडा प्रभाती ) मेरे प्रभु को मीठो दर्शन कहो किसको नहि भावेजी ॥ कामी कोधी कपटी धुतारे, उनकं नहीं सुहावेजी । द्वेषी अज्ञ पापी जन प्रभुकूं, देखि देखि जल जाबेजी ॥ मेरे० ८ ॥ सज्जन मित्र भले मन वारे, इसके ही गुण गावेंजी । दुष्ट कर्मको मारनहारे, वे इसके ढिग आवेंजी ॥ मेरे० ९ ॥ गुड भी मीठों शाकर मीठी मीठी चकिया मावेजी । अन्न भी मीठो अमृत मीठो, नहिं दर्शनके दावेंजी ॥ मेरे० १० ॥ भरि नैवेद्य थाल कंचन के, प्रभुके सम्मुख ठावेंजी । दास चतुर अब मीठो दर्शन, जन्म जन्म विच पावेंजी ॥ मेर० ११ ॥ ३६६ ॥ श्लोक ॥ " वीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महितो, वीरंबुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरान्तीर्थमिदं प्रवृत्त मतुलं वीरस्य घोरं तपः । वीरे श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीरभद्रं दिशः ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । अष्टम फल पूजा ॥ दोहा ॥ फल पूजन महाराज की, करे भविक धरि प्रेम । बिन प्रयास पावें सही, शिवफल निश्चय नेम ॥१॥ || तुम बिन दीनानाथ दयानिधि कौन खबर ले मेरी ॥ शासनपति महावीर जिनेश्वर, अविचल शिवसुख पायो रे ॥ पावा पुरि में करि चउमासो, सांचा धर्म दिपायो रे । हस्तिपाल राजा प्रभु पूजे, तन मन धन हुलसायो रे || शा० २ ॥ कइयक श्रावक कइयक राजा, 1 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R htt హనం నడattelanganat o dottie ABAD-E-कम-E-RELEASEAnnary Y R -LALILTALLE -in-riuTREE.AILEEREta-LEAREILJEtihastLAEBATTLEELEASE पूजा-विभाग ....... ३६० कइयक मुनि मन भायो रे । कइयक देव अमरपति कइयक, प्रभु चरणन चित लायो रे ॥ शा० ३ ॥ पुण्य पाल राजा करजोरी, प्रभु चरणां सिर नायो रे । पूछी इस कलियुग की रचना, जिनवर भेद बतायो रे ॥शा०४॥ गुरु गौतम कू आज्ञा दीनी, देवदत्त घर जावो रे । नास्तिक मत का पूरा पंडित, उस · तुम समझावो रे ॥ शा० ५ ॥ सोहम गणधर कू समझा के, सूत्रविपाक सुनायो रे । कृपा धर्म को उत्तर सास्तर, दास चतुर सुन पायो रे ॥ शा० ६॥ ॥ रागनी पीलू धन्याश्री ॥ ___फल पूजन फल दायक प्रभु की, करत सुजन भर पार लहेगा ॥ शुद्ध अभक्षित सटित गलित नहिं, पतित न भूमि सुधोत कहेंगा । श्रीफल पुंगी बदाम छुहारे, द्राक्षादिक फल भेद कहेगा ॥७॥ पात्र रजत भरि मधुर फलनि से, प्रभुके सम्मुख लाय ठवेगा । मुख से करि जिनवर गुण गायन, ताल मृदंग धुनि युत रहेगा ॥८॥ प्रेम सुलाय नयन जल भरि करि, अशुभ करम क्षणमांहि दहेगा । हम प्रभुको इन फलसे पूजे, प्रभु शिव फल हमही कू चहेगा ॥९॥ दास चतुर • फिर का चहिये, तीन भुवन जय जय लहेगा। फल पूजन फल दायक प्रभु की, करत सुजन भवपार लहेगा ॥१०॥ ॥ श्लोक ॥ वीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महितो, वीरंबुधाः संश्रिताः। वीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरातीर्थमिदं प्रवृत्त मतुलं, वीरस्य में घोरं तपः । वीरे श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीरभद्रंदिश ॥११॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा । नवम वस्त्र पूजा ॥ दोहा ॥ देव दिव्य युग वस्त्र से, पूजो दीन दयाल । बिना वस्त्र निर्वाह नहीं, इस पंचम कलिकाल ॥१॥ adharoslaritick-laka kakritish inkhatnakalalaakaktikaareralistianeloanandbalashioekaitrkakdictidesballiclockaryakaraarakilienatiladkiaieilesKolkatialakaakisleakeliekaatnikaleelakakhededeit-rattsuitatantra ....Aniruard-litatube Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जैन - रत्नसार ॥ इंद्रसभा ॥ द्वादश अंग सुतन्तु सूत्र सम, गणधर बुनक समान । देव दुश्रुत निर्मल प्रगट्यो, सो पटधार सुजान ॥२॥ ॥ हम दयाका डंका बजाय जायेंगे || प्रभु अरजी हमारी अवश्य सुनो ॥ दुष्ट अधर्मी लोक जगत में, पाखंड पूजन होसि घनो ॥ प्र० ३ ॥ तीन वरनके नर पाखंडी, होवेंगे सभि आप जनो। शुद्ध सनातन जैन धरम कूं, करदेंगे वे कनो कनो ॥ प्र० ४ ॥ थोड़ा आयुष और बढ़ा लो, इन दुष्टनके मान हनो । शासन नायक वीर जिनेश्वर, बोले सुरनर सभी सुनो ॥ प्र० ५ ॥ भावी भाव कूं कोइ न टारे, सत्य मंत्र तुम यही भनो । दास चतुर की अर्जी न गुजरी, होगयो सुरपति ऊन मनो ॥ प्र० ६ ॥ ॥ राग श्री ॥ पट युगल वसनमें बलिहारी, बलिहारी में तेरी बलिहारी ॥ सुन्दर वेल लगी है तोमें, फूलन की छवि है न्यारी । झीनी झीनी पतियां मूल्य घनो झलके, नीकी लागत है क्यारी || पट० ७ || भार अल्प और है, मोतिनकी झालर सारी। जिन गुनिजन ने तुझे बनाया, उसकी पन में हूँ बारी || पट० ८ || अब मैं भेट करूं हूं तेरी, इन साहिब के सुखकारी । दास चतुर के नाथ पियारो, जो है निरंजन अविकारी ॥ पट ९ ॥ ॥ श्लोक ॥ बीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महितो, वीरंबुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्त मतुलं वीरस्य घोरं तपः । वीरे श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीरभद्रंदिश ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय वस्त्रं यजामहे स्वाहा । ¿ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P पूजा-विभाग m ramremmmmmmm..... .... ..... . . . .. ... ETALKAL.tubtutat..inr.." tifilmfulnitisfakindial-E-Trk-in-LE-I-R RAILEELIHEAL दशम ध्वज पूजा ॥दोहा॥ दंड मनोहर लायके, सुंदर ध्वजा बनाय । करो चैत्य महावीर के, उत्सव ध्वजा चढाय ॥१॥ (राजुल पुकारे नेम पिया) गौतम पुकारे प्राणनाथ क्या दगा किया। मुझे छोड़के अकेले आप, मोक्ष चल दिया ॥ गर आपकी न राय थी कि, मोक्ष ले चलें। तो अंतका मिलाप मुझसे क्यों हटा लिया । गौतम० ॥२॥ हर वखत आप मुझ को, गौतम कह बोलावते । एक आज का ही दिन हुवा, बिलकुल भुलादिया । गौतम० ॥३॥ जो होति बात कुछ मि । फौरन पूछ आप से। करता दलील आपसे, उस दम बता दिया । में गौतम० ॥४॥ कहां जाय के विचार अब किस को सुनाऊंगा । आज इस दुविधाने मेरा दिल दुखा दिया ॥ गौतम ५ ॥ सूरत पियारी आपकी, कब देख पाऊंगा। यह दास की पुकार जो थी सब सुनादिया गौतम० ॥६॥ कोयल कुहुक रही मधु बनमें ॥ मैं बलिहारी पावा पुरि की पावा पुरि के, जल मंदिर की में बलिहारी पावा पुरि की ॥ कार्तिक वदी अमावस राते, भीड़ मची इंदर सुरवर की ॥ मैं० ७ ॥ शासन नायक मोक्ष सिधारे, आज्ञा ले सुरवर इंदर की ॥ मै० ८ ॥ चंदन चय बिच दाह करीके, रत्न पीठिका कर जिनवर की ॥ मैं. ९ ॥ चरण पीठिका स्थापन करिके, पूजा करत सकल ईश्वर की ॥ मैं० १० ॥ नंदी वर्धन आदिक राजा, कीन्हीं यात्रा पावा पुरिकी ॥ मैं० ११ ॥ ध्वज पूजन जिनवर की करके, आसा पूगीदास चतुर की ॥ मैं० १२ ॥ वीरः सर्व सुरासुरेन्द्र महितो, वीरं बुधाःसंश्रिताः। वीरेणाभिहतः । वकर्म निचयो, वीराय नित्यं नमः । वीरातीर्थमिदं प्रवृत्त मतुलं. वीरस्य ..r. atnakalatantshikthATAKAYAKtasangkhesareasantalidatlokestashishthanikhetoothladishtaisleakistmladesathshalaigat-hittilakshakttatute totnute thitadekarent LCERAL .. na Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a४०० imnew -nawwaren MATERIYA stkaEEs t जैन-रत्नसार - घोरंतपः । वीरे श्री धृति कीति कान्ति निचयः श्री वीर भद्रंदिश ॥१३॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्री मन्महावीर जिनेन्द्राय ध्वजां' यजामहे स्वाहा । __ एकादश अर्घ पूजा ॥दोहा॥ आठों कर्म खपाय के, मोक्ष गए महाराज । पूजों अर्घ चढायके, दीवाली दिन आज ॥१॥ राग मांड ( जरा टुक जोवोतो सही) नाथ मोहि तारोतो सहि, मैं कहों दोहि करजोरी ॥ मैं अज्ञानी कछु ना समझू, साचो मूढ़ मई। इन कर्मनि में मेरो रहवो, आछो है नहीं ॥ नाथ० २॥ भूल परयो मैं पंथ तुम्हारो, भटक्यो चार गई। दीनबंधु अब राह बतावो, दीनानाथ दई ॥ नाथ० ३ ॥ पापी लंपट और धुतारे, मेरे साथ रही। मोरे मन को वे भरमावे, संपति लूट लई ॥ नाथ० ४ ॥ जो अब अरजी नहीं सुनोगे, तो मैं आज कही । दास चतुर अब इन दुष्टनसे, बचने को नहीं ॥ नाथ ५ ॥ ॥जोगिया आशावरी ॥ नाथ तेरे चरण कमल पर वारी, तेरी यात्रा करे नर नारी ॥ खरतर गण नभ मंडल सूरज, आचारज पद धारी। जिन कृपा चंद्र सूरीश्वर राजे, महिमा अजब बनी ॥ नाथ ६ ॥ जय सुख राज विवेक मुनीवर, कीना वलि सुख कारी। संयम तप कृपा गुणवाले, दीपरही उजियारी ॥ नाथ० ७ ॥ पर गन गत जो मिथ्या वादी, कर्दम सम गुणधारी। सूख गए नय मारग खेती, वा अब पक गइ सारी ॥ नाथ० ८ ॥ चारबीस* शत वर्ष पचासे, गांव तलने मझारी । कात्तिक वदि चउदस शनिवारे, दीवाली दिन जुहारी ॥ नाथ० ९ ॥ दास चतुर ध्वज पूजनमें ध्वजा पर गुरुओंसे वासक्षेप करावे । * यह पूजा श्री मुनि चतुर सागरजी महाराज की बनाई हुई है और वीर सम्वत् २४५० तथा विक्रमी सम्बत् १९७० के कार्तिक वदी १४ शनिवार को बनी है। eerNESEANMAHETakistireederkarliamolkelildrena l iliaHIMALTilotheles-andillikileitiatio- TAMASTER मागलाणाकालकल्लानालामाल Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123333 पूजा - विभाग 2 | सागर अनुयोगी, कीन्ही पूजा तयारी भूल परी जो इन पूजन में. arrai अधिकारी | नाथ० १० ॥ SALAM पञ्च ज्ञान पूजा प्रथम मति ज्ञान पूजा ॥ दोहा ॥ ॥ श्लोक ॥ वीर: सर्व मुरासुरेन्द्र महितो, वीरं बुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्म निचयी, वीराय नित्यं नमः || वीरात्तीर्थ मिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्यबीरंतपः । वीरे श्री वृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीर भद्रंदिश ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमन्महावीर जिनेन्द्राय अघं यजामहे खाहा । मनरंग | उछरंग ॥१॥ वर्द्धमान जिनचंदकूं, नमन करी पूज रचं भवि प्रेम से, सांभलजा पांच ज्ञान जिनवर का मति श्रुति अवधि प्रधान । मनपर्यय केवल वडी, दिनकर जीत समान ||२|| ज्ञानवड़ो संसार में, गुरु बिन ज्ञान न होय | ज्ञान सहित गुरु वंदिये, सुचि कर तनमन होय ||३|| वीर जिणंद वखाणियां. नंदी सूत्र मझार । भव्य सदा अनुभव धरी, परावी सुख श्रीकार ||१|| निरमल गंगोदक भरी कंचन कलश उदार | श्रुत नागर पूजन करो भाव घरी भविनार ॥ ॥ २०६ चितर घरी, अनुभव रंगे बीन परम पद विये ) अनि fare गुण आग. नविन विये । मति तदा नमिये, निज पर एकलहरे सीरिये ॥ ० ॥ व्यंजन कर गमिये । इस जी Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ మనం నందునను Fa४०२ ....... जन-रत्नसार चउ भेद करी मनमें आणो, इम भाखे श्रीजिन जगभाणो ॥ म० ७ ॥ अरथें करि भेद जिणंद आखें, पण इन्द्री मनकर प्रभु दाखें, मुनि मानस ते दिलमें राखें ॥ म० ८॥ वलि षट् विध भेद इहां कहिये, षट् भेद अपाय करी लहिये, पट् विध धारण भवि सरदहिये । म० ९ ॥ इम भेद अठाइस भवि धारो, इम भाखें जिनवर सुखकारो, निश्चय व्यवहार ते अवधारो ॥ म० १० ॥ वलि रतन जडित कंचन कलशे, भवि पूजन कर तनमन उलसे, चिदरूप अनूप सदा विलसे ॥ म० ११ ॥ ए ज्ञान दिवाकर सम कहिये, इम सुमति कहे दिलमें गहिये, ए ज्ञानथी अनुपम सुख लहिये ॥ म० १२ ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमतिज्ञानधारकेभ्यो अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा। द्वितीय श्रुतज्ञान पूजा ॥दोहा॥ श्रुतधारक पूजन करो, भाव धरी मनरंग । उपकारी सिर सेहरो, भाखे जिन उछरंग ॥१॥ मृगमद चंदन वाससें, जो पूजे श्रुतअंग । अनुभव शुद्ध प्रगटे सही, पावें सौख्य अभंग ॥२॥ (नभिजीके नंदाजीसे लाग्या मेरा नेहरा,) श्रुत जाकी पूजाकर सीखो भवि सेहरा ॥ विनय सहित गुरु वंदन करके लुल लुल, पाय नमें गुरु देवरा । तीन तीस आसातन टाली, । भगत करे भवि गुणगण गेहरा ॥ श्रु० ३॥ श्रीगुरु ज्ञान अखंडित वरते, ज्यू पावस ऋतु वरसे मेहरों । दश विध विनय करे श्रुत गुरुको, सेवे ज्यूं । अलि फूलने नेहरा ॥ श्रु० ४॥ गुण मणि रयण भरयो श्रुतसागर, देख दरस हरखावे मेरा जियरा । पूजन वायन बलि बलि करिये, सीझे वंछित ज्यं मुनि सेवरा ॥ श्रु० ५॥ गुरु भगती जैसे गणधरकी, वीर कहे सुण । गौतम सेहरा । ऐसे गुरुकी भक्ति सीखो, ए श्रुतज्ञान सकल सुख । KKREEkadekiestiololardaslilankarisisitorieslalkinilialistasikolcalishshamatamasanadiansalisingleelakaalinieladekKREMErastotsakstarstratonservatok ****XXXगालागारान्वयानललल्लनस्तनपारदलालाना नानालालप्रपात Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rum..... అందుతుండటం మనం చదవండుకు మందు పాడుడిపడిన పరిచయం చేయడం ఎండుదుడుకు చదువుతుండడం జరు that training पूजा-विभाग ४०३ देहरा ॥ श्रु० ६ ॥ गुरु बिन और न को उपगारी, श्रीगुरुदेव नित गुणॐ मणि जेहरा । ऐसे गुरुकी कीरत करके, सुमति धरो दिलमें गुण गेहरा ॥ श्रु० ७॥ (नित नमिये थिवर मुनीसरा,) ___नित नमिये श्रुतधर मुनिवरा । अरथे श्री जिनराज वखाणे, सूत्रे श्रीगुरु गणधरा ॥ नि० ८ ॥ मेघधुनी जिम भविजन सुण के, हरखे ज्यूं केकीवरा । अंग इग्यारे गुणमणि धारक, बारे उपांग उजागरा ॥ नि०॥ जगत उद्धारण तूं परमेसर, सकल विमल गुण आगरा । छेद पयन्ना नंदी सेवो, मूल सूत्र भवि गुणकरा ॥ नि० ९॥ श्रुतधारी गौतम गुरु दीवो, पूरवचौद विद्याधरा । पहिलो आचारांग सूत्र वखाणे, चरण करण गुण सुखकरा ॥ नि० १०॥ दुजो सुयगडांग सूत्रसुणीजे, भेदतिसय तेसठ खरा ।। तीजो ठाणांग सूत्र विराजे, सुणतां पाप मिटेपरा ॥ नि० ११॥ चौथो समवयांग सुहावे, अर्थ अनेक करीवरा । पांचमे भगवइ महिमाकरिये ॥ सहस छत्तीस प्रसनधरा ॥१२॥ छटो ज्ञाता अंगसूध्यावो, धरम कथा कहे जिनवरा । नि० । सातमो अंग उपाशक कहिये, दश श्रावक प्रतिमाधरा । नि० ॥१३॥ आठम अंगे जिनवर दाखे, अन्तगड केवलि मुनीवरा । नि० । नवमें अंगे भवि सुन धारो, अनुत्तरववाईसुखकरा । नि० ॥१४॥ प्रश्नविचार कह्या जिन दशमें, अंगुष्ठादिक शुभतरा। अंग इग्यारमें जिनवर दाखे, कर्मविपाक विविध परा ॥ नि० १५ ॥ बारमो अंग जिणंद वखाणे, अतिशय गुण विद्याधरा । अक्षर श्रुत वलि सन्नी कहिये, सम्यक् भेद अधिकतरा ॥ नि० १६ ॥ सादि भेद सपरजव लहिये, गम्यक् भेद सुणो नरा । अंग प्रविष्ट कहे जिनवरजी, भेद चौद सुणजों खरा ॥ नि० १७ ॥ , इम जो श्रीश्रुत ज्ञान आराधे, भाव भगत कर बहु परा । सुमति कहे गुरु ज्ञान आराधो, वंछित पूरण सुरतरा ॥ नि० १८ ॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने । अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्री श्रुतज्ञानधारकेभ्यो अप्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । atalathokirtankirthdekelisanlionli-tialistialatkrishakakirimakalinsaakitalikelihatiasationalishakilialestialesiasislidishakakilediobilelalalalalitiladkiolediokalasedarelatioinlodetirthdaika Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ न्यूयप्रकल्व-प्रनयनान्तनमननप्रसस्त्र प्र SANEELATARRIERRRRELEASEASESAMEHEYEleshou जैन-रनसार तृतीय अवधिज्ञान पूजा ॥दोहा॥ अगर सेल्हारस धूपसे, पूजो अवधि उदार । बोध बीज निरमल हुवे, प्रगटे सुक्ख अपार ॥१॥ नवल नगीने सारखो, ज्ञान बडो संसार । सुरनर पूजे भावसू, महियल ज्ञान उदार ॥२॥ (निरमल होय भज ले प्रभु प्यारा,) अवधिज्ञानको पूजन करले, ज्यू पावो भव पार सलूणा ॥ अ० ॥ | ज्ञान वडो सुख देण जगतमें, उपगारी सिरदार सलूणा ॥ अ० ॥३॥ भेद असंख कहे जिनवरजी मूल भेद षटसारस०अ०॥ वढमाण हियमाण वखाणे, । सूत्रे श्रीगणधार, स० [अ०॥४॥ सुरनर तिरि सहु अवधि प्रमाणे । देखें द्रव्य उदार ॥स०॥ अवधि सहित जिनवर सहु आवे । थाये जग भरतार ॥ स० ॥५॥ ज्ञान विना नर मूढ़ कहावे। ढोर समो अवतार॥स०॥ ज्ञान दीपक सम जग मांहे। दिन दिन अधिकी सार ॥ स० ॥६॥ मूलमंत्र जग वस करवाको, एहिज परम आधार, स. ॥ अ० ॥७॥ ज्ञाननी पूजा अहनिस करिये, लीजे वंछित सार, स० ॥ ज्ञानने वंदी बोध उपावो, करम कलंक निवार, स० ॥ अ० ॥८॥ इत्यादिक महिमा भवि सुणके, पूजो अवधि उदार, स० ॥ सुमति कहे भवि भाव धरीने, सेवो ज्ञान अपार स० ॥ अ० ॥९॥ ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीअवधिज्ञान धारकेभ्यो अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । चतुर्थ मनपर्यवज्ञान पूजा ॥दोहा॥ केतकि दमणो मालती, अवर गुलाब सुगंध । भाव धरी पूजन करो, हरे कुमति दुरगंध ॥१॥ मनपर्यव पूजा करो, विविध कुसुम मनरंग । महके परिमल चिहुं दिसे पांमे सुजन अभंग ॥२॥ THMAHITElamka स्नमस्त्र l नामस्तराम amalinationpatilipinathalalalentinentali Lax Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ mamaarn rrrrrrru โคนันได้มัด ใจคอจะได้ไมืองไทโตไก คั พ ขอพรได้ครองไตได้ไกลได้อได้โดให้คนได้ पूजा-विभाग (शजानो वासी प्यारो लागे मोरा राजिंदा) ___जिनजीरो ज्ञान सुहावे मोरा राजिंदा ॥ जि० ॥ जिन जीरो ज्ञान अनंतो सोहे, कहतां पार न आवे ॥ म्हा० जि० ॥३॥ सन्नी नर मन परयव जाणे ते मुनि ज्ञान कहावे ॥ म्हा० ॥ विपुलमतीने ऋजुमति । कहिये, ए दुय भेद लहावे ॥ म्हा. जि० ॥४॥ अंगुल अढिए ऊणो देखे, ते ऋजु नाम धरावे ॥ म्हा० ॥ संपूरण मानव मन जाणे, तेही विपुल कहावे ॥ म्हा० ॥५॥ मनगत भाव सकल ए भावं, ते चौथो मन भावे ॥ म्हा० ॥ एहनी महिमा नित नित कीजे, तिम भवि नाम धरावे ॥ म्हा जि० ॥६॥ जगजीवन जगलोचन कहिये, मुनिजन ए नित ध्यावे ॥ म्हा० दीक्षा ले जिनवर उपगारी, चौथो ज्ञान उपावे ॥ म्हा० जि० ॥७॥ मनकी संसा दूर करत हैं, सुणतां आण मनावे ॥ म्हा० ॥ तन मन सुचिकर पूजन । करले, जनम जनम सुख पावे ॥ म्हा. जि० ॥८॥ विविध कुसुमसे पूजा करतां, बोध लता उपजावे ॥ म्हा० ॥ सुमति कहे भवि ज्ञान आराधो, श्रीजिन देव बतावे ॥ म्हा० जि० ॥९॥ ॐ ह्रीं श्रीपरम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्री मनपर्यवज्ञान धारकेभ्यो अष्टद्रव्यंमुद्रां यजामहे स्वाहा । पञ्चम केवल ज्ञान पूजा ॥ दोहा ॥ प्रभु पूजा ए पंचमी, पंचमज्ञान प्रधान । सकल भाव दीपक सदा, पूजो केवल ज्ञान ॥१॥ फल दीपक अक्षत धरी, नैवेद्य सुरभि उदार । भाव धरी पूजन करो, पावो ज्ञान अपार ॥२॥ (तुम बिन दीनानाथ दयानिधि कौन खबर ले ) तूं चिदरूप अनूप जिनेसर, दरसन की बलिहारी रे ॥ तूं० ॥ निरमल केवल पूरण प्रगट्यो, लोकालोक विहारी रे । केवलज्ञान अनंत विराजे, क्षायक भाव विचारी रे ॥ तु० ॥३|| ज्योत सरूपी जगदानंदी, अनुपम โดดรัดดูดไกโดใน ไอใจคด ได้อยโดนใจใคร คนนะ ใหลใน สั งกัดไteไม่คดโกง , ระนอน 1 ใน trill ดร. f Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार शिव सुख धारी रे । जगत भाव परकाशक भानू, निज गुण रूप सुधारी रे || तु० ||४|| सकल विमल गुण धारक जगमें, सेवत सब नर नारी रे, आतम शुद्ध सरूपी भविजन गुण मणिरयण भंडारी रे || तु० ||५|| केवल केवलज्ञान विराजे, दृजो भेद न धारी रे । आतम भावे भविजन सेवो, जगजीवन हितकारी रे || तु० ॥६॥ और ज्ञान सब देश कहावे, केवल सरव विहारी रे । सर्व प्रदेशी जिनवर भाखे, साखे श्रीगणधारी रे ॥ तु० ॥७॥ भए अयोगी गुणके धारक, श्रेणि चढ़ी सुखकारी रे । अष्ट कर्मदल दूर करीने, परमातम पद धारी रे ॥ तु० ||८|| ऐसो ज्ञान बडो जगमांहे, सेवो शुद्ध आचारी रे । सुमति कहे भविजन सुभ भावें, पूजो कर इकतारी रे ॥ तु० ॥९॥ फल अक्षत दीपक नैवेद्यसे, पूजो ज्ञान उदारी रे । पूजत अनुभव सत्ता प्रगटे, विलसें सुख ब्रह्मचारी रे ॥ तु० ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्री केवलज्ञान ज्ञानधारकेभ्यो अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे वाहा । ४०६ कलश ( केसरियाने जहाजको लोक तिरायो ) असरण सरण कहायो, प्रभु थारो ज्ञान अनंत सुहायो ॥ अ० ॥ मति श्रुति अवधि अने मनपर्यव, केवल अधिक कहायो । भव्य सकल उपगार करत हैं, श्रीजिनराज बतायो ॥ प्र० ॥ ११॥ खरतरगच्छपति चन्द्रसूरीश्वर, राजत राज सवायो । तेजपुंज रवि शशि सम सोहे, देखत दिल उलसायो || प्र० ॥१२॥ प्रीतसागर गणि शिष्य सुवाचक, अमृतधर्म सुपायो । शिष्य क्षमाकल्याण सुपाठक, सदगुरु नाम धरायो || प्र० १३ ॥ धरम विशाल दयाल जगतमें, ज्ञान दिवाकर ध्यायो । ज्ञान क्रियानो मूल जे कहिये । तत्वरमण मन भायो ॥ प्र० १४ ॥ बीकानेर नगर अति सुंदर, संघ सकल सुखदायो । शुद्धमति जिन धर्म आराधक, भगत करो मुनि रायो ॥ प्र० १५ ॥ उगणीसे चालीसे वरसे, आसु सुदि वरदायो । ज्ञान * यह पूजा श्री सुमति विजयजी महाराज की बनाई हुई है और सम्बत् १६४० आसोज सुदी में बनी है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा-विभाग विजयकारक सब जगमें, नित प्रति होत सहायो ॥ प्र० १६ ॥ सुमति सदा जिनराज कृपासे, ज्ञान अधिक जस गायो । कुशल निधान मोहन मुनि भावे, ज्ञान तणो गुण गायो ॥ प्र० १७ ॥ पञ्च कल्याणक पूजा च्यवन कल्याण ॥ दोहा ॥ पञ्च कल्याणक जिनतणा, पूजो जे मन भाव । श्री जिनचंद्र पदते लहे, अखय अचल पदठाव ॥१॥ ( पूर्व मुखसावनं ) ४०७ पञ्च कल्याणकं विविध गुण थानकं, तारकं भविजनं यानपात्रं ॥ अइयो भ० २ ॥ वीसथानक पदं भक्ति धरसे वदं, सकलमल कर्म दुख चार गात्रं || अइयो स० ३ ॥ तृतीय भव संचितं, तीर्थपदमद्भुतं, नर सुर भवकरं शुद्धवाचं ॥ अइयो नर० ४ ॥ शुक्ति मुक्ति परंचविय मातृदरं, लहिय जिनचंद्र शुभ सुपन सूचं ॥ अइयो ल० ५ ॥ ॥ दोहा ॥ । च्यवन कल्याणक सेवतां, पामे भवनो पार । आतम गुण निर्मल हुवे, वोध बीज भंडार ॥६॥ ( मेरी तुंबियेकी पटवारी परोसण ले गई ) तेरे आननकी बलिहारी दिनेसर में गई जी अत्युज्जल गज वृषभ मनोहर, सिंह श्री सुखकारी जी ॥ ते० ७ ॥ दाम शशी दिनकर अति सुन्दर, ध्वज कुम्भसर गुणधारी जी । सागर भुवन त्रिविध गुण आगर, वह्निरत्न प्रकाशी जी ॥ ते० ८ || तीर्थकर पढ़ द्योतक जाणी, आनन्द हर्प उल्लासी जी । इन्द्रादिक शक्रस्तव कीधो, गुण जिनचन्द्र विलासीजी ॥ ते ० ९ ॥ ॥ इलोक ॥ सकल तत्त्व विभाकर भास्वरं, त्रिभुवने भवताप निवारकं । च्यवन धाम Letota toto tactest tent to to to tinto enterte Yocto Twink to to Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEENohlotakoseli A aslesaliactatiotatoeskarinakitabkoonlottarashtclostaleakistasleshtotkothashtatre ----- ---rrrrrr- --- --- ---- - --- latestnalisailialelaikiktakal a k ४०८ जैन-रनसार ................ ... जिनेश्वर वेद षट् , सकल तीर्थ जलैः स्नपयाम्यहं ॥१०॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यो जलं यजामहे स्वाहा । चन्दन पूजा ॥ दोहा ॥ चन्दन सं जिन पूजतां, मिटे कर्म धन ताप । च्यवन कल्याणक ध्यावतां, बांधे समकित आप ॥१॥ (श्री सिखर गिरि भेट्या रे) . तुझ दर्शनके कामी रे, सुरनर मुनिराया। अट्ठावीसें मति परकाशें, चवदवीसे श्रुतधारा ॥ षट् मेंदें अवधि मन भावें, असंख्यात भेद विचारा रे ॥ सु० २ ॥ तीन ज्ञान थी गर्ने आया, त्रिभुवन जन सुखदाया । चन्दन सूं जिनचन्द्र कू पूजित, आतम गुण उलसाया रे ॥ सु. ३ ॥ ॥ श्लोक ॥ प्रवल कर्म विताप निवारकं, सरस शीतल भाव वितीर्णकं । मृगमदा गर चन्दन कुंकुमैः, विमलभाव द्युतैः च्यवनं यजे ॥४॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यो चन्दनं यजामहे a HARRESHAME d ikalda i akshashikalakaiakat स्वाहा । पुष्प पूजा ॥दोहा॥ पञ्चवरण के फूल सू, च्यवन स्थित जिनराय । निश दिन पूजो भाव तूं, दर्शन शुद्ध उपाय ॥१॥ ॥ निरमोहिया तो तूं के दिन बोलूं रे॥ कवथारये दर्शन प्रभु तूरे, जब निज संपत्ति परिणमस्ये रे ॥क० २॥ काल अनन्त निगोदमें भमियों, भूम्यादि संखकर संखेस्य रे ॥ क० ३ ॥ विकलेन्द्री माहे काल संख्याते, नर तिरि माहे पिण धरस्य रे ॥ इत्यादिक . भव संतति वारक, कारण थी काज विकस्ये रे ॥ क० ४ ॥ प्रभु कारण थी Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा-विभाग ४०६ समकित कारज, निज गुण संपति पर नमस्यें रे श्रीजिन चन्द्रनि किरपाथास्यें, तो निश्चय भवतरस्यें रे ॥ क० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ अवधि भी श्रुतिभाव समन्वितैः, कठिन कर्म वियोग समुद्रवैः । सुकुसुमैः प्रकरोम्यहमर्च्चनं, जिनजिनं च्यवनं तवहेतवे ॥ ५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यः पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥ धूप पूजा ॥ दोहा ॥ पूजे जे जन दाब । सरस सुगंधित धूप सूं, करम काष्ट सब दाह के, पामें निरमल भाव ॥१॥ ( सब अरति मथन मुदार धूपं ) सब करम दहन सुगंध धूपं, कृष्णागर लो बांणरे । तगर मृग मद कपूर केशर, मिश्रित सेलारस मांन रे ॥ स० २ || आर्त्त रौद्र बिध्वंस कारण, धरम शुकल ध्यान पाय रे । आतम गुण निष्पन्न हेतू, प्रभु सुगंध मन भाय रे || श्री जिन चंद्र सुख दाय रे, मंगल परम विधाय रे ॥३॥ ॥ श्लोक ॥ प्रबल मोह महा रिपु भस्म कृत् त्रिभुवने सकलात्ति निकंद कृत् । सुरभि गंध दशांगज क्षेपकैः जिन जिनंच्यवनं अहमर्चये ||४|| ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यः धूपं यजामहे स्वाहा ॥ दीपक पूजा ॥ दोहा ॥ दीपक शुभ सूचक सदा, गर्भ स्थिति जिनराय । भाव सहित दीपक करे, मोह तिमिर मिट जाय ॥१॥ ( जयकारी जिनराज ) भाव दीपक जिनराय ज्ञान प्रकाशी रे, तत्वा तत्व स्वभाव, 52 विभाव Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रनसार मनमन Editorialhikitanatelkatihtistestauli l ahitkKEEKLYMistakedaar-M मनमनप्रकल्प a hakistartR विनाशी रे । अनुभव रस आस्वाद क्षायक भावे रे, मन मन्दिर उजमाल लोक दिखावे रे ॥२॥ जिनवर दर्शन होय मुझने पहि लं रे, तो थास्यं हूँ धन्य जन्म संभालं रे, जिनचन्द्र छे वीतराग, तो पिण करस्य रे, महिर सेवक निज जांण दर्शन देस्य रे ॥३॥ ॥ श्लोक ॥ सकल पुद्गल भाव विकाशकं, तिमिर पाप वितान विनाशकं । भविजनान्शुभसूचक दीपकं, जिनजिनां भवने प्रकरोम्यहं ॥४॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यः दीपं यजामहे स्वाहा ॥ अक्षत पूजा ॥ दोहा॥ अत्युजल अक्षत सरस, मंगल अति सुखकार । करसी जे जिन आगले, पामें निज गुणसार ॥१॥ ( मेरो मनड़ो हरख्यो प्रभु पास साम रे मैं कैसे नमूं सुरपरिया) मेरो मनड़ो लग्यो जिनराज चरण में, दर्शन लहिया कैसे ॥च० २॥ काल अनन्त भम्यों दर्शन विन, योग करण भरमइया ॥ च० ३ ॥ अनायासतें नर भव पायो, पावनरूप वधइया ॥च०४॥ अब टुक मेहर नज़र प्रभु कीजे, सप्तक्षय सुध पइया । च० ५॥ श्रीजिनचन्द्र अखय पद कारण, चरण कमल चल जइया ॥ च० ६ ॥ ॥ श्लोक ॥ विमल दर्शन शुद्ध समन्वितं, जिनपतिं करुणा रस सागरं । परम मंगल मक्षत मंगलं, जिन जिनां च्यवनंअहमर्चये ॥७॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थकरणां च्यवन कल्याणकेभ्यः अक्षतं यजामहे स्वाहा । नैवेद्य पूजा ॥ दोहा॥ भाव भगत थी ढोकतां, नैवेद्य अनेक प्रकार । गर्भस्थित जिन आगले, पामे ऋद्धि भंडार ॥१॥ ग्रन्द्रतत्र तत्र तत्र ALIHEENisanililabilitic ianRitikaMINAMAHARMithili नत्र Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ..... पूजा-विभाग .. . '.... A..LALAL LLLA.. L (प्रभु कं भजले मनुवा ) जिन नाम मुमग्ले जीवड़ा, नर भव हैं एही सार । नग्क तिबच अनि दुग्वनी कारण, निहां नहीं संस्कार रे ॥ जि० २ ॥ देवादिक बहु मुग्वनी कारण, समरण किण परकार रे ॥ जि० ३ ॥ अबहुं आयो प्रभुजी पानं. कम्णानिधि विरुद संभार रे ॥ जि. ४ ॥ दीन दयाल दयानिधि माहिव, नरकादिक दुःख वार रे ॥ जि. ५ ॥ श्री जिनचन्द्र अखय. समरणने यामें मंगल माल रे ॥ जि० ६ ॥ ॥ श्लोक ॥ सकल लोक विभाव विवर्जितं, सहज चेतन तत्त्व विचारकं । सुरभि भाजन गंधित सत्कृतं, जिन जिनां व्यवनं अमर्चये ॥७॥ ॐ ह्रीं परमान्मने चतुर्विंशति तीर्थकराणां त्र्यवन कल्याणकेभ्यः नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । फल पूजा ॥ दोहा ॥ नाना फल सं पूजतां, मिटे दुकर्म विकार । निण कारण जिनगज की, पूज रची निहुंकाल ॥१॥ ( का मिलनी मन मेलं) ग्गामि मंगे अवधाग्यं दर्शन नेगे। श्री जिनगज दयानिधि माहिव. मज व उन्नागे ! ग्वा० २ ॥ तुम को नीन भुवन के नायक. वीन नहीं म्याग ॥ न्या. ६ || पोताणी करणी पिणधान्ये. नुम प्रम काज गा। न्या. ४ ॥ जो अपणी मेवर. कर जाणं. ना चहिये तुम : : न्या. : ॥ श्री जिनचन्द्र अग्यय दर्शन नं. जाणं होनी Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ফপ जैन-नसार अर्ध पूजा अक्षय पद निवासी जैन चन्द्रं यज॑ते, अविचल निधि धामं ध्याययन्प्राप्नुवंति । निशि दिन शुभ सौख्यं राज्यलक्ष्मीं तनोति, जिनवर परमेष्ठी बोध बीजं बवर्तु ॥१॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराणां च्यवन कल्याणकेभ्यः अर्घं यजामहे स्वाहा । जन्म कल्याणक पूजा जल पूजा ॥ दोहा ॥ ४१२ पूरब पुण्यें जन्मिया, अक्षय मुनि जिनचन्द | सुरनर मिल उच्छव करे, चढत भावनो कंद ॥१॥ ( मैं तो तुम पर वारी हो पास जिणंदा ) - मै तो तुमरी बलिहारी हो प्यारे जिनंदा । जनम अनंतर आसन कंपित, छप्पन दिक्कुमरी आई । जिनमाता जिनवर कूं बंदी, स्वस्व कृत्य सजाई ॥ त्या० २ ॥ सूती करम करीने सघली, जिनवर मात न्हवाई | जनम सफल कर वानें काजें, मङ्गल गान बधाई ॥ प्यारे ० ३ ॥ जिनवर जन्म समयने कालें, नारक पिण सुख पावें । दशों दिशा निर्मलता धारें, घंट अव्यादिक शुभ भावें ॥ प्या ० ४ ॥ शक्रादिक सहु हरष धरीनें, सुघोष बजावें । निय निय परिकर संगलेईनें, मेरु शिखर पर जावें ॥ हो प्या० ५ || आवि पुरंदर मातनमीनें, पंचक रूप बनाई। संपुट लेई मंदिर धाई, रोम रोम हरखाई ॥ हो प्या० ६ ॥ भाव अखय उत्संगे जिनचन्द्र, आनन्द अङ्गनमावें । अच्युतादिक सुरपति निय निय, अभियोगिक देव बुलावे || हो प्या० ७ ॥ चतुः षष्ठीजी अष्ट सहस कुम्भ मानकं, तीर्थोदकजी औषध सहु उन्मानकं । एक एकनो जी इन पर उच्छव नल्पकं, जिन सम्मुखजी आवि करे नृत्य गानकं ॥८॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** पूजा - विभाग ! त्रोटक ॥ नृत्य गान करके भाव धरके, विमल जल कर जिन न्हवे । अच्युतादि इन्द्र निर्जर स्वापयित्वा प्रभुस्तवे ॥ ततो सोहम विमल जल कर भक्ति निर्भर उत्सुकं, जिनचन्द्र अंगें वसन मार्जित यक्ष कर्दम लिप्तकं ॥९॥ सुनइयाजी कोड़ि बत्तीस उबारिया । सहु वाजिन्रजी मनोहर शब्द बजाइया ॥ १० ॥ तदनन्तरजी इन्द्रादिक जिनरायनें, आनंदेंजी अर्पण करि मात ने ॥ ११ ॥ K ४१३ मातनें अर्पण सर्व सुरपति जाय नंदीश्वर पछे । अष्टाह्निका करि उत्सव सहु निज थानक गछे ||१२|| माता पिता बहु दान देवें मान हर्ष से करें । अशुचि कृत्य टाली वजन आगें नाम थाप्यो अनुसरें ॥ १३ ॥ ॥ श्लोक ॥ जिनां जन्मं ज्ञात्वा सकल विबुधेंद्राः प्रमुदिताः प्रभो भक्त्युत्साहैः जिनवर महिम्नैः प्रचलिताः । गृहे गत्वा नत्वा त्रिभुवन गुरु मेरु शिखरे, जलौघैः तीर्थानां सकल जिनराजं त्रपयति ||१४|| ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञानत्रय सहिताय परोपकारैक रसिकाय सकल जिनवरेंद्राय जन्म कल्याकेभ्यः जलं यजामहे स्वाहा । चन्दन पूजा ॥ दोहा ॥ चन्दन सूं जिन पूजतां, मिटे ताप मिथ्यात । जन्म महोच्छव सेवतां, थाये गुण विख्यात ॥१॥ ( सइयां की नगरियां बता दे ) जिनवर जन्म - वधाइ सोहाई मोरे मनमें। अनुपम रूप जिनेसर पेखी, आनन्द अंगन माई सजन में || मो० २ ॥ कनक वरण तन प्रभु को राजे, दिनकर तेज समाइ सुतन में || मो० ३ ॥ रक्तोत्पल समकर मद सोहे, दृग्पीयूष भराई बदनमें || मो० ४ ॥ अर्द्ध चन्द्र सम भाल विराजें, नासा शुक मुख पाइ सोभन में || मो० ५ ॥ घूघर वाले अलख अनूपम, Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्र Subbattibiotstatisticategibiotictortoisodattattostaticarmacokottotopotasatbriate जैन-रत्नसार 32 ETHEREntestina -तत्र tilitathaat-KRISALMEENE M प्रस्न प्रजनननननननन प्रणमत्र भ्र धनु युति छवि छाई नयन में ॥ मो० ६ ॥ हार मुकुट कुंडल कटकादिक, रण झणकार कराई मगन में ॥ मो० ७ ॥ चन्दन खोरा वनी अति सुन्दर, प्रीति वचन सुखदाई करण में ॥ मो० ८ ॥ श्री जिनचन्द्र आंगन में खेलत, निरख निरख उलसाई चरण में ॥ मो० ९ ॥ ॥ श्लोक ॥ यथाग्रीष्मे चन्द्रैः निठुरतर धर्मोपशमनं, जगजंतू तापं समुपशमनं श्रीजिनवरैः । सुपर्व श्रीखंडैः मृगमद सुगन्धै शुभकृतैः, जिनां जन्मावस्था अचल सुख वाशाय सुयजे ॥१०॥ ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञानत्रय सहिताय परोपकारैक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः चन्दनं यजामहे स्वाहा ॥ पुष्प पूजा ॥ दोहा ॥ भव्य कमल प्रति बोधवा, मानो उदयो भान । पञ्च वरण के कुसुमसे, अ) जन्म कल्यान ॥१॥ (होरी खेलत नेम हरख चित्तधारी) प्रभु छबि निरख निरख मन भाई ॥ प्र० ॥ इन्द्राणी मिल नृत्य । करत हैं, मंगल गान बधाई । प्रत्युत्संग जिनराज खिलावे, बोले वचन सुधाई ॥ प्र० २ ॥ पञ्च बरण के सुमन लेईने, अनुपम माला पहराई मात पिता मिल उच्छव करके, देवें मान बधाई ॥ प्र० ३ ॥ समकित पुष्ट निमित्त नोकारण, आतम हेतु सहाई, श्रीजिनचन्द्र अखयचन्द्र राजित उरगण मांहि रहाई ॥ प्र० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ सुरेन्द्राणां वन्धं सकल गुणधामं शिवकर, विशालैः श्रीकारैः परम निज धमैः विकशितैः । क्रिया सम्यज्ञानः निज गुण निवाशाय विदधे, जिनां जन्मावस्थां सुरभि कुसुमैरर्चनमहं ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञानत्रय सहिताय परोपकारैक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥ AMAKASEXPHimalaL YRIENDRAToolsindikirzastastolai-Awt-1-1- tex Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पूजा-विभाग ४१५ Mulanwlaonetariantar mantulana-.- . . Naithilila - L ined धूप पूजा ॥दोहा॥ सेलारस मिश्रित प्रवर, सुमति सुगन्ध मिलाय । सरस धूप जिन आगले, सकल करम क्षय थाय ॥१॥ ( कड़हला अचिरानन्दन स्वामिनी ) जन्म समय प्रभु पेखीयो, रवि शशिके अनुहारेंजी । जिन दर्शन थी ऊपनो, आतम गुण संभारेंजी । अब मिलिया म्हांने सुरतरु ॥२॥ तत्व रुची निज आत्मनी, अथवा शुद्ध सिद्धान्तजी, समकिते शुद्धनयंकरी, संग्रहथाये एवं भूतंजी ॥ अ० ३ ॥ श्रीजिनचन्द्र अखय परसादथी, पाम्योवोध समस्ते जी। आतम गुण पर गट करी, थयो आज सनाथ जी ॥ अ० ४ ॥ (श्लोक ) समस्तं आवर्णंधन दहन कर्तुं ज्वलनवत, सुगंधैः कर्पूरैः मृग मद मुगंधैः सुनिचयैः। दशांगैः यडूपैः सुरनर गणानां मनहरैः जिनां जन्मा वस्था शिवपद निवासाय सुयजे ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञान वय सहिताय परोपकारैक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याण केभ्यः धूपं यजामहे स्वाहा । दीपक पूजा ॥दोहा॥ भाव दीप परमेसरूं, तम अज्ञान विनास । द्रव्य दीप जलावतां, पामें आतम भास ||२|| (पूर्व पुण्याई है सरिखी ) जन्म महोच्छव अनुपमनिरखी । पू० २ ॥ सकल विभावना है त्यागी निमल सत्ता गुणनी गगी । पू० ३॥ सत्ता त्रिविधं है जाणी, वाधक : नायक सिद्ध वग्वाणी ॥ पृ० मिथ्या भावें है वाधक. समकिन केवली । मोडि. साधक ॥ पृ० ५॥ कम विभावी है. लिही. प्रभुजी साधक सत्ता । : शुओ। पृ. ६॥ ज्ञान विभंगी है भाबी. एनानिम्पम ज्ञान प्रकागी ॥ पृ० । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ जैन - रत्नसार ७ ॥ त्रिभुवन जननो है नायक, एतो भक्ति वत्सल सुखदायक ॥ पू० ८ ॥ श्री जिनचन्द्रनी है निरखी, अद्भुत महिमा निज गुण परखी ॥ पू० ९ ॥ ॥ श्लोक ॥ समस्तं अज्ञानं तिमिर दलितं भास्करमिव, जनानां सद्द्बोधं तरणि मिवदातुं शुभ करं । जनानामाधारं हित अहित भावान्प्रगटयन, जिनां जन्मावस्थां मणिघटेत् दीपं च विदधे ॥१०॥ ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञानत्रय सहिताय परोपकारक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः दीपं यजामहे स्वाहा | अक्षत पूजा ॥ दोहा ॥ अत्युज्जल अक्षत तणां, मङ्गल अष्ट विधान । अष्ट कर्मने छेदवां, जिन आगे मंड़ान ॥१॥ ( मन मोह्यो री माई ) चित लाग्यो री माई श्री जिनराज चरणमें || चि० ॥ षट् द्रव्य गुण पर्यायनो ज्ञाता, नियस्वभाव युत पख में । नित्या नित्य पखथी चउभंगी, सादि शांत विअ पखमें || चि० २ ॥ सादि शांति अनादि शांति, अनादि अनन्त चउ भंग में । रूपि अरूपी भेदनो ज्ञायक, नय गुण युत सुरंग में || चि० ३ || जन्म कल्याणक त्रिकरण ध्याता, थाये आतम संग में | श्रीजिनचन्द्र षट् द्रव्य प्रकाशक, अद्भुत स्वगुण रंग में ॥ च० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ जन्मावस्थाक्षत जगन्नाथं खुत्वा विमल जल कल्लोल लहरी, तथा गाव क्षीरं दधि श्रेणी रजत गिरिवच्चंद्र रुचयः, जिनां धवल वत् फेण पसरं । यथा वज्र धवल मांगल्य विदधे ||५|| ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञानत्रय सहिताय परोपकारैक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः अक्षतं यजामहे स्वाहा । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sastante festostaaten पूजा - विभाग नैवेद्य पूजा ॥ दोहा ॥ सरस सुगंध माधुर्यता, नैवेद्य अनेक विधान । श्री जिन आगल ढोकतां, पामें परम निधान ||१|| ( बीजे भव वर० > ४१७ श्री जिनवर पदकज सुखदायक, भवजल तारण भिन्न । मोक्ष रूप कारज करवाने, आतम कर्त्ता अभिन्न रे । भविका जन्म कल्याणक सेवो, अविचल सुखनोकंद रे ॥ भ० २ || आर्यादि संयोगी कारण, प्रभु कारण निर्वित्ते । इतरेतर संयोगी कारण, कर्ता कारण युक्ते रे ॥ भ० ३ ॥ पर पुद्गल सहाय तजीनें भास्यो अन्यावाघ, श्री जिनचन्द्र अखयपद कारण, आतम शक्ति अवाध ॥ रे भ० ४ ॥ 1 33 ॥ श्लोक ॥ अपारे संसारे जगदचिर भावं त्वनुभवं, त्रिभावैर्वैराग्यं सकल जगद -- विरहितम् । सुबोधैः सज्ज्ञानैः प्रमित सहितं भोज्य सरसं, जिना जन्मा वस्थां मधुर तर भोज्यं च विदधे ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञानत्रय सहिताय परोपकारैक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः नैवेद्यं यजामहेस्वाहा । फल पूजा ॥ दोहा ॥ सरस मधुर फल कर धरी, पूजे जे जिनराज । सादि अनंत भागें करी, पामें भविजन पाज ॥१॥ (पंग हिंडोला ) चालो सखी देखन जाइयें, प्रभु कुं झुलावे हो जिन कूं, भविजन देखन जाइये ॥ प्र० ॥ आयो मनोहर काल प्रावृट्, सकल व आनंद | जहां असित जलधर गगन गर्जित, दमन दमक मनिंद ॥ सित मुक्ति इव बक पंक्ति विचरे, मेघ धारा कंद । ऐसो समय जब देखिके नृत्य करे Sostenta toota! In total wita tonta Ya Ya to to to Tritatutto on at Yo Yoston's To Lo Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ งได้งได้งได้ Eritalilailamlailendantetatilwistianiloited. nlmalatalaram atidailetit นดไว้ในใดนใจงใจจดใจได้คนในห้ได้ในทันใดนัดดาใจได้ของคนในปัจจได้งได้ใจงใจไรให้ได้ ในใจไดพใดใดใดได้งใจไว้ได้นางคงใดใจไม่ได้ u alAYLIYE ४१८ जैन-रत्नसार हर्षद ॥ प्र. २ ॥ तहां विमल पयसापूर्ण विभृत्, कमल मधुकर सेव ।। वचन चातक विरह सूचक, करे दादुर टेव ॥ तरु श्रेणि मंडित कुसुम । संचित, फल निचय भूएव । वैडूर्य मणिरिव अवनि राजे, इन्द्र गोप मणेव ॥ प्र० ३ ॥ श्रीकार जंवूक आम्र श्रीफल दाडिमादिक युक्त । अंजीर वंजीर नासपाती, सेववी जहां उक्त । नारंग करणा नूत नौजा भेद भाव अनुक्त ॥ मधु माधवी वरवेल शोभे, सरस द्राक्षा भुक्त ॥ प्र. ४॥ सुर रमण कानन बीच चंचिद, रयन खंभ अनूप । मणि रतन मंडित सुरंग झूलन, शोभ सुन्दर भूप ॥ तिहां मनुज सुरपति सचि मनोहर, सज सिंगार सरूप । जिनचन्द्र भक्ति अखय झूलन, गीत गान निरूप ॥ प्र० ५ ॥ ॥ श्लोक ॥ महा कारीणामति कटु विपाकं विनशयन, सुपक्वं श्रीकारं सुरभि फल भावैः विकसितं । नवीनं सद्शौच्यं परम सकलं मंगल मिदं, जिनां जन्मा वस्था मतुल फल मांगल्य विदधे ॥६॥ ॐ हीं परमात्मने ज्ञानॐ त्रय सहिताय परोपकारक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः फलं यजामहे स्वाहा। अर्घ पूजा ॥ श्लोक ॥ अक्षय पद निविषं जैनचन्द्रं यजंते, निधि उदयव्याप्तं जन्म कल्याण भावं । प्रति दिवसमनन्तं पूर्णमानन्द भूतं, प्रविश अचल सौख्यं ज्ञान वृद्धि करोति ॥१॥ ॐ ह्रीं परमात्मने ज्ञानत्रय सहिताय परोपकारैक रसिकाय सकल जिनवरेन्द्राय जन्म कल्याणकेभ्यः अधं यजामहे स्वाहा। चारित्र कल्याणक पूजा जल पूजा ॥ दोहा ॥ गुण सागर चारित्रने, प्रणमो शुद्ध स्वभाव । जिनचन्द्र अक्षय आदरें, त्यागें पर गुण भाव ॥१॥ -laalamlaimhla l alaladisial.lamind - ปได้ แปะไว้ได้ในนให้ได้ไหมครัพในใจให้ดดได้ใจได้ ไป5 โตได้ใ bialistude : Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ toote tantos ontentesto food पूजा-विभाग गंगा मगध तीर्थना, भावे जिनवर स्नान | करम सर्वनें धोववा, सौगंधित जल मान ||२|| ( ऐसी करूं इकतारी ) ऐसी पड़ी मोह जान प्रभु, संग त्याग करोगे || ए० ॥ निर्जरे पेषी स्वगुण गवेषी परगुण भोग तजी ने ॥ प्र० ३ ॥ श्री तीर्थंकर जान उदयवर चच्छर दान, देई ने ॥ प्र० ४ ॥ पुद्गल संगता जान अनित्यता, सुमति गुप्ति लेई ने ॥ प्र० ५ ॥ ताप समाबन निज गुण भावन, संजम रंग रंगी ने ॥ प्र० ६ ॥ चारित्र भूषण गुणगण वर्द्धन, पर्यव ज्ञान वरीने ॥ प्र० ७ ॥ श्री जिनचन्द्र अखय सुखकंदे, निर्मल योग धरीनें ॥ प्र० ८ ॥ ॥ श्लोक I चारित्रं सुख सागरं निरुपमं मांगल्यकं शैवदं इन्द्राद्यापि निरंतरं बहुविधैः स्तुत्वाभजेत् वन्दतां । संसारे सकलं असार नितरां धारा धरो सन्निर्भ, दीक्षायां स्नपयाम्यहं शुचि जलैः ज्ञात्वा जिनाधीश कान ||९|| ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान संयुक्ताय श्री मज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः जलं यजामहे स्वाहा | चन्दन पूजा ॥ दोहा ॥ मृग मद सुर चन्दन करी, विलेपन सुरपति कीध | भव ताप सब दूर कर, निरु पाधिक सुख लीध ॥१॥ ( जमुना के नीरे तीर वाज तेरा विछुआ ) ४१६ श्री जिनराज परम गुणरागी, पर पुद्गल अनुरागता त्यागी ॥ श्री० २ ॥ समता रस संपूरण सागर, आश्रव रोधक संवर जागी || श्री० ३ ॥ ज्ञान ध्यान अनुपम त्रय भंगी, अनुभव उत्कट रस अनुरंगी || श्री० ४ ॥ चरण करण धर सप्तति अंगी, राग द्वेष परमाद विभंगी ॥ श्री० ५ ॥ भोज्यादि व्यवहारें भोगी, निर्मल ज्ञान थी निश्चय योगी ॥ श्री० ६ ॥ श्री जिनचन्द्र निज गुण अनुयोगी, निर्मम निग्रन्थ स्व सद्भोगी || श्री० ७ || प Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार ॥ श्लोक ॥ स्नात्वा श्री जगनायकं अघहरं संताप दूरीकरं, पर्यायैः स्वगुणं विशुद्धि हित देवेन्द्र वंद्यं विभुं । काश्मीरागर कुंकुमं मृगमदं श्रीखंडकैः कर्दमैः कर्मघ्नं तृतीयेजिनं शुभमनैश्चारित्र भावं यजे ॥८॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान संयुक्ताय श्री मज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः चन्दनं यजामहे स्वाहा | ४२० पुष्प पूजा ॥ दोहा ॥ अनुभव रस में घूमता, चारित्रे जिनराय । विविध कुसुमकरि पूजिये, भवि शुभभाव धराय ॥१॥ ॥ राग सारंग ॥ शुचि आचरणा जिनवरा, भावदया अधिकार । वधावण सहु संचरता गुण धरा || शु० || जन उपगार रसिक शुभध्यानी, आश्रव रोधक निर्जरा ॥ शु० ३ ॥ जिन पारस कर लोहनी कञ्चन, तिन जिन आतम गुणकरा || शु० ॥ नयगम भंग निक्षेप प्ररूपक, स्वपरवर हित अनुसरा || शु० ५|| ज्ञान सागर उपशम रस धारी, स्वसाधन सुखसंचरा ॥ शु० ६ ॥ श्री जिनचन्द्र अखय अनुरागता, आतम सुख वर्द्धन करा ॥ शु० ७ ॥ ॥ श्लोक ॥ सम्यक्त्वे जिन आत्म तत्त्व सहितं स्याद्वाद मुद्रांकितं, सौगंध्यैः करैः नबमल्लिका च कर्णैः गुल्लुर्घसे वत्रिका | अंकाजैर्जल जादिभि: शुभ हर्म्यं सदा वासयन्, चारित्रं जननं शुचिं शिवपदे सत पुप्पकैरर्च्चये ||८|| ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय बेदज्ञान संयुक्ताय श्रीमज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः पुष्पं यजामहे स्वाहा । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +A ५२१ mantitaneaantistretatutertenskrkattaveteristmaskarketaritakram.org पूजा-विभाग 16 31 -tamin-1- 1 1- 1-1- o w धूप पूजा ॥ दोहा॥ श्री जिन आगल धूपना, सरस सुगंधित सार । कृष्णागर मृगमद मिश्रित, सेल्हा रस घनसार ॥१॥ (चरण शरण चित लायो) चरण शरण मन भायो, जिनवर चरण० । चारित्र पद चित लायो जिनवर, दुष्ट कषायनो दाहक प्रभुजी, निर्मल संवर ध्यायो ॥ जि० २ ॥ देह निरागी स्व अप्रमादी, आतम गुणवर संसुख जायो। कर्म प्रकृति , विभाव विरागी, भविजन पाप पुलायो ॥ जि. ३ ॥ साध्यरसी निजतत्त्वं तन्मय, योग निरोध सुहायो । सप्तनयात्मक धर्म प्ररूपक, जिनचन्द्र सेवन पायो ॥ जि० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ कर्माणं दहनं करोति सततं, चारित्र नामोद्भवं, तेनैवं परिहत्य भोग सकलं, चक्री तथा तीर्थकृत् । गृह्णात्पक्षय सौख्यदं गुणि गणं तीर्थः सदा सेवितं, तवंदे गर चन्दनः रसयुतैः धूपैस्सदा अर्चये ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थङ्कराय वेदज्ञान संयुक्ताय श्रीमजिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः धूपं यजामहे स्वाहा । दीपक पूजा ॥ दोहा ॥ दीप करो जिन आगले, आतम भाव विकास । भाव अहिंसक सागरा, इन्द्रिय निग्रह जास ॥१॥ ( नयनी रो मोति थारी अजब वन्याहै चंपकरी) नंयम नम दश भेद धरी प्यारे चारित्र दुष्कर कर्महरी ।। न० ॥ अभिलारी निज आतम तत्वे. सर्व परिग्रह त्याग करी || स. २॥ दंग मगत शीनादि परीसह. अनुल अन्य उपसर्ग कर्ग, मन्दिर इबअप्रकनावारी. ध्यान मनाची न्याग हरी ॥ नं. ३॥ समयावर जीवादि बट्टन, a-si-arriatialadirlswallobai-B IRisil-Tol-31- 1-1 -1 - 1-1 !........ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fol ४२२ जैन-रसार अति उत्कट समभावचरी । श्री जिनचन्द्र अनुभव रस, आस्वादी भविजन बोध विकाश करी ॥ सं० ४॥ ॥ श्लोक ॥ नैर्मल्यं निज आत्मभाव घटितं, अज्ञान विध्वंसकं तत्त्वातत्त्व विकाशने बहुपटु, ज्ञानेश्चतुर्भियुतं । तैले वर्जित वत्रिं धूम ममलं, त्रैलोक्यमुद्दीपकं, दीपं श्री जिनमन्दिरे शिवपदे प्रज्वालनंक्रीयते ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं । परमात्मने चतुर्विशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान संयुक्ताय श्रीमजिनेन्द्राय चारित्र कल्याण केभ्यः दीपं यजामहे स्वाहा । अक्षत पूजा ॥ दोहा॥ अत्युजल अक्षतकरी, मंगल अष्ट लिखाय । श्री जिन आगे भावसं, निरुपाधिक सुखदाय ॥१॥ (वंशी वाले हो कान मेरी गागर उतार ) मोह निवारी हो, प्रभु भव पार उतार, अब शरण संभार ॥ मो० ॥ कर्म निकंदन विविध प्रकार, नाण सहित जिनतप आधार ॥ मो० २॥ यम नियम आसन, नंदी प्राणायाम । भयत्रिकके चिद् भेदनो धाम ।। । मो० ३ ॥ प्रत्याहार ध्यान वेद बखाण, धारणवाण समाधि सुजाण । मो० ४॥ अद्वेष जिज्ञासा और सुश्रुष, श्रवण बोध मीमांशा पोष ॥ मो० ५ ॥ परिशुद्ध अप्रति पत्ति यथा क्रम, अंग भेद प्रवति जाणो सोष ॥ मो० ६ ॥ इत्यादिक महाप्राणायामकियो, मन जीवन कारण जगजयो । मो० ७ ॥ मोहे पिण प्राणायाम तणी नहिं शक्त, भावें मन जीवे जिन अनुरक्त ।।८।। अखय निधि दायक श्रीजिनचंद, यह शुद्ध ध्यान भविक आनन्द मो०९॥ ॥श्लोक ॥ मोहच्छेदक ब्रह्म शस्त्र परमं सन्नाह चारित्रकं, त्रैलोक्ये भयदायक जगजनान् मिथ्यात्व विध्वंसकं । सौन्दयं सगुणं विशाल सुखदं त्राणैक देवे- : न्द्रवत, दीक्षां श्री जिननायकं अघ हरं नित्यक्षतैरर्चये ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं . Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sorteatens to the tento bute to Jest to Jostestants tota toto tacenter पूजा - विभाग attestatisto ४२३ परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान संयुक्ताय श्रीमज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः अक्षतं यजामहे स्वाहा । नैवेद्य पूजा ॥ दोहा ॥ स्याद्वादथी ऊपनो, नित्यानित्य स्वभाव | षट् दर्शन नय संग्रही, आतम शुद्धनो भाव ॥१॥ (तेरी सूरत सजन मेरा जुहार रे ) प्रभु मूरति संयम तप मय रे, संयम तप मय नाण रे ॥ प्र० ॥ संयम उदय भया आश्रव तिमिर गया । आतम स्वभाव में रम रह्यो रे ॥ प्र० २ ॥ दुष्कर करण किया, भव दुख हरण भया । वर सादि तप कर कर्म जया रे ॥ प्र० ३ || इक्ष्वादि भोज्य लह्या, मोदक परमान्न गह्या । घेवर साकर द्राख पाक लह्या रे || प्र० ४ ॥ इन विधि पारन किया, भविजन मुक्त दिया । जिनचन्द्र अनुभव रस लह्या रे ॥ प्र० ५ ॥ ॥ श्लोक ॥ अन्यालिप्त स्वरूप शुद्ध सहितं, अव्याप्ति निस्संगता, भव्यानां शुचि बोधकं हितकरं सद्भावना भावितं । नैपुण्यैः पुरुषैः सुगंध सहितैः सद्ज्ञान भिर्निर्मितं, सद्भोज्यै र्जिननायकं शुभमनैः, चारित्र भावं यजे ॥६॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेदज्ञान संयुक्ताय श्रीमज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः नैवेद्यं यजामहे वाहा | फल पूजा ॥ दोहा ॥ चारित्र पद अति निर्मलो, अविचल सुखनों धाम | सुरनर पूजो फल करी, वोध वीजनो ठाम ||१|| ॥ सोरठा ॥ श्री जिन पद आनन्द युत, फलसें पूजो भविक । चारित्र पद सुखकंद, ज्ञान नैन दाता अधिक ||२|| cytest touchstonechoketantnettled Untatocht taetutiontents Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार ( कौन बन ढूढ री माई ) अब चारित्र भूषित श्री जिनफल से पूजोरी माई भविजन पूजोरी माई ॥ अ० ३ ॥ सामर्थ्य योग द्विभेद सन्यासी, धर्म योगअभिधायी । मोहादिकक्षय उपशम रूपे, कायोत्सर्ग लयलायी ॥ फलसें ४ ॥ योगतणी अड दिठ्ठीमांहे, धैर्यादि चार रहाई । निर्मल दर्शन बोधनोधामी, थिरदृष्टि सुहाई || फलसें ० ५ ॥ अल्पाहार निहार सुरभि गंध, कांता धर्म प्ररूपी । उपशम शान्ति ध्यान नो सागर, परमा दिनकर रूपी ॥ फ० ६ || आतम अनुभव शिवनो हेतू परा अपूरव भाई । क्षीणमोह गुणठाणे प्रकृति, क्षयकृत शेष ठहराई ॥ फ० ७ ॥ सत्तावन उदय गत भावें, अवेद्य संवेद्य नसाई । वेद्य संवेद्ये जिनचन्द्र ष्टि, अक्षयपद सुखदायी || फ० ८ ॥ ॥ श्लोक ॥ ४२४ ************ ******** सद्भावं जलधारकं स्थिरतरं भू धर्म आसास्थितः, चारित्रं परिणामकं सुखकरं बीजैक कल्पद्रुमः । अंकूरं अशुभं निवर्तितकरं ध्यानं व्रतं पंचकं, ज्ञानादिः फल पूर्णता फल शिवं चारित्र महमर्च्चये ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान सहिताय श्रीमज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः फलं यजामहे स्वाहा । अर्घ पूजा श्री सकल जिनचन्द्रं भक्तितोये यज॑ते, अविचल निधिकोशं दीक्षया प्राप्नुवते । त्रिकरण शुभयोगैः ध्याययन् मोक्षलक्ष्मी, अचल विमल सौख्यं सिद्ध भाजं भवन्ति ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुर्विंशति तीर्थंकराय वेद ज्ञान संयुक्ताय श्रीमज्जिनेन्द्राय चारित्र कल्याणकेभ्यः अर्घं यजामहे स्वाहा । केवलज्ञान पूजा ॥ दोहा ॥ ( छेद त्रिभंगी ) वंदू जिन पद पंकज सुखदाइ, कल्याणक सुखधाम । केवल कमला प्रभु प्रगट वरणणे, श्रवण मिले सुखकाम ॥ १ ॥ शिव संपति दायक सुरनर नायक, पूजित पद अभिराम । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hattatre Matthండదండం మనందంగుడు ४२५ Bilaola wimm पूजा-विभाग भविजन मन भावन श्री, जिनचन्द्र भजो निज आतमराम ॥ वरवाणनाण में परम अमोला, झल हल भानु समान । षट् द्रव्य भावकं आविर भावे, कीनो जान सुजान, एतादृश महिमा पूरण पूरित, तीन लोक गुन खान ॥ भविजन० २॥ धन धन जिन नायक नाम, रूप गुण ज्ञान अनंत विलास । सांभल मन भावन पावन, कीरति सकल सुचेतन वास । मिल पाने कारन काज संवारे, भक्ति अखय गुरु वास ॥ भ० ३ ॥ (गुण अनंत अपार ) ज्ञानामृत रसकूपे प्रभु तुम, समता जलधि सरूप ।। प्रभु० ॥ पंचदश पर कीरति क्षयकर, पायो सयोगी ठाण । चत्वारिंशत् नेत्रे शेषे उदयिक 9 भावे जाण ॥ प्र. ४ ॥ करम दुक्कर तिमिर ध्वंसक, प्रगट्यो ज्ञान खभाव । लोकालोक प्रकाशे दिनकर, वस्तु अनंत खभाव ॥ प्र० ५॥ सर्व द्रव्यगत सर्व पर्याय, परदेश भाव अनंत । सर्व प्रदेश एक द्रव्य गुण, बोध भाव अनंत ॥ प्र० ६ ॥ स्वपर पर्याय सर्वज्ञाता, गुण अक्षय जिनचन्द । विशेषावश्यक द्वितीय ज्ञाने ए अधिकार दिनंद ॥ प्र० ७ ॥ ॥ श्लोक ॥ निर्व्याघातं समस्तं, भविजन हितदं नैर्मलं बोधवीजं, लोकालोक। प्रकाशं स्वपर दिनमणि मोक्ष लक्ष्यैक हम्य । भावान्या व्याप्त रूपं परम गुणधरं शुद्ध सद्पयुक्तं, कैवल्यं तीर्थनाथं सकल गुणयुतं तीर्थकः स्नापयामि ॥८॥ । ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोका लोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थंकृतां केवल कल्याणकेभ्यो जलं यजामहे Taalaikishalisakkshedhakiki-kishalatabathstooldskisleadiatimeslalishaliliolatalalalastakikeelialialisaoladikalikakakakakelielidkoshnidiokatenelialisinlishaliniEaliSusliamsskolacislandsliderlekaisediealis स्वाहा। . चन्दन पूजा ॥दोहा॥ अनन्त गुणनी संपदा, प्रगट भई सुखकंद । ऐसे जिन पद चंदने, अर्ची परमानंद ॥१॥ e 54 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ Pink INI NHI h 11-%%%%%** जैन - रत्नसार ******** ( मूरति शान्ति जिनन्दनी ) tor. समवसरण छवि निरखने, सुरनर मुनि हरखाय ॥ स० ॥ ज्ञान घनाघन ऊमह्यो, गरजारवधुनि थाय । आतम परणति बीजली, आतम नयरिपोष || स० २ ॥ शतत्रय जिहां धनु जलधारा उपदेशे । भविजन मन निश्चल रही, चातक विरत विशेषे || स० ३ ॥ करम ताप उपशम जिहां, वक पंक्ति शुभ ध्यान । वायूते स्याद्वादता निरुपम जिनचन्द्र वान || सम० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ , देवेन्द्रः यस्य भक्त्या समवशरण के चैत्य पीठं च चक्रे, श्री तीर्था धिप वचन गुणयुतः प्रातिहार्याष्ट युक्तः । चत्वारो मूलरूपै रतिशय सहजै रुद्रघातिक्षयाच्चनंदं द्विमाधिकैकं परमतिशयैश्चन्दनैरर्च्चयेऽह ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यः चन्दनं हे स्वाहा । पुष्प पूजा ॥ दोहा ॥ सकल गुण निर्मल करी, भावो जल जिनराय । द्रव्योज्वल सत्पुष्पथी, पूजो जन मन भाय ॥१॥ ( जाग रे सब रयण विहानी ) " प्रभु निरखत भवि मन अति लोभा ॥ प्र० ॥ समवसरण विच स्वामि विराजे, द्वादश पर्षद अनुपम शोभा ॥ प्र० २ ॥ अष्ट प्रातिहार व्यञ्जन करि शोभे, मनोहर पैंतिस गुणयुत वाणी । घातिक्षय एकादश अतिशय मूला तिशय चार वखाणी ॥ प्र० ३ ॥ एकोनविंशति सुरकृति अतिशय, परिणामिक सत्ता ये विलासी । श्री जिनचन्द्रजी पूरण ज्ञानी, विन चिंतन अप्रयासी ॥ प्र० ४॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఆడattitis కంద పోవడం జరుగును కుదురుకుటtstatistate पूजा-विभाग ४२७ Budhathokiataladiolantatalasahakikatiahindiadodartakkadishaktishalinilakakakis a tion ॥ श्लोक ॥ पर्यायानन्त धर्मैः स्वगुण वरयुतं, भंग निक्षेप गम्यैः, हेयादेय प्रवाहै भय नय सहितैर्दायकैः शुद्धबोधम् । सौम्यैः सौगंधयुक्त विबुध सुखकर, स्व स्वभावैरगाधं, नैर्मल्यैः पञ्चवर्णैः सुरभि सुकुसुमैरर्चयेऽहं जिनेन्द्रान् ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यो पुष्पं यजामहे स्वाहा । धूप पूजा ॥ दोहा ॥ अनंत तीन अगाधता, केवल ज्ञान निधान । ऐसे जिनवर धूप तूं, पूजो भक्ति विधान ॥१॥ ( मूरत थारी मोहनगारी आछी प्यारी लागे) श्री जिनराज हो अनुपम परमशुद्धता है थारी। गुण ज्ञानादिक पर्याय पंच, अविचल संपद सारी ॥ श्री० २ ॥ क्रम भावी पर्याय कहीजे, गुणजे धर्म स्वकामी। एक अनेक अस्ति अपर युत, निजगुण भोगि अकामी ॥ श्री. ३ ॥ पुद्गल वर्णादिकामना शब्दे, तेहनी भोगता त्यागी आतम भाव रहे जिनचन्द्रे, आवि सुक्खने रागी ॥श्री० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ शुद्धकं तीक्ष्ण भावैः सकल रिपुजयोद्घोष कीर्तिविशालं, वेत्तारं सर्व वस्तुन्गुणमगुण यथा वस्थितं निर्विकल्पैः । भावाभावं निजगुण रमणं दाहक अष्ट कर्मान, शुद्धात्मज्ञानरंगैः कलिमलि दलितैर्गंध धूपैर्यजेऽहम् ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यो धूपं यजामहे स्वाहा। alitarastratorlarkiokiste-de-a-corapalistiathakathkrticladlilionwliakankalanielilialistashairiilaalisada-ATrailablet Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ AtmalishaastakindializiliatuRAERESTIMA T ERAKASHetxmalkiniATHEATRE जैन-रत्नसार दीपक पूजा ॥ दोहा ॥ आत्मानंदित बुद्धता; निज भावे लयलीन । सर्व वस्तु परकासता, शिवमारगनो दीन ॥१॥ (वीर जिन प्यारे मैं ) मेरे मन केवल ज्ञान लुभायो, दरश सुहायो ॥ मे० ॥ नयगम भंग निक्षेपें प्रभुजी, चउविह धर्म बतायो ॥ मे० २ ॥ उत्कट निज गुणनो छे भोगी, योगी योग रमायो ॥ मे० ३ ॥ परमातम खपर उपयोगी, रसिक तदात्म समायो । मे० ४॥ स्व पर शक्ति सहज प्रवती शुभध्याने लय लायो ॥ मे० ५॥ अयोगी पिण पुद्गल त्यागी, जिनचन्द्र दरश में पायो । मे० ६॥ ॥ श्लोक ॥ भावान्य ध्वंसक तिमिर तरणि बद्भव्य जीवान्प्रकाशं दीपं सम्यक्तव रूपं सकल तमगणं, कंक मिथ्यात्वनाशं । राग द्वेषाज्यवर्ति प्रवल जिन तपो वह्नि प्रज्वालनं च, सज्ज्ञानं सुप्रकाशं, सकल जिनगृहे दीप मुद्दीपयामि ॥७॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यो दीपं यजामहे स्वाहा । अक्षत पूजा ॥ दोहा ॥ जीवादिक निज परणतें, वसे सर्व परिणाम | पिण प्रभुता पामें नहीं, विण केवल निजधाम ॥१॥ ॥ असरण सरण चरण कमल श्री जिनराजके ॥ च्यारि कर्म धातिमर्म शिव सदन मिलान के । च्य० ॥ केवल परम ज्ञान भान ज्योतिरूप मान के ॥ च्या० ॥ आतम वरस नो सागर जिन E NiscakantaliatiS harellist-tilisinfilmindiaiminishanirdoieds- Thiladkistani Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAHARAHARYAikliotishalinindiati-kathadotionalatakarskirhitaraikirtankikeekakiranathaplastisttamataramserestatementarnar पूजा-विभाग वर, स्वगुणराग अन्य त्याग वस्तु भाग वीतराग, जगत नाथ मुगति साथ ज्ञान भास के ॥ च्या० २ ॥ नित्यादिक भेदें वर प्रभुता, परिणामि कत्व ग्राहकत्व व्याप्त बोधकर्तृ कर्म, हर्तृ आदि शक्ति वासके, ॥च्या० ३ ॥ निरमलस्या द्वादनी मुद्रा,जिनचन्द दुख निकंद, बोधकरंगुण अमंद तत्वरंग, दोष भंगद्रव्य रूप जास के ॥ च्या० ४॥ ॥ श्लोक) नास्तित्वास्तित्व भावै जिनवर गुणैः सर्व भावेषु बोध्यं, स्याद दस्तित्वं कथं चिद्रहितं मुभयकं, नास्ति भावं कदाचित् । श्री स्याद्वादो, पदेशं भविजन हितदं नैर्मलं बोध बीजंनव्योत्पन्नैः सुगंधैः सकल जिनवरं अक्षतैरर्चयेऽहं ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये । जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यो अक्षतं यजामहे स्वहा । नैवेद्य पूजा ॥दोहा॥ केवल ज्ञान निधान तें, प्रभु महा धनवान । नैवेद्यं जग तातकू, पूजो भविक सुजान ॥१॥ माई पूजना मन रंगे कीजे, जिनवर ब्रह्म कू ॥ मा० ॥ पंचम चिद्रूप भावो, परम पदारथ पावो । कामधेनु सुरतरु मणि, समवेदें ज्ञान शुचिकर्म । कू ॥ मा० २ ॥ आतम गुण अनुरागी, पर पुद्गल रागनो त्यागी। अवि- ।। हरण पूजन, दूर करूं त्रय धर्मकं ॥ मा० ३ ॥ धन धन वरगुण नाणी अमिय सम जिनवर वाणी। मन आणी नैवेद्यं अव भजो जिनचन्द्र परम कू ॥ मा० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ श्रीमत्तीर्थङ्करेषु दृढतर सकलं कर्म नाशं च कृत्वा, रुद्रं विनाधिकं, द्विप्रकृति रुदयिकं प्राप्तं कैवल्य शेष ज्ञानोत्पन्न प्रकर्ष, मित मधुर तरं गंधसौरभ्ययुक्तैः । श्री सर्वज्ञं सुभोज्यं प्रवर गुण युतै मंगलंढोकयेऽहं ॥५॥ PRAMMAalhalnitialhota balikicle-nrelplinaliheroineK Holikalilicialishalinindislniliadiadiohakradhalishshaladasindiseskin hindisankashtishaliloilk inaleslamaniangilantaslimsinalishshalaailalaakolabhkaalinionladealhdkiladishearindialigal AaiMathshotishaliKAI BAtharitaliATY-BAHATEtiantation.TA.Bathetithili Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ katta Kakadiolatesta-liclashse httrak i HISRAKAXXGARBIERRIAGhodai k जैन-रत्नसार ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थ कृतां केवल कल्याणकेभ्यो नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । फल पूजा ॥ दोहा॥ परम पावन ज्ञानमय, भविजनकं सुख देत । ऐसे दानी पूजिये फलकरि भक्ति सुचेत ॥१॥ ॥ तेरे चरण कमल भेट ॥ विमल ज्ञान कांति देख वोध बीज पइयां ॥ वि० ॥ मोह रिपुनाशकृत्, भविक जन शासकृत् । ज्ञान ध्यान भूल भूत अविचल सुख दइयां ॥वि०२॥ निर्मल फिटक मान शुभ, अशुभ भाव जान पण अशुभ पुद्गल इव दुरथी तजइयां ॥ वि० ३ ॥ शुद्धता रमण रूप, भोग्यता गुण स्वरूप । परम अखय रस जिनचन्द्र पद लहइयां ॥ वि० ४॥ ॥ श्लोक ॥ चारित्रं अभ्रयोगं गुण परिरमणं, चंचला तेज युक्तं, घोषं गर्जारयोगं त्रिक धनुष विडोजं दया वारि धारै । चैतन्ये धर्म भूम्यां गुण सकल जलैवीज सम्यक्तव रूपं तस्मात् कैवल्य रूपं, अतुलक फलदं सत्फलं ढोकयेऽहं ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यो फलं यजामहे स्वाहा । अर्घ पूजा श्री अक्षय जिनचन्द्रं निर्मलं ज्ञानयुक्तं, अविचल निधि धाम भक्तितो धाययन्ति त्रिकरण शुभ योगैः राज्यलक्ष्मीभवन्ति त्रिविद अचल सौख्यं सिद्धिरूपं भवन्ति ॥११॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यः अर्घ यजामहे स्वाहा। AKASExarastratakareMINETINokiarietalalalonlineneratelima ranslatiotakomayakokhrestina-la-ka-MARAT terialisaaraaledislaminimalkalai - * Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Art-tattatatt-ki-TRAITATATE-A-MAGESist-tarikaalantatsol-del-ANAYEntestatutistiatitatickete पूजा-विभाग ยไปได้ไละจัดโดย ...... -THAPAIKSATELear. Xeneไลนใดนะคะ ใครได้อะไekers 4 -12- 0 ....Hindi-RESEARLS-E-KAL-:-E-AEL.E.-T मोक्ष कल्याणक पूजा जल पूजा ॥ दोहा॥ पूजो निर्मल मन करी, अविचल पदनो ठाम । मुक्ति कल्याणक ध्यावतां, पामें अखयपद धाम ॥१॥ (तुम साहिब सुखदाई कुशल गुरु) सादि अनन्त सुखदाई, श्री जिनसादि अनन्त सूखदाई । सुखम योग निरोध न करके, आयुजी वीर्य रहाई ॥श्री०२॥ निय निय तनुमान, ऊन त्रिभागे घन पर देश समाई । द्विसप्तति परकीरति क्षय कर, तेरे अंतर माई ॥ श्री० ३॥ पूर्व प्रयोगति गतिने योगें, सहुसंग त्याग कराई। एक समय अणफरस प्रदेशं चउवीसम भाग ठहराई ॥ श्री० ४ ॥ सप्तभंगी अनन्त चतुष्टय परावर्त रहाई । श्री जिनचन्द्र अखय निधिदायक, सुरतरु सम अखय कहाई ॥ श्री० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ वीर्यायुं जीव रघनतरं योगरोधं च कृत्वा, भागोनं निज धन कृतं । सर्व मात्म प्रदेशान् । सिद्धस्थानं अचल पदवी प्राप्त नैर्मल्य धामं, निर्वाणे श्री जिनवरगणान् सज्जलैः स्नापयामि ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्त चतुष्क सहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थंकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः धूपं यजामहे स्वाहा ॥ चन्दन पूजा ॥ दोहा ॥ निरुपद्रव शिवपद अचल, अव्यावाध स्वभाव । शिवपद चन्दन पूजतां, पावें कर्म विभाव ॥१॥ (तें तज दीनो साहिबा ) दर्शन दीजी साहिबा शिवपद ठायके । निराकारता घन परिणामें, กกะให้ดอกใครได้ไปไ ห นไกลใจให้คนได้ในไตไอดโคมไฟไปฟ้อง ในไต - ".. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Exampcakradstostorestsaatbabhiscelansattackatattotodadoosardasticotabo o ksattatrachettrateg ४३२ rammarrrrrrrrrrore sarattatrististration PadarttraEACHESHAKEEEE వమనండునుడు EYALAYERHITra जैन-रत्नसार अवगाहन अन्त समायके ॥ द. २॥ प्रभुकी प्रभुता लखिये किन पर अरूपी रूप रहायके ॥ द० ३ ॥ अनन्त सुख लयलीन भये प्रभु, सेवक चित्त लुभायके । एत दिवस मोहे रटता बीते, तुम गुण गण मन लायके । द० ४ ॥ पूर्वं भविजन कू बहु तारे, तारक विरुद् धरायके । श्री जिनचन्द्र विनती अवधारो, सेवक अपनो जनायके ॥ द० ५ ॥ ॥श्लोक ॥ कृत्वा दाहं प्रथम समये सप्तति द्वि प्रकृत्यः, शेषं विश्वं समय नयने, सर्व विध्वंश कृत्वा । अन्यास्पर्श गमन समये चन्द्रलोकान्तलक्षं, निर्वाणे श्रीजिनवरगणान् चन्दनैरर्चयेऽहम् ॥६॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्त चतुष्क सहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः चन्दनं यजामहे स्वाहा । पुष्प पूजा ॥ दोहा॥ श्री अरिहन्त अनन्त गुण, शिवपुर राज समिद्ध । ऐसे जिनवर पूजिये, सुमन करी भवनिद्ध ॥१॥ (ऊधो ऐसी तुम्हे कहियो जाय हो जाय) अजरा मर पदवर लीन हो लीन । परति भाव अगाधविलासी, आतम शक्ति स्वभाव विकाशी । चिदघन रूपी गुण अविनासी, निज गुण आतम पीन हो ॥ अ०२॥ निर गेही परमाण परमेही, निलेशी, | निर्वेश अमेयी, ध्यान वियोगी भविजन ध्येयी, उपशम रस माहे भीन हो ॥ अ. ३ ॥ अशरीरी उपभोग सुभोगी, निरावर्ण निगंध अभोगी, अखय जिनचंद अगंध अयोगी, अव्याबाध सुलीन हो ॥ अ० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ प्राग योगे नैवगति परिणामाच्च बंधाय संगं । उर्वगत्वा समय शशिभृद् योजने भाग जैनं, सर्व रूपं सकल भयगाह्यात्मशक्त्याविलासं । తమకం i ni etheliuoteAYahilapantarilrladkisteinstale whmtaram Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1263 पूजा - विभाग आत्मानन्दं जिनवर गणान् पुप्पमारोपयामि ||१|| ॐ ह्रीं परमात्मने चतुकसहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशतितीर्थंकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः पुष्पं यजामहे स्वाहा । ४३३ धूप पूजा ॥ दोहा ॥ स्पर्श निरमोहिता, रस संठाण विहीन । पूजो भविजनधूप सूं, जूं थावो गुणलीन ॥१॥ ( राग मल्हार ) शिव पद थारो नीको भव भायाजी, जिनराया म्हारे मन भायाजी ॥ शुद्धतम निज रूप विलासी, नो योगी अयोग कहाया जी ॥ जिन० २ ॥ ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय गुण गाजे राजे शिवपद राया जी ॥ जिन० ३ || तारण तरणविरुद धराई, निज गुण मांहि रहाया जी ॥ जिन० ४ ॥ कारज कारण किरिया त्यागी, अकर्तृत्व रूप रमाया जी। जिन सेवक मन वंछित पूरो, अचरज भाव सुहाया जी || जिन० ५ || श्री जिनचंद अय निधि दाई संघ उद्योत कराया जी ॥ जिन० ६ ॥ ॥ श्लोक ॥ त्यक्ताहारं मनुविरहितं नित्य चिद्रपभासं अव्यावाधं परिणतम गाधाक्षयं शक्ति युक्तं वेदानन्तं प्रति समयिकं भंगकं सायनन्तं क्षीणाष्टं श्री जिनवर गणं धूप दाहं करोमि ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुष्कमहिना अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थकराणां निर्वाण कल्याण येभ्यः धृपं यजामहे॒ स्वाहा॒ | दीपक पूजा ॥ दोहा ॥ एक सिद्ध अवगाहना, तिहां अनन्त समाय | नविजन शुद्ध स्वनावधी दीप करो मनलाय ||१|| shaile JALAAV Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 940 ४३४ -4204adakLL -ALLLLLL.... -Juk:- ArtistsARAMATKARIXELIARRIENDRIYAKLEENAEElimina skhYAPARASHARARRENTARIEYItaliatishtAttitataatankathatantantantimited जेन-रनसार (दिलदार यार गवरूं राखू चूंघट का पटमें ) । जिनराज रूप तेरा निज वस्तु धर्म हेरा, सज्ञान का उजेरा ॥ ध्याऊरे अपनो घट में घन कर्म भोग छेदी, भव तापनो विभेदी । ध्याऊं २ ॥ संठाण षट् नो त्यागी, आकार घन मांहि पागी अरूप चिद्रूपरागी, ॥ ध्याऊं ३ ॥ अलोकालोक भासी निज भावनो विकासी, जिनचंद अखय विलासी ॥ ध्या० ४ ॥ ॥श्लोक ॥ वर्णैः गन्धैश्चिर विरहितं मोह कर्ता च हीनं, भोगैयोगैः सरस रहित । पूर्णमानन्द स्वादी । भेदै दै रुचिक रहितं वाण संधै विहीनं, आत्मानन्दं जिनवर गृहं दीपक द्योतयामि ॥५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुष्कसहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थंकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः दीपं यजामहे स्वाहा। अक्षत पूजा ॥दोहा ।। निरवेदी निर्वेदता, क्षमी दमी जिनराय । अक्षत सिद्ध पूजतां, अचल अखय पदठाय ॥१॥ ॥ सोरठा ॥ मैं तेरी प्रीति पिछानी हो । सिद्ध पद सूं मन लानी हो भवि सिद्ध पद सूं ॥ अविचल नगरीनो अधिराजा, शिव रमणीय लोभाना हो ॥ भवि सिद्ध०२ ॥ अनन्त चतुष्टय उत्कट मंत्री, स्वामी भक्ति रहाना हो ॥ भवि सिद्ध० ३ ॥ मणि मंडित लोकाग्र सिंहासन, छत्र अलोक शुभाना हो । भवि सिद्ध० ४॥ दर्शन ज्ञान परावर्त चामर, अजर अमर दरसाना हो ॥ भवि सिद्ध० ५ ॥ सोइ कुंडल किरीट विराजे, शोभा रूप निधाना हो । भवि सिद्ध० ६ ॥ ध्याता ध्येय रमणता रूपें, हृदय हार पहराना हो ॥ भवि सिद्ध० ७ ॥ विविध स्तव उद्घोपन करतां, भंभानाद घुराना . हो ॥ भवि सिद्ध० ८ ॥ गुण परिकर करि अति छवि छाजे, जिनचन्द्रगज महाना हो । भवि सिद्ध० ९ ॥ Mahaka-4242-4. ----L44LL '.-.:.-"-4 .4.12 :3R- Druari.Jax Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा-विभाग ॥ श्लोक ॥ गेहे लेश्या रहित मधनं मार्दवं शक्तिवन्तं, ध्यानैर्मुक्तो सकल मनुजं ध्येय रूपं अनंगी। सङ्गैर्भङ्गै रहितमतनुं सर्वमेय प्रमाणं, आत्मानन्दं जिनवर गणं अक्षतैरर्च्चयेहम् ॥ १०॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुष्क सहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थंकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः अक्षतं यजामहें स्वाहा । नैवेद्य पूजा ॥ दोहा ॥ निज निज वस्तु परणतें, जानें सकल स्वभाव | विविध गुण परिणत करी, चाढो भोज्यनो भाव ॥१॥ ४३५ (भजलो हो भगवान कूं ) करले हो श्री सिद्ध ध्यान कूं, जो होय शिवपद डेरा त्याग जगका भावकूं, निज ज्ञानका उजेरा। जिम भानुके प्रकाशतें, अंधकारका नसेरा ॥ कर० २ ॥ ध्यान कर वर सिद्ध का जं कटे भवफंद तेरा । गारुडीय मंत्र सुयोग थी, नागपास का विणेरा || कर० ३ ॥ निरागीराग तेरा जूं मिटे अज्ञान अन्धेरा । दिनकर उदय जिनचंदतें षद्रव्य का उजेरा ॥ कर० ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ प्राग्भारैषा जग शिखरवत् सिद्ध सर्वार्थ शृङ्गा, तात्वाद्विषट् प्रमित सकलं योजनं ऊर्द्ध भोगे। चन्द्राकारार्जुन कनकवद्वजवतेज युक्तं सिद्धस्थानं सरस मधुरं ढ़ौकये नव्य भोग्यं ॥१५॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुष्क सहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । फल पूजा ॥ दोहा ॥ फल सूं सिद्ध पद पूजतां, होवे सिद्ध विलास I आतमगुण विकशित करी, भविजन घर उल्लास ॥१॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार ॥ रसना राम कही ॥ पुण्य उदय भयो आज, सिद्ध पद ध्यान धरी ॥ सि० ॥ आतम गुण परणति सं रमतां, निज गुण शुद्धवरी । ध्याता ध्यान ध्येय सुसमाधें, कर्म कलंक टरी || सिद्धपद० २ ॥ तुम स्वगुणरागी परगुण त्यागी, हूं तुझ राग करी । निरागी सूं राग करीने, कारण कार्य सरी ॥ सिद्ध० ३ ॥ भक्ति भर शुभ ध्यान धरीने, विकसित आत्म कली । वंछित पूरण सुरतरु सरिखो, चिन्ता दूर हरी ॥ सिद्ध० ४ ॥ चिन्तामणि सम धर्म अनूपम, भव भव शर्म्म दरी | चित्रावल्ली ज्ञाननो दायक, भवोदधि पार तरी ॥ सिद्ध० ५ || अखय जिनचंद सदा वरदायी, प्रकटी पुण्य घड़ी । निद्धि उदय आतम हितकारी, मङ्गल सङ्ग खड़ी ॥ सिद्ध० ६ ॥ ४३६ ॥ काव्यम् ॥ चत्वारिंशत्सुमति सहितैः, योजनं लक्षमानम्, बाहुल्यं षटूद्विसहितमितैः, योजनं मध्य भागे । तत्सयन्ते अतिशयतरं, पत्रवत्सूक्ष्म भावम्, सिद्धस्थानं सकल फलदं सत्फलैरर्च्चयेऽहम् ||७|| ॐ ह्रीं परमात्मने चतुष्क सहिताय अविचलनिधिस्थानाय चतुर्विंशति तीर्थंकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः फलं यजामहे स्वाहा ! अर्घ पूजा भट्टारकं गुण निधेर्जिनराज सूरेः पादेषु राम विजये पढ़ पाठकोऽभूत् । बादीन्द्र बाद मद भजन हस्तिनादं । शास्त्रार्णवे विविध तत्त्व विचार गामी ॥ १ ॥ क्रमादायत श्री महिम तिलकं पाठक महान्वभूव तच्छिष्यौ लवधि कुमरैश्चित्र सहितं । सुब्रह्म यत्स्पर्शं वसुशशियुतं वर्ष शुभदं तृतीयं सर्वज्ञो च्यवन तिथि पक्षे बिरचितः ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं परमात्मने चतुष्क सहिताय अविचल निधि स्थानाय चतुर्विंशति तीर्थकराणां निर्वाण कल्याणकेभ्यः अर्धं यजामहे स्वाहा । • कलश श्री सकल जिनचन्द्रं कारणं ज्ञानवृद्धेः, भवजलधिरङ्गं पञ्चकल्याण युक्तम् । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............................... ...........maran mmmmmmmmmarrirani.maraamaanam पूजा-विभाग । दुरित तिमिरदाहंशुद्ध सद्बोधबीजम् , अविचल निधिधामध्याययन्प्राप्नुवन्ति ।। ॥१॥ गणाधीशौदार्य सकल गुण रत्नैर्जलनिधिः । गाम्भीरो भूच्छ्रीमान् प्रवर । जिनराजैर्मुनिपतिः । तत्पट्टे सूरीन्द्रद्युमणि जिनरङ्गैर्खरतरः । वृहद्गच्छाधीशो । । भविजन निधानेक समभूत् ॥२॥ क्रमादायात श्रीजिन अखय सूरीन्द्रमभवत् । नराणां यत्तापं तदुपशमनं पूर्ण शशिभृत् ॥ तत्पट्टे मार्तण्डो भविक जसु बोधैक रसिकः । भुवौ विख्यातं श्री प्रवर जिनचन्द्रो विजयते ॥३॥ भविजन शुभ भाव भक्ति कल्याणक नमिये रे, गर्भ जन्म दीक्षा वरज्ञान परमातम पद पंचम जान । ए जिनवरके पंच स्वरूप, वरण न किये गणधर गुण रूप ॥ भ० ४ ॥ जिनकी वाणी गुण गणधीर, विविध अरथ त्रिपदी गम्भीर । श्री जिनराज चरण युग भक्ति, विलसी आतम भावनि वृत्ति । भ० ५॥ तिन प्रभुके यह पंच उल्लास, कल्याणक रचना इहां * भास । परम मंगल प्रभु पंच कल्याण, भविजन दायक परम निधान ॥भ०६॥ श्रवण मनन ध्यायन मनलाय. भविजन गान किये अघ जाय । वृद्ध मनोहर खरतर धीश, गणभृत श्रीजिन अखय सूरीश ॥ भ० ७ ॥ तत्पट्टे । उदयाचल भान, श्री जिनचन्द सुरिंद सुजान । तसु आज्ञायें भक्ति उदार, रचना कीधी संघ हितकार ।। भ० ८ ॥ ज्ञान निधि गुणमणि भंडार, महिम तिलक पाठक सुखकार । तत्पंकज मधुकर सुख पीन, चित्रलब्धि आतम गुणलीन॥९॥ तत्पद निद्धि उदय जगभान, जिन आज्ञा प्रतिपालक जान||१०||भाग्य नन्दी गुरुपद अनुरक्त पाठकचरित्र नन्दीयुक्त कलकत्ता मंदिर सुखधाम, राजऋद्धि पूरण सुखकाम । तसु श्रावक अति तत्व विचार, धर्मतना जाने सुविचार ॥ भ० ११ ॥ पुण्योदय महणोत विख्यात, चंद महताव धरमशुभभात । जीवादिक शुभ तत्त्वनो ज्ञान, तिन प्रेरक थी रचना जान ॥भ० १२॥ नन्द, वसु प्रवचन शशि रूप,सम्भव च्यवन दिसव दिन । भूप । भणस्ये सुणस्ये जे नर भाव तस घर थास्यें निद्धि स्वभावा। भ० १३॥ * रंग विजय खरतर गच्छीय ज० यु० प्र० वृ० भट्टारक श्रीपूज्यजी श्रीजिन अखयसूरिजी महाराज के शिष्य जं० यु०प्र० वृ० भट्टारक श्री पूज्यजी श्री जिनचन्द्र सूरिजी महाराज ने यह , पञ्चकल्याणक पूजन विक्रम सम्बत् १८८६ मि० फागुन सुदीको कलकत्ते में रची है। niccheledulesolasalistianslashwanlnelialesaliano-linickonsaclipisticosteiotieoholicladisaslcolinolidaestheneerinehakakirasachers Yamahaliniclilaaledarliametialondonla-tattathalilanatmlaliralesterolajarlestatitatestetriotolatathalaldkiy Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ४३८ wwwmarawwwmwrur. me hibitigleslnitaliansthxbiluetootinikaaladaki t alit जैन-रनसार चतुर्दश राजलोक पूजा जल पूजा ॥ दोहा ॥ पय प्रणमी जिन राजना, भाव धरी उछरंग । लोक चवदनी वरणना, भाखू हूं मन रंग ॥१॥ स्वर्ग मृत्यु पाताल में, शास्वत जिनवर जेह । त्रिकरण शुद्ध करी हिये, बंदू हूँ ससनेह ॥२॥ सात राज नीचे कह्यो, अधोलोकनो भाव । सात राज ऊरध कह्यो, तेहनूं कहूं प्रस्ताव ॥३॥ अठारे सहस जोयण कह्यो, तिरछो लोक उदार । द्वीप समुद्र असंख्य है, तेहनो सुनो अधिकार ॥४॥ अवर द्वीप कूटादिके, ते कहिये विरतार । सुनता लाभ हुये घणो, सफल हुये अवतार ॥५॥ द्वीप अढ़ी में चिहुँ दिशे, बंद नित जिनराज । ऋषभानन चन्द्रानना, वारिषेण महाराज ॥६॥ वर्धमान चौथो सही, शास्वत श्री जिनराज । भाव धरी पूजो सदा, पावो सुक्ख समाज ॥७॥ शुद्धोदक लेई करी, पूजो दीन दयाल । अशुभ करम दूरे हुये, फले मनोरथ माल ॥८॥ (आज आयो रे उछाह जिवडा नाच जिनन्द आगे) भवि भाव धरी जिनवर पूजन करिये रे ॥ भ० ॥पहली रतन प्रभा इम जान इकलख अस्सीयोजन मान ॥ भ०९ ॥ धुर दस योजन रेणू जान, फिर अस्सी में व्यन्तर मान || भ० ॥ अणपन्नी पणपन्नी देव, आठ निकाय । है, कही नित मेव ॥ भ० १० ॥ दस जोयण वलि रेणू जान, ए सत योजन * लेखो आन ॥ भ० ॥ अठ शत जोयण मध्ये जान, देव पिशाच कह्या । tasohagarrtantratislatkaarak katrinstatestimatatutistiasis hinkshitiethinkaliwith totakhatarnatakkarttartistation-Jamkutaratmakirtantriketatiotrothinthakre imarilotaladiatialignitialamlakatinkalmalailarliamisherakathalalithalilindirkaisintendladialilitaramatiiiiiilalidati-MARKEERTAINEstatstallatkarse ammeshwaranas Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ నరసానం దండిగhter implantha पूजा-विभाग ४३६ ..... -BANKahele. ปังไขปังสักนักให้ได้ไปัตโตในสัดใจให้ใจได้ไพโดยคนได้ใจได้ -A - GEET ใน l ilialishi जगभान ॥ भ० ११ ॥ सौ योजण बलि पृथ्वी पिंड, इन पर सहस जोजनो कंड ।। भ० ॥ सहस योजन ऊपरला ढाल, प्रथम प्रतरनो भेद निहाल ॥ भ० १२ ॥ तीन सहस ऊंचो परमान, नारकी जीव रहे तिण ठान ।। भ० ॥ इन परतेरे प्रतर सुजान, तिन पर सहुने छे परमान ॥ भ० १३ ॥ नारकि जीव रहे तिण ठाम, शास्त्र थकी अवधीनो नाम ।। भ० ॥ प्रतर प्रतरको अंतर जोय सहस इग्यारे पांचसौ होय ॥ भ० १४॥ ऊपर तियासी योजन धार, इण पर दाखे सहु गणधार ॥ भ० ॥ असुरादिक दस देव निकाय, भवनपति ए सहु कहवाय ।। भ० १५ ॥ अंतर माह रहे ए देव, इम भाखें जिनवर नित मेव ॥ भ०॥ सात कोडने बहुतर लाख, भवन पतिना भवन ए दाख ॥ भ० १६ ॥ सहस योजन वलि नीचे जान, नारकी रहित भविक मद आन ॥ भ० ॥ एक लाखने असी हजार, प्रथम नरकनों पिंड विचार ॥ भ० १७ ॥ एक लाख बत्तीस हजार, दुजी नरक तणो अवधार ॥ भ० ॥ प्रतर इग्यारे कहा जगदीश, गुरु मुख थी धारो निस दीश ॥ भ० १८ ॥ एक लाख अट्ठाइस हजार, वालुक पिंड कहे गणधार ॥ भ० ॥ पंक प्रभानो पिंड विचार, एक लाख वलि वीस हजार ॥ भ० १९ ॥ पांचमी धूम प्रभानो पिंड, एक लाख अठारे कंड ॥ भ० ॥ एक लाख सोले हजार, छट्ठी तम प्रभानो अवधार ||भ०२०॥ सहस अठारे ने वलि लाख, सातमि तम तमानो ए दाख ॥ भ० ॥ इन पर सात राजनो भेद, सतगुरु भाखे धार उम्मेद ॥ भ० २१॥ शाश्वत चैत्य इहां जिन जान, ते वन्दों भवि गुणमणि खान ॥ भ० ॥ सुमति सदा सेवो जिनराज, वंछित पूरण ए महाराज ॥ भ० २२ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वता अशाश्वता जिनेन्द्राय अष्ट द्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । द्वितीय चन्दन पूजा ॥दोहा॥ बावन चंदन कुंकुमा, मृगमदने घनसार । पूज करो जिनराजनी, उत्तम फल दातार ॥१॥ ไละไอได้ให้ได้ไงได้อใดไกลโกงกะโละชัดชัด HATHEphilmitiatimliliali-holistiaractersekeeTESTimi ในใจได้ใจคนดได้งมังใจใจจได้ไหะดฟัดดงดง ใeleได้ใจได้ในไดนใจ Maina.katri-MARATHI-HATTART-CET-HEET- ไว้ใจได้ ในวันนัดปัดไดใจ ไอไหนไม่ได้" Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇతరులను మంతను న ४४० వరకు RamGERMAIIMIRECEREAKESAMEE Rasisamarpalishindialistimate వనందనవనం जैन-रनसार हिवे तिरछा लोकमें, नर तिथंच विशेष ।। भेद विचार सुनो तुमे, तनमन कर शुभ लेश ॥२॥ जम्बुद्वीपे जे कह्या, शाश्वत श्री जिन सार। मेरू ऊपर शोभता, वन्दो भवि सुखकार ॥३॥ कंचन गिरि पर शोभता, शाश्वत जिनवर देव । भाव धरी सेवो सदा, मन वांछित फल लेव ॥४॥ वलि गजदन्त ऊपरे, शाश्वत श्री जिनचन्द । वक्षस्कारे वलि नमू, शाश्वत श्री सुखकंद ॥५॥ जम्बू वृक्षे वलि नम, भाव धरी मन रंग। श्री वैताढ्य गिरीदना, वंदु धर उछरंग ॥६॥ नन्दी सर रुचकादिके, भाख्या श्री भगवंत । भाव धरी मुनि वांदता, पावे सुक्ख अनंत ॥७॥ श्री मानुषोत्तर ऊपरे, चैत्य कह्या जिनराज । ते वंदे मुनि प्रेम सूं, निज गुण भक्ति समाज ॥८॥ ॥ ढाल फागणी ॥ (ब्रज मंडल देश दिखावो रसिया) अब तिरछो लोक सुनो ज्ञानी, अब तिरछो लोक सुनो। तिरछो लोकमें द्वीप समुद्र हैं, असंख्याता कहे ज्ञानी ॥अब० ९॥ जलचर थलचर जीव सबेही, रहे सदा कहे गुरु ध्यानी ॥ अब० ॥ अणपन्नी पमुहा देवन की, राजत है जहां राजधानी ॥ अब० १०॥ नव सौ योजन ऊपर कहिये, जोतिष देव महा ज्ञानी ॥ अब० ॥ ग्रह गण तारा सूरज चन्दा, चरथिर रूप भविक जानी ॥ अब० ११ ॥ ऊरध भागमें अपर उदधि हैं, आधेमांहि चरम पानी । अब० ॥ लवण समुद्र में लवण सरीखो, मीठो चरम उदधि पानी । अब० १२ ॥ जिन प्रतिमा आकारे जलचर, देखि लहे व्रत बहु प्रानी ॥ अब० ॥ पहिलो जम्बु द्वीप बखाणो, लाख योजनो शुभ थानी ॥ अब० १३ ॥ जगती वेदी करि अति शोभित, केकि करत Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ &ttarkast पूजा - विभाग ४४१ जहां सुर रानी || अब० || चारे पासे चार वरणना, विजयादिक सुर रहे जानी ॥ अब० १४ ॥ दोय लाख लवणे करिवींट्यो, खारो जेहनो बहु पानी || अब० ॥ अनाढिय नामे देव तेहनो, मालिक छे सुनो भवि प्राणी || अब० १५ || दुजो धातकी खंड कहीजे, चार लाख है पर - मानी || अब० ॥ अठलख योजन समुद्र वींटिया, कालो दधि नाम सुनो ज्ञानी ॥ अब० १६ ॥ सोलह लख योजन परमाणे, द्वीप पुष्कर वर गुणवानी || अब० || बीच मानुषोत्तर परवत कहि ये, इतनी सीम मनुष जानी ॥ अब० १७ ॥ तिणथी आगे द्वीप आठमो, तेरमोरुचक कहे ज्ञानी ॥ अब० ॥ बत्तीस रतिकर सोले दधि मुख, चार अंजन गिरि कहे जानी ॥ अब० १८ ॥ तसु बीचमें है चार बावड़ी, कमल सुशोभित हैं पानी || अब• || बावन मन्दिर जिनवर दाख्या, ते वंदे मुनि शुभध्यानी || अब० १९ ॥ साधू जंघा विद्याचारण, वंदे जिनवर सुख खानी || अब० ॥ इण पर एक द्वीप में उदधि, असंख्यात तिरछे जानी ॥ अब० २० ॥ ॥ पनिहारी री ॥ जम्बुद्वीपना भरत में, सुखकारीरेलो । खंड कह्या छह सार, वाला जी ॥ मध्य खंड उत्तम कह्यो, सु० आरज देश प्रधान ॥ वाला जी ॥ साडा पंचवीसक जिण कह्या, सु० जहां जिन धरम सुजांन बाला जी ॥२१॥ जिनवर मुनि मुनिवर केवली, सु० विचरे जहां मुनिराज बालाजी । तप जप संजम आदरे, सु० सफल करे निज काज वालाजी ॥ २२ ॥ त्रेसठ शलाका जहां कह्या, सु० तेना सुनो अधिकार वालाजी । बारे चक्री जानिये, सु० सब में ए सरदार बालाजी ॥ २३ ॥ वासुदेव नव महावली, सु० सुर धीरज अवतार वालाजी । प्रति वासुदेव कह्या बलि, सु० नव संख्याये धार बालाजी ॥ २४ ॥ तीर्थंकर चौबीस ए, सु० सुनज्यो धर शुभ भाव वालाजी । ऋषभ अजित सम्भव नमो, सु० अभिनन्दन महाराज बालाजी ॥ २५ ॥ सुमति पदम सुपारसजी, सु० चन्द्र प्रभ जिन 56 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRATARATHIMITRAishwakar-EADERarxraATHAKRENAARIETERMINEkak-terrorary । ४४२ برقی رهی تهیه می Athlistialiticlediolakitalilai-EARCHANAKSatikdeletedindia ......... जैन-रत्नसार राज वालाजी । सुविधि शीतल जिन साहिबा, सु० सारो वांछित काज वालाजी ॥ २६ ॥ श्री श्रेयांस जिनेसरू, सु. वासु पूज्य जिनराज वालाजी। विमल अनन्त जिन धरम जी, सु० धरम तणा दातार वालाजी ॥ २७ ॥ शान्ति कुंथु अरनाथ जी, सु० चिन्ता चूरण हार वालाजी । मल्ली प्रभु उन्नीसवां, सु० वीसमा सुव्रत देव वालाजी ॥२८॥ नमी नेमि बावीसम, सु० पारसनाथ सुसेव बालाजी। चौवीसमा श्री वीरजी, सु. देवे सुख नित मेव वालाजी ॥ २९ ।। धरम विशाल दयालनो सु० सुमति कहे मन रंग वालाजी। ए जिन उत्तम जानिने | स. पूजो भविक उमंग वालाजी ॥ ३० ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अप्ट द्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । तृतीय कुसुम पूजा ॥दोहा॥ सत पत्री वर मोगरा, चंपक जाइ गुलाब । पुष्प लेई जिनराज नी पूज करो शुभ भाव ॥१॥ ऊर्ध्व लोक में जे अछे, शाश्वत श्री जिनराज । परम शुचि हुय पूजिये, सफल होय सब काज ॥२॥ ॥ चाल नैना सफल थई । दिल में हरषधरी, भवि पूजो जिनवर सार दिल में हरष धरी । ऊर्ध्व लोक में जे अछरे, शाश्वत श्री जिनराज । द्रव्य भाव पूजो सहरेपावो सुक्ख समाज ॥ दिल में हरषधरी ३ ॥ पहिलो सुधरम नाम हैरे दुजो छे । ईशान । तीजो सनत्कुमार छे रे, चौथो माहेन्द्र जान ॥ दिल में० ४ ॥ ब्रह्म लोक पंचम कह्यो रे, छटोलांतक देव । सातमों शुक्र सहू कहे रे, धारो दिल नित मेव ॥ दि. ५ ॥ सहस्त्रार नामे आठ मोरे, देव लोक नो नाम । तियच जेहनी जे कहीरे, इतनी गति अभिराम ॥ दि. ६ ॥ नवमो आनत जानिये रे, प्राणत दसमो सार । आरणनाम इग्यारमों रे बारमो अच्युत धार ॥ दि० ७ ॥ ए सहु देव जिनन्दनी रे, आवे करिवा सेव ।। कल्याणक उच्छव करे रे, पावे सुख नित मेव ॥ दि. ८ ॥ कल्पोत्पन्न कही। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ కము anticstatics వాడు ముందు ముడుచుకుంటుందడుగు . . . . . ." tantrtasthitadkatiranka Tamtartue a kirlinkyaintighakhnathokistaketindiakirtan khetmlanohkrantonstitue-taineraturopear-tatistiryalasntatstarretatininemakitacioratatisthyanhatialistianiakunthalickmalanwartialhelichaala पूजा-विभाग जिये रे, ए सकला सुरराय । नव ग्रेवैयक जानिये रे, कल्पातीत कहाय ॥ दि. ९ ॥ तिण पर पंचानुत्तरें रे, देव कह्या जगभान । विजय नाम पहिलो कह्यो रे, दुजो वैजयंत जान ॥ दि० १०॥ जयंत नाम तीजो सही रे, अपराजित अभिराम । सर्वारथ सिद्ध जानिये रे, सब सुख केरो ठाम ॥ दि० ११ ॥ चार आठ वलि सोलना रे, चौसठने बत्तीस । इतने मनना सुन्दरू रे, मोती कहे जगदीस ॥ दि. १२ ।। कल्पातीत छे ए सहू रे, भावे वंदे तेह । एकावतारी ए सहू रे, भाखे प्रभु ससनेह ॥ दि. १३ ॥ लाख चौरासी ऊपरे रे, सहस सताणुसार । ऊपर वलि तेवीस छे रे, भाखे इम गणधार ॥ दि. १४ ॥ इहां जे शाश्वत जिनवरू रे, पूजो भवि सुखकार । सुमति सदा जिनराज कुं रे, वंदू बारम्बार ॥ दि. १५॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । चतुर्थ धूप पूजा ॥दोहा॥ धूप दशांग लेई करी, पूजो जग भरतार । अशुभ करम दूरे हुवे, प्रगटे सुक्ख अपार ॥१॥ चवदे राज ऊपर रहे, सिद्ध महा जयकार | तीन लोक सिर छत्र है, करुणा रस भंडार ॥२॥ ॥ चाल ( श्री चन्द्रप्रभ जिनवर साहब ) ॥ निरमल सिद्ध सिलाने ऊपर, सिद्ध रहे सुखकारा मैं वारी जाऊं सिद्ध रहे सुखकारा । निरमल जोत विराजे साहिब, निरमम निरहंकारा, मैं वारी जाऊं निरमम निरहंकारा ॥३॥ अनन्त ज्ञान दरशन जग प्रगट्यो, मिट गये करम विकारा, मैं वारी जाऊं मिट गये करम विकारा । अजर अमर अक्षय स्थित जेहनी, वोध बीज दातारा, मैं वारी जाऊं वोध बीज दातारा ॥४॥ राज चवदके ऊपर राजे, सिद्धशिला जयकारा, मैं वारी जाऊं सिहशिला जयकारा । पैंतालीस लाख योजन कहिये, स्फटिक रतन बहु सारा, मैं वारी जाऊं स्फटिक रतन बहु सारा ॥५॥ आठ योजन की जाड़ी ใดใดใดจะได้จใดพอไดโอดได้โดยตรงได้ใกปัดยจะดูดไม่ได้โดดโดยฝันไดคดโคกดอกไตใจไอดอกได้อะไรใดศองคโตไดโอดไหลไคลไกปัดไทรทองปลูไลได้ในไตโดดไไดไรจาสันโดษได้พได้ชัดได้ไคตไกลไดไไดไไดดดดได้โดยไAI ตอนนี้ได้สักคในใจใคร to lunke bare Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ attatrict నందనవనవ ననననననను sahatra కొనసావనను ENANCIAS itlemaniallass.. जैन-रत्नसार बिचमें, छेहड़े तनुक उदारा, मैं वारी जाऊं छेहड़े तनुक उदारा । उलटे छत्र आकारे दाखी, सूत्रे श्री गणधारा मैं वारी जाऊं सूत्रे श्री गणधारा ॥ नि० ६ ॥ घटारी मटारी छे अति सुन्दर, कारण क्षेम उदारा, मैं वारी जाऊं कारण क्षेम उदारा । जनम मरण , सब आधी व्याधी, दूर किया दुख सारा ॥ मैं० ७ ॥ अष्ट करमको दूर करीने, विलसे सुख अविकारा । मैं वारी जाऊं विलसे सुख अविकारा । सादि अनन्त थिति जेहनी छाजे, सेवे सुरनर सारा ॥ मैं० ८॥ जोगीसर तेरी गति जाणे, करुणारस भंडारा, मैं वारी जाऊं करुणारस भंडारा । गुण इकतीस प्रगट भए जिनके, प्रगट्यो सुक्ख अपारा ॥ मैं. ९॥ लोकालोक काछना प्रगटे, देखे भाव उदारा, मैं वारी जाऊं देखे भाव उदारा । मुरनर मुनिवर सेवा करत हैं, जय जय जग भरतारा ॥ मैं० १० ॥ धरम विशाल दयाल के नन्दन, सुमति कहे सुखकारा, मैं वारी जाऊं सुमति कहे सुखकारा । सिद्ध अनन्त की सेवा करता, सदा हुवे जयकारा ॥ मैं० ११ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्ट द्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । पञ्चम पूजा ॥ दोहा॥ दीपक पूजा पांचमी, करो भविक मन रंग। दीपक जिम प्रगटे सही, केवल ज्ञान अभंग ॥१॥ शाश्वत श्री जिनचन्द्र कं, नमन करी सुखकाज । भाव धरी नित पूजतां, पावें सुक्ख समाज ॥२॥ ॥चाल॥ ऋषभानन जिन सेवो रे मनवा, ऋषभाननन जिन सेवो। तारण तरण जिनेसर कहिये, देवें सुख नित मेवो रे ॥ मनवा० ३ ॥ लोकालोक प्रकाशक एही, एहना गुण नित गावो रे ॥ म० ॥ सुरनर सबही पाय परत हैं, एहनी आन धरावो रे ॥ म०४ ॥ तारण तरण यही अलवे सर, लुल लुल सीस नमावो रे ॥ म० ॥ लोक अलोक को सूहिज दरसी, तनमनसे गुणगावो रे ॥ म० ५॥ परम पुरुष परमेसर साचो, ए देखी नित राचो Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा - विभाग ४४५ रे ॥ म० ॥ अवर देव तुम काहेको ध्यावो, वीतरागको जाचो रे ॥ म० ६ ॥ इन सम अपर कौन उपगारी, भव भवमें सुखदायी रे || म० ॥ सुर नर मुनिवर सबही ध्यावे, सुरपति सीस नमायो रे || म० ॥ ७ ॥ भविक कमल तुम दरसन करिके, परम परमसुख पायो रे ॥ म० ॥ आज हमारे हरष बधाई, आज आनन्द उछायो रे ॥ म० ८ | आज अमी घर मेहला वरस्या, आज अधिक सुख पायो रे ॥ म० ॥ तारण तरण जिनेसरजीकी, पूज रची वरदायो रे || म० ९ ॥ रायपसेणी जीवाभिगममें, एहनो फल दरसायो रे || म० ॥ अष्ट द्रव्य चंगेरी धरके, विधि पूर्वक मन लायो रे ॥ म० १० ॥ धरम विशाल दयाल के नन्दन, सुमति प्रभू गुण गायो रे ॥ म० ॥ ए जिनराज की पूजन करतां, समकित शुद्ध उपायो रे ॥ म० ११ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । षष्ट अक्षत पूजा ॥ दोहा ॥ अक्षत अमल अखंडले, पूजो दीन दयाल | मंगल आठ करो वली, प्रगटे मंगल माल ॥ १ ॥ श्री चन्द्रानन जिनवरूं, दुजा श्री महाराज । सुरतरु सम सेवी सदा, वंछित पूरण काज || २ || यात्रीडा भाई यात्रा निनाणूं करिये ॥ सखीरी ए जिन पूजन करिये रे। जिन सेव्यां भवजल तरिये, सखी री ए जिन पूजन करिये ॥ श्री चन्द्रानन महाराजा रे, जग जीवन तं जिन राजा रे, प्रभु तारण तरण जहाजा || स० ३ || तुम वीतराग गुण राजा रे, सुरनर सब पूजन काजा रे, आवे भगते ले शुभ साजा ॥ स० ए० ४ ॥ ए करुणा निधि महाराजा रे, प्रभु दोष रहित मुनि राजा रे, सेव्यां सफल हुए वर अष्ट द्रव्य शुभ लेई रे, पूजो जिनराज निज देही ॥ स० ए० ६ ॥ इमशाश्वत श्री जिन सब काजा ॥ स० ए० ५ ॥ सनेही रे, जिम सफल हुवे राजा रे, बलि तारण Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CIRCLE ACCOelyck जैन-रत्नसार तरण जहाजा रे, जग जीवन छे सुख काजा ॥ स० ए० ७॥ जिनराज समो नहिं देवा रे, सुरपति सारे नित सेवा रे, एतो देवें फल नित मेवा ॥ स० ए० ८ ॥ पूरव पुण्य विना किमपावे रे, जिन सेव भली वडदावे रे, तो ज्ञानी अरथ बतावे || स० ए० ९ ॥ बहु अतिशय जेहना छाजे रे, गुण पैंतीस वाणी राजे रे, एतो जगतारक जिनराजें ॥ स० ए० १० ॥ चवदे राज में ए जिन चंदा रे, समरयां होत सदा आनन्दा रे, एतो जग जीवन सुख कंदा || स० ए० ११ ॥ वलि आये चौसठ इंदा रे, दिशि कुमरी हरष अमंदा रे, करे उच्छव श्री जिनचन्दा | स० ए० १२ ॥ जिन मेरु शिखर ले आवे रे, सौ धरम सदा शुभ भावे रे, करि वृषभ रूप न्हव रावे ॥ स० ए० १३ ॥ यथा योग सहु सुर भगती है, करे निज निज भावे जगती रे, एतो सफल करे निज शक्ति रे ॥ स० ए० १४ ॥ शशि सम शीतल गुण सोहे रे भवि देखीने मन मोहे रे, जसु रूप अधिक सहु होवे ॥ स० ए० १५ ॥ जिनराज समो नहीं कोई रे, देख्या देव अपर सब जोई रे, पण दोष सहित सब होई || स० ए० १६ ॥ प्रभु पाप करम सब धोई रे, जसु आतम निरमल होई रे, कहे सुमति सदा गुण जोई ॥ स० ए० १७॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्टद्रव्यं मुद्रां जाम स्वाहा । ४४६ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥ दोहा ॥ मोदक मोती चूरना, सरस लेइ पकवान । पूजा करो जिन राजनी, पावो ज्यूं सन मान ॥१॥ वारिषेण जिन पूजिये, सातमी पूज प्रधान । भय सगला दूरे रहें, प्रगटे सुक्ख निधान ||२|| ॥ चाल ॥ बिगड़ी कौन सुधारे नाथ बिन बि० । वारिषेण जिन अन्तरजामी, पूज्यो सेवा पामी रे | परम पुरुष पमेसर साचो, जग जीवन विसरामी रे ॥ बि० ३ ॥ लोक अलोक को तूं है दरसी, तुम सम अवरन स्वामी रे । तूं प्रभु अश Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पूजा-विभाग oon..... w ..m..m earinwwww.. wweria- Murarirampus satanicatasanahartatatastrotatist arakki-kitsAxistinianksten tantanatantankitabarak- रण शरण कहावे, तूं मुझ अन्तर जामी रे ॥ बि० ४ ॥ तुम गुण को कोइ पार न पावे, महिमा त्रिभुवन पामी रे। तेरी आन जगत सहु माने, करुणा रस नो धामी रे ॥ बि० ५॥ दीन दयाल दयानिधि कहिये, पुरुषोत्तम हित कामी रे। तेरी सेवा नित नित सारे तेतो नव निधि पामी रे ॥ बि० ६ ॥ जग जीवन आलोचन कहिये, परमारथ सब पामी रे । केवल ज्ञान प्रगट भयो जिनके, क्षायक भाव सुनामी रे ।। बि० ७ ।। वारिषेण जिन तीजो कहिये, उपकारी सुखधामी रे । सर्व देव में देव शिरोमणि, दो वंछित मुझ स्वामी रे ॥ बि० ८ ॥ सुमति कहे ए जिनकी सेवा, भव भवमें विसरामी रेबि०। ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । अष्टम फल पूजा ॥ दोहा ॥ फ़ल पूजा जिनराजकी, करो भविक गुणवंत । अशुभ करम दुरे हरो, पावो सुक्ख अनन्त ॥१॥ वरधमान चौथो नमू, केवल ज्ञान दिनंद । उपकारी सिर सेहरो, इम भाखे मुनिचंद ॥२॥ ॥चाल॥ (तुम बिन दीनानाथ दयानिधि को०) वरधमान जिन सेवो भविजन, ज्यं वंछित फल पावो रे। ऋषभानन चन्द्रानन स्वामी, वारिषेण मन लावो रे॥ वरधमान जिन पूजो भावे, वांछित फल तुम पावो रे ॥ वर० ३ ॥ चवद राजमें ए जिन छाजे, एहनी भगति करावो रे ॥ वर० ॥ शाश्वत नामे ए जिन छाजे, गुरु मुखथी सुध पावो रे ॥ वर० ४ ॥ भाव सहित ए जिनवर पूजे, दोष सकल मिट जावे । रे ॥ वर० ॥ तनमन सुचिसे जो जिन पूजे, लाभ अनन्त उपावे रे ॥वर०५॥ 1 पंचमेरु ऊपर जिन छाजे, कंचनगिरि वली पात्रे रे ॥ वर० ॥ पंच भरत 1. वलि पंच ऐ रवत, पंच विदेह कहावे रे ॥ वर० ६ ॥ मानुषोत्तर वलि राजे, 1 ते पिण मनमें लावे रे ॥ वर० ॥ गजदंता वलि परवत ऊपर, शाश्वत एहज ยโตจโยนให้ใช้ไขได้ให้โอele ในปัยไตใจใยให้งดกดกด leledยได้นอนสไตใจได้กไอปักใจไม่ได้ ไม่ไปไม่ได้ปักใจไว้ในใจโอไอใดได้ลได้ไปไห้ตใจใกใดใดเงใดใดใดไดไไดได้ โอไดดไปวงใจโดยได้มีโอในไอปักใตไขในใจนไดไไดไไดไละ RAKAttaoratatataministration Errialistianimatkaririnakakakit Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ जैन-रत्नसार पावे रे ॥ वर० ७ ॥ जम्बू धातकी पुष्कर वृक्षे, ए जिनराज कहावे रे || वर० ॥ इण विधि शाश्वत चैत्य नमीने, जनम जनम सुख पावे रे ॥ वर० ८ ॥ धरम विशाल दयालके नन्दन, भाव सहित गुण गावे रे ॥ बर० ॥ सुमति सदा ए जिन की सेवा, जगमें सुजस उपावे रे || वर० ९ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । नवम ध्वज पूजा ॥ दोहा ॥ नवमी ध्वज पूजा करो, भाव धरी मतिवंत । त्रिभुवनमें जय पामिये, प्रगटे सुक्ख अनन्त ॥१॥ इन्द्र ध्वजा प्रभु आगले, सिणगारी मन रंग । उच्छव कर लाओ सही, होय सदा उछरंग ॥२॥ सुन्दरि सब आयो सही, पहरी वस्त्र प्रधान । ध्वज पूजन उच्छव करो, ज्यूं पावो सनमान ॥३॥ कंचन वरण अति शोभता, पहरी नव सर हार । परम शुचि हुय तुम करो, पूजा श्री जिन सार ||४|| ॥ चाल ॥ जिन गुण गावत सुर सुन्दरी, ध्वज पूजन भवि इण पर करके ॥ ध्व० ॥ सहस योजननो इन्द्र ध्वजा ए, भाव सहित जिन आगल घर रे ॥ ध्व०५ ॥ पंचवरणकी झलहल कंती, मंगल रूप अमंगल हर रे ॥ ध्व० ॥ नवरंगी अरु ध्वज बहु चंगी, फुरक रही असमान के घर रे ॥ ध्व० ६ ॥ कंचन थाल लेई ध्वज उत्तम, वर सुन्दर ले मस्तक घर रे ॥ ध्व० ॥ गाजे बाजे सब मिल गोरी, फिर लावत जिनवरके घर रे ॥ ध्व० ७ ॥ सज सोले सिणगार कामिनी, तीन प्रदक्षिण दे जिनवर रे ॥ ध्व० ॥ उज्जल कमल अखंडित चावल, लेई स्वस्तिक आगलि कर रे ॥ ध्व० ८ || जिन गुण गावत हरष वधावत, तन को मैल अलग तूं कर रे ॥ ध्व० || आज हमारे - हरष वधाई, आज है मंगल सब घर घर रे ॥ ध्व० ९ ॥ इन्द्र ध्वजा प्रभु आगलि शोभित, देखत भविजन के मन हर रे ॥ ध्व० || पाप नियाणा दूर Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ irioleta पूजा-विभाग t ratantatoletriolatastrocinemr.uthfultatusb.lar-TELuliabisi.lalikoluktalialistiakataliealinkalimfimli.ristholiakistandirlelialistialiafrelanki-katihinbishalraliak.taintinatholi-Balishaki-ciatilimstartiti. | करी ने, समकित शुद्ध सदा तं वर रे ॥ ध्व० १० ॥ इण पर शाश्वत जिनकी सेवा, भाव सहित भविजन अनुसर रे ॥ ध्व० ॥ मुमति कहे ए जिनकी आज्ञा, अपने सिर पर तूं नित धर रे ॥ व्व० ११ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अप्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । दशम नाटक पूजा ॥ दोहा ॥ दशमी पूजा अवसरे, गावो गीत विशेष । नृत्य करे प्रभु आगले, पावो लाभ अशेष ॥१॥ कुमर कुमरी आठ शत, राय पसेणी माह । सूरि याम रचना करी, भक्ति करे चित चाह ॥२॥ रावणने मंदोदरी, सुनिये शास्त्र मझार । अप्टापद गिरि ऊपरे, नृत्य करे बहुसार ॥३॥ गोत्र तीर्थंकर वांधिये, भक्ति करी मतिवंत । तिण पर तुम भक्ती करो, पावो लाभ अनन्त ॥४॥ ॥ जिन गुण गावत सुर सुन्दरी ॥ नृत्य करे मिल सुर सुन्दरी रे ॥ नृ० ॥ थेई थेई तान करे प्रभु आगे, सुन्दर सब सिणगार करी रे ।। नृ०॥ गल मोतियनको हार विराजे, वेसर मोती लाल जरी रे ॥ नृ० ५ ॥ बांहे बाजू हीरा जड़िया, वित्रमें चूनी लाल खरी रे ॥ नृ० ॥ कंचुक कसिया हरष उलसिया, दीसे मोहन बेल परी रे ॥ नृ ६॥ हाथें चूड़ी सोहे रड़ी, पग नेवर झणकार करी रे ॥ नृ०॥ ठम ठम नाचत जिन गुण गावत, भावत नाचत सुर महरी रे ॥ नृ० ७॥ आंखने भटके मुखने लटके, मोहे सुरनर देव नरी रे ॥ नृ०॥ हीर चीर पाटम्बर पहरी, प्रभु आगल गुण गाय खरी रे ॥ नृ० ८॥ गावत गीत । मधुर धुन झीणा, वीणादिक सब साज करी रे ।। नृ०॥ धपमप धपमप मादल बाजे, चंग रंग नाचत किन्नरी रे ॥ नृ० ९॥ मोहन गारी सब मिल नारी, देखत सुरनर चित्त हरी रे ॥ नृ० ॥ शशि सम वदनी कोयल : वयणी, वरसत अमृत मेघ झरी रे ॥ नृ० १० ॥ विध बत्तीसे नाटक करके. Plearalalente-tolertainikNIJAadaBSAHASnabaleedindesanneetinlodnandreducemedial-JosesilodasalnedarlineindianderlunlotaJanajatiljaalidasinalesaletundatwaladamahetraintinute Islatulataka Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ httratory వందనముకనుగetarity tartatta వందనం जैन-रनसार ATRINAanatantnatandaree MTAKENERATAR A KH ARYhakorbet ballanti-islanewalinsancharaknesianariableiromanianlahshala-STREAMIN निज गुण अपनो शुद्ध करी रे ॥ नृ० ॥ रावण राजा नारि मंदोदरी, अष्टापद पर नृत्य करी रे ॥ नृ० ११ ॥ गोत्र तीर्थंकर बाँध्यो भावे, तिन परि तुम भवि भगत करी रे ॥ नृ० ॥ सुमति कहे सेवो भल भावें, श्री जिन तारण तरण तरी रे ॥ नृ० १२ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्ट द्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । कलश ॥ तेज तरण मुख राजे ॥ इण विधि पूजन करिये चतुर नर ॥ इ० ॥ शाश्वत जिनवर राज चवदमें, इण नामे अवधरिये ॥ च० १३ ॥ द्वीप अढ़ीमें जे जिन छाजे, ते बंदी अघ हरिये ॥ च० ॥ सहस सत्तावन लाख छपन वलि, अष्ट कोड़ मन धरिये ॥ च० १४ ॥ चउसयछयाली चैत्य वन्दीने, पाप करम सब हरिये ॥ च० ॥ तीन लोकनी संख्या दाखी भविजन ते उर धरिये ॥च० १५॥ शाश्वत अशाश्वत सहु जिनवरनी, सेव करो सुख करिये ॥ च० ॥ अष्ट सिद्धि नवनिद्धिना दायक, चरण करण गुण धरिये ॥ च० १६ ॥ कामधेनु चिन्तामणि थी ए, वांछित अधिक सूं करिये ॥ च० ॥ ऋषभानन चन्द्रानन स्वामी, वारिषेण मन धरिये ॥च०१७॥ वईमान जिन सुखके दाता, पूजत अनुभव वरिये ॥ च० ॥ मंगल कारण सब दुख वारण, भव्य सकल उर धरिये ॥ च० १८ ॥ लोक चवदना भेद वखाण्यो, गुरु मुख थी अवधरिये ॥ च० ॥ ए पूजन जे भणसी गुणसी, तसु वंछित सब सरिये ॥ च० १९ ॥ संवत सय उगणीसे त्रेपन, माधव सुदि शुभ करिये ॥ च० ॥ आखा तीज दिवस सुखकारी, पूज रची गुण भरिये ॥च० २०॥ श्री जिनचन्द्र सूरि गुरु खरतर, तसु गुण गण उर धरिये ॥ च० ॥ प्रीत सागर गणि शिष्य सुवाचक, अमृत धरम सुमरिये ॥ च० २१ ॥ सीस क्षमा कल्याण सुपाठक, ज्ञान तणा गुण * यह पूजा बीकानेरमे श्री सुमति मुनिजी महाराज ने सम्बत् १६५३ वैशाख सुदी ३ को ! A RASialismirmissionrolmin.nindimkisansamlinnarliamnatarashatanAnitaTARAN Banki-matalalalalalalasialmano बनाई है। मन्यूनतम मूलद्रव्यमान्लाजा Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇక తను వంగుంది కనుక తరం తరం యువతులు దండంటి పలు tttttttadatte पूजा-विभाग दरिये ॥ च ॥ तसु सेवक मुनि धर्म विशाला, उपगारी सुख करिये ॥ च० २२ ॥ तसु सेवक मुनि सुमति कहत हैं, पूजो शुभ मन धरिये ॥ च० ॥ हित वल्लभ गणिवरके आग्रह, पूज रची सुख करिये ॥ च० २३ ॥ बीकानेर नगर सुखकारी, संघ सकल हित करिये ॥ च० ॥ वंछित पूरण मंगल माला, सुजस शोभा नित वरिये ॥ च० २४ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्ट द्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा । श्री दादा गुरुदेव पूजा ॥ आवाहन* मन्त्र ॥ सकल गुण गरिष्ठान सत्तपोभिर्वरिष्ठान् । शम दम यम जुष्टांश्वारु चारित्रनिष्ठान् ॥ निखिलजगति पीठे दर्शितात्मप्रभावान् । मुनिपकुशलसूरिन् स्थापयाम्यत्र पीठे ॥ १॥ ____ ॐ ह्रीं श्रीं श्रीजिनदत्त-श्रीजिनकुशल-श्रीजिनचंद्रसूरिगुरो अत्रावतरावतर अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ठः स्वाहा । ॐ ह्रीं श्रीं श्रीजिनदत्तसूरिगुरो अत्र मम संन्निहितो भव वषट् । । जल पूजा ॥ दोहा॥ ईश्वर जग चिंतामणी, कर परमेष्ठी ध्यान । गणधर पद गुण वर्णना, पूजन करो सुजान ॥१॥ सौधर्मा मुनिपति प्रगट, वीर जिनेश्वर पाट । मिथ्या मत तम हरणको, भव्य दिखावन वाट ॥२॥ सुस्थित सुप्रतिबद्ध गुरू, सूरि मंत्रको जाप । कोटि कियो जब ध्यान धर, कोटिक गच्छ सुथाप ॥३॥ दशपूर्वी श्रुतकेवली, भये वज्रधर स्वाम | ता दिनतें गुरुगच्छ को, वज्र शाख भयो नाम ||४|| चंदसूरि भये चन्द्र सम, अतिहि बुद्धि निधान । चंद्रकुली सब जगतमें, पसर्यो बहु विज्ञान ॥५॥ वर्द्धमान के पाट * प्रथम चौकी या पट्ट पर चावलों का साथिया कर नारियल पर रुपया रख कर 1 उपरोक्त मन्त्र से आवाहन करे। यहा से हर एक पूजा मे नियमानुसार जल चन्दनादि लेकर खड़ा रहे। Sashatavaadak Tarkaantastestandelasasiakkarutacscamsumandestolasbolisaslidisionasiatioeshskattaraisedoogkaise deahalakataletaliortabalesialhioladisiolkatariandeshakakkakripasaillelet-tortoitel-Lidikskaleela rambly Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NikkirturermantikriA rthritraordinatinikkistanARITANYatkary जैन-रनसार पद, सूरि जिनेश्वर भाश। चैत्यवासिको जीत कर, सुविहित पक्ष प्रकाश ॥६॥ अणहिलपुर पाटण सभा, लोक मिले तिहां लक्ष । खरतर बिरुद सुधानिधी, दुर्लभराज समक्ष ॥७॥ अभयदेव सूरि भये, नव अंग टीकाकार । थंभण पारस प्रगट कर, कुष्ठ मिटावन हार ॥८॥ श्रीजिनवल्लभ सूरि गुरु, रचना शास्त्र अनेक । प्रतिबोधे श्रावक बहुत, ताके पट्ट विशेष ॥९॥ हुंबड श्रावक वाघडी, अट्ठारे हज्जार | जैन दयाधर्मी किये, वरते जय जयकार ॥१०॥ दादा नाम विख्यात जस, सुरनर सेवक जास । दत्तसूरि गुरु पूजतां, आनंद हर्ष उल्लास ॥११॥ दिल्लीमें पतशाहने, हुकम ! उठाया शीष । मणिधारी जिनचंद गुरू, पूजो बिसवाबीस ॥१२॥ ताके पट्ट परंपरा, श्री जिनकुशल सुरिंद। अकबरको परचा दिया, दादा श्री। जिनचंद ॥१३॥ ऐसे दादा चारको, पूजो चित्त लगाय। जल चन्दन कुसुमादि कर, ध्वज सुगंध चढ़ाय ॥१४॥ ॥ दादा चिरंजीवो ॥ गुरुराज तणी कर पूजन, भवि सुखकर मिलसी लच्छि घणी ॥ गु० ॥ गुरु दत्त सुरिंद जग सुखकारी, गुरु सेवकने सानिधकारी । गुरु चरण कमलकी बलिहारी ॥ गु० १५ ॥ संवत इग्यारे वार शशी, बत्तीसे जनम्यां शुभ दिवसी । श्रावग् कुल हुंबडने हुलसी ॥ गु० १६ ॥ जसु बाछगसा पितु नाम भणे, वाहडदे माता हर्ष धणे । इकतालीसे दीक्षा पभणे |गु०१७॥ गुणहत्तरे वल्लभ पाट धरी, गुरु माया बीजनो जाप करी। गुरु जगमें प्रगट्या तरणतरी ॥ गु० १८ ॥ मणिधारी जिनचंद उपगारी, जिनदत्त सुरिंदके पटधारी । भये दादा दुजा सुखकारी ॥ गु० १९ ॥ राशल पितु देल्हणदे माता, श्रीमाल गोत्र बोधन शाता। दिल्लीपति शाह सुगुण । गाता । गु० २० ॥ जसु चौथे पाट उद्योत करी, जिनकुशल सुरिंद अति हर्ष भरी । तेरेसै तीसे जन्म धरी ।। गु० २१ ॥ जसु जिल्ला जनक जगत्र । जीयो, वर जैतश्री शुभ स्वपन लियो । गुरु छाजेड गोत्र उद्धार किया ॥ गु० २२ ॥ धन संतालीसे दीक्षा धरी, जिनचन्द सुरीश्वर पाट वरी । - - - - - - न्त्र चन्नप्रवचनलकन्ननननननन् अनियन्त्रित RAMA బతమయమున Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... LAYAtitati-PART __ पूजा-विभाग गुणहत्तरे सूरिमंत्र जाप करी ॥ गु० २३ ।। सेवामें बावन वीर खरा, जोगनियां चौसठ हुकम धरा । गुरु जगमे कइ उपकार करा ॥ गु० २४ ॥ माणक सूरीश्वर पद छाजे, जिनचन्द सूरि जगमे गाजे । भये दादा चौथा । सुख काजे ॥ गु० २५ ।। जिन चांद उगायो उजियालो, अम्मावसकी पूनमवालो । सब श्रावक मिल पूजन चालो || गु० २६ ॥ जिन अकबरको परचा दीना, काजीकी टोपी वश कीना । बकरीका भेद कह्या तीना || गु० २७ ॥ गंधोदक सुरभि कलश भरी, प्रक्षालन सद्गुरु चरण परी। या पूजन कवि ऋद्धिसार करी ॥ गु० २८ ॥ ॥ श्लोक ॥ ____ सुरनदीजलनिर्मलधारकः, प्रबलदुष्कृतदाघनिवारकैः । सकल मङ्गल वाञ्छितदायकं, कुशलसूरिगुरोश्वरणौ यजे ॥२९॥ ॐ ह्रीं परमपुरुषाय परम गुरुदेवाय भगवते श्री जिनशासनोद्दीपकाय चरणकमलेभ्यो जलं निर्वामि स्वाहा। केशर चन्दन पूजा ॥दोहा॥ केसर चन्दन मृगमदा, कर धनसार मिलाप । परचा जिनदत्त सूरिका, पूज्यां तूटे पाप ॥१॥ ॥ चाल वीण बाजेकी ॥ .. आये भरुअच्छ नग्र, धाम धूम धू। बाजते निशान ठोर, हप रंग हूँ ॥ दीनके दयाल राज सार सार तं ॥ दी. २ ॥ मुसलमान मुगलपूत, फौज मौजमं । फौत मौत हो गया हायकार सूं ॥ दी० ३ ॥ सधन विधन देख आप, हुकम दीन यूं। लावो मर पास आप. जीव दान दृ ॥ दी० ४ ॥ मृतक पृत मंत्रसे उठाय दीन । न देखके अचंभ रंग, दास खास कं॥ दी० ५॥ करत संव भाव पूर, नुकराज ज । छोड़के अभक्ष्य खान, हाजरी भरूं ॥दी० ६॥ चीज खीजक : पड़ी. मनिक्रमणके मुं। हायसे उठाय पात्र, ढांक दीन छ । दी० ७ ॥ -REAndationlinentatinathala-test taiministratikalakalinsahakariaharashtrat-test-taxindent-Ltd-samia Todadi.damitrinathtakartant Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ మన మనవడు వదులుకుని నడుము చుటకు వదులుకువుండడము మందు గురువును తగthishastry ४५४ जैन-रनसार marrrrrrrr. ran ma HalALREALITYAM दामनी अमोल बोल, सिद्धराज तूं । देउं वरदान छोड, बंध कीन | क्यूं ॥ दी० ८ ॥ दत्त नाम जपत जाप, करत नांह चूं । फेर मैं पडूंगी। नाह, छोड़ दीन फं॥ दी. ९॥ करोगे निहाल आप, पाव पलक । रामऋद्धिसार दास, चरण छांह लूं ॥ दी. १० ॥ ॥ श्लोक ॥ मलय चन्दन केसर वारिणा, निखिल जाड्यरुजातपहारिणा। सकल मङ्गल वाञ्छित दायक, कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥११॥ ॐ ह्रीं परम पुरुषाय परम गुरुदेवाय भगवते श्री जिनशासनोद्दीपकाय चरणकमलेभ्यो कुंकुम चन्दनं निर्वपामि स्वाहा। पुष्प पूजा ॥ दोहा ।। चंपा चमेली मालती, मरुवा अरु मुचकुंद। जो चाढे गुरु चरण पर, नित घर होय आनंद ॥१॥ (नींद तो गइ वादीला म्हारी) गुरु परतिख सुरतरु रूप, सुगुरु सम दुजो तो नहीं। दुजो तो नहीं रे सुमतिजन, दुजो तो नहीं ॥ गु०॥ चित्तौड नगरी वजथंभमें, विद्या पोथि रही रे । हेजी यंत्र मंत्र विद्यासे पूरी, गुरु निज हाथ ग्रही ॥ गु० २ ॥ पुर उज्जैनी महाकालके, मंदिर थंभ कही रे। हेजी सिद्धसेन दिनकरकी पोथी, विद्या सर्व लही रे ॥ गु० ३ ॥ उज्जैनी व्याख्यान बीचमें, श्राविका रूप ग्रही रे । हेजी जोगनियां छलनेको आई,सबको कील दई ॥ गु० ४ ॥ दीन होय जोगनियां चौसठ, गुरुकी दासि भई रे। हेजी सात दिये वर। दान हरषसें, पसरया सुजस मही ॥ गु० ५ ॥ पुष्पमाल गुरुगुणकी गूंथी, । चाढो चित्त चही रे । हेजी कहे रामऋद्धसार सुजसकी, बूंटी आप । दई ॥ गु० ६ ॥ ॥ श्लोक ॥ कमलचम्पक केतकि पुष्पकैः, परिमलाहतषट्पदवृन्दकैः । सकल मङ्गल Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... पूजा-विभाग वाञ्छितदायक, कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय परमगुरुदेवाय भगवतेजिनशासनोद्दीपकाय चरणकमलेभ्यो पुप्पं निर्वपामि स्वाहा। treatmethumbsiteshkkastatekhi-KashinataneKhirke k-Indiradit-ATN A धूप पूजा ॥ दोहा॥ धूप पूज कर सुगरुकी, पसरे परिमल पूर । जससुगंध जगमें वधे, चढेसवाया नूर ॥१॥ (कुबजाने जादृ डारा) अंबिका बिरुद वखाणे, गुरु तेरा अंबिका । तुम युग प्रधान नहिं छाने गढ गिरनारपे अंबड श्रावक, ऐसो नियम चित्त ठाणे । युग प्रधान इस जग में कोई, देखें जन्म प्रमाणे ॥ गु० २ ॥ कर उपवास तीन दिन बीते, प्रगटी अंबा ज्ञाने। प्रगट होय करमें लिख दीना, सुवरण अक्षर दाने । गु० ३ ॥ या गुण संयुत अक्षर बांचे, ताको युग वर जाने । अंबड मुलक मुलकमें फिरता, सूरि सकल पतवाने ॥ गु० ४ ॥ आया पास तुम्हारे सद्गुरु, कर पसार दिखलाने । वासक्षेप उन ऊपर डाला, चेला बांच सुनाने ॥ गु० ५ ॥ सर्व देव हैं दास जिनों के, मरुधर कल्प प्रमाने । युग प्रधान जिनदत्त सूरिश्वर, अंबड शीश झुकाने || गु० ६ ॥ उद्योतन सूरीने निज हाथे, चौरासी गछ ठाने । सो सब तुमरी सेवा सारे, चौरासी गछ माने ॥ गु० ७ ॥ जो मिथ्यात्वी तुमको न पूजे, सो नहिं तत्त्व । पिछाने । भद्रबाहु स्वामी तुम कीर्तन, कीनी ग्रन्थ प्रमाने ॥ गु० ८ ॥ युग प्रधान परिकीनि गंडिका, गणधर पद वृत्ति माने । कहे रामऋडिसार गुरू की. पूजा धूप कराने । गु० ९ ॥ ॥ लोक ॥ अगर चन्दन धूपदशाङ्गः, प्रसरितः खलु दिक्षु मधुम्रकैः ॥ सकल : मद्दल वान्छितदायक, कुशल नूरि गुरोश्चरणीयजे ॥१॥ॐ ह्रीं श्रीपरम पुरुषाय । -lalalaratirnatantanatantrnarthik AdinatorLadakitannintendr a LL.. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***** ** what wor Woot's Tote textesto पामि स्वाहा ॥ - ४५६ परम गुरुदेवाय भगवते जिन शासनोद्दीपकाय चरण कमलेभ्यो धूपं निर्व जैन - रत्नसार osteotester दीप पूजा ॥ दोहा ॥ दीप पूज कर सुगुण नर, नित नित मंगल होत । उज्यालो जगमें जुगत, रहे अखंडित जोत ॥१॥ पूजन कीजोजी नरनारी, गुरु महाराज की हो पू० ॥ सिंधु देश में पंच नदी पर, साधे पांचो पीर । लोई ऊपर पुरुष तिराये, ऐसे गुरू सधीर ॥ पू० २ ॥ प्रगट होय के पांच पीरने, सात दिये वरदान | सिंधु देश में खरतर श्रावक, होवेगा धनवान || पू० ३ ॥ सिंधु देश मुलतान नगर में बड़ा महोत्सव देख, अंबड़ और गच्छका श्रावक, गुरुसे कीना द्वेष ॥ पू० ४ ॥ अणहिलपुर पत्तनमें आवो, तो मैं जानूं सच्चा । बड़े महोत्सव आवेंगे, तूं निर्धन होगा कच्चा ॥ पू० ५ ॥ पत्तन बीच पधारे दादा, सम्मुख निर्धन आया । गुरु बतलाया क्यूरे अंबड, अहंकार फल पाया ॥ पू० ६ ॥ मनमें कपट किया अंबडने, खरतर महिमा धारी । जहर दिया उन अशन पानमें, गुरु विध जानी सारी ॥ पू० ७ ॥ भणशाली मुख बर श्रावकसे, निर्विष मुद्रि मंगाई । जहर उतारा तब लोकोमें, अंबड निंदा पाई ॥ पू० ८ ॥ मरके व्यंतर हुवा वो अंबड, रजोहरण हर लीना । भशाली व्यंतर वचनोंसे, गोत्र उतारा कीना ॥ पू० ९ ॥ सज्ज होय गुरु ओघा लेके, गोत्र बचाया सारा । ऋद्धिसार महिमा सद्गुरुकी, दीपक का उजियारा ॥ पू० १० ॥ ॥ श्लोक ॥ अतिसुदीप्तिमयैः खलु दीपकैः, विमलकाञ्चनभाजनसंस्थितैः । सकलमङ्गल वाञ्छितदायकं, कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं परम पुरुषाय परम गुरुदेवाय भगवते जिन शासनोद्दीपकाय चरण कमलेभ्यो दीपं निर्वपामि स्वाहा । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा - विभाग अक्षत पूजा ॥ दोहा ॥ अक्षत पूजा गुरु तणी, करो महाशय रंग । क्षति न होवे अंगमें, जीते रणमें जंग ॥१॥ ( अवधू सो जोगी गुरु मेरा ) रतन अमोलक पायो, सुगुरु सम रतन अमोलक पायो । गुरु संकट सब ही मिटायो ॥ सु० ॥ विक्रमपुर नगरी लोकनको, हैजा रोग सतायो । बहुत उपाय किया शांतिकका, जरा फरक नहीं आयो || सु० २ ॥ जोगी जंगम ब्रह्म सन्यासी, देवी देव मनायो । फरक नहीं किनहीने कीना, हाहाकार मचायो ॥ सु० ३ ॥ रतन चिंतामणि सरिखो साहिब, विक्रमपुर में आयो । जैन संघका कष्ट दूर कर, जय जयकार वरतायो ॥ सु० ४ ॥ महिमा सुन माहेश्वर ब्राह्मण, सब ही शीश नमायो । जीवित दान करो महाराजा, गुरु तब यूं फरमायो ॥ सु० ५ ॥ जो तुम समकित व्रतको धारो, अवही कर दूं उपायो । तहत वचन कर रोग मिटायो, आनंद हर्प वधायो ॥ सु० ६ ॥ जो कोई श्रावक व्रत नहिं धारयो, पुत्री पुत्र चढ़ायो । साधु पांचसै दीक्षित कीना, साधवियां समुदायो ॥ सु० ७ ॥ मंत्रकला गुरु अतिशय धारी, ऐसो धर्म दिपायो । ऋद्धिसार पर किरपा कीनी, साचो इलम बतलायो | सु० ८ ॥ 35 ॥ श्लोक ॥ सरलतण्डुलकैरतिनिर्मलैः, प्रवरमौक्तिकपुंज वदुज्वलैः । सकलमङ्गल वाञ्छितदायकौ, कुशलसूरिगुरोश्ररणौ यजे ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं परमपुरुपाय परम गुरुदेवाय भगवते जिन शासनोद्दीपकाय चरणकमलेभ्यो अक्षतं निर्वपामि स्वाहा | नैवेद्य ४५७ पूजा ॥ दोहा ॥ नैवेद्य पूजा सातमी, करो भविक चित चाव | गुरुगुण अगणित कुण गिणे, गुरुभव तारण नाव ॥१॥ Anantay Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ जैन-रखसार (नेरी पूजा बनी है रसमें ) गुरु किया असुर को वशमें ॥ हो गुरु० ॥ बडनगरीमें आप पधारे, सांमेला धसमसमें । ब्राह्मण लोक बड़े अभिमानी, मिलकर आया सुसमें ॥ म हो० २ ॥ महिमा देख सक्या नहिं गुरुकी, भरे मिथ्यात्वी गुसमें । मृतक गऊ जिन मंदिर आगे, रख दी सनमुख चसमें ॥ हो० ३ ॥ श्रावक देख भये आकुलता, कहे गुरूसे कसमें । चिन्ता दुर करी है संघकी, गउ उठ चाली धसमें | हो० ४ ॥ मरी गऊको जीती कीनी, लोक रह्या सब। हसमें । जाके गाय पड़ी रुद्रालय, संघ भया सब सुखमें ॥ हो० ५ ॥ ब्राह्मण पांव पडे सब गुरुके देख तमासा इसमें । हुकम उठावेंगे शिर ऊपर, तुम संततिकी दिशमें ॥ हो० ६ ॥ नमस्कार है चमत्कारको, कीनी पूजा रसमें । कहे रामऋद्धिसार गुरूकी, आनंद मंगल जशमें ॥ हो० ७॥ ॥श्लोक ॥ . बहुविधैश्वरुभिर्वटकैर्यकैः, प्रचुरसप्पिषि पक्व सुसज्जकैः । सकलमङ्गल वाञ्छितदायको कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥८॥ ॐ ह्रीं परमपुरुषाय परमगुरुदेवाय भगवते जिन शासनोद्दीपकाय चरणकमलेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामि स्वाहा। फल पूजा ॥ दोहा॥ फल पूजा से फल मिले, प्रगटे नवे निधान । चिहुं दिशि कीरति विस्तरे, पूजन करो सुजान ॥१॥ (रथ चढ यदुनंदन आवत हैं) चालो संघ सब पूजनको, गुरु समरयां सनमुख आवत हैं रे ॥चा०॥ आनंदपुर पट्टनको राजा, गुरु शोभा सुन पावत हैं रे ॥ चा० ॥ भेज्या निज परधान बुलाने, नृप अरदास सुनावत हैं रे ॥ चा० २ ॥ लाभ जान गुरु नगर पधारे, भूपति आय वधावत हैं रे, ॥ चा० ॥ राजकुमरको कुष्ठ मिटायो, अचरज तुरत दिखावत हैं रे ॥ चा० ३ ॥ दश हजार कुटुम्ब संग Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा - विभाग ४५६ नृपको, श्रावक धर्म धरावत हैं रे ॥ चा० ॥ प्रतापगढ़को पमार राजा, पुरमें गुरु पधरावत हैं रे || चा० ४ || दया मूल आज्ञा जिनवरकी, बारह व्रत उचरावत हैं रे | चा० । चौहान भाटी पमार इन्दा पुन राठौड कहावत हैं रे || चा० ॥ सीसोदा सोलंकी नरवर महाजन पदवी पावत हैं रे ॥ चा० ५ | ऐसे सात राज समकित घर, खरतर संघ बनावत हैं रे ॥ चा० ६ ॥ कुष्ठ जलंदर क्षयी भगंधर, कइयक लोक जीवावत हैं रे || चा० ॥ ब्राह्मण क्षत्री और माहेश्वर, ओस वंश पसरावत हैं रे || चा० ७ ॥ तीस हजार एक लख श्रावक, महिमा अधिक रचावत हैं रे ॥ चा० ॥ कहत राम ऋद्धिसार गुरुकी, फल पूजा फल पावत हैं रे ॥ चा० ८ ॥ ॥ श्लोक ॥ पनसमोच सदा फलकर्कटैः, सुसुखदैः किल श्रीफलचिर्भटैः । सकल मङ्गल वाञ्छित दायकौ, कुशलसूरिगुरोश्वरणौ यजे ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं परमपुरुषाय परम गुरुदेवाय भगवते जिन शासनोद्दीपकाय चरण कमलेभ्यो फलं निर्वपामि वाहा । वस्त्र अतर पूजा ॥ दोहा ॥ वस्त्र अतर गुरु पूजना, चोबाचंदन चंपेल | दुश्मन सब सज्जन हुवे, करे सुरंगा खेल ॥१॥ ( मनडो किम ही न भाजे हो कुंथुजिन ) लखमी लीला पाबे रे सुंदर, लखमी लीला पावे । जे गुरु बस्त्र चढावे रेसुं०, सुजस अतर महकावे रे सुं० ॥ दुरजन शीश नमावे रे सुं० ॥ दरिया बीच जहाज श्रावक की, डूबण खतरे आवे । साचे मन समरे सद्गुरुको, दुखकी टेर सुनावे रे ॥ सुं० २ ॥ वाचंता व्याख्यान सुरीश्वर, पंखी रूपे थावे । जाय समुद्रमें जहाज तिराई, फिर पीछा जब आवे रे ॥ सुं० ३ ॥ पूछे संघ अचरजमें भरियो, गुरु सब बात सुनावे | ऐसे दादा दत्त Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DudhatukadilaniakuntinuintikaneKLEELAM MATALE E जैन-रनसार कुशल गुरु, परचा प्रगट दिखावे रे ॥ सुं ४ ॥ बोथर गूजरमल्ल श्रावककी, दादा कुशल तिरावे । सुक्खसूरि गुरु समय सुंदरकी, जहाज अलोप दिखावे रे ॥ सुं० ५॥ बारेसे इग्यारे दत्तसूरि, अजमेर अनसन ठावे । उपज्या । | सौधरमा देवलोके, सीमंधर फरमावे रे ॥ सुं० ६ ॥ इक अवतारी कारज सारी, मुक्ति नगरमें जावे । कुशल सूरि देराउर नगरे, भुवनपती सुर । । थावे रे ॥ सुं७ ॥ फागुन वदि अम्मावस सीधा, पूनम दरस दिखाये ।। मणिधारी दिल्लीमें पूज्यां, संकट सुपने नावे रे ॥ सुं० ८ ॥ रथी उठी नहीं देख बादशाह, वांही चरण पधरावे । वस्त्र अतर पूजा सदगुरुकी, ऋद्धिसार मन भावे रे ॥ सुं० ९॥ ॥ श्लोक ॥ अखिलहीरशुभैर्नवचीरकैः, प्रवरप्रावरणैः खलु गंधतैः। सकल मङ्गल वाञ्छित दायको, कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं परम पुरुषाय परम गुरुदेवाय भगवते जिन शासनोद्दीपकाय चरण कमलेन्यो। वस्त्रं सौगन्धितं निर्वपामि स्वाहा । ध्वज पूजा ॥ दोहा॥ ध्वज पूजा गुरुराजकी, लहके पवन प्रचार । तीनलोकके शिखर पर, पहुंचे सो नर नार ॥१॥ (जिन गुण गावत सुर सुन्दरी रे,) ध्वज पूजन कर हरष भरी रे ॥ ध्व० ॥ सज सोले शिणगार सहेल्यां, श्री सद्गुरुके द्वार खरी रे । अपछर रूप सुतन सुत लीनी, ठम ठम पग झणकार करी रे ॥ ध्व० २॥ गावत मंगल देत प्रदक्षिणा, धन धन आनंद आज घरी रे । निर्धनको लखमी बकसावत, पुत्र बिना जाके पुत्र करी रे ॥ ध्व० ३ ॥ जो जो परतिख परचा देखा, सुणो भविक दिल बीच धरी HI -KILLLLLImlilalumammar * ध्वजा पर गुरु महाराज से वासक्षेप अवश्य करानी चाहिये । और गुरुओंको भी भेट देनी चाहिये। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22RAMMATAMAttit-TathabahialatkshkikasTTEGNFSA-ATYABAbkit-t+tattootantattatutetatateg ४६१ wwwnw rierreceir r पूजा-विभाग । फतेमल्ल भडगतिया श्रावक, पहली शंका जोर करी रे ।। ध्व० ४ ॥ परतिख देखू तब मैं जानें, प्रगट्या तत्क्षण तरण तरी रे । पुप्पमाल शिर केशर टीका, अधर श्वेत पोशाक धरी रे ॥ ध्व० ५ ॥ मांग मांग वर बोले वाणी, फरक बतायो गुरु मेघ झरी रे । फरक बतायो दोय लाख पर, तेरी महिमा नित्य हरी रे ॥ ध्व० ६ ॥ गैनचंद गोलेछाको ते, परतिख दीना दरस फरी रे। विक्रमपुरमें थंभ तुमारा, चित्र करावत सुर सुन्दरी रे ॥ ध्व० ७ ॥ थानमल्ललूणियां पर किरपा, लखमी लीला सहज वरी रे । लखमीपति दुगडकी साहिब, हुंडीकी भुगतान करी रे ॥ ध्व० ८ ॥ जा उपगार करया से मेरा, दीनी सम्मुख अमृत झरी रे। तेरि कृपासें सिद्धि पाई, जागे जस अरु भाग भरी रे ॥ ध्व० ९॥ भूखा भोजन तिसिया पानी, भरत हजारी देव परी रे । विषम बखत पर सहाय हमारे, ऋद्धिसार की गरज सरी रे ॥ ध्व० १०॥ ॥ श्लोक मधुरध्वनिकिङ्किणीनादकैर्ध्वजविचित्रितविस्तृतबासकैः। सकल मङ्गल चाञ्छित दायको कुशलसूरिगुरोश्चरणौ यजे ॥११॥ ॐ ह्रीं परम पुरुषाय परम गुरुदेवाय भगवते जिनशासनोद्दीपकाय शिखरोपरि ध्वजां आरोपयामि स्वाहा। m - -I-E.....-'-TAILERARELTLE PAKe LI..........-'-AAJLALILR-E .....mat.kuta.. कलश भट्टारक पदवी मिली, जीते बादी वृन्द । कंठ विराजित सरस्वती, जगमें श्री जिनचन्द ॥१॥ ॥राग अशावरी ॥ (पूजन जग सुखकारी सुगुरु तेरी पूजन ) तर चरण कमल बलिहारी ॥ सु० ॥ साह सलेम दिल्लीको बादशाह, सुनक शोभा तिहारी । भट्ट हरायो चरचा करके, भट्टारक पदधारी॥ सु० २॥ अमावसकी पूनम कीनी, चंद उगायो भारी। चढके गगन करी है चरचा रजस तप धारी ॥ सु० ३ ॥ उगनीसे चोदेकी सालमें, लखनउ नगर ......... .... Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार NI HINN ४६२ HIN WINI M wwwwww टोपीवाला, दिलमें यह बात बिचारी ॥ सु० ४ ॥ मझारी । गोरा फिरंगी जैन श्वेताम्बर देव जो सच्चा, पूरे मनसा हमारी । वाणी निकसी राज्य "तुम्हारा, होवेगा इकवारी ॥ सु० ५ ॥ अंधेकी खोली आंख सुरतमें, पूजे N सब नर नारी । कहां लग गुण वरणूं मैं तेरा, तूं ईश्वर जयकारी || सु० ६ ॥ उगनीसै " संवत्सर त्रेपन, मगशिर मास मझारी । शुक्ल दुज जिनचंद सुरीश्वर, खरतर गच्छ आचारी ॥ सु० ७ ॥ कुशल सूरिके निज संतानी, क्षेमकीर्त्ति मनुहारी । प्रतिबोध्या जिन क्षत्रि पांचसै। जान सहित अणगारी ॥ सु०८ ॥ क्षेमधाड़ शाखा जब प्रगटी, जगमें आनंदकारी । धर्मशील साधू गुण पूरे, कुशल निधान उदारी || सु० ९ ॥ या पूजन करतां सुख आनंद, अन धन लक्ष्मी सारी । कहत राम ऋद्धिसार गुरूकी, जय जय शब्द उचारी ॥ सु० १० ॥ 1 ॥ इति पूजा विभाग | * यह पूजा उपाध्याय रामलालजीगणी ने सम्वत् १९५३ मार्गशीर्ष शुक्ला २ को बनाई है। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tatt आरती- विभाग शान्तिनाथ भगवानकी आरती जय जय आति शान्ति तुम्हारी, तोरा चरणकमलकी जाऊं बलिहारी ॥ जय० १ ॥ विश्वसेन अचिराजीके नंदा, शांतिनाथ मुख पूनम चन्दा ॥ जय० २ ॥ चालीस धनुष सोवन मय काया, मृगलंछन प्रभु चरण सुहाया ॥ जय० ३ ॥ चक्रवर्ति प्रभु पंचम सोहें, सोलम जिनवर जग सहु मोहे ॥ जय० ४ || मंगल आरति भोरहि कीजे, जनम जनम को लाहो लीजे ॥ जय० ५ ॥ करजोड़ी सेवक गुण गावें, सो नरनारी अमर पद पावें ॥ जय० ६ ॥ संध्या आरती ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन, सुमति पदम श्री सुपासकी जय । महाराज कि दीनदयाल कि आरति कीजे ॥ चन्द सुविधि शीतल श्रेयांसा वासुपूज्य जय, जय जिनराज कि ॥ जय० १ ॥ विमल अनन्त धर्म हितकारी, जय जय शान्तिनाथ सुखकारी ॥ जय० २ ॥ कुंथुनाथ अर मल्लि मुनिसुव्रत, जिनवर नमि नमि सोवन काय कि ॥ जय० ३ ॥ नेमिनाथ प्रभु पार्श्व चिन्तामणि, वर्द्धमान भव पार कि ॥ जय० ४ कंचन आरति बहुविधि सजकर, लीजे अंग उछाह की ॥ जय० ५ ॥ आरति करत हैं, आवागमन निवार कि ॥ जय० ६ || सकल संघ मिल नवपद आरती जय जय जग जन बंछित पूरण, सुरतरु अभिरामी । आतम रूप विमल कर तारक अनुभव करिनामी ॥ जय जय जग सारा, जय जय जग नारा 1 आरती पार उतारा, सिद्धचक्र सुखकारा ||१|| जगनायक जगगुरु जिन चंदा, भज श्री भगवंता | आतमराम रमा सुखभोगी, सिद्धाजयवंता ||२|| पंचाचार दिप आचारज, जुगवर गुणधारी । धारक वाचक सूत्र अर्थना, Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार ४६४ पाठक भवतारी ॥ जय० ३ ॥ सम दम रूप सकल गुण ज्ञायक, मोटा मुनिराया | दरसन ज्ञान सदा जयकारक, संजम तपभाया ॥ जय० ४ ॥ नवपद सार परम गुरु भाखे, सिद्धचक्र सुखकारी । ए भव परभव रिद्धि सिद्धि दायक भवसागर वारी ॥ जय० ५ ॥ करजोड़ी सेवक गुण गावें, मन वंछित फल पावें । श्री जिनचन्द अखय पद पूजत, शिव कमला पावें 1 ॥ जय ० ६ ॥ wwww wwww wwww www.na "विंशति स्थानक आरती" ॥ जीया चतुर सुजान नवपद के गुण गाय रे ॥ पिया विंशति यान मंगल आरती गाय रे ॥ आरती० ॥ सुमति प्रिया कहे चेतन पतिको, निसुण वचन मन भाय रे || पि ० १ || यदि निजगुण परिणति तुम चहिये तिनको एह उपाय रे || अरिहंत सिद्ध आचारज पाठक साधु सकल समुदाय रे || पि० २ ॥ इत्यादिक विंशति पद समरण, भव भय हरण विधाय रे । एह आरती दुरति वारती, अनुपम सुरसुख दायरे ॥ पि० ३ ॥ जैसे भगतें करत आरती, सकल सुरासुर राय रे । तैसे भवितुम करोआरती, ए पद गुण चितलाय रे ॥ पि० ४ ॥ पंच प्रदीप से करत आरती, जे नित चित्त उलसाय रे । ते लही पंच चिदानंद घनता, अंचल अमर चढ़ पाय रे । पि० ५ ॥ पंच प्रदीप अखंडित जोते, दुरमति तिमिर विलाय रे । एह आरती तुरत तारती, भव जल निपतत धाय रे || पि०६ पद जिनहर्ष ए करणी, मन हरणी करवाय रे । चन्द्र विमल शिव सिद्धि निद्धि धरणी वरणी किनविध जाय रे ॥ पि० ७ ॥ ऋषि मंडल आरती जय जय जिनराजा, वारी जय जय जिनराजा । आरती करूं शिवकाजा भव भय दुख भाजा ॥ जय० १ ॥ ऋषभ अजित सम्भव जिनराया, अभिनंदन सुमति । पद्म सुपारश चंद्रा प्रभु सें, दूर हुबे कुमति ॥ जय० २ || सुविधि शीतल श्रेयांस सवाई, करि बारम जिनकी । विमल अनंत धरम प्रभु शांति, हर आरंति तन की ॥ जय० ३ ॥ कुंथुनाथ अर मल्लि Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** testestertaste teste testosterone to Saeco tala आरती-विभाग ४६५ आतम मुनि सुव्रत, नमि नेमि श्री कारी । पार्श्व जिनेश्वर वीर जिनंदा, हितकारी ॥ जय० ॥ इण विधि आरती जे भवि करसी, भवसागर तिरसी । श्रीजिनचंद अखय पद फरसी शिव कमला वरसी ॥ जय० ५ ॥ शासन पति आरती हां करो आरती प्रभु की रस में || हां करो ॥ वीस स्थानक तप कर तीजे भव । हुए तीरथ पति सुसमें ॥ हां करो० १ ॥ स्वम चतुर्दश चतुर्दश मातनिहारे । देव देवेन्द्र हुलसमें ॥ जिन अभिमुख हुय शस्तव करि । सुरवर सबहि हरषमें || हां करो० २ ॥ इन्द्र हुकुमसे धनद देवता, भरत खजाने उसमें तीन भुवनमें हरष भयो है, रोम रोम नस नस में ॥ हां करो० ३ ॥ सरव कल्याणक आरती करके, किये कर्मकूं नष्टमें । दास चतुर के बंछित फल गये, अब नहीं संशय इसमें || हां करो० ४ ॥ पञ्च ज्ञान आरती जय जय आरती ज्ञान दिनंदा, अनुभव पद पावन सुख कंदा ॥ जय० १ || तीन जगत के भाव प्रकाशक, पूरण प्रभुता परम अमंदा ॥ जय० २ ॥ मति श्रुति अवधि और मन पर्यव, केवल काटे सब दुख दंदा ॥ जय० ३ || भव जल पार उतारण तारण, सेवो ध्याओ भविजन वृन्दा ॥ जय० ४ ॥ शिवपुर पंथ प्रगट ए सीधा, चौमुख भाखे श्री जिन चन्दा ॥ जय० ५|| अविचल राज मिले याही सों, चिदानंद मिलें तेज अमंदा ॥ जय० ६ ॥ पञ्च ज्ञान आरती ॐ जय जग सुखकारी, वारी जय राम पद धारी । आरती करूं सहकारी, जय जग सुखकारी ॥ जय० ॥ अष्टाविंशति भेद करी ने, मति ज्ञाने राजे ॥ बारी मति ज्ञाने राजे || ध्यावत पूजत भविजन केरा, भव संकट भाजे ॥ जय० १ ॥ भेद चतुर्दश अथवा विंशति, प्रवचन प्रति दाखे ॥ प्रव० ॥ श्री श्रुतज्ञान की महिमा जिनवर, स्वमुख थी भाखे ॥ जय० २ ॥ रूपी अन्य विषयी मर्यादा, करि अवधी सोहे || करि० || भेद षट्क संख्याती Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B katiotishalikolor Moreolatikabtaaplesanthalidasesesaretata kathth total-that trekksatsansthat a nt XXZERATAXXXXXXXXXXLtta जैन-रत्नसार जीवा, भविजन मन मोहे ॥ जय० ३ ॥ तूर्य ज्ञान मनपरयव कहिये, भेद युगम लहिये ॥ भेद ॥ ऋजुमति विपुलमति सरदहिये, न्यूनाधिक गहिये ॥ जय० ४ ॥ लोक लोकोत्तर गत वस्तु, गुण पर्यव भासी ॥ गुण० ॥ केवल एक सहाय अनन्ते, भए निर्वृति वासी ॥ जय० ५॥ पंच ज्ञान की आरती करतां, भव आरती छाजे ॥ भव० ॥ जिम वरदत्त कुमर गुणमंजरि, तिम भक्ती काजे ॥ जय० ६ ॥ वृहत् भट्टारक खरतर पति जिन हंस सूरि राया ॥ हंस० ॥ तद पंकज मधुकर कंचन, निधि आनंद वरताया ॥ जय० ७ ॥ पञ्च ज्ञान आरती जय जय आरती ज्ञान कि कीजे, जासे पांच ज्ञान प्राप्ती फल लीजे ॥ मति श्रुति अवधि सदा हितकारी, मन पर्यव केवल सुखकारी ॥१॥ त्रिपदी श्री अरिहंत उचारे, सूत्र की रचना करे गणधारे ॥२॥ साखा श्री निरयुक्ति वखाणे, प्रति साखा भाष्य मन आणे ॥३॥ करणी पत्र भविक हितकारी, टीका पुष्प सदा उपकारी ॥४॥पहली आरती भविक उतारो, चउगति सुमन का संकट वारो ॥५॥ दुजी आरती आरति टारे, सर्व जीव को सब सुखकारे ॥६॥ तीजी आरतीमन सुध करके, ज्ञानावरणी सबल रिपुथरके ॥७॥ चौथी आरती त्रिकरण करता, मुगति रमणि को होवे भरता ॥८॥ पांचमी आरती शुक्ल ध्यान जे ध्यावे, पंचमि गति निश्चय सो पावे ॥९॥ ऐसी पांचों आरती करिये, भवसागर लीलासे तरिये ॥१०॥ अमृत वर्द्धन सुगुरु वचनसे, दान सागर सेवे शुभ मन से ॥११॥ जय० ॥ पञ्च कल्याणक आरती जय जय जिनराया, पंचकल्याणक शिव सुख दायक, भविजन मन । भाया ॥जय० १॥ लक्षण लक्षित पञ्चकल्याणक, आनन्द हितकारी । श्रीमद् अर्हत त्रिभुवन वंदित, दीक्षा गुणधारी ॥ जय० २ ॥ लोकालोक प्रकाशक केवल, उत्कट बेध बधाई । परमातम चिद्रूप अरूपी, चार अनन्त लय लायी ॥ जय० ३ ॥ पञ्चकल्याणक परम आराधक तारण तरण तरी, पञ्च ভলভেম্বল মুসলঙ্গদলগুলশক্ষক-শিল্পলাম ATTRIKE Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरती-विभाग --*-Ludu P-LAL-da-1-31state- -1-1- 1-1-1-TouTuti । प्रमाद तजीने भविजन, जिन कल्याण धरी ॥ जय० ४ ॥ श्री जिनचन्द्र । अखय निधि कारन सुध दर्शन दायी, त्रिकरण शुद्धे निश दिन ध्यावत शिव संपति पायी ॥ जय० ५ ॥ निर्वाण ( कल्याणक ) आरती ____ जय जगदीश्वर अति अलवेशर वीर प्रभूराया। पतित उधारण भव । भय भंजण, बोध बीज पाया ॥ जय जय जिनराया, आरती करूं मन भाया होय कंचन काया ॥ जय० १ ॥ क्षत्रिय कुण्ड नगर अति सुन्दर, सिद्धारथ राया। सुदि आषाढ़ छट्ठके दिवसे, त्रिसला कुक्षी आया ॥जय०२॥ चौद सुपन देखी अति उत्तम, निज प्रीतम भाखे । अरथ भेद सहु निश्चे करिने, जिन गुण रस चाखे ॥ जय० ३ ॥ चैत्र सुदी तेरस दिन उत्तम, । सहु ग्रह उच्च पावे । जन्म देई दिश कुमरी सहुना, आसन कंपावे ॥ जय० ४॥ उच्छव कर जावे निज थानक, इन्द्र सहू आवे । मेरु शिखर पर स्नात्र महोत्सव, करि आनन्द पावे ॥ जय० ५ ॥ वसुधारा वृष्टी कर सहु सुर, निज थानक जावे । सिद्धारथ करे जन्म महोत्सव अचरज सहु पावे ॥ जय० ६ ॥ कंचन वरण तेज अति दीपत, हरि लंछन छाजे । कुल इक्ष्वाकु अंग सहु लक्षण, शशि ज्यों मुख राजे ॥ जय० ७ ॥ दान सम्वत्सर दे प्रभु लेवे, चारित्र सुखदाई। मार्गशीर्ष दशमी बदि पक्षे, उत्तम तरु पाई ।। जय० ८ ॥ बारे वरप छद्मस्थपना में, दुष्कर तप पाले । भादव सुद दसमी के दिनकू, दोष सडू टाले ॥ जय० ९ ॥ केवल पाये सभी सुर संगे, पावापुरि आने । गुणगण लंकृत देशना देके संघ सद पाव ॥ जय० १० ॥ भूमंडल विच बहू जीवको, अविचल सुख देवे । सुरनर इन्द्र सभी मिल पूजे, जगमें यश लेवे ॥ जय० ११ ॥ चरम चौमामा पायापुरि करके, अन्त समय जाणी। हस्त पालकी शुक् सालमें, माल पहा वाणी ॥ जय० १२ ॥ परियंकासन छह नपन्या. एक चित्त गुण भनी । कात्तिक कृष्ण अमावसके दिन, शिव कमला पामी ॥ जय० १३ ॥ इन्द्रादिक निर्वाण महान्सव, करि प्रभु गुण गावे । देव मुव गणधर गुरु Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Artists deterekaister diraksksixsotaxxkakkarkstrekkekakkhrarikkistakestreturatyakattitel जैन-रनसार गौतम, सुणनें पछतावे ॥ जय० १४ ॥ वीतराग गुण मनमें धारी, अनित्य भाव भावे । केवल ज्ञान प्रगट होय तत्क्षण, सुरनर गुण गावे ॥जय० १५॥ निर्वाण कल्याणक शासन पतिकी आरती ज्यो गावे । शिव सुख लक्ष्मी प्रधान मिले जब मोहन गुण गावे ॥ जय० १६ ॥ दिवाली की आरती जय जय जगदीश जिनेसर जगतारन राजा, धनधन कीरति तेरी इन्द्र करत बाजा जय जय अविकारा तुम जग आधारा, आरती अमर उतारा, भव आरतीटारा ॥ जय० ॥ षट् कायक प्रतिपालक, अनुकपाधारी । निश्चय नयव्यवहारी, भविजन निस्तारी ॥ जय० २॥ मतिश्रुति अवधि सहित तुम, अंबोदर आए। देवनर मंगल गाए, पुष्पन वरसाए ॥ जय० ३ ॥ जन्म महोत्सव जाना, चौसठ इन्द्रोंने । प्रभु मूरति कर लीनी, मेरू पर वीने ॥ जय०४ ॥ क्षीरोदक हिमकलसें योजन शत शतके । जिन तनु लघु चित * धरके, कर धर सब तनके ॥ जय० ५ ॥ अंतरयामी जाना, सब सुर मन तन की । पदनख मेरु कंपाये, भूसर जलथरकी ॥ जय० ६ ॥ धड़ड़ घड़ड़ धूमगिरि धरके, सुरगण सभि कंपे। प्रभुकृत जान खमाये, जय जय मुख * जपे ॥ जय० ७ ॥ अगम शक्ति जिन जाना, प्रफुलित जल ढारे । सुर भिवस्त्र सब भूषण, चमरू झपटारे ॥ जय० ८ ॥ धुंगि धुनि धपमप पामा दल धोंको भेरन झलकारे। गुड़ड़ गुड़ड़ झांझा कठतारा नौवत सुर भारे ॥ ९ ॥ ताथेई ताई सचिगण नाचे, रिमझिम नूपूर का द्रुपदताल सुर गावे आनन्दकी वरखा ॥ जय० १०॥ या विधि सबि जिनेन्द्रे सेवे, जग नायक जाना। अमृत उदय धन धन जिम नर भव, जिम घट परवाना ॥ जय० ११॥ नंदीश्वर द्वीप आरती “जीया चतुर सुजाण नवपद् के गुण गाय रे" जीया अष्टम द्वीपमंगल आरती गाय रे।परमानंदपद एहीज, जपतां अजरामर सुख पायरे ॥जी० १॥ ऋषभानन चन्द्रानन वारिषेण, वर्धमान पद भाय रे । SEEEEEEEEEEEEEEEKSEEKERAYEKetkhtnak.51-55E 5KEESLEEEEEEEEETraninalestialities elitisatiled Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** आरती- विभाग ४६६ ए च्यारे जिन शाश्वत सोहे, समरण मंगल थाय रे || जी० २ || अष्ट प्रकारी पूज मनोहर, मन शुद्ध कर मन भाय रे । जन्म जरा दुःख दूर करण ते, कीजे एह उपाय रे || जी० ३ || पंच प्रदीप से आरती कीजे, डावे आवर्त्त कहाय रे । जो नर आरती पढ़े पढ़ावे, तो थाये सुर राय रे ॥ जी० ४ ॥ मंगल कारी विधन निवारी, सुखकारी लय लाय रे | पंचम गति पामे एह नामे जे गावे चितलाय रे ॥ जी० ५ || एह आरती भविजन मोहे, नामे नवनिध थाय रे । सुखकारी ए सकल मनोहर, कर्पूरभद्र गुण गाय रे || जी० ६॥ पंच तीर्थ आरती जय जय आरती आदि जिनंद की, जय जय आरती आदि जिनंद की ॥ पहली आरती प्रथम जिनंदा, शत्रुंजय मंडण ऋषभ जिनंदा || दूसरी आरती मरुदेवी नंदा, युगला धरम निवार करंदा ॥ जय० १ ॥ तीसरी आरती त्रिभुवन मोह, रत्न सिंहासन प्रभुजी में सोहे । चौथी आरती नित्य नई पूजा, देव ऋषभदेव अवर न दूजा ॥ जय० २ पंचमी आरती प्रभु जी ने भावे, प्रभुजी ना गुण सेवक इण गावे । कर जोड़ी सेवक इम बोले, नहीं कोई माहरा प्रभुजी ने तोले ॥ जय० ३ ॥ जय जय आरती शांति तुमारी, तेरा चरण कमल की में जाउं बलिहारी । आरती कीजे प्रभु आदि जिनंद की, मृगलंछन की में जाउं बलिहारी । विश्वसेन अचिराजी के नंदा, शांति जिनंद सुख पूनम चंदा ॥ जय० ४ ॥ आरती कीजे प्रभु नेम जिनंद की, शंख लंछन की में जाउं बलिहारी । समुद्र विजय शिवा देवी को नंदा, नेमि जिनंद मुख पूनम चन्दा || जय० ५ ॥ आरती कीजे प्रभु पाश जिनंद की, फणिंद लंछन की में जाउं वलिहारी । अश्वसेन वामा जी के नंदा, पाश जिनंद सुख पूनम चन्दा ॥ जय० ६ ॥ आरती कीजे महावीर जिनंद की, सिंह लंछन की में जाउं बलिहारी । सिडारथ त्रिशला के नंदा, वीर जिनंद सुख पूनम चन्दा ॥ जय० ७ ॥ आरती कीजे चावीश जिनंद की, चाबीश जिनंद की में जाउं बलिहारी । चरण कमल नित सेबित इन्दा, चौवीश जिनंद सुख पूनम चन्दा ॥ जय० ८ ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Part-icatiotstatistkhatattator-latakstanesote-techtentir-teteset-tartitatasathikater-t-t- t a ttattitu ४७० म Patantr whit2- itoriotik .प्रणयप्रणमननननननननग्रनल्लू - Tantra.co m tarastratikar जैन-रत्नसार मंगल दीपक . दीवो रे दीवो मंगलिक दीवो, आरति उतारण बहु चिरंजवो । दी० १॥ सोहामण घर पर्व दीवाली, अंबर खेले अमरा बाली ॥ दी० २ ॥ वेपल भणे इण कुल अजुवाली, भावे भक्ते विधन नीटाली ॥ दी. ३ ॥ देल भणे इणे कलिकालें, आरति उतारी राजा कुमर पालें ॥ दी० ४ ॥ हम घर मंगलिक तुम घर मंगलिक, मंगलिक चतुर्विध संघ ने हो जो ॥५॥ मंगल दीपक विविध रत्न-मणि जड़ित रचो, थाल विशाल अनुपम लावो । आरती उतारो, प्रभुजी नी आगे, भावना भावी शिव सुख भावे ॥ आ. १॥ भात चौद ने एक विस मेवा, भण त्रण वार प्रदक्षिणा देवा ॥ आ० २॥ जिम तिम जलधारा देई जपे, जिम तिम दोहग थर थर कंपे आ०३॥ बहु भव संचित पाप पणा से, सब पूजामें भाव उल्लासे ॥ आ०४ ॥ चौद भुवन मां जिन जी कोई, नहीं आरति इम समजोई ॥ आ० ५॥ मंगल दीपक चारो मंगल चार, आज म्हारे चारो मंगल चार । देखा दरस सरस जिनजीका, शोभा सुंदर सार ॥ आज० १॥ छिनु छिनु छिनु मन मोहन चरचो, घसी केसर धनसार ॥ आज० २ ॥ विविध जाति के पुप्प मंगाओ, | मोगर लाल गुलाब ॥ आज० ३ ॥ धूप उखेवी ने करो आरती, मुख बोले । जय २ कार आज० ४॥ हर्ष धरी आदीसर पूजो, चौमुख प्रतिमा चार ॥ आज० ५ ॥ हेत धरी मन भावना भावो, जिम पामो भव पार ॥ आज० ६॥ सकल संघ सेवक जिन जीका, आनंद घन उपकार ॥ आज० ७ ॥ गौतम गणधर आरती जय जय गणधारा, गौतम गोत्र इन्द्र भूति नामें भवियण हित * ये दोनों गणधरों की आरती रंगविजय खरतर गच्छीय यति पन्नालालजी महाराजकी। वनाई हुई है। inanti- T शकत mlaint-1-meanindian नमून -2----- - PERF Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ thank నన దుండashatanathashtag ४७१ NAAMr.RAPAaran MAAAAAAM... narmanner. sha आरती-विभाग कारा ॥ जय० ॥ अष्टा पद गिरि भानु अवलंबन चौबीस जिन ध्याया। पनरह सौ तिहत्तर तापस, ते सहु समझाया ॥ जय० १॥ दी दीक्षा जिन को निज कर से, वे शिवपद पाया। अन्त वीर संयम नेह त्याग कर, * केवल उपजाया ॥ जय० २॥ पद्मोदय कहे बारह वर्ष पर, पंचम गति पाई। दिलीप चरण से करजोड़ी, जय शिवपद दाई ॥ जय० ३ ॥ सुधर्म गणधर आरतो जय जय पटधारी, भविजन शुभनिस्तारी, शिवसुख दातारी ॥जय॥ पंचम गणधर सुधर्म स्वामी, पटधर पट पाया। वीर प्रभू निर्वाण गये पर, शासन दीपाया ॥ जय० १ ॥ जिन भाषित त्रिपदी अनुसारे, पूरब विस्तारे। द्वादशाङ्ग उपदेश करीने, भवियण कू तारे ॥ जय० २ ॥ निज गुरु सेती वीस वरष पर, पाम्यो शिव थाने। पद्मोदय गुरु चरण पसाये, दिलीप लहे ज्ञाने ॥ जय० ३॥ श्री गुरुदेव आरती जय जगदीश हरे, ॐ जय जगदीश हरे । जय जय गुरुदेवा, ॐ जय जय गुरुदेवा । आरति हरो नित एहवा, सुख सम्पति मेवा ॥ जय० १॥ कुमति निवारन सुमति बधारन, पावन गुरु सेवा । कुशल करो गुरु सेवक पर सुख सानिध देवा ॥ जय० २ ॥ गुरु कल्पवृक्ष सम वांछित पूरन, दुःखमें सुध लेवा । संकट कष्ट मिटाय सबन के,दें समकित मेवा ॥ जय० ३ ॥ श्री जिनदत्त कुशल गुरुके, पद पङ्कज सेवा । श्री रत्नसूरिके शिष्य प्रवर हैं, सूरज यति देवा ॥ जय० ४ ॥ मणिधारी जी की आरती जय जय मणिधारी, आरती करूं हितकारी, सुख सम्पति कारी ॥ जय० १॥ गुणमुनि आगर, महिमा सागर, भविजन हितकारी । दीन दयाल दया कर मो पर, जिन शासन वारी ॥ जय० २॥ ग्यारेसे सत्तानवे वर उपनी हरष वधाई । बारसे तेतीसे वरर्षे, सुर पदवी पाई ॥ जय० ३ ॥ Mooshakikatackpointroloneliokistreliminaranchalilarakarnadaniliaonlishackintoleralalahinilahuchshindisaniliairkarkikikashaliliakshanilioashli-Niskconolisanlodka k kakhaalankpadukonkannadataaradhan Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ నరకుడు దhithiM మనందనుడు ४७२ www womurwwww.. urinarwarivanivaawenes Katrina-trinakaisierreicketpaatak जैन-रनसार करजोड़ी सेवक गुण गावे, मन वांछित पावे । श्री जिनचन्द्र कृपा कर मो पर, मंगल माला घर आवे ॥ जय० ४॥ कुशल गुरु आरती जय जय आरति सत् गुरु तेरी, कर पूरण आशा मन मेरी । जि लागर जगनन्द विख्याता, जयति श्री वर सतगुरु माता ॥१॥ संवत तेरसें छतीसे जाया, निव्यासी स्वर पदवी पाया ॥२॥ वीर जिनेश्वर चौपन ठामे, श्री जिन कुशल सुरीश्वर नामें ॥३॥ छाजेहड गोत्रीय कहता, पटधारी जिनचंद मुनिंदा ॥४॥करजोड़ी सेवक गुण गावें, पूजत मन वंछित फल पावे ॥५॥ रत्नसूरिजी की आरती जय जय आरति रतन सुरिन्दा, अनुभव पायो आप जिनंदा ॥ज०१॥ भी शान्ति दान्ति विद्याके सागर, संघका काटो भवभय फंदा ॥ ज० २ ॥ रङ्ग सूरिके गच्छमें सोहे, खरतर गच्छको परम आनंदा ॥ ज० ३ ॥ सूरज तुमको हृदयसे ध्यावे, आरति हरो गुरु, सदा मुनिंदा ॥ ज० ४ ॥ चक्रेश्वरी देवी की आरती __जय जय आरती देवी तुमारी, नित्य प्रणमूं हूँ तुम चरणारी ॥ जय० १॥ श्री सिद्धाचल गिरि रखवाली, नाम चक्केसरी जगसौ ख्याली ॥ जय० २ ॥ सुविहित गच्छ नी शासन देवी, सकल संघने सुक्ख करेवी ॥ जय० ३ ॥ निलवट टीलडी रत्न बिराजे, काने कुंडल दोय रवि शशि छाजे ॥ जय० ४ ॥ बांहे बाजूबंध वोरखा सोहे, नील वरण सहु जन मन मोहें ॥ जय० ५ ॥ सोवन मय नित्य चूड़ी खलके, पायल बूंघरडा घम धमके ॥ जय० ६ ॥ वाहन गरुड़ चढ्या बहु प्रेमे, तुझ गुण पार न पामू केमे ॥ जय० ७ ॥ चूनडी जडमां देह अति दीपे, नवसरा हारे । जग सहु जीपे ॥ जय० ८ ॥ नित नित मानी आरती उतारे, रोग शोग भय दूर निवारे ॥ जय० ९ ॥ तसु घर पुत्र पुत्रादिक छाजे, मन बंछित सुख संपद राजे ॥ जय० १०॥ देवचन्द मुनि आरती गावे, जय जय ।। मंगल नित्य वधावे ॥ जय० ११ ॥ tak-HEMERNAMAMALocatinianimaterinarainlisatikaliNilikinil Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ektarakshabanthik REAKisan K olhalasiah KKRE AREntsase Banthi .aniran.animal . आरती-विभाग चक्रेश्वरी देवी की आरती जय जय जिनपद सेवन कारक, जय जय जगदंबे । अहनिशि तुझ पद समरन, दिल विच ध्यान धरे ॥ जय० १ ॥ भविजन वंछित पूरन सुरतरु, चक्रेश्वरी अंबे । बसु भुज शोभित कनक छवी तनु, सेवित सुर वृन्दे ॥ जय० २ ॥ पंचानन तिम खगपति वाहन, आयुध हस्त धरे । ऋद्धि वृद्धि नित सेवक पावत, आनंद संघ करे ॥ जय० ३ ॥ यक्षराज की आरती ___जय जय ऋषभ पदाम्बुज सेवक, जय जय यक्षराया, शासनके तुम रक्षक भविजन सुखदाया ॥जय० ॥ कामगवी जिन वंछित दायक, कंचन वरण सुहाया। संकट विकट निवारण कारण, वर कुंजर चढ़ि आया ॥ जय० २ ॥ उदधि भुजा करि शोभित तनु छवि, गुणनिधि सुरराया। आरत हरण करन आरती श्री संघ हुलसाया ॥ जय० ३ ॥ भैरव आरती जैन के उद्योत भैरूं समकित धारी । शान्ति मूरति भविजन सुखकारी ॥जैन० १॥ निर्मल जलसे न्हवण कराऊं, अंगिया रचाउं थांरी न्यारी न्यारी न्यारी । केशर चंदन घिसं घनेरा, चरण चढ़ाऊं उंगली न्यारी न्यारी न्यारी ॥ जैन० २ ॥ भांति भांतिके पुष्प चढ़ाऊं, हार गुंथाउं कलियां न्यारी न्यारी न्यारी । अष्ट द्रव्य पूजामें लाऊं, भावना भाउं हितकारी शुभकारी ॥ जै० ३ ॥ हाथ खखरिया, पांव पकड़िया विच विच हीरा मोती लग रहे भारी। सेवक भैरूजी से अरज करत हैं, नित प्रति लो बाबा ढोक हमारी ॥ जै० ४॥ भैरव आरती जैन के उद्योत भैरूं समकित धारी, शान्ति सूरति भवियंण सुखकारी । घूघर वाला केश सिंदूर से छवि के, केसर के तिलक सोहे, उगो मानो 1 रवि के ॥ जैन० १॥ सिर पर मुकुट कुण्डल काने शोभतो। गल सोहे నా ముందుకు 60 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t tarastu SAE మన సంపదను సరి చేసుకున్న మరువక మునుపు పంచుకున్న పనులను నవయుగ డన డను ముందుకు సాగును పదును ముడి సరుకు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు ४७४ जैन-रत्नसार .......................... .. .. | धुक धुकी हिये हार मोहतो ॥ जैन० २ ॥ छड़ी लिये हाथ में देहरा के वारणा । पूजा करे नरनारी रखवारी के कारणा ॥ जैन० ३ ॥ रोग शोक दूर करो वैरी को भगाय दो। बालकों की रक्षा करो, अन्न धन पुत्र दो ॥ जैन० ४ ॥ पूरण कल्पतरु चाहे फलदाता है। पूजा लेवे नित प्रति रागे रंग माता है ॥ जैन० ५ ॥ ।। समाप्तोऽयं आरती विभागः ।। lahliKAHAakakirashtAMRAKARYAKok. to EardastesanimaslamistanshTamitBhannalala estTERAYANAMAHAMAKANSIBKhadhaS Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇంకుడు గుడు గుడు గుండుగ ముందుకు కుకు కుకుడును చుడు a typirationalists పడుతరు. నన్ను चैत्यवन्दन-विभाग Sanskritika kaleolokalkalochdaslilialentired-PakshakaknidiosindialeckM श्री आदिनाथजीका चैत्यवन्दन सुवर्ण वर्णं गजराज गामिनं, प्रलम्ब बाहू सुविशाल लोचनम् । नरामरेन्द्रः स्तुतपाद पङ्कजं, नमामि भक्त्या ऋषभं जिनोत्तमम् ॥१॥ ॥श्री अजितनाथ चैत्यवन्दन ॥ श्री जितशत्रु नरेश नन्द, विजया तनु जात । गज लाञ्छन सोवन वरण, सोहे प्रभु गात ॥१॥ साई च्यार शत धनुष मान, प्रभु उन्नत काय । आयु बहत्तर लाख पूर्व, जिन अजित अभाय ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, नयरि अयोध्या ठाम । पञ्चाणू गणधर सहित, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ एक लाख मुनि तीस सहस, आर्या त्रिण लक्ष । दोय लाख श्रावक सहस, अठाणूं दक्ष ॥४॥ पण लख पैंतालीस सहस, श्रावकणी सार । देवी अजिता महायक्ष, नित सांनिधिकार ॥५॥ एक सहस मुनि साथ सुं ए, मास क्षमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥श्री सम्भव जिन चैत्यवन्दन ।। श्री संभव जिनराज देव, तनु सोवन वान । श्री जितारि सेना सुतन, पद तुरंग प्रधान ॥१॥ साठ लाख पूरव प्रगट, प्रभु आयु प्रमाण । धनुष चार सौ मान उच्च, प्रभुकाय वखाण ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, सावत्थी पुर ठाम । इक शत दुय गणधर सहित, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ दोय लख मुनि त्रिण लख, समणि वली सहस छत्तीस। सहस त्रयाणूं तीन लाख, श्रावक सुजगीस ॥४॥ छ लख सहस छतीस शुद्ध, श्रावकणी 1. सार । त्रिमुख यक्ष दुरितारि देवि, नित सांनिधिकार ॥५॥ एक सहस में मुनि साथ सुंए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो akaamsootrolosiandialisandeslansladakikakai L GIRIRENAKA M Acaderlikalipkalidahalistaslesedladkiktidhokhilaalaclessiole १ संघ कल्याण ॥६॥ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार ॥ श्री अभिनन्दन जिन चैत्यवन्दन || श्री अभिनन्दन विश्वनाथ, कपिलाञ्छित पाय । श्री संवर सिद्धारथा, सुत सोवन काय ॥१॥ सार्द्ध तीन शत धनुष मान, प्रभु देह विराजे । आयु लाख पञ्चास पूर्व, अतिशय गुण छाजे ॥२॥ छ भन्त संजम लियो ए, नयरि अयोध्या ठाम । गणधर इक शत सोल युत, आपो शिवपुर स्वाम ||३|| त्रिण लख मुनि आर्या छ लख, वलि तीस हजार । सहस अठ्यासी दोय लख, श्रावक सुविचार ||४॥ सहस सतावीस पांच लाख, श्रावणी सार । यक्ष नायक कालीसुरी, नित सांनिधिकार ||५|| एक सहस मुनि साथ सुं ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ||६|| ४७६ N ॥ श्री सुमति जिन चैत्यवन्दन ॥ कनक वरणी श्री सुमति नाथ, जपिये जसु नाम । मेघ नरेसर मंगला, अङ्गज अभिराम ||१|| धनुष तीन शत देह मान, जसु लाञ्छन क्रौंच । आयु लाख चालीस पूर्व, बहु सुकृत संच ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, नयरि अयोध्या ठाम । इक शत गणधर परिवर्या, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ द वीस सहस त्रिण लख, साधु पण लख तीस । सहस साध्वी श्रावक, लाख सहस इकअसीस ||४|| पांच लाख सोले सहस, श्रावकणी सार । महाकालि सुर तुम्बरू, नित सांनिधिकार ||५|| एक सहस मुनि साथ सुं ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री पद्मप्रभ जिन चैत्यवन्दन ॥ देवि सुसीमानन्द चन्द, घर नरपति धाम । रक्त वरण प्रभु कमल अङ्क, पद्म प्रभु नाम ||१|| धनुष अढ़ाई सौ प्रमित, तनु उन्नत सोहे | आयु पूर्व तीस लाख, भव दुःख विछोहै ॥२॥ छट्ठ भत्त संजम लियो ए, कौशाम्बी पुर ठाम | गणधर इक शत सात युत, आपो शिवपुर स्वाम ||३|| तीस सहस त्रिण लख साधु, चौलख बीस सहस । साध्वी श्रावक दोय लाख छिहोत्तर सहस ||४|| पांच लाख वलि सहस पांच, श्रावकणी सार । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n ata.ranIES ...MMAmarnPornimurror E- Acruitla R IERTAmerican- EAKISTATER itesExt-antidinafinitiatelmthatanthintaal-shatanAJHEAtiatimtiatisthitrakaalnaitialHAIRAGARME चैत्यवन्दन-विभाग ४७६ कुसुम यक्ष श्यामा सुरी, नित सांनिधिकार ॥५॥ त्रिण सय अड़ मुनि साथ सं ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री सुपार्श्व जिन चैत्यवन्दन ॥ प्रहरसम समरूं श्री सुपास, काञ्चन सम काय । श्री प्रतिष्ठ पृथ्वी सुतन, स्वस्तिक जसु पाय ॥१॥ बीस लाख पूरब सकल, जसु आयु प्रमाण । धनुष दोय सौ मान देह, जसु उन्नत जाण ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, पुरि वणारसी ठाम । पञ्चाणं गणधर सहित, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ त्रिण लख मुनि चौ लख, समणि वलि, तीस हजार । सहस सत्तावन दोय लख, श्रावक गुणधार ॥४॥ सहस त्रया चार लाख, श्रावकणी सार । सुर मातङ्ग शान्ता सुरी, नित सांनिधिकार ॥५॥ पञ्चसयां मुनि साथ सुंए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री चन्द्रप्रभ जिन चैत्यवन्दन ॥ श्री महसेन नरेस नन्द, चन्द्रप्रभ स्वामी। शशि लाञ्छन उज्वल वरण, सेवू सिर नामी ॥१॥ धनुष दोय सौ मान चारु, जसु उन्नत काय । आयु वरस दश लाख पूर्व, चन्द्र पुरी राय ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, मात लक्ष्मणा नन्द । त्रयाणवें गणधर सहित, दूर करो दुख दन्द ॥३॥ दुय लख सहस पचास, साधु तिलख असी सहस । साध्वी श्रावक दोय । लाख, पचास सहस ||४|| सहस इकाणं च्यार लाख, श्रावकणी सार । भृकुटी देवी विजय यक्ष, नित सांनिधिकार ॥५॥ एक सहस मुनि साथ सं ए, मास खमण तप जाण। प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री सुविधि जिन चैत्यवन्दन ॥ जय जय जिनवर सुविधिनाथ, उचल ततु वान । श्रीरामा सुग्रीव जात उरु, मकर प्रधान ॥१॥ दोय लाख पूरव प्रवर, जसु आय सुजान। แผงใeatre ตลอดไคลโดยคอ ไอดไอดไทย กงไกลได้ไกใดใดไดไทย เด็ดไอได้ใกไดไไดไไไดไไดได้ใจพได้ดได้จใกใดใดพได้โดดไดไดได้คะ พอดใครไพได้ชัดใคงได้ไง. กันไดไไดไไดไไดไไไไดไไดไไดไดไไดไลโครโดยไe leได้ ในใจ - ใคง. . . 1. Sulfrientatiot-R Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAITRINCIDIOESEDICricineshot-tabacassesonastasiaceaeti krkadhoatekarnatkhposter-tradasttotke M irmanara alistarrested n జcteristianittalుతుందkattitutio ४७८ जैन-रत्नसार धनुष एक सौ मान जास, तनु उच्च पिछान ॥२॥ छह भत्त संजम लियो । | ए, काकन्दी पुर ठाम । अठ्यासी गणधर सहित, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ । दोय लाख मुनि सहस वीस, श्रमणी इक लक्ख । दोय लक्ख गुणतीस सहस, श्रावक सध पक्ख ॥४॥ चौ लख इकहत्तर सहस, श्रावकणी सार । देवी सुतारा अजित यक्ष, नित सांनिधिकार ॥५॥ एक सहस मुनि साथ सुं ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री शीतल जिन चैत्यवन्दन ॥ श्री दृढ़रथ नन्दा सुतन, शीतल जिनराय । श्री वच्छ लाञ्छन कनकवान, सोहे जसुकाय ॥१॥ एक लाख पूरव बरस, जसु आयु प्रमाण । नेऊ धनुष प्रमाण देह, गुण नयण निहाण ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, भदिलपुर वर ठाम । इक्यासी गणधर सहित, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ एक लाख मुनि षट् अधिक, श्रमणी एक लख । दो लख निव्यासी सहस, श्रावक सुध पक्ख ॥४॥ सहस अठावन च्यार लाख, श्रावकणी सार । देवि अशोका ब्रह्म यक्ष, नित सांनिधिकार ॥५॥ एक सहस मुनि साथ सुं ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री श्रेयांस जिन चैत्यवन्दन ॥ जय जय विष्णु नरेश नन्दन, विष्णु तनु जात । खड़ग लाञ्छन कनक वान, सुन्दर तर गात ॥१॥ असी धनुष सुप्रमाण देह, जित तेज दिणन्द । लाख चौरासी बरस आयु, श्रेयांस जिणन्द ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, नगर सिंहपुर नाम । छिहोत्तर गणधर सहित, आपो शिवपुर। | स्वाम ॥३॥ सहस चौरासी शुद्ध साधु, इक लख त्रिण सहस । साध्वी श्रावक दोय लाख, गुण्यासी सहस ॥४॥ चौ लख अड़तालीस सहस, । श्रावकणी सार । यक्षराज सुर मानवी, नित सांनिधिकार ॥५॥ एक सहस मुनि साथ सुं ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो, संघ कल्याण ॥६॥ সু শনুদুশাক ক্ষয়ক্ষলক্ষলক্ষ লক্ষ lalkikikikalnabalikshamathakhkshAKABALEKARSANILKALASSMELLE-LEARt.kkk. . Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवन्दन-विभाग ४७६ ॥श्री वासुपूज्य जिन चैत्यवन्दन ॥ बारम जिनवर वासु पूज्य, बहु सुजस निधान । श्री वसुपूज्य जया । सुतन, माणिक सम यान ॥१॥ महिष लञ्छन सत्तर धनुष, जसु देह है । प्रमाण । बरस बहत्तर लाख जासु, आयुष्य पिछाण ॥२॥ चउत्थ भत्त संजम लियो ए, चम्पापुरी शुभ ठाम । बासठ गणधर सूं जुगत, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ सहस बहुत्तर सुद्ध साधु, साध्वी इक लख । दोय लाख पनरे सहस, श्रावक सुध पख ॥४॥ चौ लख सहस छतीस, मान श्रावकणी । सार । चण्डा देवी कुमार यक्ष, नित सांनिधिकार ॥५॥ षट् सय मुनि परिवार सुंए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा चम्पापुरी, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥श्री विमल जिन चैत्यवन्दन ॥ श्री कृतवर्म कुलावतंस, श्यामा तनु जात । सूकर लाञ्छन कनकवान, श्री विमल विख्यात ॥१॥ धनुष साठ सुप्रमाण जासु, तनु उच्च विराजे । * आयु वच्छर साठ लाख, जसु निरमल छाजे ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, कम्पिलपुर शुभ ठाम । गणधर सत्तावन सहित, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ मुनिवर अड़सठ सहस मान, अड़सय इक लख । श्रमणी श्रावक अड़ सहस, ऊपर दोय लख ॥४॥ च्यार लाख सुश्राविका, चौबीस हजार । अषण्मुख सुर विदिता सुरी, नित सांनिधिकार ॥५॥ छ सहस मुनि परिवार सु ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री अनन्त जिन चैत्यवन्दन ॥ जय जय देव अनन्तनाथ, सोवन सम वान । सुजसा देवी सिंहसेन, कुल तिलक समान ॥१॥ श्येन लञ्छन धर तीस लाख, संवच्छर आय ।। सुन्दर धनुष पचास मान, उन्नत जस काय ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, नयरि अयोध्या नाम । निज पचास गणधर सहित, आपा शिवपुर खाम ॥३॥ मुनिवर बासठ सहस मान, तह बासठ सहस। आयर्या श्रावक elsตได้นัดฟัดเซตใจงดง reไดอกไllet ในไกลไกใจใกได้โดดไeterใจได้ฟังเป็นปัจจไดโอในโๆจะได้ใจไม่ได้ใช้ อปได้ใจได้ใจได้ในไตไดข้าใจไว้ในใจไขมันใจในการโดยไม่ได้ให้ดในผลในใจได้ในคนไขได้ในไตไอดได้ไง Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sakstartisthatantralayakhadakedalistasta-kolahsatastatistodaalastartsidatestraoktanbkabootablookildhotsbabasex.chatreesmasty ....arwwwwwwran.rrmer Aurururam m mumr m..mannaamanainamainanamMNA स्त्रमनप्रजनननननननननननननन ननननननननननननननननननन AparasannaashlionitamaAKTANAMMEHAGARAashibahbadimanmashanananAN जैन-रत्नसार दोय लाख, ऊपर छ सहस ॥४॥ चार लाख चउदे सहस, श्रावकणी सार । अंकुशा सुरी पाताल यक्ष, नित सांनिधिकार ॥५॥ सात सहस परिवार सं ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री धर्म जिन चैत्यवन्दन ॥ पनरम प्रणमं धर्म नाथ, सुव्रता तनु जात । भानु भूप सुत वज्र अङ्क, काञ्चन सम गात ॥१॥ धनुष पैंतालीस मान, जासु तन उन्नत जाण । संवच्छर दश लाख शुद्ध, जसु आयु प्रमाण ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, नगर रत्नपुर नाम । तयालीस गणधर सहित, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ चौसठ सहस सुसाधु, चार सय बासठ सहस । श्रमणी श्रावक दोय लाख, ऊपर चौ सहस ॥४॥ च्यार लाख तेरे सहस, श्रावकणी सार । किन्नर कन्दर्पा सुरी, नित सांनिधिकार ॥५॥ अड़हिय सय परिवार सुंए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री शान्ति जिन वन्दन ॥ विपुल निर्मल कीर्ति भरान्वितो, जयति निर्जरनाथ नमस्कृतः। लघु विनिर्जित मोह धराधिपो, जगति यः प्रभु शान्ति जिनाधिपः ॥१॥ विहित शान्त सुधारसमजनं, निखिल दुर्जय दोष विवर्जितम् । परम पुण्यवतां भजनीयतां, गतमनन्त गुणैः सहितं सताम् ॥२॥ तमचिरात्मजमीश मधीश्वरम्, भविक पद्म विबोध दिनेश्वरम् । महिम धाम भजामि जगत्त्रये, वर मनुत्तर सिद्ध समृद्धये ॥३॥ ॥ पुनः॥ सोलम जिनवर शान्ति नाथ, सेवो सिर नामी। कञ्चन वरण शरीर कान्ति, अतिशय अभिरामी ॥१॥ अचिरा अङ्गज विश्वसेन, नरपति कुलचन्द । मृग लाञ्छन धर पद कमल, सेवे सुरनर बृन्द ॥२॥ जगमां अमृत जेहवी, ए जास अखण्डित आण। एकमने आराधतां, लहिये कोड़ि कल्याण ॥३॥ GHATANAMATriliz XXXXXYYYKASAREEEXXXX . Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 चैत्यवन्दन- विभाग ॥ श्री शान्तिनाथ जिन चैत्यवन्दन ॥ सोलम जिनवर शान्तिनाथ, सोवन सम काय । विश्वसेन अचिरा सुतन, मृग लाञ्छित पाय ॥ | १ || चालीस धनुष प्रमाण, उच्च जसु देह विराजे । आयु वच्छर लाख एक, जलधर धुनि गाजे ॥२॥ छट्ट भत्त संजम लियो ए, हथणा पुर वर नाम, निज गणधर छत्तीस युत, आपो शिवपुर स्वाम ||३|| बासठ सहस सुसाधु, छ सय वलि इकसठ सहस । श्रावक साध्वी दोय लाख, बलि नेऊ सहस ॥४॥ सहस त्रयाणं तीन लाख, श्रावणी सार । निर्वाणी सुरी गरुड़ यक्ष, नित सांनिधिकार ||५|| नव सय मुनि परिवार सुं ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ||६|| ४८१ ॥ श्री कुन्थुनाथ जिन चैत्यवन्दन || जय जय जग गुरु कुन्थु नाथ, श्री माता जाय । सूर नरेश्वर अङ्ग जात, काञ्चन सम काय ॥१॥ देह धनुष पैंतीस मान, लाञ्छन जसु छाग । सहस पच्याणं वर्ष आयु, चल तेज अथाग ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, हत्यणा पुर वर ठाम । निज गणधर पैंतीस युत, आपो शिवपुर स्वाम ||३|| साठ सहस मुनि श्रमणि, संघ साठ हजार छ सै । इक लख गुणयासी सहस, श्रावक सुध उलसै ॥ ४ ॥ सहस इक्यासी तीन लाख, श्रावकणी सार । सुर गन्धर्व बला सुरी, नित सांनिधिकार ||५|| एक सहस मुनि साथ सुं ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ||६|| ॥ श्री अर जिन चैत्यवन्दन || देवी नन्दन देवनाथ, अरनाथ प्रधान । लाञ्छन नन्द्यावर्त्त नाम, वपु काबन वान ||१|| तात सुदर्शन धनुप तीस, जसु देह प्रमाण । सहस नांगनी वर्ष आयु, अति निर्मल नाण ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, हविणाउर पुर टाम । निज गणधर तैंतीस युत, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ नाधु सहस पचास मान, साठ सहस श्रमणी । सहस चौरासी एक लाख E Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R atakart a ra Hom -bank-thalaletiolestostalikhatosterolasahshathrastamashakakisatathistatestKA जैन-रत्नसार Mr...... Amirmendmom.murarerror ai..wwwwwww AaithilitATA श्रावक सुमति धणी ॥४॥ सहस बहोत्तर तीन लाख, श्रावकणी सार । धारणि सुरी यक्षेश सुर, नित सांनिधिकार ॥५॥ एक सहस मुनि साथ सुं ए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधासम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री मल्लि जिन चैत्यवन्दन ॥ उगणीसम श्री मल्लिनाथ, नील वरण काय । देवी प्रभावती कुम्भराय, नन्दन जिनराय ॥१॥ कलश लञ्छन पचवीस धनुष, तनु उच्च पिछाण । सहस पचावन वर्ष मान, जस आयुस जाण ॥२॥ अट्ठम भत्ते व्रत लियो ए, नगरी मिथिला नाम । गणधर अट्ठावीस युत, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ जसु चालीस हजार साधु, पंचावन सहस । साध्वी श्रावक एक लाख, तैयासी सहस ॥४॥ तीन लाख सत्तर सहस, श्रावकणी सार । सुर कुबेर धरण प्रिया, नित सांनिधिकार ॥५॥ एक सहस परिवार सुंए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥ श्री मुनि सुव्रत जिन चैत्यवन्दन । श्री हरिवंश सुमित्र राय, पद्मा तनु जात । श्री मुनि सुत्रत कृष्ण वर्ण, त्रिजगति विख्यात ॥१॥ कच्छप लाञ्छन धनुष वीस, तनु उन्नत सोहे । आयु तीस हजार वर्ष, भविजन मन मोहे ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, राजगृही पुर नाम । निज अढार गणधर सहित, आपो शिवपुर स्वाम ॥३॥ तीस सहस मुनि जासु, सीस पंचास सहस । साध्वी श्रावक एक लाख, बावत्तर सहस ॥४॥ तीन लाख पंचास सहस, श्रावकणी सार । में नर दत्ता सुरी वरुण यक्ष, निधि सांनिधिकार ॥५॥ एक सहस मुनि साथ सुं ए, मास खमण तप जाण। प्रभु सीधा सम्मेत गिरि, करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥श्री नमि जिन चैत्यवन्दन ॥ जय जय विजय नरेश नन्द, काञ्चन समकाय । नील कमल लांछन वरण श्री नमि जिनराय ॥१॥ आयु दश हजार वर्ष, वप्रा सुत सार । धनुष पनर जसु देह मान, उत्तम गुणधार ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, ननननननन प्रणयप्रगलनापूरनलालगनलाल सलूटपालमs L ASEAXXEXXEYAYARIKE Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवन्दन-विभाग ४८३ आपो शिवपुर स्वाम नगरी मिथिला नाम । निज गणधर सतरे सहित, ||३|| बीस सहस मुनि जासु सीस, इमचल सहस । श्रमणी श्रावक एक लाख, चलि सन्तर सहस ||४|| त्रिण लख अड़तालीस सहस, श्रावकणी सार । भृकुटि यक्ष गंधारि देवी, नित सांनिधिकार ||५|| एक सहस मुनि साथ सुंए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा सम्मेतगिरि, करो संघ कल्याण ||६|| ॥ श्री नेमि जिन चैत्यवन्दन || समुद्र विजय सुत नेमिनाथ, कृष्ण वरण काय । शौरीपुर अवतार जासु, शंख लञ्छन पाय ||१|| देह धनुष दशमान उच्च, हरिवंश विख्यात । संवच्छर इक सहस आयु, धन शिवा सुजात ॥२॥ छह भत्त संजम लियो ए, नयरि द्वारिका नाम । गणधर इग्यारे सहित, आपो शिवपुर स्वाम ||३|| सहस अढारे शुद्ध साधु, तह चालीस सहस । श्रमणी श्रावक एक लाख, गुणहन्तर सहस ||४|| तीन लाख छत्तीस सहस, श्रावकणी सार । अम्बादेवि गोमेध सुर, नित सांनिधिकार ||५|| मुनि पण सय छत्तीस सुंए, मास खमण तप जाण । प्रभु सीधा गिरनार गिरि, करो संघ कल्याण ||६|| ॥ पार्श्व जिन चैत्यवन्दन ॥ श्रयामि तं जिनं सदा मुदा प्रमाद वर्जितं स्वकीय वाग्विलासतो जितोरुमेघगर्जितम् । जगत्प्रकाम -कामित प्रदान दक्षमक्षतं पदं दधानमुच्चकैरकै तवोपलक्षितम् ॥१॥ सतामवद्यभेदकं प्रभूत सम्पदां पद, वलक्षपक्षसङ्गतं जनेक्षण क्षण प्रदम् । सदैव यस्य दर्शनं विशां विमर्दितैनसां, निहन्त्यसातजातमात्मभक्तिरक्त चेतसाम् ॥२॥ अवाप्य यत्प्रसाद मादितः पुरुश्रियो नरा, भवन्ति मुक्ति गामिनस्ततः प्रभाप्रभाखराः । भजेयमाश्व सेनिदेव देवमेव सत्पदं, तमुच्चमानसेन शुद्ध बोध वृद्धि लाभदम् ||३|| || पार्श्व जिन चैत्यवन्दन ॥ श्री अश्वसेन नरेशनंद, बामा जसु मात पन्नगलांछन पार्श्वनाथ, नील वरण गात ॥१॥ अति सुन्दर जिनराज देह, नव हाथ प्रमाण चरस एक्सी मान आयु, जसु निरमल नाण ॥२॥ अट्ठम तप संजम लियोए, नयरि Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Examitatistakestanetstontestantstachistosomiakhotheraitsetsnasty rammraninewwwmarrorm Reshakelilaslilhinetrikakkasikanachikhalil जैन-रनसार बनारसी नाम गणधर दस परिवार युत, आपो शिवपुर धाम ॥३॥ सोलह सहस मुनि जास शीश, अडतीस सहस । श्रमणी श्रावक एक लाख, चौसट्ठी सहस ॥४॥ त्रिणलख गुण चालीस सहस, श्रीवकणी सार, पार्श्व यक्ष पदमावती, नित सांनिधिकार ॥ ५ ॥ तेतीस मुनि परिवार सुंए, मास खमण तप जाण प्रभु सीधा सम्मेतगिरि करो संघ कल्याण ॥६॥ ॥वीर जिन चैत्यवन्दन ॥ वरेण्य गुणवारिधिः परमनिर्वृतः सर्वदः, समस्त कमलानिधिः सुरनरेन्द्र कोटिश्रितः । जनाति सुखदायको विगत कर्म वारो जिनः, सुमुक्तजन सङ्गमस्त्वमसि वर्द्धमान प्रभो ॥१॥ जिनेन्द्र भवतोऽद्भुतं मुखमुदार बिम्ब स्थितं, विकार परिवर्जितं परम शांत मुद्राङ्कितम् । निरीक्ष्य मुदितेक्षणः क्षणमितोऽस्मि यद्भावनां जिनेश ! जगदीश्वरोद्भवतु मे सर्वदा ॥२॥ विवेकिजनवल्लभं भुविदुरात्मनां दुर्लभं, दुरन्तदुरित व्यथाभर निवारणे तत्परम् । तवाङ्गपद पद्मयोयुगमनिन्ध वीर प्रभो, प्रभूत सुख सिद्धये मम चिराय सम्पद्यताम् ॥३॥ ॥वीर जिन चैत्यवन्दन ॥ चन्दू जगदाधार सार शिव संपति कारण । जन्म जरा मरणादि रूप भव ताप निवारण ॥ श्री सिद्धारथ तात मात, त्रिशलातनु जात । सोवन वरण शरीर वीर, त्रिभुवन विख्यात ॥ अमृत रूपे राजतो ए, चौवीसमों जिनराय । क्षमा प्रमुख कल्याण मुनि, आपो करि सुपसाय ॥१॥ ॥ चतुर्विंशति जिन चैत्यवन्दन ॥ ___ आदिनाथ पहला नमं, शिवदायक स्वामी। अजितनाथ बीजा नमू जग अंतरजामी ॥१॥ श्री संभव त्रीजा नम, त्रिभुवन हितकारी । अभिनन्दन चौथा नमूं प्रभु जगदाधारी ॥२॥ सुमतिनाथ जिन पांचमां, सुमति तणा दातार | पद्म प्रभु छठा नमं, पहोता मुक्ति मझार ॥३॥ श्री सुपार्श्व जिन सातवां, कह्याकर्म चकचूर । चन्द्र प्रभ जिन आठवां, पाम्यासुख भरपूर ॥४॥ सुविधिनाथ नवमां नमू, प्रभुजी परमदयाल । दशवां श्रीशीतल । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uttarakrit-HATARDAtarNirkanskarNicosiaksedotartytalkMI-Marig ure tire 1 - 1 1ไขได้ใจได้ในครัดใจใคได้ใจได้ไม่ได้ใส่ได้ใ चैत्यवन्दन-विभाग प्रभु काटी कर्मणी जाल ॥५॥ श्री श्रेयांस इग्यारवां, प्रभुजी गुण मणिखाण । वासु पूज्य जिन बारवां, दीठा परम कल्याण ॥६॥ विमल नाथ जिन तेरवा, विमल विमल गुण खाण । अनन्त नाथ जिन सेवतां, प्रगटे आतम ज्ञान ॥७॥ धर्मनाथ जिन पनरवां, धर्मतणा दातार । शान्तिनाथ जिन सोलवां, तारे भवनो पार ॥८॥ कुंथुनाथ जिन सतरवां, तारक त्रिभुवन नाथ । श्री अरनाथ अट्ठारवां, साचा शिवपुर साथ ॥९॥ मुनि सुव्रत जिन बीसवां, दीठा आवेदाय ॥१०॥ नमिनाथ इकवीसवां, धारक गुण समुदाय । नेमिनाथ बावीसवां, भक्ति करो चितलाय ॥११॥ आशापूरे पासजी, त्रेवीसमो जिनचन्द्र । वर्धमान चौवीसवां, प्रणमें सुरनर इंद॥१२॥ ए चौवीसें जिन सदा, समरो चित हियलाय । आतम निर्मल कीजिये, प्रभुजी ना गुण गाय ॥१३॥ प्रभु समरयां पातक कटे, कोटि विघन टलि जाय । अम्बालाल करजोडि ने, प्रणमें जिनवर राय ॥१४॥ संवत उगणीसें इग्यारमो ए, माह सुदी पंचमी सार । जिन गुण गाता प्रेमसू, रत्नपुरी सुमझार ॥१५॥ श्री सिद्धाचल चैत्यवन्दन श्री शत्रुञ्जय सिद्धक्षेत्र, दीठे दुर्गति वारे । भावधारीने जे चढ़े, तेने भवसागर पार उतारे ॥१॥ अनन्त सिद्धनो एह ठाम, सकल तीर्थनो राय । पूर्व नवाणूं रिषभ देव, ज्यांठवियो प्रभु पाय ||२|| सूरज कुंड सुहामणी, कविडयक्ष अभिराम । नाभिराय कुल मंडणो, जिनवर करूं प्रणाम ॥३॥ ॥ सिद्धाचल चैत्यवन्दन ॥ विमल केवल ज्ञान कमला, कलित त्रिभुवन हितकरं । सुरराज संस्तुत चरण पंकज, नमो आदि जिनेश्वरं ॥१॥ विमल गिरिवर शृङ्गमंडण, प्रवर गुणवर भूधरं । सुर असुर किन्नर कोडि सेवित, नमा० २ ॥ करति पटक किन्नरीगण, गाय जिनगुण मनहरं । सुर इन्द्र वलि २ नमे अह निग, नमो० ३ ॥ पुण्डरीक गणपति सिद्ध साधी, कोडिपण मुनि मन : है। श्री विमल गिरिवर शृङ्ग सिद्धा, नमो० ४ ॥ जिन साध्य साधन น ไตได้ดในผนพันคนใจไม่ได้ไผkeได้ให้ใY! ไหนกในใจ จนไดนางนงคนไหนในปัจใน โครงอน . โคไหนอง ...karva Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sattatataterte talents treat to Yastante conto into tastante stentactectant intentantuntento जैन-रत्नमार vk सुर मुनिवर कोडिनंत ए गिरिवरं । मुक्ति रमणी चढ्या रंगे, नमो० ५ ॥ पाताल लोक मुरलोक मांही, विमल गिरिवर तो परं । नहि अधिक तीरथ तीर्थपति, नमी० ६ ॥ इम विमल गिरिवर शिखर मंडण, दुख विहंडण ध्याइये । निज शुद्ध सत्ता साधनारथ परमज्योति निपाइये || जित मोह कोह विछोह निद्रा, परमपद स्थित जयकरं । गिरिराज सेवा करण तत्पर, पद्म विजय सुहितकरं ॥७॥ || सिद्धाचल चैत्यवन्दन ॥ जय जय नाभि नरिंद नंद, सिद्धाचल मंडण | जय जय प्रथमजिणंद चन्द भवदुःख विहंडण ॥१॥ जय जय साधु सुरिंद वृन्द, वंद्रिय परमेश्वर । जय जय जगदानंद कंद, श्री रिषभ जिनेश्वर ॥२॥ अमृतसम जिन धर्म नुए, दायक जगमें जाण । तुझ पद पंकज प्रीतिधर निसदिन नमत कल्याण ॥३॥ श्री सीमंधर जिन चैत्यवन्दन जय जय त्रिभुवन आदिनाथ, पंचम गति गामी । जय जय करुणा शान्त दांत, भविजन हित कामी ||१|| जय जय इन्द नरिन्द वृन्द सेवित शिरनामी । जय जय अतिशयानन्त वन्त अन्तरगतिजामी ॥२॥ पूर्व विदेह विराजता ए, श्री सीमंधर स्वामी । त्रिकरण शुद्ध त्रिकालमें, नित प्रति करूं प्रणाम ||३|| ॥ सीमन्धर जिन चैत्यवन्दन ॥ श्री सीमंधर वीतराग, त्रिभुवन उपकारी । श्री श्रेयांस पिताकुले, बहु शोभा तुमारी ||१|| धन्य धन्य माता सत्यकी, जिण जायो जयकारी । सो वृषभ लञ्छन विराजमान वंदे नरनारी ॥२॥ धनुप पांचशे देहडि ए, हय सोवन वान । कीर्ति विजय उवज्झायनो, विनय धरे तुम ध्यान ॥३॥ ॥ सीमंधर जिन चैत्यवन्दन ॥ सीमंधर परमात्मा, शिव सुखना दाता । पुक्खल वइ विजये जयो, सर्व जीवना त्राता ॥१॥ पूर्व विदेह पुंडर गिरी, नयरियें सोहे | श्री श्रेयांस Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N HTRatomombaherdiha KakkakkakxNsattaskhakishtatistatest चैत्यवन्दन-विभाग ४८७ . I T E E-IN-KATTA-ATR-12-2-13AKTI- T adhkeepenalatkaopambosado16solonialistialphalakaaslilahilities h aki-E ET -ATT राजा तिहां, भवियण ना मन मोहे ॥२॥ चउद सुपन निर्मल लही, सत्य की राणी मात । कुन्थु अरजिन अंतरे, श्री सीमंधर जात ॥३॥ अनुक्रमे प्रभु जनमियां, वलि यौवन पावे । मात पिता हरखे करी, रुकमिणी परणावे ॥४भोगवी सुख संसारना, संयम मन लावे। मुनि सुव्रत नमि अंतरे, दीक्षा प्रभु पावे ॥५॥ घाती कर्मनो क्षयकरी, पाम्यां केवल नाण । वृषभ लग्छने शोभता, सर्व भावना जाण ॥६॥ चौरासी जस गणधरा, मुनिवर एकसौ कोड़ । त्रण भुवनमा जोयतां, नहिं कोय एहनी जोड़ ॥७॥ दश लाख कह्या केवली, प्रभुजीनो परिवार । एक समय त्रणकालना, जाणे सर्व विचार ॥८॥ उदय पेढ़ाल जिनातरे ए, थाशे जिनवर सिद्धि । जस विजय गुण प्रणमता, शुभ बंछित फल लिद्धि ॥९॥ श्री नवपद चैत्यवन्दन ___ श्री अरिहंत उदार कांति अति सुन्दर रूप सेवो, सिद्ध अनन्त संत आतम गुण भूप । आचारज उवझाय साधु समतारस धाम, जिन भाषित सिद्धान्त शुद्ध अनुभव अभिराम ॥१॥ बोध बीज गुण संपदा ए नाण चरण तब शुद्ध । ध्यावो परमानन्द पद, ए नवपद अविरुद्ध ॥२॥ इह परभव आणंद कंद, जग माहि प्रसिद्धो, चिंतामणि सम जाए योग बहु पुण्ये लहो । तिहुअण सार अपार एह महिमा मन धारो, परहर पर जंजाल जाल नित एह संभारो ॥३॥ सिद्ध चक्र पद सेवतां ए, सहजानंद स्वरूप । अमृतमय कल्याण निधि, प्रगटे चेतन भूप ॥४॥ ॥ नवपद चैत्यवन्दन ॥ पहले पद अरिहंतना गुण गाऊं नित्ये। बीजे सिद्ध घणा तणा, समरो एक चित्ते ॥१॥ आचारज त्रीजे पद, प्रणमों बिहुँ कर जोड़ी। नमिये श्री उवझायने, चौथे पद चित मोड़ी ॥२॥ पंचम पद सब साधु ने, नमतां न आणो लाज। ए परमेष्ठी पंच ने, ध्याने अविचल राज ॥३॥ दसण शंकादिक रहित, पद छठे धारो। सर्व नाण पद सातमें, क्षण एक इन विसारो ॥४॥ चारित्र चोखं चित्त थी, पद अष्टम जपिये । सकल भेद .REETT-E . .. MakeMililosolasanliadanlesanleon PolithichdadbilaiGaakatalesioloKkHARYAail-slastetatulatitute . ... . - - - - - . ... . U Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -----..- NJABELegineetasleela Desa000-600 ameedesktottaru | ४८८ जैन-रत्नसार मनपटाला मामला बीच दान फल, तप नवमी तपिये ॥५॥ ए सिद्ध चक्र आराधतां, करे वंछित कोड । सुमति विजय कविराय नो, राम कहे करजोड़ !॥६॥ ॥ नवपद चैत्यवन्दन ॥ जय जय श्री अरिहंत देव, द्वादश गुणधारी । जय जय सिद्ध महाराज, शत्रुगण हणिया भारी॥१॥ जय जय सूरि उवझाय, पचवीस गुणधारी । जय जय साधुशान्त दान्त भविजन हितकारी ॥२॥ ज्ञान चरण नमो, तपसेवो निरधारी । माणकचन्द प्रणमें सदा, नित वंदो नरनारी ॥३॥ ॥ परमातम चैत्यवन्दन ॥ परमेश्वर परमात्मा, पावन परमिट्ट । जय जय गुरु देवाधि देव, नयणे मैं दी? ॥१ अचल सकल अधिकार सार, करुणा रस सिन्धु । जगत जन आधार एक, निःकारण बन्धु ॥२॥ गुण अनन्त प्रभुता हरा ए, कुछ भी कहान जाय । राम प्रभु जिन ध्यान थी, चिदानन्द सुख थाय ॥३॥ ॥ श्री पर्युषण चैत्यवन्दन ॥ पर्व पर्युषण आविया, पूजो जिन चौवीस । शासन जेहने दीपतो, जयवंतो जगदीश ॥१॥ अष्टम दीप को जाणिये, नन्दीश्वर शुभनाम । देवदेवी नाटक करे, करे प्रभु गुण ग्राम ॥२॥ अट्ठाई महोत्सव सुरकरे, पूजे नित प्रभु मेव । श्री जिन चारित्र सूरितणों माणक करे नित सेव ॥३॥ ॥ पञ्चतीर्थ चैत्यवन्दन ॥ आदिदेव अरिहंत नमू, समरूं तोरूं नाम । ज्या ज्या प्रतिमा जिनतणी, त्यां त्यां करूं प्रणाम ॥१॥ शत्रुजय श्री आदिदेव, नेम नमू गिरनार । तारंगे श्री अजितनाथ, आवू ऋषभ जुहार ॥२॥ अष्टापद गिरि ऊपरे, जिन चौबीसी जोय । मणिमय मूरति मानसं, भरत भरावी सोय ॥३॥ सम्मेत शिखर तीरथ बडूं, ज्यां वीसे जिनपाय । वैभारक गिरि ऊपरे, श्री वीर जिनेश्वर राय ॥४॥ मांडव गढ़ नो राजियो, नामे देव सुपाश । ऋषभ | कहे जिन समरतां, पहुंचे मन नी आश ॥५॥ MARATHIlliAEEMALEshalal Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यवन्दन-विभाग ॥ ज्ञान पञ्चमी का चैत्यवन्दन || मकल वस्तु प्रति भास भानु निरमल सुख कारण, सम्यग दर्शन पुष्ट हनु भवजल निधि तारण । संयम तप आनंद कंद अज्ञान निवारण, भार विकार प्रचार ताप, तापित जन ठारण ॥१॥ स्याद्वाद परिणाम धर्म परिणति पडिबोहन, साहु साहूणी संघ सर्व आराधन सोहन । मोह तिमिर विध्वंस सूर, मिथ्यात्व पणासण, आतम शक्ति अनंत शुद्ध, प्रभुता परकासन ॥२॥ मति श्रुति अवधि विशुद्ध नाण, मनपर्यव केवल, भेद पचास क्षायोपसमिक, एक क्षायक निर्मल दो परोक्ष, प्रथम तिहां दुगपरतक्ष दिसत सकल प्रत्यक्ष प्रकाशभास, ध्रुव केवल अपरमित्त ॥३॥ धर्म सकल नो मृल शुद्ध विपदी जिन भावं, बाहिर अंग प्रधान खंध गणधरमु प्रकासे ॥ शाग्वा श्री नियुक्ति भाग्य पडि शाखा दीप, चरण टीका . पत्र पुष्प मंशय सत्र जीप ॥ell ए पंचांगी सारबोध कयो जिन पंचम अंगे, नंदी अनुयोग द्वार मान्य मानो मनरंगे ।। वीर परम पद जीत अनुभव उपगारी, अभ्याली आगम निम्पम सुखकारी ॥५॥ मोह पंक हरनीरसम सिद्धान्त अवाधे, दय चन्द्र आणा सहित नय भंग अगाधे ॥ ए श्रुत ज्ञान मुहामणी सकल मोक्ष मुग्वकंद. भगते सेवो भविकजन पामी परमानंद ॥६॥ ॥ द्वितीया चैत्यवन्दन ॥ गग टेप को मिटा लिये, बीज दिवस मुग्पकार । दुविध धर्म जिनबर की, माधु धावक मार ॥१॥ दाय बग्स दोय मानमां. उत्कृष्ट जीवा व । आन गेटको दूर करी, आगधी शुभ भाव ॥२॥ भावी निन निन गायना. मुनि. आगधन भाव । दृज निधि आगधया, माणक कांविश ॥ पनी चन्यवन्दन ॥ नन पनि दिन. प्रभु श्री नमिनाय । पनाम कर कन्या पी. रन नाय |३|| पांच ज्ञान आर्थिय. गनि नि भधि जान ! मा नाय को पंचमी का जन 10 बालगने गर्ग T! श्री शान्तिमा र tri" Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HI-htoist.titlestatitiottituatokkkkkkkkk albikanatantahkkakkrantestantrakas 038 जैन-रत्नसार iv. .. - www. 1.1. 1.1. ॥ अष्टमी चैत्यवन्दन ॥ आठ त्रिगुण जिनवरनी, करूं नित प्रति सेव । दंड वीरज राजा थयो, अष्टमि तप नित मेव ॥१॥ आठ करम दुरे करो, करो प्रभु नित सेव । पार्श्व प्रभू नित ध्यावतां, वर्ते आनंद मेव ॥२॥ चैत्र वदी आठमE दिने, जनम्या ऋषभ जिनंद । जिन चारित्र सूरी तणों, वंदे माणक चंद ॥३॥ ॥ एकादशी चैत्यवन्दन ॥ एकादश पडिमा वहो, पढ़ो इग्यारे अंग । एकादशी आराधिये, करिये गुरुनो संग ॥१॥ जन्म दीक्षा केवल लह्या, प्रभु श्री मल्लि नाथ । व सुव्रता ए तिथि वही, गयो मुक्ति के साथ ॥२॥ मौन करी आराधिये, एकादशी शुभ मेव । जिन चारित्र सूरी तणां, माणक करे नित मेव ॥३॥ ॥ चतुर्दशी चैत्यवन्दन ॥ चौद सुपन लहे मात ए, श्री जिनवर केरी । चौद रयनपति जेहना, प्रणमें पद फेरी ॥१॥ चउदश दश जिन बंदिये, भावधरीने आज । जन्म मरण मिट जात ए, फेरी चौदा राज ॥२॥ जंगम युग प्रधान ए, श्री चारित्र सुरिंद । पदम प्रमोद प्रसाद थी, लहे माणक विद्या वृन्द ॥३॥ ॥ चैत्यवन्दन विभाग समाप्त ।। -1.follh Rangathabahhhhhhhhhhhhhhhhhhhkkaka hakoothapakhin khatranarrakh44666046banaakan.44044444441. erlaTalathlotatinholannilaorlankranelarallelaloncinallantoprlabelnilsilathisalcalistischalnitialistiane అటుకుంటుండగుడుకు పుడకుడదు. ముందడుగడువుందడుగlesseenA Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४४४ स्तवन-विभाग ऋषभ स्तवन ऋषभ जिनेसर भेटवा रे लाल, मो मन अधिक उछाह सुखकारी रे । देश छपनमें दीप तोरे लाल, गुण गिरवी गजगाह || सु० २१|| लाल गोपाल सहू करे रे लाल, ऋषभ देवरी आण । अद्भुत महिमा जेहनी रे लाल, माने सहू राय राण || सु० २ || नवखण्ड संध्या अंगनो रे लाल, दी परतिख रूप । दीठो कोई न दुसरो रे लाल, इण युगल स्वरूप ॥ सु० ३ ॥ दूर थकी हूं आवियो रे लाल, यात्रा करण जिनराज । सुख कूरम नजर निहालियो रे लाल, महर करी महाराज ॥ सु० ४ ॥ लांघ्या कव घट घाट जे रे लाल, लांघी विषमी नाल | दरसण दीठे ताहरो रे लाल, भांज गया जंजाल || सु० ५ ॥ निरखी मूरत सांवली रे लाल, नयन भये लयलीन । जिना सारखी रे लाल, भेद गिणो मतिहीन ||सु० ६ || जगमें देवले घणो रे लाल, ते चितमें न समाय । मेयो मधुकर मालती रे लाल, अवर न आवे दाय || सु० ७ ॥ ध्यान धरे मन ताहरे सूंरे लाल, जाप जपे दिन रात । दरसण देखे भावसूं रे लाल, पूजा करें प्रभात ॥ सु० ८ ॥ पावे पूत अपूतिया रे लाल, धनहीणा धन होय । रोग शोक सगला टले रे लाल, गंज न सक्के कोय || सु० ९ ॥ तारे भवसागर थकी रे लाल, टले गरभा वास । अजर अमर पदवी लहै रे लाल, विलसें लील विलास ॥ सु० १० ॥ तूं गति तूं मति तूं धणी रे लाल, तूं बान्धव तूं मीत । इण तीरथ दीठां रं लाल, आयो बिमलगिरी चीत ॥ सु० ११ ॥ हूं गिरिवी हूं गुण निलो रे लाल, हूँ हुवो आज सनाथ । समकित कीधी निरमली रे लाल, लाधी : मुक्तिनो साथ || सु० १२ ॥ भाव भले वर्द्धमान सूं रे लाल, पूजा कुसुम कपूर । देवदत्त वर प्रभाव सूं रे लाल, ज्ञान भक्ति भरपूर ॥ मु० १३ जागी पुण्यतणी दशा रे लाल, जो भेट्या देव जिनराज । नूठी देव त्रिभुवन घणी रे लाल, सेवकने शिवराज || सु० ११४ ॥ मुनिवर गुण सतरे स .........purn.h Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ~~~... .. .. . باهم مي گير مي لي بيا نه که به هم ht.deolal-I-ahtal.hotastr ImlataIndu जैन रत्नसार . ............ : लाल, मगसिर मास रसाल । श्री जिन रंग' पसावले रे लाल, फलिय मनोरथ माल ॥ सु० १५ ॥ ऋषभ देव स्तवन ॥ राग मांड ॥ थारा दरशन पाया आज, दुखड़ा भांजे जी । म्हारा दुखड़ा भांग्या जाय, थारो मुखड़ो देख्यां जी ॥ मरु देवी को लाड़लो जी, नाभि रायनो नन्द । विनीता माही आवियो जी, पूजें इन्द्र अहमिन्द्र ॥ म्हारा० १॥ इक्ष्वाकु वंश मांही जनमियोंजी, सोवन सरिखी देह । वृषभ लञ्छन प्रभु 1 तांहरोजी, आनन्द हर्ष धनेह ॥ म्हारा० २ ॥ वदी चैत्रकी अष्टमी जी, E लीनो प्रभु अवतार । देव देवाङ्गना आविया जी, पूजन अष्ट प्रकार ॥ म्हारा०३ ॥ नन्दीश्वर पर लेगयां जी. महोत्सव अठाई धार । समकित वां निरमल करी जी, लेख सिद्धान्त मझार ।। म्हारा० ४॥ इम जो करणी , आदरें जी, श्रावक श्राविका सार समकित सुध अपनी करें जी, उतरे भव जल पार ॥ म्हारा० ५ ॥ शत्रुञ्जय आवू सोहतां जी, देश मेवाड़ा आप। केशरियाजीके नामसू जी, कटे पाप संताप ॥ म्हारा० ६ ॥ संबत् उणीसे सत्ताणवेजी, नयरी कलकत्ता जान । पोष सुदी दशमी तिहां जी, मांडराग सुविहान ॥ म्हारा० ७॥ गच्छ खरतरमें राजियोजी, रतन सूरि सुखकार । यति* सूरजने धारियो जी, रिषभ देव आधार ॥ म्हारा० ८॥ आदिनाथ स्तवन ऋषभ जिनेसर दिनकर साहिब, वीनतड़ी अवधारो रे जगनातारो, मुझ तारो जी कृपानिधि खामी । जग जशवाद प्रगट छे ताहरो, अविचल सुख दातारो रे ॥ ज० १॥ निज गुण भोक्ता, परगुण लोप्ता, • यह स्तवन जैनाचार्य जं० यु० प्र० वृ० भट्टारक श्री जिनरंग सूरिजी महाराज ने बनाया है। * यह स्तवन रंगविजय खरतर गच्छीय जैन गुरु पं० प्र० यति सूर्य्यमलजीने सम्वत् । १९६७ पौष सुदी १० को बनाया है। .......feedatokaththalate.fotelimation telar totalarta.let lonlodeti to loni- Instant to thlalthma..i.al-Intelefaulalatooth te pushanmk.bihilatalelatistinhhhhuainthlhdihatiful LalalahlilokalalalalalitharashtALILJALlelaletaliradikalinhel TrikalelrINPANJAsliye रा क Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग AAAAAAAAAAAAAAAAAAA ramme NAA l ahan Halaletsti.lat-lotatohtoliyantali.lutalathi.lathklakala bhatijintakarlelrialoriefinirelesladkaolatestantialatker. आतम शक्ति जगायो रे ॥ ज० ॥ अविनाशी अविचल अधिकारी, शिववासी जिन रायो रे ॥ ज० २ ॥ इत्यादिक गुण श्रवणे निसुणी, हूं तुज चरणे आयो रे ॥ ज० ॥ तूं रीझावण हेतू ततखिण, नोटक खेल मचायो | रे ॥ ज० ३॥ काल अनन्त रह्यो एकेन्द्री, तरु साधारण पामी रे ॥ ज० ॥ वरस संख्याता वलि विकलेन्द्री, वेष धर या दुःख धामी रे ॥ ज० ४ ॥ सुरनर तिरि बलि नरक तणी गति, पंचेन्द्री पणो धारयो रे ॥ ज० ॥ चौवीसे दंडक मांहि भमतो, अब तो हूं पिण हार यो रे ॥ ज० ५॥ भव नाटक नित प्रति कर नव नव, हूं तुझ आगल नाच्यो रे ॥ ज० ॥ सम रथ साहिब सुरतरु सरिखो, निरखी तुझने जाच्यो रे ॥ ज० ६ ॥ जो मुझ 1 नाटक देखी रीझिया तो मुझे वंछित दीजे रे ॥ ज० ॥ जे नवि रीझातो मुझ भाखो, वलि नाटक नवि कीजे रे ॥ज०७॥ लालच धरि हूं सेवा सारूं, तूं दुःखड़ा नवि का रे ॥ ज० ॥ दाता सेती सुंब भले रो, बहिलो उत्तर आपे रे ॥ ज० ८ ॥ तुझ सरिखा साहिब पिण म्हारे, जो नवि कारज सारो रे ॥ ज० ॥ जो मुझ करम तणी गति अवली, दोष न कोई तुम्हारो रे॥ ज० ९॥ दीनदयाल दया करि दीजे, शुद्ध समकित सहि नाणी, रे॥ ज० ॥ सुगुण सेवक ना वाञ्छित पूरो, ते हिज गुण मणी खाणी रे ॥ ज० १० ॥ वर्ष अठारे गुणतालीसे, जेठ सुदी सोमवारो रे ॥ ज० ॥ लालचन्द प्रतिपद दिन भेट्या, बीकानेर मझारो रे ॥ ज० ११ ॥ अजित जिन स्तवन (मारूं मन मोह्यं रे श्री विमला चले रे) पंथीडूं निहालूं रे बीजा, जिन तणो रे, अजित अजित गुण धाम । जे ते जी त्यारे तेणे हूं जीतो रे, पुरुष किस्यूं मुझ नाम ॥ पंथीडूं. १॥ चर्म नयण करी मारग जोव तोरे, भूलो सयल संसार । जेणे नयणे करि । मारग जोइये रे, नयण ते दिव्य विचार ॥ पंथीइं० २॥ पुरुष परम्पर अनु1 भव जोवतां रे, अंधो अंध पुलाय । वस्तु विचारे रे जो आगमें करी रे, है चरण धरण नही ठाय ॥ पंथीइं. ३॥ तर्क विचारे रे वाद परम्परा रे, 5) kola bat bolnik, lol. In ko load or In Brolio ki ta ka Ii In In Kolosy ludz ko bo bo bolo tools facto ), Krukouky Koliko kolis Bukauti kurbolmukastado kasi ukin li ho b bolumul tokio tail ba to to. Izda loba bordo in da bo tubete In In lo bolo bobo boboto bo dalo!!!! niketathiantatatatatute totationtatohtot.ful.tatulatotalotsyatharashtratithi Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ नत्र त ... wwwwwwwwwwwwwwwww www varuv..vvvvvwwwwwwwwwwwwwwww.wwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwww त्रनत्रजनननननननननननननन जैन-रत्नसार पारन पहुँचे कोय। अभिमतें वस्तु वस्तुगतें कहे रे, ले विरला जग जोय ॥ पंथीडूं. ४ ॥ वस्तु विचारें रे दीव्य नयण तणो रे, विरह पड्यो निरधार । तरतम जोगे रे तरतम वासनारे, वासित बोध आधार ॥ पंथीडूं ५॥ काल लब्धी लही पंथ निहालसू रे, ए आशा अविलम्ब । ए जन जीवे रे जिनजी जाण जोरे, आनंद घन मत अम्ब ॥ पंथीडूं. ६ ॥ श्री सम्भव जिन स्तवन (रातड़ी रमिने किहां थी आवियारे) संभव देव ते धुर सेवो सवे रे, लहि प्रभु सेवन भेद । सेवन कारण पहेली भूमिका रे, अभय अद्वेष अखेद ॥ संभव० १॥ भय चंचलता हो जे परणाम नीरे, द्वेष अरोचक भाव । खेद प्रवति हो करता थकीये रे, दोष अबोध लखाय ॥ संभव० २ ॥ चरमावर्त्त हो चरम करण तथा रे, भव परिणति परिपाक । दोष टले बली दृष्टी खुले भली रे, प्रापति प्रवचन वाक ॥ संभव ३ ॥ परिचय पातिक घातिक साधुसं रे, अकुशल अपचय चेत । ग्रंथ अध्यातम श्रवण मनन करी रे, परिशीतल नय हेत ॥ सं०४॥ कारण जोगें हो कारज नीपजेरे, एमां कोइ न वाद । पण कारण विण कारज साधिये रे, ए निज मत उनमाद ॥ संभव० ५ ॥ मुगध सुगम करी सेवन आदरें रे, सेवन अगम अनूप । दे जो कदाचित सेवक याचना रे, आनंद घन रस रूप ॥ संभव० ६॥ श्री अभिनन्दन जिन स्तवन (सिंधुओ आज निहोजोरे दीसे नाहलो) ___अभिनंदन जिन दरसण तरसीये, दरसण दुरलभ देव । मत मतभेदें रे जोजई पूछिये, सहु थापे अहमेव ॥ अभि० १ ॥ सामान्ये करी दरसण दोहलं रे, निरणय सकल विशेष । मद में घेरयो रे अंधो केम करे, रवि शशि रूप विलेष ॥ अभि० २ ॥ हेतु विवाद हो चित्त धरि जोइये, अति है दुरगम नयवाद । आगम वादें हो गुरुगम को नहीं, ए सवलो विषवाद | अभि० ३ ॥ घाती डूंगर आड़ा अति घणां, तुझ दरिसण जगनाथ । धीठाई य andrapregग्रनयन्यन्यन्यायाल EKHAREkhadkakhkhbeeshbhbhishhhhani.hhE6Bihb.hbarabarina JabarjathiKAAHAirlsbhkalnfo 2222222222222rathA-Grlala प्रणटन पवनतनननननननननननपत्र - Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६.१, ... ७. netkonkeviante kadfoJiwadatheekaseantywolpinkalins स्तवन-विभाग ४६५ 111.11.11.111.0111-11-11titLILatinatt - करी मारग संचरूँ, सेंगू कोई न साथ ॥ अभि० ४ ॥ दरसण दरसण रटतो जो फिरूं, तो रण रोझ समान । जेहने पिपासा हो अमृत पाननी रे, किम भाजे विष पान ॥ अभि० ५ ॥ तरस न आवे हो मरण जीवन तणो, सीझे जो दरसण काज । दरसण दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, आनंद घन महाराज ॥ अभि० ६॥ श्री सुमति जिन स्तवन ॥ राग वंसंत तथा केदारा ॥ सुमति चरण कज आतम अरपणा, दरपण जिम अविकार । मति तरपण बहु सम्मत जाणीये, परिसर पण सुविचार ॥ सुमति० १॥ त्रिविध । सकल तनु धरगत आतमा, बहिरातम धुरि भेद । बीज अंतर आतम तीसरो, परमातम अविछेद ॥ सुमति० २॥ आतम बुद्धे कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघ रूप। कायादिकनो हो साखी धर रह्यो, अंतर आतम 2 रूप ॥ सुमति० ३ ॥ ज्ञानानन्दं हो पूरण पावनो, वरजित सकल उपाधि । अतीन्द्रिय गुणि गण मणि आगरू, इम परमातम साध ॥ सुमति० ४ ॥ वहिरातम तज अंतर आतमा, रूप थई थिर भाव । परमातम तं हो आतम: भाव सूं, आतम अरपण दाव ॥ सुमति० ५॥ आतम अरपण वस्तु विचारतां, भरम टले मति दोष । परम पदारथ संपति ऊपजे, आनन्द धन रस पोप ॥ सुमति० ६॥ श्री पद्म प्रभ जिन स्तवन (चांदलिया संदेशो कहे जे रे म्हारा कंतने रे) पद्म प्रभ जिन तुझ आंतरूं रे, किम भांजे भगवंत । करम विपाके : कारण जोइने रे, कोई कहे मतिमंद ॥ पद्म० १॥ पयइ ठिई अणुभाग : प्रदेश थी रे, मूल उत्तर बहु भेद । धाती हो बंधूदय उदीरणा रे, सत्ता करम विच्छेद ॥ पद्म० २ ॥ कन कोपलवत् पयडि पुरुस तणी रे, जोड़ी अनादि खभाव । अन्य संजोगी जिहां लगे आतमा रे, संसारी कहेवाय ॥ ; पा० ३ ॥ कारण जोगे हो बंधे बंधने रे, कारण मुगति मुकाय । आश्रव a railert- I I Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 6 L xxxb. जैन-रत्नसार ४६६ www www.w संवर नाम अनुकमें रे, हेय उपादेय सुणाय ॥ पद्म० ४ ॥ पुंजन करणे हो अंतर तुझ पड्यो रे, गुण करणे करि भंग । ग्रंथ उकतें करि पंडित जन कह्यो रे, अंतर भंग सुअंग || पद्म० ५ ॥ तुझ मुझ अंतर अंतर भांजसे रे, वाज से मंगल तूर । जीव सरोवर अतिशय वाधसे रे, आनन्द घन रस पूर || पद्म० ६ ॥ श्री सुपार्श्व जिन स्तवन ॥ राग सारंग मल्हार ॥ श्री सुपास जिन वंदिये, सुख संपतिने हेतु । सात सुधारस जलनिधि, भवसागर मां सेतु ॥ श्री सुपास० १ ॥ सात महाभय टालतो, सप्तम जिनवर देव । सावधान मनसा करी, धरो जिनपद सेव ॥ श्री सुमति० २ ॥ शिव शंकर जगदीश्वरूं, चिदानंद भगवान् | जिन अरिहा तीर्थंकरूं, ज्योतिष रूप असमान ॥ श्री सुमति ० ३ ॥ अलख निरञ्जन बच्छलूं, सकल जन्तु विसराम । अभयदान दाता सदा, पूरण आतम राम ॥ श्री सुमति ० ४ ॥ वीतराग मद कल्पना, रति अरति भय सोग । निद्रा तंद्रा दुरदसा, रहित अवाधित योग ॥ श्री सुमति० ५ ॥ परम पुरुष परमात्मा, परमेश्वर परधान। परम पदारथ परमेष्ठी, परमदेव परमान ॥ श्री सुमति ० ६ ॥ विधि विरञ्चि विश्वंभरूं, ऋषिकेश जगनाथ । अघहर अघमोचन धणी, मुक्ति परम पद साथ || श्री सुमति० ७ ॥ एम अनेक अभिद्धा घरे, अनुभव गम्य विचार । जे जाणे तेहने करे, आनंद घन अवतार ॥ श्री सुमति० ८ ॥ श्री चन्द्रप्रभ जिन स्तवन ( कुमरी रोवे आकंद करे मुने कोई मुकावे ) देखण दे रे सखी मुझे देखण दे, चंद्र प्रभ मुखचंद । उपशम रसनो कंद, गत कलिमल दुख दंद ॥ सखी ० १ ॥ सुहम निगोदन देखिओ, बादर अतिहि विशेष । पुढवी आउन लेखिओ, तेऊ वाउन लेस ॥ सखी०२ ॥ Latel lant tool lant stental of Io Intatalalalalal Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग ४६७ Pleastbaraalotodonesioleta l licational Natokolhalorotalandleslan d k वनस्पति अति धण दीहा, दीठो नहिं दीदार । बिति चउरिंदी जल लिह, की गतिसन्नि पणधार, ॥ सखी० ३ ॥ सुरतिरि निरय निवास मां, मनुज अनारज साथ । अपजता प्रतिमास मां, चतुर न चढ़ियो हाथ ॥ स०४ ॥ एम अनेक थल जानिये, दरसन बिणु जिनदेव । आगम थी मत जानिये, कीजे निरमल सेव ॥स०५॥ निरमल साधु भगति लही, योग अवंचक होय । किरिया अवंचक तिम सही, फल अवंचक जोय ॥ स. ६ ॥ प्रेरक अवसर जिनवरूं, मोहनीय क्षय जाय । कामित पूरण सुरतरु, आनन्द धन प्रभु पाय | स०७॥ पुनः राग ___चन्द्रा प्रभुजी से ध्यान रे, मोरी लागी लगन वा । लागी लगन वा छोड़ी न छूटे, जब लग घटमें प्राण रे ॥ मो० १॥ दान सीयल तप भावना भावो, जैन धरम प्रतिपाल रे ॥ मो० २ ॥ हाथ जोड़ कर अरज करत है, बंदत सेठ खुशाल रे ॥ मो० ३ ॥ श्री सुविधि जिन स्तवन ( एम धन्नो धणने परचावे ) सुविधि जिणेसर पाय नमिने, शुभ करणी एम कीजे रे । अति घणो उलट अंग धरीने, प्रह उठी पूजी में रे ॥ सुविधि० १ ॥ द्रव्य भाव शुचि भाव धरीने, हरखे दहे जइये रे । पण अहिगम साचवतां, एक मना धुरि थइयं रे ॥ सु० २ ॥ कुसुम अक्षत वर वास सुगंधो, धूप दीप मन साखी २। अंग पूजा पण भेद सणी एम, गुरु मुख आगम झाखी रे ॥ सु० ३ ॥ एह फल दोय भेद सुणी जे, अनंतरने परम्पर रे। आणा पालण चित्त प्रसन्नी, मुगति सुगति सुर मंदिर रे ॥ सु० ४ ॥ फूल अक्षत वर धूप पइवो, गंध नैवेद्य फल जल भरी रे । अंग अग्र पूजा मलि अड़ विध, 1 भावे भविक शुभ गति वरी रे ॥ सु० ५॥ सन्तर भेद एकवीस प्रकारे, । महोत्तर शत भेदे रे । भाव पूजा बहविध निरधारी, दोहग दुरगति छेदे । र॥ सु० ६ ॥ तुरिय भेद पड़िवती पूजा, उपशम खीण संयोगी रे। 68 i Lalbrithakranakdharatarcascatorsaalaatka arikalotaradabalstallatane Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ หมียไดไม่ได้ a tnistratahkatstakhotantialmast tasthan.bathtasthita tasbalukrtantra ในปในไดไไดไไดไไดไไไได้ให้ได้ NAGALLER 2 1L al ४९८ जैन-रत्नसार चउहा पूजा इम उत्तर झयणे, भावी केवल भोगी रे ॥ सु० ७ ॥ एम पूजा बहु भेद सुगीने, सुखदायक शुभ करणी रे । भविक जीव करसे तेले से, . आनंद घन पद धरमी रे ॥ सु० ८॥ श्री शीतल जिन स्तवन ( मंगलिक माला गुणहि विसाला) शीतल जिनपति ललित त्रिभंगी, विविध भंगी मन मोहे रे । करुणा कोमलता तीक्षणता, उदासीनता सोहे रे ॥ शीतल० १ ॥ सर्व जन्तु हितकरणी करुणा, कर्म विदारण तीक्षण रे। हाना दान रहित परणामी, उदासीनता विक्षण रे ॥ शीतल. २॥ पर दुःख छेदन इच्छा करुणा, तीक्षण पर दुःख रीझे रे। उदासीनता उभय विलक्षण, एक ठामे केम सीझे रे॥ शीतल० ३ ॥ अभयदान तेम लक्षय करुणा, तीक्षणता गुण भावे रे । प्रेरण विण कृत उदासीनता, इम विरोध मति नावे रे ॥ शीतल०४॥ शक्ति व्यक्ति त्रिभुवन प्रभुता, निग्रंथता संयोगे रे। योगी भोगी वक्ता मौनी, अनूप योगि उपयोगे रे ॥ शीतल० ५॥ इत्यादिक वहु भंग त्रिभंगी, चमतकार चित देती रे। अचरजकारी चित्र विचित्रता, आनंद घन पढ़ लेती रे ॥ शीतल० ६॥ श्री श्रेयांस जिन स्तवन (अहो मतवाले साजना) - श्री श्रेयांस जिन अंतरजामी, आतमरामी नामी रे। अध्यातम मत पूरण पामी, सहज मुगति गति गामी रे ॥ श्री श्रेयांस० १ ॥ सयल संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगण आतमरामी रे। मुख्य पणे जे आतम रामी, तो केवल निःकामी रे॥ श्री० २ ॥ निज स्वरूप जे किरिया साधे, तेह अध्यातम लहिये रे । जेह किरिया करि चउगति साधे, तेन अध्यातम कहिये रे ॥ श्री. ३ ॥ नाम अध्यातम ठवण अध्यातम, द्रव्य अध्यातम छंडो रे । भाव अध्यातम निज गुण साधे, तो तेहसंरढ़ मंडोरे।। श्री० ४॥ शब्द अध्यातम अरथ सुणी ने, निर विकल्प आदर जो रे। शब्द अध्या - ----------- a tnaSHAYARHHETRakshakLARKESTRATAKHARKali-THEMAMATRAMATATEtiolkattalionlineKILATERESTitAHARAMSEENER --- - - R Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E htraternetkhkhtrastakalaishtooshdootseeidosheksheastbokatestaneolestasiactablisher-dotmarathtakiitte स्तवन-विभाग ४६६ X Pawara AKAISEMAMMINMAMALINIKXXXXX X तम भजना जाणी, हान ग्रहण मति धरजो रे ॥ श्री. ५ ॥ अध्यातम जे में वस्तु विचारी, वीजा जाण लवासी रे। वस्तु गते जे वस्तु प्रकाशे, आनंद घन मतवासी रे ॥ श्री. ६॥ वासु पूज्य जिन स्तवन (तुं गिया गिरसिखर सोहे) वासु पूज्य जिन त्रिभुवन स्वामी, घन नामी परणामी रे । निराकार साकार सचेतन, करम करम फल कामी रे ॥ वासु० १ ॥ निराकार अभेद | संग्राहक, भेद ग्राहक साकारो रे। दर्शन ज्ञान दुभेद चेतना, वस्तु ग्रहण व्यापारो रे ॥ वासु० २ ॥ का परिणामि परिणामो, कर्म जे जीवे करिये रे। एक अनेक रूप नयवादे, नियये नर अनुसरिये रे ॥ वासु० ३ ॥ दुःख सुख रूप करम फल जाणो, निश्चय एक आनंदो रे । चेतनता परिणामन चूके, चेतन कहे जिन चंदो रे ॥ वासु० ४ ॥ परिणामी चेतन परिणामो, ज्ञान करम फल भावी रे। ज्ञान करम फल चेतन कहिये, लेजो तेह मनावी रे ॥ वासु० ५॥ आतम ज्ञानी श्रवण कहावे, बीजा तो । द्रव्य लिङ्गी रे । वस्तुगतें जे वस्तु प्रकाशे, आनंद घन मति संगीरे ।। वा०६॥ विमल जिन स्तवन (ईडर आंबा आंवली रे, ईडर दाडिम द्राख ) । दुःख दोहग दुरे टल्या रे, सुख संपद सूं भेट। धींग धणी माथे कियारे, कुण गंजेनर खेट । विमल जिन दीठा लोयण आज, म्हारा सीधा वंछित काज ॥ विमल० १॥ चरण कमल कमला वसे रे, निरमल थिर पद देख । समल अथिर पद परिहरी रे, पंकज पामर पेख ॥ विमल० २॥ मुझमन तुझ पद पंकजे रे, लीनो गुण मकरन्द । रंक गणें मंदिर धरा रे, इंद चन्द नागेन्द ॥ विमल. ३ ॥ साहिब समरथ तूं धणी रे, पाम्यो परम उदार । मन विसरामी वाल हो रे, आतम चोआ धार ॥ विमल० ४ ॥ दरसण दीठे जिन तणो रे, संशय न रहे वेध । दिनकर करभर पसरंतारे, अधकार प्रति बेध ॥ विमल० ५॥ अमिय भरी मूरति रची रे, ओपम न MAMMYYYAMAYANANDGIANCERTStathtothrast-matalauslatiotstathaantibit Ltd Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a perupees elected రుతు ५०० పాడుతున్న పాలకులు నుండ RKA ratnataka जैन-रेनसार AdamaMDArm..... *9255422 mmmanawrrrrammarwarene mar घटे कोय । शान्त सुधारस जीलतरे, निरखत तृपति न होय ॥ वि० ६ ॥ एक अरज सेवक तणी रे, अवधारो जिन देव । कृपा करी मुझ दीजिये रे, आनंद घन पद सेव ॥ विमल० ७ ॥ अनंत जिन स्तवन धार तखारनी सोहली दोहली, चउदमा जिन तणी चरण सेवा । धार पर नाचता देख वाजीगरा, सेवना धार पर रहें न देवा ॥ धार० १॥ एक कहे सेविये विविध किरिया करी, फल अनेकान्त लोचन न देखे । फल अनेकान्त किरिया करी बापड़ा, रड़बड़े चार गति माहे लेखे ॥ धार० २॥ गच्छना भेद बहु नयण नीहालतां, तत्वनी बात करतां न लाजे । उदर भरणादि निज काज करतां थकां, मोहनडिया कलीकाल राजे ॥ ३॥ वचन निरपेक्ष व्यवहार झूठो कह्यो, वचन सापेक्ष व्यवहार सांचो । वचन निरपेक्ष व्यवहार संसार फल, सांभली आदरी कांई राचो ॥ धार० ४ ॥ देव गुरु धर्मनी शुद्धि कहो केम रहे, केम रहे शुद्ध श्रद्धान आणो। शुद्ध श्रद्धान विण सर्व किरिया करी, छारपर लीपणो तेह जाणो ॥ धार | ५ ॥ पाप नहिं कोइ उत्सूत्र भाषण जिसो, धर्म नहिं कोई जगसूत्र स रिखो । सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेहनो शुद्ध चारित्र परिखो ॥ धार० ६ ॥ एह उपदेश नं सार संक्षेप थी, जेनर चित्तमें नित्य ध्यावे । ते नर दिव्य बहुकाल सुख अनुभवी, नियत आनंद घनराज पावे ॥धार० ७॥ धर्म जिन स्तवन धरम जिनेसर गाऊं सं, भंगम पड़सो हो प्रीत जिनेसर । वीजो मन मंदिर आणू नहीं, ए अम कुलवट रीत जिनेसर ॥ धर्म० १॥ धरम धरम | करतो जग सहुफिरे, धर्म न जाणे हो मर्म जिनेसर । धरम जिनेसर चरण ग्रह्यां पछी, कोई न बांधे हो कर्म जिनेसर ॥ धर्म० २ ॥ प्रवचन अंजन जो सद गुरु करे, देखे परम निधान जिनेसर । हृदय नयण निहाले जगधणी, महिमा मेरु समान जिनेसर ॥ धर० ३ ॥ दौड़त दौड़त दौड़त दौडिओ, जेनी मननी रे दौड़ । जिन प्रेम प्रतीत विचारो टूकड़ी, गुरुगम Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r LB .L u.ac.. . .. ... ..- --.- . - - - - - - - -------- - - - - son -- स्तवन-विभाग ५०१ ले जोर जोड़ ॥ जि. धर० ४ ॥ एक पखी केम प्रीति वरे पड़े, उभय । मिल्या हुए संधि जि० हूंरागी हूंमाहे फंदियो, तुं निरागी निखंधि । जि. घर० ५ ॥ परम निधान प्रगट मुख आगले, जगत उलंघी हो जाय जि. । ज्योति विना जुओ जगदीसनी, अंधो अंध पुलाय ॥ जि० ध० ६ ॥ निरमल गुण मणि रोहण भूधरा, मुनि जद मान सहंस जि० । धन्य ते नगरी धन बेला घड़ी, माता पिता कुल वंश ॥ जि. ध० ७ ॥ मन मधुकर वर । करजोड़ी कह, पद कज निकट निवास जि० । घन नामि आनंद घन सांभली, जिनेसर ए सेवक अरदास ॥ धरम० ८॥ शांति जिन स्तवन ____ शांति जिनंद गुण गावो, मना शिव रमणी सुख पाओ तुम शांति ॥ मन बच काय कपट तज आतम, शुद्ध भावना भावो मना ॥ शांति० ॥१॥ दयाधर्म अरु शीत तपस्या, करि सब कर्म खपावा मना ॥शांति०२॥ माया मोह लाभ पर निन्दा, विषय कषाय नसावो मना ॥शांति० ३जगवन्दन अचिरा नन्दन को, निश दिन ध्याय रिझावी मना ॥ शांति. ४ ॥ जिन पद कज मधुपम जाते, उत्तम ध्यान लगावो मना ॥ शांति० ५ ॥ जिन कल्याण* मरि प्रभु चरणे, वेर बेर लय लावा मना ॥ शांति० ६ ॥ श्री कुंथु जिन स्तवन __(अम्बर हो मुरारी हमारो) कुंथु जिन मनड़ो किम हीन बाज हो कुं० ॥ जिम जिम जतन फरीन गावं. निम निम अलगं भाजे हो ॥ कं. १॥ रजनी बालर वसनी जड़ गयण पायाले जाय । सांप खायने मुग्वडी बायं. एह औग्वाणी न्याय हो ॥ कुं० २॥ मुगति तणा अभिलापी नपिया. ज्ञाननं ध्यान अयान । वर्गई काइ एवं चिन्ने. नाग्यं अन्टब पान हो ॥ कं० : ॥ आगम आगम घग्ने हाथ. नात्र किण विधि आकं । किहां कणं जो हठ ...न विजय पानी हाल श्री पूरी श्रीन : मनाया गया। -indniwaranana:--Mar-on----ministmaswamin indrima ami nimun........... h av Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार ...marrrrrrrrrrrrormwarmmunmun RELATElitaniaadalnathshaletilALRATHA करी हटकू, तो व्याल तणी परे वाकू हो ॥ कुं० ४ ॥ जो ठग कहूं तो ठग तो न देखू, साहूकार पण नाहीं। सर्व माहे ने सहुथी अलगू, ए अचरज मन मांही हो ॥ कुं० ५॥ जे जे कहूं ते कानन धारे, आप मते रहे कालो । सुरनर पंडित जन समझावे, समझे न माहरो सालो हो ॥ कृ. ६ ॥ मैं जाण्यं ए लिंग नपुंसक, सकल मरदने ठेले । बीनी बाते समरथ छे नर, एहने कोइन झेले हो ॥ कुं० ७ ॥ मन साध्यू तेणे सघलू साध्यू, एह बात नहीं खोटी । एम कहे साध्यू ते नविमानं, एक ही बात छे मोटी हो ॥ कुं० ८ ॥ मनई दुराराध्यते वस आण्यूं, ते आगम थी मति आणूं । आनंद घन प्रभु माहरूं आणो, तो सांचूकरि जाणूं हो ॥कुं० ९|| श्री अर जिन स्तवन ( रिषभनो वंस रयणयरूं) ___ धरम परम अरनाथ नो, किम जाणं भगवंत रे । स्वपर समय समझाविये, महिमावंत महंत रे ॥ धरम० १ ॥ शुद्धातम अनुभव सदा, स्व । समय एह विलास रे । परबड़ी छाहड़ी जेह पड़े, ते पर समय निवास रे ॥ ध० २ ॥ तारा नक्षत्र ग्रह चंदनी, ज्योति दिनेस मझार रे । दर्शन ज्ञान चरण थकी, शकति निजातम धार रे ॥ ध० ३ ॥ भारी पीलो चीकणो, कनक अनेक रंग रे। पर्याय दृष्टि न दीजिये, एकज कनक अभंग रे ॥ध० ४ ॥ दर्शन ज्ञान चरण थकी, अलख सरूप अनेक रे । निर विकल्प रस पीजिये, शुद्ध निरंजन एक रे ॥ ध० ५ ॥ परमारथ पंथ जे कहे, ते रंजे एकंत रे । व्यवहारे लख जे रहे, तेहना भेद अनंत रे ॥ ॥ध०६॥ व्यवहारें लखे दोहिला, कोई न आवे हाथ रे । शुद्ध नय स्थापना सेवतां, नवी रहे दुविध साथ रे ॥ ध० ७ ॥ एक पखी लखि प्रीतनी, तुम साथे जगनाथ रे । कृपा करीने राख जो, चरण तलें ग्रही हाथ रे ॥ध० ८ ॥ चक्र धरम तीरथ तणों, तीरथ फल ततसार रे । तीरथ सेवे ते लहे, आनंद धन निरधार रे ॥ ध० ९॥ AALASEANILEELLLLLLLEKLilalishithilisations * Kalidandalistiane Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXSAbouTHEOREMEDIESXXXXGAtithikthak 9. ५०३ anan.. . ... .... ... . .00 4000 MILYMNAMAMhalaMMENTahalkatakMMINGAAMANAMAHAKAAMANAMAMALNAAMK स्तवन-विभाग श्री मल्लि जिन स्तवन सेवक किम अवगणिये हो मल्लि जिन, एह अब शोभा सारी । अवर जेहने आदर अति दीए, तेहने मूल निवारी हो । मल्लि० १॥ ज्ञान सुरुपम अनादि तुम्हारू, ते लीबूं तुम ताणी । जुओ अज्ञान दशारी सावी, जातां काणन आणी हो ॥ म० २॥ निद्रा सुपन जागर उजागरतां, तुरिय अवस्था आवी । निद्रा सुपन दशारीसाणी, जाणी न नाथ मनावी हो ॥ म० ३ ॥ समकित साथे सगाई कीधी, सपरिवार गाढ़ी। मिथ्या । मति अपराधण जाणी, घर थी वाहिर काढ़ी हो ॥ म० ४ ॥ हास्य अरति . रति शोक दुगंच्छा, भय पामर कर साली। नोकषाय श्रेणी गज चढ़ता, श्वान तणी गति जाली हो ॥ म० ५॥ राग द्वेष अविरतिनी परिणति, ए चरण मोहना योधा । वीतराग परिणति परणमता, उठी नाठा बोधा हो ॥ म० ६॥ वेदोदय कामा परिणामा, काम्यक रसहु त्यागी। नि:कामी करुणा रस सागर, अनंत चतुष्क पद पागी हो ॥ म० ७ ॥ दान विघन वारी सहु जनने, अभय दान पद दाता । लाभ विघन जग विधन निवारक, परम लाभ रस माता हो ॥ म० ८॥ वीर्य विधन पंडित वीर्ये हणी, पूरण पदवी योगी। भोगोपभोग दोय विधन निवारी, पूरण भोग सुभोगी हो ॥ म० ९॥ ए अढ़ार दृषण वरजित तन, मुनि जन वंदे गाया । अविरति रूपक दोष निरूपण, निरदृषण मन भाया हो ॥ म० १० ।। इण विध परखी मन विसरामी, जिनवर गुण जे गावे । दीनबंधुनी महिर नजर थी, आनन्द घन पद पावे हो ॥ म० ११ ॥ मुनि सुव्रत जिन स्तवन हाथ जोड़के अरज करूं, मोरी अरजी मानो जी,॥ हाथ० ॥ काल अनन्त मोहे भटकत बीत्यो, अबतो तारो जी ॥ हाथ० १॥ अधम उधारण हो प्रभु तुमहीं, मेरी ओर निहारो जी ॥ हाथ० २॥ तुम बिन ALAMMAMAKHELK HARASNA athan Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BAKokarDONKDeskoskelepbalatkandekarDEMON YMSTANCEDAttrakanttractorate wwwraamudrumwwwwwwwwAAAAAAmawww. MANTIMARYANAMASTRAMATALoksatokamkatitatist K जैन-रत्नसार देव नहीं ऐसा, का पे जाय पुकारूं जी ॥ हाथ० ३ ॥ सूरि कल्याण* की अरज यही है, भव विपत्ति निवारो जी ॥ हाथ० ४ ॥ श्री नमि जिन स्तवन (धन धन सम्प्रति सांचो राजा) षट् दरसण जिन अंग भणी जे, न्यास षडंग जो साधे रे । नमि जिनवरना चरण उपासक, षट दरसण आराधे रे ॥ षट० १ ॥ जिन सुर पादप पाय वखाणूं, सांख्य जोग दोय भेदे रे । आतम सत्ता विवरण करता, लहो दुग अंग अखेदे रे ॥ षट० २ ॥ भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे । लोकालोक अलम्ब भजीये, गुरु गम थी अवधारी रे ॥ षट० ३ ॥ लोकायतिक कूख जिनवरनी, अंश विचारी जो कीजे रे। तत्व विचार सुधारस धारा, गुरु गम विण केम पीजे रे ॥ षट० ४ ॥ जैन जिनेश्वर वर उत्तम अंग, अंतरंग वहिरंगे रे । अक्षरन्यास धरा आधारक, आराधे धरि संगे रे ॥ षट० ५॥ जिनवर मां सघला दरशण छे, दर्शने जिनवर भजना रे । सागर मां सघली तटनी सही, तटनी मां सागर भजना रे ॥ षट० ६ ॥ जिन स्वरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे । भृङ्गी ईलीकाने चटकावे, ते भृङ्ग जग जोवे रे ॥ घट० ७ ॥ चूरण भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परंपर अनुभवें रे । समय पुरुषना अङ्ग कह्या ए, जे छेदे ते दुरभवे रे ॥ षट० ८॥ मुद्रा बीज धारण अक्षर, न्यास अरथ विन योगे रे । जे ध्यावे ते नवि वंची जे, क्रिया अवंचक भांगे रे ॥ षट. ९ ॥ श्रुत अनुसार विचारी बोलूं, सुगुरु तथा विधिना मिले रे । किरिया करि नवि साधि सकिये, ए विषवाद चित्त सघले रे ॥ षट० १० ॥ ते माटे ऊभा करजोड़ी, जिनवर आगल कहिये रे । समय चरण सेवा शुद्ध दे जो, जेम आनंद घन लहिये रे ॥ षट० ११ ॥ * यह स्तवन रंग विजय खरतर गच्छीय ज० यु० प्र० बृ० भट्टारक श्री पूज्य जो श्रीजिन कल्याण सूरिजी महाराज का बनाया हुआ है। MANANEESHREEMARATranlinesam a nanthakama kshi nkaitralialestini Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bbb bhbhai bobot स्तवन-विभाग श्री नेमि जिन स्तवन ( राग मांड ) म्हारा नेमीश्वर भगवान थे तो प्यारा लागो जी शौरीपुर में जनमियां जी, समुद्र विजयका नन्द | मात शिवादे यांहरी जी, निरख्यां होय आनन्द || थे० १ ॥ श्याम वरण तन थांहरो जी, कुल पायो हरिवंश । लंछन शंखसे शोभता जी, श्रावण मास अवतंस || थे० २ ॥ राजुल व्याहण थे गया जी, जूना गढ़के मांय । पशुवन रोवन देखके जी, कांप्यो हियड़ो आय || थे० ३ || हुकुम दियो प्रभु नेम जी, रथ उलटो ल्यो फिराय । राजुल परणवा कारनें जी, लाखा जानां जाय ॥ थे० ४ ॥ पशुवन वाड़ा खुलवायके जी, करलियो योगी वेश । राजुल तज प्रभु जा बस्या जी, गिरनार गिरीके देश || थे० ५ ॥ घातिक कर्म खपायके जी, उपज्यो केवल ज्ञान । जैन धर्मको भाखके जी, कीनो जग कल्याण || ये ० ६ ॥ धन्य प्रभु है थाने जी, धन धन राजुल नार । मोक्ष पदको पा गये जी, नौवत करतार ॥ थे० ७ ॥ 61 ५०५ श्री नेमि जिन स्तवन सुअ देवी सानिध करी, गिरिवर श्री गिरनार । गुण गातां आतम सफल, सुख सम्पति विस्तार ॥ १ ॥ गिरिवर श्री पुण्डरीकनो, पञ्चम टंक उदार । ऊंचो धरणी थी अछे, गाऊ आठ विचार ||२|| नंदन वन जिम सुर गिरी, तिम नव वन भरपूर । सजल लीला है अलख देखत होय सनूर ॥३॥ गिरिवर श्री गिरनारनो, दीठे अतिशय नूर । दुःख दोहग दुरें गया, सुख सम्पति नित पूर ||४|| नेमीसर यादव नंदनो, राजमती भरतार | निज चरणन पावन कियो, विचरंता त्रिणवार ||५|| तीन कल्याणक इण गिरी, वा वीसमो भगवंत । दीक्षा केवल सिद्ध गई, गुण गिरवा गुणवंत ॥६॥ गत चौवीसी जिनवरूं, आठे चरम जिनंद | कल्याणक त्रिण त्रिण थया, भाखे ज्ञान दिणंद ||७|| संयम शिव केवल सिरी, शास्त्र तणो विरतन्त । करम खपाय अक्षय लही, एकाकी पिण अन्त ॥८॥ श्रेणिक जीव प्रमुख sta Yesto Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ e.hteliasYkartialorkhalobta salutatestantsashatottarobiolkaleBORoosing Glamapalisong.orlosonipalalpananlaolananloonliularlaenouslimusunlaobhilashaswatlabsarkarkelasavasanacapoatolasakhamaanawaibarhwani.tamansaharanion... __ जैन-रनसार सभी, भावी जिन चौवीस । सिद्ध रमण पद पावसी, ए भाखें जगदीश ॥९॥ चरम जिनेसर दोय वली, तेहना तीन कल्याण । पासे रेवत गिरिवरें, बोले गणधर वांण ॥१०॥ जम्मा रुकमणी नन्दनो, राजमती रह नेम । ढंढण मुनि इम बहु हुआ, कहतां तो आवे प्रेम ॥११॥ एहवी मोटी जेहनी, महिमा न आवे पार । सिद्ध रमण पद एह छे, आपे भवजल पार ॥१२॥ विधि सं जे नर इण गिरी, यात्रा श्री गिरनार । अम्बा तसु सानिध करे, पूरे पुण्य भण्डार ॥१३॥ घर बैठे जे नर करे, भावे श्री गिरनार । मन वंछित फल पावसी, जावे भव जल पार ॥१४॥ अठार से सड़सठ समें, चैत्री पूनम आज । श्री संघ सानिध शुभमने, कीनो आतम काज ॥१५॥ अखय* सदा ए गिरि रहें, नामे शिव सुख कंद । भव भव दीजे सेवना, भाखें श्रीजिनचंद ॥१६॥ श्रीथम्भण पार्श्वनाथजीका स्तवन प्रभु प्रणम रे पास जिणेसर थंभणो, गुण गाइ वार मुझ मन उल्लट अति धणो, ज्ञानी बिगरे एहनी आदिन को लहे, तोही पिणरे गीता रथ। गुरु इम कहे । इम कहे शास्त्र तणे प्रमाणे, राम दशरथ नंदने, बंदवा पाजे शीत काजे, समुद्र तट ए कण बनें, तिहां रह्या बान्धव राम लक्ष्मण, साथ सेना अति घणी,प्रासाद एक उत्तंग तोरण, थापणा जिणवर तणी ॥१॥ ॥ ढाल || तिहां मूरति रे मूल गम्भारे पासनी, मन वंछित रे आशा पूरे आसनी, ते राजा रे दिन प्रति पूजा साचवे, करजोड़ी रे बे बांधव इम बीनवे, बीनवे स्वामी तुम्ह प्रसादे । जलधि जल थंभे किमें, तो पाज बांधू .लंक साधू इम कही प्रभु पाय नमें, बहु पूज करतां ध्यान धरता, सात मास गया जिसे । नव दिवस अधिका थया ऊपर, जलधि जल थंम्यो तिसें ॥२॥ ए अति सयरे अचरिज पेख्यो प्रभु तणो, तिण कारण रे, नाम ____ * यह स्तवन जं० यु० प्र० बृ० भट्टारक श्री पूज्यजी श्री जिन चन्द्रसूरीजी महाराज ने सं० १८६७ चैत्री पूनमको बनाया है। . aloNGSaibuttotalblashatanAmlahani laiallullakitaltahotstatestant s ललनवलपलबलमयललगायव्ययप्रयजनबलपलमलबऋषक Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I I I .INirerthath स्तवन-विभाग . ५०७ दियो तसु थंभणो जल ऊपरी रे पाज करी पाथर तणी, गढ़ लंका रे साघेवा सीता भणी गढ़ लंक साधी सीत आणी तेण बन आव्या बली, दिन आठ अठाइ महोच्छव किया मन पूगी रली, श्री राम राजा शुद्ध ३ श्रावक विनीता नगरी बसे, बीसमा जिनवर तणे बार इम थया गुरु उपदिसे ॥इण अनुक्रम रे केतहो काल गयो वही, ते प्रतिमा रे तिन बन 1 में निश्चल रही । इण अवसर रे इन्द तणे आयस करी, सायर तट रे सोवन मय द्वारा पुरी, द्वारका नगरी कृष्ण राजा अई भरत तणो धणी, तिहां बसे यादव कोडि छप्पन बहे आग्या जिन तणी, तिण काल तिण बन तेह तीरथ तेहनी महिमा सुणी, सारङ्ग प्राणी भाव आणी आव्या तिहां यात्रा । भणी ॥४॥ ॥ ढाल ॥ आव्यो तिहां नरहर जिनहर मन उल्लास मनमें आनन्दे बंदे थंभण पास, पेखे अति नवली पूजा प्रभुजिने देह, एकेणे कीधी इम मन इथयो संदेह, संदेह थयो अटवी चिहुं पासे नहीं मानव संचार, केण करी 5 विद्याधर सुरवर पूजा सतर प्रकार, इसो बिमासी मंडप अंतर रह्या युगपते ३ ठाम, मध्यरात पाताले आवी बासग बिसहर साम ॥५॥ तिहां आवी प्रणमें देनाटक आदेश, मिलि नागकुमारी बिरचे अद्भुत वेष, शक्रस्तवपभणे जाण्यों श्रावक एह, हरि प्रगट्यो ततखिण, साहमी तणइ ससनेह, ससनेह वासग कृष्ण नरेसर बैठा बिम्ब बखाणे, ए श्रीजिनवर पास जिणेसर आदि न कोइ जाणे, असी सहस वर सामें पूज्या जेहुन्ता पायाले, बरण एक : प्रासाद कराव्यो थाप्या एह जिनाले ॥६॥ सह बात कहीने बासग गयो . पायाले, श्रीकृष्ण नरेसर मन चिन्तइ ततकाले, जो एहवो तीरथ हुबे द्वारिका : मझार तो जाणूं नरभव सफल थयो अवतार, सफल जनम करि वानं काजे तह विम्ब तिहां आणे श्रीद्वारिका, हेममय जिणवर बाप्या प्रगट प्रमाणे । '. घणं काल पूजा तहां पामी, करम निकाचित जाणी, श्रावकने सुपनान्तर । आवी. देव बड़े इम वाणी ॥७॥ प्रभु प्रतिमा बाहण, लेइ समुद्र मझार । ki.dirake-trolorbler intel.lal hiadrintainst intolertelarlidao Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Postakkakkasantshatsobtabbitosisodiphthalabhrashtaka3%BEkablasts aptaketaketha kishort जैन-रत्नसार vvvvvvvvvvvvv vvvvvvvvvvvvvvvvvv yve मके जो नगरी, थास्ये अवर प्रकार । तिण सागर अन्तर, काल गयो बहु जाम दक्षिण दिसि उत्तम, कुन्ती नगरी ठाम, कुन्ती नगरी जैन बसे, जहां श्रावक सागरदत्त, बाहण सात बहे व्यापारे पोते पर घल वित्त, अन्य दिवस सायर बिच बहतां जहां छे थंभण पास, ऊपरि आव्या थंभ्या बाहण ने सविथया उदास ॥८॥ मास दिवस बाणी थई अम्बर सुरराय, प्रतिमा थंभण पाशनी सायर जलधि माहिं सुर प्रगट्यो जिण सासणे, सुर कहे बांणी एह प्रतिमा भाव तूं प्रगटी करो जइ जैन कुन्ती नगर जिण हर मूल नायक ए धरो, ते बिम्ब कुन्ती मांहि थाप्यो, कहे वह श्रावक तहां ए सकल तीरथ नाथ समरथ पुण्य योग मिल्यो इहां ॥९॥ इण अवसर दस उर पुरइ पालत्तइ सूर, विद्या बल अम्बर भमें अतिशय भरपूर, तीरथ जाय जिण हरनमें, तेन में सेजा प्रमुख गिरिवर सदा पाखी पारने पाली ताने रह्या थाणे नागारजुन जोगी पने, ते धातु सोवन काज धमतां मास छडे रस करे, करि कोप भैरव बीर नाखें रूप पंखी नो धरे ॥१०॥ तिण पालन्ते सूरिने जाण्यो एह महन्त, पूछेको सुर दाखवें अतिशय गुणवन्त, कृपा करि मुझ भाखवो गुरु तेह भाखे जेह थंभे उपद्रव सुर नर तणो, तिण कर यो कुन्तीने प्रसादे | पास छ प्रभु थंभणो, कुण यक्ष बीर बेताल व्यन्तर सहु तसू सेवा करे, तेहनी दृष्टि साधि विद्या जेम तुम वंछित सरे ॥११॥ ॥ ढाल ॥ विद्या पिण आकर्षणी हुन्ति जोगी ने पास, ते प्रतिमा आणी तिहां थापी निज आवास, सोवन रस सीधो जिहां, रस तिहां सीधो सुजस लीधो, नदी सेढ़ीने तटे । गुरुने जणाव्यो तिण कहाव्यो, बिम्ब भंडारयो घटे, इणकाल धरम सुथान थोड़ा हुसी मलेच्छा इण इहां खाखरातले सेढिकातीरे बिम्ब भंडार यो तिहां ॥१२॥ ॥ ढाल ॥ मेघ आगम सही नदी उल्लटि वही बेलुका बिम्ब ऊपर बले ए, तेण भुंइ धेनूचरे, खार सुरही झरे चीकणी, भूमि खाखर तले ए, केतला "WHAT मन्यन्वयनत्रयागनश्याम BURAMMARohhhhhhshothabhrthr.tkkkkkkkkkkkkkkkkkkkchhsikbhaskhbbi.KE.-1- tomatlLIS. Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000rn roan.anna Rana - स्तवन-विभाग ५०६ * दिन पछे सुगुरु खरतरगच्छे । श्री अभयदेव सूरी सरूए, षट् बिगय परिहरी ऊग्र तप आदरी रक्त पित्ती थई मुनि वरूए, ते रक्त पित्ती गलत काया चित्तमें चिन्ता करे, अधरात सासण देवि आवी कोकडा नव कर धरे, ए सूत्र तूं सुलझाइ सुपरे तासगुरु जंपेइसो, जो थायसी मुझ निरोग काया तो सही उखेलसू ॥१३॥ ताम देवीय कहे नदिय सेढ़ी बहे, तेण तट वृक्ष । खाखर तले ए। तिहां तुम्हें जाइवो तबन करिबो नवों प्रगट थासी प्रभु , थंभणो ए, तेहने स्नात्र जल रोग सबि जाय टले, इम कहीय गई सासण , सुरीये, संघ सगलो मिली तिहां जाइ मन रली, ताम धरणेन्द्र ध्याने धरीये तहां करि जयतिहुअण बत्तीसी पाश, प्रगट्या ततक्षिणे तसु स्नात्र नीरे, सुख शरीरे धन्य धन्य सहुको भणे, तहां थान थाप्यो सुजस व्यापो थयो परचो 2. अति घणो, तेहनें नामें तेण ठामें ग्राम वास्यो थंभणो ॥१४॥ थईय महिमा । 1 घणी पाश थंभण तणी, सुगुरु काया नव पल्लवीए संघ आवे घणा करे वडामणा महयल कीरत विस्तरीए, सुपन जे देवता कोकडा नव हुता सूत्रते । ई सूत्र सिद्धान्त नामें वृत्ति नव अंग नी, भेद नव भंग नी, रची आचारजे ठामें तेण ठामें सहुय यामें आसकर जो आवए बहु भाव भक्ते एकचित्ते सेवतां । सुख पावए, एकदा गुरु धरणिन्द, ध्याने प्रगट थई पदमावती श्री अभयदेव सुरिन्द आगलि, इम कहे सांभल यति ॥१५॥ तवनजे तुम्ह करयो मंत्र 1 अतिशय भरयो, अन्ति तसुगाह जे वे कहीए, तेह गुणीये जहां इन्द्र आवे तहां कष्ट बिणतेह गुणवी नहीं ए, तेह भंडारवी काज संभारवी, अवर इण : तवन महिमा घणीए, समरतां सम्पदा रोग नावे कदा सदा आवश्यक धुरि भणीए, पडिक्कमणा नित भणे धुरि एह विधि खरतर तणीए, इम कही सासण देवि सामण गई, निज थांनिक भणीए, केतले दिवसे देश गुजर सयल म्लेच्छायन थयो, भले ठाम जाणी बिम्ब आणी नयर श्री खम्भा यत ठव्यो ॥१६॥ खम्भ नयर सिरि पास जिणेसरू, दिन दिन दीपत अति अलबेसरू । जात्र करेवा मुझहुन्ती रली, प्रभुमें भेट्यो आस सहू फली मुझ आस सफली, थईय सामी जाम भेट्या जगपती सौभाग्य सुन्दर करोउन्नति Pobainel Libre In Barlo Ptolart intromy a Year to sais tiktokkhlakul olen ob at bu imt . Polpeł in ild tirktiliselt.but toimistellt hahabol sala beint Intl do cha ta! L ni Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूपत्र ५१० जैन-रसार करूं । एह बीनती अश्वसेन वामादेवी अङ्गज, ध्यान मन तोरा धरूं, करि कृपा स्वामी सीस नामी सदा तुह्य सेवा करूं ||१७| कलश इम स्तव्यो थम्भण पास सामी, नगर श्री खंभाइते । जिम सुगुरु श्री मुख सुणी वाणी, शास्त्र आगम सम्मतें । ए आदि मूरत सकल सूरत सेवतां सुख संपए । मन भाव आणी लाभ जाणी, कुशल* लाभ यं पये ॥१८॥ श्री गौड़ो पार्श्व जिन वृद्ध स्तवनम् वाणी ब्रह्मा वादिनी, जागे जग विख्यात । पास तणां गुण गावतां, मुझ मुख वसज्यो मात ||१|| नारंगे अणहल पुरे, अहमदाबादें पास | गौडीनो धणि जागतो सहनी पूरे आस ||२|| शुभ बेला शुभ दिन घड़ी, मुहूरत एक मंडाण । प्रतिमा ते इह पासनी, थई प्रतिष्ठा जाण ॥३॥ ॥ ढाल || गुणहि विशाला मंगलिक माला, वामानो सुत सांचो जी । धण कण कंचण मणि माणक दे, गौडीनो घणि जाचो जी ||४|| अणहिल पुर पाटण मांहे, प्रतिमा, तुरक तणें घर हुंती जी । अश्वनी भूमि अश्वनी पीडा, अश्वनी वालि विगूती जी ॥ गु० ५ ॥ जागंतो यक्ष जेहने कहिये, सुहनो तुरकनें आपे जी । पास जिणेसर केरी प्रतिमा, सेवक तुझ सन्तापे जी ॥ गु० ६ ॥ प्रह ऊठीने परगट कर जे, मेघा गोठीने दीजे जी अधिकम ले जे ओछोम ले जे, टक्का पांच सौ लीजे जी ॥ गु० ७ ॥ नहिं आपिस तो मारीस मुरडीस, मोर बंध बंधास्ये जी । पुत्र कलत्र धन हय हाथी तुझ, लच्छि धणी घर जास्ये जी ॥ गु० ८ ॥ मारग पहेलो तुझने मिलस्ये, सारथवाह जे गोठी जी । निलवट टीलो 'चोखा बेड्या, वस्तु वहे तसु पोठी जी ॥ गु० ९ ॥ * यह स्तवन कुशललाभ सूरिजी महाराज का बनाया हुआ है। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग कापन्चनपन्चनप्रपत्र नत्रनयन्त्रणमन्त्रमन्त्र-त्रणप्रत्रनयनननननन्धमत्र-चनमम प्रध ॥ दोहा ।। मनसं बिहिनो तुरकडो, माने वचन प्रमाण । बीबीने सुहणा तणो, संभलावे सहि नाण ॥१० ॥ बीबी बोले तुरकने, बड़ा देव है कोय । अवस ताव परगट करो, नहिं तर मारे सोय ॥११॥ पाछली रात परोडिये, पहली बांधे पाज । सुहणा मांहे सेठने, संभलावे यक्षराज ॥१२॥ ॥ ढाल ॥ ___ एम कही यक्ष आयो राते, सारथवाहने सुहणे जी। पास तणी की प्रतिमा तूंले जे, लेतो सिर मत धूणे जी ॥ एम० १३ ॥ पांच सै टक्का तेहने आपे, अधिको म आपिस वारूं जी। जतन करी पहुंचाडे थानक, प्रतिमा गुण संभारे जी ॥ एम० १४ ॥ तुझने होसी बहु फल दायक, भाई गोठी ने सुणजे जी । पूजिस प्रणमिस तेहना पाया, प्रह ऊठीने थुणजे जी ॥ एम० १५ ॥ सुहणो देईने सुर चाल्यो, आपणे थानक पहुंतो जी। पाटण माहे सारथवाहू, हियडे तुरकने जोतोजी ॥ एम० १६ ॥ तुरके जाता दीठो गोठी, चोखा तिलक लिलाडे जी। संकेत पहुँतो सांचो जाणी, | बोलावे बहु लाडे जी ॥ एम० १७ ॥ मुझ घरि प्रतिमा तुझने आपू, पास जिणेसर केरी जी। पांच से टक्का जो मुझ आपे, मोल न मांगू फेरी जी ॥ एम० १८ ॥ नाणो देई प्रतिमा लेई, थानक पहुँतो रंगे जी । केशर चन्दन मृगमद घोली, विधिसूं पूजा रंगे जी ॥ एम० १९ ।। गादी रूडी में रूनी कीधी, ते मांहि प्रतिमा राखे जी। अनुक्रम आन्यां परिकर मांहे, * श्री संघने सुर साखे जी ॥ एम० २० ॥ उच्छव दिन दिन अधिका थाये, सतरह भेद सनात्रो जी । ठाम ठामना दरसन करवा, आवे लोक प्रभातो जी ॥ एम० २१ ॥ ॥ दोहा ॥ इक दिन देखे अवधसं, परिकर पुरनो भंग । जतन करूं प्रतिमा तणों, तीरथ अछे अभंग ॥२२॥ सुहणो आपे सेठने, थल अटवी उज्जाड । महिमा थास्ये अति धणी, प्रतिमां तिहां पहुंचाड ॥२३॥ कुशल क्षेम तिहां de. If Ye Je ne to โค อ ในใจคน.. 1.5.1.ค. โก ๆ ใจไหน ใครื่2 จอง 2 คน 6 ๆ ใด 1. โต 9.5, ใจ ใจไม่ไป » โจงได้ใจได้ 1.1 ในงานไป 4 จ ค ค ..ได , , , โคโค ก 1.L ไค ..ได้! Sale { L HIPPITITTHI atest a Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार ५१२ VV wwwww wwwwwˇˇˇˇ wwwww अछे, तुझने मुझने जाणी । संका छोड़ी काम करि, करतो मकरि संताणी ॥२४॥ ॥ ढाल ॥ I Į पास मनोरथ पूरा करे, वाहण एक वृषभ जो तरे । परिकरथी परियाणों करे, एक थल चढ़ी बीजा उतारे ||२५|| बार कोस आन्या जे तले, प्रतिमा नवि चाले ते तले । गोठी मनह विमासण थई, पास भुवन मंडावूं सही ||२६|| आ अटवी किं करूं प्रयाण, कटको कोइ न दीसे पहाण | देवल पास जिनेसर तणों, मंडावं किम गरथें विणो ||२७|| जल बिन श्री संघ रहस्ये किहां, सिलावटो किम आवे इहां । चिन्तातुर थयो निद्रा लहें, यक्षराज आवीने कहे ॥२८॥ गुंहली ऊपर नाणो जिहां, गरथ घणो जाणीजे तिहां । स्वस्तिक सोपारी ने ठाणी, पाहण तणी उल्लटस्ये खाणि ||२९|| श्री फल सजल तिहां किल जूओ, अमृत जलनी सरसी कुओ । खारा कुआ तणो इह सेनाण, भूमि पड्यो छे नीलो छाण ||३०|| सिलावटो सीरोही बसे, कोड पराभवियो किसमिसे । तिहां थकी तूं इहां आण जे, सत्य वचन माहरो मान जे ||३१|| गोठी नो मन थिर थापियो, सिलावट ने सुहणो दियो । रोग गमी ने पूरो आस पास तणो मंडे आवास ||३२|| सुपन मांहे मान्यो ते वैण, हेम वरण देखाड्यो नैंण । गोठी मनह मनोरथ हुआ, सिलावट ने गया तेडवा ||३३|| सिलावटो आवे सूरमो, जीमे खीर खांड घृत चूरमो । घडे घाट करे कोरणी, लगन भले पाया रोपणी ||३४|| थंभ थंभ कीधी पूतली, नाटक कौतुक करती रली । रंग मंडप रलियामणो रसे, जोतां मानव नो मन बसे ||३५|| नीपायो पूरो प्रासाद, स्वर्ग समों मांडे आवास दिवस विचारी इंडो घरयो, ततखिण देवल ऊपर चढ्यो ||३६|| शुभ लगनें शुभ बेला वास, पम्मासण बैठा श्री पास | महिमा मोटी मेरु समान, एकल मिल बिगड़े रहेवान ||३७|| बात पुरानी मैं सांभली, तवन मांहि सूधी सांकली । गोठी तणा गोतरिया अछे, यात्रा करीने परने पछे ||३८ ॥ 1 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 회의의 의회의의 의의회의 baba स्तवन-विभाग ॥ दोहा ॥ विधन विदारन यक्ष जगि, तेहनो सकल स्वरूप । प्रीति करे श्री संघ ने, देखाडे निज रूप ||३९|| गिरुओ गौडी पास जिन, आपे अस्थ भंडार । सांनिध करे श्री संघ ने, आशा पूरणहार ॥४०॥ नील पलाणे नील हय, नीलो थई असवार | मारग चूका मानवी वाट दिखावनहार ॥ ४१|| ५१३ ॥ ढाल ॥ । चरण अढार तणों लहे भोग, विघन निवारे टाले रोग समरे जे जाप, टाले सगला पाप संताप || २ || निरधन नो सूत, आपे अपुत्रिया ने पूत । कायर ने सूरापण घरे, पार वरे ||४३|| दो भागी ने दे सो भाग, पगविहूणा ने आपे नहीं तेहने दे ठाम, मन वंछित पूरो अभिराम || ४ || आधार, भवसागर ऊतारे पारे । आरतियानी आरत भंग, धरे ध्यान ते लहे पवित्र थई घरि धन नो 65 उतारे लच्छी पाग । ठाम निराधारा ने दे सुरंग || ४५|| समरयां सहाय दीजे यक्षराज, तेहना मोटा अछे दिवाज । बुहीन ने बुद्धि प्रकाश, गंगा ने दे वचन विलास ||४६ || दुखियाने सुख नो दातार, भय भंजन रंजन अवतार । बंधन तूटे वेडी तना, श्री पार्श्व नाम अक्षर समरणा ||४७|| ॥ दोहा ॥ श्री पार्श्वनाम अक्षर जपे, विश्वानर विकराल । हस्ति युद्ध दूरे टले, दुद्धर सिंह सियाल ॥४८॥ चोर तणां भय चूकवे, विष अमृत उडकार । विषधरनो विष ऊतरे, संग्रामें जय जयकार ||४९ || रोग शोक दारिद्र दुःख, दोहरा दुर पलाय । परमेसर श्री पास नो, महिमा मन्त्र जपाय ॥५०॥ ॥ कडखानी चाल ॥ အ ॐ जितुं ॐ जितुं ॐ जितुं उपसम घरी, ॐ ह्रीं श्रीं श्री पार्श्व अक्षर जयंते । भूत ने प्रेत झोटिंग व्यंतर सुरा, उपसमे वार इकवीस गुणंते ॥ ॐ ५१ ॥ दुद्धरा रोग सोगा जरा जन्तु ने, ताव एकांतरा दुत्तते । गर्भ बन्धन व्रणं सर्प बिच्छू विषं, चालिका वालमेवा झखंते ॥ ॐ ५२ ॥ シンジジジジジョン 92995 941111615.JA d to Ji Yo Yo to to Yo Yo Yo Yo I Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ch's' PITHALILERIAL Prakrit PLZ जैन - रत्नसार ५१४ साइणी डाइणी रोहिणी रङ्कणी, फोटका मोटका दोष हुंते । दाढ़ उंदर ती कोल नोला तणी, स्वान सीयाल विकराल दंते ॥ ॐ ५३ ॥ धरणेन्द्र पद्मावती समर सोभावती, वाट आघाट अटवी अयंते । लक्ष्मि लोहूं मिले, सुजस वेला उले, सयल आस्या फले मन हंसते ॥ ॐ ५४ ॥ अष्ट महा भय हरें कान पीड़ा टले, ऊतरे सृल सीसग भणते । वदतवर प्रीत सं प्रीति विमला प्रभू, श्री पास जिण नाम अभिराम मंते ॥ ॐ ५५ ॥ पार्श्व स्तवन '1'12ther' अपने घर बैठ के लील करो, निज पुत्र कलत्र सुं प्रेम धरो । तुम देश देशान्तर कांई दौड़ी, नित नाम जपो श्री नागोड़ी || १ || मन बंछित सगली आस फले, सिर ऊपर चामर छत्र हुले । आगे चाले झलमल घोड़ो, नित नाम जपो श्री नागोड़ी ||२|| भूत प्रेत पिशाच बेताल बली, डाकिणी साकनी जाय टली | छल छिद्रन लागे कांई झोड़ो, नित नाम जपो श्री नागोड़ || ३ || एकान्तरता बसिया दाहू, औषध बिन जाय थई माहू । न दुखे माथो पग गोड़ो, नित नाम जपो श्री नागोड़ा ॥४॥ कण्ठ माल गढ़ गूम्बड़ सगला, व्रण उरमें रोग टले सबला | न करे पीड़ा फुनगल फोड़ों, नित नाम जपो श्री नागोड़ो ||५|| न पड़े दुर्भिक्ष दुःकाल कदा, शुभ वृष्टि सुभिक्ष सुकाल सदा । ततखिण तुम अशुभ करम तोड़ो, नित नाम जपो श्री नागोड़ो || ६ || तू जाग तो तीरथ पास पहू, तुझ नाम जो जाने जगत सहू | मुझ जाने भव दुःख थी छोड़ो, नित नाम जपो श्री नागोड़ो ||७|| श्री पार्श्व महेवा पुर नगरे, जिन भेट्या प्रभु हरष धरें । गणि समय सुन्दरजी गुण जोड़ो, नित नाम जपो श्री नागोड़ो ||८|| पार्श्व जिन स्तवन श्री संखेसर पास जिनेसर भेटिये, भवना संचित पाप परा सब मेटिये । मन घर भाव अनंत चरण युग सेवतां, अणहुता एक कोड़ि चतुर far देवता || १ || ध्यान धरूं प्रभु दूर थकी में ताहरो । जल जिम लीनो मीन, सदा मन माहरो | भव भव तुमहीज देव चरण हूं सिर धरूं, भव Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the r endradatesajadolenathtakadaachakalagharatedeosbabasketlesteoroledeoesaabhaeapacityatabaseokamtathideendee स्तवन-विभाग latola la la la tolmli tayo the lack Lakilalaman ng lalala laloo gooola la la lwin la la la lato सागरथी तार, अरज याहीज करूं ॥२॥ भूख त्रिषा तप सीत, आतम ए ना सहे, तप जप संजम भार, तणी नवि निरवहे । पिण जिनवरजीना नाम तणी आसत घणी, एहिज छे आधार, जगत गुरु अम्ह भणी ॥२॥ तुम्ह * दरसण विण स्वाम, भवोदधि हूँ फिर चो सहिया दुःख अनेक । न कारजको 1 सरयो । मिलिया हिव प्रभु मुझ सदा सुख दीजिये, चौ गइ संकट चूर जगत जस लीजिये ॥४॥ यादवपति श्रीकृष्णतणी आरति हरी, सैन्या कीध सचेत जरा दुरे करी। परचा पूरण पास रयण जिम दीपतो, जयवंतो जिनचंद सकल रिपु जीपतो ॥५॥ पार्श्व जिन स्तवन तेरे चरण भेट आज, आनन्द अंग लहियां । आनन्द अंग लहियां प्रभुजी, दरसण बहु पइयां ॥ तेरे० १॥ अश्वसेनजी के लाल, तीनलोक प्रतिपाल । तोडमान कमठ नाग, राज सुक्ख दइयां ॥ तेरे० २ ॥ चार जात देव कोड, सेवा करें कर जोड़ । मधुर मधुर ध्वनि करे, अपछर गुण गइयां ॥ तेरे० ३ ॥ अखय* सदा जिनचंद, चाहत शिव सुक्ख कंद । निरख निरख दर्शन करे, आनन्द बहु पइयां ॥ तेरे० ४ ॥ वीर जिन स्तवन ( जग जीवन जग वाला हो) वीर जिणंद गुण गावसं , जिम थाय आतम उद्धार लाल रे । पुण्य । योगे प्रभु मुझ मिल्यो, पञ्चमकाल मझार लाल रे ॥ वीर० १॥ जगदीसर परमातमा, जगबंधु जगनाथ लाल रे । जग उपगारी जग गुरू तुमें, जग रक्षक शिव साथ लाल रे ॥ वीर० २ ॥ जिन गुण कण पण कीर्तना, । चिंतामणि सम जाण लाल रे। अवगुण बोले गोशालो वली, जमाली ई दुःखनी खाण लाल रे ॥ वीर० ३ ॥ अनंत पुण्य कर्म योगथी, तीर्थंकर : पद धार लाल रे । गोत्र करम उदये प्रभू, ब्राह्मणी कूखे अवतार लाल रे ॥ mkhtarnaththiklaittalaththla kartanath fash bhabahhhhhhhhhhhhhhhotal.la tathahhhhhhhti lana hbhhb in islatolah in hinta tai in hinlet Journt, latonlellalato In betal. Il la la la la la la la la la la L ! n toll T aintain tale! . * यह स्तवन रंग विजय खरतर गच्छीय जं० यु० प्र० वृ० भट्टारक श्री पूज्य जी श्री जिन __अखय सूरिजी महाराजके शिष्य श्री पूज्यजी श्री जिनचन्द्र सूरिजी महाराजका बनाया हुआ है। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Arialhealeratlam : harik a arakirahthakhktokhetatayakathasaksssssseekty wwww. instrionli-filianRakshawla ki.nngi.nahanikokhafikarin khanninth insionpati palanke tolerinare int-finalesalenlarfakislike ५१६ जैन-रनसार वीर० ४ ॥ शक्र स्तवे पुरषोत्तम, तेथीते प्रभु गर्भ उदर लाल रे। गर्भ नीच इपसद अधम कहे, प्रभु निंदा ए होवे नीच लाल रे । वीर० ५॥ गर्भाधान कल्याण श्रेय छ, पंचकल्याण मझार लाल रे । न गर्भ नीच अकल्याणक का, तो किम विरुद्ध उच्चार लाल रे ॥ वीर० ६ ॥ देवानंदा कूख थी त्रिशला कूखे, गर्भ धारण श्रेय रूप लाल रे। इंद्रे ते निश्चय मानिये, न मान अकल्याण रूप लाल रे ॥ वीर० ७ ॥ तूं मानूं कल्याण फल माता का, होरी तीर्थकर तुम पूत लाल रे। विप्रकुल नीच ऋष निंद्य दाखवी, ताते अकल्याणक भूत लाल रे ॥ वीर० ८ ॥ कल्याण ते श्रेय भाखियूं, श्रेयने कल्याण फल जाण लाल रे। नीच अवरणा वादे वीर नं, मानतो म्हारूं कल्याण लाल रे ॥ वीर० ९ ॥ जे दिन विप्रकुले आविया, माने अच्छेरूं शुभ कल्याण लाल रे। ते क्षत्रीकुले वीर किम होवे, नीच अशुभ अकल्याण लाल रे ॥ वीर० १० ॥ कल्पे ते शुभ समृद्धि कही, अणंत आववं कल्याण लाल रे । ते विप्र सिद्धारथ कुले थy, वलि विप्र मोक्ष कल्याण लाल रे ॥ वीर० ११ ॥ च्यवन इन्द्रने जाण्यं धीर नं, तो उच्छव किहां मंडाण लाल रे । मोक्षे अंधारूं डाणां गमां, पणमानी जे कल्याण लाल रे ॥ वीर० १२ ॥ जिनचन्द्र* वीर वियोग थी, मोहथी थाय दुःख शोक लाल रे । देवा नन्दा गौतमने, जिम ले जो कल्याण मोक्ष एक लाल रे । वीर० १३ ॥ वीर जिन स्तवन (आज महोच्छव रंग रली री) जायो सुत त्रिशला दे रानी, कामित पूरन काम कली री ॥ आ० १॥ सजि सिणगार सकल सुर वनिता, अपने अपने मेल चली री। आवत सिद्धारथजी के आंगन, पूरी मोतियन चौक पूरी री ॥ आ० २॥ इंद्राणी मिल मंगल गावत, नाटक नाचत सुरकुमरी री । बाजत ताल मृदंग सुरप * यह स्तवन जं० यु० प्र० बृ० भट्टारक श्री पूज्यजी श्री जिन चन्द्रसूरिजी महाराज ने बनाया है। Atharastaknaakkatrkailashtrahindeathelkatahakoartisthotokiekathakikip.liylip.tionakaEKSheatinkateklichindiamarineh hindi indialifielba hbhAkhAMEkakkialkokholnekadunakk arati kolanation Reateneatestantaraaaakashyalaksh k a l i nbibe ग्राम गणतानियनत्रणवश्वकर Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग man annnnA PARA A A A A ननथनमननयन्त्रणप्रत्रनप्रणप्रत्रणमनप्रमाणपत्रपत्रणभत्रनवन श्रवणश्रममननत्र - तनी, बेना बीन बोचंग वली री ॥ आ० ३ ॥ इन्द्र हुकुम कर धरणिंद पठायो, सब वसुधा धन धान्य भरी री। कनक रजत मनि पंच वरन के, कुसुम विखेरत गलिय गली री ॥ आ० ४ ॥ जय जयकार भयो । जिनशासन, व्याधि व्यथा सब विपति हरी री। हरखचंद जनम्यो प्रभु मेरो, मनकी आशा सफल फली री ॥ आ० ५ ॥ राग भैरवी वीर प्रभु तेरी दोस्तीमें, मेरी सुमता सखी मेहरबान भई रे। आप नहीं आवे बहूधा पठावे, तेरी सूरत कुरबान भई रे । वीर० १॥ शासननायक यही अरज है, दीजे दरस, बड़ी देर भई रे। आस दास की पूरण कीजे, चरण सरण लपटाय रही रे ॥ वीर० २ ॥ चौबीस जिन स्तुति ___ पहिलो श्रीऋषभेसर प्रणमं, दुजो अजिय जिणेसर देव । संभव अभिनन्दन सुखदाई, सुमति सुमति सुर सारे सेव ॥१॥ पदम प्रभु जिन अधिक पंडूर, श्री सुपासचन्द्र प्रभु स्वामी। सुविधि शीतल श्रेयांस सवाई, नित प्रणम वासुपूज्य सिर नामी ॥ प० २ ॥ विमल अनन्त सदा वरदाई, धर्म शान्ति कुन्थु अर धरि रागें। मल्लिनाथ तेजी मुनि सुव्रत, नमि नेमि सदा दुखते वारे, ताके नमूं पाये लागें ॥ ५० ३ ॥ परतिख जेहनो दीसे परचो, पुरसा दाणी समरूं पास । वर्द्धमान चउवीसम जिनवर, जगि जागे जेहनो जस वास ॥ प० ४॥ परम पुरुषनां नाम जपंतां, कीधा करम खपे लख कोडि । भाव सहित उठि परभाते, जिन रंग* सूरि नमें कर । जोडि ॥ प० ५॥ सीमंधर जिन स्तवन श्री सीमंधर साहिबा, वीनतडी अवधार लाल रे । परम पुरुष परमेसरूं आतम परम आधार लाल रे ॥ श्री. १॥ केवलज्ञान दिवाकरूं, भांगे * यह स्तवन जं० यु० प्र० पृ० भट्टारक श्री पूज्यजी श्रीजिन विजय रंग सूरिजी महाराज का बनाया हुआ है। Prabalantatahkabhhhhhhhikaranola with tokenlarliamkalarakaatoothawlarkionkha ladkatonianhiashtrakutakela ahhhhekhakalikhkhtal.khkhtakalalithakhah thatarela.rahlahilanki.inle MMITTPITITIVE కార్యా లు దాస్యం కాదు కదా రామ పరంధాతృణాం Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yocks to tootouto touto Yo Yo took to trek toto to to Konta ५१८ JUU vv %%%%%% जैन-रत्नसार vvvw ~ .vwwwwww 6 to to to to to tattato to to to to teoloo wwwww wwww wwww सादि अनन्त लाल रे । भाषक लोकालोक के, ज्ञायक ज्ञेय अनन्त लाल रे || श्री० २ ॥ इन्द्र चन्द्र चक्कीसरूं, सुर नर रहे कर जोड लाल रे । पदपङ्कज सेवे सदा अणहुंता इक कोड लाल रे ॥ श्री० ३ ॥ चरण कमल पिंजर बसे, मुझ मन हंस नितमेव लाल रे । चरण शरण मोहि आसरो, भव भव देवाधि देव लाल ॥ श्री० ४ ॥ अधम उधारण छो तुम्हें, दुर हरो भव दुःख लाल रे । कहे जिनहर्ष दया करी, दीजो अविचल सुःख लाल रे || श्री० ५ ॥ सीमन्धर जिन स्तवन सुणो चन्दाजी, सीमंधर परमातम पासें जावजो । मुझ बीन तड़ी, प्रेमधरीनें इण परे तुम संभलावजो ॥ जे तीन भुवन ना नायक छे, जस चौसठ इन्हें पायक छे, ज्ञान दरसण जेहनें क्षायक छे ॥ सुणो० १ ॥ जेनी कञ्चनवर्णी काया छे, जस धोरी लंछन पाया छे । पुण्डरीक नगरी नो राया छे || सुणो० २ ॥ वार परषदा मां हे विराजे छे, जस चौतीस अतिशय छाजे थे । गुण पैंतीस वाणियें गाजे छे || सुणो० ३ ॥ भवि जननं ते पड बोहे छे, तुम अधिक शीतल गुण सोहे छे । रूप देखि भविजन मोहें छे ॥ सुणो० ४ ॥ तुम सेवा करवा रसियो छू, पण भरत मां दुरे वसिओ छूं । महा मोहराय में फसियो छू || सुणो० ५ ॥ पण साहिब चित्त मा धरियो छे, तुम आण खड़ग कर ग्रहियो छे । तब कांइक मुझ थी डरियो छे सुणो० ६ || जिन उत्तम पूठ हवे पूरो, कहे पद्म विजय थाऊं शूरो । तो वाधे मुझ मन अति नूरो || सुणो० ७ ॥ सिद्धाचल स्तवन सिद्धाचल गिरि भेया रे, धन्य भाग्य हमारा । ए गिरिवर नी महिमा मोटी, कहतां न आवे पारा । रायण रूख समोसरया स्वामी, पूरव नवाणूं चारा रे ॥ धन्य सिद्धा० १ ॥ मूलनायक श्री आदि जिनेश्वर, चौमुख प्रतिमा चारा । अष्ट द्रव्य सूं पूजो भावें, समकित मूल आधारा रे ॥ धन्य सिद्धा० २ || दूर देशान्तर थी हूं आयो, श्रवण सुणी गुण तोरा । पतित भूम Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 . स्तवन-विभाग Hellointhiantisila plantino11 totalbt. net. n उधारण बिरुध तुमारो, ए तीरथ जग सारा रे ॥ धन्य सिद्धा. ३ ॥ भाव : भगति सं प्रभु गुण गावे, अपना जनम सुधारा । यात्रा करी भविजन शुभभावें, नरक तियच गति वारा रे ॥ सिद्धा धन्य० ४॥ संवत अठार त्रयासी आषाढ़े, वदि आठम भौमवारा । प्रभुजी के चरण प्रताप संघ में 'क्षमारतन' प्रभु प्यारा रे ॥ धन्य. सिद्धा० ५॥ अष्टापद गिरि स्तवनम् मनडो अष्टापद मोह्यो माहरो जी, नाम जपं निशिदीस जी। चत्तारि अह दस दोय वंदियाजी, चिहुं दिशि जिन चौवीसजी ॥ म० १॥ योजन योजन अन्तरेजी, पावडशाला आठजी । आठ योजन ऊंचो देहरोजी, दुःख दोहग जाय नाठजी ॥ म० २ ॥ भरतें भराव्या भलां देहराजी, सोभा यारां में धुंभजी। आपे मूरत सेवा करे जी जाण जोई ने ऊभजी ॥ म० ३ ॥ गौतम स्वामि तिहां चढ्याजी, बली भागीरथ गंगजी। गोत्र तीर्थंकर बांधियाजी, रावण नाटक रंगजी ॥ म० ४ ॥ दैव न दीधी मुझने पाखंडी * जी, आवू केम हजूरजी । समय सुन्दर कहे चन्दना जी, प्रहऊ गमते सूर जी ॥ म. ५॥ पर्यषण स्तवन ____ करलो करलो रे थे भविजन प्राणी शिव सुख वर लो ॥ पर्व पजूसण करलो ॥ सब सुरवर मिल निज निज भक्ते, द्वीप नंदीश्वर जावे रे । आठ दिवस अट्ठाई महोत्सव कर सुख पावे रे ॥ पजूसण० १॥ तिम भव प्राणी आतम शक्ते, धार्मिक कार्य आराधो रे। जिनवरजीकी पूजा करके, शिव सुख साधो रे ॥ पजूसण. २ ॥ विविध प्रकारे पूजा रचावो, समकित निर्मल करलो रे । आंगी भावना मन सुध करके, भवजल तरलो रे ॥ पजू० ३ आठ दिवस अट्ठाई तपस्या, करके काज सुधारो रे । जैन धर्म की महिम करके मान बधारो रे ॥ पजूसण. ४ ॥ हाथी घोड़ा और पालखी, रथ : तयारी करावो रे । वस्त्राभूषण सज कर, भवियण मंगल गावो रे ॥ प०५ बाजे गाजे सब मिल गौरी. गुरुके पासे जावो रे । कल्पमूत्रको लेकर म Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lines-In-lgrlh forterlorlesterotoheets-tulaladalshrest-elateindialise-sterbashlete.babajinatoresbaalobhabeteshwarsanskateshe जैन-रत्नसार tadanacatatestantalotoaantasanlakatalasankadashab.ladakelina khilonlaoloodsulash tilatonians Joraplesaraiariorla.jpulatfreb sothlalitarika.buabhihopsiswafarib larabolarorld.forsh.lmbibbfoebalbsolaple-osbook हाथ धरायो रे ॥ पजूसण. ६ ॥ घर ले जावो रात्री जगावो, ज्ञान की भक्ति करावो रे । सर्व शहर में फिर कर, गुरुके पासे लावो रे ॥ प० ७॥ कल्पसूत्र की पूजा करके, वाचना नव को सुन ले रे । मधुरी वाणी गुरु मुख प्राणी, अमृत पी लो रे ॥ पजूसण० ८ ॥ जिन चरित्र ने और पट्टावली, समाचारी भावे रे। तीन अधिकार आदि से सुने, वो मुक्ति में * जावे रे ॥ पजूसण. ९ ॥ अट्ठाई उपवास करो भवि, बड़े कलप को बेलो रे। संवत्सरी को तेलो करके, बारसे झेलो रे ॥ पजुसण० १० ॥ मूल पाठ को एक चित सुणने, चैत्यप्रवाडी में जावो रे। मोहन मुद्रा जिनवर निरखी, अति हरखावो रे ॥ पजूसण० ११ ॥ अभय अमारी पटह बजावो, दान सुपात्रे देवो रे । अनुकम्पा कर जीवों ऊपर प्रेम जगावो रे ।।५० १२॥ नव विध ब्रह्म गुप्ति को धारो, भावना सुध मन भावो रे। दोय टंक पडिकमण करीने, पाप भगावो रे ॥ पजूसण० १३ ॥ संवत्सरी पडिकमणों करिने, जीव चौरासी खमावो रे । अपराधी को माफी देकर, अति हरखावो रे॥ पजूसण० १४ ॥ तिवरी गाम चौमासे रहकर, पर्व पजूसण ध्याया रे । संवत् उन्नीसे अस्सी वर्षे, पूज्य हरि गुण गाया रे ॥ पजूसण० १५ ॥ शान्ति जिन स्तवन शान्ति दान्ति क्रान्ति सोहे, शान्ति सुखकार रे । विश्वसेन तात मात, अचिरा मंडार रे ॥ लंछन कुरंग रंग, सोवन सुचार रे॥ शा० १॥ वंश है इक्ष्वाकु हस्ते, नाग अवतार रे। पंचमो चकी सही, सोलमे सुचार रे॥ शा० २ ॥ भविक तरण तरि, अरि अपहार रे। श्री जिन लाभ ध्यायो, पायो भव पार रे । शा० ३॥ ॥ पुनः राग ॥ निरंजन साइयां रे, सांइ मेरा टुक सा मुजरा लेत ॥ निरं० ॥ तुम तीरथ के देवता जी, हम केशर दा बोल । कनक कचोली हाथ में जी, पूजा करूं रंग रोल ॥ निरं० १॥ तुम अम्बर दा मेहला प्रभु, हम गिरिवर दा मोर । रिमझिम रिमझिम मेहला वरसे, ठम ठम नाचे मोर ॥ नि० २॥ tattalioristainfinitalathintayokt2Nkt.kotpaakhbnial-Etakeshtatathkhtaathth titsaktelefantaliate.instalilatakablashtakakikattibtityitterKitattititlet.ittitute Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन- विभाग ५२१ हम गुण काली कोयली जी, प्रभु गुण आंबा मोर । मांजर के परताप से कांइ, करवा लागी सोर || निरं० ३ || तुम हो मोतियन की लड़ी रे, हम गुण अंडा भोर । रूपचन्द दिलदार मया कर, तुम बिन, देव न और || निरं० ४ ॥ सरस राग ॥ राग खम्बाच ॥ समरण कर ले करम सब हरले घड़ि घड़ि पल पल छिन छिन निशदिन प्रभु को रे ॥ घ० ॥ प्रभु समरण से पाप कटत हैं, अशुभ रे ॥ घ० १ ॥ मन वच काय लगी चरणन नित, ज्ञान हिये में घर ले रे ॥ घ० २ || दौलतराम प्रभू गुण गावे, मन वंछित फल वरले रे ॥ घ० ३ || राग मल्हार ० चहुँ ओर बदरिया वरसे, अब घरर घरर घन गरजे ॥ नेम प्रभू गिरनार सिधारे, देखन कूं जिया तरसे ॥ चहुँ १ ॥ दादुर मोर शोर सुन श्रवणें, नयन भए घन जरसे ॥ चहुँ० २ ॥ ढूंढ़त ढूंढ सकल वन वन में, कबहुं पिया नहिं दरसे || चहुँ० ३ || सो दिन सफल जानेंगे सजनी, दिवस घड़ी जिन फरसे ॥ चहुँ० ४ ॥ राग झिंझोटी 1 यह अरजी मोरी सहियां, मोहि तार लो गह बहियां । मैं नांहि जानूं सहियां, यह अरजी मोरी सहियां ||१|| मैं तारण तरण सुण्यो छे, मैं यातें शरण गहियां । इन तें उबार लहियां, ये अरजी मोहि० २ || इन करमन के बस होय के, मैं भटक्यो चहुं मैं नाहि जानं सहियां, यह अरजी मोरी सहियां ॥ मोहि० ३ ॥ हित करके दास निहारे, कर जोडि पड़ी हूँ पइयां । शिव देत क्यों ना सहियां मोहि तार लो गह बहियां ॥ ये ० ४ ॥ मोरी सहियां ॥ गति महियां । राग अडाणो मोतियन की माला जिन गल सोहे । मस्तक मुकुट सोहे मन मोहन, 66 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणप्रयन्त्रणमननश्रयणप्रत्रप्रप्रय ग्रनन्यप्राणप्रयागपत्रमाणप्रत्रमन्त्र प्रगणनयनपत्रण प्रयग्रामयणप्रणमननयमनप्रणप्रत्रणमननननननन ५२२ जैन-रनसार कुण्डल लागत वाला ॥ जिन० १ ॥ भजो रे भजो तुम लोक सहिर के, नहीं भजे सो काला । माणक पर प्रभु महिर करो तो अपना बिरुद संभाला ॥ जिन गल. २॥ राग सोरठ म्हानू प्यारो लागे छ जी थारो उपदेश। ज्ञान जगावण अवगुण मेटन, संशय रहे न लेस ॥ म्हानू १ ॥ मोह तिमिर दुःख दूर करन कुं, भगत बढ़ावत हेत । चन्द फते नित येही चाहे, समकित सुख कू खेत ॥ म्हानू॥ राग मल्हार वरषित वचन झरी हो सुगुरु मेरो । श्री श्रुतज्ञान गगनतें उमटी, ज्ञान घटा गहरी ॥ हो सुगुरु० १ ॥ स्याद्वाद नय विजुली चमकत, देखत कुमति डरी । अरथ विचार गुहर धुनि गरजित, रहत न एक घरी ॥ हो । सुगुरु० २ ॥ श्रद्धा नदी चढ़ी अति जोरे, शुद्ध सुभाव धरी । सुभर भरयो सुमता रस सागर, समकित भूमि हरी ॥ हो सुगुरु० ३ ॥ प्रगटे पुण्य अंकूरे चहुं दिस, पाप जवास जरी । चातक मोर पपइया भविजन, बोलत भक्ति भरी ॥ हो सुगुरु० ४ ॥ दया दान व्रत संजम खेती, भविक किसान करी। हरखचन्द सुर नर शिव सुख की, सहज स्वभाव करी ॥ हो सुगुरु० ॥ ५॥ राग काफी बाबा केशरिया विराजे धुलेवा मैं डारूं गुलाल मुट्ठी भरके, मैं डारूं गुलाल झोली भरके। चोवा चावा चन्दन और अरघ जल, केशरकी गागर भरके ॥ बा० १॥ मस्तक मुकुट और जुग कुण्डल, आंगी जड़ाऊ झला झलके ॥ बा० २ ॥ बांहे बाजू वन्ध वहिरख विराजे, फूलन के गजरे सरके ॥ बा. ३ ॥ नाभिराया मरुदेवी को नन्दन, रमिये भवि आदेशर से ॥ बा. ४॥ आदि खान है दास तुमारो, तार लियो अपनो करके ॥ बा० ५॥ eadlidalatmlatabletstrial entetalaln iglanda Tonilial.lokala Indiwlnlodlminthiawanidalandafoein lalitlantiletalilaintinteletal .. . .. ...... Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఎదురhalithalu కుడుముకుందరదుడుకుడుకులను వర్మక स्तवन-विभाग AANANT AAAA AAAAAIAAAAAAAAAAAAAAAAA ma m tamatatafatalatkomlalittlelalahayatertailsahanaiakamanatalelonali-ladaTolailaalotoslmatalalakkela राग खम्भायची राज री वधाई बाजे छे, महाराज री वधाई बाजे छ । सरणाइ सिरे नौबत बाजे, घन ज्यूं गाजे छे ॥ महा० १॥ इन्द्राणी मिल मंगल गावे, मोतियन चौक पुरावे छ । महा० २ ॥ सेवक प्रभुजी से अरज करे छे, चरणारी सेवा प्यारी लागे छे ॥ महा० ३ ॥ होली स्तवनम् (राग वसन्त) ___ जय बोलो रे पास जिणेसर की ॥ ज० ॥ मस्तक मुकट सोहे मनमोहन, अंगिया सोहे केशर की ॥ ज० १ ॥ त्रिभुवन ज्योति अखंडित तन की, श्याम घटा जैसी जलधर की ॥ ज० २ ॥ बालपणे प्रभु अद्भुत ज्ञानी, करुणा कीधी विषधर की ॥ ज० ३ ॥ कमठ उडाल वाय ज्यं बादल, जीत करी अपणे घर की ॥ ज०४॥ मात वामा उदरे जिन जाया, राणी अश्वसेन नरेसर की ॥ ज० ५॥ अष्ट करम दल सबल खपाये, श्रेणि चळ्या जे शिवपुर की ॥ ज० ६॥ कहे जिनचन्द्र मेरे प्रभु पारस, जैसी छाया सुरतरु की ॥ ज० ७॥ वसन्त होली मधुवनमें जाय मची होरी ॥ म० ॥ ज्ञान गुलाल अबीर उड़ावो, सुमता केशर रङ्ग घोली ॥ म० १ ॥ अमृत रूप धरम जिनवर को, शुद्ध क्षमा कहे करजोड़ी ॥ म० २ ॥ (वसन्त होली) इक सुणले नाथ अरज मेरी ॥ इ० ॥ इह संसार गहर तरु सिंधू, भंवर पड़त जिहां भव फेरी ॥ इ. १॥ क्रोधादिक बहु मगर मच्छ हैं, ग्रह जंतु न करत देरी ॥ इ. २॥ ऐसे जलधि से पार करो तो, तारण 1 तरण विरुद तेरी ॥ इ. ३ ॥ धरम जिनेसर जग परमेसर, दूर करो दुखकी ३ बेरी ॥ इ. ४ ॥ परम क्षमा गुण लायक दायक, अनुपम कीरत जग तेरी ॥ इ.५॥ Goodbiheliantolmatalatalab lankariboriviantarikolavicoloriotcoindiasmodicleodoaslesdainionlineaalatasatiorealchtookcomtokolaharlietarbielatasbilashetilasardarinlalkolestmlsh kebadli.komhiha hittoh hikahtahlathkh aahetinml.sal.ki.kahani. नामग्याल नयनतालावन्न मन्जन्यमन्तजन्नत्रनालन्छ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ నుండassiడుకు దుండగుడుతనమును వందనందుకు పావనం जैन-रत्नसार vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv B1-1-1 datalalrlal Nokiatashlokitaantrlela lateratuhl tattattat kasari.fo sajaokarjath ohotocolaterloskelemkantakamlesian karobarathiwlotarakshah mmadidathok iskilaokesthlalaolestatitisakh khadkalahasabhitakhkhalafakhilestoniadiatalokalbelass GEE होरी हां हां रे यमुना तट धूम मचाई है री माई, नेम सांवरो खेले होरी ॥ यमु० ॥ दस दसाई ठाडे है घेरे, नीकी बनी है सुजन टोरी । नेम प्रभु को ब्याह मनावत, बत्तीस सहस संग लिये गोरी ॥१॥ भर पिचकारी नेम। मुख पर डारत, शृङ्गी छरत केशर घोरी । अबीर गुलाल को मंडप छायो, भाल रचत चन्दन घोरी ॥ यमु० २॥ होरी वसन्त धमाल सुर गावत, करत सेव यों झकझोरी । या उग्रसेन दुलारी विवाही, यों ही कहे भामा भोरी ॥ यमु० ३ ॥ मुसकाने प्रभु से खेल देखके, जग जंजाल दियो । छोरी । अमृत पद दायक दम्पति, रङ्ग नमें दोउ करजोरी ॥ यमु० ४ ॥ स्तवन होरी भर पिचकारी छोडूं तोरे चरन, तोरे चरन ॥ भर० ॥ अनन्तकाल मोहे भटकत बीते, कुमति कुटिलता भागी हरन ॥ भर० १॥ ज्ञान गुलाल अबीर संयम की, निज आतम ने धारी सरन । भर० २ ॥ शील हजारा सत का जल भर, सुमति केशर से करो न्हवन ॥ भर० ३॥ कु! गुरु कुदेव कुधर्म को त्यागो, शुद्ध समकित का राखो जतन ॥ भर० ४ ॥ संवत् उन्नीसौ छयानवे में, फागुन सुदी तिथि चौदस बनन । भर० ५ ॥ लक्ष्मणपुर सोंधि टोले में हैं गे, पारस प्रभू की हुई लगन ॥ भर० ६॥ शिव नगरी में आप विराजे, सूरज" को रख लो अपनी शरन । भर० ७॥ स्तवन होरी मेरे घट की गगरिया रङ्ग से भरी, शिवपुर को बात पूर्वी कब की ॐ यह स्तवन ॐ यु० प्र० वृ० भट्टारक श्री पूज्यनी श्रीजिन विजय रंग सरिजी महाराज का बनाया हुआ है। यह स्तवन रंग विजय खरतर गच्छीय जं. यु० प्र० वृ० भट्टारक श्री पूज्यजी श्री जिन स्न सूरिजी महाराज के शिप्य जेन गुरु पं० प्र० यति सूर्यमल्लजी ने सं० १६६६ फागुन सुदी १४ को बनाया है। Pak bhtinishinaththarthibahnol_tatulasala-KI-Printinentati onalathb . . Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतवन-विभाग w wwwwwwwwwwwwww Pri.irtinianimismirth-la-strinaateinathtuntstalkin.tandafortant Intmletstandartantulanielholariratnamalantatat torintinlaintsanle ३ खरी । मेरे० १ ॥ परम जोत प्रभु सिद्ध शिला पर, परमातम निज ध्यान ! धरी ॥ मेरे० २ ॥ मोहन रंग भरयो रंग शिवपुर, अजर अमर पद सुक्ख करी ॥ मेरे० ३॥ होरी सांवरो सुखदाई, जाकी छवि वरणी न जाई ॥ सांव० ॥ श्री अश्वसेन । वामा नन्दन की, कीरत त्रिभुवन छाई । सम्मेत शिखरगिरि मंडन प्रभुको, देख दरस हरखाई हृदय मेरो अति हुलसाई ॥ सांव० १॥ आज हमारे सुरतरु प्रगट्यो, आज आनन्द बधाई । तीन भुवन को नायक निरख्यो, प्रगटी पूर्व पुण्याई सफल मेरो जनम कहाई ।। सांव० २ ॥ प्रभु के दरस सरस बिन पाये, भव भव भटक्यो में भाई । अब प्रभु चरण शरण चित चाहत, बाल कहे गुण गाई ॥ सांव० ३ ॥ स्तवन रंग मच्यो जिनद्वार रे, चालो खेलिये होरी। पास प्रभू दरबार रे, फागुन के दिन चार रे ॥ कनक कचोरी केसर घोरी, पूजो विविध प्रकार रे ॥ चा० १ ॥ कृष्णागर की धूप घटत है, परिमल महके अपार रे ॥ चा० ई २॥ लाल गुलाल अबीर उड़ावत, पासजी के दरबार रे ॥ चा० ३ ॥ भर पिचकारी गुलाब की छिड़को, वामा देवी कुमार रे ॥ चा० ४॥ ताल मृदङ्ग ३ वीण ढफ बाजे, भेरी भुंगल रणकार रे । चा० ५॥ सब सखियन मिल नाटक करके, गावत मंगल सार रे ॥ चा० ६ ॥ रत्न सागर प्रभु भावना भावे, मुख बोले जयकार रे ॥ चा० ७ ॥ लावनो आगडदं आगड बाजे चौघडा, सवाई डंका साहेब का । छननन छननन आवाज होती, महल बनाया गगनों का ॥ कल्याण पारसनाथ । नामका, नित नित बाजे चौघड़ा । तीन लोकमें सच्चा साहिब, पार्श्वनाथ अवतार बड़ा ॥१॥ बनारसी नगरीमें तेरा जनम है, माता वामा के नन्दा ।। hahbi.kibabhbiharhi satoh aahhhhhhiphalosbhbhalafothla khulalah kte nola thaphalatalathkhthla sabhalatatalathorthlalitantalia- . ..... .. . . Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RUARVIDIOlgasesbhootibactabhabhkasabhooshitastichtdihstsite www.unarwww.ne ... ......... larkatrnh-latfkhab जैन-रत्नसार अश्वसेन के कुल में शोभे जैसा सरद पूनम चन्दा ॥ स्वर्गलोक में हुवा आनन्दा, इन्द्राणी मंगल गावे । तेतीस कोड देवता मिलकर, उच्छव करणे • आवे ॥ २॥ कोइ आवता कोइ गावता, कोइ नाम लेता देवा । चौसठ इन्द्र अरज करता, चन्द सूरज करता सेवा ॥ केइ सुर नर साहेब के आगे, अरज करंता खड़ा खड़ा । जिनके सरूप को पार न पावे, जिनका गुण है सबसे बड़ा ॥३॥ दूर देस से आया जोगी, बड़े जोर तपस्या करता । नीचे लगाता ज्वाला जोगी, बड़े बड़े झोंके खाता ॥ बारह बरस की उमर प्रभू की, छोटेपन में बहुत कला । बरोबरी के लिये सोवती, तपसी कू देखन चला ॥ ४ ॥ ज्ञान देखके बोले जोगीसे, ऐसी तपस्या क्यूं करता। ओ जोगी ! तेरे बड़े लकड़े में, बड़ा नाग इक अधजलता ॥ पारसनाथ जोगी सूं कहता, तो भी जोगी नहीं सुनता । लकड़े दिये फेंक जंगल में, लोक तमासा देखता ॥ ५ ॥ क्या किया बे जोगी तुमने बड़ा नाग को | जला दिया । दिया सार नवकार नाग कं, धरणीधर पदवी पाया । बड़ी उमेद से आया साहिब, सम्बत्सरी का दान दिया। मात पिता की आज्ञा लेकर, महाराज ने योग लिया ॥ ६ ॥ राज छोड़के चले जंगल में जुगती से काउसग्ग किया । बड़े धीर गम्भीर प्रभूने, तीन लोक में नाम किया ॥ उष्णकाल की बड़ी धूप में, निरंजन निराकार खड़ा । कमठासुर ने किया कडाका, नभ मण्डल बादल चढ़ा ॥७॥ उसी दिनमें कमठासुर ने, पिछला दावा जगवाया। मेघ माली की सेना लेकर, जल कू जलदी बुलवाया । बड़ा किया घनघोर जोरसे, पवन चलाया मतवाला । कडड कडडकर हुआ कडाका, बिजलीका उजवाला ॥८॥ मूसलधार मेघ बरसता, गगन गाजता चौताला । सात खूट की बड़ी झड़ी में, प्रभू खड़ा है मतवाला ॥ नाक बरोबर आया पानी, नाथ निरंजन धीर बड़ा । पराजय नहिं होय जिनूंका, ऐसा प्रभु का ध्यान चढ़ा ॥ ९ ॥ संकट से सिंहासन डोला, हुवा घण्टका आवाजा । अवधि ज्ञान से इन्हें देखा, धाओ धाओ धरणी राजा ॥ धरणी धर जलदी से आया, पदमावती कू संग लिया । पदमावती ने लिया शीश अत्रत्रयाययक्रमका नननननननननननननननननननननननननननननननन प्रणालमनाममा मानना -Kbhbhitalththi -HESAREEREalkhkhkhalalsoteAnch.kEIntensist -1-1......... .... . . ... " Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ja स्तवन-विभाग ५२७ पर, शेषनाग ने छत्र किया ॥ १० ॥ क्रोड उपाय किये कमठा ने, कुछ भी काम नहीं चलता । तरणे वाला साहिब उनकूं, छलनेवाला क्या करता ॥ जीते श्री जिनराज हारके, कमठ हाथ दो जोड़ खड़ा । धरणीधर साहिब के आगे, अरजी करता खड़ा खड़ा ॥ ११ ॥ केवल पाय शिव पद कं पहुंचे, पार्श्वनाथ शुभ मतवाला । लगी ज्योतमें ज्योति दीप की, तपे तेजका अजुवाला । व्रीस नगर पार्श्वनाथ का, देवल बनाया तेताला || बड़े देवल में इन्द्र ही सोहे, घण्ट बाजता चौताला ॥ १२ ॥ बड़ी जुगत से सिंहासन कर, कोट बनाया देवल का । जगह जगह पर शिखर चढ़ाया, दरवाजा शुभ केवलका || भामण्डल के आगे शोभता, मूल गम्भारा आरस का || १३ || पीछे पच्चीस देरियां सोभित, सिरे काम सिंहासन का । मूल नायक के ऊपर सोहे, सहसफणा प्रभु पारस का । चौमुख की चतुराई बनी है, वह काम है सारस का ॥ अढारेसे पैंसठ सवाई, मुहुर्त्त फागण मासे भला । सुदी तीज कूं तखते बैठें जगह जगह पर नाम चला ||१४|| देश देशके संघ बहु मिलकर, तेरे दर्शन आया । जगतगुरू जिनराज जगतमें, बड़ी तेरी अक्कल माया । धर्मचन्द जोड़ता सवाईने बड़ा साहमी वात्सल किया । सकल संघकी आज्ञा लेकर, बड़ा शिर निशान दिया ॥१५॥ करमचन्दने देवचन्दने खेमचन्दने खूब किया। पारसनाथ कुं तखत बैठाकर जगह जगह पर नाम किया || कीर्त्ति बिजय गुरुराज, कूं प्रणमू पाय गुरूका राज बड़ा गुलाबचन्द साहेब के आगे, जिन सासनका काम बड़ा || १६ || तेजा गाता चंग रंगमें, ज्ञान ध्यान में खड़ा खड़ा । हाथ जोड़के अरजी करता, पारसनाथजी तूं ही बड़ा ॥ बड़ा काम तेरे है साहिब, मुखसे नहिं कहणे आता । शिवरमणी कूंबरी है जिनजी भविजन कू सुखके दाता ॥१७॥ आदि जिनेसर पारणो आदि जिनेसर कियो पारनो, आ रस सेलडी || आ० || घडा एक सौ आठ सेलडी, रस भरिया छे नीका । उलट भाव श्रेयांस वहिरावे, मांड Y, Yeoloods in tests fortnitoday tet, toil, trts [Y].1. Yrlotte in to Yo Yo Yo Yo Yo Yo Yuganta Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ వలన అవయవమునందనవుడు చదవడం जैन-रत्नसार wwwwwwwwwwoniniwaona wwwwwwwww vvi v h Far!! rate linkyainik ratesakal. kay karki ki-t-23.... a दिवी आबूकारे ॥ आ० १॥ देव दुंदुभी बाज रही है, सोनइयारी बरखा। बारे मास सों कियो पारनो, गई भूख सब तिरखा रे ॥ आ. २॥ ऋद्धि ।। सिद्धि कारज मनोकामना, घर घर मंगलाचार । दुनिया हरख बधामणा । सिरे, आखा तीज तिवहार रे ॥ आ० ३ ॥ श्री शजा सिद्धक्षेत्र है, मोटो कहिये धाम । श्री संघ का मनोरथ पूरे, पूरे मोटा खाम रे ॥ आ०४॥ संकट काटो विघन निवारो, राखो मेरी लाज । बे करजोड़ी नानू कहता, ऋषभदेव महाराज रे ॥ आ० ५॥ ऋषभ जिनेसर पारणो हथनापुर में ऋषभ जिनेसर किया पारनो । जन्म लियो प्रभु नगर विनीता, नाभी राजा नंद । मरुदेवी माताकी कुंखे, आयो आनंद कंद ॥१॥ इन्द्रादिक मेरू पर्वत पर, इन्द्राणी मिल संग । अट्ठाई महोत्सव करने के हित, लाए गुण भगवंत ॥२॥ ले दीक्षा प्रभु विचरण लागे, प्राप्त कियो शुभ ज्ञान । विचरत विचरत हथनापुर में, आये दया निधान ॥३॥ दर्शन से श्रेयांस कुमर के, हिय में उपजा ज्ञान । शीश नमाय प्रभू को दीना, शुद्ध भाव से दान ॥४॥ इथू रस से किया पारणा, घड़ा एक सौ आठ। पुरवासी सब मुदित हुए, तब निरख करम का नाठ ॥५॥ देव दुन्दुभी बाजन लागी, सोनइयां की वरषा। आखा तीज परव का दिन है, सूरज* का मन हरषा ॥६॥ नव पदजी की लावणी जगत में नवपद जयकारी, पूजतां रोग टले भारी । प्रथम पद तीर्थपती राजे, दोष अष्टादशकू त्याजे । आठ प्राति हारज छाजे, जगत प्रभु गुण बारे साजे ॥ अष्ट कर्म दल जीतके, सकल सिद्धि ते थाय । सिद्ध अनंत भजो बीजे पद, एक समय शिव जाय ॥ प्रकट भयो निज स्वरूप * भारी ॥ जगत. १ ॥ सूरि पद में गौतम केशी, ओपमा चंद सूरज जैसी । * यह स्तवन रंग विजय खरतरगच्छीय श्री पूज्यजी श्री जिन रत्न सूरिजी महाराज के : शिष्य जैन गुरु पं० प्र० यति सूर्य मल्लजी ने बनाया है। प्रजननयन्त्रलयनननननननननननननननननयन्त्र तट बनल्यान्वन्धनन्जनत्रनयनननन्यनयनननननननन a darlimatalabanadhi mire ....... Patrinesire - ५ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग R Yktakke ยะและโคะ จนไดได้ใate Stereใจให้ด้วยนะคะ ใคร LLERurall-EntitatuteAERTREETatatutiHET-KE-lifaSYArtistKEIRELECTRESENYELEAKERKARE-REAKKHESARIEEEEEEKKERA ५२६ उवार यो राजा परदेशी, एक भव मांहे शिव लेशी ॥ चौथे पद पाठक नमू, श्रुतधारी उवझाय । सव्व साहु पंचम पदे, धन धन्नो मुनिराय ॥ वखाण्यों वीर जिनन्द भारी ॥ जगत० २ ॥ द्रव्य षट् की श्रद्धा आवे, सम संवेगादिक पावें । बिना यह ज्ञान नहीं किरिया, जैन दर्शन से सब तिरिया । ज्ञान पदारथ सातमें, पद में आतमराम । रमतारम्य अध्यातमें, निज पद साधे काम ॥ देखता वस्तु जगत सारी ॥ जगत० ३ ॥ जोग की महिमा बहु जाणी, चक्रधर छोड़ी सब राणी। यती दश धरम करी सोहे, मुनि श्रावक सब मन मोहे । करम निकाचित काटवा, तप कुठार कर ल्याय । क्षमा युत नवमां पद धरें, कर्म मूल कट जाय ॥ भजो तुम नवपद सुखकारी ॥ जगत० ४ ॥ श्री सिद्ध चक्र भजो भाई, आचामल तप विधि से थाई । पाप त्रिहुं जोगे परिहरजो, भाव श्रीपाल तणे करजो। संवत् उगणीसे सतरा समें, जयपुर श्रीजिन पाश । चैत्र धवल पूनम दिने, सफल फली मुझ आश ॥ बाल कहे नवपद छवि प्यारी ॥ जगत० ५ ।। पञ्चदश तिथि स्तवन सुगुण सनेही साजन श्री सीमंधर स्वाम, अरज सुणो एक जग गुरु मुझ आशा विसराम । पूरव विदेहें विजय भली पुक्खलावई नाम, जिहां विचरे जिनवरजी धन ते नयरी गाम ॥१॥ धन ते लोक सुणे जे योजन गामिनी वान, धन ते महियल चरण धरे जिहां जिनवर भान । धन ते भविजन जे रहे प्रभु ताहरे परसंग, वदन कमल निरखी नित्य माने उत्सव अंग ॥२॥ सुगुरु मुखें प्रभु सुजस तुम्हीणों सांभल कान, मिलवाने हुलसे मन माहरूं धरूं एक ध्यान । भगति जुगति करवानी छे मुझ सघली जोड़, पण प्रभु लग पहुंची जे तेह नहीं पग दोड़ ॥३॥ आडा डूंगर अति धणा विच वहे नदियां पूर, किम मुझ थी अवरावे प्रभुजी एटली दुर । आंखड़ली उलझो करे जोयवा मुख जिनराज, पांखडली पाई नहीं ते विन किम सरे काज ||en वाटड़ली वहेतो कोई न मिले सेंगू साथ, कागलियो लिख आफू हूं जिम तेहने हाथ । जाणुं शशिहर साथे कहुं संदेशो जेह, पण ได้ใจจในไตในใจได้ในคได้ชัดจะไดไม่ได้สนใจให้ใจได้ใกล้ไว้ใจได้ในใจ ให้ได้ ไม่ได้ไปไกลในงานได้ ดใจไม่ไปไม่ได้ 67 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रत्नसार ५३० अलगो थई ऊपरि वाडे निकले तेह ||५|| जो कोई रीतें प्रभुजी, तुम थी यहीं अवाय, तो इण भरतना वासी भविजन पावन थाय । साहिब नी तो सुनजर सघले सरखी होय, पन पोतानी प्राप्ति सारूं फल प्रति जोय ॥६॥ अलगो छू पण माहरे तुमसूं साची प्रीत, गुण गुणवंतना आवे हियड़े खि खिण चित्त | हूं छू सेवक तूं छे माहरो आतमराम, न हिय विसारूं जी ज्यां लगि ताहरूं नाम ||७|| साचे दिल थी मुझ सूं धर जो धरम सनेह, करुणाकर प्रभु कर जो मोपरि महिर अछेह । दुसम काल तणो दुःख टालो दीनदयाल, पालो विरुद संभालो निज सेवक सं कृपाल ||८|| आशविलुद्धा अलग थकी पण करे अरदास, पण मोटानी महिर छतां नवि थाय निराश | केई से प्रभु पासे केई बसे छे दूर, राज महिर नी रीतें सकल ने जाणें हजूर ||९|| शिव सुखदायक नायक लायक स्वामिसुरंग, ध्यायक ध्येय स्वरूप लहे आत्म उमंग । सहिजें एक पलक तो थाये प्रभु तुझ संग, लाभ उदय जिनचन्द्र लहे नित प्रेम अभंग ॥१० द्वितीया का स्तवन सकल संसार अवतार ए हूँ गणं, सामि सीमंधरा तुम्ह भगते भं । भेटवा पाय कमल भाव हियडे घणो, करिय सुपसाय जे वीनवूं ते सुणूं ॥१॥ तुम्ह सं कूड अरिहन्त सू' राखिये, जिस्यो अछे तिस्यो कर जोड़ि करि भाखये । अति सबल मुझ हिये मोह माया घणी, एक मन भगति किम करूं त्रिभुवण घणी ||२|| जीव आरति करे नव नवी परिगडे, रीश तेंम चटको चढ़े लोभ वयरी नड़े । वयण रस नयण रस काम रस रसियो, अरिहन्त तू हि नवी वसियो ||३|| दिवस ने राति हियड़े अनेरो धरूं मूढ़ मन रीझवा बलिय माया करूं । तू ही अरिहन्त जाणे जिस्यो आचरूं ते कर जेम संसार सागर तरूं || ४ || कर्म्मवसि सुक्खने दुःख जेहूं सहूं, मन तणी बात अरिहंत किणने कहूं । करि दया करि मया देव करुणा परा, दुःख हरि सुक्ख करि सामि सीमंधरा ॥५॥ जाण संयोग आगम वयण पण सुनूं, धर्म ने कराय प्रभु पाप पोते घनूं । एक अरिहंत तू देव बीजो नहीं, Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ipentalestatinath totsabritientiable PRERAKESHEKSEEatoladakaabtakkasstatpattpakDESOSED स्तवन-विभाग ५३१ anRRAA AAAAAAA ghboratibakohex एह आधार जग जाण जो अह्म सही ॥६॥ धण कणय माय पिय पुत्त परियण सहूं, हस्यो बोलो रम्यो रंग रातो बहूं । जयो जयो जग गुरु जीव जीवन धरा, तुझ समोवड नहीं अवर वाल्हे सरा ॥७॥ अमिय सम वाणि जाणे सदा सांभलू, बार परषदा मांहि आवी मिलू। चित्त जाणूं सदा सामि पाय जे लगू, किम करूं ठाम पुंडरगिरी वेगलूं ॥८॥ भोलिड़ा भगति तूं चित्त हारे किस्ये, पुण्य संयोग प्रभु दृष्टि गोचर हुस्ये। जेहने नामे मन वयण तन उल्लसे, दूर थी दूकडा जेम हियड़े वसे ॥९॥ भला भलो एणि संसार सहु ए अछे, सामि सीमंधरा ते सहू तुम पछे। ध्यान करतां सुपन मांहिं आवी मिले, देखिये नयण तो चित्त आरति टले ॥१०॥ सामि सोहामणा नाम मण गह गहे, तेहसू नेहजे बात तुम्हरी कहे । तुम्ह पद भेटवा अति घणो टलवलू, पंख जो होय तो सहिय आवी मिलूं ॥११॥ मेरु गिरि लेखणी आम कागल करूं, क्षीर सागर तणा दूध खड़िया भरूं । तुम्ह मिलवा तणा सामि संदेशड़ा, इन्द्र पण लखिय न सके अछे एवड़ा ॥१२॥ आपणे रंग भरि बात मुख जे टली, ऊपजे सामि न कहाय मुख तेतली । सुणो सीमंधरा राज राजेसरा, लाड़ ने कोड़ प्रभु पूर सवि माहरा ॥१३॥ पुव्व भवि मोह वश नेह हुवे जेहने, समरिये एणि संसार नित तेहने । मेह नो मोर जिम कमल भमरो रमे, तेम अरिहंत तूं चित्त मोरे गमे ॥१४॥ खरो अरिहंत ध्यान हियड़े वस्य, बापडू पाप हिव रहिय करशे किस्यू। ठाम जिम गरुडवर पंखि आवे वही, ततखिण सर्प नी जाति न सके रही ॥१५॥ पाप में कन्ज सावज सहु परिहरी, सामि * सीमंधरा तुम्ह पय अणुसरी । शुद्ध चारित्र कहिये प्रभू पालसू, दुःख भंडार संसार मय टालतूं ॥१६॥ तुम्ह हूं दास हूं तुम्ह सेवक सही, एह में बात । अरिहंत आगल कही । एवड़ी म्हारी भक्ति जाणी करी, आप जो बाप जी म सार केवल सही ॥१७॥ एम ऋडि वृद्धि समृद्धि कारण, दुरित वारण । सुख करो । उवझाय वर श्री भक्ति लाभे, थुण्यो श्री सीमंधरो ॥ जय जयो . जग गुरु जीव जीवन, करी सामि मया धणी । करजोड़ि वलि वलि वीनवू, प्रभु पूरो आशा मन तणी ॥१८॥ a aditiohilosindialistikokhaneshSMANAYANEMLamlabha63610566okGARIMARKEXRAKH A NDKhatadine Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అనుభవంతులనండదని నననననననాన ననన నననన जैन-रत्नसार wwwwwwwwwwwwwww wwwwimwan Plants mata24 tari पंचमी वृद्ध स्तवन प्रणमं श्री गुरु पाय, निर्मल ज्ञान उपाय । पांचमि तप भणं ए, जनम सफल गिणं ए ॥१॥ चउवीसमो जिनचन्द, केवल ज्ञान दिनन्द । त्रिगडे गह गह्यो ए, भवियण ने कह्यो ए ॥२॥ ज्ञान बहू संसार, ज्ञान मुगति दातार । ज्ञान दीवो कह्यो ए, साचो सर्द ह्यो ए ॥३॥ ज्ञान लोचन सुविलास, लोकालोक प्रकाश । ज्ञान बिना पशु ए, नर जाने किस ए ॥ll अधिक आराधक जान, भगवति सूत्र प्रमान । ज्ञानी सर्व तु ए, किरिया देशतु ए ॥५॥ ज्ञानी श्वासोश्वास, करम करे जो नाश । नारकी ने सही ए, कोड वरस कहि ए ॥६॥ ज्ञान तनो अधिकार, बोल्यां सूत्र मझार । किरिया छे सहि ए, पण पाछे कहि ए ॥७॥ किरिया सहित जो ज्ञान, हुए तो अति परधान । सोना ने सूरो ए, शंख दूधे भरयो ए ॥८॥ महा निषीथ मझार, पांचमि अक्षर सार । भगवंत भाखियो ए, गणधर साखियो । ए॥९॥ ॥ ढाल॥ पांचमि तप विधि सांभलो, जिम पामो भव पारो रे। श्री अरिहंत इम उपदिसे भवियन ने हितकारो रे ॥ पां० १० ॥ मगसर माह फागुन भला, जेठ आषाढ़ वैशाखो रे । इण षट् मासें लीजिये शुभ दिन सद्गुरु साखो रे पां० ११॥ देव जुहारी देहरे, गीतारथ गुरु वंदी रे । पोथी पूजो ज्ञाननी, सगति हुवे तो नन्दी रे ॥पां० १२॥ बेकरजोड़ी भाव सं, गुरुमुख * करो उपवासो रे । पांचमि पडिक्कमणो करो, पढो पंडित गुरु पासो रे ॥ . पां. १३ ॥ जिन दिन पांचमि तप करो, तिन दिन आरंभ टालो रे ।। पांचमि स्तवन थुई कहो, ब्रह्मचरिज पिणपालो रे ॥ पां. १४ ॥ पांच मास लघु पंचमी, जावज्जीव उत्कृष्टी रे । पांच वरस पांच मासनी, पांचमि करो शुभ दृष्टि रे ॥ पां. १५ ॥ ॥ ढाल ॥ हिव भवियन रे पांचमि ऊजमणो सुणो, घर सारू रे वारू धन raRSEENERY Et-to -RLShinine- linetm24 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग ५३३ खरचो घणो । ए अवसर रे आवतां बलि दोहिलो, पुण्य जोगें रे धन पामंतां सोहिलो ॥ सोहिलो बलिय धन पामतां पण, धर्म काज किहां बली । पांचमी दिन गुरु पास आवी, कीजिये काउसग्ग रली ॥ त्रण ज्ञान दरसन चरण टीकी, देइ पुस्तक पूजिये थापना पहिली पूज केशर, सुगुरु सेवा कीजिये ||१६|| सिद्धान्तनि-रे पांच परति विटांगणा, पांच पठारे मखमल सूत्र प्रमुख तणां । पांच डोरा रे लेखण पांच मजीसणा, बासकूपा रे कांबी चारू वरतणां ॥ वरतणां वारू वलिय कमली, पांच झिलमिल अति भली । स्थापना चारज पांच ठवणी, मुहपत्ति पड़ पाटली ॥ पट सूत्र पाटी पंच कोथल, पंच नवकर बालियां । इन परे श्रावक करे पांचमि, उजमणें उजवालियां ॥१७॥ वलि देहरे रे स्नात्र महोत्सव कीजिये, घर सारू रे दान वली तिहां दीजिये । प्रतिमानी रे आगल ढोवणां ढोइये, पूजानों रे, जे जे उपगरण जोइये || जोइये उपगरण देव पूजा काज कलश शृङ्गार ए, आरती मङ्गल थाल दीवो धूपदाणूं सार ए । घन सार केशर अगर सुखड अंगलूहणं दीस ए, पंच पंच सघली वस्तु ढोवो सगति सं पचवीस ए ॥१८॥ पांचमीता रे सहमी सर्व जिमाड़िये, रात्रि जोगें रे गीत रसाल गवाडिये । इम करनी रे करतां ज्ञान आराधिये, ज्ञान दरसन रे उत्तम मारग साधिये ॥ साधिये मारग एह करनी ज्ञान लहिये निरमलो, सुरलोक में नरलोक मांहे ज्ञानवंत ते आगलो । अनुक्रमें केवल ज्ञान पामी सासता सुख जे लहे, जे करे पंचमि तप अखंडित वीर जिनवर इम कहे ||१९|| कलश इम पंचमी तप फल प्ररूपक, बर्द्धमान जिनेसरो। मैं थुण्यो श्री अरिहंत भगवन्, अतुल बल अलवेसरो ॥ जयवंत श्री जिनचन्द्र सूरज, सकल चन्द्र नमंसियो । वाचना चारज समय सुन्दर, भक्ति भावे प्रशंसियो ||२०|| पञ्चमी स्तवन पंचमि तप तुम करो रे प्राणी, जिम पामो निर्मल ज्ञान रे । पहलू ज्ञान ने पाछे किरिया, नहीं कोई ज्ञान समान रे || पं० १ ॥ नंदीसूत्र Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RIGIARIPTIPRETARIANISelederlandaltetationalistialistadotketaksisetalenteditatistatisticattatatateratotoharat wwwwwwwwwwwwwwww AMERADESH RAMANEPAR+ जैन-रत्नसार मां ज्ञान वखाणू ज्ञान ना पांच प्रकार रे। मति श्रुति अवधि अने मन पर्यव, केवल ज्ञान श्रीकार रे ॥ पं० २॥ मति अट्ठावीस श्रुत चउदह वीस, अवधि छे असंख्य प्रकार रे । दोय भेद मन पर्यव दाख्यो, केवल एक उदार रे ॥ पं० ३ ॥ चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा, तेज सुं तेज आकाश रे । केवल ज्ञान समू नहीं कोई, लोकालोक प्रकाश रे ॥ पं० ४ ॥ पारसनाथ पसाय करी ने, माहरी पूरो उमेद रे। समय सुन्दर कहे हूं पण पामू, ज्ञान नो पंचमो भेद रे ॥ पं०५॥ अष्टमी स्तवन अमल कमल जिम धवल विराजे, गाजे गौडी पास । सेवा सारे जेहनी सुर नर, मन धरिये उल्लास ॥१॥ सोभागी साहिब मेरा वे, अरिहा सुज्ञानी पास जिणंदा। सुन्दर सूरति मूरति सोहे, मो मन अधिक सुहाय पलक पलक में पेखतां मानु, नव नवि छबि देखाय ॥२॥ भव दुःख भंजन जन मन रंजन, खंजन नयन सु रंग। श्रवणें सुणी गुण ताहरा, महारा विकस्या अंगो अंग ॥३॥ दूर थकी हूं आयो वहिने, देव लह्यो दीदार । प्रारथियां पहिडे नहीं, साहिबा एह उत्तम आचार ॥४॥ प्रभु मुखचन्द विलोकित हरषित, नाचत नयन चकोर । कमल हसे रवि देखिने, जिम जलधर आगम मोर ॥५॥ किसके हरिहर किसके ब्रह्मा, किसके दिलमें राम । मेरे मनमें तूं बसे, साहिब शिव सुख नो ही ठाम ॥६॥ माता वामा धन्य पिता, जसु श्री अश्वसेन नरेस । जनमपुरी बाणारसी, धन धन काशी नो देश ॥७॥ संवत् सतरेसे चावीसें, वदि वैशाख वखान । आठम दिन भले भावसं, म्हारी यात्र चढ़ी परिनाम ॥८॥ सांनिधकारी विघ्न निवारी, पर उपगारी पास, श्री जिनचन्द जुहारतां, मोरी सफल फली सहु आस ॥९॥ दशमी वृद्ध स्तवन पास जिनेसर जगति लोए, गबड़ी पुर मण्डण गुण निलोए । तवन करिस प्रभुताहरो ए, मन वंछित पूरो माहरो ए ॥१॥ नयरी नाम बणारसि ए, सुर नयरी जिम रिद्धे बसि ए । तेण पुरी छे दीपतो ए, अश्वसेन राजा Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ సైతం PrArorammarAmAAMRAPremarrianimanmandarmanorama स्तवन-विभाग रिपु जीपतो ए ॥२॥ वामा तसु धरि नार ए, तमु गुणहि न लब्भे पार ए। तासु उदर अवतार ए, तसु अतिसय रूप उदार ए ॥३॥ चवद सुपन तिण निसि लह्या ए, अनुक्रम करि ते सहु मन गह्या ए। पूछे भूपति ने कह्या 1ए, कर जोडि कह्या जे जिम लह्या ए ॥४॥ प्रथम सुपन गज निरख्यो, | माय तणो मन हरख्यो । बीजे वृषभ उदार, धरणी जिण धरयो भार ॥५॥ | तीजे सिंह प्रधान, जसु बल कोई न मान । चउथे देखी श्री देवी, कमल 1 बसे सुर सेवी ॥६॥ पांचमे पुष्फनी माला, पंच वरण सुविशाला । छडे दीठो ए चन्दो, ग्रहगण केरो ए इन्दो ||७|| सातमे सूरज सार, दूर कियो अन्धकार । आठमें धजह लहकती वरण विचित्र सोहन्ती ॥८॥ नवमें पूरण कुम्भ भरियो निरमल अंभ । देखि सरोवर दशमें, मनह थयो अति विशमें ॥९॥ समुद्र इग्यारमें ठामें, खीर जलधि जसुनामें । बारम देव विमान, वाजिन ध्वनि गीत गान ॥१०॥ तेरम रतननी रासी, दह दिशि ज्योति प्रकाशी । * सुपन चवद में ए दीठो, पावक धूम थि मीठो ॥११॥ सुपन कह्या सुविचार, हरख्यो भूप उदार । पुत्ररतन होस्ये ताहरे, थास्ये उदय हमारे ॥१२॥ चवद सुपन श्रवणे सुणी, हरख कियो सुविचार | सुन्दर सुत तुमे जनमस्यो, कुल दीपक आधार ॥१३॥ वामा प्रीतम वचन सुनी आवी मन्दर झत्ति, देव सुगुरु कीरति करी, जनम कियो सुकयत्थ ॥१४॥ इण अनुक्रमि ऊग्यो दिवस, कीधा सुपन विचार । ते घरि पहुंता आपणे, दीधा दान अपार ॥ ॥१५॥ हिव जनम्या जग गुरू जगत हुओ जयकार, खिण इक नारकिये पायो सुख अपार । दिशि कुमरी मिलकर सूत्र करम निशि कीध, करि थानक पहुंती वंछित तेहनो सीध ॥१६॥ तिण हिज निशि चौसठ इन्द्र मिली तिहां आवे, लेई निज भगते सुर गिर स्नात्र करावें । करि जनम महोच्छव जननी पासे ठावे, तिहाथी सुर सब मिली दीप नंदीसर जावें॥१७॥ इम रयण विहाणी ऊगो दिवस उदार, घर घर गाईजे कीजे मंगलाचार । . इग्यारम दिवसे मिली सहू परिवार, तसु नाम दियो श्री उत्तम पास कुमार ॥१८॥ प्रभु बाधे दिन दिन कला करी जिम चन्द, त्रिहूं ज्ञान विराजित रूप जिसो देविन्द । गुण कला विचक्षण विद्या तणोय निधान, यौवन वय takaalmatalakSHESENSESASARSHAGRIHEMALEXXXXMMERAMAktakkkkkk k kk MEMARA LLELLA Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-1-YYYYY KKKKKKK ५३६ जैन - रत्नसार आयो परणायो राजान ||१९|| कुमर पदे प्रभु रहितां काल सुखें गमे ए, आयो मन वैराग संयम लेवा समे ए । तब लोकान्तिक देव जणावे अवसरु ए, देइ सम्वत्सरी दान याचक जन सुख करूं ए ||२०|| स्वामी संयम लेइ इन्द्रादिक सब मिल्या ए, देश विदेश विहार करी करम निरदल्या ए । पामिय केवलज्ञान सरे महिमा करिए, थापिय चउविह संघ मुगति रमणी are ||२१|| इम श्री गौड़ी पास तणा गुण जे नर गावें, तेह नर नारी इह परलोकसुं वंछित पावें । संघ करी संघ पतीजी के गवड़ी पुर जावें, चीर धाड़ संकट टले विघन बुराइन आवे ||२२|| धरणराय पउमावइ जास बहे सिर आण, सांवल वरण सुशोभित नवकर काय प्रमाण | कल्पवृक्ष चिन्तामणि काम गवी सम तोले, श्री गुणशेखर सीस समय रंग इणपरि बोले ||२३|| 1 wwwwww www.w मौन एकादशी का स्तवन समवसरण बैठा भगवन्त, धर्म प्रकाशे श्री अरिहन्त । बारे परषदा बैठी जुड़ी, मगशिर शुदि इग्यारस बड़ी || १ || मल्लिनाथ ना तीन कल्यान, जनम दीक्षा ने केवलज्ञान । अर दीक्षा लीधी रूवड़ी || मग० २ || नमिने उपनों केवलज्ञान, पांच कल्याणक अति परधान । ए तिथि नी महिमा ए बड़ी ॥ मग० ३ ॥ पांच भरत ऐरवत इमहीज, पांच कल्याणक हुए तिमहीज पंचासनि संख्या परगडी ॥ मग० ४ ॥ अतीत अनागत गनता एम, डेढ़ से कल्याणक थायें ते । कुण तिथ छे ए तिथि जे बड़ी || भग० ५ ॥ अनन्त चौवीसी इन परें गिनो, लाभ अनन्त उपवासा तनो । ए तिथि सहु तिथि शिर राखड़ी || मग० ६ ॥ मौन पने रह्या श्री मल्लिनाथ, एक दिवस संयम व्रत साथ । मौन तनी परी व्रत इम पड़ी || मग० ७ ॥ अट पहरी पोसो लीजिये, चौविहार विधि सूं कीजिये । पण परमाद न कीजे घड़ी || मग० ८ || बरस इग्यार करो उपवास, जावज्जीव पन अधिक उलास । ए तिथि मोक्ष तनी पावड़ी || मग० ९ ॥ ऊजमणं कीजे श्रीकार, ज्ञान नां उपगरण इग्यार इग्यार । करो काउसग्ग गुरु पायें पड़ी || मग० Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yalat i nacai-Bhaal-CollariasthaiklnahaG-RAKAkkalkatae स्तवन-विभाग ननवभत्रनयनपत्रमनप्रणयन्त्रन्त्र-मन्त्र नमानयत्रचन्चनप्रवचत्रवनमन्त्र HAKHAamlahabatolaalaykhatatahshobhosalbokko ka l akatalath ॥१०॥ देहरे स्नान करीजे वली, पोथी पूजीजे मन रली । मुक्तिपुरी कीजे दुकड़ी ॥ मग० ११ ॥ मौन इग्यारस मोटू पर्व, आराध्यां सुख लहिये सर्व । व्रत पञ्चक्खाण करो आखड़ी ॥ मग० १२ ॥ जेसल सोल इक्यासी समें, कीबूं स्तवन सहू मन गमे । समय सुन्दर कहे द्याहड़ी ॥ मग० १३॥ चउदह गुणठाणों का स्तवन सुमति जिणंद सुमति दातार, वंदु मन सुध बारम्बार, आणी भाव अपार । चवदे गुण थानक सुविचार, कहिस्यूं सूत्र अरथ मन धार, पामें जिम भव पार ॥१॥ प्रथम मिथ्यात कह्यो गुण ठाणों, बीजो सास्वादन मन आणों, तीनो मिश्र वखाणो। चौथो अविरत नामनो, देश विरति पंचम परमानो, छटो प्रमत्त पिछा५ ॥२॥ अप्रमत्त सत्तम लही जे, अष्टम अपूरव करण कहीजे, अनित्त नाम नवम्म । सूखम लोभ दसम सुविचार, उपशांत मोह नाम इग्यार, खीण मोह बारम्म ॥३॥ तेरम संयोगी गुणठान, चउदम थयो अजोगी नाम, वरणू प्रथम विचार । कुगुरु कुदेव कुधर्म बखाणे, ए लक्षण मिथ्या गुण ठाणे, तेहनां पांच प्रकार ॥४॥ ( सफल संसारनी ) जेह एकांत नय पक्ष थापी रहे, प्रथम एकांत मिथ्यामती ते कहे ॥५॥ जैन शिव देव गुरु सहु नमे सारखा, तृतीय ते विनय मिथ्यामती पारिखा ॥ सूत्र नवि सरदहे रहे विकलप घणे, संसयी नाम मिथ्यात चौथो भणे ॥६॥ समय नहिं काय निज धंद राता रहे, एह अज्ञान मिथ्यात्व पंचम कहे । एह अनादि अनंत अभव्यने, करिय अनादि थिति अंत सुभव्यनें ॥७॥ 5 जेम नर खीर घृत जीमने वमें, सरस रस पय वलि स्वाद केहवो गमें । चौथ पंचम छठे ठाण चढ़ने पड़े, किणहि कषाय वस आय पहले अड़े ॥८॥ * रहे विच एक समयादि षट् आवली, सहिय सासादने थित इसी सांभली । 3 हिव इहां मिश्र गुण ठाण तीजो कहे, जेह उत्कृष्ट अंतर मुहूरत लहे ॥९॥ (वे करजोड़ी वाम ) पहिला चार कषाय सम कर समकिती, केतो सादि मिथ्यामती ए। मययनपश्रममनप्रणयन्त्रण " i bahibalhotohtalotatotoninhathlalithaathhilaiba hota halateletailsina Tamaha TaTeet *"*1*14011035 68 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wolodimanolonielhuletoob linetEleplanelevisi-files-in-Jasalimlassistmle-losolesalenligalissalaanayesentstabbtalestatestate ___ जैन-रनसार lita thrrysneharka laaloolataladabhatatatates t a उमण जनजनमत्रप्रनयन प्रश्रित्र ननननननननननननननननननननननननन प्रयत्र-तत्रनयनपत्रण नयनत्रनमात्रय * ए बेहिज लहे मिश्र सत्य असत्य जहां, सर दहणां बेऊ छती ए ॥१०॥ मिश्र गुणालय माहिं मरण लहे नहीं, और बंधन पड़े नवो ए। के तो लहे मिथ्यात्व केसर समकित लहे, मति चोखी गति परभवे ए ॥११॥ च्यार अप्रत्याख्यान उदय करि लहे, मति विन किहां समकित पणो ए। ते अविरत गुण ठाण तेतीस सागर, साधिक थिति एहनी भणी ए ॥१२॥ दया उपशम संवेग निरवेद आसता, समकित गुण पांचे धरे ए । सहु जिन वचन प्रमाण, जिन शासन तणी अधिक अधिक उन्नत करे ए ॥१३॥ कइयक समकित पाय पुद्गल आराधतां, उत्कृष्टा भव में रहे ए। कइयक भेदी गंठि अंतर मुहूरते, चढ़ते गुण शिवपद लहे ए ॥१४॥ चार कषाय प्रथम त्रिण वलि मोहनी, मिथ्या मिश्र सम्यक्त्वनी ए । सातें प्रकृति जास परही उपशमें, ते उपशम समकित धणी ए ॥१५॥ जिण साते क्षय कीध ते नर क्षायकी, तिण हिज भव शिव अनुसरे ए। आगलि बांध्यो आऊ तातें तिहां थकी, तीजे चौथे भव तिरे ए ॥१६॥ (इण पुर कम्बल कोइ लेसी) पंचम देस विरति गुणठाण, प्रगटे चौकड़ी प्रत्याख्यान । जे नतजेवा बीस अभक्त, पाम्यो श्रावक पणो प्रत्यक्ष ॥ १७ ॥ गुण इकवीस तिके पिण धारे, साया बारे व्रत संभारे । पूजादिक षट् कारज साधे इग्यारे प्रतिमा आराधे ॥ १८ ॥ आर्त रौद्र ध्यान है मन्द, आयो मध्य धरम आणंद । आठ बरस उणी पुव्व कोड़, पंचम गुणठाणे थित जोड़ ॥ १९ ॥ हिव आगे साते गुण थान, इक इक अंतर मुहुरत मान । पंच प्रमाद वसे जिन ठाम, तेन प्रमत्त छटो गुण धाम ॥२०॥ जिनवर कलप जिन कलप आचार, साधे षट् आवश्यक सार । उद्यत'चौथा चार कषाय, तेन प्रमत गुणठाण कहाय ॥२१॥ सूधो राखे चित्त समाधे, धरम ध्यान एकांत आराधे । जिहां प्रमाद क्रिया विधिनासे, अपरमत्त सप्तम गुण भासे ॥२२॥ (नदी यमुना के तीर उड़े दोय पंखिया) पहिले अंसे अट्ठम गुण ठाण तणे, आरंभे दोय श्रेणि संखे पतें गणें । n istulatikalashtantacintoshdanusclerkelaurthalnahatela clateletalala.tatulat- l ahrilandaladitottarlot-15 1 1 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र स्तवन-विभाग ५३६ उपशम श्रेणि चढ़े जे नर हुवे उपसमी, क्षपक श्रेणि क्षायक प्रकृति दश क्षय गमी ||२३|| तिहां चढता परिणाम अपूरव गुण लहे, अहम नाम अपूरव करण त्रिणी कहे । सुकल ध्याननो पहिलो पायो आदरे, निरमल मन परिणाम अडिगा धरे ||२४|| हिव अनिवृत करण नवमो गुण जानिये, जिहां भाव थिर रूप निवृत्ति न मानिये । क्रोध माया संजलणा हणें, 1 उदे नहीं जिहां वेद अवेद पणों तिणें ||२५|| जिहां रहे सूखम लोभ कहांइक शिव अभिलखे, ते सूखम संपराय दशम पंडित देखे । संत मोह इण नाम इग्यारम गुण कहे, मोह प्रकृति जिण ठाम सहु उपसम लहे ||२६|| श्रेणि चढ्यो जो काल करे किणही परे, तो थाये अहमिन्द्र अवर गति नादरे । चार वार सम श्रेणि लहे संसार में, एक भवे दोय श्रेणि अधिक न हुवे कि ||२७|| चढ़ि इग्यारम सीम सभी पहिले पडे, मोह उदय उत्कृष्ट अरध पुद्गल रडे | क्षपक श्रेणि इग्यारम गुण ठाणो नहीं, दशम थकी बारम्म चढ़े ध्यानें रही ॥२८॥ ( एक दिन कोई मगध आयो पुरंदर पास ) खीण मोह नामें गुण ठाणो बारम जान, मोह खपायो नेडो आयो केवल ज्ञान । प्रगट पणे जहां चारित्र अमल यथा ख्यात । हिव आगे तेरम गुण ठाण तणी कहे बात ||२९|| घातिय चौकड़ी क्षय गई रहीय अघातिय एम, प्रकृति पिच्यासी जेहनें जूना कापड़ जेम | दरसण ज्ञान वीरज सुख चारित पंच अनंत, केवल ज्ञान प्रगट थयो विचरे श्री भगवंत ॥३०॥ देखे लोक अलोकनी छानी परगट बात, महिमावंत अठारे दूषण रहित विख्यात । आठे वरसे ऊणी कही इक पूरव कोड़ी, उत्कृष्टी तेरम गुण ठाणिए थित जोडि ||३१|| सैलेसी करण निरूध्या मन वच काय, तेण अयोगी अंत समइ सहु प्रकृति खपाय | पांचे लघु अक्षर उचरंता जेहनो मान, पंचम गति पामें शिवपद चउदम गुण ठान ||३३|| श्रीजे वारमें तेरमें मांहें न मरे कोइ, पहिलो बीज चौथो पर भव साथै होइ । नरक देवनी गति मांहे लोभे पहिला चार, धुरला पांच तिरी मांहिमणुए सर्व विचार ||३३|| ★ पुल प्र‌मुक्तक हुन Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार कलश इम नगर बाहड़ मेरु मंडण सुमति जिण सुपासाउले, गुणठाण चवद विचार वरण्यो भेद आगमने भले । संवत् सतरे से छत्तीसे श्रावण वदी एकादसी, वाचक विजय श्री हरष सानिध कहे मुनि इम धर्म्मसी ||३४|| अमावस का स्तवन वीर सुणो मोरी चीनती, कर जोड़ी हो कहूँ मन नी बात । बालक नी परे बीनÎ, मोरा सामी हो तुमे त्रिभुवन तात ॥ वीर० १ ॥ तुम दरसण बिन हूँ भयो, भव मांहे हो सामि समुद्र मझार । दुःक्ख अनन्ता मैं सह्या, ते कहता हो किम आवे पार || वीर० २ || पर उपकारी तू प्रभू, दुःख भांजे हो दीन दयाल | तिण तोरे चरणे हूं आवियो, सामि मुझ ने हो । निज नयन निहाल || वीर० ३|| अपराधी पिण उद्धरचा, ते कीधी हो करुणा मोरा साम । परम भगत हूं ताहरी, तेने तारो हो नहीं ढील नो काम || वीर० ४ ॥ शूलपाणी प्रति बूझव्या, जिन कीधा हो तुमने उपसर्ग । डंक दियो चण्ड कोसीये तें दीघो हो तसु आठमो सर्ग || वीर० ५ ॥ गोशालो गुण हीनड़ो जिण बोल्या हो तोरा अवरणवाद । ते बलतों ते राखीयो, शीत लेश्या हो मूंकी सुप्रसाद ॥ वीर० ६ ॥ एकुण छे इन्द्र जालीयो, इम कहितां हो आयो तुम तीर । ते गौतम ने तें कीयो, पोता नो हो प्रभुता रो वजीर ॥ वीर० ७ ॥ वचन उत्थाप्या ताहरा, जो झगड्यो हो तुझ साथ जमाल | तेहने पण पनरे भवे, शिवगामी हो कीधो ते कृपाल || वीर० ८ ॥ ऐमन्तो ऋषी जे रम्ये, जल मांहे हो बांधी माटी नी पाल । तिरती मूकी कांचली, चित ते तारो हो तेहने तत्काल || वीर० ९ ॥ मेघकुमर ऋषि दुहव्यो, चूकी हो चारित्र थी अपार । एकावतारी तेहनें ते कीधो हो करुणा भण्डार ॥ वीर० १० ॥ बार बरस वेश्या घरे, रह्यो मूकी ने हो संयम नो भार । नन्दीखेण पिण उद्धरचो, सुर पदवी हो दीधी अतिभार ॥ वीर०११ ॥ पंच महाव्रत परिहरी, गृह वासे हो वसियो वरस चौबीस । ते पिण आर्द्र कुमार ने, ते तारयो हो तोरी एह जगीस || वीर० १२ ॥ राय श्रेणिक राणी प्र ५४० Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४१ AAAYARAN .JAISotal afortantimonanenar.new.kokatookatekarisk ofaefinikalakshankalaaka-kaJodiokala.indianjiwakokalaakashshekstatestakoantasantatwajasthatanaasantatisthosakakakarakashetakalutalionlese स्तवन-विभाग चेलणा, रूप देखी हो चित चूका जेह । समवसरण साधु साधवी, ते कीधा हो आराधक तेह ॥ वीर० १३ ॥ ब्रत नहीं नहीं आखड़ी, नहीं पोसो ही में नहीं आदर दीख । ते पिण श्रेणिक राय ने, ते कीधो हो सामि आप सरीख ॥ वीर० १४ ॥ इम अनेक ते उधरया, कह तोरा हो केता अवदात । सार करो हवे माहरी, मन माहे हो आणो मोरडी बात ॥धीर०१५॥ सूधो संजम नवि पले, नहीं तो हुवो हो मुझ दरसण ज्ञान । पिण आधार छे एतलो, एक तोरो हूं धरूं निश्चल ध्यान ॥ वीर० १६ ॥ मेह महीतल वरसतो, नवि जावे हो रुक विषमी ठाम । गिरुआ सहिजे गुण करे, स्वामी | सारो हो मोरा वांछित काम ॥ वीर० १७ ॥ तुम नामें सुख सम्पदा, तुम - नामें हो दुख जावे दुर । तुम नामें वांछित फले, तुम नामें हो मुझ आणंद पूर ॥ वीर० १८ ॥ इम नगर जेसलमेर मंडण तीर्थंकर चौबीसमो, शासनाधीश्वर सिंह लंछन सेवता सुर तरु समो । जिणचन्द त्रिशला मात नंदन सकल चन्द कला निलो, वाचनाचारज समय सुन्दर संथुण्यो त्रिभुवण तिलो । वीर० १९॥ निर्वाण कल्याणक स्तवन मारग देशक मोक्षनो रे, केवल ज्ञान निधान । भाव दया सागर प्रभू रे, पर उपकारी प्रधानो रे । वीर प्रभू सिद्ध थया, संघ सकल आधारो रे । हिव इण भरत मां कुन करसी उपगारो रे । वीर० १॥ नाथ बिहूणी सैन्यजू रे, वीर बिहूणो रे संघ । साधे कुण आधार थी रे परमानन्द अभंगो रे॥ वीर० २ ॥ मात बिहूणा बालज्यू रे, अरहो पर अथठोय । वीर विहूणा जीवडा रे, आकुल व्याकुल थाये रे । वीर० ३ ॥ संशय छेदक वीर नो रे, विरह ते केम खमाय । जे दीठे सुख ऊपजे रे, ते विण किम E रहिवायो रे ।। वीर० ४॥ निर्यामक भव समुद्र नो रे, भव अटवी सत्थ वाह । ते परमेशर बिन मिल्यां रे, किम बाधे उच्छाहो रे ॥ वीर० ५ ॥ वीर थकां पिण श्रुत तणो रे, हुतो परम आधार । हिवणा श्रुत आधार छे रे, एह जिन आगम सारो रे । वीर० ६ ॥ इण काले सब जीव ने रे, आगम oloohto.kaskiladkioksistakalatakaleshkobitaskosh ketobhadoholichiki.linkekasiokiskakakakakolaksiakaaskobaliseokabaikokhi kalikodaakakkaakkakkibkisaiatia khhhhio kutas ka khalette . a al. K Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-रनसार थी आनन्द । ध्यावो सेवो भविजनो रे, जिन प्रतिमा सुख कन्दोरे ॥वीर० ७ ॥ गणधर आचारज मुनि रे, सहुने इण परि सिद्ध । भव भव आगम संग थी रे, देवचन्द्र पद लीधो रे ॥ वीर० ८ ॥ चैत्री पूर्णिमा का स्तवन पय प्रणमी रे जिनवर ना सुयसाउले, पुंडर गिरि रे गाइस हूं शुभ भाउले । मति सुरगिर रे सहस जीभ जो मुख हुवे, किम ते नर रे विमलाचल ना गुण स्तवे । किम स्तवे गुणगण गिरिना जहां मुनि सीधा बहू, गिररायना गुण छे अनंता, कहे जिनवर मुख सहू । निज जनम सफलो करण कारण केतला गुण भाखिये, तिरयंच नारक गति तणी ना दुःख दूरे राखिये ॥१॥ जिनराजा रे पहिलो आदि जिनेसरूं, तसु नंदन रे चक्रवति । भरतेसरूं । तसु अंगजरे पुण्डरीक गुणगणनी कलो, शम दम रस रे विनय विवेक गुण भलो । गुण भलो अनुक्रम आदि जिनवर पास संयम शिव पुरी, पुण्डरीक गणधर प्रथम विहरे सुमति गुपते संचरी । पण कोडि साथे विमल गिरिवर मुक्ति पदवी पाव ए, सुदी चैत्री पूनम तेणे पुण्डरीक कहाव ए ॥२॥ हिव चैत्री रे पूनिम वर्ष सुहावणो, शत्रुजे रे आराध्या फल होवे घणो । मन शुद्ध रे आपण पे थानक रही, आराध्यां रे यात्रा पुण्य पामें सही । ते पुण्य पामें दान तप जप धर्म ध्यान मने धरे, बहु भाव भक्तं त्रिविध पूजा आदि जिनेश्वरनी करे । भावना भावे तेन दिवसे पंच * कोडि गुणो फले, अनुक्रमे ते नर मुक्ति पामी सिद्ध सुन्दरने मिले ॥३॥ दश वीशा रे तीस चालीस पूजा कही, पञ्चायत श्रावकनी मति सरदही । चउथ छठे रे अट्ठम दसम दुवालसे, पूजा फल रे अनुक्रम ए मुझ मन वसे । मन वसे पूज कपूर धूवे मास खमण फले वली, सामन्न धूवे पक्खनो। फल जे करे मननी रली । हिव पूजती विधि जेम गुरु मुख सुणी अछे से परंपरा, ने मोहमाया कपट छंडी सुणो भवियण सादरा ॥१॥ तंदुल राशी Fal- विमल गिरि थापी, तसु ऊपरि पट्टादिक आपी। प्रतिमा आदि जिणेसर। - केरी, पुण्डरीकने थापी निवेरी ॥५॥ सेज गिरिने मन चिंतीजे, करम ได้ให้ไดไไดไดไไไไไไไไดดูได้ให้ใครได้โดใกใช้ใดไดไไดไไไดได้ไฟในใจได้ใครใจได้ใจรักใweesจใดไฟได้งใจใน almithilicklankirtalathistahiliolatabbbblekdeika.ladalaorlashtakalulahhathibalatalarlalahshalatantshlant-wlolatala. ตูไดไไข ไขใดไดไไดไไดไทยพกใจให้ใครในไตรดไขไพโพไซไฟไคงไสไตใจไeeไว้ใจไดไไไไไไไไดไปักไหลได้ไคโตะได้ htata'-'-'.---. न्यायालयाला मनाप्रमाणपत्र Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग तणा फल दुर करीजे । मोती तंदुल करीय वधावो, तीन प्रदक्षिण पूज रचावो ॥६॥ मंगलीक पहिला तिहां आठ, करम बन्ध दुरे करि आठ।। प्रतिमा मूल सनात्र करेवा, जिन वरना गुण हियड़े धरेवा ॥७॥ ऊभा थई नवकार गुणंता, दश दश जैती तिलक करंता । माला पुप्प पुंगी फल । ढोवो, मेरु भरण वर धूप उखेवो ॥८॥ शक्ररतव पांचे देव वांदे, जघन्यना वंदण पाप छेदे । दशे नमस्कार करत जेती, राखी करी दृष्टि जिनेन्द्र सेती ॥९॥ आराधिवा कीजे काउसग्ग, जिणें किये भाजे कर्म वग्ग । 2 लोगरस उझोय दसे वरवाणूं, वेला प्रमाणिं अहिं एग आणूं ॥१०॥ इणे प्रकारे धुर पूज एह, इसी परे बीजी च्यार तेह । दशा तणी वृद्धि तिहां। करीजे, एकैक पूठे अथवा गिणीजे । बहुत्तरे आरति मंगलेवो, पछे प्रभु आगलि ते करेवो ॥११॥ hi.animatatatuter telebi.shtha fantibiothobinkhtoto satara1219163001461.15athi late_th12101.1. HAT.1..fota11. Hast कलश इम करिये पूजा यथा योगु संघ पूजा आदरो, साधरमी वच्छल करो भविका भव समुद्रली लावरो। संपदा सोहग तेह मानव ऋद्धि वृद्धि बहु लहे, श्री अमर माणिक सीस सुपरे साधु कीरति इम कहे ॥१२॥ पखवासा तप चैत्यवन्दन श्री मुनि सुत्रत जिनराय, चौविह धर्म प्रकासें । पखवासा तप करण ३ को, बीच परपदा भासें ॥ पन्द्रह दिन तप की विधि, सुध मन होय लहिये, प्रतिपद से आरम्भ कर, पूर्णिमा तक सर दहिये ॥१॥ हरिवंश : कुल में अवतरया, राजग्रही नगरि सुहायो । जेठ वदी अष्टमि दिने, प्रभु - जन्मोत्सव करायो । कच्छप चिन्ह से शोभते, काया धनुष वीस कहायो । 3 सुमित्र नृपति के पट्ट पर, मात पद्मावति जायो ॥२॥ फागुन वदी वारस 3 दिने, संयम व्रत वतलायो । अप्ट कर्म के नष्ट कर, केवल ज्ञान दिपायो । सहस तीस वर्ष आयु से, जिनवर सिद्ध पद पायो । श्री रत्नसूरि शिष्य मोतीचन्द बतायो ॥३॥ i n ian t artists Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sposasleblook-alisoblastotoosedadeshdoolestialistadohiblissfishabandothelialJASCHIsabellatasdadatosshantdastastesakssehrate जैन-रत्नसार wwwwwwwwwwwww unang नत्रजननत्रजन पखवासा तप का स्तवन जंबूद्वीप सोहामणो, दक्षिण भरत उदार । राजग्रही नगरी भली, अलकापुर अवतार ॥१॥ श्री मुनि सुब्रत स्वामिजी, समरंता सुख पाय । मन वंछित फल पामिये, दोहग दुर पुलाय ॥ श्री० २ ॥ राज करे तिहां राजियो, सुमित्र नरेसर नाम । पटराणी पद्मावती, शील गुणें अभिराम ॥ श्री० ३ ॥ श्रावण उज्वल पूनमें, श्री जिनवर हरिवंश । माता कुक्षी सरोवरे, अवतरियो राय हंस ॥ श्री० ४ ॥ जेठ पढम पक्ष अष्टमी, जायो श्री जिनराय । जन्म महोच्छव सुर करे, त्रिभुवन हरख न माय ॥ श्री. ५॥ सांवल वरण सोहामणो, निरूपम रूप निधान । जिनवर लंछन काछबो, वीस धनुष तनु मान ॥ श्री० ६ ॥ परणी नार प्रभावती, भोग पुरंदर साम । राजलीला सुख भोगवे, पूरे वंछित काम ॥ श्री० ७ ॥ तब लोकांतिक देवता, आवि जपे जयकार । प्रभु फागुन वदि बारसे, लीधो संजम भार ॥ श्री. ८ ॥ शुभ फागुन वदि बारसे, मन धर निर्मल ध्यान । चार कर्म प्रभु चूरिया, पाम्यो केवल ज्ञान ॥ श्री. ९॥ ततखिण तिहां मिलिया, चलिया सुरनर कोडि । प्रभुना पद पंकज, प्रणमें बे कर जोड़ि ॥ बे कर जोड़ि मच्छर छोड़ि, समवसरण विरतंत । माणक हेम रूप मय त्रिगडो, छत्र त्रय झलकंत ॥ सिंहासण बैठा तिहां, स्वामि चौविह धर्म प्रकासे । वारे परषदा बैठे आगली, सुण मन उल्हासे ॥१०॥ तप ने अधिकारे, पखवासो तप सार । पडवा थी कीजे, पनरह तिथि उदार । पनरह तिथि गुरु मुख लीजे, जिस दिन हुए उपवास । श्री मुनि सुव्रत नाम जपी जे, वांदी देव उल्लास ॥ तप ऊजमणे रजत पालणों, सोवन पूतली चंग। मोदक थाल देहरे, मूंकी जिनवर। वाम सुरंग ॥११॥ तप करिये निरंतर, अहोरत दर्शनी जेम । मन वंछित केरा, सुख पामी जे तेम ॥ पुत्र मित्र परिवार पर, अति वल्लभ भरतार । । जस कीरत सोभाग वढ़ाई, महियल महिमा प्राण ॥ परभव मुगति फल लहिये, ए तप ने प्रमाण ॥१२॥ थिर थापी चतुर्विध, संघ तणो अधिकार ।। न ननननननननननननननननननननननननननननननन Bhhakkesenilelatulalakaarikaalantatoilarlastinkalpalestialariastolefikrelatibiliarklolarshan-Enfirolilarkiactitilataklakaasleshishtoletitil-Install-star-tattAAT. Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४५ mmmnawwarwwwwww - -at- स्तवन-विभाग भरुच्छ प्रमुख नगरादिक करिया विहार ॥ विहार करी प्रतिबोधे खंदक, पंच सयां परिवार । कार्तिक सेठ जितशत्रु तुरंगम, सुव्रत नाम कुमार ॥ तीस सहस वरस आउखो, पाले जग दया सार । श्री सम्मेत शिखर परमेसर, पहुंता मुगति मझार ॥१३॥ इम पञ्च कल्याणक थुणिया, त्रिभुवन तात । मुनि सुव्रत स्वामी, बीसमो जिनवर राय ॥ बीसमो जिनवर राय जगत गुरु, भय भंजण भगवंत । निराकार निरंजन, निरुपम अजरामर अरिहंत ॥ श्री जिनचन्द विनय शिरोमणि, सकल चन्द गणि सीस । वाचक समय सुन्दर इम पभणे, पूरो मनह जगीस ॥१४॥ पखवासा तप स्तुति | श्री मुनि सुव्रत प्रभुवर, जाकी करिये सेव । पखवासा तप आदरिये, सुध मन होय नित मेव ॥ प्रतिपद से पूर्णिमा, प्रभुजी की करिये सेव, श्री रत्नसूरि शिष्य, मोतीचन्द गुण हेव ॥१॥ दश पच्चक्खाण चैत्यवन्दन णमुक्कारसी और पोरिसी साढ पोरिसी पुरिमढ़, एकासणा णिव्वि और एगलठाणा देव ॥१॥ दत्ति आयंबिल उपवास ही पञ्चक्खाण ए जाण, इनको नित प्रति करण से पामें स्वर्ग विमान ॥२॥ दश पच्चक्खाण करतां | थकां आत्मानन्द स्वरूप जिन रत्नसूरि शिष्य प्रवर सूरज शुद्ध प्ररूप ॥३॥ - दश पच्चक्खाण का स्तवन सिद्धारथ नन्दन नमं महावीर भगवन्त । त्रिगड़े बैठा जिनवरूं परषद बार मिलन्त ॥१॥ गौतम गणधर समय पूछे श्री जिनराय । दस पञ्चक्खाण किसा कह्या कियां कवण फल थाय ॥२॥ सीमंधर करज्यो श्री जिनवर इम उपदिसे, सांभल गोमय स्वाम । दस पञ्चक्खाण किया थकां, लहिये अविचल ठाम ॥ श्री. ३ ॥ नवकारसी बीजी पोरिसी साढ़ पोरिसी पुरिमड्ड । एकासण नीवी कही, एक लठाण देवड्ड ॥ श्री०४॥ दत्ति आयम्बिल, उपवास ही, एहिज दस पच्चक्खाण । एहना फल सुन गोयमा వనపుమడు మన మనమందరం మనవడుతున్న 69 Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ": 2ns-tomatitilak मनमत्रज ritalikatileadlin ननमन्त्र जन-रत्नसार जुजूवा करूं बखाण ॥ श्री. ५॥ रत्नप्रभा शर्कर प्रभा, बालक तीजी जान । पंक प्रभा तिम धूम प्रभा, तम प्रभा तमतम ठाम ॥ श्री. ६॥ नरक सात कही ए सही, करम कठिन कर जोर । जीव करम बस ते सही, उपजे तिनहीज ठोर ॥ श्री. ७ ॥ छेदन भेदन ताडना, भूख तृषा बलि त्रास । रोम रोम पीड़ा करे, परमाधरमी तास ॥ श्री० ८ ॥ रात दिवस क्षेत्र वेदना तिल भर नहीं जहां सुक्ख । किया करम जे भोगवे, पामें जीव बहु दुःख ॥ श्री. ९ ॥ इक दिन री नवकारसी, जे करे भाव विशुद्ध । सौ वरस नरक नो आउखो, दुर करे ज्ञान वुद्ध ॥ श्री. १० नित्य करे नवकारसी, ते नर नरक न जाय । न रहे पाप वलि पातला, निरमल होवेजी काय ॥श्री०११॥ (श्री विमलाचल सिर तिलो ए) सुण गौतम पोरिसी कियां, महा मोटो फल होय । भावसं जे पोरिसी करे, दुरगति छेदे सोय ॥ सु. १२ ॥ नरक माहि जे नारकी, वरसें एक हजार । करम खपावे नरकमें, करता बहुत पुकार ॥ सु० १३ ॥ एक दिवस नी पोरिसी जीव करे इकतार | करम हणे सहस एकना, निश्चयसू गणधार ॥ सु० १४ ॥ दुरगति मांहे नारकी, दस हजार प्रमाण । नारक आयु खिण एकमें, साढ पोरिसी करे हाण ॥ सु. १५ ॥ पुरिमड्ढ़ करे । जीव जे, नरके ते नवि जाय । लाख वरस कर्मने दहे, पुरिमढ़ करम खपाय ।। सु. १६ ॥ लाख वरस दस नारकी, पामें दुःख अनन्त । इतरा करम इकासणे, दुर करे मन खंत ॥सु० १७॥ एक कोडि वरसां लगे, करम खपावे जीव । नीविय करतां भावसं, दुरगति हणे सदीव ॥ सु. १८ ॥ दस कोडि जीव नरक में, जितरो करे करम दुर । तीसरो एकल ठाण ही, ः करे सही चकचूर ॥ सु० १९ ॥ दात करंता प्राणियो, सौ कोडि परिमान । इतना वरस दुरगति तणां, छेदे चतुर सुजान ॥ सु० २० ॥ आंबिल नो फल बहु कह्या, कोडी एक हजार । करम खपाय इण परे, भाव आंबिल अधिकार ॥ सु० २१ ॥ कोडि सहस दस वरस ही, सहें दुःख नरक मझार । उपवास करे इक भावसं, तो पामें मुगति मझार || सु० २२ ।। e लय- rasangame-Tereyana AAJTATILALLAILAntarnatant-LRB-munted Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ప్రముడు తన నడుమును మనము स्तवन-विभाग Bhimashshindi.haldhakKARREShahssksrekkhahak ॥ ढाल॥ लाख कोडि वरसां लगे, नरके कटता रीव रे। गौतम गणधारी अट्ठम तप करताथकां, सही नरक निवारे जीव रे ॥ गो० २३ ॥ नरके वरस कोडी लाख ही, जीव लहे तिहां दुक्ख रे । ते दुःख अट्ठम तप हुँती, दुर करे पामी सुक्ख रे ॥ गो० २४ ॥ छेदन भेदन नारकी, कोड़ाकोडी वरसोई रे । कुगति कुमति ने परिहरो, दसमें एतो फल होइ रे ॥गो०२५॥ नित फासू जल पीवतां, कोडा कोडि वरसनो पाप रे। दूर करे खिण एक में, निश्चय होय निःपापरे ॥ गो० २६ ॥ वलिय विशेषे फल कह्यो, पांचम करे उपवास रे। पामें ज्ञान पांचे भला, करता त्रिभुवन परकास रे॥ गो०२७॥ चवदह तप विधि करे चवदह पूरब धार रे । इम अनेक फल तणां कहतां बलि नावें पार रे॥२८॥मन वचने काया करी, तप करे जे नरनारि रे।इग्यारे वरस एकादशी, करतां लहे भव पार रे ॥गो० २९॥ आठम तप आराधतां, जीव न फिरे संसार रे । अनंत भावना पाप थी, छूटे जीव निरधार रे ।। गो० ३० ।। तप हुँती पापी तरया, निस्तरियो अरजुन माल रे। तप हुती दिन एकमें, शिव पाम्यो गज सुकुमाल रे ॥ गो० ३१ ॥ तपने फल सूत्रे कह्या, पच्चक्खाण तणा दस भेद रे । अवर भेद पिण छे घणा, करतां छेदे त्रय वेद रे॥ गो० ३२॥ कलश पञ्चक्खाण दस विध फल, प्ररूप्या महावीर जिण देव ए। जे करे भवियण तप अखंडित, तासु सुर पय सेव ए ॥ संवत् निधि गुण अश्व शशि, वलि पोष सुदि दशमी दिने । पदम रङ्ग वाचक शीश गणिवर, रामचन्द्र तप विधि भणे ॥३३॥ दश पच्चक्खाण स्तुति दश पच्चक्खाण करतां कबहूं नरक नहिं जाय, सुध मन से करिये आतम संयम थाय । जो कोई धारे शील सहित सुखकार, सूरज जप तप से पामें मोक्ष दुवार ॥१॥ ANIMARightinkaliporanARisiosharlasniliancistanilariasinilosbahsacheenslandicYI ndialiMAME-TolalitAEYNAY AXKINAYANATH Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lasthistamithartikhtesathx K 433665036 h ithakoarthataksahteday ५४८ rrammarrammarmawimararamanarauraamanammm जैन-रत्नसार . विंशस्थानक चैत्यवन्दन ___ अरिहन्तोंको सदा नमो, प्रवचनए सुखकार।आचारज स्थवरे पदे,पाठक प्रभु पद सार ॥१॥ ज्ञान दरसन विनय सदा, चारित्र जगहितकार । ब्रह्म क्रियातप गौतम, जिन संयम सुखकार ॥२॥ ज्ञान श्रुत तीर्थ नमो, आणी हर्ष अपार । एबीस पद सेवतां माणक जय जयकार ॥३॥ वीस स्थानक तप का स्तवन ___वीस थानक तप सेविये, धरकरि शुभ परिणाम लाल रे । तीजे भव। सेव्यो थको, बांधे तीर्थंकर नाम लाल रे ॥ वी० १॥ तप रचना अधिकी कही, ज्ञाता अंग मझार लाल रे। सुण जो भवि तुम भावसू, चित्तसे करिये उछाह लाल रे ॥ वी० २ ॥ सुविहित गुरु पासे ग्रहे, वीस थानक तप एह लाल रे । निरदुषण शुभ मुहूरतें, उचरी जे ससनेह लाल रे ॥ वी. ३ ॥ अरिहंत सिद्ध प्रवचन नमू, सूरि थिवर उवझाय लाल रे । साधु ज्ञान देसण अरु, विनय नमं उलसाय लाल रे ॥ वी० ४॥ चारित्र बंभ क्रिया पदे, तप गोयम जिण ईश लाल रे। चारित्र ज्ञान ने श्रुत भणी, नमूं तीर्थ पद वीश लाल रे ॥ वी० ५॥ वीस दिवस में ए कही, पद गुणनो कर मेव लाल रे । अथवा दिन वीसा लगे, वीसे पद गुण मेव लाल रे ॥ वी० ६ ॥ एक ओली षट मासमें, पूरी जो नवि होय लाल रे । फेरे- नवी करणी पड़े, पिछली निष्फल जोय लाल रे ॥ वी. ७ ॥ छठ अहम उपवास सं, अथवा देखी शक्ति लाल रे । पोसह कर आराधिये, देव वांदे निज भक्ति लाल रे ॥ वी० ८ ॥ संपूरण पद सेवतां, पोसह रो नहिं जोग लाल रे । तो ही सात पदे सही, पोसह करिये संजोग लाल रे॥ वी० ९ ॥ सूरि थिविर पाठक पदे, साधु चारित्र सुजान लाल रे । गौतम तीर्थ पदे सही, सात थानक मन मान लाल रे ॥ वी० १० ॥ पद पद दीठ करे सदा, दोय दोय जाप हजार लाल रे ।पडिकमणो दोय टंक ही, करिये पूजा सार लाल रे । वी० ११ ॥ शक्ति मूजब तप कीजिये, एक ओली करो बीस लाल रे । बोसां बीसी च्यार से, तप संख्या कहि । SeasteHAREENAMKEstatestthiMIRALNEELATEEKLEENAKSHERS5EETEST KICKALAXMAN EELAMMAKERAYAdikhanaKai-iler, Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26KkalakkitnitiatilpaMNAHATARNahiKAMANATA- K स्तवन-विभाग ५४६ Mil एम लाल रे ॥ वी० १२ ॥ जिस दिन जो पद तप करें, तिसके गुण चित्त धार लाल रे । काउसग्गने प्रदक्षिणा, मुख भणिये णवकार लाल रे ॥ वी० १३ ॥ जिस पदकी स्तवना सुने, कीजे जिन पद भक्ति लाल रे। पूजन शुभ मन साचवे, दिन दिन बढ़ती शक्ति लाल रे ॥ वी० १६॥ मृतक जनम ऋतु काल में, कोई धारयो उपवास लाल रे । सो लेखे नहीं लेखवो, निक्केवल तप जास लाल रे ॥ वी० १५ ॥ सावज त्याग पणो करे, शोक न धारे चित्त लाल रे । शील आभूषण आदरे, मुखसं बोले सत्य लाल रे ॥ वी. १६ ॥ जेठ आषाढ़ वैशाख में, मगसिर फागुन | मांहे लाल रे । ए षट् मासे मांहिने, व्रत ग्रहिये बड़ भाग लाल रे ॥ वी० १७ ॥ तप पूरण हुवां थकां, उजमणो निरधार लाल रे। कीजे शक्ति विचारी ने, उच्छव विविध प्रकार लाल रे ॥ वी. १८ ॥ बीस बीस गिणती तणा, पुस्तक पूठा आदि लाल रे । ज्ञान तणी पूजा करे, मूंकीजे हठबाद लाल रे ॥ वी० १९ ॥ फलवधी नगर नी श्राविका, कीधी विधि चित लाय लाल रे । जनम सफल करवा भणी, ओहिज मोक्ष उपाय लाल रे॥ वी० २०॥ कलश इम वीर जिनवर तणी आज्ञा, धार चित्त मझार ए । सहु देख आगम तणी रचना, रची तप विध सार ए॥ वसु नंद सिद्धि चन्द्र वरसे, चैत्र मास सुहंकरूं। मुनि केशरी शशि गच्छ, खरतर भणी स्तवना मनहरूं ॥२१॥ वीसस्थानक की स्तुति शिव सुख दाता जगत विख्याता, पूरण अभिनव कामी जी । ज्ञानादिक गुण चेतन रूपी, चिदानन्द धन धामी जी ॥ थानक वीसे आगम भणिया, वीतराग गुण भोक्ता जी । जे नर अंतर आतम ध्यावे, शिव रमणी वर युक्ता जी ||१|| अरिहंत सिद्ध प्रवचन सूरि, थिवर पाठक मुनि सारो जी । ज्ञान दरसन विनय चारित्र, ब्रह्मचरज क्रिया धारो जी ॥ तपसि HAREKAREEMARATHIXXXHIKCAREETRYAYVAAYEMAMACHHAMAKEkartkasabhaastitute Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aslo To Tag 18 2903810 15.19 155 15 10 10 19 Jesta, Jonla ५५० जै-रत्न गणधर जिण चारित्री, नाण श्रुत तिथि भूपो जी । ए पद निज भवि भावे, सेवे तेहिज ब्रह्म सरूपो जी ॥ २॥ दोय सहस गुणनो प्रत्येकें, चार सया उपवासो जी । द्रव्य भावसे विधि परकासे, तीर्थकर पद खासो जी ॥ तीजे भव वर वीस थानक नी, सेव करे भव्य प्राणी जी । समकित बीजे जे निज आतम, आरोपे चित्त आणी जी ||३|| सुरतरु सम तप फल है मोटो, श्री सूर देवि सहाई जी । खरतर गच्छ जिन आज्ञा धारी, पटोधर वरदाई जी ॥ जिन सौभाग्य सूरिन्द पसाये, हंस सूरिंद गुण गावे जी। संघ सकल कूं सांनिधकारी, मन वंछित फल पावे जी ॥४॥ रोहिणि चैत्यवन्दन रोहिणि नक्षत्र रुचे, चन्द्र को प्यारो । सत्ताइसवें दिन आय, इस तप को धारो ॥१॥ चित्रसेन की स्त्री, रोहिणि व्रत को मानें, सुख पायो कुमरि, दुःख को नहिं जानें ||२|| इण विधि तप को सेबतें, धारें प्रभु तुम ज्ञान | श्री मुनि सुव्रत बखानते, पावें पद निर्वान ||३|| इस तप को आराधतां तूटे जग का पास । श्री रत्नसूरि के शिष्य, मोती चरणन का दास ||४|| रोहिणी तप का स्तवन I शासन - देवता सामणी ए मुझ सानिध कीजे, भूलो अक्षर भगति भणी समझाई दीजे । मोटो तप रोहिणी तणो ए जिनरा गुण गाऊं, जिम सुख सोहग सम्पदा ए, वंछित फल पाऊं || १ || दक्षिण भरतें अंगदेश छे चम्पा - नगरी, मघवा राजा राज्य करे तिण जीता वयरी । पाट तणी राणी रूवड़ी ए लखमी इण नामें, आठ पुत्र जाया जिणे ए मनमें सुख पानें ॥२॥ रोहिणी नामे कन्यका ए सब कूं सुखकारी, आठों पुत्रां ऊपरां ए तिण लागे प्यारी । वाधी चन्द्रतणी कला ए जिम पख उजवाले, तिम ते कुमरी धाय माय पांचे प्रतिपाले ॥३॥ कुमरी रूपे रूबड़ी ए घर अंगण बैठी, दीठी राजा खेलती ए. ति चिन्ता पैठी । तीन भुवन बीच एहबी ए नहीं दुजी नारी, रम्भा पउमा गवर गंग इण आगल हारी ||४|| पुरुष न दीसे कोई इसो Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IgrahtakaTekkshaktishatoskakkharokarternatakarketant Arke ... . स्तवन-विभाग .. ... ... ... .. . ५५१ Allakikthakhaderalrakakirtaliatraddhakikaticleshodiekelinadrinkcidaislikeakleeablairland aurantattstor-latest-Transistantratak-AAREERIARREST-KathREATREKKERARAKSHAK insistarhth tottotophatarkatite जिणने परनाऊं, आंख्या आगल साल वधे तिण चयन न पाऊं । देश देश ना राजवी ए ततखिण तेडाया, सबल सजाई साथ करी नरपति पिण आया ॥५॥वीत शोक राजा तणो ए छः कुमर सोभागी, कन्या केरी आंखड़ी ए तिण सेती लागी । ऊभा देखे सकल लोक चढ़िया केइ पाला, चित्रसेन रे कण्ठ ठवी कुमरी वर माला ॥६॥ देव अने देवांगना ए जपे जयजयकार, रलियायत थयो देखने ए सारो संसार । करजोड़ी कहे लोक वखत कन्यारो ४ जाडो । वीत शोक नो कुमर थयो सिर ऊपर लाडो ॥७॥ इम विवाह थयो भलो ए दिया दान अपार, घर आया परणी करी ए हरख्यो परिवार । वीत शोक निज पुत्र भणी आपणो पाट दीधो, आपण संजम आदरी ए जगमें जस लीधो ॥८॥ प्रभु प्रणमं रे पास जिणेसर थंभणो तिण नगरी रे चित्रसेन राजा थयो, सुखमाहे रे केतलो काल वही गयो । इण अवसर रे आठ पुत्र हुवा भला, चढ़ते पख रे चन्द्र जिसी चढ़ती कला ॥ चढ़ती कला हिव राय बैठो पास बैठी रोहिणी, सातमी भूमी | कन्त सेती करे क्रीडा अति घणी । आठमो बालक गोद ऊपर रंगसू राणी लियो, पुत्रने प्रीतम आंख आगल देखतां हरखे हियो ॥९॥ इक कामण रे गोख चढ़ी दृष्टे पड़ी, शिर पीटे रे दीन स्वरे रोवे खड़ी। बूढा पण रे मन गमतो बालक मूओ, हूं एकज रे तिण अधिकेरो दुख हुओ ।। दुःख हुओ देखी रोहिणी हिव कहे प्रीतम इम भणी, ए नार नाचे अने कूड़े कहो किम मोटा धणी । एहवो नाटक आज तांइ मैं कदे देख्यो नहीं, मुझने तमासो अने हांसो देखतां आवे सही ॥१०॥ इण वचने रे रीसाणो राजा कहे तू पापण रे परनी पीडा नवि लहे, ए दुखनी रे पुत्र मुए तडपड करे। जब बीते रे वेदना जाणीजे तरे ॥११॥ ॥ उल्लालो॥ जाणे तरे तूं बात दुख नी गरब गह ली कामिनी, इम कही राजा, हाथ झाल्यो तेहना बालक भणी । सातमां भय थी तले नाख्यो, तिसे । । हाहारव थयो, रोहिणी हंसती कहे प्रीतम, पुत्र नीचे किम गयो ॥१२॥ dalieki-kabirkirimaalkolai-holesteroloristartsleaterial-elastralialistasiAwaalatialstelmistant ras Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ जैन-रत्न ॥ चाल ॥ हिव राजा रे पुत्रतणें शोके करी, थयो मूरछित रे रोवे अति ख्या भरी । पडतो सुता रे सासण देवता झालियो, कंचनमय रे सिंहासन बेसा - रियो || बेसारियो कर जोड आगे करे नाटक देवता, गोदी खिलावे के हँसावे पाय पंकज सेवता । ऊपनो भूपतिने अचंभो देखिए कारण किसो, जो कोई ज्ञानी गुरु पधारे पूछिये सांसो इसो ||१३|| चिन्तवतां रे चारत्रिया आया जिसे, राजा पिण रे पहुतो वन्दन ने तिसे । सुण देशना रे पूछे प्रश्न सोहामणो, कहो स्वामी रे पूरबभव बालक तणो ॥ बालक तणो भव भूप पूछे कहे इण पर केवली, रोहिणी राणी नो भवान्तर अने राजा नो वली । श्री गुरू पासे पाछले भव रोहिणी तप आदरयो, तप तणें सगते साधु भगते विधि तुम्ह भवसागर तर यो ॥ १४॥ कहे राजा रे रोहिणी तप किम कीजिये, भाखो रे जिम तुम पासे लीजिये । तब मुनिवर रे विधि रोहिणी रातप तणी, इम जम्पे रे चित्रसेन राजा भणी ॥ राजा भणी विधि एह जम्पे चन्द्र रोहिणि तप आविये, उपवास कीजे लाभ लीजे भली भावना भाविये । बारमा जिणवर तणी प्रतिमा पूजिये मन रंग सूं, इम सात बरसां लगे कीजे तजी आलस अंगसूं ॥ १५॥ वीर सुनो मोरी वीनती NNIA IN Yoctostattooe भू wwwww.IN तप करिये रोहिणी तणो, वलि करिये हो ऊजमणो एम । तप करतां पातक टले तिण कीजे हो तप सेती प्रेम ॥ १६ ॥ देव जुहारी देहरे, तिण आगे हो कीजे वृक्ष अशोक । गुण नो बारम जिण तणो, भला नैवेद्य हो धरिये सहु थोक ॥ तप० १७ ॥ केशर चन्दन चरचीये, कीजे आगे हो आठे मंगलीक । विधिसूं पुस्तक पूजीये, ते पामे हो शिवपुर तहतीक || तप० १८ ॥ सेवा कीजे साधु नी, बलि दीजे हो मुंह मांग्या दान | संतो सीजे साहसी, मनरंगे होकर कर पकवान ॥ तप० १९ ॥ पाटी पोथी पंजनी, मिस लेखण हो झिलमिल सुजगीस। नवकरवाली धीरणा, गुरु आगे हो धरो सत्ताईस ॥ तप० २० ॥ चौथो व्रत पिण तिन दिने, इम Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ పడనందుడitories మదురంటున్నందుకు నడవనందమూడవ स्तवन-विभाग normaAM N .... ur.ma Ravrrrrr. .. ....rearra স্বপ্ন স্বল্পৰ্বস্বস্বত্বখশরুম্মম্বম্বশ্বরু पाले हो मन आण विवेक । इण विधि रोहिनी आदरे, ते पामे हो आनन्द अनेक ॥ तप० २१॥ (धर्म करो जिणवर तणो) इम महिमा रोहिनि तणी, श्री ज्ञानी गुरु परकासे रे। चित्रसेन ने रोहिनी, वासुपूज्य तीर्थंकर पासे रे ॥ त० २२ ॥ इण परि रोहिनी आदरी, ऊपर उजमणो कीधो रे। चित्रसेन ने रोहिनी, मन सूधे संजम लीधो रे ॥ त. २३ ॥ आठे पुत्रे आदरी, दीक्षा बारम जिन आगे रे। वलि नानाविध तप तपे, धरमतणी मति जागे रे । त० २४ ॥ करि अनसन आराधना, लहि केवल शिव पद पाया रे। जिनवाणी आणी हिये, प्रभु चित लाया रे ॥ त० २५ ॥ मनमोहन महिमा निलो, मैं तवियो शिवपुर गामी रे । मन मान्या साहिब तणी, हिव पुण्य सेवा पामी रे ॥ त० २६ ॥ कलश इम गगन दुग मुनि चन्द्र वरसे* चौथ श्रावण सुदि भली । मैं कही रोहिनी तणी महिमा, सुगुरु मुख जिम सांभली ॥ वासुपूज्य अमने थया सुप्रसन्न, चित्त नी चिन्ता टली । श्री सार जिन गुण गावतां, हिव सकल मन आशा फली ॥२७॥ श्री रोहिणी तप की स्तुति जयकारी जिनवर वासुपूज्य अरिहंत । रोहिनि तपनो फल भाख्यो श्री भगवंत ॥ नरनारी भावे आराधो तप एह । सुख संपति लीला लक्ष्मी | पावें तेह ॥१॥ ऋषभादिक जिनवर रोहिनि तप सुविचार । जिन मुख | परकासे बैठी परखदा बार ॥ रोहिनि दिन कीजे रोहिनीनो उपवास । मन | वंछित लीला सुन्दर भोग विलास ॥२॥ आगम में एहनो, बोल्यो लाभ . अनंत। विधिसूं परमारथ साधे सूधो संत ॥ दुख दोहग तेहनो, नासि जाय | सब दूर । वलि दिन दिन अंगे, बाधे अधिको नूर ॥३॥ महिमा जग मोटो रोहिनि तप फल जान, सौभाग्य सदा जे पावें चतुर सुजान ॥ * यह स्तवन १७२० श्रावण सुदी ४ को बना है। Pronjadarastrastasonelilioantitatioelach indaailashtratoudakelaielplateletalalalonelidaktaskothalaleloebiots talatabasihatNae belonkashtilarlotstanditalikathahhtatahkannenditaire খ - স্বশস্থক্ষণ" শিশ্ন প্রশ্ন 70 Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v . . . M v . . .. ." virain AmrwwwwwwwwwwwwvNiwww.nwww.. ได้ไปไหนไม่ได้ ได้ ได้จใคในไดได้ ไว้ได้ใจได้ใจ ได้ใคคไขใจได้ใจได้ใจใคได้ไขใจ ด้ไว้ใจไดไว้ได้ใจ ไวไว จนใจไรใคร ๆ ในคไท คลใจใดใด ไคโคไคโตได้ใจ ใจ ใจ ใคไตใจได้ 12 ไจไดใน โกงไกใจใคใตไตยใด ๒ โรคไต โจได้ โดนใจใคได้ไหลไคร้ जैन-रत्नसार ...... ... .ran नित घर घर महोच्छव नित नवला सिणगार, जिन शासन देवी लब्धि रुचि जयकार ॥२॥ छम्मासी तप चैत्यवन्दन नव चौमासी वीर जिन, एक कियो छम्मास । पांच कम फिर छः करया, और भी कर-या है मास ॥१॥ बहत्तर मास खमण जिन किया, दो छम्मासी जाण । तीन अढाइ दो दो किया, दो डेढ मासी वखाण ॥२॥ छम्मासी तप करयो ए, वीर प्रभू मन आन । सूरज आराधो एमने, पाबे पद निर्वान ॥३॥ छम्मासी तप का स्तवन गौतम स्वामी रे बुध दो निरमली, आपो करिय पसाय । महावीर स्वामी जे जे तप किया, उनका कहिलूँ विचार । वलि वलि वांदृ वीर जी सुहामणा ॥१॥ भावठ भंजण सेव्यां सुख करे, गातां नवनिधि आय । बारे बरसां वीर जी तप कियो, दूर कर सहु पाप ॥२॥ बे करजोड़ी ए हूँ वीनवं, श्री जिन शासन राय । नाम लिया थी नवनिधि संपजे, दरसन दुरित पुलाय ॥३॥ नव चौमासा जिनजी जाणिये, एक कियो छम्मास । पांच उणा छ वली जाणिये, बारके कोजी मास ॥४॥ बहुत्तर मास खमण जग जीपता, छ दो मासी रे जान । तीन अढाई दो दो किया, दो दोय मासी वखान ॥ व० ५ ॥ भद्र महाभद्र शिवगति जाणिये, उत्तम एहना प्रकार । वीच में स्वामी नहिं कियो, नहीं कियो चौथो आहार । व० ६ ॥ तिहुँ उपवासे प्रतिमा बारमी, कीधी बारे जी मास । दोय सौ वेला जिणजीरा, जाणिये इण गुण तीस विलास ॥व० ७॥ तीन सौ पारण जिनजीरा, जाणिये तीन गुणतीस पचास । एह में स्वामी केवल पामिया, पाम्या मुगति आवास ॥ व० ८॥ कलश इम वीर जिनवर सयल सुखकर, अतिह दुक्कर तप करी। संयमसू ได้ใจ ไพจใจ ในใจใจไไดไดไไดไจไว้ใจได้ใจไวจจใสไอได้ใสใจในใจไว้ให้ใจใจใสไดได้ใจใคใจไกในใจจใจใกไoในใจใจใสใจไว้ใจได้ใจไ666ใจไไดไจใจไดใจใจไดไไดไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไปงไง AALAAITAslel 4 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ వంటి అవనదురుచhealth anడుకుందునుండడం स्तवन-विभाग Inthamamlmmana iminimfairnesamanaratantantrastasawatibasistekarstrateeliokistakoiralashtakootaladastakalalithiasokhaskarestakoorhokatestobttatokhakaletastatistatkalatkarsentakathahistarrinkakhe पाली कर्म टाली, स्वामि शिव रमणी वरी ॥ सेवक पभने वीर जिनवर, चरण वंदित तुम तना । संसार कूप पडत राखो, आपो स्वामी सुख घना ॥९॥ छम्मासी तप स्तुति वीर जिनेश्वर कियो, छम्मासी जान । कइ बार तपस्या कर, पाम्यो केवल ज्ञान ॥ प्रभु वर हैं दुःख हर, सुखकर जग कल्यान । श्री रत्नसूरिके शिष्य, सूरज करें गुणगान ॥१॥ बारहमासी तप का स्तवन त्रिभुवन नायक तूं धणी, आदि जिनेसर देव रे। चौसठ इन्द्र करे तुझ, पद पंकज सेव रे ॥ त्रि. १॥ प्रथम भूपाल प्रभू तूं थयो, इण अवसरपणि काल रे । तुझ सम अवर न को प्रभू, तूं प्रभु दीनदयाल रे ॥ त्रि. २ ॥ प्रथम तीर्थंकर तूं सही, केवल ज्ञान दिणंद रे। धर्म प्रभावक प्रथम तूं, तूही है प्रथम जिनंद रे ॥ त्रि० ३ ॥ अंतर अरि जे आतम तणा, काल अनादि थिति जेह रे । ते तप शक्तियें तें हण्या, आतम वीरज गुण गेह रे ॥ त्रि. ४ ॥ ताहरी शक्ति कुण कह सके, जेहनो अंत न पार रे । द्वादश मास ने तप करयो, तेह अचानक सार रे ॥ त्रि. ५ ॥ एह उत्कृष्ट वरणव्यो, आगममें जिनराज रे। तेकर वू अति आदरूं, तप बिन किम सरे काज रे ॥ त्रि० ६ ॥ तीन से साठ उपवास ते, ते इण पंचम काल रे । अवसर आदरे क्रम बिना, ते पिण भवि सुविशाल रे ॥ त्रि०७॥ ए तप गुरु मुख आदरे, शास्त्र तने अनुसार रे । पडिक्कमणादिक भाव थी, शुद्ध क्रिया मन धार रे ॥ त्रि० ८॥ चित्त समाधि शुभ भाव थी, धरे ताहरो ध्यान रे । ते नर उत्तम फल लहे, कवि लहे उत्तम ज्ञान रे ॥ त्रि. ९॥ काल अनादि संसार में, जन्म मरण तणा दुःख रे । ते लहे धर्म पाया विना, तप बिना किम हुए सुक्ख रे ॥ त्रि० १०॥ हिव लह्यो नर भव पुण्य थी, वलि लह्यो श्री जिन धरम रे । तत्त्वनी रुची थई हिव, मिट्यो मन तणों भरम रे ॥ त्रि० ११ ॥ भव भव एक जिनराजनो, सरण होज्यो सुखकार रे । कुगुरु कुदेव, कुधर्म ने, मैं कियो हवे परिहार talahhhhhhhhhhhilaptashatishtatatakhtasha thatanah hotsshhhhhhh thilaksha bakalatakikathabhth totabastakshthaahtakaak laakahtolwise Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Assisaibiotionarishtakalactantadamastoileobabitabhakaashodiakatalelatedkakakistesakaetetitutakkarulanake जैन-रत्रसार ५५६ En ...... ...४००० vvvvvvvvv vvvvvvvvvvvvv wwwwww wwwwwwwwwwwwwwwwwww కుమారుడుkatahatahatalakalahasabhatakshakabadatalticals దుండుగురు atantrastutanbulakatakalakablastofulsatolokamlilariaslilholiwlink-fontsarlalana2 | रे ॥ त्रि० १२ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र ए, मोक्ष मारग सुविशाल रे । भव फल जे मुझ संपजे, तो फले मंगल माल रे ॥ त्रि. १३ ॥ श्री जिन शासन तप कह्यो, ते तप सुरतरु कंद रे। धन धन जे नर आदरे, कटे ते करमनो फंद रे ॥ त्रि. १४ ॥ कलश इम नाभि नंदन जगत वंदन, सकल जन आनंदनो । मैं थुण्यो धन दिन आज नो, मुझ मात मरुदेवी नंदनो ॥ संवत* सुनेत्राकास निधि, शशि नयर वालूचर । श्रीजिन सौभाग्य सुरिन्दके, सुपसाय विजय विमल वरे ॥१५॥ _अदाइस लब्धि तप स्तवन प्रणमं प्रथम जिनेसरूं, शुद्ध मने सुखकार । लबधि अठ्ठावीस जिन कही, आगम ने अधिकार ॥१॥ प्रश्न व्याकरणे प्रगट, भगवती सूत्र मझार। पण्णवणा आवश्यके, वारू लबधि विचार ॥२॥ आंबिल तप कर ऊपजे, लबध्यां अट्ठावीस । ए हिव परगट अरथ सू, सांभलज्यो सुजगीस ॥३॥ (सकल संसारनी) __ अनुक्रमे एह अधिकार गाथा तणे, लबधि ना नाम परिणाम सरिखा भणे । रोग सहु जाय जसु अंग फरस्यां सही, प्रथम ते लबधि छे नाम आमोसही ॥४॥ जासु मलमूत्र औषध समा जाणिये, वीर बप्पोसही लबधि बखाणिये । श्लेष्म औषध सारिखो जेहनो, तीजी खेल्लोसही नाम छे तेहनो ॥५॥ देहना मैल थी कोढ़ दुरे हुवे, चौथि जल्लोसही नाम तेहनो ठवे । केश नख रोम सहु अंग फरस्या सही, रहे नहीं रोग सव्वोसही ते कही ॥६॥ एक इन्द्रिय करी पांच इन्द्रिय तणा, भेद जाणे तिका नाम संभिण्णना । वस्तु रूप सहू जाणिये जिन करी, सातमी लब्धी ते अवधि ज्ञाने करी ॥७॥ * यह स्तवन १९२० में श्री जिन सौभाग्य सूरिजी महाराज के शासन कालमें श्री विजय विमलजी ने बनाया है। infanihsonanlodonlodinagakakirahkha assetsteststarrestenschitarthathaiahుడను నయమం b b416 ग्रनक लत्रकालगणनालगन्प्रनयन्त्रणमत्रपत्रमila Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - attack... रतवन-विभाग (आव्यो तिहां नरहर) हिव अंगुल अढ़िये ऊणो मानुष क्षेत्र, संज्ञा पंचेन्द्री तिहां जे वसय विचित्र । तसु मन नो चिंतित जाणो थूल प्रकार, ते ऋजूमति नामे अट्ठम लवधि विचार ॥८॥ संपूरण मानुष क्षेत्र संज्ञावंत, पंचेन्द्रिय जे छे वाता तंत । सूखम परजायें जाणे सहू परिणाम, ए नवमी कहिये विपुलमती शुभ नाम ॥९॥ जिण लबधि प्रभावे उड़ी जाय आकाश, ते जंघा विद्या चारण लवधि प्रकाश । जसु वचन सरापे खिण में खेरूं थाय, ए लबधि इग्यारमी आशीवीश कहवाय ॥१०॥ सहु सूखम बादर देखे लोकालोक, ते केवल लब्धि बारमिये सहू थोक । गणधर पद लहिये तेरम लब्धि प्रमाण, चवदम लबधि करी चवदे पूरव जाण ॥११॥ तीर्थकर पदवी पामे पनरम लबधि, सोलम सुखदाई चक्रवति पद रिद्धि। बलदेव तणो पद लहिये सतरमी सार, अढारमी आखा वासुदेव विस्तार ॥१२॥ मिसरी घृत क्षीरे मेल्या जेह संवाद, एहवी अहे वाणी उगणीशम परसाद । भणियो नवि मूले सूत्र अरथ सुवि चार, ते कुष्ट कुबुद्धि वीसम लब्धि विचार ॥१३॥ एके पद भणिया आवे 1 पद लख कोड, इकवीसमी लबधि पचाणु सारणी जोड । एक अरथे करी उपजे अरथ अनेक, बावीसम कहिये बीज बुद्धि सुविवेक ॥१४॥ कपूर हुवे अति ऊजलो सोलह देश तणी सही रे, दाहक शक्ति बखाण । तेह लबधि तेवीसमी रे, तेजो लेश्या जान ॥ चतुर नर सुणज्यो ए सुविचार, आगम ने अधिकार वारू लवधि विचार ॥ च० ॥ १५ ॥ चवद पूरवधर मुनि वरू. रे, उपजतां सन्देह । रूप नवो रचि मोकले रे, लवधि आहारक एह ॥ च० १६ ॥ तेजो लेट्या अगन नी रे, उपशमवा जलधार । मोटी लवधि पचवीसमी रे, शीतो लेश्या सार । च० १७ ॥ जेन मुक्ति सुं विकरचे रे, विविध प्रकारे रूप । सद्गुरु कहे छवीसमी रे, '. वैक्रिय लवधि अनूप ।। च० १८ ॥ एकल पात्र आइरी रे. जीमाड़े कइ . .. लाख । नेह अक्खीण महानसी रे, सत्तावीलमी साख ॥ च० १९ ॥ चूरे . ... .rial.lanakvakwtok fhkal diarrial kalaka kakarkat solankatestakeniella * -- ! .kab.adkikakakakaki. ..................'. Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www wwwwwwwwwnonm hawani ichaahtakhathabaththaathbfhhhhhttihilatanakathalasssmane Prahlal.lakshlndeakhukukurihiranioriMakala.ladiekasi.oardalitotalaniels.k १५८ . wwwwwwwwwwwwwww जैन-रत्नसार सेन चक्कीसनी रे, संघादिक ने काम । तेह पुलाक लबधि कही रे, अट्ठावीसमो नाम ॥ च० २० ॥ तेज शीत लेश्या बिहू रे, तेम पुलाक विचार । भगवती सूत्र में भाखियो रे, ए त्रिहु नो अधिकार ॥ च० २१ ॥ पण्णवणा आहारनी रे, कलप सूत्र गणधार । तीन तीन इक इक मिली रे, वारू आठ विचार ॥ च० २२ ॥ प्रश्न व्याकरणे सही रे, बाकी लब्ध्यां वीश । सांभलता सुख ऊपजे रे, दौलत हुए निश दीश ॥ च० २३ ॥ कलश संवत्* सतरे सै छवीसें, मेरु तेरस दिन भले। श्री नगर सुखकर लूणकरणसर, आदि जिन सुपासा उले ॥ वाचना चारज सुगुरु सानिध, विजय हरख विलास ए। श्री धर्म वर्द्धन स्तवन भणता, प्रगट ज्ञान प्रकास ए ॥२४॥ चतुर्दश पूर्व चैत्यवन्दन पहले पद उत्पाद दुजो आग्रायणि जाणे, तीजो वीर्यवाद चौथो अस्तिनास्ति बखाणे । नारगरयण पंचम पूर्व छठे सत्य सुहायो, सप्तम आत्म अष्टम कर्मवाद कहायो ॥१॥ प्रत्याख्यान नवम विद्याप्रवाद दशमें, ग्यारम नाम कल्याण प्राणायु बारम इसमें । क्रिया विशाल तेरमो ए विन्दुसार चौदमो जाण, इनको नित उठ वन्दना पामें सूरज कल्याण ॥२॥ चतुर्दश पूर्व तप स्तवन जिनवर श्री वर्धमान चरम तीर्थंकर, प्रह उठी प्रणम मुदा ए । श्रुतधर श्री गणधार, सूरि शिरोमणी नमतां नव निधि सम्पदा ए ॥१॥ चवदे पूरब नाम, सूत्रे पूजुवा वीर जिनन्दे भाखिया ए । ते हिव सुगुरु पसाय, वरणविस्यं इहां आगममें जिम उपदिस्या ए ॥२॥ पहिला पूर्व उत्पाद, दुजो आग्रायणी वीर्यवाद तीजो नम ए । अस्ति नास्ति प्रवाद सत्ता जानिये, नारग रयण पंचम गिणं ए ॥३॥ छटो सत्यप्रवाद सत्तम आतम कर्म प्रवाद * यह स्तवन १७२६ में श्री धर्म वर्द्धन जी महाराज ने बनाया है। a thikthakathhtrabb14taaphalalala lihalulahaleela.1212 kannadatathlatakate hketakathaanaashhhhhhhhhhhtirgahahah...H . 2----- - . Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रनयन्त्रमनधनप्रणप्रनयन्त्र ण मययनत्रणवत्रत्रधश्रधनयन्त्रमन्त्र स्तवन-विभाग ५५६ anorma raha.moon........ अट्ठम गिणो ए । प्रत्याख्यान प्रवाद नामें नवम, विद्या प्रवाद दशमो कह्यो ए ॥१॥ इग्यारम नाम कल्याण प्राणायु बारमो क्रिया विशाल तेरम भणो ए। विन्दुसार इण नाम चवदे ए कह्या, शास्त्र थकी मैं संग्रह्या ए ॥५॥ ॥ श्री विमलाचल शिर तलो ॥ उत्पाद पूर्व सोहामणो, कोटी पद परिमाण । षट् भाव प्रगट छे ते जहां त्रिपदी भाव विनाण ॥६॥ सर्व द्रव्य पर्याय तणों, जीव विशेष प्रमाण । दुजो पूर्व आग्रायणी छिन्नं लख पद जाण ॥७॥ पद लख सत्तर जेहनी संख्या परए एह, वीर्य्य प्रबलता जीवनी भाखो तीजे तेह ॥८॥ चौथे पूर्व जे कह्यो अस्ति नास्ति प्रवाद, पद संख्या साठ लाखनी सप्तभंगी स्याद्वाद ॥९॥ ग्यान प्रवाद पद पांचमों, सूत्रे आण्यो जोड । मत्यादिक पण भेदसू पद संख्या इक कोड ॥१०॥ सत्यप्रवाद छठा कहूं भाखू सत्य स्वरूप । संख्या पद इक कोडनी भाखी आगम अनूप ॥११॥ नित्यानित्य पणो इहां आतम द्रव्य स्वभाव । छब्बीस पद कोड जेहना सूत्रे आण्या भाव ॥१२॥ कर्म प्रवाद तणों हिये प्रगट पणे अधिकार । लाख असी पद जेहना कोडी इग निरधार ॥१३॥ नवमों पूर्व कहूं हिवे नामे प्रत्याख्यान । लाख चौरासी * जेहना पद संख्या चित आन ॥१४॥ अतिशय गुण संयुत भणी साधन साध्य निदान । विद्या अनूपम सातसौ कोडी बरस लख जान ॥ १५॥ कल्याण नाम इग्यारमो, छव्वीस कोड प्रमाण । ज्योतिष शास्त्र विचारणा चौविह देव कल्याण ॥१६॥ प्राणायु पद बारमो, छप्पन लख इग कोड । प्राण निरोधन जे किया शास्त्र आण्यो जोड़ ॥१७॥ क्षायिकादिक जे क्रिया छन्द क्रिया सुविशाल । पद संख्या नव कोडनी तेरमी क्रिया विशाल ॥१८॥ लोकसार विन्दु चवदमो नामें अरथ निहाल । पद संख्या इग कोडनी लाख पचवीस सम्भाल ॥१९॥ लोक प्रत्यक्ष देखन भणी संख्या गज परिमाण । सोले सहस अरु तीनसौ और तयासी जाण ॥२०॥ पूरब संख्या ए कही गुणमाला थी देख । आगे बुधजन साधयो बाकी देश विशेष ॥२१॥ Idalipelastrolenbolotaolodbalatastatistiltoashdasarlahabalestialisatoslarkiyaalotalodaab kasetalistulatakhatalathkshfinitatistatitlelalithaliratkilalitainleshtatichhorthatantratithinthinetriotsote नयन्त्रणमननननननननननननननननननननननननननन Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఆడవడdesolattituthihass andra నవమునందును కనుగడననము जैन-रत्नसार vNowww..wwwwwwwwwwwwwwwwww. wwwwwwwwwwwwwin wowwww. near-of-वस्त्र-शस्त्रवचनवनवल्यकत्रनयन्त्रणवत्रन्यनयन्त्रन्न्यास चन्द्रग्रन्न ॥वीर जिनेसर उपदिसे ॥ सूत्र गूथे गणधरा, अरथें अरिहन्त भाखे रे । ते श्रुतज्ञान नमूं सदा पाप तिमिर जिम नासे रे ॥२२॥ वाणी रे जिणंद नी, सुणज्यो चित्त हित आणी रे । तत्त्व रमणता अनुसरे सम्पूरणगुण खानी रे ॥२३॥ विषय कषाय तजी करी ज्ञान भगत उरधारी रे । विधि संयुत जिन मन्दिरे प्रभु मुख पास जुहारी रे ॥२४॥ तप जप संयम आदरी श्री श्रुतज्ञान निधानो रे । सद्गुरु चरण नमी करी संवर जोग प्रधानो रे ॥२५॥ अक्षत लेई ऊजला गहुली सुन्दर कीजे रे। नाण दंसण चारित्र नी ढिगली तीन धरीजे रे ॥२६॥ चवद पूर्व व्रत इण परे सुगुरु संजोगे लेई रे। विधि सूं पुस्तक पूजिये, चित्त अति आदर देई रे ॥२७॥ इम तप संपूरण थयां ऊजमणो हिव कीजे रे।। घर सारूं धन खरचने नरभव लाहो लीजे रे ॥२८॥ पूठा परत विटांगणा पूरब नाम प्रमाणो रे । नवकर बोली कोथली लेखण ठवणी जाणो रे ॥२९॥ देहर देव जुहारने, आरतीमंगल कीजे रे । स्नात्र पूजा वलि साचवी, तत्त्व सुधारस पीजे रे ॥३०॥ इण पर तप आराधता, दुरगति कारण छेदे रे । चवद रज्जु शिरोमणी, जीव अक्षय गति वेदे रे ॥१०॥ तप आराधन विधि भणी, आगम वचने जोई रे । भवियण पिण तुम आदरो, ज्यूं भव भ्रमण न होई रे ॥३१॥ कलश Makisthologicalcilamicolasticlininelaieranialistlinaldainalishalebisaliliabletalalakatanahakakktatestostosak G AMASTERaonlintrientamannmaara इम सयल सुखकर गच्छ खरतर, तपे रवि जिम क्रांत ए। सौभाग्य सूरि मुणिंद इण पर, कह्यो पूर्व वृतान्त ए ॥ संवत् अठार वरस छिन्न, नगर श्री वाल चर । ए स्तवन भणतां श्रवण सुणतां, सयल मन वंछित फले ॥३२॥ यनन्तनमनन चतुर्दश पूर्व स्तुति ___चौदह पूर्व जिनेश्वर, भारव्या बारम्बार। गणधर पटधारी, धारया हृदय मझार ॥ तपस्या इनकी करिये, गुणकर आतम जान । शुध मनसे सेवो, "सूरज" गुणमणि खान ॥१॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग 21statulatitled-thintatin ALI- In-Latalamlakatakalatak -3- A L AYINokistablets तिलक तपस्या का स्तवन शासन देवी शारदा वाणी सुधारस वेल । बालक हित भनि बकसिये, सुथुद्धि सुरङ्गी रेल ॥१॥ नवम अंग जिन पूजतां, मन लहि शुभ परिणाम । तप तिलके फल पामिये, दवदंती गुण ठाम ॥२॥ (वीर जिणेसर उपदिसे) . कमला जिम कुंडल पुरे, भुजबल नरपति भीमो रे । पदम नी पदम । सुवास ना, श्वेत गज स्वप्ने नीमो रे ॥ प० १॥ परतच्छ फल ए पुण्य ना, प्रसवी सुता पूरे मासे रे। दवदंती नाम दीपतो, गुणमणि बुद्धि प्रकासे रे॥ प० २ ॥ चौसठ कला विचक्षणा, रूप गुणे करि रंभा रे। देवगुरु धर्म दीपावती, व्रतधारी दृढ़ बंभा रे ॥ प० ३ ॥ प्रतिमा पूजे शांति नी, देवे दीधी त्रिकालो रे । मात पिता प्रमोद सं, स्वयंवर वर मालो रे ॥१०॥ उवझायाधिप श्री निषध नो, नल लिखियो निलाडे रे । आनन्द सूं पथ आवतां, पूरव पुण्य उघाडे रे ।। प० ५ ॥ मझम रयणी तम भरी, मधुर वकंत इहां वन में रे । मणि भाले तेज दिन मणी, जाग्रत देखी अहो मन में रे ॥ प० ६ ॥ ज्ञानधरी गुरु कोइ मिले, पूछिये एह प्रसन्नो रे । कर्म वले मुनि आविया, परीसह जीत मदन्नो रे ॥ प० ७॥ पंच जीत पंच पालतां, टालता दुस्सह सबला रे । संजम शुद्ध संभालतां, उद्यम शिवसुख कमला रे ॥ प० ८ ॥ ॥दोहा॥ ____ मणि तेजें मुनि तरु ठवे, स्य थकी स्त्री भरतार । देवे तीन प्रदक्षिणा, विधिसूं चरण जुहार ॥९॥ देशना सुण पावन थया, ज्ञान सुधारस पाय ! को तप परभव तिलक है, कहिये श्री मुनिराय ||१०|| (भरत भाव सं ए) मधुर स्वर मुनिवर कहे ए, ज्ञानी गुरु सुपसाय ए, दीपक सहु लोक ना ए। कर्म शुभाशुभ परभवे ए. इह भव फल निपजाय, करम गति वंकडी ए ॥१२॥ ओहि नाण भव प्रागनो ए. नृप मुने निरमल भाव -Landutstallianti-t-1-hinatathist-Antastelmartstatulatastet-tantants.thahtety Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E%%%%%****** Vokyootosa) जैन - रत्नसार समकित सहायोए । धर्मवती को नृप वधु ए, जाण्यो है तत्त्व प्रस्ताव साची जिन वांचना ए॥१२॥ चौथ प्रमुख नृप चंपसूं ए, किरिया शुद्ध करी एह भले चित भावसूं ए । नवांग पूजा तिलक सूं ए, चाढ़े जिन चौवीस रयण कंचण चढ्या ए || १३|| तिलक तिलक से पामियो ए, समकित एह सतीस जनम सफलो गिणो ए । भगवन् तप विधि भाखिये ए, नल कहे बोध करीस, पीहर षटू काय ना ए || १४ || आदिनाथ अरिहंत ना ए षट् उपवास कहीस, त्री चौवीहारसूं ए । चौथ दोय जिन वीर ना ए, अजितादिक बावीस आणा गुरु शिर वही ए ॥ १५॥ थया ए, पूजन तिलक चढ़ाय तारक जगदीसने ए । ए, जन्म सफल नर राय, सूधे मन साधिये ए ॥१६॥ ग्रहे ए, पय प्रणमी गुरु वीर चित्त उमाहियो ए । ए याये चरम शरीर, मूल सुख शासतो ए ॥१७॥ पोषध त्रीस तीने उद्यापन संघ भक्तिसं सुन वाणी समकित इण पर जे भवि आदरें कलश श्री शांति दाता त्रिजग त्राता, भविक ध्याता सुखकरा । इम सतीय साध्यो तप आराध्यो, सुजस वाध्यो शिवधरा ॥ आगमे भाखे सुरीय साखे, सुगुरु भारखे सुण थया । शुद्ध ध्याने भविक भावें, विजय विमल जिनवर का ॥ १८ ॥ ५६२ ****** www ww सोलिये तप का स्तवन वीर जिनेसर भाखियो रे लाल, सहु व्रत में सिरताज भवि प्राणी रे । कषाय गंजन तप आदरो रे लाल, इणथी पातिक जाय ॥ भा० वी० १ ॥ कोड वरस तप आदरे रे लाल, क्रोध गमावे फल तास । मान करे जे प्राणियां रे लाल, ते जग में न सुहाय ॥ भ० वी २ ॥ व्रत में माया आदरी रेलाल, स्त्रीपणो पायो मल्लिनाथ । रूप पराव्रत कीया घणा रे लाल, आषाढ़ भूति गणिका साथ ॥ भ० वी० ३ ॥ चार कषाय छे मूलगारे लाल, जीव पामे बहु खेद उत्तम सोले भेद । इम भव भव भमतो थको रे लाल, ॥ भ० वी० ४ ॥ एकासण व्रत जे करे रे लाल, लाख चरस दुःख हाण | Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ జనన स्तवन-विभाग mamimaharaAMAMAmAhmmarAmAmmanmmmmmmmmmmmmWARAMAmernamaArrner ననన ననన उपधारा తనన ననన న नीवी व्रत दुजो कह्यो रे लाल, ए धारो जिनवर वाण ॥ भ० वी ५॥ आम्बिल नो फल बहु कह्यो रे लाल, उपजे लवधि अपार । उपवास करतां भावसू रे लाल, पामें भव नो पार ॥ भ० वी० ६ ॥ इम दिन सोले तप करो रे लाल, पूरण व्रत ए थाय । देव गुरू पूजा करे रे लाल, मन बंछित फल पाय ॥ नर सुर ऋद्धि पिण भोगवे रे लाल, निश्चय मुगति जाय ॥ भ० वी० ७॥ उपधान तप स्तवन श्री महावीर धरम परकासे, बैठी परषद बार जी । अमृत वचन सुनी अति मीठा, पामें हरख अपार जी ॥१॥ सुनो सुनो रे श्रावक उपधान वह्या विन किम सूझे नवकार जी। उत्तराध्ययन बहुश्रुत अध्ययने, एह | भण्यो अधिकार जी ॥ सुनो० २ ॥ महानिशीथ सिद्धान्त माहे पिण, उपधान तप विस्तारें जी । अनुक्रम शुद्ध परस्पर दीसे, सुविहित गच्छ आचारें जी ॥ सुनो० ३ ॥ तप उपधान वह्यां बिन किरिया, तुच्छ अलप फल जान जी । जे उपधान वह्यां नरनारी तेह नो जनम प्रमाण जी ॥ सुनो० ४ ॥ तप उपधान कह्यो सिद्धान्ते, जो नवि माने जेह जी । अरिहन्त देव नी । आण विराधे, भमस्ये भव भव तेह जी ॥ सुनो० ५॥ अघड्या घाट समा नरनारी, बिन उपधाने होय जी । किरिया करतां आदेश निरदेश, काम सर नहीं कोय जी ॥ सुनो. ६ ॥ इक घेवर ने खांडे भरियो, अतिघणो मीठो थाय जी । एक श्रावक उपधान वहे तो, धनधन ते कहिवाय जी ॥ सुनो० ७ ॥ ॥ ढाल ॥ नवकार तणो तप पहिलो वीसड जाण, इरिया वहिनो तप बीजो वीसड आण । इण विहु उपधाने निश्चय नाण मंडाण, बारे उपवास गुरु मुख सेवे वाण ॥ सुनो० ८ ॥ पैंतीसड़ त्रीजो णमुत्थुणं उपधान, त्रिण वायण उगणीस तप उपवास प्रधान । अरिहंत चेई तप चौथो चौकड एह, उपवास अढ़ाई वाण एक गुण गेह ॥ ९ ॥ पांचमो लोगस्स तप अठ्ठावीसड़ క తరం మ న కు tarkatakshatralu Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hotovse sesedkaktedkarkatihadkatekekakesksharshakeeksketektakkakkakkkkkkkkkkakestatekkekseededekare जन-रत्नसार H ummarwanawww.arn AAAAAAAAdalathiMIXXMARKETXXX नाम, साढ़ा पनरह उपवास वायण त्रिण ठाम । पुक्खर वरदी तप छठो छक्कड सार, साढ़ा त्रण उपवासे वाण एक सुविचार ॥ १० ॥ सिद्धाणं बुद्धाणं सातमो उपधान माल, उपवास करे इक चौविहार तत्काल । एक वाणि करे वलि गुरु मुख सरस रसाल, गछनायक पासे पहरे माल विशाल ॥ ११ ॥ माल पहरण अवसर आणी मन उछरंग, घरे सारूं वारूं खरचे धन बहु भंग । अति उच्छव कीजे राती जोगो दिल खोल, गीत गान गवावे पावे अति रंगरोल ॥१२॥ ॥ ढाल ॥ ए साते उपधान विधि सो जे बहे ते सूधी किरिया करे ए । खिण न करे परमाद, जीव जतन करइ पूजि पूजि पगलां भरे ए ॥१३॥ न करे क्रोध कषाय हम हम हसें नहीं मरम केह नो नवि कहे ए । नाणे घर नौ मोह उत्कृष्टी करे, साधुतणी रहनी रहे ए ॥१४॥ पहुर सीम सिज्झाय, करि । पोरिसि भणी ऊंचे स्वर बोले नहीं ए । मन मांहें भावे एम, धन धन ए दिन, नरभव मांहि सफल सही ए ॥१५॥ जे साते उपधान, विधिसे तीविहे पहिरे माल सोहामणी ए। तेहनी किरिया शुद्ध, बहु फलदायक करम निर्जरा अति घणी ए ॥१६॥ परभव पामें शुद्धि, देवतणां सुख बत्तीस बद्ध नाटक पडे ए। पावे लील विलास अनुक्रम, शिवसुख चढ़ती पदवी जे चढ़े ॥१७॥ कलश इम वीर जिनवर भुवन दिनयर मात त्रिसला नन्द नो । उपधान नां फल कहे उत्तम भवियजन आणंदनो। जिनचन्द युग परधान सद्गुरु सकलचन्द मुनीसरो । तसु सीस वाचक समय सुन्दर भणे वंछित सुखकरो ॥ १८ ॥ पैंतालीस आगम स्तवन चौवीसे श्री तीर्थपति, नमूं देव अरिहंत । अर्थ प्रकाशे गण पुर, द्वादश अंग महंत ॥१॥ त्रिपदि लहि गणपति रचे, सूत्र अर्थ संयोग। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ มูสัยโจได้ स्तवन-विभाग NNNN โดยไม่ได้โดนใจใครในใจไet ได้ให้สะดวัดได้ जत्रप्रनत्रजननननननननननननन.क्र-मप्रलमत्रपत्र ในวันนไดไไไ अक्षर रूपे सारदा, प्रणम त्रिकरण योग ॥२॥ टीका करतां जगतगुरु, सूत्र करे गणधार । पंचागी युत विस्तरे, नय निक्षेप विस्तार ॥३॥ दुषम काल दुर्भिक्ष में, भूले बारम अंग। कंठ पाठ से लिखित कर, रचना रची अभंग ॥४॥ खंदिल अरु देवड्डि गणि, आचारज सय पंच । चौरासी आगम लिखे, कोटि ग्रन्थ तज खंच ॥५॥ काल दोष से अब मिले, आगम पैंतालीस । ताको मुनि विवरण करे, माने बिसवा बीस ॥६॥ (जगगुरु त्रिशला नंदजी ) आचारांग पहिलो कह्यो जी, मुनि आचार विचार । सूयगडांग दुजो अछे जी, षट मत दर्शन सार || जगत्गुरु भाखे वीर जिनंद ॥७॥ दस ठाणा ठाणांगमे जी, समवायांग संख्यात । सहस छतीस भला प्रशन जी, भगवई अंग विख्यात ॥ ज० ८ ॥ धर्म कथा ज्ञाता भणी जी, दस श्रावक व्रत धार । दसाउपासक सातमो जी, अंग कह्यो निरधार ॥ ज० ९ ॥ अंतगड | केवली जे थया जी, वरणन अष्टम अंग । पंचानुत्तर जे गया जी, अणुत्तरो ववाई चंग ॥ ज० १० ॥ अंगुष्टादिक प्रश्नो जी, प्रश्न व्याकरण नाम । सुख दुःखना फल भाखिया जी, सूत्र विपाके ताम ॥ ज० ११ ॥ अठारे सहस आचारांगमें जी, पद संख्या परिमाण । वर्ण संख्या ते पद हुवे जी, ठाण दुगुण सब जाण ॥ ज० १२ ॥ उववाई ऊपांगमें जी, कोणिक अंबड रूप । वर्णन नगरी आदि दे जी, सांभल भविजन चूप ॥ ज० १३ ॥ सूरियाम पूजा करी जी, जिन प्रति मानव रंग । द्रव्य भाव बिहुं भेदसं जी, राय प्रश्नी चित चंग ॥ ज० १४ ॥ जीव तणो अभिगम सही जी, विजयदेव प्रस्ताव । जीवाभिगम तीजो कह्यो जी, सुर कृति बहुविध भाव ॥ज०१५॥ पन्नवणा में जान ज्यो जी, जीवा जीव विचार । जम्बूद्वीपनी वर्णना जी, नाम थकी निरधार ॥ ज० १६ ॥ सूरचन्द्र विग्रह गती जी, पन्नति विहुँ जान । कप्पिया कप्प वडिंसया जी, पुफिया नाम वखान ॥ ज० १७ ॥ पुप्फ चूलिया जाणिये जी, वह्नि दशा इण नाम । नामथी अर्थ पिछाणि ज्ये जी, सांभलता सुखधाम ॥ ज० १८ ॥ ไไไไไไไไไไไไดไไดไe alrette ไงไม่ให้ได้ในไฟได้ไกลไดไฟในไดนไวไขเเนะ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . wwwwww maawwe www t iartiktar MAHARARMEReatiatistiatkattatute-AKHTARNATAKAkotatatu जैन-रवसार ( ख्याली लाल अणवट रंग लागो) छेद तणा प्रायश्चितना जी, छेद छए ए जान । वृहत्कल्प विवहार में जी, भाख्यो भगवंत ज्ञान ॥ सुज्ञानी लाल इणसं नित राचो । राचो राचो रे भविक, दिलदार इण सूं नित राचो ॥ सुज्ञा० १९ ॥ महा निषीथे भाखियो जी, जिन पूजा बिहुँ भेद । श्रावक द्रव्ये भाव सू जी, मुनिवर भाव उमेद ॥ सुज्ञा० २० || जीत कल्प वलि निसीथ छे जी, और दशा श्रुतस्कंध । दश पयन्ना जाणिये जी, चौसरण संथार प्रबंध ॥ सुज्ञा० २१ ॥ तंडुल वयाली चंदाविझया, गणविद्या अभिधान । देवविज्झया वीर थुवो जी, गच्छाचार निधान ॥ सुज्ञा० २२ ॥ ज्योतिष करण्ड महा पच्चक्खाण जी, चार सूत्र छे मूल । आवश्यक दशचै कालिक जी, उत्तरा ध्ययन अमूल ॥ सुज्ञा० २३ ॥ चारे अनुयोगे करी जी, रचना सूत्रे जान । तेह न्याय निक्षेप थी जी, अनुयोग द्वार प्रधान ॥ सुज्ञा० २४ ॥ द्रव्यानुयोग छए द्रव्य नी जी, चर्चा विधि विस्तार । चरण करन अनुयोग में जी, मुनि श्रावक आचार || सुज्ञा० २५ ॥ गणतानुयोग गणना करी जी, पृथ्वी निरी विमाण । वर्ग मूल धन मूल थी जी, जानो चतुर सुजान ॥ सुज्ञा० २६ ॥ | धर्म कथा अनुयोग में जी, धर्म कथा दृष्टान्त । ए चारों विस्तारिया जी, पैंतालीस सिद्धान्त ।। सुज्ञ० २७ ॥ (सांगानेर विराजे) सुन सुन गौतम वाणी, इम वीर वन्दे गुणखाणी रे । भवियां आगमसू मन लावो, मन कल्पित बात न गावो रे ॥ भ० २८ ॥ नंदी सूत्र चिर नन्दो, या पंच ज्ञान ने वंदो रे । ज्ञानना भेद वखाण्या, मति अट्ठावीसे आण्या रे ॥ भ० २९ ॥ श्रुत चवदे वीसां भेद ए, मिथ्यातम ने छेदे रे । अवधि छ । असंख्य प्रकारे, मन पर्यव दुय भेद धारे रे ॥ भ० ३० ॥ केवल एक प्रकासे, ए सब विधिनंदी भासे । एतो सहुआगमनी नंद, स्याद्वाद भंगनी बून्द रे ॥ भ० ३१ ॥ अंग उपांगनी टीका, कर्ता ने नमं निरभीकारे । प्रथम शीलांगाचारी, श्री अभयदेव बलिहारी रे ॥ भ० ३२ ॥ मलयगिरि गुरु स्वामी, BlishaHEATERASHTRANatalialialeikiselialetioladkistasiorealonladekilankaloklakh transattashatarrassortmiksina ATTAR AKArelie- haitaramatestantastotreets- S Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग इत्यादिक ने सिर नामी रे । सामान्य विशेषे साखी रे || भ० ३३ || उत्सर्ग वचन छे केइ, इक मन से आराधो, मन वंछित सगला साधो रे ॥ भ० ३४ ॥ ( मंगल कमला कंद ए ) ५६७ निश्चय व्यवहार छे भाखी, अपवाद वचन ने लेइ रे । पैंतालीस आगम तणी ए, हिव तप विधि सुणज्यो हित भणी ए । दुज पांचम एकादशी ए, ज्ञान तिथी तप थी कर्म जाय खसी ए ||३५|| शक्ति छते उपवास ए, आंबिल नीवी थी उल्हास ए । एकासण अथवा करे ए, एम पैंतालीस दिन आचार ए || ३६ || जाप करे दो हजार ए, देव वंदन पूजन सार ए । प्रति क्रमण करे दोनूं टंक ए, आगम सुणे अर्थ निसंक ए ||३७|| ऊजमणो हित चित्त करे ए, गुरु भक्ति चित्त सं आदरे ए । भक्ति करे साहमी तणी ए, जे पढ़े पढ़ावे ते भणी ए ॥ ३८ ॥ अन्न वस्त्र पुस्तक करे दान ए, तिण मनुष्य जनम परिमाण ए । ते पामें श्रुत ज्ञान ए, क्रम थी हे पद निवाण ए ॥३९॥ पढ़ कलश शुभ नंद सर निधि चन्द्र वरसे, माघ सुदि पंचमि दिने । वर नयर बीकानेर सुन्दर, बृहत्खरतर गण घणे || गणधार कीर्ति सुरिंद पाठक, राम गणि ऋद्धि सार ए । इम करिय रतबना सुय महोदय, सदा जय जयकार ए ॥४०॥ पैंतालिस आगम का गुणना ( इग्यारे अंग ) जी सूत्राय १ श्री आचारांग जी सूत्राय नमः | २ श्री सुयगडांग जी सूत्राय नमः | ३ श्री ठाणांग जी सूत्राय नमः । ४ श्री समवायांग जी सूत्राय नमः । ५ श्री भगवती जी सूत्राय नमः । ६ श्री ज्ञाता धर्म नमः | ७ श्री उपासगदशा जी सूत्राय नमः । ८ श्री अंत सूत्राय नमः । ९ श्री अणुत्तरो बबाइ जी सूत्राय नमः । १० व्याकरण जी सूत्राय नमः । ११ श्री विपाक जी सूत्राय नमः । गडदशा जी श्री प्रश्न * यह स्तवन १९५६ मे उपाध्याय रामलाल जी गणी ने बनाया है । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wril -- - -Prer rammamanarmanaman- rammer जैन-रत्नसार (वारह उपांगों के नाम ) १ श्री उववाई जी सूत्राय नमः । २ श्री रायपसेणी जी सूत्राय नमः। ३ श्री जिवाभिगम जी सूत्राय नमः । ४ श्री पण्णवणा जी सूत्राय नमः । है। ५ त्री जम्बु द्वीप पण्णत्ति जी सूत्राय नमः । ६ श्री चन्द्र पत्तिजी सूत्राय नमः । ७ श्री सूर पण्णत्तिजी सूत्राय नमः । ८ श्रीकप्पियाजी सूत्राय नमः। । ९ श्री कप्पडिसिया जी सूत्राय नमः । १० श्री पुफिया जी सूत्राय नमः । ११ श्री पुष्फचूलिया जी सूत्राय नमः । १२ श्री वह्नि दसा जी सूत्राय नमः। yadelosleadioledlesbiludelesedalisaileetilisatilakaalidesileladkisatadaa s ॥ ग्यारह अंग ॥ १-आचारांग जी सूत्र में विशेष करके साधुओं के आचारों का वर्णन ह । २-सुय गडांग जी सूत्र मे षट् दर्शनों का खण्डन और जैन धर्म का मण्डन है। ३-ठाणांग जी सूत्र में दशठाणे हैं हर एक ठाणे में एक एक चीज का वर्णन है। ४-समवायांग ली सूत्र में पांच सम वायों का वर्णन है। ५-भगवती जी सूत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न और भगवान् महावीर स्वामी का उत्तर। ६ ज्ञाता जी सूत्र में कथायें और द्रौपदी की पूजा का वर्णन है। ७-उपाशक दशा जो सूत्र में दश श्रावकों का वर्णन है। ८-अन्तगड दशा जी सूत्र मे अन्त समय में केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जाने वाले जीवों का वर्णन है।६-अतुत्तरोव वाई जी सूत्रमें काकन्दी के धन्ना जी की तपस्या का वर्णन है। १०-प्रश्न व्याकरण जी सूत्र में आश्रव द्वार और संवर द्वार का वर्णन है। ११-कर्म विपाक जी सूत्र में दश दुःख पाकर और दश सुख पाकर मोक्ष जाने वाले जीवों का वर्णन है। htrakarMaritalisments Maker s ॥ बारह उपांग ॥ १-उववाइ जी सूत्र में कोणिक, नगरी का वर्णन है। २-जीवाभिगम जी सूत्र में जीव पदार्थ की जानकारी का वर्णन है। ३–पण्णवणा जी सूत्र में जीव अजब का विचार है। ४-जम्वु द्वीप पण्णत्तिमें जम्बुद्वीप का वर्णन है। ५-चन्द पण्णत्ति में चन्द्र आदि ज्योतिष देवों का वर्णन है। ६-सूर पण्णत्ति में भी ज्योतिष का वर्णन है। ७-निरियावलिभाजी में चेडाराजा और कोणिक राजा की लड़ाई का वणन है। कृप्यवडिंसया जी में पद्मकुमार । आदि दश भाइयों के देवलोक जाने का वर्णन है। -पुफिया जी में चन्द्र, सूर्य देवों का । वर्णन है। १०-पुष्फ चूलिया में श्री देवी आदि दश देवियों का वर्णन है। ११-वहिदशा ! * में निसठ्ठ आदि वारह भाइयों का वर्णन है। १२-रायपसेणी में केशी स्वामी और प्रदेशी राजा का वर्णन है। Pakistatekahelipakthreadstalelaleledkeleteding Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग ( छः छेद का नाम गुणना ) १ श्री व्यवहार छेदजी सूत्राय नमः | २ श्रीवृहत्कल्पजी सूत्राय नमः । ३ श्री दशाश्रुत स्कंध जी सूत्राय नमः । ४ श्री निषीथ जी सूत्राय नमः । ५ श्री महानिषीथ जी सूत्राय नमः | ६ श्री जीत कल्प जी सूत्राय नमः । || दस पयन्ना नाम गुणना ॥ ५६६ १ चउसरण पइण्णा जी सूत्राय नमः । २ संथार पइण्णा जी सूत्राय नमः | ३ श्री तंडुल पइण्णा जी सूत्राय नमः । ४ श्री चंदा विज्झिया जी सूत्राय नमः | ५ श्री गण विज्झिया जी सूत्राय नमः | ६ श्री देव विज्झिया जी सूत्राय नमः | ७ श्री वीर युवो जी सूत्राय नमः । ८ श्री गच्छाचार जी सूत्राय नमः । ९ श्री ज्योतिष्करण्ड जी सूत्राय नमः । १० श्री महा पञ्चक्खाण जी सूत्राय नमः । ॥ मूल सूत्र के नाम का गुणना ॥ १ श्री आवश्यक जी सूत्राय नमः । २ श्री उत्तराध्ययन जी सूत्राय नमः | ३ श्री ओघनिर्युक्ति जी सूत्राय नमः । 8 श्री दशवैकालिक जी सूत्राय नमः । १ श्रीअनुयोग द्वारजी सूत्राय नमः | २ श्रीनन्दी सूत्रजी सूत्रायनमः । गणधर तपस्या गुणना १ श्री इन्द्रभूति जी गणधराय नमः | २ श्री अग्निभूति जी गणधराय नमः | ३ श्री वायुभूति जी गणधराय नमः । ४ श्री व्यक्तभूति जी गणधराय नमः । ५ श्री सुधर्मा स्वामी जी गणधराय नमः । ६ श्री मण्डित स्वामी जी गणधराय नमः | ७ श्री मौर्य्य पुत्र जी गणधराय नमः । ८ श्री अकम्पित जी गणधराय नमः । ९ श्री अचल जी गणधराय नमः । १० श्री मेतार्य्य जी गणधराय नमः । ११ श्री प्रभव जी गणधराय नमः | नवकार माहात्म्य ( छंद ) सुख कारण भवियण, समरो नित नवकार । जिन शासन आगम, 72 Autodel of late to to to to to to to tait to to to to to to to to to to to toy to to to to to to to do! YaYa! Y Holertestarter, Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , .. . th.ht .. . m l ........ .. a ..... l ........... ...... ... ......... . . ............ .I . जन- रसार चव पूरब सार ॥ इन मंत्र नि महिमा. कहनां लहुं न पार । मुरतरु जिम चिंतित, वंछित फल दातार ||१|| मुर दानव मानव, सेव करें कर जोड । भू मंडल विच, तारे नविषण कोड ॥ सुर उंदे विलसे, अतिशय जानु अनन्त । पहिले पढ़ नमिये, अरिगंजन अरिहंत ॥२॥ जे पनर भड़े सिद्ध । यया भगवंत । पंचनि गति पहुंना, अट करम करि अंत ॥ कल अक्ल मल्पी, पंचानंतक जेह । सिद्धना पय प्रणम. बीजे पद वलि एह ॥३॥ गच्छमार धुरंधर, मुन्दर शशिहर मान । कर शारण वारण, गुण छत्तीसे तोम ॥ श्रुत जाण शिरोमणि, सागर जेम गंभीर । तीज पढ़ नमिये, आचारज गुण धीर धा श्रुतघर गुण आगम, सूत्र भगारे सार । तप विध संयोगे, नाले अत्य विचार ॥ मुनिवर गुण युत्ता, ते कहिये उपाय। चौथे पद नमिये, अहनिशि तेह ना पाय ॥ पंचाश्रव बाले, पाले पंचा चार | तपती गुणधारी, वारी विषय विकार ॥ स थावर पीहर लोक माहि ते नाथ । त्रिविध ते प्रणन, परमात्य इन लाघ ॥६॥ अरि हरि करि साइण, डाइण भूत केताल । सब पाप पगाले, विलले नंगल माल ॥ इम समरयां संकट, दूर टले तत्काल । जंप जिग गुण इम, सुरवर सीस रसाल ॥ नंदीश्वर द्वीप स्तवन नंदीसर बावन जिनालय, शाश्वता चौमुख सोहे रे। ऋषभानन ! चंद्रानन वारिषण, वर्षमान नन नोहे रे ॥ नं० १॥ आठमा दीप नंदीसर अद्भुत, वलयाचार विराजे रे । तेहने नव्ये चहुं दिशि शोभित, अंजन गिरिवर छाजे रे ॥ नं० २॥ जोयण सहस चौरानी ऊंचा, ऊंच पने * अनिरामा रे । नृले प्रथुल नहत इन जोयण, उवरी तहस इक च्यामा रे। नं०६॥ ते ऊपर प्रासाद प्रन् ना, अति उचंग उड़ारा रे। साधू ई विद्या जंघा चारण, बांडे विविध प्रारा रे ॥ नं. ४॥ चेस चैस इक में सौ चौवीत, वित्र संख्या सब दाखी रे । व्यावो सेवो भविजन भगते, • सुध आगन कर साखी रे ॥ नं. ५॥ ऊंच पणे सहु जायण . LAP.II.III. I .AIRTERRIFILIATEHELL.I.KI.I.PAII,III.1.11.1,1111nkhN .......fuul hhettlebalatoladaula hirahilaon bh hilayalash hilnite hth hinilah hot hdrealhindisundh Tha Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAGalk स्तवन-विभाग nAAAAAAAMANAN AAAAAAAAAAA प्रयत्नश्रय प्रमाण पत्रप्रसनननननननननननननननना प्रत्ययान्न प्रसस्त्रमनप्रजनननननन यत्रतत्र समापन समग्र बहत्तर, सौ जोयण आयामा रे। पिहुल पणे पचास जोयण ना, प्रभु प्रासाद सुठामा रे ॥ नं०६॥ धनुष पांच से आयत प्रभु नी, विविध रतनमई काया रे। जिन कल्याणक उच्छव करवा, सुरपति भक्त आया रे॥ नं. ७ ॥ अंजन अंजनगिरि चहुं उवरे, चौमुख चार विशाला रे । वाव वाव विच इक इक पर्वत, राजत रंग रसाला रे ।। नं. ८ ॥ चौसठ सहस जोयण उत्तंगे, दस सहस सत पिहुला रे । चिहूं दिसि सोल सहस दधिमुखगिरि, तिहां प्रासाद सुविमला रे ॥ नं. ९ ॥ वावनें अंतर विदिशे, रतिकर पर्वत रूडा रे । दोय दोय संख्या जगदीशें, कह्या नहीं ए कूडा रे। नं० १० ॥ जोयण सहस मांन दस ऊंचा, दस दस सहस विस्तारा रे । झल्लरि सम संठाण जगत्गुरु, निश्चय ए निरधार या रे ॥ नं० ११ ॥ तेह ऊपर प्रासाद सतोरण, अंजन गिरि परमाणे रे । जिन पडिमा नी संख्या तेहिज, श्री जिनराज वखाणे रे ॥ नं० १२ ॥ इम प्रासाद प्रभू ना बावन, नंदीसर वर दीपे रे । द्रव्य भाव विधि पूजा करतां, मोह महा भट * जीते रे ॥ नं १३ ॥ प्रवचन सार उद्धार प्रकरणे, जीवाभीगम जाणो रे । | इम अधिकार छे ग्रन्थ अनेके, इहां संका मत आणो रे ॥ नं. १४ ॥ जिम सुरपति विरचे तिहां पूजा, ते अनुभव इहां ल्यावो रे । ध्यावो जिम पावो परमातम, जैनचन्द्र गुण गावो रे ॥ नं० १५ ॥ शासन देवी स्तवन ( सरसति शासन बीनवं रे, सद्गुरु लागू पाय रे ) शासन देवी आवो नो हमारे घर पाहुनी हो लाल । गढ पर्वतसे ऊतरी रे, हाथ कमल सीस फूल रे। शासन देवी भलिभलि भगत करीपरें रे, शासन देवी आओ खरतर गच्छ पाहुनी हो लाल ॥१॥ सिर पर सोहे फूल डोरे, राखड़ी को अधिक बनाव रे शासन देवी । नाके बेसून बन * यह स्तवन उद्यापन तपस्यादि महोत्सव में रात्रि को घर में जागरण करते समय सम्पूर्ण भजनों से पहले शासन देवी का स्तवन पढ़ा जाता है तथा उसकी पूजन की जाती है। इसके बाद दूसरे स्तवन पढ़े जाते हैं। o tatistkalayalapitalathbandarliatiala.lokaithilcatosh kathakalimiliartistkhakkhkitalukataabhaastalikahikitaalaakAlibabataatatathakoarthrilotato baila ladakahaki Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sattraitsexadalatakalpapaat.satsaptattatesatotasticatedaatstottacaletstabeatendelkoesaabtaktaasleeacteristiane जैन-रत्नसार arat-ka-jatialstestage wwwwwwwwwwwvwr vry vowy MAAwvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvn alalahbbh * रही रे, चुन्नी को अधिक जड़ाव रे ।। शासन० २ ॥ काने कुंडल जगमगे रे, झुम्भक रत्न सजाव रे ॥ शासन० ॥ गले में सोहे दुगदुगी रे माला को * अधिक प्रभाव रे ॥ शासन० ३ ॥ काजल रेख सुहावनी रे, निलवट टीकी लाल रे ॥ शासन० ॥ स्तनपर पहने कांचली रे, गल मोतियन की माल रे ॥ शासन० ४ ॥ बांहे बाजुबन्द बोरखा रे, झभियां को अधिक सजाव रे शासन० ॥ हाथे सोहे चूडली रे, गजरा को अधिक जमाव रे ॥ शासन० ५॥ अंगूठे सोवत आरसी रे, अंगूठी को अधिक प्रयास रे ॥ शासन० ॥ पाए सोहे घूधरी रे, अनवट को अधिक दिखाव रे ॥ शासन० ६॥ करियां पटोला घस मसें रे, ओढन दक्षनी चीर रे ॥ शासन० ॥ श्री संघ देवे बेसने रे, श्रावकण्या लागे पाय रे ॥ शासन० ७ ॥ शासन देवी आवे घर आंगने रे, हुआ मंगल उछाह रे ॥ शासन० ॥ चोवा चन्दन उबटना रे । थारा पखालूं पाए रे ॥ शासन० ८ ॥ मोतियां थाल भरी करी रे, शासन देवी को बधावें रे ॥ शासन० ॥ चावल, राधा ऊजला रे । हरिया मंगा की। दाल रे ॥ शासन० ९॥ पूरी पोऊं सतपुड़ी रे, त्रेपन तीसें थाल रे ॥ शासन० ॥ घी भरी उठाऊ टोकनी रे, पापड़ और पकवान रे ॥ शासन १० ॥ खाजा, लाडू लापसी रे, घेवर सुन्दर तैयार रे ॥ शासन० ॥ बासठ, त्रेसठ सालना रे, चौसठ बीडिया बघार रे ॥ शासन० ११ ॥ पुरसन वाली पद्मिनी रे, नेवर नो झंकार रे ॥ शासन० ॥ आरण पुरानी ओढनी रे, देवें भर भर थाल रे ॥ शासन० १२॥ गंगा जल भर लाऊं गागरी रे, लेवे चूल्लू चूल्लू पसार रे ॥ शासन० ॥ लोंग, डोडा इलायची रे, बिडला पान पचास रे ॥ शासन० १३ ॥ श्री संघ वीनवे बांह संरे, श्रावक मिल मिल आये रे ।। शासन० ॥ जिन प्रतिमा जिन देहरें रे,मंगल महोच्छव थाये रे ॥ शासन० १४॥ पूजा रचे बहु भाव सूरे, नित नित जागरन उच्छाह रे ॥ शासन० ॥ पूजा प्रतिष्ठा महोत्सवे रे, सानिध करज्यो मात रे ॥शासन०१५॥ आलोयण वृद्ध स्तवन बे करजोड़ी वीनवू जी, सुनि स्वामी सुविदीत । कूड़ कपट मूंकी करी theastetvasnastotkomkhalanelbolantertakulatofaulo-tantabbarfini-lalini kaulbathti bulbhhhhhhalakathabfopalonlirthhubali-S colodsosiakalasanaanisatishtedaalathiblinkedistatulaakhaadatoglobaolodiledislikescalaambalakatalabscellaneone tataatostotoaaantisealtilinosti.kastakomalialistirl i alhalkala.trolotsleelpesalpremkena Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P स्तवन-विभाग o tation.intolete fotottotohtolaletelmsain to tetain tes जी, बात कहूं आपवीत ॥ १॥ कृपानाथ मुझ वीनति अवधार, तूं समरथ त्रिभुवन घणी जी, मुझने दुस्तर तार ॥ कृ० २ ॥ भवसागर भमतां थकां जी, दीठां दुःख अनंत । भाव संयोगे भेटियो जी, भय भंजन भगवंत ॥ कृ० ३ ॥ जे दुख भांजे आपणा जी, तेहने कहिये दुःख। पर दुःख भंजण तूं सुण्यो जी, सेवग ने दो सुक्ख ॥ कृ. ४॥ आलोयण लीधां पखे जी, जीव रुले संसार । रूपी लक्ष्मणा महासती जी, एह सुणो अधिकार ॥ कृ. ५॥ दुषम काले दोहिलो जी, सूधो गुरु संयोग । परमारथ पीछे नहीं जी, गडर प्रवाही लोक ॥ कृ. ६ ॥ तिण तुझ आगल आपणा जी, पाप आलोऊं आज । माय बाप आगल बोलतां जी, बालक केही लाज ॥ कृ. ७ ॥ जिनधर्म जिनधर्म सहु कहें जी, थापे अपणी जो चात । समाचारी जुइ जुई जी, संशय पड्यां मिथ्यात ।। कृ० ८ ॥ जाण अजाण पणे करी जी, बोल्या उत्सूत्र बोल । रतने काग उड़ावतां जी, हारयो जनम निठोल ॥ कृ. ९ ॥ भगवंत भाख्यो ते कह्या जी, किहां मुझ करणी एह । गज पाखर खर किम सहें जी, सबल विमासण तेह ।। कृ० १० ॥ आप परूं पूं आकरो जी, जाणे लोक महंत । पिण न करूं परमादियो जी, मासाहस दृष्टान्त ॥ कृ० ११ ॥ काल अनन्ते मैं लह्या जी, तीन रतन श्रीकार । पिण परमादे पाड़िया जी, किहां जइ करूं पुकार ॥ कृ० १२ ।। जाणं उत्कृष्टी करूं जी, उद्यत करूंअ विहार । धीरज जीव 3. धरे नहीं जी, पोते बहु संसार ॥ कृ० १३ ॥ सहज पड्यो मुझ आकरो जी, न गमें भंड़ी बात । पर निन्दा करतां थकां जी, जाये दिन में 3 रात ॥ कृ० १४ ॥ किरिया करतां दोहिली जी, आलस आणे जीव । घरम 3 पखे धंदे पड्यो जी, नरके करसी रीव ॥ कृ० १५ ।। अणहुँता गुण को , कहें जी, तो हरखं निसदीस । को हित सीख भली दिये जी, तो मन 3 आणं रीस ।। कृ० १६ ॥ वाद भणी विद्या भणी जी, पर रंजण उपदेश । मन संवेग धरचो नहीं जी, किम संसार तरस । कृ० १७ ॥ सूत्र सिद्धान्त : वखाणतां जी, सुणतां करम विपाक । खिण इक मन माहे उपजे जी, मुझ : मरकट वैराग ॥ कृ० १८ ॥ त्रिविध त्रिविध कर ऊचन्द जी, भगवंत तुम्ह : Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pantatisticatakshattachakshakitallయన నడవడవనంటుందనడుగుచుండునుడasalabhakthitti vvvvvvvvvvvvvvv atantatikahaitadkateabootsobathtakathabutartesantart.kakisthitisate tatasatsecscalesiseasati.batesamakalinsakoolakhlifolmaanikomliladkila Globaldnlaobalag जैन-रत्नसार हजूर । वार वार भाजू वली जी, छूटक वारो दुर ॥ कृ० १९ ॥ आप काज सुख राचतां जी, कीधां आरंभ कोड़। जयणा न करी जीवनी जी, देव दया पर छोड़ ॥ कृ. २०॥ वचन दोष व्यापक कह्या जी, दाख्या अनरथ दंड । कूड़ कपट बहु केलवी जी, व्रत कीधां सत खंड । कृ. २१॥ अणदीधो लीजे तृणो जी, तोही अदत्ता दान । ते दृषण लागा घणा जी, गिणतां नावे ज्ञान ॥ कृ. २२ ॥ चंचल जीव रहे नहीं जी, राचे रमणी | रूप | काम बिडंबन सी कहूं जी, ते तूं जाणे सरूप ॥ कृ. २३ ॥ माया । ममता में पड्यो जी, कीधो अधिको लोभ । परिग्रह मेल्यो कारमो जी, न चढ़ी संजम सोभ ॥ कृ० २४ ॥ लाग्या मुझ में लालचे जी, रात्री भोजन दोषः । मैं मन मूक्यो माहरो जी, न धरयो धरम संतोष ॥कृ०२५॥ इण भव पर भव दुहव्या जी, जीव चौरासी लाख । ते मुझ मिच्छामि दुक्कडं जी, भगवंत तोरी साख ॥ कृ. २६ ॥ करमादान पनरे कह्या जी, प्रगट अठारे पाप । जो मैं कीधा ते सहू जी, वकस वकस माइ बाप ॥ कृ० २७ ॥ मुझ आधार छे एटलो जी, सरदहणा छे शुद्ध । जिनधर्म मीठो जगत में जी, जिम साकर ने दुग्ध ॥ कृ० २८ ॥ ऋषभदेव तूं राजियो जी, सेजागिरि सिणगार । पाप आलोयां आपणा जी, कर प्रभु मोरी सार ॥ कृ० २९ ॥ मर्म एह जिनधर्म नो जी, पाप आलोयां जाय । मनसू मिच्छामि दुक्कडं जी, देतां दुर पुलाय ॥ कृ० ३० ॥ तूं गति तूं मति तूं धणी जी, तूं साहिब तूं देव । आण धरू सिर ताहिरी जी, भव भव ताहरी सेव ॥ कृ० ३१ ॥ कलश इम चढ़िय सेव॒जा चरण भेट्या, नाभिनन्दन जिनतणा । कर जोडि आदि जिनन्द आगे पाप आलोया आपणां । श्री पूज्य जिनचन्द्र सूरि सद्गुरु प्रथम शिष्य सुजस घणें । गणि सकल चन्द सुशिष्य वाचक समय सुन्दर गणि भणे ॥३२॥ Sore Trial-Terfado-Lifalorinlali.laletarinkalukasaalatialathinkstatestanktobuabbtakaastalisbipikaslelossalonilialisakalina raisonashaibhtakalenteTETiTejOTarla Telero-porters: Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇంగువగురుకులటుకుంటుందడువనంటివదదయమునందు स्तवन-विभाग vvvvv नयनत्रनयनपत्रधनत्र प्रचन्द्र बन्नच प्रवन्धनप्रबन्धनबन्नयन-जन गवस्त्रश्रवन्धनप्रबन्ध नयन. प्रत्र ग्रन्प्रबन्धनप्रन्प्रत्रणमत्र-मनमत्रत्रत्रप्रन-मनधननयम आलोयणा स्तवन ॥ सफल संसार नी॥ ए धन शासन वीर जिनवरतणो, जासु परसाद उपगार थाये घणो । सूत्र सिद्धान्त गुरु मुख थकी सांभली, लहिय समकित अने विरति लहिये वली ॥१॥ धर्म नो ध्यान धर तप जप खप करे, जिण थकी जीव संसार सागर तरे। दोष लागा जिके गुरु मुख आलोइये, जीव निर्मल हुए वस्त्र जिम धोइये ॥२॥ दोष लागे तिके चार ना, धुर थकी नाम ने अरथ ते धारणा । किम ही कारण बसे पाप जे कीजिये, प्रथम ते नाम संकल्प कहीजिये ॥३॥ कीजिये कंदर्प प्रमुखें करी, दोष तेवीय परमाद संज्ञा धरी । कूदतां गर्वता होय हिंसा जिहां, दर्प इण नाम करि दोष तीजो तिहां ॥४॥ विणसतां जीव जीवने गिनर करे जिको, चोथो आकुट्ठिया दोष उपजे तिको । अनुक्रमे चार ए, अधिक एक एक थी, दोष धर प्रायच्छित्त लेवे विवेक थी ॥५॥ ॥ ढाल ॥ अन्य दिवस कोई मगध आयो पुरन्दर पास । पाटी पोथी कवली नवकर वाली जोय, ज्ञान ना उपगरण तणी आसातना कीधी होय । जघन्य थी पुरिमड्ड एकासणो आयम्बिल उपवास, अनुक्रम एह आलोयणा सुगुरु बताई तास ॥६॥ एमो खण्डित थाये अथवा किहांई गमाय, तो बलि नवा कराया दोष सहू मिट जाय । थापना अण पडिलेह्यां पुरिमढ़ नो तप धार, गिरतां एकासण ने गणतां चौथ विचार ॥७॥ दर्शन ना अतिचार तिहां पुरमड्ड जघन्य, एकासण आम्बिल अट्ठम चिहुं भेद मन्न । आशातन गुरुदेवनी साहमी सं अप्रीति, जघन्य एकासण नी आलोयण चढ़ती रीति ॥८॥ अनन्त काय आरम्भ विणास्यां चौथ प्रसिद्ध बीति चउरेन्द्रिय सायां एकासण थी वृद्ध । बहुवीति चौरेन्द्रिय हण्या बीति चउ उपवास संकल्पादि चिहुं विधि दुगुणा दुगुण प्रकास ॥९॥ उद्देही कुलिया बड़ा कीडी नगरा भंग, बहुत जलोयां मूक्या दस उपवास प्रसंग । LUKatarredakohlakakitahakorelirielatorcelaiacalendarlinkalantilalankeelirkirkirlialisahelialeunisialisticleotiotidoolcalarelaladalalalakkeideolokalcoholidlarkioteoloristakofilrlahhtralahktootahinilatantatathi.ki. -APPE ology Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ......DONATAUTATIrladataalakarmagarkoolmatalaptotoesaabhbhaktatastetohtotstatekahtatatastamittetsukata ५७६ . . , . Niwanamukwwwwwww --222 vvvvv प्रत्रचन्तनमननयत्रतत्रत्रत्रतत्रत्रतत्र तत्र 2 22Daineerinlalanoclataphalatastesa जैन-रत्नसार वमन विरेचन कृमि पातन आम्बिल इक एक जीवाणी ढोलंता दोय उपवास विवेक ॥१०॥ संकल्पादिक एक पंचेन्द्री उपद्रव होइ, दोइ त्रिण आठ दसे उपवासे आलोयण जोइ । बहु पंचेन्द्री उपद्रव छठ अठमे दस बीस, चिहुं प्रकारे चढ़ती आलोयण सुन ले सीस ॥११॥ पंचेन्द्री ने लकड़ी प्रमुख कीध प्रहार, एकासण आम्बिल उपवास ने छह विचार । साधु समक्षे लोक समक्षे राज समक्ष, कुड़ा आल दिया दुइ चौथरु छठ प्रत्यक्ष ॥१२॥ उपवास दस दण्डायां तेम बीस इक लख असी सहस नवकार गुणो तजि रीस । पख चौमासा बरस लग, इक त्रिण दस उपवास । अधिको क्रोध करे तो आलोयण नहिं तास ॥१३॥ सुआवड नां दोष कियां गुरु ऊपर रोस, जीव विराधन कीधां बहु असति ने पोस । करिय दुवालस बार हजार गुणो नवकार, मिच्छामि दुक्कड़ देइ आलोवो वारोवार ॥१४॥ ॥ ढाल ॥ बेकर जोड़ी ताम। बिन कीधा पञ्चक्खाण, बिन दीघां वन्दना, पडिकमणा विध पात रे ए । अणोझा ने असिझाय, तिहां अविधे भण्या, इक इक आम्बिल आचरे ए ॥१५॥ गंठसी ने एकत्र, निवि आम्बिल, भांगे आलोयणा इमें ए। एक पांच षट् आठ नवकरवालीय, गुण नवकार अनुक्रमे ए ॥१६॥ उपवास भंग उपवास आम्बिल ऊपरां अधिको दण्ड बखाणिये ए । पांचम आठम आदि, भंग कियां बली, फिर ग्रही पातिक हाणीये ए ॥१७॥ ऊखल, मूसल, आग चूल्हे, घरट्टिये, दीधे आठम तप करे ए। मांगी सुई दीध, कतरनी छुरी, आम्बिल चढ़ता आदरे ए ॥१८॥ जीव करावे युद्ध, रात्री भोजन जल, तिरणो खेलण जुओ ए । पापतणां उपदेश परद्रोह चिन्तव्या, उपवास इक इक जूजुवा ए ॥१९॥ पनरे करमादान, नियम करी भंग, मद्य मांस माखण भण्या ए। आलोयण उपवास, संकप्पादिक, चिहुं भेदें चढ़तां लिख्या ए ॥२०॥ बोल्या मिरषावाद, अदत्तादान त्यू, जघन्य एकासण जाणिये ए। अति उत्कृष्टि एण, जांण आलोयण, उपवास दस दस आणिये ए ॥२१॥ n bhoschlorothiasatrahksitosEKHolpostinkalsolute पत्र T ERTAITERALEXANEJARIET-34- 3BSTI Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Street that stroktart-15) स्तवन-विभाग ५७७ ( सुगुण सनेही मेरे लाल ) चौथे व्रत भांगे अतिचार, जघन्य छट्ठ आलोयण धार | मध्ये दस उपवास विचार, उत्कृष्टा गुण लख नवकार ||२२|| परिग्रह विरमण दोष प्रसंग, तीन गुणवत मांहे भंग । चार शिक्षाव्रत ने अतिचार, आम्बिल त्रिण प्रत्येके धार ||२३|| शील तणी नव बाड़ कहाय, तिहां जो लागे दोष जणाय । तिनके फरस हुआं अविवेके, एक आंबिल की प्रत्येके ||२४|| साधु अने श्रावक - पोषध, एकेन्द्री सचित संघट्टे कीध । वीसर भोले सचित्त जल पीध, दण्ड एकासण आम्बिल दी ||२५|| विण धोयां विण लूह्यां पात्रे, एकासण तिम पुरिमड्ड मात्रे | गइ मुंहपत्ति आंबिल सारो, तिम ओघे आठम अवधारो ||२६|| चार आगार छांड़ी राखे व्रत पच्चक्खाण करे षट् साखे । ढोखे मिच्छामि दुक्कड़ भाखे आलोयण लेतां अभिलाखे ||२७|| आलोयण ने अति विस्तार पूरो कहितां नावे पार । तो पिण संक्षेपे तत्वसार, निरमल मन करतां विस्तार ||२८|| इम श्री वीर जिनेसर स्वामी, जसु आगम वचने विधि पामी । जीत कल्प ठाणांगे आद, वली परम्पर गुरु सुप्रसाद ॥ २९ ॥ कलश इम जेह धरमी चित्त विरमी, पाप सब आलोयनें । एकान्त पूछे गुरु बतावे, शक्ति वय तसु जोयनें । विधि एह करसी तेह तिरसी घरमवन्त तने धुरे । एतवन श्री घरम* सिंह कीधो चौपने फल वधि पुरे ॥ ३० ॥ पद्मावति आलोयण 73 हिवे रानी पद्मावती, जीव राशि खमावे । जाप भनूं जग ते भलो, इण वेला आवे ॥१॥ ते मुझ मिच्छामि दुक्कडं, अरिहंतनी साख । जे मैं जीव विराधिया, चउरासी लाख ॥ ते० २ ॥ सात लाख पृथवीं तणां, साते अपकाय । सात लाख तेऊ काय ना, साते वलि वाय ॥ ते० ३ ॥ दश प्रत्येक वनस्पति, चउदह साधारण । वीति चउरिन्द्रिय जीव ना, वे वे * यह आलोयण श्रावक धरम सिंह का बनाया हुआ है । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w ww............ PL-AaslesedahalmalanianimlanakariETALKANHAIRMANE NEMIERat: .५७८ - जैन-रत्नसार * लाख विचार ॥ ते. ४ ॥ देवता तिथंच नारकी, चार चार प्रकासी । चौदह लाख मनुष्य ना ए, लाख चउरासी ॥ ते. ५ ॥ इण भव परभव सेवियां, जे पाप अढार । त्रिविध त्रिविध करि, परिहरू दुरगति दातार ॥ ते० ६ ॥ हिंसा कीधी जीवनी, बोल्यां मृषावाद । दोष अदत्ता दान ना, मैथुन उन्माद ॥ ते. ७ ॥ परिग्रह मेल्यो कारिमो, कीधो क्रोध विशेष । मान माया लोभ मैं किया, वली राग ने द्वेष ॥ ते. ८ ॥ कलह करी जीव दुहव्या, दीना कूडा कलंक । निंदा कीधी पारकी, रति अरति निःशंक ॥ ते० ९ ॥ चोरी कीधी चौतरे, कीधो थापण मो सो। कुगुरु कुदेव कुधर्म । नो, भलो आण्यो भरोसो ॥ ते० १० ॥ खाटकी ने भवें मैं किया, जीवना वध घात । चिडीमार भवे चिडकलां, मारया दिन रात ॥ ते. ११ ॥ माछीगर भवे माछलां, झाल्या जलवास । धीवर झीवर भील कोली भवे, मृग मारया पास ॥ ते. १२ ॥ काजी मुल्ला ने भवे, पढ़ी मंत्र कठोर । जीव अनेक जवे किया, कीधा पाप अघोर ॥ ते. १३ ॥ कोतवाल ने भवे मैं किया, आकरा कर दंड । बंदीवान मराविया, कोरडा छड़ी दंड ॥ते. १४॥ परमाधामी ने भवे, दीघां नारकी दुःख । छेदन भेदन वेदना, ताड़ना अति तिक्ख ॥ ते० १५ ॥ कुंभार ने भवे मैं किया, निम्माह पचाव्या। तेली भव तिल पीलिया, पापी पेट भराव्या ॥ ते. १६ ॥ हाली ने भव हाल खेडिया, फाड्या पृथिवी ना पेट । सूड निदान घणां कियां, दीधां बलध चपेट ।। ते. १७ ॥ माली ने भवे मैं रोपियां, नानाविध वृक्ष । मूल पत्र फल फूल नां, लाग्यां पाप ते लक्ष ॥ ते० १८ ॥ अधोवाइया ने भवे, भर या अधिकां भार । पूठी ऊंट कीडा पड्यां, दया न आवी लगार ॥ ते. १९ ॥ छीपा ने भवे छेतस्यो, कीघां रागणि पास । अगनि आरंभ किया घणा, २ धातुर्वाद अभ्यास ॥ ते. २०॥ सूर पणे रण झूझता, मारया माणस वृन्द । मदिरा मांस भक्ष्या घणां, खाधा मूल ने कंद ॥ ते० २१ ॥ खाण खणावी धातुनी, पाणी ऊंलच्या । आरंभ कीधां अति घणा, पोते पापज संच्या ॥ ते २२ ॥ अंगार कर्म किया वली, घर में दव दीघां। सुंस लेइ वीतरागना, कूडा कोशज पीधां ॥ ते. २३ ॥ बिल्ली भव ऊंदर लिया, गिलोई। InclavanadaK ER Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wanan MAANA "YahalalalalastmasharaS E EMAREsanilianRRES स्तवन-विभाग ५७६ म हत्यारी । मूढ़ गमार तणे भवे, मैं जूं लिख मारी ॥ ते. २४ ॥ भड़ भंजा तने भवे, एकेन्द्रिय जीव । ज्वारी चणा गेहूं सेकिया, पाडता रीव ॥ते०२५॥ खांडण पीसण गारना, आरम्भ अनेक । रांधण इंधण आगिना, किया पाप उदेग ॥ ते. २६ ॥ विकथा चार कीधी वली, सेव्यां पंच प्रमाद । इष्ट वियोग पाड्या किया, रोदन विषवाद । ते० २७ ॥ साधु अने श्रावक तनां, व्रत लेइ भांग्या । मूल अने उत्तर तणां, दूषण मुझ लाग्या ॥ ते०२८॥ सांप विच्छू सिंह चीतरा, शिकराने शभली । हिंसक जीव तणे भवे, हिंसा कीधी सबली ॥ ते. २९ ॥ सूआवडी दूषण घणा, वली गरभ गलाव्यां । जीवाणी डोल्या घणां, शील व्रत भंजाव्यां ॥ ते. ३० ॥ भव अनन्त भमतां थकां, किया कुटुम्ब सम्बन्ध । त्रिविध त्रिविध करि, वोसरूं तिणसं प्रतिबंध ॥ ते० ३१ ॥ भव अनन्त भमतां थकां, कीधां परिग्रह सम्बन्ध । त्रिविध त्रिविध करि वोसलं, तिणसं प्रतिबंध ॥ ते. ३२ ॥ इणभव परभव इण परे, कीधां पाप अखत्र । त्रिविध त्रिविध करि वोसरूं, करूं जन्म पवित्र ॥ ते० ३३ ॥ राग वैरागी जे सुणे, ए तीजी ढाल । समय* सुन्दर कहे पाप थी, छूट तत्काल ॥ ते० ३४ ॥ ____पुण्य प्रकाश आलोयण" वृद्ध स्तवन सकल सिद्ध दायक सदा, चौवीसे जिनराय । सद्गुरु सामिनि सरसती, प्रेमे प्रणमूं पाय ॥१॥ त्रिभुवनपति त्रिसला तणो, नंदन गुण गंभीर । शासन नायक जग जयो, वर्द्धमान वड वीर ॥२॥ इक दिन वीर जिनंद ने, चरणें करि परिणाम । भविक जीवना हित भणी, पूछे गोयम स्वाम ॥३॥ * यह आलोयण स्तवन समय सुन्दर जी का बनाया हुआ है। • आलोयण वृद्ध स्तवन दोनों पद्मावती आलोयण पुण्य प्रकाश आलोयण ये चारों ही आलोयग स्तवन अन्त समय मे अर्थान् जब तक होशोहवास ठीक रहे और अच्छी तरह। सुन सके तव ही श्रावक श्राविका को सुनाना चाहिये यदि होशोहवास ठीक न रहे और सुनने की नए शक्ति नष्ट हो जाय तब इन स्तवनों के सुनाने का क्या लाभ केवल रूढी मानना अन्त्य समय में , में धर्म अवश्य सुनाना चाहिये। इतना ही नियम पूरा करने का लाभ हो सकता है सुनने वाले को कुछ नहीं। EASEMIKAKKbYoMMEROEMtatishiladikichamtatestantsh rintuitatestle Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A जैन-रत्नसार मुगति मारग आराधिये, कहो किण परि अरिहंत । सुधा सरस तब वचन रस, भाखे श्री भगवंत ॥४॥ अतिचार आलोइये, व्रत धरिये गुरु साख । जीव खमावो सयल जे, योनि चौरासी लाख ॥५॥ विधिसूं वलि वोसराविये, पाप स्थानक अठार । च्यार शरण नित अनुसरे, निदो दुरित आचार ॥६॥ शुभ करणी अनुमोदिये, भाव भलो मन आण । अनशन अवसर आदरी, नवपद जपो सुजाण ॥७॥ शुभगति आराधन तणा, ए छे दश अधिकार । चित्त आणी ने आदरो, जिम पामो भव पार ॥८॥ (ए छिंडी किहां राखी) ज्ञान दरशण चारित्र तप वीरज, ए पांचे आचार । एहतणा इह भव परभव ना, आलोइये आचार रे । प्राणी ज्ञान भणो गुणखाणी, वीर वदें इम। वाणी रे ॥ प्रा० ९ ॥ गुरु ओलविये नहीं गुरु विनये, कालेधरी बहु मान । सूत्र अर्थ तदुभय करी, सूधा भणिये वही उपधान रे ॥ प्रा० १०॥ ज्ञानो पगरण पाटी पोथी, ठवणी नौकर वाली। एह तणी कीधी आशातना, ज्ञान भक्ति न संभाली रे ॥ प्रा० ११ ॥ इत्यादिक विपरीत पणा थी, ज्ञान विराध्यू जेह । आभव परभव वलिय भवोभव, मिच्छामि दुक्कड़ तेह रे ॥०१२॥ जिन वचने शंका नवि कीजे, नवि परमत अभिलाष । साधु तणी निन्दा परिहर जो, फल संदेह न राखी रे ॥ प्राणी समकित ल्योशुद्ध जाणी ॥१३॥ मूढ़ पणूं छंडो परसंसा, गुणवंत ने आदरिये। साहम्मी ने धर्म करी थिरता, भगति प्रभावना करिये रे ॥ प्रा० १४ ॥ संघ चैत्य प्राशाद तणो जो विण साड्यो, विणसंतां उवेख्यो रे ॥ प्रा० १५ ॥ इत्यादिक विपरीत पणा थी, समकित खंड्यू जेह । आभव परभव वलि भवोभव, मिच्छामि दुक्कड़ तेह रे ॥ प्राणी चारित्र ल्यो चित्त आणी रे ॥१६॥ पांच सुमति त्रिण गुप्ति विराधी, आठे प्रवचन माय । साधु तणे घर मे प्रमादे, अशुद्ध वचन मन काय रे॥ प्रा० १७ ॥ श्रावक ने धर्मे सामायिक, पोसह मां मन वाली। जे जयणा पूर्वक जे आठे, प्रवचनमाय न पाली रे ॥ प्रा० १८ ॥ इत्यादिक विपरीत पणा थी, चारित्र उहोल्यं जेह। आभव परभव वलि भवोभव kadialishkiladalanilisaamstarikalakSESEARSHEREKHEKARMANANEEMARKaramatkan t ELEtiliprosperateeI-RIGHTMAHARSHANGEEnelon Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tottlesh Yesh1-1-1 स्तवन-विभाग ५८१ मिच्छामि दुक्कड़ तेह रे || प्रा० १९ ॥ बारें भेदें तप नवि कीधो, छते योगे निज शकते । धर्मे मन वच काया धीरज, नवि फोरविडं भरते रे ॥ प्र०२० ॥ तप वीरज आचारे इण पर, विविध विराध्यां जेह । आभव परभव वलिय भवोभव, मिच्छामि दुक्कड़ तेह रे ॥ प्रा० २१ ॥ वलिय विशेषे चारित्र केरा, अतीचार आलोइये । वीर जिनेसर वचन सुनी नें, पाप मैल सवि धोइये रे ॥ प्रा० २२ ॥ ************* ॥ ढाल ॥ ' पृथ्वी पानी तेउ, वाउ, वनस्पति, ए पांचे थावर का ए । करी करसन आरम्भ, खेत्र जे खेडीया, कूआ तालाव खणाविया ए ||२३|| घर आरम्भ अनेक टांका भोपरां, मेढ़ी माल चिणाविया ए । लींपण गुंपण काज इण पर, परपरे पृथ्वीकाय विराधिया ए || २४|| घोअण नाहण पानी, झीलण अप्पकाय, धोती धोई कर दुहव्या ए । भाठीगर कुम्भार, लोह सोवनगार, भडभूंजा लिहालागरा ए ॥ २५॥ तापण सेकण काजे, वस्त्र निखारण, रंगण राधण रसवती ए । इणि परे कर्मादान, परिपरे केवली, तेउवाउ विराधिया ए ||२६|| वाडी वन आराम, वावी वनस्पति, पान फूल फल चूंटीया ए । पौहक पापडि शाक, सेक्या सुखाया, छेद्या लूंचा आथिया ए ॥२७॥ अलशी ने एरण्ड, घाणी घाली ने, घणा तिलादिक पीलीया ए । घाली कोलू मांहि पीली सेलडी, कन्द मूल फल वेचिया ए ॥ २८ ॥ इम एकेन्द्री जीव हण्या हणाविया, हणतां जे अनुमोदिया ए । आभव परभव जेह, वलिय भवोभव, ते मुझ मिच्छामि दुक्कड़ ए ||२९|| कमी सरमिया कीडा, गाडर गण्डोला, इअल पूरा अलसीया ए । वाला जलो चुडेल, विचलित रस तणा, बलि अथाणा प्रमुखना ए ॥ ३० ॥ इम वेइन्द्री जीव, जं मैं दृहत्या, ते मुझ मिच्छामि दुक्कड़ ए | उद्देही जूं लीख, माकड़ मंकोडा, चांचड कीडी वांथुआ ए ||३१|| गडहिया घीवेल, कानखजूरडा, गोंडोला धनेरीया ए । इम तेइन्द्री जीव जे मैं दृहव्या, ते मुझ मिच्छामि दुक्कड़ ए ||३२|| माखी मच्छर डांस मसा पतंगिया, कंसारी कोलिया वडा ए । MATE Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nawwwwwwwwwwraPARAMARPARNrnwrarwanamam CARRORIES Inmmmmmmmmmmmmmmmmm aktisthitisastestraliaDaksiMEANINGALEEPicarsnKXhxmastar जैन-रत्नसार ढींकण बिच्छू तिड्डी भमरा भमरिया, कौंता बग खड मांकणी ए ॥३३॥ इम चौरेन्द्री जीव जे मैं दुहव्या, ते मुझ मिच्छामि दुक्कड़ ए। जल मां नाखी जाल, जलचर दुहव्यां वन मां मृग संतापिया ए ॥३४॥ पीड्या, पंखी जीव, पाडी पास मां पोपट घाल्यां पांजरा ए। इम पंचेन्द्री जीव जे PL मैं दुहव्यां, ते मुझ मिच्छामि दुक्कड़ ए ॥३५॥ (प्राणी वाणी हित करी जी ) क्रोध लोभ भय हास थी जी, बोला वचन असत्य । कूड करी धन । पारकां जी, लीधा जेह अदत्त रे ॥ जिन जी मिच्छामि दुक्कड़ आज, तुम्ह। साखे महाराज रे । जिनजी मिच्छामि दुक्कड़, आज देइ सारूं काज रे॥ जि० ३६ ॥ देव मनुष्य तिर्यच ना जी, मैथुन सेव्या जेह । विषया रस लंपट पणे जी, धणूं विटंव्यो देह रे ॥ जि० ३७ ॥ परिग्रह नी ममता करी जी, भव भव मेली आथ । जेह जिहां तेह तिहां रही जी, कोइय न आवे साथ रे ॥ जि० ३८ ॥ रयणी भोजन जे करया जी, कीधा भक्ष अभक्ष । रसना रसनी लाल, जी, पाप करयां परतक्ष रे ॥ जि. ३९ ॥ व्रत लेइ विसारिया जी, वलि भांग्या पञ्चक्खाण । कपट हेतु किरिया करी जी, कीधा आप वखाण रे ॥ जि० ४० ॥ त्रिण ढाले आठे दुहे जी, आलोया अतिचार । शिवगति आराधन तनो जी, ए पहिलो अधिकार रे ॥जि०४॥ (सहेलडी जी) पंच महाव्रत आदरो सहेलडी रे, अथवा ल्यो व्रत बार रे । यथाशक्ति व्रत आदरी सहेलडी, पाली निरती चार तो ॥४२॥ व्रत लिया संभारिये * सहेलडी, हियडे धरीय विचार तो। शिवगति आराधन तणो सहेलडी, ए बीजो अधिकार तो ॥४३॥ जीव सभी खमाविये सहेलडी, योनि चौरासी * लाख तो । मन शुद्धे करो खामणा सहेलडी, कोई सं रोषन राख तो॥४॥ | सर्व मित्र करि चिंतवो सहेलडी, कोइय न जाणो शत्रु तो। राग द्वेष इम * परिहरी सहेलडी, कीजे जन्म पवित्र तो ॥४५॥ साहमी संघ खमाविये सहेलडी, जे उवनी अप्रीत तो। सज्जन कुटुम्ब करी खामणा सहेलडी, Titlanti-listinika nkshik-KATHAKARENTI Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... ५८३ wwwanimarnmare BLAkashstraliaakaastalishakikatestashakakatalokliceKXYElectr *ENEMAKEYadalalalY स्तवन-विभाग ए जिन शासन रीत तो ॥४६॥ खमिये अने खमाविये सहेलडी, एहिज धर्म नो सार तो । शिवगति आराधन तणो सहेलडी, ए त्रीजो अधिकार तो ॥४७॥ मृषावाद अहिंसा चोरी सहेलडी, धन मूर्छा मैथुन्न तो। क्रोध मान माया तृष्णा सहेलडी, प्रेम द्वेष पैशुन्न तो ॥४८॥ निन्दा कलह न। कीजिये सहेलडी, कूडा न दीजे आल तो। रति अरति मिथ्या तजो सहेलडी, माया मोस जंजाल तो ॥४९॥ त्रिविध त्रिविध बोसराविये सहेलडी, पापस्थान अठार तो। शिवगति आराधन तणो सहेलडी, ए चौथो अधिकार तो ॥५०॥ (हवे निसुणो इहां आविया ए) जनम जरा मरणे करी ए, ए संसार असार तो। करया कर्म सहु अनुभवे ए, कोइय न राखणहार तो ॥५१॥ शरण एक अरिहंत नं ए, शरण सिद्ध भगवंत तो । शरण धर्म श्री जैन नो ए, साधु शरण कुलवंत तो ॥५२॥ अवर मोहि सवि परिहरि ए, चार शरण चित्त धार तो। शिव गति आराधन तणो ए, ए पांचमो अधिकार तो ॥५३॥ आभव परभव जे करया ए, पाप कर्म केइ लाख तो। आत्म साखे निंदिये ए, पडिक्कमियें। गुरु साख तो ॥५४॥ मिथ्यामत वर्ताविआ ए, जे भाख्या उत्सूत्र तो। कुमति कदाग्रह ने वसे ए, वलि उत्थाप्या सूत्र तो ॥५५॥ धड्या धडाव्यां । जे धणा ए, घरटी हल हथियार तो। भव भव मेली मूंकिया ए, करतां जीव संहार तो ॥५६॥ पाप करी ने पोखिया ए, जनम जनम परिवार तो। जन्मांतर पोहतां पछी ए, कोइय न कीधी सार तो ॥५०॥ आभव परभव जे कर-या, इम अधिकरण अनेक तो। त्रिविध त्रिविध वोसराविये ए, आणी हृदय विवेक तो ॥५८॥ दुष्कृत निंदा इम करी ए, पाप करया परिहार तो । शिवगति आराधन तणो ए, ए छठो अधिकार तो ॥५९॥ (आदि तूं जोइने आपणी) धन धन ते दिन माहरो, जिहां कीधो धर्म । दान शीयल तप 1 आदरी, टाल्यां दुष्कर्म ॥ ध० ६० ॥ सेजादिक तीर्थ नी, जे कीधी यात्र। iarchahabhakathackebarakshathok adatarcalakathakathamaraGhakti k arKAMREKALAKAMANAKANIYAKHAKISSAIIALLY Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ toto toto to to to to to tot जैन-रत्नसार ५८४ युगते जिनवर पूजियां, वलि पोख्या पात्र ॥ घ० ६१ ॥ पुस्तक ज्ञान लिखाविया, जिणहर जिन चैत्य । संघ चतुर्विध साचव्या ए, ए सांते क्षेत्र || ध० ६२ || पडिक्कमणा सुपरे करया, अनुकम्पा दान । साधू सूरि उवझाय ने, दीधा बहुमान ॥ ध० ६३ ॥ धर्म कारज अनुमोदिये, इम वारो चार । शिवगति आराधन तणो, सातमो अधिकार ॥ घ० ६४ ॥ भाव भलो मन आनिये, चित्त आणी ठाम । समता भावे भाविये, ए आतम राम ॥ ६० ६५ ॥ सुख दुख कारण जीव ने, कोइ अवर न होय । कर्म आप जे आचरयां, भोगविये सोय ॥ घ० ६६ ॥ समता विण जे अनुसरे, प्राणी पुण्य काम । छारि ऊपर ते लीपणूं, आखर चित्राम ॥ घ० ६७ ॥ भाव भी परभविये, ए धर्म नो सार । शिवगति आराधन तणो, आठमो अधिकार || ध० ६८ ॥ ॥ रैवत गिरि ऊपरे ॥ हवे अवसर जानि करिय संलेखण सार, अणसण आदरिये पञ्चक्खी चार आहार । लुलता सवि मूंकी छांडी ममता अंग, ए आतम खेले समता ज्ञान तरंग ॥ ६९ ॥ गति चारें कीधा आहार अनन्त निःशंक, पण तृप्ति न पाम्यो जीव लालचियो रंक । दुसहो ए बली बली अनशन नो परिणाम, एह थी पामीजे शिवपद सुरपद ठाम ॥ ७० ॥ धन धन्ना शालिभद्र खन्धो मेघ कुमार, अनशन आराधी पाम्या भव नो पार | शिव मन्दिर जास्ये करी एक अवतार, आराधन केरो ए नवमो अधिकार ॥७१॥ दशमें अधिकारे महामन्त्र नवकार, मन थी नवि मूं को शिव सुख फल सहकार | ए जपतां जाये दुर्गति दोष विकार, सुपरे ए समरो चउद पूरब नो सार ॥ ७२ ॥ जन्मान्तरे जातां जो पामे नवकार, तो पातिक गाली पामें सुर अवतार । ए नवपद सरिखो मन्त्र न कोइ सार, इह भव ने परभव सुख सम्पति दातार ॥ ७३ ॥ जुओ भील भीलणी राजा राणी थाय, नवपद महिमा थी राजसिंह महाराय । राणी रतनवती बेहूं पाम्या छे सुरभोग, इक भवथी लेस्ये सिद्ध वधू संजोग ॥७४॥ श्रीमती ने ए बलि मन्त्र फल्यो ततकाल, Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tottakata la bastante a स्तवन- विभाग ५८५ फणधर हटी ने प्रगट थई फूल माल । शिव कुमरे योगी सोवन पुरसो कीध, इम एणे मन्त्रे काज घणा ना सिद्ध || ७५|| ए दश अधिकारे वीर जिनेसर भाख्यो, आराधन केरी विधि जिणे चित्त मां राख्यो । तिणे पाप पखाली भवभय दुरे नांख्यो, जिन विनय करन्ता सुमति अमृतरस चाख्यो ॥७६॥ नमो भवि भावसुं । सिद्धारथ राय कुल तिलो ए, त्रिशला मात मल्हार तो । अवनी तले तुम अवतरचाए, करवा अम्ह उपगार तो ॥जयो जिनवीरजी ए ७७ || मैं अपराध करचा घणा ए, कहता न लहुं पार तो। तुम्ह चरणे आव्या भणी ए, जो तारे तारतो ॥ जय० ७८ || आश करी ने आवियो ए, तुम चरणे महाराज तो । आव्या ने उवेखस्यो ए, तो किम रहस्ये लाज तो ॥जयो० ७९|| करम अलूझन आकरा ए, जनम मरण जंजाल तो । हूं हूं एह थी ऊभग्यो ए, छोड़ावो देव दयाल तो ॥ जयो० ८० || आज मनोरथ मुझ फल्या ए, नाठां दुख जंजाल तो | तूठो जिन चौवीसमो ए, प्रगट्या पुण्य कल्लोल तो ॥ जयो०८१ ॥ भव भव विनय तुम्हारडो ए, भाव भगत तुम पाय तो । देव दया करि दीजिये ए, बोधबीज सुपसाय तो | जयो० ८२ ॥ कलश इम तरण तारण सुगति कारण, दुःख निवारण जग जयो । श्री वीर जिनवर चरण धुणता, अधिक मन उलट थयो ||८३|| श्री विजयदेव सुरिंद पटधर, तीरथ जंगम इण जगे । तप गच्छपति श्री विजय प्रभ, सूरी जगमगें ||८४|| श्री हीर विजय सूरि शिष्य वाचक, कीर्ति विजय सुर गुरु समो । तस शिष्य वाचक विनय विजयें, थुण्यो जिन चौवीशमो ||८५ || सय सत्तर संवत् उगणतीसे, रह्या रानेर चौमास ए । विजय दशमी विजय कारण, कियो गुण अभ्यास ए ॥ ८६ ॥ नरभव आराधन सिद्धि साधन, सुकृत लील विलास ए । निर्जरा हेते स्तवन रचियूं नाम पुण्य प्रकाश ए ॥८७॥ * यह आलोयग स्तवन विनय विजय जी ने १६७० विजय दशमी को बनाया है । 233-5. 74 Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ VAVA जैन-रत्नसार 101 111AL WAS www wwww wwww सहस्र कूट स्तवन सहियां ए सहस कूट महाराज, वंदो सब भाव सं हे माय ॥ वंदो० ॥ तीस चौबीसी पूजिये हे माय, विहर मांन भगवान सेवो चित चाह सूं हे माय ॥ से० १ ॥ एक सौ साठ जिनेसर हे माय, उत्कृष्टा अवधार निरंजन ध्यावसूं हे माय || नि० २ || एक सौ बीस जिनंदना हे माय, कल्याणक सब होय सेवो भवि भाव सूं हे माय || से० ३ || चार जिनेसर शाशता हे माय, जयवंता जगदीश अधिक गुण गावसां हे माय ॥ अ० ४ ॥ बहुत दिनांरो उमाहड़ो हे माय, ते फल लियो मुझ आज जिणंद पद सेवतां हे माय ॥ जि० ५ ॥ उच्छव अधिक सुहामणा हे माय, खूब थया अधिक मन रंग सूं हे माय ॥ अ० ॥ उगणीसे चालीशमें हे माय, पोष मास सुखकर भगत कर भाव सूं हे माय ॥ भ० ७ ॥ संघ सहू हरषे करी हे माय, पूज रची चित चाह वंछित सब पामियां हे माय ॥ वं० ८ ॥ धरम विशाल दयालनो हे माय, सुमति कहे मन रङ्ग सकल गुण दीजिये हे माय ॥ स० ९ ॥ श्री जिनदत्त सूरि उत्पत्ति स्तवन वर लच्छि विलाश सुवाश मिले, गुरु नामें मनरी आश फले । दोषी दुश्मन सब दूर टले, सहसा बहु संपति आय मिले ॥१॥ जय जय जिनदत्त सुरिंद यती, श्रुतधार कृपालक शीलवती । जसु नाम रहे नहीं पाप रती, जेह नी महिमा जगमांहे अती ||२|| शुभ मंगल लील विलास सदा, दुख रोग दुकाल न होय कदा | आराध्यां आवे सुगुरु मुदा, सुप्रसन्न हाजर होय तदा ||३|| जिण जीती चौसठ योगिनियां, वश बावन खेतल वीर कियां । जसु नाम न पड़े बीजलियां, भूत प्रेत न कर सके छल वलियां ||४|| जिण सिंध सवा लख दिस साधी, पंच पीर नदी जिन पुल बांधी । उपगार कियां कीरत लाधी, बरसात लियां गुरु सिद्ध वाधी ||५|| सुत मुगल कियो सरजीत बहू, पाये लागा नर नार सहू । जिण साधी विद्या वेश लहू, प्रतिबोधी श्रावक की कहू ॥६॥ बड नगरे ब्राह्मण द्वेष धरी, मृत गाय SEJENEVENESES Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग k=༠ Į लई जिन चैत्य धरी । गुरु मन्त्र बलें जीवित उधरी, विप्र वेष सहू गुरु पाय परी ||७|| वज्रमय थंभो दोय खंभड कियो, पोथी परगट परभाव थियो । विद्या सोवन वरणे सझियो, वर नगर उज्जैनी सुयश लियो ||८|| गुरु हूं वड वंसे जीव दया, मन्त्री वाछग परसिद्ध थया । बाहड़दे कूखे जनम भणूं, ते चवढे विद्या जाण घणूं ||९|| इग्यार बत्तीसें जनम भणूं, इग्यार इगताले दीक्षा णूं । युगवर इग्यारे गुणहत्तरे, स्वर्गे बारे सै इग्यारे करे ॥१०॥ जिनवल्लभ सूरि पटो धरणं, परभाव उदेसर भय हरणं । नवनिधि लछमी संपति करणं, बलि विकट संकट आरति हरणं ॥ ११ ॥ थुंभ सकल श्री अजमेरे, गढमंडो वर बीकानेरे । सुखदायक श्री जेसलमेरे, दीपे गुरु गाजी खान देरे ||१२|| मुलतान नगर महिमा सागे, भावत दारिद्र दूरे भागे । देरे इस्माइलखान सोभागे, गुरु वर पुर में कीरति जागे ||१३|| धन धन जे सद्गुरु ध्यान धरे, तेर न्हवन पूजा जेह करे । गच्छ खरतर नी महिमा पसरे, कवि सूरि उदय जिन कीरति करे ||१४|| जिनदत्त सूरि स्तवन श्री जिनदत्त सुरिंदा, परम गुरु श्री जिनदत्त सुरिंदा | परम दयाल दया कर दीजे, दरशण परमानंदा || प० १ ॥ जंगम सुरतरु वंछित दायक, सेवक जन सुखकंदा || प० २ || सद्गुरु ध्यान नाम नित समरण, दूर हरण दुख दंदा || प० ३ || निज पद सेवक सानिधकारी, रखिये गुरु राजिदा || प० ४ || कर जोडी विनय युत विनवे, श्री जिन हरप सुरिंदा ||५|| ॥ कवित्त ॥ बावन वीर किये अपने वश, चौंसठ योगिनी पाय लगाई । डाइन साइन व्यन्तर खेचर, भूत रु प्रेत पिशाच पुलाई ॥ बीज तडक्क कड़क भड़क अटक, रहे जो खटक्क न कांई । कहे धरमसिंह लंघे कुण लीह, दिये जिनदत्त की एक दुहाई ||१|| ॥ कवित्त ॥ गज धुंभ ठौर टौर, ऐसो देव नाहीं और दादी दादी नाम से जगत ७० Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ जैन-रत्नसार wwwwwww. 333 यश गायो है । आपने ही भाव आय, पूजे लक्ख लोक पाय, प्यासनको रनमांहि, पानी आन पायो है ॥ १॥ वाट घाट शत्रु थाट, हाट पुर पाटण में । देह गेह नेह से, कुशल वरतायो है । धर्म सिंह ध्यान घरे, सेवतां कुशल करे, साचो श्री जिन कुशल सूरि, नाम यूं कहायो है ॥२॥ ॥ श्लोक ॥ wwwwwwvv vou vvvv " दासानुदासा इव सर्वदेवाः, यदीय पादाब्ज तले लुठन्ति । मरुस्थली कल्पतरुः स जीयाद्, युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ॥ १ ॥ चिन्तामणिः कल्पतरु - र्वराको, कुर्वन्ति भव्याः किमुकाम गव्याः ॥ प्रसीदतः श्री जिनदत्तसूरे, सर्व पदं हस्ति पदे प्रविष्टम् ॥२॥ नो योगी न च योगिनी न च नराधीशस्य नो शाकिनी । नो वेताल पिशाच राक्षस गणा, ना रोग शोकौ भयम् ॥ ३ ॥ नो मारी न च विग्रह प्रभृतयः प्रीत्या प्रणत्युच्चकैः । योवः श्री जिनदत्तसूरि गुरवो नामाक्षरं ध्यायति ॥४॥ जिन कुशलसूरि स्तवन विलसें ऋद्धि समृद्धि मिली, शुभयोगें पुण्य दशा सफली । जिन कुशल सूरिन्द गुरु अतुल बली, मन वंछित आपे दादो रंग रली ॥१॥ मंगल लील समे विपुला, नव नवय महोच्छव राज कला । सुपसायें गुरु चढ़ति कला, सुकुलीनी पुत्रवती महिला ||२|| सब ही दिन थायें सबला, सदवास कपूर तना कुरला । हय गय रथ पायक बहुला, कल्लोल करें मन्दिर कमला ||३|| बीजे चमर निशान घुरे, नरवे दरबार खड़ा पहरे । जय जय कर जोड़ी उचरे, सानिध्य गुरु सब काज सरे ||४|| सरसा भोजन पान सदा, दुख रोग दुकाल न होय कदा | अविचल उल्लट अंग मुदा, गुरु पूरण दृष्टि प्रसन्न सदा ||५|| घम घम मादल नाद घुमे, बत्तीसे नाटक रंग रमे । प्रगटो पुण्य प्रताप हमें, सबला अरियण ते आय नमें ॥६॥ तन सुख मन सुख चीर तने, पहिरे वेलाउल होय रणे । ध्यावो कुशल गुरु एक मने, जृम्भक सुर मन्दिर भरे घने ||७|| ततखिण धन खच्यो आवे, करि श्याम घटा मेह वर्षांवे । तिसिया तोय तुरत पावे, जलदाता त्रिजग सुजस Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ మనంటుందనుడు గుడుండడు ముందుకు నడుమlatitis. lalithasahasranatha vo www.. ............. vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv vvvvvunMuvvvvvvvvvvvv vvvvvvvvv स्तवन-विभाग ५८६ गावे ॥८॥ लहिरयां जल कल्लोल करे, प्रवहण भवसागर मज्झ डरे । बूढता वाहन जे समरे, ते आपद निश्चय सूं उवरे ॥९॥ खड़ खड़ खड़ग प्रहार वहे, सौदामिनि जिम सम शेर सहे । कुशल कुशल गुरु नाम कहे, ते * खेम कुशल रण मज्झ लहे ॥१०॥ धुंभ सकल परचा पूरे, श्री नागपुरे संकट चूरे । मंगल और अधिके नूरे देराउर भय टाले दुरे ॥११॥ वीरमपुर वाने सुधरे, खम्भायत पुर विक्रम नयरे । जिनचन्द्र सूरि पाटे पवरे, जसु कीरति मही मण्डल पसरे ॥१२॥ पूरब पश्चिम दक्षिण आगे, उत्तर गुरु दीपे सोभा जागे। दह दिशि जन सेवा मांगे, श्री खरतरगच्छ नी महिमा जागे ॥१३॥ पुर पट्टण जनपद ठामे, गाई जे कुशल नयर गामे । पूजे जे नर हित कामे, ते चक्रवति पदवी पामे ॥१४॥ श्री जिन कुशल सूरि साखें सेवक जन ने सुखिया राखें। समरयां गुरु दरशण दाखें, श्री साधु कीरति पाठक भाखें ॥१५॥ श्री जिन कुशल मूरिजी उत्पत्ति स्तवन रिसह जिनेसर सो जये, मंगल केलि निवास । वा सब वंदिय पय कमल, जग सहु पूरे आस ॥१॥ चंद कुलम्बर पूनम चंद, वंदो श्री जिन कुशल मुनिंद । नाम मन्त्र जसु महिम निवास, जो समरेतसु पूरे आस॥२॥ मरु मंडल समियाणो गाम, धण कण कंचन अति अभिराम । जिहां बसे जिल्हागर मंत्र, जैतसिरी जसु धरणी कलत्र ॥३॥ जसु तेरे से तीसे जम्म, सैंताले सिरि संजम रम्म । पाटण सतहत्तरे जसु पाट, निव्यासिये तसु * सुरगे वाट ॥४॥ भूमंडल सरगें पायाल, अचिराचिर युग इण कलिकाल । प्रभु प्रताप नवि माने सोय, मैं नवि नयणें दीठो जोय ॥५॥ निरधन लहे धन धन्न सुवन्न, पुन्नहीन बहु पामें पुन्न । असुखी पामें सुख संतान, एक मना करतां गुरु ध्यान ॥६॥ गुरु समरन आपद सवि टले, सयल शांति सुख संपति मिले । आधि व्याधि चिंता संताप, ते छंडी नवि मंडी व्याप ॥७॥ पाप दोष नवि लागे तिहां, गुरु समरण उत्कंठा जिहां । सेवंतां 1 सुरतरु नी छांह, निश्चय दारिद्र मेटे वांह ॥८॥ विषहर विषनर विष atelmaanadaantarokner-ldakokanatmtathibananakariwarlinliolankielioneletelstomulirlssistafat-lastet-tatistialishkar-kinbile lalatakalakittalionlinetatitishkekatathabalektrotatmlafaulbulbhbatikaner Sutrotalbhabhishekolasaliliatiladarlalalalisha tohatolasarilankoolatakiskehelickinlishaliokolatikalaolestealistadolesalelkalayakalinsahitholestosteliaahelickashatiriktelalosartattatoloht.kahbhkiladka ladkakirilathkashlokas Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान Bukt www.nawwwwwwwwwwwww swaruan a न baikh a b a ननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननKERAY जैन-रत्नसार wn ..... .......... नरनाह, भूतप्रेत ग्रह व्यन्तर राह । प्रभु नामें ते न करे पीड, भाजे भावठ भव भय भीड ॥९॥ रोग सोग सभी नासे दूर, अंधकार जिम ऊगे सूर । मूरख पीठी पंडित थाय, प्रभु पसाय दुःख दुरित पुलाय ॥१०॥ दिन दिन जिन शासन उद्योत, जिहां अछे भवसायर पोत । सो सद्गुरु में भेट्यो आज, रलिय रंग सब सीधा काज ॥११॥ ॥ ढाल ॥ आज घर अंगन सुरतरु फलियो, चिंतामणि कर कमले मिलियो, उदयो परमानंद करे ॥१२॥ आज दिवस मैं धन्ने गिनियो, जुगपवरागम जो मैं थुणियो, चन्द्र गच्छ महिमा निलो ए ॥१३॥ कांइ करो पृथ्वीपति | सेवा, कांइ मनावो देवी देवा, चिन्ता आणो काइ मने ॥१४॥ बार बार इक चित्त भणी जे, श्री जिन कुशल सूरि समरीजे, सरे काज आयास घनें ॥१५॥ संवत् चवद इक्यासी वरसे, मुलक वाहण पुर में मन हरसे, अजिय जिणे| सर पुर भुवणें ॥१६॥ कियो कवित्त ए मंगल कारण, विघन हरण सहु पाप निवारण, कोइ मत संशय धरो मने ॥१७॥ जिम जिम सेवे सुरनर राया, श्री जिन कुशल मुनीसर पाया, जय सागर उवझाय थुणे ॥१८॥ इम जो सद्गुरु गुणअभिनंदे, ऋद्धि समृद्धि, सो चिरनंदे, मन वंछित फल मुझ होवो ए ॥१९॥ जिन कुशल सूरिस्तवन छत्रपती थारे पाय नमें जी, सुरनर सारे सेव । ज्योति थारि जग जागती जी, दुनियां में परतिख देव ॥१॥ हूं तो मोहि रह्यो जी, म्हारा राज दादे रे दरबार । केसर अंबर केवड़ो जी, कस्तूरी कपूर । चोवा चन्दन राय चमेली, भक्ति करूं भरपूर ॥ हुं तो० २॥ पांगुलियां ने पांव समावे, | आंधलियां ने आंख । रूपहीणा ने रूप देवे दादा, पंखहीणा ने पांख ॥ हुं तो० ३ ॥ चंद पटोधर साहिबा रे, श्री जिन कुशल सुरिंद । आठ पहर थांने ओ लगे जी, रंग* धणे राजिंद ॥ हुँ तो० ४ ॥ यह स्तवन सम्बत् १८८१ मे उपाध्याय जय सागरजी महाराज का बनाया हुआ है। * यह स्तवन खरतरगच्छीय जं० यु० प्र० वृ० भट्टारक श्री पूज्यजी श्री जिन विजय रंग सूरि जी महाराज का बनाया हुआ है। hinbbbbbbbaththaartikalathkartiksesotcotabhalatastistialistiatioticlassosiaaamanandedladirakorianiachaalinipelaaindianiketonionlishamirkettliniorietoreign Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन-विभाग ॥ श्री दादा साहब की फेरी ॥ पुण्य योग से आई दशा जो भली, जिन कुशल सुरीश्वर सेवा मिली । नवंछित आशा सुफल फली, आनन्द भयो मन रंग रली ||१|| तुम महिमा अगम अपार भला, लिया नाम तिरे पाषाण शिला । पूजे जे चरण कमल चितला, ते पामें ऋद्धि सिद्धि कमला ||२|| गुरु ढूंढ फिर चो मैं जग सगला, तुम सम दाता नहीं और मिला । तुम नाम की देखी अधिक कला, समरत गुरु संकट विकट टला ||३|| गुरुदेव को नाम चित से समरे, मनवंछित कारज सकल सरे । चित धारत आरत तुरत टरे, पूरण निधि से भंडार भरे ||४|| तुम महिमा गुरु गुणवान सदा, जे ध्यावे नहि पावें कष्ट कदा | करके दरशन भई अंग मुदा, चित चाहत सेव करूं मैं सदा ॥५॥ जाके मनमें गुरुदेव रमे, वह नर भव वन में नाहिं भमे । गुरु जानके दीनदयाल तुम्हे, राजा राणा नरनार नमें ||६|| कर्मों के फंद पड़े हैं घने, गुरुदेव न सेव तुम्हारि बने । मेरी करनी अवधारो न मने, दाता मंदिर भर देव धने ॥७॥ करुणानिधि आपको जो ध्यावें, वह नर वंछित फल पावें । कोई कष्ट रोग दुःख नहिं आवें, जो चित सेवित गुरु गुण गावें ||८|| सब भूत और प्रेत पिशाच डरे, डाकिन शाकिन नहि पीड़ करें । जे आपद काल तुम्हें सुमरें, निश्चय सब संकट विकट टरे ||९|| कर्मों के प्रहार कहां लो सहे, गुरुदेव बिना अब किसे कहें। यही चाहत चित चरनमें रहे, सुख संपति दौलत सुमति लहे ॥१०॥ राजत गुरु थुम्भ अधिक नोरे, निजदास कि सब आशा पूरे । दुःख दारिद सकल रहें दूरे, वंछित फल दे चिन्ता चूरे ॥ ११॥ देशे देशे ग्रामे नगरे, गुरु कीरति फैल रही सघरे | जिनचन्द सूरीश्वर पाट वरे, सेवक की आरत सकल हरे || १२ || श्री खरतरगच्छ सढ़ा आगे, नहीं ठहरे भूतादिक भागे । जे सतगुरु के पाये लागे, शुभ भाव दशा उनकी जागे ||१३|| सहु देश नगर अरु पट्टन ग्रामें, देवल सोहे ठामें ठामें । गुरु नाम जपे जे हित कामें, मन वंछित फल वह नर पायें || १४ || जे सतगुरु ध्यान हृदय राखे, वह सेवक शिव सुख फल चाखे । दादा जिन कुशल सुरिन्द साखे, माणक* चाकर इस पद भाखे ॥१५॥ 1 + यह स्तवन सेठ माणकचन्द्र जी महम वालका बनाया हुआ है। ५६१ Yo Yo Yo tool to Yo Yo Yo to to to to to to ta in to io in Yal Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P alambe -letrol-Jankalnatalirala felentinatokes Insankaselatikatakakkalatkakk-ht-a-trailabinatamijetabtainedaaee ५६२ त्रासमन्तनमनननननन न नननननननननननननननननननननननननननननननथनमात्र जैन-रसार श्री जिन कुशल सूरि स्तवन कुशल गुरु कुशल करो भरपूर, सेवक जन मन वंछित पूरण, समरयां होत हजूर ॥ कु० १ ॥ परम दयाल प्रेमरस पूरण, अशुभ करम भये दुर । * संघ उदय कर सद्गुरु मेरा, विनवे श्री जिनचन्द सूर ॥ कु० २ ॥ श्री जिन कुशल सूरि स्तवन । आयो आयो जी समरंता दादा जी आयो। संकट देख सेवक के सद्गुरु देश उरतें ध्यायो जी ॥ स. १॥ दादा वरसे मेंहनी रात अंधेरी, वाय पिण सबलो वायो । पंच नदी हम बैठे वेडी, दरीये चित्त डरायो जी ॥ स० २॥ दादा उच्च भणी पोहचावण आयो, खरतर संघ सवायो। समय सुन्दर कहे कुशल कुशल गुरु, परमानन्द मुख पायो जी ॥ स. ३॥ कुशल गुरु स्तवन ( सद्गुरु करुणा निधान, राखो लाज मेरी) जय जय जिन कुशल सूरि, समरत हाजर हजूर । महकत जिम यश कपूर, महिमा जग तेरी ॥१॥ जहां पर तुम हो दयाल, छिन में करदो निहाल । संकट को चूर देवो, दौलत की ढेरी ॥२॥ तुम हो सुरतरु समान, बंछित फल देवो दान । सेवक को दीन जान, मेटो भव फेरी ॥३॥ शरण आय की राखो लाज, वंछित सब पूरो काज । हरख चन्द शरण आयो, महिमा सुन तेरी ॥४॥ कुशल गुरु स्तवन कैसे कैसे अवसर में गुरु, राखी लाज हमारी। मोकं सफल भरोसा तेरा, चन्द सूरि पट धारी ॥१॥ तुम बिन और न कोई मेरे, इस युग में हितकारी । मेरा जीवन हाथ तुम्हारे, देखो आप विचारी ॥२॥ आगे तो। | कई वेर हमारी, चिन्ता दुर निवारी । अबके बिरियां भूल मति जावो, सद्गुरु पर उपकारी ॥३॥ अबके आज लाज गूजर की, रखिये गुरु जस धारी । मेरे श्री जिन कुशल सुरिन्द का, बड़ा भरोसा भारी ॥४॥ Alkatarietalalalahaskartuntouctel-titiktiolo tootbalatorlastetrolesterlookistakalakatarikshithetstaletaliatishthalaladhakitalhtakatatatutotalathkailalitinkalakath a kick kitlestatitatitutialistindiate Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kxstoletestatisakhsbaahubabbabloiletbabyC -Inslalalalsotiladarashbatasakatokhastmaste स्तवन-विभाग ५६३ tour..............teioskatinathkhaliphakathanks fotahik lalahbhhhhhhhhhhhhalphakThapotohatha hotaoh lahrkhalafaltake कुशल सूरिजी स्तवन कुशल गुरुदेव के दरसन, मेरा दिल होत है परसन । जगत में आप सम कोई, न देखा नयन भर जोई ॥१॥ विरुद भूमंडले गाजे, परसतां * पाप सह भाजे । पूजतां सुखसम्पदा पावें, अचिंती लच्छि घर आवे॥२॥ इके मुख गुण कहूं केतां, मेरे हिये ज्ञान नहिं एता। लालचन्द की अरज सुन लीजे, चरण की भक्ति मोहि दीजे ॥३॥ मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि स्तवन ( तुम तो भले विराजो जी, मणिधारी महाराज दिल्लीमें भले विराजो जी) नर नारी मिल मंदिर आवें, पूजा आन रचावें । अष्ट द्रव्य पूजा में लावें, मन वंछित फल पावें ॥१॥ आशा पूरो संकट चूरो, ये है विरुद तुम्हारो । आधि व्याधि सब दुरे नाशो, सुख सम्पति दे तारो ॥२॥ वाद विवादें जन जय पावें, तारें जलधि जहाज । वाट घाट भय पीड़ा भांजे, समरण श्री गुरुराज ॥३॥ पुत्र पुनीता परम विनीता, रूपे लक्ष्मी नार । ऋद्धि सिद्धि सुख सम्पति दीजे, भला भरजो भंडार ॥४॥ सेवक ऊपर करुणा कर जो, महिर नजर तुम धरजो । लक्ष्मी लीला घरमें भरजो, एतो काम तुम करजो ॥५॥ गुर्वाष्टकम् महा ज्ञानी ध्यानी तुम विदित दानी प्रवर थे, धरा धारा के थे तुम तरुण तैराक मति मन् । तुम्हें ध्याता हूं मैं विमल मन से प्राणपण से, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! करदो ॥१॥ पता क्या था ? पीताम्बर युगलधारी न गुरु हैं, बड़े मायी वे हैं कपट रचना पूर्ण पटु हैं । बतायी थी सच्ची शरण तुमने नाथ मुझको, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! करदो ॥२॥ रहेंगे संसारी भ्रमण करते नित्यतम में, भला ! 1. होगा कैसे गुरु प्रवर ! उद्धार उनका । कृपा भीक्षा देके करुण वरुणागार ३ अपनी, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! करदो ॥३॥ सुनेंगे स्वादेंगे। । यह गुरुवाष्टक तथा स्तवन जं० यु० प्र० ० भट्टारक श्री पूज्यजी श्री जिनरत्न सूरिजी फे शिप्य जैनगुरु पं०प्र० यति सूर्य्यमल्ल का बनाया हुआ है। Mattilatitishanikilitical leadershitalueskilడుకుండుడుడdikitikkattitthalు వచనము నందు చదువు మరము 10thitkakti lalath total 11, that is + 13 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ जैन-रत्नसार .... .......... ... ..... vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv searthakalamithbiotolane.hb thamkantash kinaalaakh bhtah liptahlakhalini khka bhlatak hoth.lathitala.lathalalah kehlalahula th ke ladkhaniphakhi hathialish lah bharti the गुरु वचन सानन्द मन से, उन्हें गारण्टी है निखिल सुख निर्वाण पद की । गुरो ! खामी मेरे मन सदन में शान्ति भरदो, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! करदो ॥४॥ चिदात्मन् जा जा के नगर वसती ग्राम जन में, दिखाया लोगों को परम पद का मार्ग तुमने । मुझे भी आशा है। 1 चरम गति की नाथ ! तुमसे, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! 1 करदो ॥५॥ बिछाया माया ने सृजन करके जाल जग का, हगों के होते भी मनुज वन अंधे फंस रहे । तुम्हारी सेवायें मन नयन का मञ्जु सुरमा, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अव आचार्य ! करदो ॥६॥ सुनाता मैं स्वामिन् ! तव गुण कथा जैन कुल में, तुम्हें ध्याता जाता प्रणत शिर है रत्न जिन ! में । तुम्हारा चेला है सफल करना सूर्यमल को, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! करदो ॥७॥ प्रतीक्षा भीक्षा है मम, तव परीक्षा समयकी, तुम्हारा ही सारा प्रभुवर ! सहारा भुवन में । कहो, बोलो, होगी परमपद की प्राप्ति मुझको, दयाब्धे ! दुःखों का दमन अब आचार्य ! करदो ॥८॥ जिनरत्नसूरि स्तवन रत्न सूरी गुरू, शिष्य जिनचन्द के । अधिकारी गुरूजी, शिष्य जिनचन्द के ॥१॥ खरतर गच्छ में गणधर साहब, रत्न सूरि गुरु ध्यानी ॥ शिष्य. २ ॥ सम्वत् उन्नीसौ इकतालीसे, बैठे गद्दी शुभकारी ॥शिष्य०३|| पैंतालीस आगमों के ज्ञाता, सूत्र अरथ विस्तारी ॥ शिष्य. ४ ॥ पञ्चास्तिकाय षट् द्रव्य के बेत्ता, शुद्ध धरम हितकारी ॥ शिष्य. ५॥ टीका नियुक्ति भाष्य चूरणी, पञ्चाङ्गी अधिकारी ॥ शिष्य. ६ ॥ सम्वत् उन्नीसौ ब्यानवे में, बैशाख बदी अति भारी ॥ शिष्य० ७ ॥ अमावस के दिन स्वर्ग सिधारे, संघ में हुवा दुख भारी ॥ शिष्य. ८॥ सूरजमल्ल गुरू के गुण गावें, धन धन जाऊं बलिहारी ॥ शिष्य. ९॥ ॥ इति स्तवन विभाग ॥ ยูไน ไซไป ใดใดใครไดไไไไไไไไไไไไไไไไ ด้ไกใจไงใหลได้ไกล ไไไไไไไไไไไไไไไดไไดไไดไขไดได้ไว้ใจไดไไไไไไไไได้ใยใใใใwwwใดใดใดได้ไรคใด ไอได้ได้ใคร ในใจ จนไดไไไไไไไ ไนไขได้ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Saina- स्तुति-विभाग thakathk kat kartelwk.I .sal.krrakamkkakeel pakekaturaletaketakalankarakatekakakakakakakakakakaki. kakka karki andamalankaha..la.ka .karka larka kaiase सिद्धाचल की थुई पंडरगिरि महिमा, आगम मा परसिद्ध । विमलाचल भेटी, लहिए अविचल ऋद्ध ॥ पंचम गति पोहता, मुनिवर कोडा कोड । एणे तीरथ आवी, कर्म विपाक विछोड ॥१॥ शत्रुञ्जय स्तुति सेजा गिरि नमिये, ऋषभदेव पुंडरीक । शुभ तपनी महिमा, सुने गुरु मुख निरभीक ॥ शुद्ध मन उपवासे, विधिसू चैत्य वंदनीक । करिये जिन आगल, टाली वचन अलीक ॥१॥ शक्रस्तवनादिक प्रथम तिलक दस वीस । अक्षत गिनती से चढ़ता तिम चालीस ॥ पंचासनी पूजा भाखइ इम जगदीस । तेहि जनित प्रणमं, स्वामी जिन चौबीस ॥२॥ सुदि पक्षनी पूनम, चैत्र मास शुभ वार । विधि सेती लहिये, आगम साख विचार ॥ इम सोले वरस लग, धरिये ध्यान उदार । करतां नरनारी पामें भव नो पार ॥३॥ सोवन तन चरणे, नयने तिम अरविंद । चक्केसरि देवी सेविय नर सुर वृन्द ॥ कामित सुखदायक, पूरय मन आनन्द । जंपे गणनायक, श्री जिन लाभ सुरिन्द ॥४॥ सीमन्धर स्तुति मन सुद्ध वंदो भावे भवियण, श्री सीमंधर राया जी । पांच सौ धनुष प्रमाण विराजित, कंचन वरणी काया जी ॥ श्रेयांस नरपति सत्यकी नंदन, वृषभ लंछन सुखदाया जी। विजय भली पुक्खलावइ विचरे, सेवे सुरनर पाया जी ॥१॥ काल अतीत जे जिनवर हुआ, होस्ये वलिय अनंता जी । संप्रतिकाले पंच विदेहे, वरते वीस विचरंता जी ॥ अतिशय वंत अनंत ३ जिनेसर, जग बंधन जग त्राता जी। ध्यायक ध्येय स्वरूप जे ध्यावे, पावे 3 शिव सुख साता जी ॥२॥ मोह मिथ्यात तिमिर भव नासन, अभिनव hta.larka kakasathkhtakalanih triph hariorthatantrkathalalalalaminaatantankibk-la-kakikattorinkuntalathalatathiantaliakuntalal-test-tantantialashtakarkastastelmistar ternata ....... Pat Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।।। ... ........... .. Hala.malialHANaMana-fimlipinfimli/ASAlali. Timlain-lamlalamlinnarlimlertainmlilasanleofulhulalbela.TRATulnilnla..laletaulilainlalloininda.lalirl.lnirani.im.lifehlmekinili. जैन-रनसार www......... सूर समाणी जी । भवोदधि तरणी मोक्ष नसरणी, नयनिक्षेप पहाणी जी ॥ ए जिनवाणी अमिय समाणी, आराधो भवि प्राणी जी ॥३॥ शासन देवी सुरनर सेवी, श्री पंचांगुलि माई जी । विघन विदारण संपति कारण, सेवक जन सुखदाई जी ॥ त्रिभुवन मोहनि अंतरजामनि, जग जस ज्योति सवाई जी । सानिधकारी संघने होयज्यो, श्री जिनहर्ष सहाई जी ॥ell द्वितीया की स्तुति मही मंडणं पुण्ण सोवण्ण देहं, जणाणं दणं केवलणाण गेहं । महाणंद लच्छी बहु बुद्धिरायं, सुसेवामि सीमंधरं तित्य रायं ॥१॥ पुरा तारगा जेह जीवाण जाया, भविस्संति ते सव्व भव्वाण ताया। तहा संपयं जे जिणा वट्टमाणा, सुहं दितु ते मे तिलोयप्पहाणा ॥२॥ दुरुत्तार संसार कुव्वार । पोयं, कलंका वली पंक पक्खाल तोयं । मणो वंछियच्छे सुमंदार कप्पं, जिणंदागमं वंदिमोसु महप्पं ॥३॥ विकोसे जिणंदाण णंभोजलीणा, कलारूव लावण्ण सोहग पीणा । वहं तस्स चित्तंपि णिचंपि झाणं, सिरी भारई देहि मे सुद्ध णाणं ॥४॥ पंचमी को स्तुति पंच अनंत महंत गुणाकर, पंचम गति दातार । उत्तम पंचम तप विधि वायक, ज्ञायक भाव अपार ॥ श्री पंचानन लंछन लंछित, वंछित दान सुदक्ष । श्री वर्धमान जिनन्हें बंदो, ध्यावो भविजन पक्ष ॥१॥ पूरण चन्द्र महाश्रव रोधक, वोधक भव्य उदार । पंच अणुव्रत पंच महाव्रत, विधि-विस्तारक सार ॥ जे पंचेन्द्रिय दम शिव पहुंता, ते सगला जिनराय । पांचम तप घर भवियण ऊपर, सुथिर करी सुपसाय ॥१॥ पंचाचार धुरंधर जुगवर, पंचम गणधर जाण । पंच ज्ञान विचार विराजित, भाजत मद पंच वाण ॥ पंचम काल तिमिर भव मांहे, दीपक सम सौभंत । पंचम तप फल मूल प्रकाशक, ध्यावो जिन सिद्धंत ॥३॥ पंच परम पुरुषोत्तम सेवा, कारक जे नर नार । निरमल पांचम तप ना धारक, तेह भणी सुविचार ॥ श्री ।.IMILAL.ni.kilah Imhidule .sh laluk tudel. hindan.d.bhudi.bate.lalalahul ll .hdallahi hI llul.hI lilahhhe Ilahi tmkalaal.. bha B ARRAalhan. h u S A I h e MARR Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n Yo' to In In In ta Yar स्तुति - विभाग सिद्धायिका देवी अह निशि, आपो सुक्ख अमंद । श्री जिन लाभ सुरिन्द पसाये, कहे जिणचन्द मुणिन्द ||४|| पंचमी की स्तुति पंचानंतक सुप्रपंच परमा नन्द प्रदा नक्षमं, पंचानुत्तर सीम दिन्य पदवी वश्याय मन्त्रोत्तमम् । येन प्रोज्वल पंचमी वर तपो व्याहारि तत्कारिणाम् । श्री पंचानन लांछनः सतनुतां श्री वर्द्धमानः श्रियम् ॥१॥ ये पंचाश्रवरोधसाधन पराः पंचप्रमादी हराः, पंचाणुव्रत पंच सुव्रत विधि प्रज्ञापना सादराः । कृत्वा पंच ऋषीक निर्जय मयो प्राप्ता गतिं पंचमी, तेऽमी सन्तु सुपंचमीव्रत भृतां तीर्थंकराः शंकराः ||२|| पंचाचार धुरीण पंचम गणाधीशेन संसूत्रितं, पंच ज्ञान विचार सार कलितं पंचेषु पंचत्वदम् । दीपाभं गुरु पंच मारतिमिरेष्वेकादशी रोहिणी, पंचम्यादिफल प्रकाशन पटुं ध्यायामि जैनागमम् ||३|| पंचानां परमेष्ठिनां स्थिरतया श्री पंचमेरु श्रियां, भक्तानां भविनां गृहेषु बहुशो या पंच दिव्यं व्यधात् । प्रहवो पंचजने मनोमतकृती स्वारत्न पञ्चालिका, पञ्चम्यादि तपोवतां भवतु सा सिद्धायिका नायिका ||४|| अष्टमी स्तुति चउवीसे जिनवर प्रणमूं हूं' नित मेव, आठम दिन करिये चन्दा प्रभु नी सेव । मूरति मन मोहे जानें पूनमचन्द, दीठां दुःख जाये पामें परमानन्द ||१|| मिल चौंसठ इन्हें पूजे प्रभुजिन पाय, इन्द्राणी अप्सरा कर जोड़ी गुण गाय । नन्दीश्वर द्वीपे मिल सुर वर नी कोड़, अट्ठाई महोत्सव करतां होड़ा होड़ ||२|| सेन्रजा शिखरे जानी लाभ अपार, चौमासे रहिया गणधर मुनि परिवार । भवियण ने तारे देई धरम उपदेश, दूध सा करथी पिण वाणी अधिक विशेष ॥३॥ पोसो पडिकमणं करिये व्रत पचखाण, आठम तप करतां आठ करम नी हाण । आठ मंगल थायें दिन दिन कोडि कल्याण | जिनसुख सूरी कहे इम जीवित जनम प्रमाण ||४|| एकादशी स्तुति अरनाथ जिनेसर दीक्षा नमि जिन ज्ञान, श्री मल्लि जनम त केवल स ५६७ abo II is fode fool hdall hbbbs Irlinton | In loin bf Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అతడahahahastitiatiడం వ లన మందు పడుకుంటున్న vuuuu uuvvvvvvvvvvvvvv जैन-रवसार ज्ञान प्रधान । इग्यारस मगसिर सुदि उत्तम उरधार, ए पञ्चकल्याणक समरीजे जयकार ॥१॥ इग्यारे अनुपम एक अधिक गुणधार, इग्यारे बारे प्रतिमा देसक धार । इग्यारे दुगुणा दोय अधिक जिनराय, मन सूधे सेव्यां सब संकट मिट जाय ॥२॥ जिहां बरस इग्यारे कीजे व्रत उपवास, बलि गुणनो गुणिये विधि सेती सुविलास । निज आगम वाणी जाणी जगत। | प्रधान, इक चित्त आराधो साधो सिह विधान ॥३॥ सुर असुर भुवण वण सम्यग्दर्शन वन्त, जिनचन्द्र सुसेवक वेयावच्च करन्त । श्री संघ सकल में आराधक बहु जाण, जिन शासन देवी देव करो कल्याण ॥४॥ मौन एकादशी स्तुति अरस्य प्रवज्या नमिजिनपतेर्ज्ञानमतुलम् , तथा मल्लेर्जन्म व्रतमपमलं केवलमलम् । वलक्षैकादश्यां सहसि लसदुद्दाममहसि, क्षितौ कल्याणानां क्षपति विपदः पंचकमदः ॥१॥ सुपर्वेन्द्र श्रेण्यागमनगमनैर्भूमि वलयं, सदा खर्गत्येवा हमहमिकया यत्र सलयं । जिनानामप्यायुः क्षणमति सुखं नारक सदः, क्षिती० ॥२॥ जिना एवं यानि प्रणिजगदुरात्मीयसमये, फलं यत्कर्तृणामिति च विदितं शुद्ध समये । अनिष्टारिष्टानां क्षितिरनुभवेयुर्वहुमुदः, क्षितौ० ॥३॥ सुरा सेन्द्राः सर्वे सकल जिनचन्द्र प्रमुदिता, स्तथा च ज्योतिकाखिल भवननाथा समुदिताः । तपो यत्कर्तृणां विदधति सुखम् विस्मित हृदः, क्षितौ० ॥४॥ चतुर्दशी स्तुति अविरल कमल गवल मुक्ताफल कुवलय कनक भासूरं । परिमल बहुल कमलदल कोमल पदतललुलित नरेश्वरम् ॥ त्रिभुवन भवन सुदीप्त प्रदीपक मणि कलिका विमल केवलम् । नव नव युगल जलधि परिमित जिनवर निकरं नमाम्यहम् ॥१॥ व्यन्तर नगर रूचिक वैमानिक कुलगिरि कुण्ड सकुण्डले । तारक मेरु जलधि नन्दीसर गिरि गजदन्त सुमण्डले ॥ वक्षस्कार भवन वन जोतिष कुरू वैताढ्य कुञ्जिगा । त्रिजगति जयति । विदित शाश्वत जिन नतिततिरिह मोह पारगा ॥२॥ श्रुत रत्लैक जलधि मधु link-httkehtetinlalentia-liesbileliatellitisat-tankinhabitatitisfislatithilihatihindiHoliaonlookinlishalilablettreelcatootantialitilandilaitadiulakidailekinaa l kalbelaisikisitohtottaraalaktartal-intatista tuttaye Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ไป.1เป็น 4 1 ไซไle ไทใดในโว 19 น मन्त्र प्रत्यत्रय प्रजननयन्त्रयप्रणप्रत्रप्रनत्र प्रधानमन्त्रनप्रनय प्रत्रनयनत्रय-चन्नयनत्र यन्त्रननननननननननननननननननन्न प्रजननयन्त्रमन्त्रनयन्यन्यनयन्त्रणमा स्तुति-विभाग स्तुति-विभाग rrn.mmmmmmmmm मधुरिक रसभर गुरू सरोवरम् । परमत तिमिर करण हरणोडर दिनकर , किरण सहोदरम् ॥ नैगम नय हेतु भंग गम्भीरिम गणधर देव गीप्पदम् । जिनवर वचन मवनि मवतात सुचि दिशतु नतेषु सम्पदम् ॥३॥ श्री मद्वीर चरम तीर्थाधिप मुख कमलाधि वासिनी । पार्वण चन्द्र विशद वदनोज्वल राजमराल गामिनी ॥ प्रदिशतु सकल देव देवीगण परिकलिता सतामियं । विचकल धवल कुवलयकल मूर्तिः श्रुतदेवी श्रुतोच्चयम् ॥४॥ चतुर्दशी स्तुति दें दें कि धप मप धुधुमि धो धो ध्रसकि धर धप धौरवं । दों दों कि । दो दो दागिड़दि द्रागड़दीकि द्रमकि द्रण रण द्रेणवं ॥ झझि झे कि झे झे झणण रण रण निजकि निज जन रंजनं । सुर सयल सिखर भवति सुखदं पार्श्व जिनपति मज्जनं ॥१॥ कट रेंगिनि थोंगिनि किटति गिगडदां धधुकि धुट नट पाटवं । गुण गणण गुण गण रणकिणेणे गुणण गुणगण गौरवं ॥ झझि झकि झ झ झणण रण रण निजकि निजजन सजना । कलयन्ति कमला कलित कलि मल, मुकुलमीश महे जिनाः ॥२॥ ठकि ट्रेकि → → ठहि ठह्निक ठहि पट्टा ताड्यते। तल लोंकि लों लों खि खिनि खि डेंखिनि वाद्यते ॥ ॐ ॐ कि ॐ ॐ धुंगि धुंगिनि धोंगि धोंगिनि कलरवे। जिनमत मनं तं महिम तनुतां नमति सुर नर मुच्छवे ॥३॥ दांकि खंदां खुखुड़दि खंदा खुखुड़दि दोंदों अम्बरे । चाचपट चचपट रणकि में णें डणण डें . डम्बरे ॥ तिहां सरगमपधुनि निधपमगरस सस ससस सुर सेवता । जिन नाट्यरंगे कुशल मुनिसं दिसतु शासनदेवता॥४॥ अमावस्या स्तुति । सिडारथ ताता जगत विख्याता, त्रिसला देवी माय । तिहां जग गुरु जनम्या सब दुख विरम्या, महावीर जिन राय ॥ प्रभु लेई दीक्षा कर हित शिक्षा, देई संवत्सरी दान । बहु करम खपेवा शिव सुख लेवा, कीधो तप इस स्तुति को खरतर गच्छीय जं० यु० प्र० वृ. भट्टारक श्री दादाजी श्री जिन कुशल भी सूरिजी महाराज ने मृदंग के वोलों पर वनायी है। ง.ไขใจไขได้ในไดไไดไไดไไดไไดไป 5 คไค โครไน ไต ในใจใครใจได ไขในใจว.อใจ ไต ๑ ไขใจ 1 ใน 4 คน 5 คน % 15 16 17 1-1..! . . * 1 ใน twY. ไขใจ ! ไ ป ไ เซ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ మడు adahrainikata నన తననంతంగeha जैन-रनसार ను నరకుడు అందరు కనుక wwwwwwwwwwww vvvvvvvvvvvvvvv vvvvvvv wwwwwwwwwwwwww . www . ww.a roamantichatar.ki.khtnakekahankalankalalalalithaatulatainitatistatiotatorstarkastaskutalionlinelioantaliatelkotatistatialasheka.lanakinlantonlirlarkamkale.bolesab kathtakalakatanagarlimla-lossalimkaris e शुभ ध्यान ॥१॥ वर केवल पामी अंतरजामी, वदि काती शुभ दीस । अमावस जातें पिछली रातें, मुगति गया जगदीस ॥ वलि गौतम गणधर मोटा मुनिवर, पाम्या पंचम ज्ञान । थया तत्व प्रकासी शील विलासी, पहुंता मुगति निदान ॥२॥ सुरपति संचरिया रतन उधरिया, रात थई तिहां काली । जन दीवा कीधा कारज सीधा, निसा थई उजवाली ॥ सहु लोके हरखी निजरें परखी, परब कियो दीवालि । वलि भोजन भगते निज निज सगते जीमें सेव सुहाली ॥३॥ सिद्धायिका देवी विघन हरेवी, वंछित दे निरधारी । करे संघ ने साता जिम जग माता, एहवी शक्ति अपारी ।। जिण गुण इम गावे शिव सुख पावे, सुणज्यो भविजन प्राणी। जिनचन्द यतीसर महा मुनीसर, जंपे एहवी वाणी ॥४॥ निर्वाण स्तुति पापायां पुरि चारु षष्ठ तपसा पर्यङ्क पर्यासनः । क्षमा पाल प्रभु हस्त । पाल विपुल श्री शुक्ल शालामनु ॥ गोसे कार्तिक दर्श नाग करणे तूर्यार कान्ते शुभे । स्वातौयः शिवमाप पाप रहितं संस्तौमि वीर प्रभुम् ॥१॥ यद्गर्भा गमनोद्भव व्रत वर ज्ञानाक्षराप्ति क्षणे। संभूयाशु सुपर्व संतति रहो चक्रे महस्तत् क्षणात् ॥ श्री मन्नाभिभवादि वीर चरमास्ते श्री जिनाधीश्वराः । संघाया नघ चेतसे विदधतां श्रेयांस्यने नांसि च ॥२॥ अर्थात्पर्वमिदं जगाद जिनपः श्री वर्धमानाभिध, स्तत्पश्चाद् गणनायका विरचयां चक्रुस्तरां सूत्रतः ॥ श्रीमतीर्थ समस्त नैक समये सम्यग्दृशां भू स्पृशां । भूयाद्भावक कारक प्रवचनं चेतश्चमत्कारियत् ॥३॥ श्री तीर्थाधिप तीर्थ भावन परा सिद्धायिका देवता । चं च चक्रधरा सुरासुरनता पायादपायाद सौ ॥ | अर्हन् श्री जिनचन्द्र गीस्सुमति नो भव्यात्मनः प्राणिनो। या चक्रेऽवम कष्ट हस्ति निधने शार्दूल विक्रीडितम् ॥४॥ पर्युषण स्तुति ____ वलि वलि हूं ध्यावं गाऊं जिनवर वीर, जिन पर्व पजूसण दाख्या धरम नी सीर । आषाढ़ चौमासे हूंती दिन पंचास, पडिकमणुं संवच्छरी wat प्रभावकाm Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ మమతను పంచు కునానడattitute स्तुति-विभाग maraaaaaaaaa www करिये त्रण उपवास ॥१॥ चौवीसे जिनवर पूजा सतर प्रकार, करिये भले भावे भरिये पुण्य भंडार । बलि चैत्य प्रवा. फिरतां लाभ अनन्त, इम परव पजूसण सहु) महिमावंत ॥२॥ पुस्तक पूजावी शुभ बांचनायें बंचाय, श्री कल्पसूत्र जिहां सुणतां पाप पुलाय । प्रति दिन परभावना धूप अगर उक्खेव, इम भवियण प्राणी परव पजुसण सेव ॥३॥ वलि साहम्मीवच्छल करिये बारम्बार, केइ भावना भावे केइ तपसी शिलधार | अडदीह पजूसण इम सेवत आनंद, सुय देवी सांनिध कहे श्री जिन लाभ सुरिंद ॥४॥ नवपद स्तुति ___जग नायक दायक सिद्ध चक्र सुखकंद, जेहना जपथी भाजे भव भय फंद । श्री पाल ने मैना विधि से ये तप कीध, नव पद थी थासे अष्ट सिद्धि नव नीध ॥१॥ जिन सिद्ध आचारज पाठक श्री मुनिराय, दर्शन ज्ञान चारित्र नवमो तप कहवाय । एक एक पद ध्याता जीव तरया संसार, चौवीसी प्रणमं कीधो भवि उपगार ॥२॥ आसू वलि चैत्रे सुदि | सातम थी जान, आलोकी जे शुभ भावे आंबिल कर पचखान । पद पद नो गुणनो, कीजे मन सुजगीस आगम मांहे बोल्यो ध्यावो तुम निस दीस ॥३॥ विमलादिक देवा देवि चक्केसरि मान, सिद्ध चक्र ना सेवक आपे वंछित दान । खरतर गछ दिनकर श्री जिन अखय* सुरिन्द, तासु चरण पसायें भाखे श्री जिनचन्द ॥४॥ नवपद स्तुति निरुपम सुखदायक जग नायक, लायक शिवगति गामी जी। करुणा सागर निज गुण आगर, शुभ समता रस धामी जी ॥ श्री सिद्ध चक्र शिरोमणि जिनवर, ध्यावे जे मन रंगे जी। ते मानव श्री पाल तणी परें, पामे सुख सुर संगे जी ॥१॥ अरिहंत सिद्ध आचारज पाठक, साधु महा। गुणवंता जी । दरसण नाण चरण तप उत्तम, नवपद जग जयवंता जी ॥ * यह स्तुति श्री रंगविजय खरतरगच्छीय जं० यु० प्र० वृ० भट्टारक श्री पूज्यनी श्री जिन अखय सूरिजी महाराज की बनायी हुई है। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pr omotinutenindi जैन-रनसार एह ध्यान धरंता लहिये, अविचल पद अविनाशी जी । ते सघला जिन नायक नमिये, जिन ए नित्य प्रकाशी जी ॥२॥ आसू मास मनोहर तिम वलि चैत्रक मास जगीशें जी । उजवाली सातम थी करिये, नव आम्बिल नव दिवस जी ॥ तेर सहस बलि गुणिये गुणणूं, नवपद केरो सारो जी। इणपरि निर्मल तप आदरिये आगम साख उदारी जी ॥३॥ विमल कमल दल लोयण सुन्दर, श्री चक्केसरि देवी जी । नवपद सेवक भविजन केरो, विन्न हरो सुर सेवी जी ॥ श्री खरतर गच्छ नायक सद्गुरु, श्री जिन भक्ति मुर्णिदा जी। तासु पसायें इणपरि पभणे, श्री जिनलाभ सुरिंदा जी ॥ell श्री आदि जिन स्तुति प्रणम परम पुरुष परमेसर, परमातम पद धारी जी। प्रथम जिनेसर प्रथम नरेसर, प्रथम परम उपकारी जी ॥ योगीसर जिनराज जगत गुरु, सहजानन्द स्वरूपो जी। रिपम जिनेसर लोक दिनेसर, आतम संपद भूपो जी ॥१॥ पांच भरत वलि पांच ऐरवत, पंच विदेह मझारो जी। काल अतीत अनंता जिनवर, पाम्या शिवपद सारो जी ॥ वलिय अनागत काल अनंता, थास्ये इणही प्रकारो जी। संप्रति काले वीस विदेहे, बंद बहु सुखकारी जी ॥२॥ अरथे श्री जिनराज बखाण्या, गंध्या श्री गणधारी जी । अंग दुवालस अतिसय उत्तम, अरथ विविध विस्तारो जी ॥ गुण परजय नय भंग प्रमाणे, जिहां पट् द्रव्य विचारों जी । ते आगम मन शुद्ध आराध्या, तूटे कर्म विकारो जी ॥३॥ सुन्दर रूप अनूपम सोहे, श्री चक्केसरि देवी जी । श्री जिन शासन सानिध करणी, दो बंछित नित मेवी जी ॥ कल्याण कारण जेहनी सेवा, संघ सकल सुखकंदा जी । श्री जिनचंद्र मुर्णिद पसाये, कहे जिन हर्प सुरिंदा जी ॥४॥ श्री अजित जिन स्तुति । विश्व नायक लायक जित शत्रु विजयानंद। पय जुग निन प्रणने देव अने देवंद ॥ भव लहरी गहरी सब मन धरी अमंद। श्री मुग्न नहीं बंदी अजित जिणंद ॥१॥ आठ प्रातिहाग्ज अतिशय बलि चीनीन । दिल. . " womammer Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • स्तुति-विभाग है रंजन देशन तेहना गुण पैंतीस ॥ अगणित ऋद्धिधारी आचारी मां ईश। एह गुणनां धारक बंदू जिन चौवीस ॥२॥ सुज्ञ अरथ अनोपम जिन भाषित सिद्धान्त । स्याद्वाद नयादिक हेतु युक्ति नवि भ्रांत ॥ पाप करदम पाणी सद्गतिनी सहनाणी । सुणिये नित भविका आगम केरी वाणी ॥३॥ शासननी साची देवी सानिधकारी । दुःख कष्ट निवारण सेवी जे सुखकारी ॥ साचे मन समरे ते सुख लाभ अपारी । जिन लाभ पयंपे होज्यो जय जयकारी ॥४॥ श्री सम्भव जिन स्तुति (निरुपम सुखदायक) ___संभव जिनवर तुंही हितकर, सावत्थी नगरीनो वासी जी। जितारि पिता अरु मात सेना के, चौद सुदी मग जनम्यां जी। चार शत धनुष शरीर प्रमाणे, कंचन वरणी काया जी । छट्ठम तपसे जिन संयम लीनो, लंछन अश्व प्रभु पाया जी ॥१॥ चौदस मारग सुदि जनम लियो, पूर्ण मारग में दीक्षा जी । चौद वरस प्रभु छद्म विराजे, उपसरगे सहन करिया जी ॥ कार्तिक वदि पंचम केवल पायो, प्रभु वाणी ने पसरायी जी। साठ पूरब आयु प्रमाणे, चैत्र सुदी पंचम गति गामी जी ॥२॥ शत दो गणधर प्रभुजी के साथे, दोय लाख श्रमणना धारी जी। तीन लाख सहस छत्तीस प्रमाणे, श्रमणी गुण गण भारी जी ॥ दोय लाख सहस त्रयाणवे श्रावक, इम परिवार सूं वाध्यो जी । सहस छत्तीस लाख श्रावकण्या, भव्य जीवा ने पार उतारो जी ॥३॥ शासन यक्ष त्रिमुख कहलाये, दुरितारी शासन देवी जी । इनकी भगती नित नित करिये, दुर हरे दुख दुरितो जी ॥ संघ नायक श्री रत्न सुरीश्वर, खरतरगच्छ आचारो जी। तास शिष्य सुवाचक सूरजमल, पावे नित सुख भंडारो जी ॥४॥ श्री अभिनन्दन जिन स्तुति (चउवीसे जिनवर) अभिनन्दन जिनवर वन्दु नित उठ भोर, दूजे माधे दिन जनमें มใดใด ใกไetนไeได้คะ ไดไไดไไไไไไไดไไไไte ในสัceใดใดใดใช้ในครัวในไดไคได้ไม่โดนโดนไกดไลังไoe ใ ห้ไรในไตได้อะไรในใจไปไดไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไไดไไไหนไนนะ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ astetvastatestakalatakaaspitidainathpastolest BALLilanileitendonlailestiatelilaletialalentel t l imilailimilailileanl R EAMMARKEstalksat a litictimillml- ६०४ जैन-रत्नसार तुझ बिन है नहीं और । सूरत अति प्यारी पावे हृदय अनन्द, दर्शन से भय भागे दूर होय दुख दन्द ॥१॥ इन्द्र अहमिन्द्र सभी नत मस्तक हो जाय, इन्द्राणी भी मिलकर जोडे हाथ मिलाय । प्रभुवर की पुण्याई गावे हिलमिल जोर, करे अप्टाह्नि महोत्सव देव करे शोरा शोर ॥२॥ पुण्डरि गिरवर में पावे धरम अपार, चार मास तक रहिया श्रमण मुनी परिवार । शुध श्रावक ने तारे सुना प्रभू उपदेश, पय अमृत से बढ़कर वाणी अधिक विशेष ॥३॥ सामायिक पडिक्कमणो करिये मन शुद्ध भाव, अभिनन्दन जिन ध्यावत मिटे करम का ताव । शुद्ध समकित पावे होवे निज कल्यान, श्री रत्नसूरि के शिष्य सूरज मल गुण गान |el श्री सुमति जिन स्तुति (चउवीसे जिनवर ) सुमती जिन वंद, उठे नित परभात । रखिये सदा मनमें, दुर दुःख । होय जात ॥ जनम सुदी वैशाखें, अष्टमि दिन में आय । पिता मेघरथजी, मात सुमंगल थाय ॥१॥ जनमे नगरि विनीता, उत्तम इक्ष्वाकु वंश । सुदि नवमि वैशाखें, संयम लियो निःसंश ॥ लञ्छन क्रौंचे सोहे, दूर किये दुःख दन्द । कञ्चन वरणी काया, शतत्रय धनुष सोहन्त ॥२॥ चैत्र सुदी पूर्णिमा, प्रगट्यो ज्ञान अपार । गणधर शत कहिये, त्रिलक्ष सहस्र वीस अनगार ।। लक्ष पंच सहस त्रीसे, श्रमणी हुवो परिवार । श्रावक श्रावकण्यां मिल अप्ट, लक्ष सरदार ॥३॥ महाकाली शासन देवी, और तुम्बरू यक्ष । इनके समरण से, कष्ट जाय परतक्ष ॥ मारग वदि एकादशी, लियो परम पद स्थान । . श्री रत्नसूरि शिष्य मोती का, तव चरणन में ध्यान ॥४॥ श्री पद्म प्रभु स्तुति (बलि बलिहुं ध्यावू ) जुग जुग यहि चाहूं पाऊं पद्म प्रभु धीर । कार्तिक बदि वारस जनम्यां प्रभु वड़ वीर ॥ कौशाम्बी नगरी श्री सुसीमा मात । राजा पिता श्रीधर जी इक्ष्वाकु वंशना जात ॥१॥ छठे जिनवर को पूजो विविध प्रकार । LRASEAlkalotadakaSHREEsta Meartstateraastatiotaratmatatistialistinatituatialadalantististatistiatickmake th-EARNAEtHolitika a s. Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AKKKKKKKKKKLatest i king Trailernationaiththarint स्तुति-विभाग अनमत्रप्रप्रन्न amarekararakatkardoaashadhekshanMalaintslilonsoonlisahaMahakaluk नग्रक्रमप्राप्रमात्र प्रत्रप्रपत्र प्रत्र इनके वचनों पे चलिये, पावो सुक्ख अपार ॥ दुःख दारिद्र नाशे पावें लील विलास । इनकी भक्ति से हो संसार भ्रमण का नास ॥२॥ वर्ण सुवर्ण सोहे दो शत धनुष प्रमाण । पदम लञ्छन युत जेठ तेरस सुदी आण ॥ भगवन दीक्षा धारी छद्मकाल षट् मास । चैत्र सुदी पूनम ने केवल ज्ञान प्रकास ॥३॥ वलि यक्षने समरो कुसुम यक्ष सुखकार । प्रति दिन भक्ती से ध्यावे दिल मांहि धार ॥ सुख सानिध कीजे देवी श्यामा मात । सूरज के हित वञ्छू जिन रत्नसूरि विख्यात ॥४॥ श्री सुपार्श्व जिन स्तुति (प्रणम परम पुरुष परमेसर) श्री सुपार्श्व जिनेश्वर जगके हितकर, बनारसि नगरी में आया जी।। राणी पृथ्वी नृपति प्रतिष्ठ से, जेठ सुदी चौथ में जाया जी ॥ कञ्चन घरणे काया सोहत, वंश इक्ष्वाकु बताया जी । शत दो धनुष देह प्रमाणे, स्वस्तिक लञ्छन पाया जी ॥१॥ जेठ सुदी तेरस संयम लीनो, जगत भव भय नाशें जी । छद्मस्थकाल नव मास विराजे, प्रगट्यो ज्ञान अपारें जी ॥ पञ्च नव गणधर आपके साथे, तीन लक्ष श्रमण परिवारें जी। तीन सहस लख चतुर प्रमाणे, साधवियां समुदायें जी ॥२॥ दोय लख सहस सतावन श्रावक, भगवत् वचन • माने जी । तीन सहस लख उनचासे श्रावकण्यां, प्रभुजी को आय वधावें जी ॥ सर्वायू पूरब बीसे लक्षे, अमृत वाणी सुनाया जी । फागुन वदि सप्तमि दिन में, सिखर सम्मेत सिधाया जी ॥३॥ का मातंग यक्ष करे प्रभुजी की सेवा, संघ का कष्ट निवारें जी । शान्ता देवी शासन के हित, दुर करे सब दुरितं जी ॥ खरतरगच्छ में आचार्य यतीश्वर, श्री रत्नसूरि सुहाया जी । तास शिष्य हितचिन्तक कहिये, मोतीचन्द गुण गाया जी ॥४॥ श्री चन्द्र प्रभु जिन स्तुति (सुर असुर वंदिय) चन्द्रपुरि में चरण चरचित, राय महसेन व्यवस्थितम् । वर शुभ्र kalkokhakekeliekistarakahakiahsalonloelholarkonkakolhalkslilinkslashaliroinatanderpasasisaabetaa Kran i riandialirlasticticinnicatihlu feels Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ................. mmamimawwwinwwmarmereeMPPL जैन-रत्नसार शरीर रूप मनोहर, चन्द्र लञ्छन सुस्थितम् ॥ लक्ष्मणा देवि नन्दन त्रिलोक वन्दन भव्य हृदय स्थितेश्वरम् । गिरिवर शिखर सम्मेत वन्दु, चन्द्र प्रभु जिनेश्वरम् ॥१॥ इक्ष्वाकु वंश वदि पोष तेरस, आप प्रमु संयम ग्रहें । काल छमें त्रय मास बीतत, फाग सप्तमी केवल लहें ॥ त्रयाणु गणधर आदि वरदत्त, साधु साध्वी परिवरें। लख छ सहस तीस मुनि संघ, बंदु नित उठ भय हरें ॥२॥ पैंतालीस आगम मूल सूत्रं, इन्हीं में ज्ञान समझ मणे । छेद ग्रंथ को छोड़ दीने, श्रावक जन सुने नहिं भणें ॥ कर्म ग्रन्थ स्याद्वाद न्यायें, शास्त्र हिलमिल ध्याइये । चौद पूरब मूल रचना, जिन धर्म इसी १में बताइये ॥३॥ विजय यक्ष और भृकुटी यक्षणि, सदाही यह मंगल करें। दुख दारिद्र सब दूर करके, इष्ट संयोग संपति भरें ॥ सम्मेत शिखरे मुक्ति पहुंचे, चन्द्र प्रभु जी सुख करें । खरतरगच्छ में रत्नसूरी, सूरज चरणन शिर धरें ॥४॥ श्री सुविधि जिन स्तुति (समरूं सुखदायक) काकंदी के शृङ्गार जिनवर सुविधि जिनंद । निष्काम निःस्नेही आतम ज्ञान दिनंद ॥ थे सुग्रीव पिता माता रामा के नंद । मृगशिर वदि बारस जन्म हुओ सुखकंद ॥१॥ श्वेत वरण से सोहे वंश इक्ष्वाकु सुजान । कातिक सुदि तृतीया गयो मिथ्यात्व अज्ञान ॥ अष्ट करम खपाये पायो पंचम ज्ञान । इन पंचमकाले रखज्यो आगम ध्यान ॥२॥ श्री सुविधिना गणधर नाम बराहक जान । द्वादश अंग रचना, कीनी सुगुण गुणवन्त ॥ प्रभु आगम मांहे भाखें इम अरिहंत । समकित ने राखो छोड़ो धरम एकंत ॥३॥ देवी सुतारका अजित नाम है यक्ष । इनकी पूजन से सुख । सम्पति परतक्ष ॥ सब मिल कर सेवो जैन धरम परधान । श्री रत्नसूरि शिष्य सूरजमल गुणगान ॥४॥ श्री शीतल जिन स्तुति सुख समकित दायक कामित सुरतरु कंद। दृढ़ रथ नृप राणी नंदा । ReladislilianitaliatelliMEEkalikhanihalasha t anAIKA AnileonsaninilonlinekhaktiNNARALEKHAKEHAYAT- KHEATERTAIMERIAL Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति - विभाग ६०७ मेरो नंद || भद्दिलपुर स्वामी काटे भवना कंद | चित चोखे नमिये श्री शीतल जिन चंद ||१|| अतीत अनागत हुआ होस्ये और अनंत । संप्रतिकाले जे, क्षेत्र विदेह विचरन्त ॥ त्रिहुभव नेठवणा सासय असासय हुत, ते सगला त्रिकरण प्रणमूं श्री अरिहन्त ||२|| कालिक उत्कालिक अंग अनंग समृद्ध । नयभंग निक्षेपा स्याद्वाद् नित सिद्ध || भविजन उपगारी भारी जिन उपदेश | श्रुत श्रवणे सुणतां नासे कोडि कलेश ॥३॥ ब्रह्म यक्ष अशोका शासन सूरि सुविचार | संघ सानिधकारी निरमल समकित धार ॥ चिन्ता दुःख चूरे पूरे मनह जगीस । ध्यान तेहनो धरिये कहे जिन लाभ सुरीस ||४|| श्री श्रेयांस जिन स्तुति ( शान्ति जिनेसर अति अलवेसर ) श्री श्रेयांस तीर्थेश्वर त्रीलोकेश्वर, जगपति जय शुभकारी जी । विष्णु नृपति के अङ्गज कहिये, मात विष्णु अवतारी जी ॥ सुवर्ण वर्णे जिन जी छाजे, गैण्डा लञ्छन भारी जी । वारस में फागण वदि जनम्यां, अयश अशुभ निवारी जी ॥१॥ सिंहपुरी में स्वामी जनम पायो, इन्द्र इन्द्राणि विचारी जी । जाकर जिनजी का उत्सव कीजे, भरतक्षेत्र उजियारी जी ॥ दि फागुन की तेरस दीक्षा, छद्म मास दोय धारी जी । वदि अमावस माघ के दिन, केवल ज्ञान विस्तारी जी ||२|| गौशुभ गणधर अपने कीने, श्रमण संघ अति भारी जी । चौरासी हजार साधु की गणना, साधवियां सुखकारी जी ॥ सहस तीन एक लख श्रमणी, बोध वीज बहु पाई जी । सहस उनहत्तर दोय लख श्रावक, इम परिवार बखाणी जी ||३|| सहस अड़तालीस लख चार श्रावकण्या, चारह व्रत गुण खाणी जी । यक्षराज शासन के रक्षक, मानसी देवी आणी जी || इनकी भक्ति भवि भावें कीजें, मंघ सकल सुखकारी जी। जिन रत्नमूरि के शिष्य, नूरजमल गुण गाणी जी ||४|| Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Latitishattellit ६०८ e जैन-रत्नसार wwwwwwwra immedwarnamainawwanmona wwwwwwwwwwwwwwwwwanmaamanawwww s tiatakatrakasbakekastastestostatestoststakalam Smamaramananesamarp khbakri Michaelismslisfistacleadoslosledioko tarinakatoontestastcalbalsamlesishalGSI-SamsosiaticalsinescendanalonlilonisaheliaSHRESEE श्री वासुपूज्य जिन स्तुति (विमलाचल मंडन) जग नायक तारक, जयाराणी के नंद । चरण युग नित प्रति, प्रणमे इन्द्र अहमिन्द्र ॥ वासुपूज्य जिनवर पुर, चम्पा जन हुओ आनंद। रक्त। वरण प्रभुजी सोहे, वंश इक्ष्वाकु सुखकंद ॥१॥ बरस लाख बहत्तर, आयू जिनवर जान । पिता वासुपूज्य जी, पुर चम्पा में ठान ॥ फागुन वदि वारस जन्म हुओ सुविहान । तीर्थंकर वारमें, हो गयो कोड़ि कल्याण ॥२॥ चौदश शुक्ल फागुन की, संयम तप को कीन । दुज सुदी माघ की, केवल ज्ञान लयलीन ॥ सुभूम गणधर प्रभुजी के, साधु परषदा दीन । साध्वी सम्प्रदायादि, धर्म ध्यान पर बीन ॥३॥ आषाढ़ सुदी चौदस दिन, पायो मोक्ष दुवार । शासन के हित चाहत, कुमार यक्ष शुभकार ॥ देवी चण्डा सबही ध्यावत, जैन धर्म जयकार । श्री रत्नसूरिके शिष्य, मोती चन्द सुखकार | श्री विमल जिन स्तुति (मन सुध वंदो) शुद्ध दिल करि बंदो भविजन, श्री विमल जिन पाया जी। है साठ ।। धनुष शरीर सुसज्जित, रंग पीत है काया जी ॥ नगरी कपिलपुर में जनमे, देव देवेन्द्रे आया जी। कृत चरम नृपति श्यामा के नंदन, लंछन शूकर सुहाया जी ॥१॥ माघ व्यतीत चतुरथी की दीक्षा, सहस एक मुनि संघाते जी । छद्मकाल दोय मास बितायो, छठ पोष सुदी शुभकाले जी ॥ केवल ज्ञान शुभ पाय जिनेश्वर, जिनवाणी उजवाले जी। नयनिक्षेप सरूप जो जाने, पावे मोक्ष विहारे जी ॥२॥ क्रोध अज्ञान तिमिर अघ नाशक, प्रभुवर शूर समानी जी । भवनिधि सरनी पार उतरनी, शुभ समकित सहनानी जी ॥ है प्रभु वाणी अमृत समानी, धारो गुण मणि खाणी जी। जिनवर। गणधर इम परिभाखें, आत्मधर्म जिन वाणी जी ॥३॥ शासन देवी समकित सेवी, देवी विदिता माई जी। विघन निवारण समकित कारण, सेवत सब aRamaheshwaricholarlahilakataxxALEKERIKANELETERTATARAILEY sarily h Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति - विभाग ६०६ जग सहाई जी ॥ सन्मुख यक्षदेव प्रभुजी के, इनकी महिमा सवाई जी । आनन्दकारी संघने होय जो, यति सूरज के सहाई जी ॥४॥ श्री अनन्तनाथ जिन स्तुति ( अश्वसेन नरेसर ) श्री अनन्त जिनेश्वर वन्दु हुं बारम्बार नगरी विनीता सोहे अति गुणसार । शुक्ल वैशाख त्रयोदशी, हुआ जन्म सुखकार । नरपति सिंहसेन के, सुख सम्पति दातार ॥ १॥ सुयशा रानीसे जायो, यह चउदमो अवतार | कञ्चन बर प्रभु जी सोहे, वंश इक्ष्वाकु उदार ॥ पञ्चाशत धनुष प्रमाणे, भ्रमत करत उपगार । लञ्छन बाज संयुक्ते, आगम मांहि उदार ॥२॥ वैशाख सुदी चौदस को, संयम लीनो भार । दुष्कर करम खपाया, जप तप शुद्ध विचार || वर्ष तीन छद्मस्यें पाल्यो, आनन्द हर्ष अपार । चौदस वदि वैशाखें, ज्ञान पंचम शुभ धार ॥३॥ प्रभु धरम प्रकाशे, गणधर यशोधर सार । चैत्र शुक्ल पञ्चमी, लियो परम पद धार ॥ यक्ष पातालें सोहत, अंकुशा देवी हितकार | श्री रत्नसूरि शिष्य, मोतीचन्द हियधार ||४|| श्री धर्मनाथ जिन स्तुति ( पंच विदेह विषे विहरंता ) भरतें धरमनाथ विचरन्ता, भानु राजेश्वर वीर कहन्ता । मातु सुव्रता के नाऊं शीश, निसि दिन ध्याऊं तूं जगदीश || १ || इक्ष्वाकु वंश में आप सोहन्ता, वर्ण सुवरणें झल हल कन्ता । लांछन वज्र चरण दम कन्त, रतन पुरी थी महिमावन्त ॥२॥ गणधर मुख्य अरिष्ट कहन्त, तेयालीस संख्या है मतिमन्त । सूत्र अरथ विस्तारक अंग, कहे वीतराग उछरंग ॥३॥ शासन यक्ष किन्नर कहावे, ध्यावत देवी कंदरपा आवे । सरब संघ का विघन निवारे, यति सूरज का वंछित सारे ||४|| श्री शान्ति जिन स्तुति शान्ति जिनेसर जग अलवेसर, अचिरा उदर अवतरिया जी । विश्वसेन नृप नंदन जग गुरु, हथणापुर सुखकरिया जी ॥ इत उपद्रव 77 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tatork bokk tokaanta ta ta jantaola ६१० जैन - स्त्रसार · wwwwwwwww wwww wwww wwww 1 मारी निवारी, शान्ति करी संचरिया जी । जे भवि मंगल कारण ध्यावे, ते हुए गुण गण भरिया जी || १ || वर्त्तमान जिन सब मुख कारण, अतीत अनागत वन्दो जी । बारे चकी नव नारायण, नव प्रति चक्री आनन्दो जी ॥ रामादिक जे पूरब सलाका, वंदत पाप निकन्दो जी । द्रव्य निक्षेपे जिन सम जाणो, काटे भव भय फन्दो जी ||२|| अंग उपांगे जिनवर प्रतिमा, श्री जिन सरखी भाखी जी । द्रव्य भाव बहु भेदें पूजा, महा निशीथें साखी जी ॥ विषय निर्वृत्ति सत आरम्भे, विनय तपीते जाणो जी। शुभ योगे नहिं आरम्भ कारी, भगवई अंग प्रमाणो जी ॥३॥ थापना सत्ये देवी निर्वाणी, श्री संघने सुखकारी जी | कारण थी सब कारज सिद्ध, जिनवर आज्ञा धारी जी || श्री जिन कीर्ति सुरीश्वर गच्छपति, पाठक श्री ऋद्धि सारो जी । समकित धारी देव सहाई, सुख संपति दातारो जी ॥४॥ श्री कुन्थु जिन स्तुति ( पंच अनंत महंत गुणकर ) श्री कुंथु जिनेश्वर, वन्दु ं हूं बारम्बार । श्री शूर नरेश्वर, दया मूर्त्ति अवतार ॥ हस्तिनापुर नगरी, जन्म हुओ सुखकार । श्री देवी माता, सतियन में सरदार ||१|| वर इक्ष्वाकु सुहंकर, वंछित फल दातार । लञ्छन ली अज सोहे, शास्त्र तणो आधार ॥ सुर गुरु अति उत्तम, कहि न सके गुण पार । पय पंकज सेवत सब जीवन सुखकार ॥२॥ वदि पंचम वैशाखे, दीक्षा प्रभु धार । केवल ज्ञाने पायो, सुदी चैत्र की सार ॥ गणधर स्वयम्भू सोहे, किया पैंतालीस गणधार । वदि एकम वैशाखे, पहोंचे मोक्ष दुवार ॥३॥ यक्ष शासन के नायक, नाम गन्धर्व मनुहार । श्री बला देवी को ध्यावो, संसार सुक्ख दातार || श्री रत्न सूरीश्वर, खरतरगच्छ आचार | तास सीस सुवाचक, सूरजमल उरधार ||४|| A श्री अरनाथ जिन स्तुति ( मूरति मन मोहन ) सूरत दिल सोहत, कंचन बरणी काय । नृपति सुदर्शन नन्दन, माता Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति-विभाग Alfaralutalathkhtal.ktakti.matathi. Latesalenlantatwanathkktajaklalankitatahkta lothb IntakakakakakahaniyaKakbpkatihatibkistabbabitabhbhiopohtmlatatakhatrnahate tatakhatata betariannel ६११ देवी जाय ॥ नन्द्या वरते लंछन, तीस धनुष परमान । प्रति दिन सुखदायी, स्वामी श्री अर जान ॥१॥ इन्द्र अहमिन्द्र सुरवर, सेवत जन पद पद्म । इच्छित वर पूरण, अगणित गुण मणि अद्म ॥ भवि प्राणि ने तारे, पोत बहे सम दीस । श्री अर जिनेश्वर, ध्याऊं प्रभुवर ईश ॥२॥ सुदि मारग इग्यारसे, दीक्षा ली शुभ कर्म । छद्मकाल बितायो, बरस तीन दृढ धर्म ॥ सुदि चैत्र तृतीया, काटे दुष्कृत कर्म । तब पायो केवल, प्रगटे वचन जिन धर्म ॥२॥ श्री धारिणी देवी, धारो हृदय विशेष । यक्षराज को ध्यावो, काटे दुःख कलेश ॥ प्रभु सेवित करजोड़ी, रत्नसूरि जिनचन्द । कहते गुरु ज्ञानी, इम सूरजमल्ल मुनिन्द ॥४॥ श्री मल्लि जिन स्तुति ( शार्दूल विक्रीडित तथा मालिनि) मागें शुक्ल दले तिथौ शिव मिते, देशे विदेहास्पदे । यः श्री कुम्भ प्रभावती तनयामासाद्य यज्ञे भुवि ॥ व्योमाकाश वसुन्धरा मित करान् , यद्देह मुच्चैर्ययौ । कुम्भाङ्क नवनीरदोपममहं, तं मल्लिनाथं भजे ॥१॥ दीक्षा यस्य वभूव मासि सहसि, ज्ञानं सिते कार्तिके । देवाध्वाम्बर वह्नि संख्यक ॐ गणा, यस्यात्र कुम्भाधिपाः ॥ नाका काश खशून्यमेश्वर मितां, यं जैन सन्यासिनः । सेवन्तेस्म सुखं सुराति सुखदं, तं मल्लिनाथं भजे ॥२॥ युग वसु युत लक्ष, श्रावकैः श्राविकाभिः । युगल नग समेतै, वह्नि लक्षैश्च लब्धः ॥ जिन वचन विवेको येन यो लोक नेता । स जयति नरदत्ता * यक्षिणी क्लेश हारी ॥३॥ सुर वरुण कुबेरा, वास सम्मेत शृङ्गे। ग्रह तिथि नव शुक्ले, ज्येष्ठ मास्याप्त मुक्तिम् ॥ अति लघु मति मोती, चन्द्र उत्तन्द्र भक्तिः । प्रणमति विनतस्तं सूरि रत्नस्य शिष्यः ॥४॥ श्री मुनि सुव्रत जिन स्तुति । मुणि सुव्वयं पुण्णं किण्ह पउमं, रायग्गिहे पउमावइ कुच्छि जम्मं । हरिवंश सच्छंदे पिया सुमित्ते जिहा सुधे दिणमइ अह मुत्ते ॥१॥ कच्छप्प चिहं सुएसु उक्कं, बारस फग्गुणे सइ संसार मुक्कं । चइकंत मासे bhasahakalentiala..lathkhtallerkolai-keliarth ladhkiliate blohanlion leelmlalaoloelateleolockastolal.laletalelabletstall thatantalletstale { Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ เป็นใครไทยในใจ ไA ไทย ไทย ..tha.tattatti.ln.ka.tandartahithink Iprilalhola tihlwla taalnutmlalnito Imliula limions Trimlanto Imla lonle lalahliatmleela lamlalalahin tatalalalahhintakehlataul.htalathiolrhinitalamlalnudest । जैन-रत्नसार इक्कारस छद्म झाणे, फग्गुण वइ बारस णाणो ववष्णे ॥२॥ सिरि इंद गणहार समुद्दपोरं, अणाणावइ णाण विकास जोअं। सया सुक्ख तत्थे, कप्प रुक्ख अप्पं, णिगंथा गमं सुण इह महप्पं ॥३॥ कुबेर दत्ते धरणी पिया जक्खिणी, सया धम्म आरुग्ग सहाव बोहिणी। गुरु रत्न सूरिस्स चित्तेहि धार, जइ दिवायरेअ* सुहप्प सारं ॥४॥ श्री नमि जिन स्तुति जिनवर जयकारी नमि नाथ भगवन्त । मथुरा नगरी में जन्म लियो गुणवन्त ॥ श्रावण वदि आठम इन्द्र इन्द्राणी आय । करे अट्ठाइ महोत्सव नन्दीदवर पर जाय ॥१॥ पिता विजय जी रानी विप्रा थाय । वंश इक्ष्वाकु वरण सुवरण सुहाय ॥ लञ्छन नील कमल से प्रभु, पद्मासन सोहन्त । वदि आषाढ़े नवमी लियो संयम अरिहन्त ॥२॥ एक सहस परिवार छद्मस्थ मास नव गाय । विचरत विचरत जिन जी मथुरा नगरी में आय ॥ मगसिर सुदी ग्यारस पंचम ज्ञाने पाय । वैशाख वदि दशमी शिव संपति सुख थाय ॥३॥ भृकुटी यक्ष शासन में समकित देव कहन्त । गान्धारी देवी तुम गुण धरे मन मोहन्त ॥ इनके पूजन से दिन दिन, पुत्र कलत्र धन होय । गुरु रत्नसूरि चरण से मोतीचन्द* सम होय ॥४॥ श्री नेमि जिन स्तुति गिरनार सिखर पर नेमिनाथ सुविहाण । दीक्षा वर केवल ज्ञान अनें निरवाण ॥ जसु तीन कल्याणक, सुखकर सुरतरु कन्द । तसु भवियण * पहले की छपी हुई पुस्तकों मे तपस्याओं के स्तवन हैं, परन्तु चैत्यवन्दन तथा र स्तुतियां नहीं हैं । इस पुस्तक मे उनकी पूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है, कुछ समयाभाव के कारण रह भी गये हैं। पण्डितवर्ग उसे पूर्ण करने की चेष्टा करें। इनमें से दश पञ्चक्खाण, छम्मासी, बारहमासी, चतुर्दश पूर्व तप के चैत्यवन्दन तथा । स्तुतियां और ३-४-६-८-१-११-१३-१५-१७-१८-२० वे भगवान् की स्तुतियां और पखवासा, । रोहिणी तप के चैत्यवन्दन, स्तुति और ५-७-१२-१४-१६-२१ वें भगवान् की स्तुतियां रंग विजय खरतरगच्छीय जं. यु० प्र० वृ० भट्टारक श्रीपूज्यजी श्री जिनरत्न सूरिजी महाराज के । शिष्य जैन शुरु पं० प्र० यति सूर्यमल्ल तथा मोतीचन्द ने बनाई है। ไนไตไอยได้ไหลไพไรใดในกในไตได้ไดไไไดไปได้ใจได้ใจได้ในได้งแค โอไนไokไยได้ไปไฉไลไกใดในใจ, โรคไหนในไว้ใดในบไว้ใก Himatkatilhubhaktathaabilallahbaththirturlalanethelalbehula lanthe सा Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति-विभाग ६१३ प्रणमो, पाय युगल अरविन्द || १ || अष्टापद चम्पा पावापुर शुभ ठाण । आदिम बारम जिण चउवीसम जिण भाण ॥ अजितादिक वीसे पुहता शिवपुर वास । सम्मेत सिखर पर प्रणम् अधिक उल्हास ॥२॥ जिनवर मुख हुँती सुणि त्रिपदी ततकाल । गणधरना गूंथ्या द्वादश अंग विशाल ॥ नय भंग पदारथ सत सत्त नव तत्थ । भवियणने तारे सायर जिम वोहित्य ||३|| चक्केसरि अम्बा पउमा देवी परतक्ष | श्री संघ मनोरथ पूरे वा सुर वृक्ष || ध्यावे सुख पावे श्री जिन लाभ सूरीश | जिनवर सुप्रसादे आस फले सुजगीश ||४| श्री पार्श्व जिन स्तुति सम दमोत्तम वस्तु महापणं, सकल केवल निर्मल सद्गुणं । नगर जेसलमेर विभूषणं, भजति पार्श्व जिनंगति दूषणं ॥१॥ सुर नरेश्वर नम्र पदाम्बुजः, स्मर महीरुह भंग मतंगजा । सकल तीर्थकराः सुखकारका, इह जयंतु जगज्जन तारकाः ॥ २॥ श्रयति यः सुकृति जिन शासनं, विपुल मंगल केलि विभासनम् । प्रबल पुण्य रमोदय धारिका, फलति तस्य मनोरथ मालिका ॥३॥ विकट संकट कोटि विनाशिनी, जिन मताश्रित सौख्य विकाशिनी । नर नरेश्वर किन्नर सेविता, जयतु सा जिन शासन देवता ॥४॥ श्री पार्श्व जिन स्तुति अश्वसेन नरेसर, वामादेवी नन्द । नव कर तनु निरुपम, नील वरण सुखकन्द || अहि लञ्छन सेवित, पउमावइ धरणिंद । प्रह उठी प्रणमूं, नित प्रति पास जिणंद ॥१॥ कुलगिरि वेयढइ, कणयाचल अभिराम | मानुषोत्तर नंदी रुचक, कुंडल सुख ठाम ॥ भुवणेसर व्यंतर, जोइस विमाणी नाम । वत्र्त्तेते जिणवर, पूरो मुझ मन काम ||२॥ जिहां अंग इग्यारे, बार उपांग छ छेद । दश पयन्ना दाख्या, मूल सूत्र चउभेद ॥ जिन आगम षट् द्रव्य, सप्त पदारथ जुत्त । सांभली सरद्दहतां, छूटे कर्म तुरन्त ॥३॥ पउमावई देवी, पार्श्व यक्ष परतक्ष । सहु संघना संकट, दूर करे Jotel Kotoctects tonto tonteroto Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ముందు వరకు మనకు వరుస పరచడం వంటకు కడుపడుతుండటడుగురుడవు నుంచటము వరకు మనకు పరుగులు जैन-रत्नसार vvvvvvvvvvvvvv vvvvvvvvv DAMAKneJerrern-ruk.JanwirSAIDEknathorersitorstepatitiksattacts stakartakestastastrotestastrotatestostarkadolestosanlioonliadialocelboclastoldslidatioesanloanloanloddaliratortoboosblcomantalireplantatascalandalonlootbatalabari mastotokdataalotootanastaskstessantsastestcotatishthshare वा दक्ष ॥ समरो जिन भक्ति, सूरि कहे इक चित्त । सुख सुजस समापो, | पुत्र कलत्र बहु वित्त ॥४॥ महावीर जिन स्तुति मूरति मन मोहन, कंचन कोमल काय । सिद्धारथ नन्दन, त्रिशला देवि सुमाय॥मृग नायक लंछन,साथ हाथ तनु मान। दिन दिन सुखदायक, स्वामी श्री वर्धमान ॥१॥ सुरनर वर किन्नर, वंदित पद अरविन्द । कामित | भर पूरण, अभिनव सुरतरु कंद॥ भवियणने तारे, प्रवहण सम निशिदीश । चउवीसे जिणवर, प्रणम विसवा वीस ॥२॥ अरथे करि आगम, भाख्या श्री भगवंत । गणधर ने गंथ्या, गुणनिधि ज्ञान अनंत ॥ सुर गुरु पण महिमा, कहि न सके एकन्त । समरूं सुख दायक, मन शुद्ध सूत्र सिद्धान्त ॥३॥ सिद्धायिका देवी, वारे विधन विशेष । सहु संकट चूरे, पूरे आश अशेष ॥ अहनिश करजोड़ी, सेवे सुरनर इन्द । जंपे गुण गण इम, श्री जिन लाभ सूरिन्द ॥४॥ वीस बिरहमान की स्तुति ___पंच विदेह विषे विहरता, वीस जिनेसर जग जयवंता । चरण कमल तसु नामं सीस, अहनिस समरूं ते जगदीस ॥१॥ पंच मेरु पासे झलकता, सोहे वीस महा गज दंता । तिण ऊपर छे जिनहर वीस, ते जिनवर प्रणमं निसदीस ॥२॥ गणहर कहिय दुवालस अंग, थानक वीस भाख्या तिहां चंग । तिण ऊपर जे आणे रंग, ते नर पामे सुक्ख अभंग ॥३॥ जिन शासन देवी चउवीस, पूरे मुझ मन तणी जगीस। संघ तणा जे विघन निवारे, तिहु अण जन मन वंछित सारे ॥४॥ ॥ इति स्तुति विभाग ॥ . t atemediimaat-kohelala.kebkoilaterialhotoiralalaman280prsonal- 00000000% 20C Cood ఫిలిం.00000 0000000 000000 cal 0000000 %3 निजामनग्रणयन जनप्रणीत Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ మనసున మనుగడనగదుడు సందరవదనందనలు వచన రసాలు रास तथा सज्माय-विभाग श्री गौतम स्वामी जी का रास वीर जिणेसर चरण कमल, कमला कय वासो। पणमवि पभणिसं । सामिसाल, गोयम गुरु रासो ॥ मण तणु वयण एकन्त करिवि, निसुणहु भो भविया । जिम निवसे तुम देह गेह गुण गण गहगहिया ॥१॥ जम्बूदीव सिरि भरह खित्त, खोणी तल मण्डण । मगह देस सेणिय नरेश, रिउ दल बल खण्डण । धणवर गुव्वर गाम नाम, जिहां गुण गण सज्जा। विप्प वसे वसुभूइ तत्थ, तस पुहवी मज्जा ॥२॥ ताण पुत्त सिरि इन्द भूइ, ३ भूवलय पसिद्धो । चउदह विजा विविह रूब, नारी रस लुडो ॥ विनय विवेक विचार सार, गुण गणह मनोहर । सात हाथ सुप्रमाण देह, रूवहि रम्भावर ॥३॥ नयण वयण कर चरण जणवि, पंकज्जल पाडिय । तेजहिं 1 तारा चन्द सूरि आकाश भमाडिय ॥ रूवहि मयण अनंग करवि, मेल्यो निरधाडिय । धीरम मेरु गम्भीर सिन्धु, चंगम चय चाडिय ॥४॥ पेखवि निरुवम रूव जास, जण जपे किंचिय । एकाकी किल भित्त इत्थ गुण मेल्या सिंचिय ॥ अहवा निच्चय पुन्च जम्म जिणवर इण अंचिय, रम्भा पउमा गउरि गङ्ग तिहां विधि वंचिय ॥५॥ नय बुध नय गुरु कविण कोय जसु आगल रहियो। पंच सयां गुण पात्र छात्र हीडे परवरियो ॥ करय निरन्तर यज्ञ करम मिथ्यामति मोहिय, अणचल होसे चरम नाण दंसणह विसोहिय ॥६ वस्तु॥ जम्बूदीव जम्बूदीव भरह वासम्मि, खोणीतल मण्डण । मगह देस सेणिय नरेस वर गुव्वर गाम तिहां ॥ विप्प वसे वसु भूइ सुन्दर, तसु पुहवि भजा। सयल गुण गण स्व निहान, ताण पुत्त विज्जा-: निलो गोयम अतिहि सुजान ॥ ७ भास ॥ चरम जिनेसर केवलनाणी, चौविह संघ पइट्ठा जाणी । पावापुर सामी सम्पत्तो, चउविह देव निकायहिं ; जुत्तो ॥८॥ देवहि समवसरण तिहां कीजे, जिण दीठे मिथ्यामत छीजे । त्रिभुवन गुरु सिंहासन बैठा, ततखिण मोह दिगन्त पइट्टा ॥९॥ क्रोध, Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvv vvvvvvvv जैन-रत्नसार ॐ मान, माया, मद् पूरा, जाये नाठा जिम दिन चोरा । देव दुन्दुमि आगासें वाजी, धरम नरेसर आव्यो गाजी ॥१०॥ कुसुम वृष्टि अरचे तिहां देवा, चउसठ इंद्रज मांगे सेवा । चामर छत्र सिरोवरि सोहे, स्वहि जिनवर जग सहु मोहे ॥११॥ उपसम रस भर वर वर सन्ता, जो जन वाणि वखाण करन्ता । जाणवि वर्धमान जिण पाया, सुर नर किन्नर आवइ राया ॥१२॥ कन्त समोहिय जल हल कन्ता, गयण विमाणहि रणरण कन्ता । पेखवि इन्द्र भूइ मन चिन्ते, सुर आवे अम यज्ञ हुवन्ते ॥१३॥ तीर तरण्डक जिम ते वहिता समवसरण पुहता गहगहिता । तो अभिमाने गोयम जंपे, इण अवसर को तणु कम्पे ॥१४॥ मूढा लोक अजाण्यू बोले, सुर जाणंता इम काइ डोले । मो आगल कोई जाण * भणीजे, मेरु अवर किम उपमा दीजे ॥१५ वस्तु॥ वीर जिनवर वीर जिनवर नाण सम्पन्न पावापुर सुरमहिय, पत्त नाह संसार तारण, तिहिं देवइ निम्महिय, समवसरण बहु सुक्ख कारण । जिणवर जग उज्जोय करे, तेजहि कर दिनकार । सिंहासण सामी ठव्यो हुओ ते जय जयकार * ॥ १६ भास ॥ तो चढियो घणमाण गजे, इन्दभूइ भूयदेव तो । हुंकारो कर संचरिय, कवणसु जिनवरदेव तो ॥ जोजन भूमि समवसरण, पेखवि प्रथमारंभ तो । दह दिस देखे विबुध वधू, आवंती सुररंभ तो ॥१७॥ मणिमय तोरण दंड ध्वज, कोशीशे नवघाट तो। वइर विवर्जित जंतुगण, प्राती हारज आठ तो ॥ सुरनर किन्नर असुरवर, इन्द्र इन्द्राणी राय तो। चित्त चमक्किय चिंतव ए, सेवंतां प्रभु पाय तो ॥१८॥ सहस किरण सामी वीर जिण, पेखिअ रूव विसाल तो। एह असंभव संभव ए, साचो ए इन्द्रजाल तो ॥ तो बोलावइ त्रिजग गुरु इन्द्रभूइ नामेण तो। श्री मुख संसय सामी सवे फेडे वेद पएण तो ॥१९॥ मान मेल मद ठेल करे, भगतिहिं नाम्यो सीस तो। पंच सयांसं व्रत लियो ए गोयम पहिलो सीस। तो ॥ बंधव संजम सुणवि करे, अगनिभूइ आवेय तो। नाम लेई आभास करे ते पण प्रतिबोधेय तो ॥२०॥ इण अनुक्रम गणहर रयण, थाप्या वीर नत्र-त्रयननत्रजननत्रजननत्र यत्रतत्रत्रात्रत्रमनप्रजननननननननननन्त्र-ग्रनयननननननननननन Balasiestainabilitarelalithailanilialebrillaskatrinacalisa.keletalalantatistolenathitadkaoretstainedatolastotocolakitcolaikirohibitoslahabalakinkalaJinalailabilkulina-fondiyokik N S प्रचलन Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AARAMPA रास तथा सज्झाय-विभाग इग्यार तो । तो उपदेशे भुवन गुरू संयमस्र व्रत बार तो ॥ बिहुँ उपवासे पारणो ए, आपणपे विहरंत तो। गोयम संयम जग सयल, जय जयकार करत तो ॥ २१ ॥वस्तु ॥ इंद्रभूइ इंद्रभूइ चढियो बहु मान, हूंकारो करि कंपतो। समवसरण पहुतो तुरंततो जे संसा सामि सवे ॥ चरमनाह फेडे फुरंत तो, बोधि बीज संजाय मनें। गोयम भवहि विरत्त, दिक्खा लेई। सिक्खा सही गणहर पय संपत्त ॥२२ ॥भास॥ आज हुओ सविहाण आज पचेलिमा पुण्य भरो। दीठा गोयम सामि, जो निय नयणे अमिय झरो ॥ समवसरण मझार, जे जे संसय उपज ए । ते ते पर उपगार, कारण पूछे । मुनि पवरो ॥२३॥ जिहां जिहां दीजें दीख, तिहां तिहां केवल ऊपज ए।। | आप कनें अणहुंत, गोयम दीजे दान इम ॥ गुरु ऊपर गुरु भक्ति, सामी की गोयम ऊपनिय । अणचल केवल नाण, रागज राखे रंग भरे ॥२४॥ जो अष्टापद सैल, वंदे चढ चउवीस जिन । आतम लब्धि वसेण, चरम सरीरी सोज मुनि ॥ इम देसणा निसुणेह, गोयम गणहर संचरिय । तापस पन्नरसएण, तो मुनि दीठो आवतो ए ॥२५॥ तप सोसिय निय अंग, । अम्हां सगति न उपज ए। किम चढ़से दृढ़ काय, गज जिम दीसे गाजतो ए॥ गिरओ ए अभिमान, तापस जो मन चिंतव ए। तो मुनि चढियो वेग, अलंबवि दिनकर किरण ॥२६॥ कंचण मणि निष्फन्न, दंड कलस ध्वज वड सहिय । पेखवि परमानन्द, जिणहर भरतेसर महिय ॥ निय निय काय प्रमाण, चिहुं दिसि संठिय जिणह बिंब । पणमवि मन उल्लास, गोयम गणहर तिहां वसिय ॥२७॥ वयर सामीनो जीव, तिर्यक् जभक । देव तिहां प्रतिबोध्या पुंडरीक । कंडरीक अध्ययन भणी, बलता गोयम सामि ॥ सवि तापस प्रतिबोध करे, लेई आपण साथ । चाले जिम जूथाधिपति ॥२८॥ खीर खांड़ घृत आण, अमिय बूठ अंगूठ ठवे। गोयम एकण पात्र, करावे पारणो सवे ॥ पंच सयां शुभ भाव, उज्जल भरियो खीर मिसे। साचा गुरु संयोग कवल ते केवल रूप हुए ॥२९॥ पञ्च सयां जिननाह समवसरण प्राकारत्रय । पेखवि केवल नाण, उप्पन्नो उजाय करे ॥ जाणे disionstitoosikalesharinanisaskalkinkshanakaabaadatestinlandakshakoraliatialadkabaleshwakalinsahityaK alalishakika hanis a iksianisanashlulakatrisane 78 Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Asanlionsibicondinsinesinalinsahiran जैन-रत्नसार | जिनवि पीयूष, गाजंती धन मेघ जिम । जिनवाणी निसुणेवि, नाणी हुआ पंच सया ॥३०॥ वस्तु ॥ इण अनुक्रम इण अनुक्रम नाण संपन्न । पन्नरेसे परिवरिय, हरि दुरिय जिणनाह बंदइ ॥ जाणेवि जग गुरु वयण, तिहि नाण अप्पण निदइ । चरम जिनेसर इम भणे, गोयम मकरिस खेव, छेह जाय आपण सही होस्यां तुल्लावेव ॥३१॥भास॥ सामियो ए वीर जिनन्द,पूनमचंद जिम उल्लसिय। विहरियो ए भरहवासम्मि वरस बहुत्तर संवसिय ॥ ठवतो ए कणय पउमेण, पाय कमल संघे सहिय । आवियो ए नयणानन्द, नयर पावापुर सुरमहिय ॥३२॥ पेसियो ए गोयम सामि, देव समा प्रतिबोध करे । आपणो ए तिसला देवि, नंदन पहुतो परमपए ॥ बदतो ए देव आकाश, पेखवि जाण्यो जिण समो ए। तो मुनि ए मन विषवाद, नाद भेद जिम ऊपनो ए ॥३३॥ इण समे ए सामिय देखि आप कनासं टालियो ए। जाणतो ए तिहुअण नाह, लोक विवहार न पालियो ए ॥ अति भलो ए कीधलो सामि, जाण्यो केवल मांगसे ए। चिंतव्यो ए बालक जेम, अहवा केडे लागसे ए ॥३॥ हूं किम ए वीर जिनंद, भगतिहि भोले | भोलव्यो ए । आपणो ए ऊचलो नेह, नाह न संपे सांचव्यो ए ॥ साचो ए वीतराग, नेह न हेजेलालियो ए। तिणसम ए गोयम चित्त, राग वैरागें । वालियो ए ॥३५॥ आवतो ए जो उल्लट, रहितो रागे साहियो ए । केवल ए नाण उप्पन्न, गोयम सहिज उमाहियो ए ॥ तिहुअण ए जय जयकार, केवल महिमा सुर करे ए। गणधरु ए करय बखाण भविया भव जिम निस्तर ए ॥ ३६॥ वस्तु ॥ पढम गणहर पढम गणहर बरस पच्चास गिहवासे संवसिय । तीस बरस संयम विभूसिय, सिरि केवल नाण पुण ॥ बार बरस तिहुअण नमंसिय, राजगृही नयरी ठव्यो । बाणवाइ बरसाओ सामी गोयम गुण नीलो होसे शिवपुर ठाओ ॥३७॥ भास । जिम सहकारे कोयल टहुके जिम कुसुमावन परिमल महके । जिम चन्दन सोगंध निधि, जिम गंगाजल लहिरव्या लहके ॥ जिम कणयाचल तेजे झलके, तिम गोयम सोभाग निधि ॥३८॥ जिम मान सरोवर निवसे हंसा, जिम सुरतरु वर कणय । मनमनमनमनप्राणप्रत्रप्र नप्रजनन Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गनमा नाम नंगा । निम महयर गनीव बनें, जिन ग्यणायर ग्यमें बिकने जिम अंबर नागगण विकने निम गोयम गुरु केवल धनं ॥३५॥ पुनम निमिलिग नमियर लोह, मुग्नम महिमा जिम जग मौहे. पृन्य दिन जिन मामा । कंग ॥ पनानन जिम गिरिवर गजे. नर बई घर जिम गयगल गाने ।। निग जिन शासन मुनि पत्रगे ॥४०॥ जिम गुरु नम्बर लोहे माया. जिन उनम मुग्य मधुरी भाषा । जिम बन केनकि महमह. प. निम जमीपनि न्यबल चमकं । जिम जिन मन्दिर घण्टा रणकं. गोयम लये गाना ॥४१॥ चिन्तामणि कर चढियो आज, नुग्नक मारे बंडियनान । काम यसमा यगि हुआ ए. कामगी पूरे मन कामी ॥ अष्ट महानिर्मात आले धामी, सामी गोयम अणुनरि ॥२॥ पवरपर पहिलो पगीजे. माया । बीजी श्रवण नणी जं। श्रीमति नोभा नंभवा र दयां धर अमीन नी । ॥ विनय प. उक्त्राय श्री जे. इण मन्ये गायम नमी र पर यमन काय कर्गजे. दंग देशांतर काय भी जे । नया काज आयाम : संगे. प्रा उठी गोयम नमर्ग जे ॥ कान समन्गल, नविय नी. नत्र नि दिन निहां घर ॥ चवदय जय बाहार ग. गोयम गर दिय । किया रावत उपगार कंग. आदिहिं मंगल एप : . पाय मात्र पहिन्दी दी. ऋतिक कन्याग नागे ॥॥ मन मार' Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..................................... رحیمیہ یہ ہے کے میع عربی ہی مے کی تربیت دینے سے ہو تی ہے जैन-रनसार राग प्रभाती जे करे, प्रह ऊगमते सूर । भूखां भोजन संपजे, कुरला करे कपूर ॥१॥ अंगूठे अमृत वसे, लन्धि तणा भंडार । जे गुरु गौतम समरिये, मन वंछित दातार ॥२॥ ग्राम तणे पैशाल डे, गुरु गौतम समरंत।। इच्छा भोजन घर कुशल, लच्छी लील करंत ॥३॥ पुण्डरीक गोयम पमुहा, गणधर गुण सम्पन्न । प्रह ऊठीनें प्रणमतां, चवदेसे बावन्न ॥en खन्तिखमंगुणकलियं, सुविणियं सवलद्धि सम्पण्णं । वीरस्स पढम सीसं, गोयम सामी नमसामी ॥५॥ सर्वारिप्ट प्रणाशाय, सर्वाभिष्टार्थदायिने । सर्वलब्धि निधानाय, गौतमस्वामिने नमः ॥६॥ LilatailabilithileshisainalisanilialersialralantaraalikaalisanileakisnilkieslakathahdolkatEESEXK H NAL गणधर तपस्या स्तवन वीर जिनेसर केरो शीश, गौतम नाम जपो निशदीश । जो कीजे गौतम नो ध्यान, ते घर विलसे नवे निधान ॥१॥ गौतम नामे गिरिवर चढ़े, मन बंछित लीला संपजे । गौतम नामे नावे रोग, गौतम नामे सर्व संयोग ॥२॥ जे वैरी विरुआ वंकडा, तस नामे नावें टूकडा । भूत प्रेत नवि मंडे प्राण, ते गौतम ना करूं वखाण ॥३॥ गौतम नामे निरमल काय, गौतम नामे वाधे आय । गौतम जिन शासन सिणगार, गौतम नामे जय जयकार ||४|| शाल दाल सदा घृत घोल, मन वंछित कप्पड तंबोल। घरे सुघरणी निरमल चित्त, गौतम नामे पुत्र विनित्त ॥५॥ गौतम उदयो अविचल भाण, गौतम नाम जपो जग जाण । मोटा मंदिर मेरु समान, 3. गौतम नामे सफल विहाण ॥६॥ घर मयगल घोड़ा नी जोड़, वारू विल सत वंछित कोड़ । महियल मां ने मोटा राय, जो पूजे गौतम ना पाय ॥७॥ गौतम प्रणम्यां पातिक टले, उत्तम नारनी संगत मिले । गौतम नामे निरमल ज्ञान, गौतम नामे वाधे वान ॥८॥ पुण्यवंत अवधारो सहू, गुरु गौतम ना गुण छे बहू । कहे लावण्य समय करजोड़ि, गौतम पूजा संपत को। कोडि ॥९॥ ELMETALLEnlenialokhaliladai lalise a tenaduilt Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास तथा सज्झाय-विभाग สนใจอคน" ไดไคน श्री शत्रुञ्जय रास ॥दोहा॥ श्री रिसहेसर पाय नमी, आंणी मन आनंद । रास भ" रलिया मणो, शत्रुञ्जय सुखकंद ॥१॥ संवत् चार सतोतरे, हुए धनेश्वर सूरि । तिण। शत्रुञ्जय महातम कियो, शिला दित्य हजूर ।।२।। वीर जिनंद समवसरचा, । शत्रुञ्जय ऊपर जेम । इन्द्रादिक आगल कह्यो, शत्रुञ्जय महातम एम ॥३॥ । शत्रुञ्जय तीरथ सारिखो, नहीं छे तीरथ कोय । स्वर्ग मृत्यु पाताल में, तीरथ सगला जोय ॥४॥ नामे नव निधि संपजे, दीठा दुरित पुलाय । भेटता भव भय टले, सेवंता सुख थाय ॥५॥ जम्बू नामे दीपए, दक्षिण भरत मझार । सोरठ देश सुहामणो, तिहां छे तीरथ सार ॥६॥ ॥ राग रामगिरी ॥ शत्रुञ्जय ने श्री पुण्डरीक, सिद्धक्षेत्र कहूं तहतीक । विमलाचलने कर परणाम, ए शत्रुञ्जयना इकवीस नाम ॥१॥ सुरगिरने महागिरि पुण्य राश, श्री पद पर्वत इन्द्र प्रकाश । महा तीरथ पूरवे सुख काम ए० ॥२॥ सासतो पर्वतने दृढ़ शक्ति, मुक्ति निलो तिण कीजे भक्ति । पुप्पदन्त महापद्म सुठाम ए० ॥३|| पृथ्वी पीठ सुभद्र कैलाश, पाताल मूल अकर्मक ताश । सर्व काम कीजे गुण ग्राम ॥४|श्री शत्रुञ्जयना इकबीस नाम, जपेजे बैठा अपने ठाम । शत्रुञ्जय यात्रानो फल लहे, महावीर भगवंत इम कहे ॥५॥ ॥दोहा॥ शत्रुञ्जय पहले अरे, अस्सी जोयण परिमान । पिहलो मूल ऊंचीपणे छब्बीस जोयण जाण ॥१॥ सत्तर जायण जाणवो, वीजे अरे विसाल । वीस जोयण ऊंचो कह्यो, मुझ वंदना त्रिकाल ॥२॥ साठ जोयण तीजे अरे, पहिलो तीरथ राय । सोल जोयण ऊंची सही, ध्यान धरूं चित लाय ||३|| पचास जोयण पिहुलपण, चौथे अरे मझार । ऊंची दन जीवण अचल, नित प्रणमें नरनार ॥१॥ बार जोयण पंचम अरे, मूल नणे विम्नार । दो यह राम २०४७ में श्री पृश्यजी श्री जिन धनधर मूरिजी में बनाया है। l. : ไดโดยไม่งงงงงงจนไดใจอะไร องคนงานในไดไป.. . “อง” . . . . . . . . . . i.mamme r----- - Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIANTACIRMIROIROOJIribhabdoktastists/ 616632510tosksht h babkokharastkaastanhatt antiasists t ६२२ जैन-रत्नसार जोयण ऊंचो अछे, शत्रुञ्जय तीरथ सार ॥५॥ सात हाथ छठे आरे, पिहुलो परवत एह । ऊंचो होसी सौ धनुष, सासतो तीरथ एह ॥६॥ ॥ ढाल ॥ केवल ज्ञानी प्रमुख तीर्थंकर, अनंत सीधा इण ठाम रे । अनंत वली सिझस्ये इण ठामे, तिन करूं नित परनाम रे॥१॥ शत्रुञ्जय साधु अनंता सीधा, सीझसी वलिय अनंत रे। जिन शत्रुञ्जय तीरथ नहिं भेट्यो, ते गरभावास कहन्त रे॥श० २॥ फागुन सुदि आठमने दिवसे, ऋषभदेव सुखकार रे। रायणरूंख समवसरया स्वामी, पूर्व निनाणं वार रे ॥३॥ भरत पुत्र चैत्री पूनम दिन, इण शत्रुञ्जय गिरि आय रे। पांच कोडी सूं पुण्डरीक सीधा, तिन पुण्डरीक कहाय रे ॥४॥ नमि विनमी राजा विद्याधर, बेबे कोडी संघात रे । फागुन सुदि दशमी दिन सीधा, तिण प्रणमं परभात रे ॥५॥ चैत्र मास वदि चौदसने दिन, नमि पुत्री चउसहि रे । अणसण कर शत्रुञ्जय गिरि ऊपर, ए सहु सीधा एकहि रे ॥६॥ पोतरा प्रथम तीर्थंकर केरा, द्रावडने वारिखिल्ल रे। काती सुदि पूनम दिन सीधा, दश कोडी तूं मुनि सल्ल रे ॥७॥ पांचे पांडव इण गिर सीधा, नव नारद ऋषिराय रे । संब प्रज्जून्न गया इहां मुगते, आळं कर्म खपाय रे ॥८॥ नेमि बिना तेवीस तीर्थकर, समवसरया गिरि शृङ्गरे। अजित शान्ति तीर्थंकर बेहूं, रह्या चौमासे सुरङ्ग रे ॥९॥ सहस साधु परिवार संघाते, थावच्चा सुत साथ रे । पांच से साधु सो सेलग मुनिवर, शत्रुञ्जय शिवसुख लाध रे ॥१०॥ असंख्याता मुनि शत्रुञ्जय सीधा, भरतेसरने पाट रे। राम अने भरतादिक सीधा, मुक्ति तणी ए वाट रे ॥११॥ जालि मयालीने उवयाली, प्रमुख साधुनी कोडि रे। साधु अनंता शत्रुञ्जय सीधा, प्रणमं बे करजोड़ि रे ॥१२॥ ॥ ढाल ॥ शत्रुञ्जयना कहुं सोल उद्धार, ते सुणज्यो सहुको सुविचार । सुनतां आनंद अंग न माय, जनम जनमना पातक जाय ॥१॥ ऋषभदेव अयोध्यापुरी, समवसरया स्वामी हित करी। भरत गयो वन्दनने काज, . tattatatabaikikikAYEET-takARANTERNEHALKHIYEXXXXXXXXXXKA సుమారుడilitates T HAMELANKEThitolaiantalesanlailenatra Heasekhashakam Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ATERESEArthatoskakkarARREHEREkattarakhpkhandrakanks रास तथा सज्झाय-विभाग। .instawrt.borstanka-tanki.inra-Titariana-kotatinitikaamtinkakakiriaktarikaawinlinekikahaniaiekinatant-mantrafirkhapatnaki-nkalantinkarikalanationalitie.aor.ka.patrakantarwanamaintakte .... 828 ये उपदेश दियो जिनराज ॥२॥ जग माहे मोटा अरिहन्त देव, चौसठ इन्द्र करे जसु सेव । तेहथी मोटो संघ कहाय, जेहने प्रणमें जिनवर राय ॥३॥ तेहथी मोटो संघवी कह्यो, भरत सुनीने मन गह गह्यो । भरत कहे ते किम पांमिये, प्रभु कहे शत्रुञ्जय यात्रा किये ॥४॥ भरत कहे संघवीपद मुझ, थे आपो हूं अंगज तुझ । इन्द्रे आण्या अक्षत वास, प्रभु आपे संघवी पद तास ॥५॥ इन्द्रे तिण बेला ततकाल, भरत सुभद्रा बिहुंने माल । पहिरावी घर संपेडिया, सकल सोनाना रथ आपिया ॥६॥ ऋषभदेवनी प्रतिमा वली, रत्न तणी दीधी मन रली । भरते गणधर घर तेडिया, शांतिक पौष्टिक सहु तिहां किया ॥७॥ कंकोत्री मूकी सहु देस, भरत तेडायो संघ असेस । आयो संघ अयोध्यापुरी, प्रथम थकी रथयात्रा करी ॥८॥ संघ भक्ति कीधी अति घणी, संघ चलायो शत्रुञ्जय भणी। गणधर बाहुवलि केवली, मुनिवर कोड साथे लिया वली ॥९॥ चक्रवर्तिनी सघली ऋद्धि, भरते साथे लीधी सिद्ध । हयगय रथ पायक परिवार, ते तो कहतां नावे पार ॥१०॥ भरतेसर संघवी कहवाय, मारग चैत्य उधरतो जाय । संघ आयो शत्रुञ्जय पास, सहुनी पूगी मननी आस ॥११॥ नयने निरख्यो शत्रुञ्जय राय, मणि माणिक मोत्यांसंबधाय । तिण ठांमें रहि महोच्छव कियो, भरते आनंद पुरवासियो ॥१२॥ संघ शत्रुजय ऊपर चढ्यो, फरसन्ता पातक झड़ पड्यो । केवल ज्ञानी पगला तिहां, प्रणम्यां रायण रूंख छे जिहां ॥१३॥ केवलज्ञानी स्नात्र निमित्त, ईशानेन्द्र आणी सुपवित्त । नदी शत्रुञ्जय सोहामनी, भरतें दीठी कौतुक भणी ॥१४॥ गणधर देव तने उपदेश, इन्द्रे चलि दीधो आदेश | श्री आदिनाथ तनो देहरो, भरत करायो गिरिसेहरो ॥१५॥ सोनानो प्रासाद उत्तंग, रतनतणी प्रतिमा मनरंग । भरते श्री आदीसरतणी, प्रतिमा थापी सोहामणी ॥१६॥ मरुदेवानी प्रतिमा वली, माही पूनम थापी रली । ब्राम्ही सुन्दरि प्रमुख प्रासाद, भरते थाप्या नवला नाद ॥१७॥ इम अनेक प्रतिमा प्रसाद, भरत कराया गुरु सुप्रसाद । भरत तणो पहिलो उद्धार, सगलोही जाने संसार ॥१८॥ yshrestidevictorialogalorishtikhaobahanslatlabakitanikirliktakDhakasleeEMERIYoutobsantaliatimamtakoralaMMEANALHALKrikatariantanslattestandsise 1 3 Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Haritaalonlinkini-ARTOOTERTYasleelerialot o telaratisatistatistianetarrestetvotsoeseakskitchetatikta LEELine ع ع ع ع ع مر مر مهم فيه وفي م ع ६२४ जैन-रत्नसार ॥ राग सिन्धूडो आशावरी ॥ भरत तने पाट आठमें, दंडवीरज थयो रायोजी । भरत तनी पर संघ कियो, शत्रुञ्जय संघवि कहायोजी ॥१॥ शत्रुजय उद्धार सांभलो, सोल मोटा श्री कारोजी । असंख्यात बीजा वली, तेन कहूं अधिकारोजी ॥२॥ चैत्य करायो रूपातणो, सोनानो बिम्ब सारोजी । मूल गो बिम्ब भण्डारियो, पच्छिमदिसि तिण बारोजी ॥३॥ शत्रुजयनी यात्रा करी, सफल कियो अवतारोजी । दण्डवीरज राजातणो, ए बीजो उद्वारोजी ॥४॥ सो सागरोपम व्यति क्रम्या, दण्डवीरज थी जीवाडोजी । ईशानेन्द्र करावियो, ए तीजो उद्धारोजी ॥५॥ चौथा देवलोकनो धणी माहेन्द्र नाम उदारोजी । तिण शत्रुञ्जयनो कर वियो, ए चौथो उद्धारोजी ॥६॥ पांचमा देवलोकनो धणी ब्रह्मेन्द्र समकित धारोजी। तिण शत्रुञ्जय करावियो, ए पांचमो उद्धारोजी ॥७॥ भुवनपति इन्द्रनो कियो, ए छटो उद्धारोजी । चक्रवत्ति सगरतणो कियो, ए सातमो उद्धारोजी ॥८॥ अभिनन्दन पासे सुन्यो, शत्रुजय नो अधिकारोजी । व्यन्तर इन्द्र करावियो, ए आठमो उद्धारोजी ॥९॥ चन्द्र प्रभु खामिनो पोतरो, चन्द शेखर नाम मल्हारोजी । चन्द्रयशराय करावियो ए नवमो उडारोजी ॥१०॥ शान्तिनाथनी सुणि देशना, शान्तिनाथ सुत । सुविचारोजी । चक्रधर राय करावियो, ए दशमो उद्धारोजी॥११॥ दशरथसुत जगदीपतो, मुनि सुव्रत स्वामी वारोजी । श्रीरामचन्द्र करावियो, ए ग्यारमो उद्धारोजी ॥१२॥ पाण्डव कहे हमे पापिया, किम छूटे मेरी मायोजी, कहे कुन्ती शत्रुजय तणी, यात्रा कियां पाप जायोजी ॥१३॥ पांचे पांडव संघ करी शत्रुजय, भेट्यो अपारोजी । काष्ठ चैत्य बिम्ब लेपना ए बारमो उद्धारोजी ॥१४॥ मम्माणी पाखाणनी, प्रतिमा सुन्दर सरूपोजी । श्री शत्रुजयनो संघ करी, थापी सकल सरूपोजी ॥१५॥ अट्ठोत्तर सौ वरसां गयां, विक्रम नृपति जिवारोजी। पोरवाड जावड करावियो, ए तेरमो उद्धारोजी ॥१६॥ सम्वत् बार तिडोतरे श्रीमाली, सुविचारोजी । बाहडदेह मुहतें करावियो, ए चवदमो उद्धारोजी ॥१७॥ सम्बत् तेरे इकोत्तरे देसलहर Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ขใeet MMAMA AARA ใช้ไปได้ k karakharkaant-tantratakakkarinakah kbelanki.imitstatue ไง ใครใครได้ไปัดโยคไตใจในไตได้ narrellakitabakalamalakkimitationakshatanka-konkaniramhani hindimbabkartalikaafikinnar रास तथा सज्झाय-विभाग अधिकारोजी। समरे साह करावियो, ए पनरमो उद्धारोजी ॥१८॥ सम्वत् पनर सत्यासिये, बैशाख वदि शुभ वारोजी। करमे डोसि करावियो, ए सोलमो उद्धारोजी ॥१९॥ सम्प्रति काले सोलमो, ए वरते छे उद्धारोजी । नित नित कीजे वन्दना, पांमीजे भव पाराजी ॥२०॥ ॥दोहा॥ वलि शत्रुजय महातम कहूं, सांभलो जिम छे तेम । सूरि धनेसर इम कहे, महावीर कह्यो एम ॥१॥ जेहवो तेहवो दर्शनी, शत्रुजय पूजनीक । भगवन्तनो वेष मानतां, लाभ हुए तहतीक ॥२॥ श्री शत्रुजय ऊपरे, चैत्य करावे जेह । दल परमांन समो लहे, पल्योपम सुख तेह ॥३॥ शत्रुञ्जय ऊपर देहरो, नवो नीपावे कोय । जीर्णोद्धार करावतां, आठ गुणो फल होय ॥४॥ सिर ऊपर गागर धरी, स्नात्र करावे नार । चक्रवर्त्त नी स्त्री थई, शिव सुख पामे सार ॥५॥ काती पूनम शत्रुञ्जय, चढिने करे उपवास । नारकी सौ सागर समो करे करमनो नास ॥६॥ काती परब मोटो कह्यो, जिहां सीधा दश कोड़। ब्रह्म स्त्री बालक हत्या, पापथी नाखे छोड़ ॥७॥ सहस लाख श्रावक भणी, भोजन पुण्य विशेष । शजय साधु पड़िला भतां अधिको तेहथी वेष ॥८॥ ॥ ढाल ॥ शत्रंजय गयां पाप छुटिये, लीजे आलोयण एमो जी । तप जप कीजे तिहां रही, तीर्थकर कह्यो तेमो जी ॥१॥ जिण सोनानी चोरी करी, ए आलोयण तासोजी। चैत्रे दिन शत्रुजय चढी, एक करे उपवासोजी ॥२॥ वस्तुतनी चोरी करी, सात आंबिल शुद्ध थायोजी । काती सात दिन तप कियां रतन हरन पाप जायोजी॥३॥ कांसी, पीतल, तांबा रजतनी, चोरी कीधी जेणो जी । सात दिवस पुरिमढ करे, तो छूटे गिरी एणोजी ॥४॥ मोती, प्रवाला, मुंगिया, जिण चोरया नर नारोजी । आंबिल कर पूजा करे, त्रिण टङ्क शुद्ध आचारोजी ॥५॥ धान, पानी रस चोरिया, ते भेटे सिद्ध क्षेत्रीजी ।। ३ शजय तलहटी साधु ने, पडिलामे सुध चित्तोजी ॥६॥ वस्त्राभरण जिने ใจไว้ใจใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใใet ได้ใจใครหลว เจอ ใจ ॥ ताला e ใจ ใจบๆ “เลไรไจใจใคร 79 Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ safada lolaletiolasahto walimlaslatiya pinlalalamaase leaonetariatestantialestantshateseokatolasaseastotaafantaskattaantesta ntitaseenae कानप Sra stasotatistskose त्रपत्र-मनननननननननननननननननननननननननननपत्रण प्रयतमनननननननननननननमय जैन-रत्नसार हरया, ते छूटे इण मेलोजी।आदिनाथ नी पूजा करे, प्रहऊठी बहु बेलोजी ॥७॥ देव गुरु नो धन जेहरे, ते शुद्ध थाये एमोजी । अधिको द्रव्य खरचे तिहां, पात्र पोषे बहु प्रेमोजी ॥८॥ गाय भैस घोड़ा मही, गज ग्रह चोरन। हारोजी । देते वस्तु तीरथे, अरिहन्त ध्यान प्रकारोजी ॥९॥ पुस्तक देहरा पारका, तिहां लिखे आपनो नामोजी । छूटे छम्मासी तप कियां सामायिक तिन ठामोजी ॥१०॥ कुंवारी परिव्राजका, सधव, विधव गुरु नारोजी । व्रत भांजे तेहने कह्यो, छम्मासी तप सारोजी ॥११॥ गो, विप्र, स्त्री, बालक, ऋषि, एहनो घातक जे होजी । प्रतिमा आगे आलोवता, छूटे तप कर तेहो जी ॥१२॥ ॥ ढाल ॥ सम्प्रति काले सोलमो, ए वरते छे उद्धार । शत्रुजय यात्रा करूं ए, सफल करूं अवतार ॥१॥ छहरी पालतां चालिये ए, शत्रुजय केरी वाट । पालीताणे पंहुचिये ए, संघ मिल्या बहु थाट ॥२॥ ललित सरोवर पेखिये ए, | वलि सत्तानी वावि । तिहां विसरामो लीजिये ए, वड़ने चौतरे आवि ॥३॥ * पालीताणे पाजड़ी ए, चढ़िये उठ परभात । शत्रुञ्जय नदिय सोहामणि ए, दुर थकी देखंत ॥१॥ चढ़िये हिङ्गलाजने हडे ए, कलि कुंड नमिये पास । बारी मांहे पेसिये ए, आनी अंग उल्लास ॥५॥ मरुदेव टुंक मनोहरु ए, गज चढ़ि मरुदेवी माय । शान्तिनाथ जिन सोलमो ए, प्रणमी जे तसु पाय ॥६॥ वंश पोरवाडे परगड़ो ए, सोमजी साहमलार । रूपजी संघवी करावियो ए, चौमुख मूल उद्धार ॥७चौमुख प्रतिमा चरचिये ए, भमती मांहे भला बिम्ब । पांचे पाण्डव पूजिये ए, अद्भुत आदि प्रलम्ब ॥८॥ खरतर वसही खंतसू ए, बिम्ब जुहारूं अनेक । नेमनाथ चवरी नमू ए, टालं अलग उदेग ॥९॥ धरम दुवार मांहिं नीसरूं ए, कुगति करूं अति दुर । आऊ आदिनाथ देहरे ए, करम करूं चकचूर ॥१०॥ मूल नायक प्रणम मुदा ए, आदिनाथ भगवंत । देव जुहारूं देहरे ए, भमती माहे भमंत ॥११॥ शत्रुञ्जय ऊपर कीजिये ए, पांचे ठाम स्नात्र । कलश अठोत्तर s tatestosrabrtastmethabanaanabadliesanilonotatisthatantrabad नयनपत्र मानतल Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास तथा सज्माय-विभाग AAAAAAAAAPoon संकरिये ए, निरमल नीरसं गात्र ॥१२॥ प्रथम आदीसर आगले ए, पुण्डरीक . गणधार । रायण तल पगला नमू ए, शान्तिनाथ सुखकार ॥१३॥ रायण तल पगला नमुं ए, चौमुख प्रतिमा चार । वीजी भूमि बिम्बावली ए, पुण्डरीक गणधार ॥१४॥ सूरज कुण्ड निहालिये ए, अति चली उलका झोल । चेलण तलाई सिद्ध शिला ए, अंग फरसूं उल्लोल ॥१५॥ आदि पुर पाजें उतरूं ए, सिद्ध व डलू विसराम। चैत्य प्रवाडी इण पर करी ए, सीधा वंछित काम ॥१६॥ यात्रा करी शत्रुञ्जय तणी ए, सफल कियो अवतार । कुशल क्षेम सं आवियो ए, संघ सहू परवार ॥१७॥ शत्रुञ्जय रास सोहामणो ए, सांभलज्यो सहु कोय । घर बैठां भणे भाव सं ए, तसु यात्रा फल होय ॥१८॥ संवत् सोल बयासिये ए, श्रावण वदि सुखकार । रास रच्यो शत्रुञ्जय तणो ए, नगर नागोर मझार ॥१९॥ गिरुवो गच्छ खरतर तणो ए, श्री जिनचन्द सूरीस । प्रथम शिष्य श्री पूजना ए, सकलचन्द सुजगीस ॥२०॥ तास सीस जग जाणिये ए, समय सुन्दर उवझाय । रास रच्यो तिण रूवडो । ए, सुणतां आनन्द थाय ॥२१॥ सम्मेत शिखरजी का रास ॥दोहा॥ वांदी वीस जिनेसरू, रचस्यूं रास रसाल। तीर्थ शिखर सम्मेतनी, महिमा बड़ी विशाल ॥१|| मोटो तीरथ महियले, प्रगट्यो शिखर समेत । कोड़ा कोड़ी मुनिवर्स, सिद्ध गए इह खेत ॥२॥ तीरथ शिखर समेत ए, फरस्या पाप पुलाय । भविजन भेटो भाव , ज्यूं सुख संपद थाय ||३|| महिमा शिखर समेतनी, कहि न सके कवि कोय । गुण अनन्य भगवंतना, तिम ए तीरथ होय ॥४॥ ॥ ढाल ॥ गिरिवर शिखर समो नहिं कोय, एहनी महिमा सब जग होय । बीस जिनेसर मुगते गया, मुनिजन ध्यान धरीने रह्या ॥१॥ प्रथम अयोध्या नगरी भली, तिहां जित शत्रु नरेसर वली । विजयारानीने सुत जांण, श, inthletsthit.Inte hainlelationshifalhoti.laturn inleletalhtntaintaintrinsiateletela ladalasir totalantathalmalattentiohintaintaineIII T hti.istatutat i st Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amarevgroserly runodafotoseutstabletstdabidesheelotectosdatabtobekshorasetootadakadeinessettesette ६२८ जैन-रत्नसार .wwwwwwwwwwwwwwwwww.. vvvvvvvvvvvvvvvvvvv अजित कुमार सहु गुणनी खाण ॥२॥ जसु इन्द्रादिक सेवा करे, इन्द्राणी उच्छव धरे । तीर्थकरनी पदवी लही, अन्तर अरि जिन साध्या सही ॥३॥ अनुक्रम इम भोगवतां भोग, पुण्य प्रसाद मिल्यो सहु जोग । अवसर दे संवत्सरी दान, संजम लीनो आप सुजांन ॥४॥ कर्म खपावी पाम्यो ज्ञान, | केवल दर्शन लह्यो प्रधान । विचरे पुहवी मंडल मांहि, भव्य जीव प्रति बोधन तांहि ॥५॥ सिंह सेनादिक गणधर भया, पंचाणवे संख्या सहु थया। एक लाख मुनिवर परिवरया, श्रावक श्रावकणी सहु करया ॥६॥ तीन लाख वलि तीस हजार, साधवियां जाणी सुविचार । श्रावक सहस अट्ठाणूं। सही, दोय लाख संख्या गह गही ॥७॥ पांच लाख पैंतालीस हजार, श्रावकणी संख्या सुविचार । बहुत्तर लाख पूरबनो आय, कंचनवरण शरीर सुहाय ॥८॥ साढ़े चार सै धनुष शरीर, मान लह्यो प्रभु गुण गंभीर । गज। लांछन प्रभुजी ने जांन, अमृत सम जसु मीठी वांन ॥९॥ अनुक्रम प्रभु जी शिखर समेत, गिरिवर पर आव्या निज हेत । सहस मुनिवरने परिवार, * मास खमण अणसण कर सार ॥१०॥ चैत्री सुदि पूनमने दिने, मुक्ति गया प्रभु तीरथ इणे । भूचर खेचर किन्नर सुरी, इन्द्रादिक सहु उच्छव। करी ॥११॥ थाप्यो तिण मोटो मही, अठाइ महोच्छव कियो सही। ए तीरथनी यात्रा करे, ते भवियण अक्षय सुख वरे ॥१२॥ ॥ दोहा ॥ श्री संभव जिनराज जी, गए इहां निर्वाण । शिखर समेत सुहामणो, प्रगट्यो तीरथ जाण ॥१॥ ॥ ढाल ॥ सावत्थी नगरी भरी, धन संपद बहु थोक । जितारि नृप राज करे, सुखिया सब लोक॥सेना राणी मीठी वाणी, गुणनी खान । जेहने सुत श्री संभव, जनम्या सकल सुजान ॥१॥ कंचन वरण शरीर, मनोहर प्रभुनो जांन । लंछन अश्व तणो सोहे, प्रभुनो परधान ॥ साठ लाख पूरबनो, प्रभुनो आयु प्रमाण । धनुष चार सै उच्च पणे, प्रभु देह वखाण ॥२॥ एकसौ दोय संख्या ए, प्रभुने गणधर होय । दोय लाख मुनि जेहने, गुण Besalkilindirls6ERGENERATAYAlaodesktakibilithimitalikaalaastati-lanakikalkatatashatst taksheetailokalkalanakaleshstiatohtoshootwostosantakmatkalaatasthilakshakakimamlaletastistatestantatisthataneodymistostaramanalisraelwosthulantavaasakahimlanatantantalapiptiminata.kelaloo kaales a testestabkaththalakatalestiatoublothiarlicationakaclinicipatelariatrimlakaana.vietalalamokalaman T E Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास तथा सज्झाय-विभाग .norman- RAMNNAR समस्त्रनयन्त्रणमात्र प्रतापत्रमनचयनत्रणप्रत्र प्रधानन्त्रमननपत्रणमा वरता जग जोय ॥ तीन लाख श्रमणी वली, ऊपर सहस छत्तीस । भूमंडल विचरे प्रभू, श्री संभव जगदीस ॥३॥ तीन लाख वलि सहस, त्रयाणूं श्रावक लोक । षट् लख सहस छत्तीस, श्रावकणी संख्या थोक ॥ त्रिमुख यक्ष अरु दुरिता, देवी सांनिध कार । विचरंता प्रभु सकल, संघ में जय जयकार ॥४॥ सहस श्रमण परिवारे, प्रभुजी शिखर समेत । एक मास संलेखना, कीनी निज पद हेत ॥ इण गिरि ऊपर पायो, प्रभुजी पद निरवाण । तीरथ महिमा महियल, मोटी थइय सुजाण ॥५॥ ॥दोहा॥ अभिनन्दन जिन बंदिये, पायो पद निरवाण । शिखर समेत सोहामणो, भेटो तीर्थ सुजाण ॥१॥ ॥ ढाल । नगरी अयोध्या सुरपुरि सम भली, संबर राजा सोहे मन रली । सिद्धार्थी राणी प्रभु तसु नन्द ए, अभिनन्द जिन प्रगट्या चन्द ए ॥उल्लालो।। चन्द ए सोवन वरण सोहे, धनुष साढ़े तीन से । सुन्दर शरीर प्रमाण द्युति कर, कपि लंछन ते नित वसे ॥ पूर्व लाख पचास आयु, गणधर एकसौ सोल ए । तीन लाख मुनि छ लाख आर्या, सहस त्रिसत् सोल ए ॥१॥ सहस अठ्यासी दो लख, श्राद्धनी संख्या चउ लख सत्तावीसनी श्रावक ण्यारी संख्या जाण ए। नायक यक्ष कलिका ठाण ए ॥ उल्लालो ।। ठाण ए शिखर समेत, ऊपर मास एक संलेखणा । इक सहस साधु परवरया प्रभु, मुक्ति पहुंचे पेखणा ॥ इमही अयोध्या मेघ नरवर, देवी मात सुमंगला । श्री सुमति जिनवर भए नन्दन, सदा होत सुमंगला ॥२॥ सोवन वरण धनुष तसु तीन से, लंछन कोंच सोहे सुभगेह से । पूरब लाख पच्यासी आउ ए, इक सौ गणधर गुण गण भाउ ए ॥ उल्लालो ॥ भाउ ए मुनि त्रिण लाख सोहे, सहस वीस प्रमाण ए । पण लक्ष तीस हजार साध्वी, श्रावक दोय लक्ष जाण ए॥ संख्या इक्यासी सहस ऊपर, श्राविका इण आनिये । पण लक्ष सोले सहस waletadahtihtanshubhabiokhatahkkkkkkk.bhahbhlakaashtaktbal.tobhabhtakitsabtabtakhtakhnathralahi Akhtraliralalalalalkota.lakhulatablulaletalkta Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvv VIVVVVVVVVVVVVVV vvvvvvv నందనవనం నుండ scribe जैन-रत्नसार तुम्बरु, महाकाली मानिये ॥ श्री शिखर ऊपर सात संख्या, सहस साधु सुरंग ए । कर मास की संलेखणा प्रभु, मुक्ति पुहता चंग ए ॥ ३ चाल ॥ इम कोसंबी नगरी तात ए, धर नृप तात सुसीमा मात ए । पद्म प्रभु तसु। अंगज नाथ ए, लंछन कमल तणो सुभ हाथ ए॥ उल्लालो ॥ हाथ ए धनुष प्रमाण, पूरा अढाई सै तनु कहो । तीन लाख पूरब थित कहावे, एक सौ गणधर लहो॥ लक्ष तीन तीस हजार साधु, वीस सहस लक्ष च्यार ए। साधवी दोय लख सहस छिहत्तर, श्रावक संख्या सार ए ॥ ४ चाल ॥ पांच लाख वलि पांच हजार ए, श्रावकन्यारी संख्या सार ए । कुसुम देव श्यामा देवी कही, लाल वरण तन प्रभु सोहे सही ॥ उल्लालो ॥ सोह ए शिखर समेत ऊपर, आठ सै त्रिण मुनिवरा । कर मास संलेखन प्रभुनी, * सेवा करे हैं सुरवरा ॥ श्री पद्म प्रभुजी मुक्ति पहुता, गिरि शिखर महिमा । भई । तसु चरण पंकज वालवंदे, हृदय आनन्द गह गही ॥५॥ दोहा श्री सपास जिनन्दना, पद पंकज आराम । भविजन भ्रमर तूं सेवतां, पावें वंछित काम ॥१॥ ॥ ढाल ॥ नगर वणारसी सोभता, राजा तात प्रतिष्ट लाल रे । देवी पृथवी माता जी, स्वस्तिक लंछन सिष्ट लाल रे ॥१॥ श्री सुपार्श्व जिनन्द जी, वीस पूरब लख आयु लाल रे। धनुष दोय सै देहनी, कंचन वरण सुहाय लाल रे ॥२॥ पचाणवे गणधर कह्या, साधू त्रिण लाख होय लाल रे। चार लाख तीस ऊपरे, सहस साधवियां जोय लाल रे ॥३॥ सहस सतावन लक्षनी, श्रावक संख्या पाय लाल रे । चार लाख वली त्रयाणवे, सहस श्रावकणी भाय लाल रे॥४॥ मातंग यक्ष शान्ता सुरी, पांच सै मुनि परिवार लाल रे । करि अनसन मुगते गया, नाम लियां निस्तार लाल रे ॥५॥ नगर चन्द्रपुर इण परे, राजा तात महेस लाल रे । देवी माता लक्ष्मणा, सुत चन्द्रा प्रभु वेस लाल रे॥६॥ श्रीचन्द्रा प्रभु वन्दिये, चन्द्र वरण तनु जंह। लाल रे। लंछन चन्द्र तणो भलो, धनुष डेढ सै देह लाल रे ॥ Vista konathan ko sotholo sata kiki.lnki ki hin kk kb***bha kakakakakakiriktat kakakirsiatest sarkaritrakathadakt s htitatitishatha నడవవనవుండునటుడు a waterestliestatistiterathaktitottashatiti r ma Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास तथा सज्झाय-विभाग Talathishusai kata sakal प्रवचनपत्रपत्रमा पत्रपत्रिप्रपत्र- प्रसाधनणप्रत्रतत्रभवनप्रवचन- भविक कमल प्रतिबोधतां, सेवे सुरनर यक्ष लाल रे। दस लाख पूरब आउखो, तेणवे गणधर यक्ष लाल रे ॥८॥ दोय लाख सहस पचाणवे, मुनि श्रमणी तीन लक्ष लाल रे । असी सहस संख्या कही, श्रावक चलि दोय लक्ष लाल रे ॥९॥ लाख पचास ऊपर वली, श्राविका चउ लक्ष धार लाल रे । सहस इकाणवे ऊपरे प्रभु जीवा परिवार लाल रे ॥१०॥ विजयदेव . भृकुटी सुरी, सहस साधु परिवार लाल रे। संलेखन एम मासनी, पुहता में मुक्ति मझार लाल रे ॥११॥ ॥दोहा॥ जय श्री सुविधि जिनेसरू, जगपति दीन दयाल । समेत शिखर मुगते गया, भविजन के प्रतिपाल ॥१॥ ॥ ढाल ॥ नयर काकन्दी नरपति, एम पिता सुग्रीव । देवी रामा माता सुत, भय सुविध सुभ जीव ॥१॥ रजत वरण सम तनु सत, धनुष एक परिमाण । दोय लाख पूरब कह्यो, प्रभुनो आयु सुजाण ॥२॥ अठ्यासी संख्या भए, गणधर परम प्रधान । लख दो मुनि विंशति सहस, इक लख श्रमणी जांन॥३॥दोय लक्ष श्रावक कह्या, अरु गुणतीस हजार । एकहत्तर चौ लख सहस, श्रावकणी सुविचार ॥४॥ सुरी सुतारा सुर अजित, श्री संघ सांनिधकार । सहस साधु परिवार सं, आए शिखर सुचार ॥५॥ मास संलेखण कर प्रभु, मुक्ति गए इह ठोर । तीरथ महिमा महियले, प्रगटी चारूं ओर ॥६॥ इम हिज शीतलनाथनो, हिव सुणज्यो अधिकार । भदिलपुर दृढ़रथ पिता, माता नन्दा सुखकार ॥७॥ लंछन सुभ श्री वत्सनो, श्री शीतल जिनचन्द । * कंचन वरण नेउ धनुष, मान शरीर अमंद ॥८॥ एक लाख पूरब कह्यो, 1 प्रभुनो आयु प्रमाण । इक्यासी गणधर कह्या, मुनि इक लाख सुजाण ॥९॥ ई एक लाख चालीस सहस, श्रमणी संख्या ओर । सहस तयांसी दोय लख, श्रावक संख्या जोर ॥१०॥ सहस अठावन लक्ष चउ, श्रावकणी सुविचार । देवी अशोका ब्रह्म यक्ष, सह संघ सांनिधकार ॥१॥ शिखर समेत सहर .twariaterala kalaimadarthataklahrkotekstanishal Awakadhikalikahistatolakakakakeelatar.ketiri मनचयनxx172014- 11- 2014 k thaxkalatakindrekhawlatantarwas a Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धननयन्त्र vvvvvvvvvvvvvvvvvvv vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvu vuvy vuvuuvvwvvy w wow Vouvy ण वन्य प्रायनन्द्रयाण प्रश्नपत्र sudalaimilialistablishalilaikahaniasalilalsotroienlodkoshetakalandalatalaltahststatestostessatisthaster नयनत्रनाममननननननननननननयन्त्रण जैन-रत्नसार एक, साधूने परिवार । मुक्ति गए प्रभु मास की, संलेखन कर सार ॥१२॥ ॥ ढाल ॥ सिंहपुरी नगरी तिहां राजा, विष्णु नरेसर तात जी। कंचन वरण श्रेयांस प्रभूजी, उपज्या विष्णु सुमात जी ॥१॥ नमो रे नमो श्री त्रिभुवन राजा, खडग लंछन प्रभु पाय जी । धनुष असी देह मांन चौरासी, लाख वरसना आयु जी ॥२॥ गणधर बहुत्तर सहस चौरासी, मुनि श्रमणी तीन लक्ष जी। तीन सहस चलि सहस गुण्यासी, श्रावक पुण दो लक्ख जी ॥३॥ अड़तालीस सहस वलि चौ लख, श्राविका जाणो सार जी । जक्ष अमर सुरी मानवी जांणो, श्री संघ सांनिधकार जी ॥४॥ सहस मुनीसरने परिवारे, प्रभुजी शिखर समेत जी। मास संलेखण कर प्रभु पहुंता, मुक्ति महल सुख हेत जी ॥५॥ हिव कपिलपुर तात भूपति, श्री कृतवर्म सुमात जी । श्यामा देवी अंगज ऊपना, विमलनाथ जग तात जी ॥६॥ सूकर लंछन सोवन काया, साठ धनुष देह मान जी । साठ लाख वच्छरनो आयु, शिष्य सतावन जान जी ॥७॥ साठ सहस मुनि अडसय इक लख, श्रमणी श्रावक जांण जी। आठ सहस दोय लक्ष श्राविका, चौ लक्ष संख्या आण जी ॥८॥ सन्मुख सुरवर विदिता देवी, प्रभुजी शिखर समेत जी । षट् हजार साधु परिवारे, मुक्ति गए सुख हेत जी ॥९॥ नगरी नाम अयोध्या नरवर, सिंहसेन जग सार जी। सुयसा मात तिणे सुत जाया, प्रभुजी अनन्त कुमार जी॥१० लंछन श्येन सोवन सम काया, धनुष पचास प्रमाण जी । तीस लाख वच्छरनो आयु, गणधर पचवीस आंण जी ॥११॥ छासठ सहस मुनिवर सोहे, बासठ श्रमणी हजार जी । छ हजार लाख दोय श्रावक, श्रावकणी इम धार जी ॥१२॥ चार लाख वलि चवद हजार, ए अंकुशा देवी होय जी । पाताल यक्ष श्री संघ के सांनिध, कारी नित प्रति जोय जी ॥१३॥ आठ सै मुनिवर ने परिवारे, शिखर समेत प्रधान जी । मास संलेखन कर गिरि ऊपर, पुहता पद निरवान जी ॥१४॥ strataatatatisticlesab e l Sahitthalestaxalatalakatalelallatijnt-kaalaatalakkimlstallattestelli t e Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास तथा सज्झाय-विभाग AAAAAAAAAAAAAAnnanon Androraran man ५. IIHHHHHHHHHlet.kl.dahllL1111red. n ternatantanskrinaukokminikmkaamkiwakaratmarthatantrawastimanamikalaantarawenestaneonekadaminina hifirinkalani.inlavlodanti.katarishmakuntalionlaints kolimath training ॥दोहा॥ ऐसे धर्म जिनेसरू, पहुंता पद निर्वाण । शिखर समेत गिरिन्द पर, नमो नमो जग भाण ॥ ॥ ढाल ॥ रत्नपुरी नगरी भणी जी, भानुराय सुजान । रानी सुव्रत मातने जी, धर्मनाथ गुण खान ॥१॥ जगतपति धर्म जिनेसर सार, धनुष पैंतालीस तनु कह्यो जी, वज्र लंछन सुखकार ॥२॥ चौतीस गणधर मुनि कह्या जी, चौसठ सहस प्रमान । श्रमणी बासठ सहस स्यूं जी, श्रावक दोय लक्ष मान ॥३॥ चार सहस बलि ऊपरां जी, चौ लख एक हजार । श्रावकणी संख्या कही जी, दश लक्ष आयु विचार ॥४॥ किन्नर सुर कन्दर्पा सुरीजी, एक सहस परिवार । सम्मेत शिखर सुगतें गया जी, बंदू बार हजार ॥५॥ हस्तिनापुर विश्वसेननाजी, अचिरा मात उदार । शान्ति जिनेसर जनमिया जी, त्रिभुवन जय जयकार ॥ ज० ६ ॥ मृग लांछन सोवन समो जी, देह धनुष चालीस ।' आयु वरष इक लाखनो जी, छत्तीस गणधर सीस ॥७॥ बासठ सहस मुनि छ सँ जी, इगसठ श्रमणी हजार । दोय लाख श्रावक कह्या जी, ऊपर नेऊ हजार ॥८॥ सहस त्रया' श्राविका जी, तीन लाख परिवार । गरुड़ यक्ष निरबाणी सुरीजी, श्रीसंघ सांनिधकार ॥९॥ नव सै मुनि परिवार स्यूं जी, आया शिखर समेत । मास खमण कर सुगति में जी, पहुंता निज पद हेत ॥१०॥ ऐसे हस्तिनापुर भलो जी, राजा सूर सुतात । कुन्थुनाथ जिन जनमियां जी, कंचन तनु श्री मात ॥ जगतपति कुन्य जिनेसर सार ॥११॥ छाग लंछन पैंतीसनो जी, धनुष देहनो मान । सहस पच्याणवे वरसनो जी, आयु प्रभुनो जान ॥१२॥ पैतीस गणधर दीपता जी, साठ सहस मुनि जान । छ सै साठ सहस वली जी, श्रमणी संख्या मान ॥१३॥ सहस गुणियासी लक्षनी जी, श्रावक संख्या होय । सहस इक्यासी तीन लाखनी जी, श्राविका संख्या जोय ॥१४॥ सात से साधु परवरया जी, देवी वला गन्धर्व । कुन्थुनाथ मुगते गया जी, मास संलेखना - सर्व ॥१५॥ int,talattenthlalilianitlentrator I TICIR - - - - I 80 Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Namokatruntabynistertolalilionishsatilaslmlesiolioolishleelonlineathtakinotubdastitioosaksedotakulataunalaksalksathidahliate k testantsekaskaladasesakcsolesGlaseelplicablevankoalisa bolmosbalani.laolmaalasahthalisa cobhaubantalilablettoobkthasakoshbokaratahkadashbbinaashoothpaswanatastrosath.. जैन-रत्नसार ॥दोहा॥ श्री अरनाथ जिनन्दनो, कहिस्यूं अब अधिकार । श्रोता सुणज्यो प्रेम धर, थास्ये लाभ अपार ॥१॥ ॥ ढाल ॥ हारे लाला श्री अरनाथ जिनेसरू, तिहां नगरी अयोध्या चन्द रे लाला । तात सुदर्शन मात जी, नन्दा देवी नन्द रे लाला ॥१॥ लंछन नन्द्या वर्त्तनो, तीस धनुष देहनो मान रे लाला। कंचन वरण सुहामणो, आयु सहस चौरासी प्रमान रे लाला ॥२॥ इक लाख श्रावक ऊपरे वलि, संख्या अधकी ध्यान रे लाला । सहस बहुत्तर तीन लक्ष, श्राविका संख्या ।। जांन रे लाला ॥३॥ देव देवी सांनिध करे, इक सहस मुनि परिवार रे लाला । मुक्ति गए इण गिरि प्रभु, कर मास संलेखण सार रे लाला ॥४॥ मिथिला नगर प्रभावती मात, पिता श्री कुम्भ राय रे लाला । लंछन कलश पचीसनो वपु, धनुष सोवन सम काय रेलाला ॥ श्री मल्लिनाथ जिनेसरू॥५॥ सहस पचावन वर्षनी, थिति गणधर अट्ठावीस रे लाला । भविक कमल प्रतिबोधता, जगनायक श्री जगदीस रे लाला ॥६॥ चालीस सहस मुनीसरू, श्रमणी पचावन सहस रे लाला । सहस बयासी लक्षनी, श्रावकनी संख्या सार रे लाला ॥७॥ श्राविका सत्तर सहसनी, लक्ष तीन संख्या सुविचार रे लाला । सहस मुनि परवार स्यूं , गये मुक्ति संलेखन धार रे लाला ॥८॥ राजगृही राजा पिता सुग्रीव, पद्मावती मात रे लाला। श्याम वरण तनु शोभतां, जे कच्छपलंछन विख्यात रे लाला, श्रीमुनि सुव्रत खामिजी॥९॥ धनुष वीस देही तणो,आयु वच्छर तीस हजार रेलाला। अष्टादश गणधर थया, तीस सहस मुनीसर सार रे लाला॥१०॥ श्रमणी सहस पचवीसनी, संख्या बहुत्तर हजार रे लाला। इक लक्ष ऊपरि श्राविका, तीन लक्ष पचास हजार रे लाला ॥१॥ वरुण यक्ष देवी भली, नरदत्ता सांनिधकार रे लाला । सहस मुनि परिवार से गए, मुक्ति महल सुख सार रे लाला ॥१२॥ विजय पिता विप्रा मात जी, सोवन सम श्री नमिनाथ रे लाला। नील कमल लंछन । Searमन्वयक बनवप्रवचन olhantetplarka luneririt.kankshkarakarlalitainedalisa.satotokulincitieskamkattackstatsaat.katrnatakTTENTRE romatstakathatantrastotkomtel l itills-tolasterst. .. Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jasvarnakaanakaas Kid रास तथा सज्झाय-विभाग ६३५ को वपु, धनुष पर आयु साथ रे लाला || श्री नमिनाथ जिनेसरू ॥१३॥ दस हजार, वरस तणो, गणधर सत्तर परिमाण रे लाला | वीस इकतालीस सहस क्रम, साधु साधवी संख्या जाण रे लाला ||१४|| इक लख सत्तर सहसनी, तीन लक्ष सहस वलि होय रे लाला । श्रावक संख्या श्राविका, अनुक्रम करि संख्या जोय रे लाला ||१५|| विचरंता भूमंडले, आया शिखर समेत मझार रे लाला | भृकुटी यक्ष गान्धारी सुरी, इक सहस मुनि परिवार रे लाला ॥१६॥ ॥ दोहा ॥ परमेसर श्री पासनी, महिमा जगत विख्यात । शिखर शिरोमणि सहस फण, जग जीवन जगतात ॥ ॥ ढाल ॥ जय जय परम पुरुष पुरुषोत्तम, पारस पारस नाथ जी । सांवरिया साहिब जग नायक, नाम अनेक विख्यात जी ॥१॥ जय जय शिखर समेत शिरोमणि, श्री सांवरिया पास जी । ध्यावे सेवे जे नर तेहनी, पूरे वंछित आस जी ||२|| काशी देश बनारसि नगरी, श्री अश्वसेन नरिन्द जी । वामा माता जग विख्याता, तेहना सुत सुखकन्द जी ||३|| पन्नग लंछन नील वरण छवि, देही शुभ नव हाथ जी । आयु एकसौ बरस प्रमाणे, गणधर दस प्रभु साथ जी ||४|| सोल सहस मुनिवर अरु, श्रमणी कहि अड़तीस हजार जी। भूमंडल विचरे भविजन कूं, बोध बीज दातार जी ||५|| चौसठ सहस लाख इक श्रावक, गुणचालीस हजार जी । तीन लाख श्रावणी संख्या, पार्श्व यक्ष सुर सार जी ॥६॥ वीस जिनेसर मुगते पहुंता, महिमा थइय अपार जी । तिण ए तीरथ प्रगट्यो जगत में, मुक्ति तणो दातार जी ॥७॥ छहरी पाले जे नर भावे, भेटे शिखर गिरिन्द जी । ते नर मन बंछित फल पावे, ए सुरतरुनो कन्द जी ॥८॥ बहुविध संघ ती करे भक्ति, संघ पति नाम धराय जी । सफल करे संपद निज पांमी, जेहनो सुयश सवाय जी ॥९॥ परभव सुरनर संपद पामे, यात्रा करे गह Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ जैन - रत्नसार I गार जी । साधर्मी वच्छल मुनि भक्ति, पूजा उच्छव थाट जी ॥१०॥ ट्रंक ट्रंक पर चरण प्रभूना, पूजो भविजन भावजी । ध्यान धरो जिनवरनो मनमें, आनन्द अधिक उच्छाव जी ॥ ११ ॥ रास रच्यो श्री शिखर गिरीनो, सुणतां नवनिध थाय जी । तिण ए भविजन भाव धरीने, सुणज्यो मन थिर लाय जी ॥१२॥ खरतरगच्छपति महिमा धारी, कीरत जग विख्यात जी । जय श्री जिन सौभाग्य सुरीश्वर, अमृत वचन सुगात जी ॥१३॥ तासु पसायें रास रच्यो ए, अमृत समुद्रने सीस जी । बालचन्द्र निज मति अनुसार, सोधो विबुध जगीस जी ॥ १४॥ संवत् उगणी सै सितहोत्तर सुदि वैशाख सुढाल जी । रास* अजीमगंज मांहे कीना, भणतां मंगल माल जी ॥१५॥ ॥ इति रास विभाग | सज्झाय इग्यारे अंग की सज्झाय । अंग इग्यारे में गुण्या सहेली ए, आज थया रङ्गरोल की । नन्दीसूत्र मांहि एहनो सहेली, भाख्यो सर्व निचोल की ||१|| सहेली ए आज वधामणा, पसरी अङ्ग इग्यारनी । मुझ मन मंडप वेल की, सींचू ते हरखे करि अनुभव रसनी रेल की ॥ स० २ ॥ हेज घरी जे सांभले सहेली, कुण बूढ़ा कुण बाल की । तो ते फल लहे फूटरा सहेली, स्वादें अतिहि रसाल की ॥ सा० ३ ॥ हरख अपार धरी हिये सहेली, अहमदाबाद मझार की । भास करी ए अङ्गनी सहेली, वरत्या जय जयकार की ॥ स० ४ ॥ संवत् संतर पचानवें सहेली, वरषाऋतु नभ मास की । दसमी दिन सुदि पक्ष मां सहेली, पूरण थई मन आस की || स० ५ ॥ श्री जिनधर्म सूरि पाटवी सहेली, श्री जिनचन्द्र सूरीश की खरतरगच्छना राजिया सहेली, तसु राजे सुजगीस की || स० ६ ॥ पाठक हरख निधानजी सहेली, ज्ञान तिलक स० ४७० में श्री धनेश्वर सूरिजी रचित शत्रुञ्जय माहात्म्य से १६८२ में समय सुन्दरजीने शत्रुञ्जय रास बनाया है । * सं० १९७७ मे अमृतसागरजी के शिष्य वालचन्दजी ने यह रास बनाया है । কম ল পরশ। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था रास तथा सज्झाय-विभाग । statist!N erimetert-tolasal-I-at-takatekatrintental.mal.siallantat...Santartntralramatalat-santhlataka tetailunkokakuta lentistskotatuth relamlarki.kutte सुपसाय की। विनयचन्द्र* क हे मैं करी सहेली, अंग इग्यार सज्झाय की ॥ स० ७ ॥ आचारांग सज्झाय ___ पहिलो अंग सुहामणो रे, अनुपम आचारांग रे ॥ सुगुण नर ॥ वीर जिनन्दे भाखियो रे लाल, उववाई जास उवंग रे ॥ सु. १ ॥ वलिहारी ए । अङ्गनी रे, हूं जाऊं बारम्बार रे । विनवे गोचरी आदर रे लाल, जिहां साधु । तणो आचार रे ॥ सु० २॥ सुय खंध दोय छै जेहनारे, प्रवर अध्ययन पचवीस रे । उद्देशादिक जाणिये रे लाल, पिच्चासी सुजगीस रे ॥ सु० ३ ॥ हेतु जुगत कर सोभता रे, पद अढार हज्जार । अक्षर पदने छेहडे रे लाल, संख्याता श्रीकार रे ॥ सु० ४ ॥ आगम अनन्ता जेहमां रे, बलि अनन्त पर्याय रे । त्रस परित्तो छ इहां रे लाल, थावर अनन्त कहाय रे ॥सु० ५॥ निवद्ध निकाचित सासता रे, जिन प्रणित ए भाव रे। सुणतां आतम उल्लसे रे लाल, प्रगटे सहज स्वभाव रे ॥ सु० ६॥ सुगुण श्रावकवारू श्राविका रे, अंगे धरिय उल्लास रे। विधिपूर्वक तुमें सांभलो रे लाल, गीतारथ गुरु पास रे ॥ सु० ७॥ ए सिद्धान्त महिमा निलो रे, . उतारे भव पार रे । विनयचन्द्र कहे माहरे रे लाल, एहिज अंग आधार । रे॥ सु० ८ ॥ सुयगडांग सूत्र सज्झाय वीजो अङ्ग तुमे सांभलो, मनोहर श्रीसुयगडांग। मोरा साजन त्रिण सै सठ पांखडी तणो, मत खंड्यो धर रंग ॥मोरा साजन ॥ मीठी रे लागी वाणी जिन तणी, जागी जेहथी रे सुज्ञान । ए वाणी मन भाणी माह रे, मानूं सुधा रे समान ॥ मो० २॥ राय पसेणी उपांग छे, जेहनो ए सूत्र ३ गम्भीर । बहु श्रुत अरथ जाणे सहू, क्षीर नीर धनु तीर || मो० ३॥ ३ एहना रे सुयखंद दोय छे, वलि अध्ययन तेवीस । उहेसा समुइसा जिहां ३ भला संख्याये रे तेत्रीस ॥ मो० ४ ॥ नय निक्षेप प्रमाण भरया, पढ़ छत्तीस - ये ग्यारह अंगोंकी सज्झाय सं० २७१५ मे श्री विनयचन्दजी ने बनाई है। etntatalaria tot.talathtottotohotohtashokatiht-is-shti.laIntanatantatale LI K E. ---s --- . . ......... Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. 61913.101001nabrabbbbbbabitab.bsighb6hboobabibhoitatkaare ma vvvvvvvvvvvvvvvvv vvvvvvvv wwwwwwwwwwwww h illantatitishkalabhairatabుండడుడుడు. అందుకు *thbhokhbskitayatibb a bgb5f6x6kbt.gob.instasbukt । ६३८ जैन-रत्नसार ॐ हजार । संख्याता अक्षर पद मांहे, कुन लहे तेहनो रे पार ॥ मो० ५ ॥ | अगम अनंता परियाय वली, भेद अनंत जिन मांही । गुणअनन्त त्रस परित्त कह्या, थावर अनंत ले याही ॥ मो० ६ ॥ निबद्ध निकाचित्त जे सासय कडा, जिन पनत्ता रे भाव । भासी रे सुन्दर एह प्ररूपणा, चरण करणनो रे जाव ॥ मो० ७ ॥ करिये भक्त जगत ए सूत्रनी, निश्चय लहिये रे मुक्ति। विनयचन्द्र कहे प्रगट, ए थी आत्म गुणनी रे शक्ति ॥ मो० ८ ॥ ठाणांग सूत्र सज्झाय त्रीजो अङ्ग भलो कह्यो रे जिनजी, नामें श्री ठाणांग । मेरो मन मगन थयो हारे देखि देखि भाव, हारे जीवाजीव स्वभाव ॥ मेरो मन मगन थयो, सबल जगत करि छाजता रे। जिनजी जीवाभिगम उपांग, मेरो मन मगन थयो ॥१॥ एह अङ्ग मुझ मन वस्यो रे जिनजी, जिम कोकिल दल अंब । गुहिर भाव कर जागतो रे जिनजी, आज तो एह आलंब ॥ मो० २ ॥ कूट शैल शिखर शिला रे जिनजी, कानन में बलि कुंड । गह्वर आगर द्रह नदी रे जिनजी, जेह में अछे रे उदंड ॥ मो० ३ ॥ दश ठाणा अति दीपता रे जिनजी, गुण पर्याय प्रयोग । परित्त जेहनी बांचना रे जिनजी, संख्याता अनुयोग ॥ मो० ४ ॥ वेष्ट शिलोक निजुत्त सं रे जिनजी, संगहणी पडि मित्त । ए सहु संख्याता जिहां रे जिनजी, सुणतां उलसे चित्त ॥ मो० ५ ॥ सुयखंध इक राजतो रे जिनजी, दश अध्ययन उदार । उद्देशादिक वीस छ रे जिनजी, पद बहुत्तर हजार ॥ मो० ६ ॥ रागी जिन शासन तणो रे जिनजी, सुणे सिद्धान्त वखान । विनयचन्द्र कहे ते हुवे रे जिनजी, परमारथरा जान ॥ मो० ७ ॥ समवायांग सूत्र सज्झाय चौथो समवायांग सुणो श्रोता गुणी हो लाल, पन्नवणा उपांग करी सोभावणी हो लाल । अरध मागधी भाषा साखा सुरतणी हो लाल, समकित भाव कुसुम परिमलव्यापी धणी हो लाल ॥ परि० १॥ जीव अजीव ने जीवाजीव समासथी हो लाल, लहिये एहथी भाव विरोध काइनथी हो m h itkaattikkattachethilothasahithstandard kolecystitishBasteukakkoot-to-htak-leekeki-kaluetoketril writicist Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ starts tots tots tots to रास तथा सज्झाय-विभाग nr ^^^^ ६३६ लाल । भांगा तीन से समयादिकना जाणिये हो लाल, लोक अलोकने लोकालोक वखाणिये हो लाल || लोका० २ || एक थकी छे सत समवाय प्ररूपणा हो लाल, कोडाकोडि प्रमाणक जीव निरूपण हो लाल । वारस विहगणी पिटकतणी संख्या कही हो लाल, सासता अरथ अनन्त की छे एहना सही हो लाल || ए० ३ || सुयखंध अध्ययन उद्देसादिके भला हो लाल, संख्यायें एक एक प्रत्येके गुण निला हो लाल । पद एक लाख चौमाल, सहस तेउत्तरा हो लाल || स० ४ ॥ भाष्य चूर्णि नियुक्ती, कर सोहे सदा हो लाल, सुणतां भेद गम्भीर विपत न होय कदा हो लाल । जेह नमावे अंगकी अन्तरगत हसी हो लाल, जल वरसते हुवे खुसी हो लाल || कुण० ५ ॥ जाग्यो धरम सनेह जिनंद लाल, तजिया शास्त्र मिथ्यात सूत्र जाण्यो खोटो हो लाल । जिम मालती लहे भृङ्ग करीनेन विरहे हो लाल, ईश्वर शिर सुरगंग तभी परि नवि वहे हो लाल || तभी ० ६ ॥ ए प्रवचन निग्रन्थ तणी जुगते बडी हो लाल, सोकर सेलडी द्वाख, थकी पिण मीठडी हो लाल । स्यूं कहिये बहु बात विनय चन्द्र इम कहे हो लाल, एहना सुनने भाव श्रोता अति गहगहे हो लाल || श्रोता० ॥ हिमवन्त परवत सेती निकल्या रे, सूरपन्नत्ती नामे परगरी रे, जेहनी छै जोर, कुण न माहरो हो भगवती सूत्र सज्झाय पंचम अंग भगवती जानिये रे, जिहां जिन वरना वचन अथाह रे । मानूं पर तिख गंग प्रवाह रे ॥१॥ उद्दाम उवांग रे । सूत्रतणी रचना दरिया जिसी रे, महिला अरथ ते सजल तरंग रे ||२|| इहां तो सुयसंध एक अति भो रे, एकसो ए अध्ययन उदार रे । दश हजार उसा जेहना रे, जिहां कीन प्रश्न छत्तीस हजार रे ||३|| पद तो दोय लाख अरथे भरया ऊपर सहस अठ्यासी जान रे । लोकालोक स्वरूपनी वर्णनारे, विवाह पन्नत्ती अधिक प्रमान रे ||१|| करिये पूजा अने पर भावना रे, धरिये सद्गुरु ऊपर राग रे, सुनिये भगवती सूत्र रागसूं रे, तो होय भवसागर नो Annadata trends, coldeded rat tebh Intedind staminal tent off soleste Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार ६४० सम्यज्ञान उदय होय जेम युगति मन आणो प्रेम रे त्याग रे ||५|| गौतम नामे द्रव्य चढ़ाइये रे, रे । कीजे साधु तथा साहमी तणी रे, भगति ॥६॥ इण विधसूं ए सूत्र आराधतां रे, इण भव सीझे चंछित काज रे । परभव विनय चन्द कहे ते लहे रे, मोहन मुगति पूरीनो राज रे ॥७॥ ज्ञाता सूत्र सम्झाय छठी अंग ते ज्ञाता सूत्र बखाणियेजी, जेहना छे अरथ अनेक उद्दण्ड हो | म्हारा सुणज्यो धरि नेह सिद्धान्तनी वातडीजी ॥ श्रवणे सुणतां गाढो रस ऊपजेजी, मधुरता तर्जित जिम मधुखण्ड हो ॥ १ ॥ जंबूद्दीव पन्नची उपांग छे जेहनोजी, इण मांहे जिन पूजानी विधि जोर हो || म्हा० ॥ अर्चित सुण परम शान्ति रस अनुभवेजौ चर्चित सुणि करे सम सोर हो ||२|| नगर उद्यान चैत्य वनखंड सोहामणोजी, समवसर राजानो मात ने तात हो || म्हा• ॥ धरमाचारज धर्म कथा तिहां दाखतीजी, इहलोक परलोक शुद्धि विशेष सुहात हो || ३ || भोग परित्याग प्रव्रज्या पर्यवाजी, सूत्र परिग्रहवारू तप उपधान हो || म्हा० ॥ संलेहण पच्चक्खाण पादोप गमनता जी, स्वर्ग गमन शुभ कुल उतपत्ती हो ||४|| बोधिलाभ वलि तंत अनन्तक्रिया कहीजी, धर्म कथाना दोय छे खंध हो || म्हा० || पहिलाना उगणीस अध्ययन ते आज छे जी, बीजाना दस वर्ग महा अनुबन्ध हो ||५|| ऊंठकोड़ि तिहां सबल कथानक भाषियाजी, भाष्या वलि उगणीस उद्देस हो || म्हा० ॥ संख्याता हजार भला पद एहनाजी, एह थकी जाये कुमति कलेश हो ॥६॥ विनय करे जे गुरुनो बहु परेजी, तेहने श्रुत सुणतां बहु फल होय हो || म्हा• ॥ ते रसिया मन बसिया विनयचन्दनेजी, सो मांहे मिले जोया एकके दोय हो ||७|| उपासकदशा सूत्र सज्झाय हिवे सातमो अङ्ग ते सांभलो, उपासगदशा नामे चंग रे । श्रमणो पासकनी वर्णना, जसु चन्दपन्नत्ती उपांग रे ॥१॥ मन लागो मोरो सूत्रथी, ए तो भव वैराग तरंग रे । रस राता ज्ञाता गुण लहें, परमारथ सुविहित Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास तथा सज्झाय - विभाग ६४१ संग रे ॥२॥ इण अंगे सुयखंध एक छे, अध्ययन उद्देस विचार रे । दस दस संख्यायें दाखव्या, पद पिण संख्यात हजार रे ||३|| आनन्दादिक श्रावक तणो, गुणतां अधिक रसाल रे । रस लागे जागे मोहनी, श्रोताजनने ततकाल र ॥४॥ श्रोता आगल तो वांचतां गीतारथ पामे रीझ रे' । जे अर्द्धदग्ध समझे नहीं, तेसूं तो करवी धीज रे ॥५॥ दस श्रावक तो इहां भाखिया, पिण सूत्र भण्यो नहिं कोय रे । ते माटे शुद्ध श्रावक भणी, एक अरथनी धारणा होय र े ॥६॥ साचो हो ते प्ररूपिये, निस्संक पणें सुजगीस र े । कवि विनयचन्द्र कहस्यूँ थयो, जो कुमती करस्ये रीस रे ॥७॥ अंतगढ़दशा सज्झाय आठमो अङ्ग अंतगढ़दशा जी, सुनि करो कान पवित्र । अंतगढ़ के बली जे थया जी, तेहना इहां चरित्र ॥१॥ कर्म कठिन दल चूरतां जी, पूरता जग तणी आस । जिनवर देव इहां भासता जी, सासता अर्थ सुविलास ||२|| सकल निक्षेप नय भंगथी जी, अंगना भाव अभंग । सहिज सुख रंगनी कल्पिका जी, कल्पिका जास उवंग ||३|| एक सुयखंध इण अंगनो जी, वर्ग छे आठ अभिराम । आठ उद्देसा छे वली जी, संख्याता सहस पद ठाम ||४|| आठमा अंगना पाठमें जी, एहवो अछेरे मिठास । सरस अनुभव रस ऊपजे जी, संपजे पुण्यनी रास ॥५॥ विषय लंपट नर जे हुवे जी, निरविषयी सुण्यां थाय । जिम महाविष विषधर तणो जी, नाग मंत्रे सुण्या जाय ||६|| अमृत वचन मुख वरसती जी, सरस्वती करो रे पसाय । जिम विनयचंद इण सूत्रना जी, तुरत लहे अभिप्राय ||७|| अणुत्तरोववाई सज्झाय नवमो अङ्ग अणुत्तरोववाई, एहनी रुच मुझने आई हो । श्रावक सूत्र सुणो सूत्र सुणो हित आणी, ए तो वीतरागनी वाणी हो ॥ श्र० १ ॥ जसु कल्पावतंसिका नामे, सोहे उपांग प्रकामे हो । एतो आगमने अनुकूला, 81 Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ जैन - रत्नसार मांनू मेंरु शिखरनी चूला हो ॥ श्र० २ ॥ ए तो सूत्रणो नाम सुणीजे, तिम तिम अन्तरगति भीजे हो । प्रगटे नवल सनेहा एहथी, उलसे मोरी देहा हो ॥ श्र० ३|| अणुत्तर सुरपद पाया, तेना गुण इणमें गाया हो । नगरादिक भाव वखाण्या, ते तो छट्ठे अङ्गे आया हो ॥ श्रा ० ४ ॥ इहां एक सुयखंध वारू, त्रिण वर्ग वली मनोहारू हो । उद्देसा त्रिण सनूरा, संख्यात सहस पद पूरा हो ॥ श्र० ५ ॥ सूत्र सुणावां अमे तेहनें, साची श्रद्धा हुय जेहने हो । श्रोताथी प्रीत बढ़ाऊं, निन्दकने मुंह न लगाऊं हो ॥ श्रा० ६ || जे सुणतां करे कोरे, ते तो माणस नहिं पिण ढोरे हो । कवि विनयचन्द्र कहे साचो, श्रुत रंगे. सहु को राचो हो ॥ श्र० ७ ॥ प्रश्नव्याकरण सज्झाय दशमो अंग सुरंग 'सुहावे, प्रश्नव्याकरण नामे । सूत्र कल्पतरु सेवे ते तो, चिदानन्द फल पामे ॥ आवो आवो गुणना जाण, तुमने सूत्र सुनाऊं ॥१॥ पुप्फ कली ज्यूं परिमल महके, गुरु परागने रागे । तिम उपांग पुष्पिका एहनो, जोर जुगति करि जागे ॥ आवो ० २ ॥ अंगुष्टादिक जिहां प्रकास्या, प्रश्नादिक अति रूडा । ते छे अष्टोत्तर सत ए तो, सूत्र मध्य मणि चूडा || आवो० ३ ॥ आश्रव द्वार पांच इहां आण्या, पांचे संबर द्वारा । महामंत्र वाणीमां लहिये, लबधि भेद सुखकारा ॥ आवो ० ४ ॥ सुयखंध एक छेदसमें अंगे, पणयालीस अज्झयणा । पणयालीस उद्देस वली पद, सहस संख्यातनी रयणा || आवो० ५ ॥ जे नर सूत्र सुणे नहिं काने, केवल पोखे काया । माया मांहि रहे लपटाणा, ते नर इम हिज आया || आवो० ६ ॥ सूत्र मांहि तो मार्ग दोय छे, निश्चय नय व्यवहारा | विनय चन्द्र कहे ते आदरिये, जन मन मदन विकारा ॥ आवो० ७ ॥ विपाक सूत्र सज्झाय सुनो रे विपाक सूत्र अंग इग्यारमो, तजो विकथा वृथा जे अनेरी । ललित उपांग जसु प्रवर पुष्फ चूलिका, मूलिका पाप आतंक केरी ॥१॥ अशुभ विपाक सम दुष्कृत फल भोगवी, नरक में गरक थया जेह प्राणी । Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఓటthatsaratheeshటుదురుకుగడుగునవుడుగుడుగుడుదండన పడండbittistarring रास तथा सज्झाय-विभाग सुकृत फल भोगवी स्वर्गमा जे गया, तास वक्तव्यता इहां आणी ॥२॥ * दोय श्रुतखंधने वीस अध्ययन वलि, वीस उद्देस इहां जिन प्रयुंजे । सहस संख्यात पद कुन्द मचकुन्द जिम, बहुल परिमल भ्रमर चित्त गुंजे ॥३॥ सरस चम्पकलता सुरभि सहुने रुचे, अन्य उपगारनी बुद्धि मोटे। सूत्र उपगार तेहथी सबल जाणिये, जेहथी पुरुष सुख अचल खोटे ॥४॥ बंधने मोक्षना बेउ कारण अछे, दुकृतने सुकृत जीवो विचारी। दुकृतने परिहरी सुकृतने आदरी, जिन वचन धारिये गुण संभारी ॥५॥ मकर रे मकर निंद्या निगुण पारकी, नारकी तणे गति कांइ बांधे । नारकी प्रकृत तज सहज संतोष भज, लाग श्रुत सांभली धरम धंधे ॥६॥ सुखने दुःख विपाक फल दाखव्या, अंग इग्यारमें वीतरागे। चिरजयो वीर शासन जिहां सूत्रथी, कवि विनयचन्द्र गुण ज्योति जागे ॥७॥ . प्रतिक्रमण सज्झाय कर पडिक्कमणो भावसं, दोय घड़ी शुभ ध्यान लाल रे । परभव जातां जीवनें, संबल सांचं जान लाल रे ॥ कर० १ ॥ श्रीमुख वीर समुच्चरे, श्रेणिकराय प्रतिबोध लाल रे । लाख खण्डी सोना तणी, दिये दिनप्रति दान लाल रे ॥ कर० २ ॥ लाख वरस लग ते वली, एम दीये द्रव्य 1. अपार लाल रे । इक सामायिकनी तुला, नावे तेह लगार लाल रे ॥ 1. कर० ३ ॥ सामायिक चउविसत्थो, भलं वन्दन दोय दोय बार लाल रं ।। व्रत संभारो रे आपणा, ते भव कर्म निवार लाल रे ॥ कर. ४ ॥ कर काउसग्ग शुभ ध्यान थी, पञ्चक्खाण सूधं विचार लाल रे। दोय सझायें ते वली टाली, टालो सर्व अतीचार लाल रेकर० ५॥ सामायिक परसादथी, लहिये अमर विमान लाल रे । धरमसिंह मुनिवर कहे, मुगति तणूं ए निदान लाल रे ॥ कर० ६ ॥ कर्म सज्झाय देव दानव तीर्थकर गणधर, हरि हर नरवर सघला । करम तणे वस सुख दुख पाया, सवल हुआ जब निवला परेप्राणी कर्म समो नहिं कोई॥१॥ i ntaininatantaniantertainirlashrinkrtainlakrinlaletelaintantanki-strinakefamataoiratrinkioksattakikatataikikaktatalatakarhathistatistkhatrnatakartesaririkskitani-kest-learoltatise infatuatottai.riabaibhiraikhokathokrothohintahstakhstainsila natokobibiafarinlaintainhdkothkhbirlhiringin.la talathi-kathat that-tria toiletrintainstrellist.. air Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - रत्नसार ६४४ आदीसरजी ने करम अटारचा, वरस दिवस रह्या भूखा । वीर ने बारे बरस दुख दीधा, ऊपना ब्राह्मणी कूखा || रे० २ || साठ सहस सुत मारया एकण दिन, जोध जवान नर जैसा । सगर हुओ महा पुत्रनो दुखियो, कर्मतणा फल ऐसा || र० ३ ॥ बत्रीस सहस देसांरो साहिब, चक्री सनत कुमार । सोले रोग शरीर में ऊपना, कमें कियो तनु छार ॥ २०४ ॥ कर्म्म हवाल किया हरिश्चन्दके, बेची सुतारा रांणी । बारे वरस लग माथे आण्यो, नीच तणे घर पाणी ॥ २०५ ॥ दधि वाहन राजारी बेटी, चावी चन्दन बाला । चौपद ज्यूं चहुटा में बेची, करम तणाए चाला ॥ २० ६ ॥ सुभूम नांमे आठमो चक्री, कम्में सायर नाख्यो । सोले सहस यक्ष ऊभा देखे, पण किणही नहिं राख्यो ॥ ०७ ॥ ब्रह्मदत्त नामे बारमो चक्री, कम्में कीधो आधो । इम जाणीने अहो भवि प्राणी, कर्म्म कोइ मत बांधो || र० ८ || छपन्न कोड जादवरो साहिब, कृष्ण महाबल जांणी । अटवी मांहि मूंओ एक लो, बिल बिल करतो पाणी ॥ २०९ ॥ पांडव पांच महा झूझारा, हारी द्रौपदी नारी बारे बरस लग वन रडवडिया, भमिया जेम भिखारी ॥ र० १० ॥ बीस भुजा दस मस्तक हुंता, लखमण रावण मारयो । एक लड़े जग सहु नर जीत्या, ते पिण कर्म्म संहार यो || र० • ११ ॥ लखमण राम महा बलवंता, अरु सतवंती सीता । कर्म्म प्रमाणे सुख दुख पांम्या, वीतक बहु तस वीता ॥ २० १२ ॥ समकितधारी श्रेणिक राजा, बेटे बांध्यो मुसके । धरमी नर ने कर्म धकाया, करमं जोरन किसके ॥ २० १३ ॥ सतिय शिरोमणि द्रौपदि कहिये, जिन सम अवर न कोई | पांच पुरुषनी हुई ते नारी, पूरब कर्म्म विगोई ॥ ० १४ ॥ आभा नगरीनो जे स्वामी, साचो राजा चन्द | मांयें कीधो पंखी कूकडो, कर्मे नाख्यो फन्द ॥ रे० १५ ॥ ईसर देव पारवति नारी, करता पुरुष कहावे । अहनिस महिल मसांण में वासो, भिक्षा भोजन खावे ॥ २० १६ ॥ सहस किरण सूरज परतापी, रात दिवस रहें अटतो। सोल कला ससिधर जग चावो, दिन दिन जाये घटतो ॥ २० १७ ॥ इम 1 अनेक खंड्या नर 부두두두두 Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRINrrrrrrr नननननननननननननवप्रवचनत्रनयन्त्रनयनानधनत्रय रास तथा सज्माय-विभाग * करमें, भाज्या ते पिण साजा । ऋषी हरष करजोड़ि ने विनवे, नमो नमो कर्म महाराजा ॥ २० १८ ॥ इला पुत्र की सज्झाय नाम इला पुत्र जानिये, धनदत्त सेठनो पूत । नटवी देखी रे मोहियो जे राखे घर सूत ॥१॥ करम न छूटे रे प्राणिया, पूरब नेह विकार । निज कुल छंडी रे नर थयो, नाणी सरम लिगार ॥२॥ इक पुर आयो रे नाचवा, ऊंचो वंस विवेक । तिहां राय जोवा रे आवियो, मिलिया लोक अनेक ॥३॥ दोय पग पहरी रे पावड़ी, बंस चल्यो गजगेल । निरधारा ऊपर नाचतो खेले नवनवा खेल || ढोल बजावे रे नाटकी, गावे किन्नर साद । पायतल घूघर घन घने, गाजे अम्बर नाद ॥५॥ तिहां राय चितेरे । राजियो, लुबधो नटवी रे साथ । जो पड़े नटवो रे नाचतो, तो नटवी मुझ हाथ ॥६॥ दान न आपे रे भूपती, नट जाणे नृप बात । हूं धन वंछू रे रायनो, राय वंछे मुझ घात ॥७॥ तिहांथी मुनिवर पेखियो, धन धन * साधु निराग। धिग् धिग् विषया रे जीवड़ा, मन आण्यो वैराग ॥८॥ संबर भावे रे केवली, ततखिण कर्म खपाय । केवलि महिमा रे सुर करे समय सुन्दर गुण गाय ॥९॥ मेघकुमार मुनि सज्झाय ___वीर जिनन्द समोसर-योजी, वन्दे मेघकुमार सुण देशन वैरागियोजी। ए संसार असार रे मायड़ी, अनुमति द्यो मुझ आज । संयम विषम अपार रे मा०॥१॥ वछ तू केणे भोलव्यो रे, श्रेणिक तात नरेश कांइ ऊणो किण, ३ दुहव्यो रे । हूं नवि यूं आदेश रे जाया, संयम विष किम निरबाहसी भार रे जाया हूं. ॥२॥ आदि निगोदेहूं रुल्योजी, सहिया दुक्ख अनंत । सासोश्वासे भव पूरियाजी, तेह न जाणू अन्त हे मा०॥३॥ हिवगा तू बालक अछे जी, जोवन भर यो रे कुमार । आठ रमणि परणाविया रे भोगवि सुक्ख अपार रे जाया ॥en जनम मरण निरयातणाजी, दुक्ख न सह्या जाय । वीर जिणंद बखाणियोजी, ते मैं सुनियो कान हे मायड़ी ॥५॥ . Tanha bistan nahYant Garib steth to tahashakh pilash kohabbttatulathkiladakiokahantheti-infantaintiktationerive total - TTMMITTE Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv hthali-la-Abb.larkatreliyabhalatahkali-bhaloonlishaahala.land | .larhki.katulabotalabhat . जैन-रत्नसार वछ कांछलीयेजी जीमणोजी, अरस विरस आहार । भुंइ पाला नित हीडणोजी, जाणसि तुझ कुमार रे जाया ॥६॥ भमतां जीव अनंत भम्योजी, धरम दुहेलो होय । जरा व्यापे जीवन खिसेजी, तब किम करणो । होय रे मायड़ी ॥७॥ मृगनयणी आठे रमेजी, ताड़े नवसर हार । जीवन भर छोडूं नहींजी, काइ मूको निरधार कुमारजी ॥८॥ हंस तूलिका सेजड़ीजी, रूप रमणि रस भोग अतिहि सुंहाली देहड़ीजी । किम हुए संयम जोग रे जाया ॥९॥ स्वारथनो सहू ए सगोजी, अरथ पखे सहु । कोय । विषय विषम सहुरा कह्याजी, किम भोगविये सोय रे मायड़ी ॥१०॥ खमि खमि माउ पसाय करीजी, मै दीवू तुझ दुक्ख । दियो आदेस जिमहूं सुखीजी, वीर चरणें ल्यूं दिक्ख है ॥११॥ तन फाटे लोयण झरेजी, दुक्ख न सहया जाइ । वच्छ सुखी हुवो तिम करोजी, मैं दीघो आदेश रे जाया ॥१२॥ मणि माणक मोती तज्याजी, तोड्यो नव सर हार । मृगनयणी आठे रडेजी, हिव अम्ह कवण आधार नरेसर ॥१३॥ कुमर भणे सुकुली थियाजी, बहु दुख ए संसार । नेह तुमारो जानियोजी, जोल्यो संयम भार रे नारी ॥१४॥ इम सिविका तब सझी करीजी, कुंवर धारणी माइ । श्रेणिकराय उच्छव कर जी, चारित्रल्यो रिषिराय रे जाया ॥१५॥ इम जाणी | वैरागियोजी, वरजे जे नर नारि । करजोड़ी पूनो भणेजी, ते तरस्ये संसार हे माय ॥१६॥ प्रसन्नचन्द राजा की सज्झाय राज छंडी रलियामणो रे, जानी अथिर संसार । वैरागे मन वालियो काइ लीधो संजम भार । प्रसन्नचन्द प्रणमं तुम्हारा पाय,तुम्हे मोटा मुनिराय ॥१॥ वन माहे काउसग्ग रह्यो रे, पग ऊपर पग ठाय । बांह बेउं ऊंची करी, सूरज सांमी दृष्टी लगाय ॥२॥ श्रेणिक वन्दन नीसस्यो रे, वीरजीने वन्दन जाय । देई तीन प्रदक्षिणा, त्रिविध त्रिविध खमाय ॥३॥ दुरमुख दुत वचन सुनी रे, कोप चढ्यो ततकाल । मनसू संग्राम मांडियो जीव पड्यो जंजाल ॥४॥ श्रेणिक प्रश्न पूछियो रे, एहकि सी गति पाय | लगन्जबलप्रचलनवलनवलप्रवचन ostosterolak.bsti.lion.linkrkulelalarkokesthelala.firfansaniner-nirlaroinelinetrintinkirlhd ingls intotke Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ అtatiotiడండగా వందనం వండడమనదhtathakanthaantiksha रास तथा सज्झाय-विभाग ६४७ ६४७ .... ............ PiskalubashioJukshaktikhakakikabh प्रधानन्त्रमा प्रयाप्रमन्त्र पत्रनयनत्रनयन्त्रमनयन्त्रण ग्रननननननननननननन प्रमप्राप्रप्रमग्रचन्नप्रवचननननन वनमत्रचन्चनपचननगमगधचत्र * भगवन्त कहे हिवणां मरे तो, सातमी नरके जाय॥५॥खिणइकअन्ते पूछियो रे, सरवारथ सिद्ध विमान । वाजी देवनी दुंदुभी मुनि पाम्या केवल ज्ञान ॥६॥ प्रसन्नचन्द मुनि मुगते गया रे, श्री महावीरना शिष्य । रिद्धि हरष कहे धन्य ते, जिण दीठा रे परतक्ष ॥७॥ ढंढण ऋषि सज्झाय ढंढण ऋषिजी ने वन्दना हूं वारी लाल उत्कृष्टो अणगार र हूं लाल । अभिग्रह लीधो एहवो, लेस्यूं शुद्ध आहार रे ॥हूं. १॥ नितप्रति ऊठे गोचरी, न मिले शुद्ध आहार रे । मूल न ले अणसूझतो, पञ्जर कीधो गात रे॥ हूं. २ ॥ हरि पूछे श्री नेमसे, मुनिवर सहस अढार रे । उत्कृष्टो कुण एहमें, ढंढण अधिको दाखियो । हूं. ३ ॥ श्री मुख नेम जिनंद रे, कृष्ण ऊमाह्यो वांदवा । धन यादव कुल चन्द रे ॥ हूं. ४॥ गलियारे मुनिवर मिल्या, बांधा कृष्ण नरेस रे । किणही मिथ्यात्वी देखने, आण्यो भाव। विसेस रे ॥ हूं. ५ ॥ मुझ घर आवो साध जी, ल्यो मोदक छे शुद्ध रे । मुनिवर विहरीने पांगुरया, आया प्रभुजीने पास रे ॥ हूं. ६ ॥ मुझ लबधे मोदक मिल्या, कहोने तुम्हें किरपाल रे । लबध नहीं बच्छ ताहरी, श्रीपति लबधि निधान रे ॥ हूं. ७ ॥ ए लेवा जुगतो नहीं, चाल्या परठन काज रे । ईंट निवाहे जायने, चूरे कर्म कुं आज रे ॥ हूं. ८ ॥ आणी चढ़ती भावना, पांम्यो केवल नांण रे । ढंढण ऋषि मुगते गया, कहे जिन हर्ष सुजाण रे ॥ हूँ. ९ ॥ श्रावक करणी सज्झाय श्रावक उठ तूं बड़ी परभात, चार घड़ी रहे पिछली रात | मन में समरो श्री नवकार, जिससे होय भवसागर पार ॥१॥ कौन देव कौन गुरु धर्म, कौन हमारा है कुल कर्म। कौन हमारो हैं व्यवसाय, ऐसा चिंतन कर मन माय ॥२॥ सामायिक को लेना है शुद्ध, धर्म तणी मन राखो । 1 युद्ध । प्रतिक्रमण राई कीजिये, निज प्रायश्चित्त आलोइये ॥३॥ काया । । शक्ति करो पचखाण, सूधी पालो जिनवर आण। पढ़िये गुनिये स्तवन । a bhaikokhalokhotiladkilakakiskedlackedbalekhkartikoladakekakhela Jeksktoladhkka kalelekhkokharalakata Hakkakakakot.kokala kaka kaka kakolhto1, ko kahheko in lalor-d. Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ b x x bkt b b b c t t bxx x t ६४८ जैन - रत्नसार V2447 VIJU vit 22 wwwwww.vu सज्झाय, जिससे भव निस्तारा पाय || ४ || चौदह नियम चितवन करो, दया पाली जीवन सुख भरो । मन्दिर जा जुहारो देव, द्रव्य भाव से करना सेव ॥ ५ ॥ पूजा करते लाभ अपार, प्रभु बड़े मोक्ष दातार । जो उत्थापे जिनवर देव, ताहि न शब्द कान में लेव ||६|| उपाश्रये गुरु वन्दो जाय, 'सुनो बखान सदा चित लाय । निर्दृषण कर शुद्ध अहार, साधुन को दीजे सुविचार ||७|| स्वामीवत्सल कीजे घना, हेत बड़ा है स्वामी नता । दुखिया हीन दीन को देख, करिये उनपर दया विशेष ||८|| शक्ति देख निज देना दान, बड़न सो नहीं कीजे मान । लेहु प्रतिज्ञा गुरु के पास, धर्म अवज्ञा करहु न वास ||९|| और करो तुम शुद्ध व्यापार, कमती ज्यादे का परिहार - | मत भरना तुम झूठी साख, झूठे जन से बात न भाख ॥१०॥ अनन्तकाय कहे बत्तीस, अभक्ष बाईस विश्वा वीस । ये भक्षण मत करना तीम, कच्चे खट्टे फल मत जीम ॥११॥ रात्रि भोजन का बहु दोष, समझ गख दिल में संतोष । सज्जी साबुन लोह और गुली, मधु गूंद मत बेचो बली ॥१२॥ और रंगाई कर्म न करो, दूषण उनमें अति सांभरो । पानी छानो दो दो बार, अनछाने में दोष अपार ||१३|| यत्न करो जीवाणी तणा, यत् पुण्य बंधे अति घना । छाणा इन्धन भट्ठी जोय, वावरिये जिम पाप न होय ॥ १४ ॥ घृत सम वापरना तुम नीर, अनछाने में मत धो चीर । बारह व्रत तुमे सुध पालो, अतिचार उनके सभी टालो ॥१५॥ कहे पंद्रह मिथ्या कर्मा दान, पाप तणी परिहरिये आन । माथे मत ले अनरथ दंड, मेल मत भरजो पिंड ||१६|| समकित दिल में राखो शुद्ध, बोल विचारी भाखिये बुद्ध | पंच तिथि मत कर आरंभ, पालो शील तजो मन दंभ ॥१७॥ तेल तक घृत पय अरु दही, उघाड़ा मत राखो सही । श्रेष्ठ कार्य में खरचो वित्त, पर उपकार करो शुभ चित्त ॥ १८ ॥ दिन प्रतिदिन करो चौविहार, चारों आहार तथा परिहार दिवस के आलोओ पाप, जिससे भागे सब संताप ||१९|| संध्यांयें आवश्यक सांचवे जिनवर चरण सरण भवभवें । चारों सरना कर दृढ़ हो, सागारी अणसण ले सो ||२०|| GKK torby 2012ˇˇˇˇ atk k k bkkt t Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रास तथा सज्माय-विभाग wwnwwwnnn raininariantainmirical-ar r elentlemerkiss- to- Tarwa सदविचार को मन में धार, जाऊं सिद्धाचल गिरनार । सम्मेत शिखर आबू तारंग, धन्य घड़ी कब भेटू उमंग ॥२१॥ श्रावक तणी क्रिया है एह, इसमें होता है भव छेह । अष्ट कर्म दल पातला, पाप तणा छूटे आमला ॥२२॥ बहुरि लीजिये अमर विमान, अनुक्रमे पावे शिवपुर ठाम । कहे जिन हर्प घणो ससनेह, करणी दुःख हरणी है येह ॥२३॥ मन भमरा वैराग्य सज्माय भूलो मन भमरा तूं क्यों भम्यो, भमियो दिवस ने रात । मायारो , बांध्यो प्राणियो, भमे परिमल जात ॥ भूलो० १॥ कुम्भ काचो रे काया कारमी, तेहनां करो रे जतन्न । विणसतां वार लागे नहीं, निर्मल राखो रे मन्न ॥ भूलो० २ ॥ केना छोरू केना वाछरू, केना माय ने बाप । अन्ते । जाऊं छे एकलं, साथे पुण्य ने पाप ॥ भूलो० ३ ॥ आशा तो डूंगर जेवडी, मरवू पगला रे हेठ । धन संची संची काइ करो, करो दैवनी वेठ ॥ भूलो. ॥ धन्धो करि धन मेलव्यं, लाखां ऊपर कोड । मरणनी वेला मानवी, लियो कन्दोरो तोड ॥ भूलो० ५॥ मूरख कहे धन माहरूं, धोखे धान न खाय । वस्त्र बिना जइ पोढवं , लखपति लाकडा मांय ॥ भूलो० ६ ॥ भवसागर रे दुःख जल भर यो, तरवो छे रे तेह । विचमां भय सबलो थयो, कर्म वायरनो मेह ॥ भूलो० ७ ॥ लखपति छत्रपति सभि गया, गया लाखों के लाख । गर्व करी गोखे बेसता, सर्व थया वली राख ॥ भूलो. ॥८॥ धमण धखन्ती रे रहि गई, बुझ गई लाल अंगार । एरण को ठवको परयो, ऊठ चल्यो रे लोहार ॥ भूलो० ९ ॥ ऊबट मारग चालतां, जावू पेले रे पार । आगल हाट न वाणियो, संवल ले जो रे सार ॥ भूलो० १०॥ परदेशी परदेश में, कुण सूं करो रे सनेह । आया कागल ऊठ चल्या, न गणे आंधी न मेह ॥ भूलो० ११ ॥ केई चाल्यो रे केई चालशे, कई चालणहार । कई चाल्या रे बूढा वापढा. जाये नरक मझार ॥ भूलो०१२॥ ज घर नौवत वाजती, गाता छत्तीश राग । खंडर थइ खाली पड़यां. बैठण लाग्या छे काग ॥ भूलो० १३ ॥ भमरो आंव्यो रे कमलमां. लेबा कमलनं । atar- olatsANAL HTTA Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Batasaith hottestastrolotheletstan toob tantarain ATARREEtilatokottoantaha b at m akatkasatbstretattatus ........................... Armore MSRAMMialishaladeshaktika GHAKHAfikisankralaski.kirtash Konkoaantulatiotatodoob ki-kisast काकाकर जैन-रत्नसार फूल । कमलनी बांछाये माहे रह्यो, जिम आथमते सूर ॥ भूलो० १४ ॥ रातनो भूल्यो रे मानवी, दिवसे मारग आय । दिवसनो भूल्यो रे मानवी, फिर फिर गोतां खाय ॥ भूलो० १५॥ सद्गुरु कहे वस्तु बोरिये, जे काइ आवे रे साथ । आपणो लाभ उगारिये, लेखू साहिब हाथ ॥ भूलो ॥१६॥ गुरु स्तुति ___ खोवत क्या जग में नादान, सभी के मन में हैं गुरु ध्यान ।। मैल तू मन का धोले, हृदय प्रेम से अमृत घोले। श्वांस श्वांस और रोम रोम में, बसते दया निधान ॥ सभीके० १॥ ये जीवन मृत्यू का सपना, 1. आंख खुली कोई नहीं अपना । भगवन का तू नाम सुमरले जिससे हो कल्यान ॥ सभीके० २॥ ज्ञानचन्द* दर्शन का प्यासा, पूरी कर मन की अभिलासा । पागल मन तू छोड़ मोह को, धरले गुरुका ध्यान ॥स०३॥ ॥ इति रास तथा सज्झाय विभाग ॥ MAAtakKARANEKAKKAKKARKattleMANENAMASKARE*datikonkakkanthatanAR M IETY.fhtottarMhxAAAAADA RSSES Tara WAS * यह स्तवन मिरजापुर निवासी ज्ञान चन्द सीपाणी का बनाया हुआ है। . Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ distakest తన నడుమునందనుడు स्तोत्र-विभाग श्री नन्दीषण सूरि विरचितं अजितशान्ति नामकं प्रथमं स्मरणम् अजिअं जिअ सव्व भयं, संतिं च पसंत सन्द गय पावं । जयगुरु संति गुण करे, दोवि जिणवर पणिवयामि ॥१॥ (गाहा ) बवगय मंगुल भावे, तेहं विउल तव णिम्मल सहावे । णिरुवम महप्प भावे, थोसामि सुदिट्ट सब्भावे ॥२॥ ( गाहा ) सव्व दुक्ख पसंतीणं, सब्व पाव प्पसंतीणं । सया अजिअ संतीणं णमो अजिअ संतीणं ॥३॥ (सिलोगो) अजिअ जिण ! सुह पवत्तणं तव पुरिसुत्तम ! णाम कित्तणं । तह य धिइ मइ प्पवत्तणं, तव य जिणुत्तम ! संति ! कित्तणं ॥४॥ ( मागहिआ ) किरिआ विहि संचिअ कम्म किलेस विमुक्खयर, अजिअं णिचिों च गुणेहिं महामुणि सिद्धि गर्य। अजिअस्स य संति महा मुणिणो वि अ संति करं, सययं मम णिव्वुइ कारणयं च णमं सणयं ॥५|| ( आलिंगणयं ) पुरिसा जइ दुक्ख वारणं, जइअ विमग्गह सुक्ख कारणं । अजिअं संतिं च भावओ, अभय करे सरणं पवजहा ॥६॥ ( मागहिआ) अरइ रइ तिमिर विरहिअ मुवरय जर मरणं, सुर असुर गरुल भुयग वइ पयय पणिवइयं । अजिअ मह मवि अ सुणय णय णिउणमभयकर, सरणमुवसरिअ भुवि दिविज महिअं सययमुवणमे ॥७॥ (संगययं ) तं च जिणुत्तम मुत्तम णित्तम सत्तधर, अजव मद्दव खंति विमुत्ति समाहि णिहिं । संतिअरं पणमामि दमुत्तम तित्थयर, संति मुणी मम संति समाहि वरं दिसउ ॥८॥ (सोवाणयं ) सावत्थि पुत्व पत्थिवं च वर हत्थि मत्थय पसत्थ वित्थिण्ण संथियं, थिर सरित्य वत्थं मयगल लीलाय माण वरगंध हत्थि पत्थाण पत्थियं सथवारिहं । हत्थि हत्थ बाहु धंत कणग रुअग णिरुवह्य पिंजर पवर लक्खणो वचिय सोम्म चारु रूवं, सुइ सुह मणाभिराम परम रमणिज्ज वर देवदु'दुहि णिणाय महुरयर सुह गिर ॥९॥ (वेडओ ) अजियं जिआरि ผitteไม่ไดงด้ไหนได้ใจได้ในตได้ฝันใจ ไดนัดไปัดใจใจได้ในไตใจ ดวกในปัจจไหัดนั่งหนใดจะได้คนในใจดได้จะไดไไดดได้นะคให้หมด, Yeek ในไพดีใจนะใจด้ใจไปได้งายไว้ได้ไงจะให้ใจได้ ใคในปัจงอาคได้ในไต ในไตใจไม Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LastakedbitaskindiMahaskattradastleMiledhedealeoledeedaMandatiseaksistantialakatakKARAMMorthokiate mamiww ६५२ जैन-रत्नसार गणं, जिअ सव्व भयं भवोह रिउं। पणमामि अहं पयओ पावंपसमेत मे भयवं ॥१०॥ (रासालुडओ) कुरु जणवय हत्थिणाउर परीसरो पढम तओ महा चकवट्टि भोए महप्पभाओ जो बावत्तरि पुरवर सहरस वर णगर णिगम जणवय वई बत्तीसा राय वर सहस्साणुआय मग्गो । चउदस वर रयण णव महा णिहि चउसहि सहस्स पवर जुवईण सुंदर वई चुलसी हय गय रह सय सहरस सामी छण्णवइ गाम कोडि सामी आसीजो भारहम्मि भयवं ॥११॥ ( वेड्डओ) तं संत संति कर संतिण्णं सव्व भया । संति थुणामि जिणंसंतिं विहेउ मे ॥१२॥ ( रासाणंदियं ) इक्खाग विदेह परीसर णर वसहा मुणि वसहा णव सारय ससि सकलाणण विगय तमा विहुय रया । अजिउत्तम तेअ गुणेहि महा मुणि अमिय बला विउलकुला पणमामि ते भव भय मूरण जग सरणा मम सरणं ॥१३॥ (चित्तलेहा) देव दाणविंद चंद सूर बंद हट तुट्ठ जिह परम लट्ठ रूव, धंत रुप्प पट्ट सेय सुद्ध णिद्ध धवल दंति पंति संति सत्ति कित्ति मुत्ति जुत्ति गुत्ति पवर, दित्त तेअ बंद धेअ सव्वलोअ भाविअ प्पभाव णेअ पइस मे समाहि ॥१४॥ (णारायओ ) विमल ससि कलाइरेअ सोम्मं वितिमिर सूर कलाइरेअ तेअं। तिअस वइ गणाइरेअ रूवं, धरणिधर प्पवराइरेअ सारं ॥१५॥ (कुसुमलया) सत्तेअ सया अजियं, सारीरेअ बले अजिअं । तव संजमे य अजिअं, एस थुणामि जिणमजिअं ॥१६॥ ( भूअगपरिरंगिअं) सोम्म गुणेहि पावइ ण तं णव सरय ससी, तेअ गुणेहिं पावइ ण तं णव सरय रवी। रूव गुणेहि पावइ ण तं तिअसगणवई, सार गुणेहिं पावइ ण तं धरणिधर वई ॥१७॥. ( खिज्जिअयं ) तित्थ वर पवत्तयं तम रय रहिअं, धीर जण थुअच्चिअं चुअकलि कलुसं । संति सुह प्पवत्तयं ति गरण पयओ, संतिमहं महामुर्णि सरण मुवणमे ॥१८॥ (ललिअं) विणओ णय सिरि रइअंजलि रिसिगण संथुअं थिमिश्र, विबुहाहिव धणवइ गरवइ थुअ महिअच्चियं बहुसो । अइ रुग्गय सरय दिवायर समहिअ सप्पभं तवसा, गयणं गण विअरण समुइय चारण बंदिअं सिरसा ॥१९॥ ( किसलय माला ) असुर गरुल परिवंदिअं, कल्पलाललललललल काककककककककककलालम्पुल्टनन्दप्नालायला REETITITITI Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MerestKakakkar sastiseDEEGGG-Kalikhabatatahkarttarastrabadatastram arrammarwanamannamomarmumarmananm Malliamadoloddeclokaantakala Kh a naloKOMAMModdess स्तोत्र-विभाग किण्णरोरग णमंसिअं । देव कोडि सय संथुअं, समण संघ परिवंदिरं ॥२०॥ सुमुहं अभयं अणहं, अश्यं अरु। अजिअं अजिअं पयओ पणमे ॥२१॥ (विजुविलसिअं) आगया वर विमाण दिव्व कणग रह तुरय पहकर सएहिं हुलिअं । ससंभमो अरण खुभिअ लुलिअ चल कुण्डलं गय किरीड सोहंत मउलि माला ॥२२॥ ( वेड्डओ ) जं सुर संघा सासुर संघा वेर । विउत्ता भत्ति सुजुत्ता, आयर भूसिअ संभम पिंडिअ सुटु सुविम्हिअ सव्व बलोघा । उत्तम कंचण रयण परूविअ भासुर भूसण भासुरि अंगा, गाय समोणय भत्ति वसागय पंजलि पेसिअ सीस पणामा ॥२३॥ ( रयणमाला) वंदिऊण थोऊण तो जिणं, तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं । पणमिऊण य जिणं सुरासुरा, पमुइया स भवणाई तो गया ॥२४॥ (खित्तयं) तं महामुणि महंपि पंजली, राग दोष भय मोह विजअं। देव दाणव परिंद वंदिअं, संति मुत्तम महातवं णमे ॥२५॥ (खित्तयं ) अंबरंतर वियारणिआहिं, ललिअ हंस बहू गामिणिआहिं । पीण सोणि स्थण सालिणिआहि, सकल कमल दल लोअणिआहिं॥२६॥ (दीवयं) पीण णिरंतर थण भर विणमिअ गायलयाहिं, मणि कंचण पसि दिल मेहल सोहिअ सोणि तडाहिं । वर खिखिणि णेउर सतिलय वलय विभूसणियाहिं, रइकर चउर मणोहर सुंदर दंसणियाहिं ॥२७॥ ( चित्तक्खरा ) देव सुन्दरीहिं पाय वन्दिआहिं, वंदिआ जस्स ते सुविक्कमा कमा अप्पणो णिडालएहि मंडणोदुण पगारएहिं केहिं केहिं वि अवंग तिलय पत्त लेह णामएहिं चिल्लएहिं संगयंगयाहिं, भत्ति सण्णिविट्ठ वंदणा गयाहि हुँति ते वंदिआ पुणो पुणो ॥२८॥ ( णारायओ) तमहं जिणचंद, अजिजिअ मोहं । धुअ सव्व किलेसं, पयओ पणमामि ॥ २९॥ (णंदिअयं ) थुअवंदिअस्सा रिसि गण देव गणेहिं, तो देव बहूहिं पयओ पणमिअस्सा जस्स जगुत्तम सासणअस्सा, भत्तिवसागय पिंडिअआहिं । देव वरच्छरसा वहुआहिं, सुरवर रइ गुण पंडिआहिं ॥३०॥ ( भासुरयं) । वंस सद्द तंति ताल मेलिए, तिउक्खराभिराम सद्द मीसए कइ अ, सुइ समाणणे असुद्ध सज्ज गीअ पाय जाल घंटिआहिं, वलय मेहलाकलावणे SHAD chhakalinkshimlaleticleiokokanatakanditiotakaakshatotanti totke Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AmATAashiARANASARAMATALATLATEXT1. - जैन-रत्नसार उरामि राम सद्द मीसए कए अ देवणट्टि आहिं । हाव भाव विभम प्पगारएहिं, णच्चिऊण अंग हारएहिं वंदिआ य जस्स ते सुविकमा कमा, तयं तिलोय सव्व सत्त संतिकारयं, पसंत सव्व पाव दोस मेस हं णमामि संति मुत्तमं जिणं ॥३१॥ ( णारायओ) छत्त चामर पडाग जूअ जव मंडिआ, ज्झय वर मगर तुरग सिरिवच्छ सुलंछणा । दीव समुद्द मंदर दिसागय सोहिआ, सत्थिअ वसह सीह रह चक्क वरंकिया ॥३२॥ (ललिअर्थ) सहावलट्ठा समप्पइहा अदोसदुट्ठा गुणेहिं जिहा। पसाय सिट्ठा तवेण पुट्ठा सिरीहिं इट्टा रिसीहिं जुट्ठा ॥३॥( वाणवासिआ ) ते तवेण धुअ सव्व पावया, सव्व लोअ हिय मूल पावया । संथुआ अजिअ संति पायया, हुतुं मे सिव सुहाण दायया ॥३४॥ ( अपरांतिका ) एवं तव बल विउलं, थु भए अजिअ संतिजिण जुयलं । ववगय कम्म रय मलं, गई गयं सासयं विउलं ॥३५॥ (गाहा) तं बहु गुणप्पसायं, मुक्ख सुहेण परमेण अविसायं नासेउमे विसायं, कुणउ अ परिसाविअ पसायं ॥३६॥ ( गाहा) तं मोएउ अ णंदि, पावेउ अणंदिसेणमभिणंदि । परिसाविअ सुहणंदि मम य दिसउ संजमे गंदिं ॥३७॥ (गाहा) पक्खिय चाउम्मासे, संवच्छरिए अ अवस्स भणिअव्वो । सोअव्वो सव्वेहिं उवसग्ग णिवारणो एसो ॥३८॥ जो पढ़इ जो अ णिसुणइ, उभओ कालं पि अजिय संति थयं । णहु हुँति तस्स रोगा, पुव्वुप्पण्णा विणासंति ॥३९॥ जइ इच्छह परम पयं, अहवा कित्ति सुवित्थडां भुवणे । ता तेलुक्कुडरणे, जिण वयणे आयरं कुणह ॥४०॥ जिन वल्लभ सूरि कृतं द्वितीयं लघु अजितशान्ति स्मरणम् उल्लासि कम णक्खण णिग्गय पहा दंडच्छ लेणंगिणं, वंदारूण दिसंतइव्व पयर्ड णिब्बाण मग्गावलिं। कुंदिंदुञ्जल दंत कंति मिसओ णीहंत णाणं कुरुकेरे दोवि दुइज्ज सोलस जिणे थोसामि खेमंकरे ॥१॥ चरम जलहि णीरं जोम णिज्जंजलीहिं, खय समय समीरं जो जणिज्जा। गईए। सयल णहयलं वा लंघए जो पएहिं, अजिअ महव संति सो Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nnARAN PatroloatiniantekataladkiphotNARIYAlishalishatititiot-talatka स्तोत्र-विभाग __ समत्थो थुणेऊ ॥२॥ तहवि हु बहु माणुल्लास भत्तिब्भरेण, गुण कणमवि कित्तेहामि चिंतामणि व्व । अलमहव अचिंताणंत सामत्थ ओसिं, फलि हइ लहु सव्वं वंछिअंणिच्छिों मे ॥३॥ सयल जय हिआणं णाम मित्तेण जाणं, विहडइ लहु दुहाणि दोघट्ट घट्ट । णमिर सुर किरीग्घिट्ट पायारविदे, सययमजिअ संती ते जिणंदे भिवंदे ॥४॥ पसरइ वर कित्ती बड्डए देहदित्ती, विलसइ भुवि मित्ती जायए सुप्पवित्ती । फुरइ परम तित्ती होइ संसार छित्ती, जिण जुअ पय भत्ती हीय चिंतोरु सत्ती ॥५॥ ललिय पय पयारं भूरि दिव्वंग हारं, फुड गण रस भावोदार सिंगार सारं । अणि मिस रमणिज्जं दसणच्छेय भीया, इव पुण मणिबंधा कास णट्टोवयारं ॥६॥ थुणह अजिअ संती ते कयासेस संती, कणय रय पसंगा छज्जए जाणि मुत्ती । सरभस परिरंभा रंभि णिव्वाण लच्छी, घण थण घुसिणिक्कुप्पंक पिंगीकयव्व ॥७॥ बहु विह णय भंगं वत्थु णिच्चं अणिच्चं सदसदणभिलप्पालप्पमेगंअणेगं । इय कुणय विरुद्धं सुप्पसिद्धं च जेसि, वयणमवयणिज्जं ते जिणे संभरामि ॥८॥ पसरइ तिय लोए ताव मोहंधयारं, भमइ जयमसण्णं ताव मिच्छन्त छण्णं । फुरइ फुड फलंताणंत गाणंसुपूरो, पयडमजिअ संतिज्झाण सूरो ण जाव ॥९॥ अरि करि हरि तिण्हुण्हंषु चोराहि वाहि, समर डमर मारी रुद खुद्दोवसग्गा । पलयमजिअ संती कित्तणे झत्ति जंती, णिविडतर तमोहा । भक्खरालुंखि अव्व ॥१०॥ णिचिअ दुरिअ दारू दित्त झाणग्गि जाला | परिगयमिव गोरं, चिंति झाण रूवं । कणय णिहस रेहा कंति चोरं करिज्जा, चिर थिर मिहलच्छि गाढ संथंभि अव्व ॥११॥ अडवि णिवडि| याणं पत्थियुत्तासिआणं, जलहि लहरि हीरंताण गुत्ति डियाणं । जलिअ जलण जाला लिंगिआणं च झाणं जणयइ लहु संतिं संतिणाहाजिआणं ॥१२॥ हरि करि परिकिष्णं पक्क पाइक्क पुण्णं, सयल पुहवि रज्जं छड्डि * आणसज्ज । तणमिव पडिलग्गं जे जिणा मुत्ति मग्गं, चरण मणुपवण्णा हुंतु ते मे पसण्णा ॥१३॥ छण ससि वयणाहिं फुल्ल णित्तुप्पलाहिं, थण भर णमिरीहिं मुट्ठि गिजोदरीहिं । ललिअ भुअलयाहिं पीण सोणित्यणीहि, t tILExatiotikatnist-koht.LEKHAL E Y Ra tnandantrtantastess. Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ conousnessuryesleelakedardikskskskriRYANARkkkkkkAAAAAAKAR जैन-रत्नसार REEtainles h LEKALAM ६५६ सय सुर रमणीहिं वंदिआ जेसि पाया ॥१४॥अरिसकिडिभ कुढग्गठि कासाइ सार, खय जर वण लूआसास सोसोदराणि । णह मुह दसणच्छि कुच्छि कण्णाइ रोगे, मह जिण जुअ पाया सुप्पसाया हरन्तु ॥१५॥ इअ गुरु दुह तासे पक्खिए चाउमासे, जिणवर दुग थुत्तं वच्छरे वा पवित्तं । पढ़ह सुणह सिज्झाएह झाएह चित्ते, कुणह मुणह विग्धं जेण घाएह सिग्धं ॥१६॥ इय विजयाजिअ सत्तु पुत्त ! सिरि अजिअ जिणेसर ! तह अइरा विस सेण तणय ! पंचम चक्कीसर ! तित्थंकर सोलसम ! संति ! जिणवल्लह संथुअ ! कुरु मंगल मवहरसु दुरिय मखिलंपि थुणंतह ॥१७॥ श्रीमानतुड़ाचार्य कृतं णमिऊण नामकं तृतीयं स्मरणम् ___णमिऊण पणय सुरगण, चूडामणि किरण रंजिअ मुणिणो । चलण जुअलं महाभय, पणासणं संथवं बुच्छं ॥१॥ सडिय कर चरण णह मुह । णिबुड्ड णासा विवण्णलावण्णा । कुट्ठ महा रोगाणल, फुलिंग णिद्दड्ड सव्वंगा ॥२॥ ते तुह चलणा राहण, सलिलंजलि सेअ वुट्टिय च्छाया । वण दव दड्डा गिरि पाय यव्व पत्ता पुणोलच्छि ॥३॥ दुव्वाय खुभिय जलणिहि, उन्भड कल्लोल भीसणारावे । संभंत भय विसंतुल, णिज्जामय मुक्कवावारे ॥४॥ अविदलिय जाणवत्ता, खणेण पावंति इच्छिकूलं। पास जिण चलणजुअलं, णिच्चं चिअ जे णमंति णरा ॥५॥ खर पवणु डुय वणदव, जालावलि मिलिय सयल दुम गहणे । डझंत मुदमिय वहु, भीसण व भीसणम्मि वणे ॥६॥ जग गुरुणो कम जुअलं, णिव्वविय सयल तिहुअणाभो। जे संभरंति मणुआ, ण कुणइ जलणो भयं तेसि ॥७॥ विलसंत भोग भीसण, फुरिआरुण णयण तरल जीहालं । उग्गभुअंगं णव जलय, सच्छहं भीसणायारं ॥८॥ मण्णंति कीडसरिसं, दुर परिच्छुढ़ विसम विसवेगा। तुह णामक्खर फुड सिह, मंत गुरुआ णरा लोए ॥९॥ अडवीसु भिल्ल तक्कर, फुलिंद सर्दूल सद्द भीमासु ।भय विहुर वुण्ण कायर, उल्लूरिअ पहिअ सत्थासु ॥१०॥ अविलुत्त विहवसारा, तुह णाम ! पणाम मत्त वावारा । ववगय विग्घा सिग्धं, पत्ता हिय इच्छियं ठाणं ॥११॥ पञ्जलि आणल A AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA--- Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Akhtrnathokiantalirtal-leslarle-inthlaintena+GH-GGGE0%arinehakaalanadesistanistan स्तोत्र-विभाग aana Klopkontrola to in to the limits by L I ntimigokonca roklimatlarla tornat laknath Ka Parkanla talabalar trebala balanlar Kiralama lililoto Portret ble णयणं, दुर विआरिय मुहं महाकायं । णह कुलिस घाय विअलिअ, गइंद कुंभत्थ लाभो ॥१२॥ पणय ससंभम पत्थिव, णह मणि माणिक्क पडिय पडिमरस । तुह वयण पहरणधरा, सिंहं कुद्धपि ण गणंति ॥१३॥ ससिधवलदंत मुसलं, दीह करुल्लाल वड्डि उच्छाहं । महु पिंग णयण जुअलं, ससलिल णव जलहरारावं ॥१४॥ भीमं महा गइंद, अच्चासणंपि ते णवि गणंति । जे तुम्ह चलणजुअलं मुणिवइ ! तुंगं समल्लीणा ॥१५।। समरम्मि तिक्खखग्गा, मिग्धाय पविद्ध उडुय कबंधे । कुंत विणिमिण्ण करि कलह, मुक्क सिक्कार पउरम्मि ॥१६॥ णिज्जिय दप्पुद्धररिउ, परिंद णिवहा भडा जसं धवलं । पावंति पाव पसमिण ! पास जिण ! तुह प्पभावेण ॥१७॥ रोग जल जलण विसहर, चोरारि मइंद गय रण भयाइं । पास जिणणाम संकित्तणेण, पसमंति सव्वाइं॥१८॥ एवं महाभयहरं, पास जिणिदस्स संथवमुआरं । भविय जणाणंदयरं, कल्लाण परंपर णिहाणं ॥१९॥ राय भय जक्ख रक्खस, कुसुमिण दुस्सउण रिक्ख पीडासु । संज्झासु दोसु पंथे, उक्सग्गे तह य रयणीसु ॥२०॥ जो पढ़इ जो अणिसुणइ, ताणं कइणो य माणतुंगस्स । पासो पावं पसमेउ, सयल भुवणच्चिअ चलणो ॥२१॥ श्री जिनदत्त सूरिकृतं तंजयउ चतुर्थ स्मरणम् तं जयउ जए तित्थं, जमित्थ तित्थाहिवेण वीरेण । सम्मं पवत्तियं भव्व, सत्त संताण सुह जणयं ॥१॥ णासिय सयल किलेसा, णिहय कुलेसा पसत्य सुह लेसा । सिरि वद्धमाण तित्थरस, मंगलं दितु ते अरिहा ॥२॥ गिद्दड्ड कम्म बीआ, बीआ परमेट्ठिणो गुण समिद्धा । सिद्धा तिजय पसिद्धा, हणंतु दुत्थाणि तित्थस्स ॥३॥ आयारमायरता, पंच पयारं सया पयासंता । आयरिआ तह तित्थं, णिहय कुतित्थं पयासंतु ॥|सम्म सुअ वायगा वायगाय, सिअवाय वायगा वाए । पवयण पडणीय कए, चण्णंतु सव्वस्स संघस्स ॥५॥ णिव्वाण साहणुज्जय, साहूणं जणिय सव्व साहज्जा । तित्यप्पभावगा 1 ते, हवंतु परमेद्विणो जइणो ॥६॥ जेणाणुगयं णाणं, णिव्वाण फलं च चरण३ मचि हवई । तित्थस्स दंसणं तं, मंगुलमवणेउ सिद्धियरं ॥७॥ णिच्छम्मो atiniatni.lottototalo inlintain thiliotolallan intoob totatotalni lotni li na l fotassist nteliminato Palni Imeni । . . ... ।। wellI '. ' 83 Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ط ط ط لا حر الجدل والفلفلل ول ده ا وا ا اااااااااااالالام ه जैन-रत्नसार सुअधम्मो, समग्ग भव्वंगि वग्ग कय सम्मो । गुणसुडिअस्स संघस्स, मंगलं सम्ममिह दिसउ ॥८॥ रम्मो चरित्तधम्मो, संपाविअ भव्य सत्त सिव सम्मो। णिसेस किलेसहरो, हवउ सया सयल संघस्स ॥९॥ गुण गण गुरुणो गुरुणो, सिव सुह मइणो कुणंतु तित्थस्स । सिरि वडमाण पहु पय,डिअस्स कुसलं समग्गरस ॥१०॥ जिय पडिवक्खा जक्खा, गोमुह मायंग गयमुह पमुक्खा । सिरि बंभ संति सहिआ, कय णय रक्खा सि दितु ॥११॥ अंबा पडिहय डिंबा, सिद्धा सिद्धाइआ पवयणस्स । चक्केसरि वइरुट्टा, संति सुरा दिसउ सुक्खाणि ॥१२॥ सोलस विज्जा देवीउ, दितु संघस्स मंगलं विउलं । अच्छुत्ता सहिआओ, विस्सुअ सुयदेवयाइ समं ॥१३॥ जिणसासण कय रक्खा, जक्खा चउवीस सासण सुरावि । सुहभावा संतावं, तित्थरस सया पणासंतु ॥१४॥ जिण पवयणम्मि णिरया, विरया कुपहाउ सव्वहा सचे । वेआवच्चकरावि अ, तित्थरस हवंतु संतिकरा ॥१५॥ जिण समय सिद्ध सुमग्ग, वहिय भव्वाण जणिय साहज्जो । गीयरई गीअजसो * सपरिवारो सुहं दिसउ ॥१६॥ गिहि गुत्त खित्त जल थल, वण पव्वयवासी देव देवीउ । जिण सासणट्ठिआणं, दुहाणि सव्वाणि णिहणंतु ॥१७॥ दस दिसिपाला सक्खित्तपालया, णवग्गहा स णक्खत्ता। जोइणि राहु ग्गह, काल के पास कुलिअद्ध पहरेहिं ॥१८॥ सहकाल कंटएहिं, सविट्टि वच्छेहि कालवेलाहिं । सव्वे सव्वत्थ सुह, दिसंतु सव्वस्स संघस्स ॥१९॥ भवणवई । वाणमंतर, जोइस वेमा णिआ य जे देवा । धरणिंद सक्क सहिआ, दलंतु * दुरियाई तित्थस्स ॥२०॥ चक्कं जस्स जलंतं, गच्छइ पुरओ पणा सिय तमोहं । तंतित्थस्स भगवओ, णमो णमो वढमाणस्स ॥२१॥ सो जयउ। जिणो वीरो, जस्सज्ज वि सासणं जए जयइ । सिद्धि पह सासणं, कुपह। णासणं सव्व भय महणं ॥२२॥ सिरि उसभसेण पमुहा, हय भय णिवहा दिसंतु तित्थस्स । सव्व जिणाणं गणहा,रिणोऽणहं वंछियं सव्वं ॥२३॥ सिरि वडमाण तित्था, हिवेण तित्थं समप्पियं जरस । सम्मं सुहम्म सामी, दिसउ । सुहं सयल संघरस ॥२४॥ पयईए भदिया जे, भदाणि दिसंतु सयल संघरस । वनप्राश्रममन्यप्राश्रममन्त्रस्य प्रप्रयणप्रन्प्रत्यय प्रस्नमत्रप्रनयन्त्रतत्रतत्र प्रजनननननननन्ययप्रय प्रजननननननननननन storisbaintritek Flviadrishad alrlookul nicekak wladkiokilaiakkeio kaLalakarketri skhooleralakaandikalakatinkalatakateshkokalatka r vaale' :------ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ radhekarneshotsteaderkeelatastasterboasdobadasanamikskelessinahstetakisssssssssssashatak n katerialentinkal lrkinatantantrakakakakathakamanatantainkakukmikavikalaakstatekakkartakhtankatrinkinERFrkankikahaniantetapkotawitrinkikatak.intakmta kaiwakka स्तोत्र-विभाग ६५६ इयर सुरा वि हु सम्मं, जिणगणहर कहिय कारिस्स ॥२५॥ इय जो पढ़इ तिसंज्झं, दुस्सझं तरस गस्थि किंपिजए। जिणदत्ता णाय डिओ, सुणिट्ठि अट्ठो सुही होई ॥२६॥ श्री जिनदत्त सूरि कृतं गुरु पारतन्त्र्य नामकं पंचमं स्मरणम् मय रहियं गुण गण रयण, सायरं सायरं पणमिऊणं । सुगुरु जण पारतंतं, उवहिव्व थुणामि तं चेव ॥१॥ णिम्म हिय मोह जोहा, णिहय विगेहा पणढ़ संदेहा। पणयंगि वग्ग दाविअ, सुह संदोहा सगुण गेहा ॥२॥ पत्त सुजइत्त सोहा, समत्त परतित्थ जणिय संखोहा । पडिभग्ग मोह जोहा, दंसिय सुमहत्थ सत्योहा ॥३॥ परिहरिअ सत्त वाहा, हय दुह दाहा सिवंब तरु साहा । संपाविअ सुह लाहा, खीरोदहिणुव्व अग्गाहा ॥४॥ सुगुण जण जणिय पुज्जा, सज्जो णिरवज्ज गहिय पवजा। सिव सुह साहण सज्जा, भव गिरि गुरु चूरणे वज्जा ॥५॥ अज्ज सुहम्म प्पमुहा, गुण गण णिवहा सुरिंद विहिअ महा । ताण तिसंझं णाम, णामं ण पणासइ जियाणं ॥६॥ पडिवज्जिअ जिणदेवो, देवायरिओ दुरंत भवहारी। सिरिणेमि चंद में सूरी, उज्जोअण सूरिणो सुगुरु ॥७॥ सिरि बद्धमाण सूरी, पयडीकय सूरि । मत माहप्पो । पडिहय कसाय पसरो, सरय ससंकुच सुह जणओ ॥८॥ 3 सुह सील चोर चप्परण, पञ्चलो णिच्चलो जिण मयम्मि । जुगपवर सुद्ध सिद्धत, जाणओ पणय सुगुणजणो ॥९॥ पुरओ दुल्लह महिवल्लहस्स, अणहिल्लवाडए पयडं । मुक्कावि आरि ऊणं, सीहेणव दव्वलिंगि गया ॥१०॥ दसमच्छरेय णिसि विफ्फुरंत, सच्छंद सूरि मय तिमिरं । सूरेणव सूरिजिणे, सरण हय महिय दोसेणं ॥११॥ सुकइत्त पत्त कित्ती, पयडिअ गुत्ती पसंत सुह मुत्ती । पहय परबाइ दित्ती, जिणचंद जईसरो मंती ॥१२॥ पयडिअ णवंग सुत्तत्थ, रयणकोसो पणासिअ पओसो । भव भीय भविअ जण मण, है कय संतोषो विगय दोसो ॥१॥ जगपवरागम सार, प्परूवणा करण बंधुरी : धणिों । सिरी अभयदेवसूरी, मणि पवरो परम पसम धरी ॥१॥ कय : topattaraikirdabinakhhobiantakala.larkasbagilesgoatok-httrakhirthahistiablbhimla kala kpulatolankat in inlodhiarat Katrintmla train triantonthlata In eturinterstre r Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ saedaksesabootarkatarkestadadakhoobtobabeshacotabataohsaladaladaseskitcheskatianslatestatestatesktarty vuuu ........... www.. .V vuuu wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Postal-klletI- IIJInd-Pak-lamicain-rrrfalmlarlimilart -In-ali kunth सनलल्यननननननननननन्यन्त्रणवत्र जलबनननननननल्ग-नया-नयन्तप्रजननायल्पश्रममन्यान जैन-रत्नसार सावय सत्तासो, हरिव्व सारंग भग्ग संदेहो। गय समय दप्प दलणो, आसाइअ पवर कव्व रसो ॥१५॥ भीम भवकाणणम्मि अ, दंसिअ गुरु वयण रयण संदोहो। णीसेस सत्त गुरुओ, सूरी जिणवल्लहो जयइ ॥१६॥ उरिडिअ सच्चरणो, चउरणु ओगप्पहाण संचरणो। असम मयराय महणो, उड्ड मुहो सहइ जस्स करो ॥१७॥ दंसिअ णिम्मल णिच्चल, दंत गणो गणि अ सावउत्थभओ। गुरु गिरि गुरुओ, सरहुव्व सूरी जिणवल्लहो होत्था ॥१८॥ जुग पवरागम पीउस, पाण पीणिय मणा कया भव्वा । जेण जिणवल्लहेणं, गुरुणा तं सव्वहा वंदे ॥१९॥ विफ्फुरिय पवर पवयण, सिरोमणी बूढ़ दुबह खमोय । जो सेसाणं सेसुव्व, सहइ सत्ताण ताणकरो ॥२०॥ सच्चरिआण महीणं, सुगुरुणं पारतंतमुव्वहइ। जयइ जिणदत्त सूरी, सिरि णिलओ पणय मुणि तिलओ ॥२१॥ श्री जिनदत्तसूरिकृतं सिग्घमवहरउ नामकं षष्ठं स्मरणम् सिग्घमवहरउ विग्धं, जिण वीराणाणुगामि संघरस । सिरि पास जिणो थंभण, पुरडिओ णिढिआणिहो ॥१॥ गोयम सुहम्म पमुहा, गणवइणो विहिब भव्व सत्त सुहा । सिरि वडमाण जिण तित्थ, सुत्थयं ते कुणंतु सया ॥२॥ सकाइणो सुरा जे, जिण वेयावच्च कारिणो संति । अव हरिय विग्ध संघा, हवंतु ते संघ संतिकरा ॥३॥ सिरि थंभणयद्विय पास सामि, पय पउमे पणय पाणीणं । णिद्दलिय दुरिय विंदो, धरणिदो हरउ दुरियाई ॥४॥ गोमुह पमुक्ख जक्खा, पडिहय पडिपक्ख पक्खलक्खा ते । कय सगुण संघरक्खा, हवंतु संपत्त सिव सुक्खा ॥५॥ अप्पडिचक्का पमुहा, जिण सासण देवया | य जण पणया। सिद्धाइया समेया, हवंतु संघस्स विग्धहरा ॥६॥ सक्का एसा सच्चउर, पुरडिओ वद्धमाण जिणभत्तो । सिरि बंभ संति जक्खो, रक्खउ संघ पयत्तेण ॥७॥ खित्त गिह गुत्त संताण, देस देवाहिदेवया ताओ । णिव्वुइ पुर पहिआणं, भव्वाण कुणंतु सुक्खाणि ॥८॥ चक्केसरि चक्कधरा विहिपह रिउच्छिण्ण कंधरा धणियं। सिव सरण लग्ग संघस्स, सव्वहा हरउ विग्घाणि ॥९॥ तित्थवइ वडमाणो, जिणेसरो संगओ सुसंघेण । जिणचंदी a lalk-irsinh.ledissertaiorairirala' srrr -17. णमट्रमनला नमवतमजन्न्ननननननन्त्र Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Intentant totalento foto tataterte teda tentadoitatte tota ● स्तोत्र - विभाग ६६१ ****** UNNIN भय देवो, रक्खउ जिणवल्लहो पहुमं ॥ १० ॥ सो जयउ वद्धमाणो, जिणेसरो दिणेसरोव्य हय तिमिरो । जिणचंदाऽभयदेवा, पहुणो जिणवल्लहा जे अ ॥११॥ गुरुजिणवह पाए, अभयदेव पहुत्त दायगे बंदे । जिणचंद जिणेसर, वडमाण तित्थस्स बुड्ढकए ||१२|| जिणदत्ताणंसम्मं, मण्णंति कुणंति जे य कारिंति । मणसावयसावउसा, जयंतु साहम्मिआ ते वि ||१३|| जिणदत्त - गुणे णाणाइणो, सयाजे घरंति धारिति । दंसिअ सिअ वाय पए, नमामि साहमिआ ||१४| भद्रबाहु स्वामी विरचितं उवसग्गहर नामकं सप्तमं स्मरणम् उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्म घणमुक्कं । बिसहर विस णिण्णासं, मंगल कल्लाण आवासं ॥१॥ विसहर फुलिंगमंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ । तस्सग्गह रोग मारी, दुट्ठ जरा जंति उवसामं ||२|| चिउ दूरे मंतो, तुझ पणामोबि बहुफलो होइ । णर तिरिएसुवि जीवा, पावंतिण दुक्खदोगच्चं ॥३॥ तुह सम्मते लडे, चिंतामणि कप्पपाय वन्भहिए | पार्वति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं || ४ || इअ संधुओ महायस ! भक्तिन्भर णिन्भरेण हिअएण । ता देव दिज्ज बोहिं भवे भवे पास जिणचंद ||५|| तिजय पहुत्त स्तोत्र तिजय पहुत पयास, अट्टमहापाडिहेर जुत्ताणं । समय क्खित द्वियाणं, सरेमि चक्कं जिणंदाणं ॥१॥ पणवीसा य असीआ, पणरस पण्णास जिणवर ववगय कलि कलुसाणं, ववगयणिद्धंत राग दोसाणं । ववगय पुणव्भवाणं, णमोत्थु देवाहि देवाणं ॥ सर्व्वं पसमइपावं, पुण्णं बढइ णमस माणस्स । संपुण्णचंद वयणस्सकित्तणं अजियसंतिस्स ॥ उवसग्गंतेकमठा, सुरम्मि झाणाउ जोण संचलिओ । सुरणर किण्णर जुवइहि, संधुओ जय पास जिणो ॥ ए अस्समज्झयारे, अट्ठारस अक्खरेहिं जोमंतो। जो जाणइ सो झायइ, परम पयत्थं फुडं पासं । पासह समरण जो कुणइ संतुट्ठ े हिययेण । अट्ठत्तर सयवाहि भयणासइ तस्स दूरेण ॥ ऊपर की दो गाथायें अजित शान्ति स्मरण में और नीचे की तीन गाथाये णमिण स्मरण में। ये गाथायें कइएक पुस्तकों मे पायी जाती है पाठकों के विचारार्थ यहां दे दी गयी है । aka larta tato ln la la la totals in in lalaj in! lolate to lala Let the ge Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " -- -- - - - --- --- पूजनप्र - णाल 1: मyasingareparejayajanwariye जन-रत्नसार समूहो। णासेउ सयलदुरिअं, भविआणं भत्ति जुत्ताणं ॥२॥ वीसा पणयाला विय, तीसा पणहत्तरी जिणवरिंदा । गह भूअ रक्ख साइणि, घोरुवसग्गं पणासंतु ॥३॥ सत्तरि पणतीसावि य, सही पंचेव जिणगणो एसो । वाहिजलजलणहरिकरि, चौरारिमहाभयं हरउ ॥४॥ पणपण्णा य दसेव य, पणहि तह य चेव चालीसा । रक्खंतु मे सरीरं, देवासुर पणमिआ सिद्धा ॥५॥ ॐ हरहुं हः सरसुं सः हरहुं हः तह य चेव सरसुं सः । आलिहिय णाम गन्भ, चक्कं किर सव्वओ भदं ॥६॥ ॐ रोहिणि पण्णत्ती, वञ्जसिखला तह य वज्ज अंकुसिया । चक्केसरि गरदत्ता, काली महाकालि तह गोरी ॥७॥ गंधारी महज्जाला, माणवि वइस्ट तह य अच्छुत्ता | माणसि महामाणसिआ, * विजा देवीओ रक्खंतु ॥८॥ पंचदसकम्मभूमीसु, उप्पण्णं सत्तरी जिणाण सयं । विविहरयणाइवण्णो, वसोहिअं हरउ दुरिआई ॥९|| चउतीस अइसयजुआ, अट्ठ महापाडि हेर कय सोहा । तित्थयरा गयमोहा, झाए अब्बा पयत्तेणं ॥१०॥ ॐ वरकणयसंखविदुम, मरगयघणसण्णिहं विगयमोहं । सत्तरिसयं जिणाणं, सव्वामरपूइअं वंदे स्वाहा ॥११॥ ॐ भवणवइ वाणवंतर, जोइसवासी विमाणवासी अ । जे केवि दुढ देवा, ते सव्वे उवसमंतु ममं स्वाहा। ॥१२॥ चंदणकप्पूरेणं, फलए लिहिउण खालिअं पी। एगंतराइगहभूम, साइणिभूअं पणासेई ॥१३॥ इअ सत्तरिसयं जंतं, सम्मं मंतं दुवारि पडिलिहिअं । दुरिआरि विजयवंतं, णिभंतं णिचमच्चेह ॥१४॥ दोसावहार स्तोत्र दोसावहारदक्खो, णालीयायर विया सिगोपसरो । रयणत्तयस्सजणओ, पासजिणो जयउ जयचक्खू ॥१॥ कयकुवलय पडिवाहो, हरणं कियविग्गही कलाणिलओ । विहियार विंद महणी, दियराओ जयउ पास जिणी ॥२॥ * एक सौ सत्तर तीर्थंकरों का प्रमाण पांच महाविदह में १६० विजय हैं उनमें एक एक इस तरह १६० पांच भरतमे और पांच एरवतक्षेत्र में इस तरह १७० तीर्थकर एक समय में विचरण करते हैं। देवचन्दजी महाराज ने भी स्तोत्र पूजा में लिखा है। मुंदर मय इगसत्तार तित्थंकर इक समय विहरंत । JHAMA*1119FTER Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ययनमनग्य .JILITHILL ! नगमपन्मत्रचत्रनयन्त्रणमा प्रवन्धप्रगलरामचनमायणन्धनान्यन मनलागल-मननगरमन्त्र यत्र स्तोत्र-विभाग कंतीइणिजिणंतो, सिंदूरं पुहविणंदणो कूरो । जयजंतुअ मयवक्को, सुमंगलो जयउ पहुपासो ॥३॥ उप्पलदलणीलरुइ, हरिमंडल संथुओ इलाणंदा । रयणीयरदारओ मह, चूहोपसीइज्ज पासजिणो ॥४॥ णाहियवाय वियट्टो, गायत्योणायरायकयपूओ । सिरिपासणाहदेवो, देवाय रिओ सुहदिसउ ॥५॥ सारपासणाहदेवी, देवाय रिओ सुहंदिसला रायावट्ट समुज्जलं, तणुप्पहा मंडलोमहाभूई। असुरेहिं णमिजतो, पासजिणंदो कवीजयउ ॥६॥ तिमिरासि समारूढो, संतो दुक्खावहोजयंमिथिरो । बहुल तमासरिससिरी, जयचक्खुसुओ जयउपासो ॥७॥ कवलीकयदोसायर, मायंडरहं अहो तणुविमुक्कं । लोआभरणीभूयं, पासजिणं सत्तमंसरह ॥८॥ दुरिआई पासणाहो, सिंहावमाली णहो भवणकेऊ । दूरंतमरासीओ, सत्तमठाणडिओ हरउ ॥९॥ इय णवगह पुइगमं, जिणपहसूरीहिं गुंफिअं थवणं । तुहपास पढइ जोतं, असुहावि गहा णपीडंति ॥१०॥ वृद्ध णमोकार स्तोत्र कि कप्पत्तरु रे अयाण, चिंतउ मणभिंतरि । किं चिंतामणि कामधेनु, * आराहो बहुपरि ॥ चित्तावेली काज किसे, देसांतर लंघउ। रयणरासि कारण किसे, सायर उल्लंघउ ॥१॥ चवदे पूरव सार, युग लहउ ए णवकार । सयल काज महियल सरे, दुत्तर तरे संसार । केवलि भासिय रीत जिके, नवकार * आराहे । भोगवि सुक्ख अणंत, अंत परम प्पय साहे ॥२॥ इण झाणे सुर * ऋद्धि पुत्त, सुह विलसे बहु परि । इण झाणे सुरलोक इंद, पढ़ पामे सुंदरि॥ एह मंत्र सासतो जपे, अचिंत चिंतामणि एह। समरण पाप सबे टले, ऋद्धि सिद्धि णियगेह ॥३॥ णिय सिर ऊपर झाण, मझ चिंतवे कमल नर । कंचणमय अठदल सहित, तिहां मांह कनकवर ॥ तिहां बैठा अरिहंत देव, पउमासण फिटकमणि । सेय वत्थ पहरेवि पढम पय चिंते णियमणि || णिन्वारय चउ गइ गमण, पामिय सासय सुक्ख । अरिहंत झाण तुम लहो. जिम अजरामर मुक्ख । पनर भेय तिहां सिद्ध वीय पद् जे आराहे । राते विद्रुमतणे वणणिय सोहग साहे ॥५॥ राती धोवत ६ पहर जपें, सिद्धहिं पुल्चे दिसि । सबल लोय तिह नर ही होइ ततखिण ,111 1111LLilIII.।।।।11taI-I'! '.Islator . .... -in ........... -7-11-..Tv ...... .... Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dostostatistasestastacatiooeskotasalasasaradataakaashatanja-kalakankstogetalestioedeoledobhbitabhabhttsaheshtahaletattooltate जैन-रत्नसार wwwwwww www . muvvw. . Parlrlentilalmmerkarfalorlrriatriinfohtotralianimlarlal l मामा मामी भाचा एक गाना का न मा ragor ष्णा -stallat -tabya s नन्न | सेवसि ॥ मूलमंत्र वसीकरण, अवर सहू जगधंध । मणमूली ओषध करे । बुद्धिहीण जाचंध ॥६॥ दक्षिण दिसि पंखड़ी जपे नमो आयरिआणं । सोवणवण्हं सीस सहित उवए सहिणाणं ॥ ऋद्ध सिद्ध कारणे लाभ, ऊपर जे ध्यावे । पहरे पीलावत्थ तेह, मण-वंछिय पावे ॥७॥ इण झाणे णवणिधि हुवे, ए रोग कदे णवि होय । गय रह हय वर पालखी, चामर छत्त सिर जोय ॥ णीलवण्ण उवझाय, सीस पाढंता पच्छिम | आराहिजे अंग पुव्व धारंत मणोरम ॥८॥ पच्छिम दिस पंखडीय कमल ऊपर सुहझाण । जोवौ परमाणंद तासु गय देवविमाण ॥ गुरु लघु जे रक्खे विदुर, तिहां नर बहु फल होइ । मन सूधे विण जे जपे, तिहां फल सिद्ध ण जोइ ॥९॥ सव्व | साधु उत्तर विभाग सामला बइठा । जिण धर्म लोय पयासयंत चारित्र गुण जिट्ठा ॥ मण वयण काएहिं जपे जे एके झाणे । पंचवण्ण तिहां णाण झाण गुण एह पमाणे ॥१०॥ अनंत चौवीसी जग हुए होसी अवर अणंत । आदि कोइ जाणी नही, इण णवकारह मंत ॥ एसो पंच णमुक्कारो, पद दिसिअ गणेहिं । सव्व पावप्पणासणो, पद जपणेरेहिं ॥११॥ वायव दिसि झाएह,मंगलाणं च सव्वेसि । पढमं हवइ मंगलं ईसाण पएसिं ॥ चिहुं दिसि चिहुं विदिसे मिलिय, अठ दल कमल ठवेइ । जो गुरु लघु जाणी जपे, सो घण पाव खवेइ ॥१२॥ इण प्रभाव धरणिंद हुओ, पायालह सामी । समली कुमर उपण्ण भिल्ल, सुर लोयह गामी ॥ संबल कंबल वे बलद पहुता देवा कप्पे । सूली दीधो चोर देवथयो णवकारहि जप्पे ॥१३॥ शिवकुमार मण वंछिय करे, जोगी लियो मसाण । सोणापुरसो सीधलो, इण णवकार पमाण ॥ छींके बैठो। चोर एक आकासेगामी । अहि फिट्टि हुइ फूल माल णवकारह णामी ॥१४॥ वाछरुआ चारंत बाल, जल नदी प्रवाहे । बीध्यों कंटहि उयर मंत्र, जपियो मनमाहे ॥ चिंत्या काज सवे सरे, ईरत परत विमास । पालित सूरितणी परे, विद्या सिद्ध आकास ॥१५॥ चोर धाड संकट टले, राजा वसि होवे।। तित्थंकर सो होइ,लाख गुण विधिसूं जोवे॥ साइण डाइण भूत प्रेत, वेताल न पोहवे । आधि व्याधि ग्रहतणी पीडते, किमहि न होवे ॥१६॥ कुछ जलोदर वनग्रन नयनत्रय प्रश्रवणप्रणयन्त्रपूत्रनयनननननननन attaktet-trimlatest-tmlamillentalaintainlai ntnet -tel-salot. Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JzrtrakARATTERRORERAS T R-1- Arr.... . स्तोत्र-विभाग .. . . रोग सवे नासे एणही मंत । मयणासुंदरितणी परे, णव पय झाण करंत ॥ एक जीह इण मंत्रतणा, गुण किता बखाणूं । णाणहीण छउमत्थ एह, गुण । पार न जाणूं ॥१७॥ जिम सत्तुंजय तित्थराय, महिमा उदवंती । सयल मंत्र धुरि एह मंत्र,राजा जयवंतो ॥ तित्थंकर गणहर पणिय, चवदह पूरव सार । इण गुण अंतन को कहे, गुण गिरुवो णमोकार ॥१८॥ अडसंपय नव पय सहित, इगसठ लहु अक्खर । गुरु अक्खर सत्तेव, इह जाणो परमक्खर ।। गुरु जिण वल्लह सूरि भणे, सिव सुक्खह कारण । णरय तिरय गय रोग सोग, बहु दुक्ख णिवारण ॥१९॥ जल थल महियल वणगहण, समरण हुने इक चित्त । पंच परमेष्ठि मंत्रह तणी, सेवा दीजो नित्त ॥२०॥ श्री भक्तामर स्तोत्र भक्तामर प्रणत मौलि मणि प्रभाणा, सुद्योतकं दलित पापतमो वितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा, वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥ यः संस्तुतः सकलवाङ्गमय तत्त्वबोधा, दुद्भुत बुद्धि पटुभिः सुरलोक नाथैः । स्तोत्रैर्जगत् त्रितयचित्त हरै रुदारैः, रतोष्ये किलाहमपि नं प्रथमं जिनेन्द्रम् ।। २ युग्मम् ॥ धुझ्या विनाऽपि विबुधार्चित पाद पीठ, रतोतुं समुद्यत मतिविगत त्रपोऽहम् । बालं विहाय जल संस्थितमिन्दु बिम्ब, मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥ वक्तुं गुणान् गुण समुद्र शशाङ्क कान्तान्, कस्ते क्षमः सुरगुरु प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त काल पवनोन्डन नक्र चक्रं, को वा तरीतु मलमम्बु निधिं भुजाभ्याम् ||४|| सोऽहं तथापि तय भक्तिवशान्मुनीश, कर्त स्तवं विगत शक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्याऽऽत्म वीर्य मविचार्य मृगो मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निज शिशाः परिपालनार्थम ॥१॥ अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास धाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते वलन्माम् । यत काकिला किलमधौ मधुरं विरोति, तच्चारु चाम्र कलिका निक हेतुः ॥८॥ त्वत् मस्तवेन भव सन्तति सन्निवदं, पापं क्षणात क्षयमुपैति शरीर भाजाम । आकान्त लोक मलि नील मशेपमाशु. मूर्याशु भिन्नमिव शावग्मन्धकारन ॥७॥ मत्वातनाय ! तव संस्तवनं मयेद, मारभ्यते तनुधियाऽपि नव प्रभावान । ------ - 11.4LRLALALA Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ जैन-रत्नसार चेतो हरिष्यति सतां नलिनी दलेषु, मुक्ताफल द्युतिमुपैति ननूद बिन्दुः ॥ ८ ॥ आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्त दोषं त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्र किरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभाञ्जि || ९ || नात्यद्भुतं भुवन भूषण ! भूतनाथ ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं य इह नात्म सम करोति ॥ १० ॥ दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष विलोकनीयं नान्यत्र तोष मुपयाति जनस्य चक्षुः । पीत्वा पयः शशि कर द्युति दुग्ध सिन्धोः, क्षारं जलं जलनिधेरशितुं क इच्छेत् ॥ ११ ॥ यैः शान्तराग रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मापित स्त्रिभुवनैक ललाम भूत । तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं न हि रूप मस्ति ॥ १२॥ वक्त्रं क्व ते सुर नरोरग नेत्र हारि, निःशेष निज्जित जगत्रितयोपमानम् । बिम्बं कलङ्क मलिनं क निशाकरस्य, यद् वासरे भवति पाण्डुपलाश कल्पम् ||१३|| सम्पूर्ण मंडल शशाङ्क कलाकलाप, शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति । ये संश्रितास्त्रि जगदीश्वर नाथमेकं, कस्तान्निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ||१४|| चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभि, नींतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् । कल्पान्त काल मरुता चलिता चलेन, किं मन्दराद्रि शिखरं चलितं कदाचित् ॥१५॥ निर्धूमवर्ति रपवज्र्जित तैलपूरः कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी करोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिता चलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ॥१६॥ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु गम्यः, स्पष्टी करोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोदर निरुद्ध महाप्रवाहः, सूर्याऽतिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र लोके ॥ १७॥ नित्योदयं दलित मोह महान्धकारं, गम्यं न राहु वदनस्य न वारिदानम् । विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प कान्ति, विद्योतयज्जगदपूर्वशशाङ्क बिम्बम् ॥१८॥ किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दु दलितेषु तमस्सुनाथ । निष्पन्न शालि वन शालिनि जीव लोके, कार्य कियजलधरैर्जल भार नम्रः ॥१९॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेज स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं नैवं तु काच शकले " Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र - विभाग ६६७ 3 किरणाकुलेऽपि ||२०|| मन्ये वरं हरि हरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः कचिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥ २१ ॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र रश्मि, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु जालम् ॥२२॥ त्वामा मनन्ति मुनयः परमं पुमांस, मादित्य वर्णममलं तमसः परस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं, नान्यः शिवः शिव पदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः ||२३|| त्वामव्ययं विभुमचिन्त्य - मसङ्खमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनङ्ग केतुम् | योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ज्ञान स्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ||२४|| बुद्धस्त्वमेव विद्युधाचित बुद्धि बोधात् त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रय शंकरत्वात् । धाताऽसि धीर शिवमार्ग विधेर्विधानात् व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ||२५|| तुभ्यं नमस्त्रिभुवनान्र्त्तिहराय नाथ ! तुभ्यं नमः क्षितितला मल भूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि शोषणाय ||२६|| को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै, स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया सुनीश ! दोषै रुपात विषुधाश्रय जात गर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिद पीक्षितोऽसि ||२७|| उच्चैर शोक तरु संश्रितमुन्मयूख, माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त तमो वितानं, बिम्बं वेरिव पयोधर पार्श्ववति ||२८|| सिंहासने मणि मयूख शिखा विचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । बिम्बं वियद्विलसदंशु लता वितानं, तुङ्गो दयात्रि शिरसीव सहस्ररश्मेः ॥२९॥ कुन्दावदात चलचामर चारु शोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौत कान्तम् । उद्यच्छशाङ्क शुचि निर्झर वारिधार, मुच्चैस्तट सुरगिरेरिव शान्त कौम्भम् ॥३०॥ छत्र त्र्यं तव विभाति शशाङ्ककान्त, मुच्चैः स्थितं स्थगित भानु कर प्रतापम् । मुक्ताफल प्रकर जाल विवृद्धशोभं, प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ||३१|| उन्निद्र हेम नव पङ्कज पुञ्जकान्ति, पर्युल्लसन्नख मयूख शिखाभिरामा । पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥ ३२॥ इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र ! धर्मोपदेशन विधौ न तथा परस्य । याहळू प्रभा दिन ܕ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ जैन-रत्नसार कृतः प्रहतान्धकारा, ताहकू कुतो ग्रह गणस्य विकाशिनोऽपि ||३३|| श्च्योतन्मदाविल विलोल कपोल मूल, मत्त भ्रमद् भ्रमरनाद विवृद्ध कोपम् । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदा श्रितानाम् ||३४|| भिन्ने कुम्भ गलदुज्ज्वल शोणिताक्त, मुक्ताफल प्रकार भूषित भूमिभागः । बद्धक्रमः क्रम गतं हरिणाधिपोऽपि नाक्रामति क्रम युगाचल संश्रितं ते ||३५|| कल्पान्त काल पवनोद्धत वह्नि कल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्र - लिङ्गम् । विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं त्वन्नाम कीर्त्तन जलं शमयत्य शेषम् ||३६|| रक्तेक्षणं समद कोकिल कण्ठ नीलं, कोधोद्धतं फणिनमुत्फण मापतन्तम् । आक्रामति क्रम युगेन निरस्त शङ्क, स्त्वन्नाम नाग दमनी हृदि यस्य पुंसः ||३७|| बल्गतरङ्ग गज गर्जित भीम नाद, माजी बल बलवतामपि भूपतीनाम् । उद्यद्दिवाकर मयूख शिखा पविद्धं त्वत्कीर्त्तनात् तम इवाशुभिदामुपैति ॥ ३८ ॥ कुन्ताय भिन्न गज शोणित वारिवाह, वेगावतार तरणातुरयोध भीमे । युद्धे जयं विजित दुर्जय जेय पक्षा, स्त्वत्पाद पंकज वनाश्रयिणो लभन्ते ||३९|| अम्भोनिधौ क्षुभितभीषण नक चक्र, पाठीन पीठ भयदोल्वण वाडवानौ । रङ्गतरङ्ग शिखर स्थित यान पात्रा, स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥ ४० ॥ उद्भूत भीषण जलोदर भार भुम्नाः, शोच्यां दशामुपगताश्च्युत जीविताशाः । त्वत्पादपङ्कज रजोऽमृत दिग्ध देहा, मत्र्त्या भवन्ति मकरध्वज तुल्य रूपाः ॥४१॥ आपाद कण्ठमुरु श्रृङ्खल वेष्टिताङ्गा, गाढं बृहन्निगड कोटि निघृष्ट जङ्घाः । त्वन्नाममन्त्र मनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगत बन्धभया भवन्ति ||१२|| मन्त द्विपेन्द्र मृगराज दवानलाहि, संग्राम वारिधि महोदर बन्धनोत्थम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥ ४३ ॥ स्तोत्र स्त्रजं तव जिनेन्द्र ! गुणैर्निवडां, भक्त्या मया रुचिर वर्ण विचित्र पुप्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्र, तं मान तुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४४॥ नोट - भक्तामर स्तोत्र की उत्पत्ति - - उज्जयिनी नगरी में भोज नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी सभा मे मयूर तथा वाण नामके दो विद्वान् पंडित थे उनमे से मयूर ने सूर्यदेव को प्रसन्न करके स्वकुष्ट रोग को मिटाया, तथा बाण ने चंडी देवी को प्रसन्न करके द Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t hritishatristischikkraistadasarala Stotram स्तोत्र-विभाग ६६६ anana oon nnar aunman rana. r aana ยะให้ไดใจในใจได้ไeel๖๒ คนงานค้น คได้ตรัสไข้ไรในสังกัจจใจฟัดไห้ดใจให้ใครได้ใจได้ใ श्री कल्याण मन्दिर स्तोत्र ___ कल्याणमन्दिर मुदार मवद्यभेदि, भीताभय प्रदमनिन्दित मङ्घ्रिपद्मम् । संसार सागर निमजदशेष जन्तु, पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥ यस्य स्वयं सुरगुरुगरिमाम्बुराशेः, स्तोत्रं सुविस्तृत मतिर्न वि भुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ स्मय धूमकेतो, स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥रयुग्मम्।। सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप, मरमादृशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक शिशुर्यदि वा दिवाऽन्धो, रूपं प्ररूपयति किं किल धर्म रश्मे ॥३॥ मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मो, नूनं गुणान् गणयितुं न तव क्षमेत । कल्पान्त वान्त पयसः प्रकटोऽपि यस्मा, न्मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि, कर्तुं स्तवं लसद सङ्ख्य गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज बाहु युगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाऽम्बुराशेः ॥५॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश, वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः । जाता तदेवमसमीक्षित कारितेयं, जलपन्ति वा निज गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य महिमा जिन ! संस्तवस्ते, नामापि पाति भक्तो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत पान्थ जनान्निदाघे, प्रीणातिपद्म सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिली भवन्ति, जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्म बन्धाः । सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग मभ्यागते वन शिखण्डिनि चन्दनस्य ॥८॥ मुच्यन्त अपने कटे हुए हाथों को जुड़वाया। ये देखकर राजा ने आश्चर्यान्वित होकर वैदिक धर्म की प्रशंसा करने लगे। मत्री ने श्री मानतुंगाचार्य को मिलने की प्रार्थना की। प्रार्थना स्वीकार करके राजा ने आचार्य को बुला कर अपना मन्तव्य प्रगट किया। राजा का मन्तव्य सुन के आचार्य महाराज ने धैर्यपूर्वक उत्तर दिया कि हमारा प्रत्येक कार्य आत्म-धर्म के लिये है, चमत्कार के लिये नहीं ।" ये सुनकर राजा ने क्रोधावेश में आचार्य को गले से पैर तक ४८ सांकलों से जकड़ कर अंधेरी कोठरी में वन्द कर दिया। . कोठरी के अन्दर बैठे हुए आचार्य महाराज ने "भक्तामर स्तोत्र" रूप भगवान अपभदेव की स्तुति की रचना की और चक्रेश्वरी देवी ने स्वयं प्रगट होकर बंधन तोड़ दिये। इस स्तोत्र की ४ गाथार्य भण्डार कर दी गई है। जो कि उपलब्ध नहीं होती और जो में उपलब्ध होती है वे नूतन है। คนได้ในไมไดไไดไได้ ในไตไดไไไไไไไไไไงในโอ..โอไนไพร " " Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tsaticate eduled wwwwwwwwwwwww Anitatistihintakelinikini . నుండును tiatinikaneKKALKAL A ६७० जैन-रत्नसार एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र ! रौद्र रुपद्रव शतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरित तेजसि दृष्ट मात्रे, चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥९॥ त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव, त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून मन्तर्गतस्य मरुतः स किलाऽनुभावः ॥१०॥ यस्मिन् हर प्रभृतयोऽपि हत प्रभावाः, सोऽपि त्वया रति पतिः । क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाऽथ येन, पीतं न किं तदपि दुर्धर वाडवेन ॥११॥ स्वामिन्ननल्प गरिमाणमपि प्रपन्ना, स्त्वां जन्तवः । कथमहो हृदये दधानाः। जन्मोदधिं लघु तरन्त्यति लाघवेन, चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः ॥१२॥ क्रोधस्त्वया यदि विभो प्रथमं निरस्तो, ध्वस्तास्तदा वत कथं किल कर्म चौराः । प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके, नील द्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी ? ॥१३॥ त्वां योगिनो जिन सदा परमात्म रूप, मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुज कोश देशे । पूतस्य निर्मल रुचेर्यदि वा किमन्य, दक्षस्य संभवि पदं ननु कर्णिकायाः ॥१४॥ ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन, देहं विहाय परमात्म दशां व्रजन्ति । तीबानलादुपल भावमपास्य लोके, चामीकरत्व मचिरादिव धातु भेदाः ॥१५॥ अन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं, भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरम्। एतत् स्वरूपमथ मध्य विवत्तिनो हि, यद् विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥१६॥ आत्मा मनीषिभिरयं त्वद भेदबुद्धया, ध्यातो जिनेन्द्र भवतीह भवत् । प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं, किं नाम नो विष विकार मपाकरोति ॥१७॥ त्वामेव वीत तमसं पर वादिनोऽपि, नूनं विभी हरिहरादि धिया प्रपन्नाः । किं काचकामलिभिरीश सितोऽपि शङ्खो, नो गृह्यते विविध वर्ण विपर्ययेण ॥१८॥ धर्मोपदेश समये सविधानुभावा, दास्तां जना भवति ते तरुरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतो स महीरुहोऽपि, किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ॥१९॥ चित्रं विभो कथमवाङ्मुख वृन्तमेव, विष्वक् पतत्य विरला सुर पुप्प वृष्टिः । त्वद्गोचरे सुमनसां यदिवा मुनीश, गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि ॥२०॥ स्थानेगभीर हृदयोदधि kilderlina - -- -- --------- warrassets समन्त्रालयका Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mtrakathatantanshaktoharaaaaaaaaaantitoladamitabtaranteerstakhattsaare स्तोत्र-विभाग anwwarrrrrrr MA PAARADAN animamaniram Ocealedu-LeksekxiKalaka k संभवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परम सम्मद सङ्गभाजो, भव्या ब्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम् ॥२१॥ स्वामिन् सुदूरमवनग्य समुत्पतन्तो, मन्ये वदन्ति शुचयः सुर चामरौघाः । येऽस्मैः नतिं विदधते मुनि पुङ्गवाय ते नून मूर्ध्व गतयः खलु शुद्ध भावाः ॥२२॥ श्यामं गभीर गिरमुज्ज्वल हेम रत्न, सिंहासनस्थमिह भव्य शिखण्डिनस्त्वाम् । आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै, श्वामीकराद्रि शिरसीव नवाम्बुवाहम् ॥२३॥ उद्गच्छता तव शितिद्युति मंडलेन, लुप्तच्छदच्छविरशोक तरुर्बभूव । सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग, नीरागतां ब्रजति को न सचेतनोऽपि ॥२४॥ भो भोः प्रमाद मवधूय भजध्वमेन, मागत्य निर्वृति पुरीं प्रति सार्थवाहम् । एतन्निवेदयति देव जगत्त्रयाय, मन्ये नदन्नभिनभः सुर दुन्दुभिस्ते ॥२५॥ उद्योषितेषु भवता भुवनेषु नाथ, तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः । मुक्ता कलाप कलितोच्छ्वसितातपत्र, व्याजास्त्रिधा धृत तनुर्बुवमभ्युपेतः ॥२६॥ स्वेन प्रपूरित जगत् त्रय पिण्डितेन, कान्ति प्रताप यशसामिव सञ्चयेन । माणिक्य हेम रजत प्रविनिर्मितेन, साल येण भगवन्नभितो विभासि ॥२७॥ दिव्यस्रजो जिन नमन्त्रिदशाधिपाना, मुत्सृज्य रत्न रचितानपि मौलि बन्धान । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमन्त एव ॥२८॥ त्वं नाथ जन्म जलधेविपराङ्मुखोऽपि, यत्तारयस्य सुमतो निज पृष्ठ लग्नान् । युक्तं हि पार्थिव निपस्य सतस्तवैव, चित्रं विभो यदसि कर्म विपाक शून्यः ॥२९॥ विश्वेश्वरोऽपि जनपालक दुर्गतस्त्वं, किं वाऽक्षर प्रकृतिरप्य लिपिस्त्वमीश । अज्ञान वत्यपि सदैव कथञ्चिदेव, ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्व विकाश हेतुः ।।३०। प्राग्भार सम्भृत नभांसि रजांसि रोषा, दुत्थापितानि कमठेन सठन यानि । छायाऽपि तैस्तव न नाथ हता हताशो, ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव पर दुरात्मा ॥३१॥ यद्ग दुर्जित घनौधमदभ्रभीम, भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरधारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तर वारि दध्र, ते नैव तस्य जिन दुस्तरवारि कृत्यम् ॥३२॥ ध्वस्तोर्ध्वकेश विकृताकृति मर्त्यमुण्ड, प्रालम्बभृद्भयद्वक्र विनियंदग्निः। प्रेतब्रजः प्रति भवन्तमपीरितो यः, सोऽस्याभव akakakakakakakakakakakakakaka k istani Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Paww YCHASE Ekohli-EMALEKHAKEEEEEEEEEEEEES जैन-रत्नसार प्रतिभवंभवदुःख हेतुः ॥३३॥ धन्यास्त एव भुवनाधिप ये त्रिसन्ध्य, माराधयन्ति विधिवद्विधुतान्य कृत्याः। भक्त्योल्लसत्पुलक पक्ष्मल देहदेशाः, पादद्वयं तव विभो भुवि जन्मभाजः ॥३४॥ अस्मिन्नपारभव चारिनिधौ मुनीश, मन्ये न मे श्रवण गोचरतां गतोऽसि । आकर्णिते तु तव गोत्र पवित्र मन्त्रे, किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति ॥३५॥ जन्मान्तरेऽपि तव पाद युगं न देव, मन्ये मया महितमीहित दानदक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥३६॥ नूनं न मोह तिमिरावृत लोचनेन, पूर्व विभो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनाः , प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः कथमन्यथैते ? ॥३७॥ आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं, यस्मानियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥३८॥ त्वं नाथ ! दुःखिजनवत्सल हे शरण्य ! कारुण्यपुण्यवसते वशिनां वरेण्य । भक्त्या नते मयि महेश दयां विधाय, दुःखाङकुरोद्दलन तत्परतां विधेहि ॥३९॥ निःसङ्घयसार शरणं शरणं शरण्य मासाद्य सादितरिपुप्रथितावदातम् । त्वत्पादपङ्कज मपि प्रणिधान बन्ध्यो, वध्योऽस्मि चेद् भुवनपावन ! हा हतोऽस्मि ॥४०॥ देवेन्द्र वन्द्य विदिताखिल वस्तुसार, संसारतारक ! विभो ! भुवनाधिनाथ । त्रायस्व देव करुणाहद मां पुनीहि, सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः ॥४१॥ यद्यस्ति नाथ भवदंघि सरोरुहाणां, भक्तः फलं किमपि सन्तति सञ्चितायाः । तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः, नोट-इस स्तोत्र के रचयिता श्री सिद्धसेन दिवाकर उपनाम कुमुदचन्द्राचार्य थे। एकदा वृद्धवादीजी से, गोवालियों के सन्मुख शास्त्रार्थ मे पराजित होने पर इन्होंने वृद्धवादीजी से दीक्षा ली। अपनी कवित्व शक्ति की योग्यता से ये उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के यहां राजगुरु पद से विभूषित किये गये। राजा विक्रमादित्य को जैनधर्म में प्रविष्ट कराने के लिए राजा के साथ मंदिर में जाकर "कल्याणमंदिर स्तोत्र" की ४८ गाथायें रचना करके शिवपिण्डि में से भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा प्रगट करी। इस महिमा को देखकर राजा पूर्णरूपेण जैनधर्म का अनुयायी हो गया। इसको ४ गाथायें भण्डार कर दी गयी है जोकि उपलब्ध नहीं होती और जो उपलब्ध होती हैं वे नूतन हैं। MAHATMASALMessam स HTML Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jastetatestradailedestiniantatistiatiarth thataliathlinkhalilinbalikgolo talathiantasanlalbilentinesstatestantanaak SAFircle a s h नननननननननननननननननन प्रश्रमपनमनत्रानन्त्रप्रपत्र नपत्रचन्नप्रयन्त्रनयन्त्रनयन्त्रवत्रत्रमप्रभमत्रम्मग्रन्यत्रचन्यन्त्रमाणपत्रपन्नगग स्तोत्र-विभाग स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥४२॥ इत्थं समाहितधियो विधि विजिनेन्द्र, सान्द्रोल्लसत्पुलककञ्चुकिताङ्गभागाः । त्वद् बिम्ब निर्मल मुखाम्युज बद्धलक्षाः, ये संस्तवं तव विभो रचयन्ति भव्याः ॥४३॥ जननयन 'कुमुद चन्द्र'* प्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो भुक्त्वा । ते विगलितमल निचया, अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥४४॥ युग्मम् । जिनपञ्जर स्तोत्र ___ॐ ह्रीं श्रीं अहं अर्हद्भ्यो नमो नमः । ॐ ह्रीं श्रीं अहं सिद्धेभ्यो नमो * नमः ॥ ॐ ह्रीं श्रीं अहंआचार्येभ्यो नमोनमः। ॐ ह्रीं श्रीं अहं उपाध्यायेभ्यो नमो नमः ॥ ॐ ह्रीं श्रीं अहं श्री गौतम स्वामी प्रमुख सर्वसाधुभ्यो नमो नमः ॥१॥ एष पञ्चनमस्कारः, सर्व पाप क्षयंकरः । मङ्गलाणां च सर्वेषां, प्रथमं भवति मङ्गलम् ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीं जये विजये, अहं परमात्मने नमः । * कमल प्रभ सूरीन्द्रो, भाषते जिनपञ्जरम् ॥३॥ एक भक्तोपवासेन, त्रिकालं यः पठेदिदम् । मनोऽभिलषितं सर्व, फलं स लभते ध्रुवम् ॥४॥ भूशय्या , ब्रह्मचर्येण, क्रोध लोभ विवर्जितः । देवताने पवित्रात्मा, षण्मासैर्लभते । फलम् ॥५॥ अहंन्तं स्थापयेद् मूर्ध्नि, सिद्धं चक्षुर्ललाटके । आचार्य श्रोतयो1 मध्ये, उपाध्यायं तु घ्राणके ॥६॥ साधुवृन्दं मुखस्याग्रे, मनः शुद्धं विधाय च । सूर्य चन्द्र निरोधेन, सुधीः सर्वार्थ सिद्धये ॥७॥ दक्षिणे मदनद्वेषी, वाम पार्वे स्थितो जिनः। अङ्ग संधिषु सर्वज्ञः, परमेष्ठी शिवङ्करः ॥८॥ पूर्वाशां श्री जिनो रक्षे, दाग्नेयीं विजितेन्द्रियः। दक्षिणाशां परब्रह्म, नैऋती च त्रिकालवित् ॥९॥ पश्चिमाशां जगन्नाथो, वायवीं परमेश्वरः । उत्तरां तीर्थकृत सर्वामीशाने च निरञ्जनः ॥१०॥ पातालं भगवानहन्नाकाशं पुरुषोत्तमः । रोहिणी प्रमुखा देव्यो, रक्षन्तु सकलं कुलम् ॥११॥ ऋषभो 1 मस्तकं रक्षे, दजितोऽपि विलोचने । संभवः कर्णयुगलं, नासिका चाभिनन्दनः ॥१२॥ ओष्ठौ श्री सुमती रक्षेद्, दन्तान् पद्मप्रभो विभुः । जिह्वा भक्तामर स्तोत्र के बनाने वाले आचार्यों का विक्रमीय सम्बत् ६३१ के करीब है। * कल्याणमन्दिर स्तोत्र के वनाने वाले आचार्य का समय इतिहासकारों ने विक्रम सम्वत् ५०० के करीब माना है। ( 1 ไl, Yvel๖ ไดไไไดได้โทใจในไอจใใใดไว้ใจได้ ให้ไซไว้ใจในปัญจาคได้ ได้ ได้ ได้รักใคอไปคให้ไวไวไกะไดไไไดไปัจใใใใใe 121ใดไซไตใจได้ใจไดไไไไไไดไไขในใจใน ! ! ไ9 ग नगा 85 Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kontakartanslalasletebatestpossalobinetablesboboboy3gttamnashilshthbaabtootstart n. vivwwwunv www vvvvvw vw vwwwww www "शत्रचन्नप्रन्प्रनय श्रवन्धमाननगन्याप्रमग्राम प्रधानमनप्रमाणपत्रण नयननननननन ६७४ जैन-रनसार सुपार्श्व देवोऽयं तालु चन्द्र प्रभाभिधः ॥१३॥ कंठं श्री सुविधि रक्षेद्, हृदयं च श्री शीतलः । श्रेयांसो बाहु युगलं, वासुपूज्य कर द्वयम् ॥१४॥ अंगुलीविमलो रक्षेद्, अनन्तोऽसौ स्तनावपि।सुधर्मोऽप्युदरास्थीनि, श्री शांति भिमण्डलम् ॥१५॥ श्री कुन्थुर्गुह्यकं रक्षे, दरो रोम कटी तटम् । मल्लि रू रु पृष्ठ वंशं, जङ्घ च मुनि सुत्रतः॥१६॥ पादांगुलीनमी रक्षेत् , श्री नेमिश्चरण द्वयम् । श्री पार्श्वनाथ सर्वाङ्ग, वर्द्धमानश्चिदात्मकम् ॥१७॥ पृथ्वी जल तेजस्क, वाय्वाकाश मयं जगत् । रक्षेदशेष पापेभ्यो, वीतरागो निरञ्जनः ॥१८॥ राजद्वारे श्मशाने वा, संग्रामे शत्रु संकटे । व्याघ्र चौराग्नि सर्पादि, भूत प्रेत भयाश्रिते ॥१९॥ अकाल मरणे प्राप्ते, दारिद्र्यापत्समाश्रिते। अपुत्रत्वे महादोषे, मूर्खत्वे रोग पीडिते ॥२०॥ डाकिनी शाकिनी प्रस्ते, महाग्रह गणादिते । नद्युत्तारेऽध्व वैषम्ये, व्यसने चापदि स्मरेत् ॥२१॥ प्रातरेव समुत्थाय, यः स्मरेजिनपंजरम् । तस्य किंचिद् भयं नास्ति, लभते सुख सम्पदम् ॥२२॥ जिनपञ्जरनामेदं, यः स्मरत्यनुवासरम् । कमल प्रभ राजेन्द्र, श्रियं स लभते नरः ॥२३॥ प्रातः समुत्थाय पठेत् कृतज्ञो, यः स्तोत्र मेतजिनपञ्जराख्यम् । आसादयेच्छ्री कमल प्रभाख्यं, लक्ष्मी मनोवाञ्छित पूरणाय ॥२४॥ श्री रुद्रपल्लीय वरेण्य गच्छे, देवप्रभाचार्य पदाब्ज हंसः । वादीन्द्र चूड़ामणिरेष जैनो, जीयाद् गुरु श्री कमल प्रभाख्यः ॥२५॥ श्री क्षमाकल्याणोपाध्याय विरचितं ऋषिमण्डलं स्तोत्रम् आद्यन्ताक्षर संलक्ष्य, मक्षरं व्याप्य यत स्थितम् । अग्निज्वाला समं नादं, विन्दु रेखा समन्वितम् ॥१॥ अग्निज्वाला समाक्रान्तं, मनो मल विशोधकम् । देदीप्यमानं हृत्पञ, तत्पदं नौमि निर्मलम् ॥२॥ अहमित्यक्षरं ब्रह्म, वाचकं परमेष्ठिनः । सिद्ध चक्रस्य सद्बीजं, सर्वतः प्रणिध्महे ॥३॥ ॐ नमोऽहद्भ्य ईशेभ्य, ॐ सिद्धेभ्यो नमो नमः । ॐ नमः सर्व सूरिभ्य, उपाध्यायेभ्य ॐ नमः ॥४॥ ॐ नमो सर्व साधुभ्य, ॐ ज्ञानेभ्यो नमो नमः ।। ॐ नमस्तत्त्वदृष्टिभ्य, श्वारित्रेभ्यस्तु ॐ नमः॥५॥ श्रेयसेऽस्तु श्रियेऽस्त्वेत, दहदाद्यष्टकं शुभम् । स्थानेष्वष्टसु विन्यस्तं, पृथग्बीजसमन्वितम् ॥६॥ आयं Philidarithitillatolinaikelatik-Triantaleslotirlslatiotahistirlialadbilelestinikrclearindavanitalialtosbileolalariatalalalitalaletalalagitatinathtriantiplelonlold -... मानवमलनगणकप्रणयनपत्रमा प्रकार Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ph स्तोत्र-विभाग A nmnanARAMI amanna....... . . पदं शिखां रक्षेत्, परं रक्षतु मस्तकम् । तृतीयं रक्षनेत्रे हे, तूर्यं रक्षेच्च नासिकाम् ॥७॥ पञ्चमं तु मुखं रक्षेत्, षष्ठं रक्षेतु घण्टिकाम् । नाभ्यन्तं सप्तमं रक्षेद्, रक्षेत पादान्तमष्टमम् ॥८॥ पूर्व प्रणवतः सान्तः, सरेको द्वचब्धिपञ्चषान् । सप्ताष्टदशसूर्याङ्कान, श्रितो बिन्दु स्वरान् पृथक् ॥९॥ पूज्य नामाक्षरा द्यास्तु, पञ्चातो ज्ञानदर्शन । चारित्रेभ्यो नमो मध्ये, ह्रीं सान्तसमलंकृतः ॥१०॥ ॐ हां, ह्रीं, ह, ह ह हूँ ह्रीं ह्रः, आसिआउसा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रेभ्यो नमः । जम्बूवृक्ष धरो द्वीपः, क्षारोदधिसमावृतः ॥ | अर्हदाद्यष्टकैरष्ट,काष्ठाधिष्ठे रलंकृतः॥११॥ तन्मध्येसंगतो मेरुः, कूटलक्षैरलंकृतः । उच्चैरुच्चैस्तरस्तार, तारामण्डलमंडितः ॥१२॥ तस्योपरि सकारान्तं, बीज मध्यस्य सर्वगम् । नमामि बिम्ब माहंत्यम् ललाटस्थं निरञ्जनम् ॥१३॥ 3. अक्षयं निर्मलं शान्तं, बहुलं जाड्य तोज्झितम् । निरीहं निरहङ्कार, सारं म. सारतरं धनम् ॥१४॥ अनुद्धतं शुभं स्फीतं, सात्विकं राजसं मतम् । तामसं चिरसम्बुद्ध, तेजसं शर्वरी समम् ॥१५॥ साकारं च निराकारं, सरसं विरसं परम् । परापरं परातीतं, परम्परपरापरम् ॥१६॥ एकवर्णं द्विवर्णं च, त्रिवर्ण तूर्यवर्णकम् । पञ्चवर्ण महावणं, सपरं च परापरं ॥१७॥ सकलं निष्कलं तुष्टं, निर्भूतं भ्रान्तिवर्जितम् । निरञ्जनं निराकार, निलेप बीत संश्रयम् । * ॥१॥ ईश्वरं ब्रह्म सम्बुद्धं, बुद्धं सिद्धं मतं गुरुम् । ज्योति रूपं महादेवं, लोकालोक प्रकाशकम् ॥१९॥ अर्हदाख्यस्तु वर्णान्तः, सरेफो बिन्दुमण्डितः । तूर्य स्वर समायुक्तो, बहुधा नाद मालितः ॥२०॥ अस्मिन् बीजे स्थिताः सर्वे, ऋषभाद्या जिनोत्तमाः । वर्णै निजैनिजैर्युक्ता, ध्यातव्यास्तत्र संगताः । ॥२१॥ नादश्चन्द्र समाकारो, विन्दुनील समप्रभः। कलारुण समासान्तः, वर्णाभः सर्वतोमुखः ॥२२॥ शिरः संलीन ईकारो, विनीलो वर्णतः स्मृतः । वर्णानुसार संलीनं, तीर्थकृन्मण्डलंस्तुमः ॥२३॥ चन्द्रप्रभ पुप्पदन्ती, नादस्थिति समाश्रितौ । बिन्दुमध्यगतौ नेमि, सुब्रतो जिनसत्तमौ ॥२४|| पद्म प्रभ वासुपूज्यौ, कलापदमधिश्रितो । शिरसि स्थिति संलीनी, पार्श्वमल्ली जिनेश्वरौ ॥२५|| शेषास्तीर्थकतः सर्वे, हरस्थाने नियोजिताः। मायावीजा- : क्षरं प्राप्ता, श्चतुर्विंशतिरहताम ॥२६॥ गत राग द्वेष मोहाः, सर्व पाप attatoketaketali-latef and entertairteenteplendark cirrkat rintmtaalentratisthatant-stretaliatelierekalertstakalukal doleelalalaletilesterloolrekisekshi irishist..nirmirentina init.lnirni.think.inhint fortunatelah kesath hinkita ta lantato theirekplantata Jamkerlentn fola total-thlata in nhalininthintatistitudeletalathistainabalein. t Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Juvur HTT" adivaTinyलमा प्रजचन्द्र कल्याणमन्यन्त्रण SAL-Errolarlandor-line -franilinionlinforliariousanlaolatorlaniantasinarianiopanloads a जैन-रत्नसार areewa विवर्जिताः। सर्वदा सर्वकालेषु, ते भवन्तु जिनोत्तमाः ॥२७॥ देवदेवस्य । यच्चक्र, तस्य चक्रस्य या विभा। तयाच्छादित सर्वाङ्ग, मा मां हिंसन्तु डाकिनी ॥२८॥ देवदेवस्य यच्चक्र० मा मां निघ्नन्तु राकिनी ॥२९॥ देवदेवस्य । यच्चक्र० मा मां निघ्नन्तु लाकिनी ॥३०॥ देवदेवस्य यच्चक्र० मा मां हिंसन्तु काकिनी ॥३१॥ देवदेवस्य यच्चक्र० मा मां हिंसन्तु शाकिनी ॥३२॥ देव देवस्य यच्चक्र० मा मां निघ्नन्तु हाकिनी ॥३३॥ देवदेवस्य यच्चक्र० मा मां निघ्नन्तु याकिनी ॥३४॥ देवदेवस्य यच्चक्र० मा मां हिंसन्तु पन्नगाः ॥३५॥ देव दे. य० मा मां हिंसन्तु हस्तिनः ॥३६॥ देव दे. य० मा मां निधन्तु । राक्षसाः ॥३७॥ देव दे० य० मा मां निघ्नन्तु वह्नयः॥३८॥ देव दे० य० मा मां हिंसंतु सिंहकाः ॥३९॥ देव दे. य० मा मां निघ्नन्तु दुर्जनाः ॥४०॥ देव दे. यच्चक्र० मा मां निघ्नन्तु भूमिपाः ॥४१॥ श्री गौतमस्य या मुद्रा, तस्या या भुवि लब्धयः । ताभिरभ्युद्यत ज्योति, रहं सर्व निधीश्वराः ॥४२॥ पातालवासिनो देवाः, देवा भूपीठवासिनः । स्वर्वासिनोऽपि ये देवाः, सर्वे रक्षन्तु मामितः ॥४३॥-येऽवधिलब्धयो ये तु, परमावधिलब्धयः । ते सर्वे मुनयो देवाः, मां संरक्षन्तु सर्वदा ॥४४॥ दुर्जना भूत बेतालाः, पिशाचा मुद्गलास्तथा । ते सर्वेऽप्युपशाम्यन्तु, देव देव प्रभावतः ॥४५॥ ॐ ह्रीं श्रीश्च । धृतिर्लक्ष्मीः, गौरी चण्डी सरखतो । जयाम्बा विजया नित्या, क्लिन्नाजिता मद द्रवा ॥४६॥ कामाङ्गा कामबाणा च, सानन्दा नन्दमालिनी । माया मायाविनी रौद्री, कला काली कलिप्रिया ॥४७॥ एताः सर्वा महा देव्यो, वर्तन्ते । या जगत्त्रये । मह्यं सर्वाः प्रयच्छन्तु, कान्ति कीर्ति धृति मतिम् ॥४॥ दिव्यो गोप्यः सदुष्प्राप्यः, ऋषिमण्डलसंस्तवः। भाषितस्तीर्थनाथेन, जगत्त्राणकृतेऽनघः ॥४९॥ रणे राजकुले वह्नौ, जले दुर्गे गजे हरौ । श्मशाने विपिने घोरे, स्मृतो रक्षति मानवम् ॥५०॥ राज्य भ्रष्टा निजं राज्यं, पदभ्रष्टा निजं पदम् । लक्ष्मी भ्रष्टा निजां लक्ष्मी, प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥५१॥ भार्यार्थी लभते भायों, पुत्रार्थी लभते सुतम् । वित्तार्थी लभते वित्तं, नरः स्मरण मात्रतः ॥५२॥ स्वर्णे रूप्ये पटे कांस्ये, लिखित्वा यस्तु पूजयेत् । तस्यैवेष्टमहासिद्धि, हे वसति शाश्वती ॥५३॥ भूर्जपत्रे लिखित्वेदं, गलके সুক্ষণক্ষকগঞ্জ মুন্সিগঞ্জশ্বস্ব লক্ষ-লক্ষণশণশিক bkartababisaacstorbitatistulanto-danimaterialiantarbasnionistakokuraril a t erinlain Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७७ स्तोत्र-विभाग ।।। tartstatestairsststar. ।। u ।Sa I-at-sti-fulti-ferintestialestestostatestansolekarina -11 - मनिं वा भुजे । धारितं सर्वदा दिव्यं, सर्व भीति विनाशकम् ॥५४॥ भूतै । प्रेतैग्रहैयौः, पिशाचैर्मुद्गलैर्मलैः । वात पित्त कफोद्रेक मुच्यते नात्र संशयः ! ॥५५॥ भूर्भुवः खस्त्रयीपीठ, वर्तिनः शाश्वता जिनाः । तैः स्तुतैर्वन्दितैदृष्टै, यत् फलं तत्फलं श्रुतौ ॥५६॥ एतद्गोप्यं महास्तोत्रं, न देयं यस्य कस्यचितं । मिथ्यात्ववासिनो दत्ते, बालहत्या पदेपदे ॥५७॥ आचाम्लादि तपः । कृत्वा, पूजयित्वा जिनावलीम् । अष्टसाहस्त्रिको जापः, कार्यस्तत्सिडिहेतवे । ॥५८॥ शतमप्टोत्तरं प्रात, ये पठन्ति दिने दिने । तेषां न व्याधयो देहे, E प्रभवन्ति न चापदः ॥१९॥ अष्टमासावधिं यावत् , नित्यं प्रातस्तु यः पठेत् ।। स्तोत्रमेतद् महातेजो, जिनबिम्बं स पश्यति ॥६०॥ दृष्टे सत्यर्हतो बिम्बे, भवे सप्तमके ध्रुवम् । पदं प्राप्नोति शुद्धात्मा, परमानन्द नन्दितः ॥६१॥ विश्ववन्यो भवेद् ध्याता, कल्याणानि च सोऽश्नुते । गत्वा स्थानं परं सोऽपि, भूयस्तु न निवर्त्तते ॥६२॥ इदं स्तोत्रं महास्तोत्रं, स्तवानामुत्तमं परम् । पठनात्स्मरणाज्जापाल्लभ्यते पदमुत्तमम् ॥६३॥ श्री मल्लिनाथ जिन स्तोत्र ___ जन समुदय हंसे क्ष्वाकु वंशा वतंसो, बुध जन मत कुम्भ श्री प्रभावत्यपत्यम् । शशि सित दल मार्गकादशी लब्ध जन्मा, स जयति जन बन्यो मल्लिनाथो जिनेन्दुः ॥२॥ मदयति मिथिला यज्जन्म सम्प्राप्त कीतिः, शत कर वर मानं श्यामलं यस्य देहम् । कलश कलित जानु भानुमाँल्लोक नेता, स जयति जनवन्यो मल्लिनाथो जिनेन्दुः ॥२॥ सहसि चरम शिक्षा येन दीक्षा गृहीता, सित दल हरि तिथ्यां कात्तिके ज्ञान माप्तम् । अनल शत गणानां नायको यस्य कुम्भः, स जयति जन वन्द्यो मल्लिनाथो । जिनेन्दुः ॥३॥ अधिक दश सहस्रणेह लक्षेण सम्यक् , कृत पद युगलाची जन सन्यासिभियं । सकल सर सुरस्त्री ज्ञान सन्दोह दाता. स जयति जन:: बन्यो मल्लिनाथो जिनेन्दुः ॥॥ युग वसु युत लक्ष श्रावकः श्राविकाभिः, युगल नग समेतैर्वहि लक्षैश्चलब्धः । जिन वचन विवेको येन यः पूजितस्तैः, स जयति जन वन्यो मल्लिनाथो जिनेन्दुः ॥५॥ सुर वरुण कुबेराक्रान्त -15definitil 1-1-lirlna . 1-1 n- .L...La Hot-kledist- i - stral-AKH u abelselfat-LId.t.lantulanderl - - - L Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Baislmanimalasahelalpostmairtedamakreothoravintrodulatodaaadimadisatolasarishtalesedaalaakshabeatsaatdeshikskakkadashaasaka vvvvvvvvvv Resourabhramayanghakubalasonakashinkalaanwarksattatulantosraddhanandrakaas merolamaratisexleelaskalenlafaalisacobailablisonunaceasonlosasaraplosing on colonialanottomiskoolgoldadulkalinsaalaalaimadancorelialekatrakootoantravasasarbastsbulaeolocasiasahsasticoamastaanadaasanslasstation १६७८ जैन-रत्नसार सम्मेत शृङ्गे, शितिदल नव शुक्ले येन निर्वाण माप्तम् । वर मति नरदत्ता यक्षिणी दुःखहारी, स जयति जनवन्धो मल्लिनाथो जिनेन्दुः ॥६॥ पूज्यपाद गुरुश्रेष्ठो रत्नसूरि स्व संघकम्। अपायात्सर्वदापायान्मोतीचन्द्रोऽहमर्थये ॥७॥ वृहत् शान्ति भो भो भव्याः ! शृणुत वचनं, प्रस्तुतं सर्व मेतद् । ये यात्रायां त्रिभुवनगुरो, राहतां भक्ति भाजः।। तेषां शान्तिर्भवतु भवता मर्हदादि प्रभावा । दारोग्य श्री धृतिमति करी क्लेश विध्वंस हेतुः ॥१॥ भो भो भव्यलोका ! इहहि भरतैरावतविदेहसम्भवानां समस्ततीर्थकृतां जन्मन्यासन प्रकम्पानन्तरमवधिना विज्ञाय सौधर्माधिपतिः सुघोषाधण्टा चालनानन्तरं सकल सुरासुरेन्द्रैः सह समागत्य सविनयमहद् भट्टारकं गृहीत्वा गत्वा कनकादिशृङ्गे विहित जन्माभिषेकः शान्तिमुद्घोषयति यथा ततोऽहं कृतानुकारमिति कृत्वा "महाजनो येन गतः स पन्थाः” इति भव्य जनैः सह समागत्य स्नात्र पीठे स्नानं विधाय शान्ति मुद्घोषयामि, तत्पूजायात्रास्नानादि महोत्सवानन्तरमिति कृत्वा कर्ण दत्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा। ॐ पुण्याहं पुण्याहं प्रीयन्तां प्रीयन्तां भगवन्तोऽर्हन्तः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिन स्त्रिलोकनाथा स्त्रिलोकमहिता स्त्रिलोकपूज्या स्त्रिलोकेश्वरा स्त्रिलोकोद्योतकराः। ॐ श्री केवलज्ञानि, निर्वाणि, सागर, महायश विमल सर्वानुभूति श्रीधर दत्त दामोदर सुतेज स्वामि मुनिसुव्रत सुमति शिवगति अस्ताग नमीश्वर अनिल यशोधर कृतार्थ जिनेश्वर शुद्धमति शिवकर स्यन्दन सम्प्रति एते अतीत चतुर्विंशति तर्थङ्कराः ।। ॐ श्री ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन सुमति पद्मप्रभ सुपार्श्व चन्द्रप्रभ सुविधि शीतल श्रेयांस वासुपूज्य विमल अनन्त धर्म शान्ति कुन्थु अर मल्लि मुनिसुव्रत नमि नेमि पार्श्व वईमान एते वर्तमान जिनाः । ॐ श्री पद्मनाभ शूरदेव सुपार्श्व स्वयंप्रभ सर्वानुभूति देवश्रुत उदय पेढाल पोटिल शतकीर्ति सुव्रत अमम निष्कषाय निष्पुलाक निर्मम चित्रगुप्त समाधि सम्वर यशोधर विजय मल्लि देव अनन्तवीर्य भद्रङ्कर एते भावि तीर्थकराः जिनाः शान्ताः शान्तिकरा भवन्तु स्वाहा । hakakaasholalantopatelminto larka frampannah907232- mm-"-2502277 नाममायालल्लूकललालकृष्णनन्द्रप्रयास्त्रमनपत्रमा Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vakaastatestastmtarteelataletastaantasangathmandutodayashilosoranslakathakatana k lolarlalah kharabtalatahikitinathththairmi ६७६ पत्रप्रन्त्र मन्त्रण प्रणश्रम मन्त्र पत्र-यन्त्रनयन्त्रन्यायधन्यवनप्रनम्न स्तोत्र-विभाग ..mmmmmmmon . . . ... ... .. ॐ मुनयो मुनिप्रवरा रिपुविजय दुर्भिक्षकान्तारेषु दुर्गमागेंषु रक्षन्तु वो नित्यं स्वाहा । ॐ श्री नाभि जितशत्रु जितारि सम्बर मेघ धर प्रतिप्ठ । महसेन सुग्रीव दृढ़रथ विष्णु वासुपूज्य कृतवर्म सिंहसेन भानु विश्वसेन सूर सुदर्शन कुम्भ सुमित्र विजय समुद्र विजय अश्वसेन सिद्धार्थ इति वर्तमान चतुर्विशति जिन जनकाः। ___ॐ श्री मरुदेवी विजया सेना सिद्धार्था सुमङ्गला सुसीमा पृथिवी माता लक्ष्मणा रामा नन्दा विष्णु जया श्यामा सुयशा सुव्रता अचिरा श्री देवी प्रभावति पद्मा वप्रा शिवा वामा त्रिशला इति वर्तमान जिन जनन्यः । ॐ श्री गोमुख महायक्ष त्रिमुख यक्षनायक तुम्बरु कुसुम मातङ्ग विजय अजित ब्रह्मा यक्षराज कुमार षण्मुख पाताल किन्नर गरुड गन्धर्व यक्षराज कुबेर वरुण भृकुटि गोमेध पार्श्व ब्रह्मशान्ति इति वर्तमान जिन यक्षाः। ॐ चक्रेश्वरी अजितबला दुरितारी काली महाकाली श्यामा शान्ता भृकुटि सुतारका अशोका मानवी चण्डा विदिता अंकुशा कन्दर्पा निर्वाणी बला धारिणी धरणप्रिया नरदत्ता गान्धारी अम्बिका पद्मावती सिद्धायिका इति में वर्तमान चतुर्विंशति तीर्थंकर शासन देव्याः शान्ताः शान्तिकरा भवन्तु स्वाहा। ॐ ह्रीं श्रीं धृति मति कीर्ति कान्ति बुद्धि लक्ष्मी मेधा विद्या साधन प्रवेश निवेशनेषु सुगृहीतनामानो जयन्तु ते जिनेन्द्राः । ॐ रोहिणी प्रज्ञप्ति वज्रशृङ्खला वज्रांकुशा अप्रतिचक्रा पुरुषदत्ता काली * महाकाली गौरी गान्धारी सर्वास्त्रमहाज्वाला मानवी वैरोट्या अच्छुन्ना मानसी महामानसी एता षोड़श विद्या देव्यो रक्षन्तु मे स्वाहा । ___ॐ आचार्योपाध्यायप्रभृतिचातुर्वर्णस्य श्री श्रमणसंघस्य शान्तिर्भवतु Anded ldkikat alreadinidadtadirakoria ka oolkarjankakairwin Sutalathki fotokarokte: nokarkiata lodaalatakiantak katalel de lonkonkak-Tokatok the latola प्रधानमन्त्रधश्रधश्रश्रयन्नयनत्रन्त्र नम्वन्धधधश्रधश्रधश्रश्रवनचन्न धचत्रनयनानन्त्रमन्त्री IITE ॐ तुष्टिर्भवतु पुष्टिर्भवतु। ॐ ग्रहाश्चन्द्रसूर्याङ्गारक बुद्ध बृहस्पति शुक्र शनैश्वर राहु केतु सहिताः सलोक पालाः सोम यम बरुण कुबेर वासवादित्य स्कन्द विनायका ये चान्येऽपि ग्राम नगर क्षेत्र देवतादयस्ते सर्वे प्रीयन्तां, प्रीयन्तां अक्षीण कोप कोठागारा नरपतयश्च भवन्तु स्वाहा । ॐ पुत्र मित्र भ्रातृ कलत्र सुहृत स्वजन सम्बन्धि वन्धुवर्ग सहिता नित्यं tota1 14.1.kaka ka fatat .. Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tarameto-abrotela.jantaintmleadinewbmastetbalatsetstatutobihtakalakshanakasakaseek.rensteadtattra ६८० जैन-रत्नसार kahtwitmanakatalarasala.larkiolakalmoulieonlinlierlink latakirls lifornambkmarknationalishaliphalonlistasireestorebrielanathborholiolakrilalbhah oorsastadtabasette चामोद प्रमोदकारिणः ।अस्मिंश्च भूमंडलेआयतन निवासिनां साधुसाध्वीश्रावक श्राविकाणां रोगोपसर्ग व्याधि दुःख दुर्भिक्ष दौर्मनस्योपशमनाय शान्तिर्भवतु। ॐ तुष्टि पुष्टि ऋद्धि बृद्धि माङ्गल्योत्सवाः सदा प्रादुर्भूतानि पापानि शाम्यन्तु दुरितानि शत्रवः पराङ्मुखा भवन्तु स्वाहा। श्रीमते शान्तिनाथाय, नमः शान्ति विधायिने । त्रैलोकस्यामराधीश मुकुटाव्यचिंताम्रये ॥१॥ शान्तिः शान्तिकरः श्रीमान्, शान्ति दिशतु मे गुरुः । शान्तिरेव सदा तेषां, येषां शान्ति हे गृहे ॥२॥ ॐ उन्मृष्ट रिष्ट दुष्ट ग्रह गति, दुःस्वप्न दुनिमित्तादि । सम्पादित हित सम्पन्नाम ग्रहणं जयति शान्तः ॥३॥ श्रीसंघ जगज्जनपद, राजाधिपराजसन्निवेशानाम् । गोष्ठिक पुर मुख्याणां व्याहरणैाहरेच्छान्तिम् ॥४॥ श्री श्रमणासंघस्य शान्तिर्भवतु । श्री पौरलोकस्य शान्तिर्भवतु । श्री जनपदानां शान्तिर्भवतु । श्रीराजाधिपानां शान्तिर्भवतु । श्री राजसन्निवेशानां शान्तिर्भवतु । श्री गोष्ठिकानां शान्तिर्भवतु । श्री पौरमुख्याणां शान्तिर्भवतु । श्रीब्रह्मलोकस्य शान्तिर्भवतु। ॐ स्वाहा ॐ स्वाहा ॐ श्रीपार्श्वनाथाय स्वाहा । एषा शान्ति प्रतिष्ठा यात्रा स्मात्राद्यवसानेषु शान्ति कलशं गृहीत्वा कुकुम चन्दन कर्पूरागुरुधूपवास कुसुमाञ्जलि समेतः स्नात्र (पीठे) चतुष्किकायां श्री संघसमेतः शुचि शुचिवपुः पुष्पवस्त्र चन्दनाभरणाऽलंकृतः पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा शान्तिमुद्घोषयित्वा शान्तिपानीयं मस्तके दातव्यमिति। नृत्यन्ति नृत्यं मणिपुष्पवर्ष, सृजन्ति गायन्ति च मङ्गलानि । स्तोत्राणि गोत्राणि पठन्ति मन्त्रान्, कल्याणभाजो हि जिनाभिपेके ॥१॥ अहं तित्थयरमाया, सिवादेवी तुम्ह णयर निवासिणी । अम्ह सिवं तुम्ह सिवं, असिवोवसमं सिवं भवतु ॥२॥ शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगुणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवन्तु लोकाः ॥३॥ उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्न वल्लयः। मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥४॥ बृहत् शान्ति के बनाने वाले आचार्य वृद्धवादीजी का विक्रमीय सं० ११०० के करीब है। जम्मूतनन्द्रवदन्नन्नद्रवचन्द्रग्रप्रनग्रणप्रणप्रत्रमा Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 .1. I II...Ilokl blt intotal Intet.lnI-1 Liri. l i natantamataramimkumkutainkamlilanka-la-kirlamlah filamkirta kisani lalala ka Indrah kari.lathkranties trafikiki falafirka.larlalanimla orlarla landinlalentinue स्तोत्र-विभाग गौतमाष्टक श्रीइन्द्रभूतिं वसुभूति पुत्रं, पृथ्वीभवं गौतम गोत्र रत्नम् । स्तुवन्तिदेवा सुर मानवेन्द्राः, सगौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥१॥ श्रीवर्धमानस्त्रिपदीमवाप्य, मुहूर्त मात्रेण कृतानि येन । अङ्गानि पूर्वाणि चतुर्दशापि, स गौ० ॥२॥ श्रीवीर नाथेन पुरा प्रणीतं, मन्त्रं महानन्द सुखाय यस्य । ध्यायन्त्यमी सूरिवराः समग्राः, स गौ० ॥३॥ यस्याभिधानं मुनयोऽपि सर्वे, गृह्णन्ति भिक्षां भ्रमणस्य काले । मिष्टान्नपानाम्बर पूर्णकामाः, स गौ० ॥अष्टापदाद्रौ गमने स्वशक्त्या, ययौ जिनानां पदवन्दनाय । निशम्य तीर्थातिशयं सुरेभ्यः, स गौ० ॥५॥ त्रिपञ्च संख्या शत तापसानां, तपः कृशानामपुनर्भवाय । अक्षीण लब्ध्या परमान्नदाता, स गौ० ॥६॥ सदक्षिणं भोजनमेव देयं, स्वधार्मिकं संघ समर्पयेति । कैवल्य वस्त्रं प्रददौ मुनीनां, स गौ० ॥७॥ शिवङ्गते भर्तरि वीर नाथे, युग प्रधानत्वमिहैव मत्वा । पट्टाभिषेको विदधे सुरेन्द्रः, स गौ० ॥८॥ त्रैलोक्य बीजं परमेष्ठि बीजं, सज्ञान बीजं जिनराज बीजं। यन्नाम चोलं विदधाति सिडिं, स गौ० ॥९॥ श्रीगौतमस्याप्टक मादरेण प्रबोधकाले मुनिपुङ्गवाय । पठन्ति ते सूरि पदं सदैवानन्दं लभन्ते सुतरां क्रमेण ॥ भजन तेरे दरशन से भगवान्, कटेगा कर्मका पाप महान् । तू मोक्ष गामी । कहलाता, तेरे दरशन को सब आता ॥ तेरी पूजन से भगवान्, कटेगा कर्म * का पाप महान् ॥ तेरे० १ ॥ तुम जगके पालनहारे, बहुतों के दुःख तुमने * टारे । तेरी शरण पड़े जो आन, कटेगा कर्म का पाप महान् ॥ तेरे० २ ॥ नोट-ये वृहत् शान्ति वादिवताल श्रीशान्तिसूरिजी की बनाई हुई है। यह कोई / स्वतन्त्र स्तोत्र नहीं है। किन्तु उक्त आचार्य के रचे हुए 'अर्हस्पेिक विधि' नामक अन्य में : 'शान्तिपर्व' नाम का सातवां हिस्सा है। इसके सबूत में "इति शान्तिसूरि वादिवेनालीयेs ॐ पिकविधौ सप्तमं शान्तिपर्वकं समाममिति" यह उल्लेख मिलता है। इसमें मुख्यतया शान्तिनाथ भगवान की स्तुति की गई है। मागलिक महोत्सवों की शान्ति के लिया तथा : विशेप कर पाक्षिक. चातुर्मासिक तथा सांवत्तरिक प्रनिक्रमणों के अन्नभाग में बोला जाना है। adabal.ialisitorltarularistotlaintainta11mlahln labisal kitalal.htotalnirl.in.sairatnakista k m mastra titi. i t Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kitatke ६८२ www wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. ... . datestaelatedaatitolapbose.tarbasantetatisionlishaalakshatialatestobolododeokailabilantopatibitishtaalaalanathalalalabottoshootoobasoolahilankasokhkhalokhalescotoosakskscoodaakaar जैन-रत्नसार जब कोई महोत्सव आवे, नर नारी खुस हो जावे । वे तो करते धर्म और ध्यान, कटेगा कर्म का पाप महान् ॥ तेरे० ३ ॥ मण्डल महावीर ये गावे, मौका बार बार नहिं आवे । कर लो धरम ध्यान और ज्ञान, कटेगा कर्म का पाप महान् ॥ तेरे० ४॥ भजन मन्दिर के बीच बैठ के गावें, प्रभू का ध्यान लगावें । सोने की झारी गङ्गाजल पानी, प्रभू को उससे नहलावें ॥ मन्दिर० १ ॥ घिस घिस केशर भर भर प्याले, प्रभू की अंगिया रचावें । चुन चुन कलियां फूल सजाकर, प्रभू के खूब चढ़ावें ॥ मन्दिर० २॥ दीया भर भर घी का लेकर, प्रभु की आरती उतारें। सब सज्जन हिल मिलकर गावें, दिल से शीश नवावें ॥ मन्दिर० ३॥ HABETELahariyaneralashalallaneonlinesirabletindaalantalilianslablindialialistinathshalakshathantestadesistanttinathti. ॥ इति स्तोत्र विभाग ॥ onlaint krtedlestianlaolatik Poiddiquly alalarakantalik.lonleadstinkas h नोट-- यह भजन मिरजापुर निवासी ज्ञानचन्द सीपाणी का बनाया हुआ है नोट-यह भजन हीरालाल बदलिया वी० ए० की तरफ से मेट स्वरूप आया है। tix Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट पर स्थाद्वाद सप्तभंगी संसार में जितने भी मत-दर्शन और जातियां हैं सभी सत्य की खोज करती हैं। उसके सम्मान्य विद्वानोंने अथाक प्रयत्न कर तत्त्वरूपेण सत्य को प्राप्त कर, अनुभव से अपने अपने अनुभव दुनियाके सामने रक्खे है। उसके बाद के अनुयायिओं ने, उनकी मान्यता को समझ कर उसका अनुसरण कर येन केन प्रकारेण उसे सिद्ध करने की कोशिश की है। सत्य तो स्वयं जैसा है वैसा शुद्ध है, पर उसे प्राप्त करने के साधनों में विभिन्नता है, सत्य को स्वयं समझने में अधिकाधिक मतभेद है। जितने मतभेद है और जिन्होंने इस विषयका गहरा विचार अपने अपने निराले तरीकों से किया है, उतने ही दर्शन आज मौजूद है। तत्त्व ज्ञान के विषय में जितने जितने प्रमाण हो सकते हैं, सभी ने देकर अपनी अपनी मान्यता को सिद्ध करने की कोशिश की है। यों बुद्धि की कसौटी ज्यों ज्यों अधिक होने लगी त्यों त्यों यह विषय फैलने लगा, अब अल्प विषय वाला शास्त्र न्याय शास्त्र कहलाता है। प्रत्येक दर्शन मत की जो मान्यताय है उनको प्रमाणादि से जिस शास्त्र में सिद्ध किया जाय वह न्याय शास्त्र कहलाता है। परमत का निरूपण और उसका खंडन भी इस में रहता है। संसार के दर्शनों में जैन दर्शन का विशेष स्थान है। प्रत्येक पदार्थ पर स्वतंत्रता से गहरा विचार इस दर्शन में किया हुआ है। उसमे भी इसकी खास खासियत स्यावाद है। सभी तत्त्व विचारक जब एक दूसरा या एक हो तरफ झुक जाते हैं, एक ही वस्तु के प्रतिपादन मे दूसरी को भूल जाते हैं, भूल ही नहीं जाते वरन् खंडन कर देते है अपने माने हुए, कल्पे हुए विषय ही को एकान्त सत्य कहकर दूसरा सारा झूठा बताते हैं तब जैन दर्शन प्रत्येक विषय का सम्यष्टि से विचार करता है और वह स्याद्वाद के जरिये स्याद्वाद ही इस दर्शन का मूल स्तंभ है। स्याद्वाद का दूसरा नाम है-अनेकान्तवाद या इसे अपेक्षावाद भी कह सकते हैं। एक ही वस्तु को एक ही दृष्टि से देखकर इसे एक ही तरह का प्रमाणित करना, एकान्त है। जैसे आप एक सिपाही देखते है, आप जव एक ही बात पर उतर पड़ते हैं तो आप यही कहेगे वस यह सिपाही ही है। यह हुआ एकान्त पर नहीं, सिपाही नहीं, वह और भी बहुत कुछ है, सिपाही के अलावा वह आदमी भी है, वह किसी का चाचा है, किसी का भाई, किसी का मामा और किसी का कुछ। इस तरह से इसका अनेक अवस्थाओं का जो प्रमाण भूत क्रथन है वह है अनेकान्त । चूंकि यह भिन्न भिन्न विषयों की अपेक्षा से प्रतिपादित होता है, इसीलिये इसे अपेक्षावाद कह देते हैं। इसलिये अगर एक ही बात को एक ही अवस्था से देखकर उस पर निर्णय दिया जायगा तो वह गलत होगा। दर्शनों का मतभेद गहरे विपयों में पड़ता है। आत्मा के गुण धर्म उसका स्वभाव आदि * इसी स्याद्वाद सप्त भगीको श्री शङ्कराचार्य जी खण्डन करने लगे थे किन्तु खण्डन कर नहीं सके कारण सत्यता का खण्डन हो नहीं सकता। Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] मुख्य हैं। अगर इनको एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य ही मान लिया जाय तो कोई भी बात साबित नहीं होती। एकान्त नित्य माना जायगा तो वह सदा एक स्वभाव में स्थित रहेगा, उसकी अवस्था में भेद न होगा। अवस्था भेद हुए बिना संसार और मोक्ष भी न होंगे। यो सारी गडबडी मचेगी, अगर संसार और मोक्ष को कल्पित कहा जाय तो उसकी उपलब्धिका भी अभाव हो जायगा। अतः एकान्तरूप से आत्मा नित्य नहीं हो सकती। और एकान्त अनित्यत्व तो कोई तरह से घटना नहीं। क्योंकि इसमें तो असद की उत्पत्ति और सद् का अभाव का प्रसंग आता है जो सर्वथा असंभव है। लेकिन जब उसे अनेक धर्मों की अपेक्षा से नित्य और अमुक की अपेक्षा से असत्य मानते हैं तो कोई झगड़ा खड़ा नही होगा। सद असद का विचार भी इस में हो जाता है। सद् वही है जो उत्पन्न होता हो, नष्ट होता हो, स्थिर भी रहता हो। आपने सुनार को सोने का कड़ा दिया और कहा अंगूठी बना दो। अब देखिये, सोने की दृष्टि से सोना तो कायम ही रहता है और कड़ा नष्ट हो जाता है और अंगूठी की उत्पत्ति हो जाती है। संसार में जितने पदार्थ आप देखते है सभी में आप ये लक्षण पायेंगे। जिन में ये लक्षण न हों उसका प्रादुर्भाव ही नहीं हो सकता। इसलिये ये हुआ सत्का लक्षण। और इसकी सिद्धि अपेक्षा से होती है। जिस मूल रूप में वस्तु सदा स्थित रहती है वह द्रव्य कहलाता है और जिस रूप में इसका एक तरह से नाश और दूसरी तरह से उत्पत्ति होती है वह पर्याय कहलाता है। द्रव्य की दृष्टि से देखा जाय तो सभी घटपटादि पदार्थ नित्य हैं, अर्थात् वे किसी न किसी मूल रूप में अवश्य स्थित है। और पर्याय रूप से देखा जाय तो सभी अनित्य हैं। वेदान्त औपनिषद-शांकरमत सत् को केवल नित्य मानते हैं। बौद्ध लोग सभी वस्तुओं को अनित्य क्षणस्थ भी मानते है। साख्य दर्शनवाले चेतन तत्त्वरूप सत् को केवल ध्रुव नित्य और प्रकृति तत्त्व रूप सत नित्यानित्य मानते है। जब जैन दर्शन की मान्यतानुसार जो सार वस्तु है वह पूर्ण रूप से फकत नित्य या उसका अमुक भाग अनित्य या अमुक परिणाम नित्य और अमुक अनित्य नहीं हो सकता। चाहे जीव हो या अजीव, रूपी हो या अरूपी, सूक्ष्म हो या स्थूल सभी सत् कहलानेवाली वस्तुएं इन तीन धर्मों मे युक्त होंगी। इन सब धर्मों की विवक्षा अच्छी तरह से समझ में आ सके इसलिये इस के सात रास्ते बताये है जो जैन तत्त्वज्ञान में सप्तभंगी ( सत् भंग भेद ) के नाम से प्रसिद्ध हैं। १ स्यादस्ति, कुछ ( अमुक दृष्टि से ) है। २ स्यान्नास्ति, कुछ नहीं है। ३ स्यादस्तिनास्ति। कुछ है कुछ नहीं। एक साथ में४ स्यादवक्तव्यम् । एक तरह से अवाच्य है। ५ स्यादस्ति अवक्तव्यम् । कुछ है कुछ अवाच्य है। ६ स्यादनास्ति अवक्तव्यम् । कुछ नहीं है और कुछ अवाच्य है। ७ स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यम् । कुछ है कुछ नहीं है और कुछ अवाच्य है। प्रश्न वशात् एकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधि प्रतिषेध कल्पना-सप्तभंगी। अर्थात् एक वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्मों का निरूपण विधि निषेध की कल्पना से करना सप्त भंगी है। सत् के तीन लक्षण बताये हैं। उत्पात, व्यय, और ध्रुव। दूसरे उदाहरण के तौर पर आप तीन अंक १-२-३ को लीजिये। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] १२३, २३१, ३२१, २२३, ३१२, १३२ ये छ रूप हुए सातवां नहीं का । इनको प्रकारान्तर में लिखे जांय । इससे ज्यादा रूप नही हो सकते। इसे आप कोई भी वस्तु में घटा सकते हैं। है। यह पहला भंग है। इसमें अन्य धर्मों की गौणता है । वस्त्र नही है - अर्थात् जब कुछ भी दूसरी वस्तु पर ध्यान दिया जाय तो उस समय वस्तु का अभाव मालूम होगा तव कहा जायेगास्यान्नास्ति । पर दर असल में वह वस्तु है पर ध्यान से चूके है इसलिये एक ही समय में अस्ति नास्ति का भेद लागू होगा। जब वस्तु अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों धर्मो से वस्तु युक्त है । यह बात तो विवक्षित हो, परन्तु दोनों का क्रमसे वर्णन करना विवक्षित न हो उस वक्त उस वस्तु को न सत् कह सकते हैं और न असत् तब उसे स्याद्वक्तव्य कहते हैं। शेष भंग विकल्पों के संयोग रूप में है । दुसरा विकलादेश । सकलादेश - जैसा नामसे स्पष्ट है और समूची वस्तु का विचार करने के कारण ये द्रव्यका अमुक अंश का विचार होता है । सप्तभंगी के दो भेद है । एक सकलादेश यह वस्तु के अन्य धर्मों का भी बोध कराता है। विचार करता है । जब विकलादेश में वस्तु के १-२-४ ये भंग सकला देश के हैं शेष विकला देश के । संक्षेप में कहा जाय तो वस्तु के गुण धर्मों को अच्छी तरह समझने के लिये स्याद्वाद ही ऐसा सिद्धान्त है जिसमें पूर्णता पाई जाती है। कई मानते हैं - कहते है - अजी यों भी हां, और त्यों भी हां। ये भी कोई मान्यता है । ऐसा कहनेवाले ही एक तरफ झुक जाते हैं । जव प्रत्यक्ष है कि बाप बेटे की दृष्टि से बाप है और खुद के बाप की दृष्टि से तो बेटा ही है फिर क्यों कर झूठ माना जाय । तो अपेक्षा दृष्टि से वस्तु का सम्पूर्ण विचार करना ही उसका पूरा विचार है । और इसलिये जैन दर्शन का स्याद्वाद अनेकान्त सिद्धान्त सर्वथा ठीक है । सप्त नय प्रत्येक चीज की सिद्धि के लिये प्रमाण चाहिये । और वे भिन्न भिन्न प्रत्यक्ष और परोक्ष दो तरह के माने गये हैं । उनके भी भेद प्रभेद चलते है । पर सभी का मतलब वस्तु परीक्षण से ही है । प्रमाण वस्तु को सारी बाजुओं से देखता है यह बात भी सच है कि अनेक चीजों के विपयक एक या अनेक व्यक्तियों के अनेक तरह के विचार होते है । अगर एक ही वस्तु के विषयक भिन्न भिन्न विचारों की गणना की जाय तो वे अपरिमित मालूम होंगे। और इससे वस्तु का बोध करना ही अशक्य हो जायगा । प्रमाण जव सर्व ग्राही होने से वस्तु का समग्र विचार करता है जब अति विस्तृत मार्ग को छोड़कर वस्तु का निरूपण नयों द्वारा होता है । या नयों का अर्थ हम यों कर सकते है- नय अर्थात् भिन्न भिन्न पदार्थ एक दूसरे में मिश्रित न हो जाये इस तरह सिद्धि के वचनों को सिद्ध करने का साधन । वस्तु के मूल में पहुंच कर उनके एक अंश को लेकर उस पर पूरा विचारने का साधन | या स्पष्टार्थ यह होगा कि नय याने विचारों का वर्गी करण । विचारों की मीमांसा । . कई दफा एक ही वस्तु के विपयक अमुक अमुक विपयों के भिन्न भिन्न अभिप्राय होते हैं - देखने में वे भिन्न मालूम होते है पर एक या दूसरी तरह से उस पर गौर किया जाय तो उसमें विशेष अंतर मालूम नही होता । नय ये ही काम करते हैं, जो विचार भिन्न दिखाई देते है पर वास्तव मे भिन्न नहीं है, उनका एकीकरण करते हैं। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] 'नय सात है। नै गम, संग्रह, व्यवहार, अजु सूत्र, शब्द, समभिरूढ़, और एवं भूत । इनके दो विभाग है, पहले तीन द्रव्यार्थिक नय कहलाते है-बाद के चार पर्यायार्थिक ? दुनिया के सभी पदार्थ उनको जातीयता की दृष्टि से प्रायः सामान्य होते है और उनके व्यक्तित्व को दृष्टि से वे अपनी अपनी विशेषता रखते हैं। अर्थात् वस्तु मात्र सामान्य विशेषात्मक है। इन्सान के विचार भी कभी मात्र सामान्य ही की तरफ झुकते हैं- कभी मात्र विशेष की तरफ। जब पदार्थों का सामान्य दृष्टि से विचार किया जाता है तो वह द्रव्यार्थिक नय कहलाता है और जब विशेष पर विचार किया जाता है तो वह पर्यायार्थिक नय कहलाता है। इन सामान्य और विशेष दृप्टियों में एक समानता नहीं रहती कुछ फरक रहता है। इसी का मार्ग दर्शन करने को फिर इनके भिन्न भिन्न विभाग किये है। जो हम ऊपर लिख चुके है । साथ में द्रव्य का विचार करते वक्त विशेष अर्थात् पर्याय और विशेष-पर्याय का विचार करते वक्त द्रव्य-सामान्य का विचार भी गौण रूप में रहता है। कपड़े की मीलमें हजारों तरह का कपडा निकलता है जब आप उसे कपड़े की दृष्टि से देखते हैं तो वह द्रव्यार्थिक नय होगा पर जब आप उनकी भिन्न जातियों-रंगआदि। पतला आदि का विचार करेगे तो वह वस्तु की विशेषता का विचार होने से पर्यायार्थिक नय कहलायेगा। दृश्य अदृश्य सूक्ष्म स्थूल कोई भी पदार्थ पर चाहे भूत भविष्य और वर्तमान सम्बन्धी क्यों न हो यह घटाया जा सकता है। पहला नय नैगम है। शब्द और वाच्य पदार्थों के एक विशेष और अनेक सामान्य अंशों को प्रकाशित करने की अपेक्षा रखकर सामान्य विशेषात्मक अध्यवसाय को जिसका कि व्यवहार परस्पर विमुख अमान्य विशेष द्वारा हुआ करता हैं नैगम नय है। या दूसरा अर्थ होगा नैगम अर्थात् देशलोक, और लोक मे रूढ़ि अनुसार या संस्कार अनुसार जो उत्पन्न है वह होगा नैगम। देश काल और लोक सम्बन्धी भेदों की विविधता से नैगम नय के भी अनेक भेद प्रभेद हो सकते है। कभी सुना जाता है इस दफा की मंदीमें हिन्दुस्तान खलास हो गया या कुष्टे के व्यापार में हिन्द मालामाल हो गया। इन शब्दों से मतलब हिन्दुस्तान के लोगों के आदमियों का ही रहता है। महावीर जन्मोत्सव चैत्र सुदि १३ को मनाया जाता है उस वक्त हम यही कहते है-महावीर स्वामी का आज जन्म है हालां कि उन्हे हुए २५०० वर्प हो चूके पर उस दिन वे ही बातें याद करी जाती हैं लोग भी उसकी वास्तविकता समझे होते हैं। __इत्यादि जो बातें लोक रूढ़ि में जैसे कही जाती है या मानी जाती हैं उनका वास्तविक शब्दार्थ पर ध्यान नहीं देकर प्रसिद्ध अर्थ ही ग्रहण होता है और यह सब नैगम नयान्तरगत है। (२) जो सामान्य ज्ञेय को विषय करता है साथ में गोत्वादिक सामान्य और खड मुंडादि विशेष में प्रवृत्त होता है वह संग्रह नय है। सत्ता रूपी सामान्य तत्त्व संसार के सभी जड़ चेतन पदार्थों में मौजूद है और दूसरे पदार्थों पर विशेष लक्ष्य न देकर केवल सामान्य पर दृष्टि रखना संग्रह नय का विपय है। काराज़ के माल मे हजारों कागज़ों की ओर ध्यान न देकर उन्हें कागज की तौर पर ही सामान्य रूप में देखने से यह नय है। वैसे तो सामान्य को छोड़ विशेप और विशेष को छोड़ सामान्य नहीं रह सकता । इसलिये सामान्य रूप में दोनों का ग्रहण करता है। संग्रह नय में भी तरतम भाश से अनेक उदाहरण हो सकते हैं। जितना छोटा सामान्य होगा संग्रह नय भी उतना ही छोटा और जितना बड़ा सामान्य होगा संग्रह नय भी उतना ही बडा होगा। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोया मतलब यह कि सामान्य तत्त्व का आश्रय लेकर विविध वस्तुओं के एकीकरण के जो विचार हैं वे सभी संग्रह नय में अंतरगत होते हैं। (३) संग्रह नय में जो सदुरूप सामान्य कहा है उसे महा सामान्य समझना चाहिये। तब महा सामान्य का विशेष रूप से बोध करना पड़ता है या व्यवहार में उपयोग करना पड़ता है तव उनका विशेष पृथक् करण करना पड़ता है। जल कहने मात्र से भिन्न भिन्न जलों का बोध नही होता। जिसे खारा पानी चाहिये यह खारे मोठे का बोध हुए बिना उसे नहीं पा सकता। इसी लिये खारा पानी मीठा पानी इत्यादि भेद भी करने पड़ते है। मतलब यह कि सामान्य के जो भेद करने पड़ते हैं। वे व्यवहार में आते हैं। (४) व्यवहार नय के विषय किये हुए पदार्थ का केवल वर्तमान विषयक विचार ऋजु सूत्र नय करता है। हम भूत भविष्य की उपेक्षा अलबत्ता नही कर सकते फिर हमारी बुद्धि वर्तमान काल की तरफ पहले और अधिक झुक जाती है। क्योंकि उसी का उपयोग है भूत भावि कार्य साधक तो है नही इसीलिये उनका होना न होना बराबर है निकम्मा है। कोई मनुष्य वैभव शाली था या वैभव शाली होगा इससे कोई मतलब नहीं, वर्तमान में वैभव शाली होना ही वैभव का उपयोग रखता है। ऐसे जो केवल वर्तमान विषयक विचार रखता है वह ऋजु सुत्र नय कहलाता है। (५) व्यवहार नय में से ऋजु सूत्र में आकर हम केवल वतमान विषयक विचार करते हैं पर कई दफा बुद्धि और भी सूक्ष्म हो जाती है और शब्दों के उपयोग की तरफ पूरा ध्यान देती है। अर्थात् जब वर्तमान काल, भूत और भविष्य से भिन्न है तो काल लिंग आदि को लेकर शब्दों का अर्थ भी अलग अलग क्यों न माना जाय ? जब कि तीनों कालों में कोई सूत्र रूप एक वस्तु नहीं है तो लिंग संख्या कारक उपसर्ग काल आदि से युक्त शब्दों द्वारा कही जाने वाली वस्तुएं भी भिन्न भिन्न है। किसी ने कहा हिन्दुस्तान की राजधानी देहली में थी तब उसमें भूत काल का क्यों प्रयोग हुआ क्योंकि दिल्ली तो अब भी है पर कहने वाले का मतलव पुरानी दिल्ली से है न कि नयी से। और पुरानी दिल्ली नयी दिल्ली से भिन्न भी है। यह हुआ काल से अर्थ भेद।। गढ़ और गढ़ेया। ये भी लिंग भेद से अपने अपने अर्थ में फरक रखते हैं। उपसर्ग लगने से अर्थ भेद हो जाता है जैसे आगमन, बहिर्गमन, निर्गमन । प्रस्थान, उपस्थान, आराम, विराम, प्रताप, परिताप आदि में धातु एक होने पर भी उपसर्ग लगने से अर्थ भेद हो जाता है। यही शब्द नय भी शुरुआत करता है। इस तरह केवल शब्दों पर आधार रखने वाला शब्द नय है। (६) सममि रूढ़, शब्द नय से एक कदम आगे और बढ़ना है अर्थात् जब लिंग संख्या काल आदि से शब्दार्थ में भेद होता है तो व्युत्पत्ति से क्यों नहीं अर्थात् एकार्थक जितने भी शब्द लोक में प्रचलित है उन की व्युत्पत्ति व्याख्या के अनुसार उनके अर्थ मे भी भेद है। साधु वाचक कई शब्द साधु, मुनि, यति भिक्षु ऋपि आदि लोक में प्रचलित है और साधारण व्यवहार में उनसे साधु का मतलब ले लिया जाता है फिर वे सब अलग अलग अर्थ के अनेक होने से भिन्न भिन्न है यन्न करे वही यति । भिक्षा मांगे तो वही भिक्षुक मौन करे वही मुनि इत्यादि । इस तरह व्युत्पत्ति से अर्थ भेद बताने वाला समभिल्ड नय है। पर्याय भेद से अर्थ भेद को सभी कल्पनायें इसी श्रेणी की है। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] (७) जब एक आदमी एक ही बाजू झुकता है तो वह गहरा उतरता ही जाता है और व्युत्पत्ति से अर्थ भेद से भी वह संतुष्ट नहीं होता और कहता है जव व्युत्पत्ति से अर्थ भेद मानें तब तो ऐसा क्यों न मानना चाहिये जब व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ घटित होता है । तभी वह शब्द सार्थक है अन्यथा नहीं ऐसा अर्थ लेने पर हम साधु को मुनि नहीं कह सकते अर्थात् जिस समय वह मौन क्रिया में प्रवृत्त होगा तभी वह मुनि कहलायेगा । जब भिक्षा ले रहा होगा तभी भिक्षुक कहायेगा । जिस समय नौकरी करता हो उसी वक्त नौकर कहायेगा। सार यह है कि तात्कालिक सम्बन्ध रखने वाले विशेष और विशेष्य नाम का व्यवहार करने वाली मान्यतायें एवं भूत नयान्तरगत आती हैं । इस तरह सातों नयों का स्वरूप है । यह बात सहज ही समझ मे आ जाती है कि ये एक दूसरे से सूक्ष्मराति सूक्ष्म होते जाते हैं फिर भी एक दूसरे से अवश्य संबंधित हैं । अत: एक दूसरे से सामान्य और एक दूसरे से विशेष है। ऐसी परंपरा से नैगम से संग्रह और संग्रह व्यवहार विशेष को ग्रहण करता है तो उसे पर्यायार्थिक कहना होगा पर ऐसा नहीं क्योंकि किसी न किसी रूप में यह जाति को ग्रहण करते हैं काल को भी ग्रहण करते हैं इस लिये यह तो अवश्य है कि एक दूसरे की अपेक्षा से विशेष अवश्य है पर वैसे ये द्रव्यार्थिक ही है और शेष चार वर्तमान विपयक ही विचार करते हैं इससे पर्यायार्थिक हैं । इस तरह प्रमाण सिद्ध वस्तु के अंशों का सूक्ष्म विवेचन नयों द्वारा ही होता है । निक्षेप संसार में कोई ऐसी वस्तु नही है, जिसमें चार निक्षेप न हों। निक्षेप शब्द का अर्थ तो व्याकरणानुसार दूसरा होता है, जिसके फलस्वरूप निक्षेप वस्तु का स्वधर्म सिद्ध नहीं होता, क्योंकि 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'क्षिप' प्रेरणे धातु से 'निक्षिप्यते अन्यत्र' इस व्युत्पत्ति से निश्चय रूप से क्षेपण किया जाय अन्य वस्तु में, उसका नाम निक्षेप है। यद्यपि व्युत्पत्ति को लेकर यह अर्थ ठीक है, पर यह कृत्रिम अर्थ में ही ऐसा माना जायगा स्वाभाविक अर्थ में तो संकेत के अनुसार निक्षेप वस्तु का स्वधर्म ही सिद्ध होता है । निक्षेप शब्द के अर्थ पर प्राचीन व्याख्याताओं का यही शंका समाधान है, पर विचार करने पर व्युत्पत्ति भेद से भी समाधान होता है, जैसे- 'निक्षिप्यते ज्ञातुरप्रे दीयते पदार्थोऽनेनेति निक्षेपः' अर्थात् 'बोद्धा के सामने पदार्थ जिस ( धर्म ) के द्वारा लाया जाता है, वही निक्षेप है । ऐसी व्युत्पत्ति और 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'क्षिप' प्रेरणे धातु से 'हलश्च' इस सूत्र से करणार्थक वज् प्रत्यय करके अगर निक्षेप शब्द लेते हैं तो निक्षेप का अर्थ सीधा धर्म ही होता है। फिर दूसरा समाधान खोजने की आवश्यकता ही नहीं । निक्षेप चार होते हैं। नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप, और भाव निक्षेप । यदि वस्तुओं के ये चार स्वधर्म रूप निक्षेप न माने जाय तो व्यावहारिक कार्यक्षेत्र में बडी ही संकट पूर्ण परिस्थिति उपस्थित हो जायगी । प्रत्येक पदार्थ का अपना अलग नाम होता है और उसके जरिये उस पदार्थ की पहिचान होती है । अगर नाम न हो तो किसी पदार्थ की पहिचान ही असम्भव है। किसी ने सच कहा है देखिय रूप नाम आधीना । रूप ज्ञान नहि नाम विहीना ॥ रूप विशेष नाम चिनु जाने । करतल गत न परहिं पहिचाने || इसलिये नाम वस्तुओं का स्वधर्म है। दूसरा स्थापना निक्षेप है। स्थापना आकार का पर्य्याय Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। किसी वस्तु की जानकारी में आकार भी सहायता प्रदान करता है। क्योंकि कोई किसी पदार्थ को उसके आकार के द्वारा ही निश्चित करतो है अतएव स्थापना भी वस्तु का स्वधर्म है। तीसरा द्रव्य निक्षेप है। द्रव्य शब्द आकार गत गुण का बोधक है। पदार्थ के निश्चय करने में आकार गत गुण भी निश्चयात्मक होते है। अगर कोई काली गौ लाने के लिये कहता है तो लानेवाला गौ' इस नाम और लोम, लाङ्गुल, शृङ्ग प्रभृति अंगों से समन्वित आकार के साथ-साथ उसके आकारगत कालापन को देख कर ही ला सकता है। इसलिये द्रव्य भी वस्तु का स्वधर्म है। चौथा भाव निक्षेप है। भात्र का अर्थ है उपयोग। दूध के लिये गौ लाने को कहा जायगा तो लानेवाला दुग्धदायिनी प्रकृति की भी जानकारी कर लेगा तत्र कही गौ ला सकेगा। इसलिये मानना पड़ेगा कि भाव भी वस्तु का स्वधर्म है। एक और उदाहरण लीजिये कि किसी मनुष्य ने किसी से कहा कि तुम भण्डार से घड़ा ले आओ। लानेवाला 'घड़ा' यह नाम सुन कर चला गया और भण्डार में अनेक वस्तुओंके होते हुए भी आकार-प्रकार से घड़े को पहिचान लिया। बाद में द्रव्य भी पहिचाना कि घड़ा कच्चा है या पक्षा, लाल है या काला। फिर उसने इस बात की भी जानकारी प्राप्त की कि इस के द्वारा पानी भरा जा सकेगा। इस भाति चारों स्वधर्मों के द्वारा निश्चय करके ठीक-ठीक घड़े को उठा लाया। इसी तरह जिन भगवान् को हमलोग मूर्ति वनवाते है और उस मूर्ति का नाम कहा करते हैं 'जिन भगवान् । यद्यपिवह मूर्तिपाषाण काष्ठधात्वादिकागज औररंगोंके सिवायऔर कुछ नहीं है, फिर भी हमलोग उस मूर्तिका नाम करण करते हैं जिन भगवान्' । यह आकार जिन भगवान का है, ऐसा समझ कर स्थापना करते है। तदनन्तर उस मूर्ति में जिन भगवान् की आत्मा का अनुभव करते हुए हम उनके दया, दान, क्षमा, तपस्या आदि गुणों को अपने स्मृति-पथ के पान्थ बनाया करते हैं, उनकी शान्त मुद्रा पद्मासन योग प्रभृति स्वरूपों का हमारे मानस पर शनैः शनैः सफल असर पड़ता है और हम सोचते है कि हममे भी किसी दिन भगवान् के ये गुण आ जायगें और हम मुक्त हो जायगें। अन्त में फल भी वही होता है जो कि होना चाहिये। किसी ने सच कहा है-- जाको जा पर सत्य सनेहू । , सो तेहि मिले न कछु सन्देहू ।। यही कारण है कि हमलोग बड़ी भक्ति और श्रद्धा से मूर्तियों को वन्दन नमन किया करते है । नाम निक्षेप। नाम निक्षेप के दो भेद है। एक अनादि एवं स्वाभाविक. दूसरा सादि तथा कृत्रिम । अनादि स्वाभाविक के भी दो भेद है, अनादि स्वाभाविक दूसरा अनादि संयोग सम्बन्ध जन्य । अनादि स्वाभाविक का उदाहरण लीजिये, जीव और अजीव । चेतनात्मक (चेतनास्वरूप) ज्ञान से वंचित होने के ही कारण 'संसारी जीव' ऐसा नाम पड़ा है। इस जीव को ही कोई 'आत्मा' कोई 'ब्रा' कोई परमात्मा कह कर पुकारा करता है। पर यह नाम कब पड़ा ? किसने रखा ? यह कोई नहीं बता सकता। इसलिये यह अनादि स्वाभाविक नाम निक्षेप है। ____ इसी तरह आकाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और पुद्गल परमाणु ये सब अजीव है। और इन सबों के ये नाम अनादिकालिक तथा स्वाभाविक है; क्योंकि इनके सादित्व और कृत्रिमता के निश्चायक कोई आधार नहीं है। दूसरा है अनादि संयोग सम्बन्ध जन्य । जीवों का करें से अनादि काल से लेकर सुदृढ़ सम्बन्ध है। जिसके फल स्वरूप जीव चौरासी लाख योनियों में चक्कर काटा Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] करते हैं और उस उस योनि में भिन्न भिन्न जातिवाचक नाम से सम्बन्धित हुआ करते हैं। यहां यह कोई नहीं बता सकता है कि इन चौरासी लाख योनियों के नाम किसने रखे १ और वे नाम कब से व्यवहृत हुए। इसीलिये अनादित्व ( अर्थात् जिसकी आदि नहीं है ) और कर्मों के सम्बन्ध मे संयोग सम्बन्ध जन्यत्व अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है। कृत्रिम नाम के भी दो भेद हैं। एक तो सांकेतिक दूसरा आरोपक। सांकेतिक नाम वह है जो माता, पिता या गुरु कृत होता है। अथवा किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा रखा गया होता है। उस नाम का उद्देश्य व्यवहार सम्पादन मात्र होता है। किसी गुण या योग्यता की हैसियत से वह नाम निर्वाचित नहीं होता है। कोई जन्म सिद्ध दरिद्र अपने लड़के का नाम प्रेम से राजकुमार' रखता है। बाद में वह लडका बदनसीवी से चिथड़ों में लिपटे हुए भी काफी सूरत से भूत की तरह होते हुए भी आम जनता में राज कुमार' नाम से ही पुकारा जाता है। कार्य क्षेत्र में कोई अड़चन नहीं आती है। प्रत्युत उस नाम से सम्बन्धित सभी काम खुशी से सम्पादित हुआ करते है। इसी तरह हम लोग पाषाण, काष्ठ, मिट्टी वगैरह की मूर्ति लाते हैं और उसका नाम रख लेते हैं-'जिन भगवान्' फल स्वरूप उसी मूर्ति के सांकेतिक नाम से अपनी इष्ट सिद्धि भी कर लेते हैं। सांकेतिक नाम से किसी गुण या योग्यता का सम्बन्ध नहीं है। सांकेतिक नाम अपेक्षाकृत स्थायी होता है। आरोपक नाम वह है जो सीमित एवं अल्प कालके लिये स्थायी हो। जैसे कोई अपनी गाय भैंस वगैरह का नाम प्यार से गंगा, सरयू आदि कहा करता है। पर वह नाम उसी के परिवार तक सीमित होता है, दूसरी जगह जाने पर उस गाय या भैंस का वह नाम नहीं कहा जाता । वह तो तभी तक था, जब तक कि नामी वहां था। लड़के लोग सड़क पर लकड़ी के कुन्दे को दोनों पैरों के बीच में रखकर और जमीन में हाथ से दवाकर दौड़ते हैं और कहते है-हटो! हटो ! घोड़ा आता है । यहां यह कुन्दा रूपी घोड़ा क्षण भर के लिये है और उसी लडके तक वह नाम व्यवहृत हुआ है। उपर्युक्त उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि आरोपक नाम सीमित एवं अपेक्षाकृत अस्थायी होता है। यही कारण है कि शिल्पी लोग मिट्टी आदि उपादानों से रामकृष्ण, लक्ष्मी, गणेश, साधुसन्त, महात्मा, दयानन्द प्रभृति देवी देव महापुरुषों की मूर्तियां बनाकर बाजार मे लाते हैं और लोग पैसा खर्च करके ले जाते हैं और अपनी अपनी रुचि के अनुसार पूजते तथा इष्ट प्राप्ति किया करते हैं। इसमें वस्तुतः सचाई है. जो कि दुराग्रह रहित बुद्धि से देखी जा सकती है। स्थापना निक्षेप। किसी वस्तु में, या निराधार, जो किसी के आकार का आरोप होता है, वह स्थापना निक्षेप है। यह दो तरह से होता है एक तो सादृश्य से दूसरा व्यक्तिगत विचारानुकूल। जो आधार गत आकार का आरोप होगा, वह कहीं सादृश्य से होगा और कहीं व्यक्तिगत विचारानुकूल होगा! एवं जो निराधार स्थापना होगी, वल केवल वैयक्तिक विचारानुकूल ही होगी। आप देखेंगे कि किसी चित्र में, चाहे वह हाथी का हो या घोड़े का, देवता या मनुष्य का, स्त्री या पुरुष का, किसी का क्यों न हो, कुछ सादृश्य को लेकर असली वस्तु के आकार की स्थापना की जाती है। "यह घोड़ा है" ऐसा व्यवहार होता है; क्यों ? इस लिये कि उस चित्र में घोड़े के समान कान, नाक, मुंह वगैरह सभी अङ्ग लिखे गये हैं। इसी तरह मूर्तियों के उपासक अपने अपने उपास्य देव की मूर्तियों में शास्त्रवर्णित गुण और महत्ता के स्मारक लक्षणों के बदौलत ही ये राम है 'ये भगवान् जिन है। इस तरह की भावना रखते हैं एवं उनकी हार्दिक उपासना Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] किया करते हैं। अगर कोई यह शंका करता है कि मूर्ति तो पापाण, काप्ठ या और किसी जड पदार्थ की होती है, उसकी उपासना से इष्ट सिद्धि कैसी ? तो मैं कहूंगा कि अगर तुम पक्षपान शून्य हृदय से विचार करोगे तो मालूम पड़ जायगा कि जब किसी सुन्दरी नव' युवती औरत को कोई सिनेमा की तस्वीर में या कागज वगैरह के चित्र में देखता है तो प्रत्यक्ष उसकी सुम आसक्ति जाग पड़नी है एवं श्री विषयक नया प्रेम मानस मैदान में चक्कर काटने लग जाता है। अगर संघर्ष बढ़ता गया तो वह धीरे धीरे मन को कार्य रूप में परिणत करने की ओर खींच ले जाता है। नतीजा यह होता है कि अन्त में पथ भ्रष्ट होकर रहता है। यही कारण है कि 'चित्त भित्तं ण णिज्जाए' अर्थात् चित्र में बनाई गई स्त्री को भी मत देखो इस भांति साधुओं को मनाई की गई है। कहने का मतलब यह है कि जब इस तरह सौन्दर्यवान चित्र से पतन होता है तो जिन भगवान् की मूर्ति के अवलोकन पूजन नमन के अभ्यास से उनके मोक्ष साधक गुणों की ओर खींचकर हम लोग एक रोज निर्वाण पद प्राप्त करेंगे-अपने लक्ष्य स्थल पर पहुंचेंगे, यह कोई भी सहदय स्वीकार करेगा। अस्तु, कोई अगर अपने पिता का तैल चित्र चना रखा है तो उसे देखकर वह कह उठता है कि ये पिताजी है। यह सब स्थापना सादृश्य गुण से आधार गत हुई। यह कोई नियम नहीं कि यह स्थापना निर्जीव मात्र में ही हुआ करती है। किसी ब्राह्मण को श्राद्ध में प्रेत बनाकर सनातनी लोग श्राद्ध कर्म किया करते हैं, वहा तो जीव में ही आकार का आरोप होता है। कहीं यह स्थापना आधार गत वैयक्तिक विचार के अनुसार हुआ करती है। जैसे वैष्णव मत में, विवाह में मिट्टी की डली को पूजक अपने विचार मात्र से गणेश मान कर पूजा करने है। वहां मिट्टी की डलो ही गणेश होता है। वैष्णव लोग शालिग्राम पत्थर को ही विष्णु समझ कर पूजा करते हैं। कहीं स्थापना निराधार होगी- व्यक्तिगत विचारानुकूल ( अर्थान् पूजक के अपने विचार के मुताबिक ) होगी। जैसे जैन मत में यति साधु लोग शंख, चन्दन, गोमती चक्र प्रभृतियों का चिना किसी आधार के आकार का आरोप करते है। इसी तरह सनातनी लोग कटोरे में विना किमी शक को आधार बनाये, लक्ष्मी, सरस्वती, राम, कृष्ण आदि देवताओं का आकार मान कर पूजा किया करते है। यह सब निराधार वैयक्तिक विचारानुकूल स्थापना है। उपर्युक्त स्थापना प्राचीन दृष्टिकोण से दो प्रकार की होती है। एक सद्भुत दृमर्ग अमत मिट्टी की डली को गणेश मान लेना असद्भूत स्थापना है। विना आकार के शंग्य, चन्दन, गोमती चक्र प्रभृतिको स्थापना भी असत स्थापना है। क्योंकि यहां उन पदार्थों को पुल समानता नहीं है। सत स्थापना भी कृत्रिम और अकृत्रिम भेद से दो तरह की होती है। कृत्रिम वह है जो मनुष्यों के दाग बनायी गई जिन भगवान् की प्रतिमायें इस लोक में पूजी जाती है। अकृत्रिम , जो नन्दीश्वर मंरपर्वत द्वीप, या देवलोक आदि में जिन भगवान की प्रनिमायें है। उपर्युक विचारों से यह सिद्ध होता है कि पापाण, काष्ठ मिट्टी आदियों में बनी हु मुनियों में स्वत्त्व बुद्धि से पूजा उपासना करना वस्तुतः युक्ति संगन है। और उपासकों को अपने लक्ष्य म्धल तक ले जाने का यह एक सुन्दर तरीका है। न्य निक्षेप जिमका नाम. आकार गुण और लक्षण मिन्टने पर आता उपयोग न मिनो वही द्रव्य निभा । जी अपने अमली न्यरूप को जब नक नही पहिचाननाय नकदी । गोलि योग रहिन जो पा होगा. यह दर । 'अनुयोग द्वार मन में कहा- अशुपओगी दान ज्यान Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] उपयोग के बिना जो चीज होगी, वही द्रव्य है । किसी ने सच कहा है- "ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः” अर्थात् ज्ञान के विना मनुष्य पशु के समान हैं । " इस द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं। आगम विपयक ( अर्थात् आगम से ) दूसरा आगम भिन्न विषयक ( अर्थात् नो आगम से ) आगम से वह होता है कि शास्त्र तो पढ़ा, पर शास्त्र का मतलब नहीं समझा । अतएव उपयोग के बिना वह आगम विषयक द्रव्य निक्षेप है। इसी तरह “परोपदेशे पाण्डित्यम्” अर्थात् दूसरों को उपदेश देने में तो बड़ी योग्यता है, व्याख्यान कला के द्वारा आम जनता में तो खूब वाहवाही है, पर स्वयं अपने में उपदेश का क्रियात्मक उपयोग नहीं है। ऐसी स्थिति में भी आगम विपय द्रव्य निक्षेप है । दूसरे नो आगम से होने वाले द्रव्य निक्षेप के तीन भेद हैं, एक द्रव्य शरीर, दूसरा भव्य शरीर और तीसरा तद्व्यतिरिक्ताज्ञ शरीर वह है कि तीर्थंकर निर्वाण पदवी प्राप्त कर चुके है, उनका मृत शरीर पडा है । अग्नि संस्कार होने वाला है तो जब तक अग्नि संस्कार नहीं हुआ है, तब तक वह ज्ञ शरीर कहाता है । थैली में रुपये थे, खर्च हो गये । थैली खाली पड़ी है जरूरत पड़ने पर आप कहते हैं रुपये की थैली ले आओ। यहां पर यह थैली ज्ञ शरीर दूसरा भेद भव्य शरीर है। तीर्थंकर भगवान् अपनी माता के पेट से जन्म लेने के बाद बचपन अवस्था में जबतक रहे, उनके उस शरीर को भव्य शरीर कहा जायगा । आप किसी बछिये को देखकर कहेंगे, यह बड़ी दुग्धवती गौ होगी तो वह तात्कालिक बछिये का शरीर भव्य शरीर है । तद्व्यतिरिक्त अर्थात्ज्ञ शरीर और भव्य शरीर अतिरिक्तद्रव्य निक्षेपके अनेक उदाहरण हैं, जो कि तीसरे भेदमें आ जाते हैं । जसे -- "ज्ञान हीन मनुष्य है" ऐसा कहा गया है, क्योंकि मनुष्य तो है पर मनुष्यत्व जो ज्ञान है उसका उपयोग नहीं है इसलिये वह आगम भिन्न तृतीय भेद वाले द्रव्य निक्षेप के उदाहरण में आ जाता है। इसी तरह और भी दृष्टान्त अन्वेष्टव्य है । उपर्युक्त विचार विमर्शोका सारांश यह है कि लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, काली, भवानी, तीर्थंकर भगवान् आदियों की मूर्तियां उपयोग रहित हैं, इसलिये द्रव्य निक्षेप में आ जाती हैं । एवं अपने अपने उपासकों से किसी नय की अपेक्षा से वन्दनीय हैं । । भाव निक्षेप जिसका नाम, आकार और लक्षण गुण के साथ-साथ मिलते हों, वही भाव निक्षेप के उदाहरण है । क्योंकि अनुयोग द्वार में कहा है- “उवओगो भाव" अर्थात् जिसमें उपयोग हो, वही भाव निक्षेप का आवास स्थल है । इसीलिये दान, शील, तपस्या, क्रिया, ज्ञान ये सभी भाव निक्षेप से समन्वित होने पर हो लाभदायक सिद्ध हो सकते है । अगर कोई निर्विवेकी मनुष्य बुद्धि की विचक्षणता से यह सावित करने की चेष्टा करे कि मन के परिणाम को सुदृढ़ करके जो कुछ काम किया जायगा, वह भाव युक्त होगा तो वह उसकी गलती है। क्योंकि ढोंग रचने वाले भी अपने स्वार्थ साधन के लिये मन को स्थिर बना कर तपध्यान आदि किया करते हैं, ताकि लोग उसकी माया में फंसा करें और वह अपना उल्लू सीधा किया करे । कमठने पश्चानि तपस्या की जो कि वस्तुतः खूब कठिन थी, पर थी उसकी तपस्या दम्भ - पूर्ण, तो क्या वह काम भावयुक्त माना जा सकता है ? नहीं! कभी नहीं ॥ यहां सूत्रानुसार विधि और वीतराग की आज्ञा में हेय और उपादेय का वर्णन हुआ है । उसकी असलियत को समझ कर अजीव, आश्रव, और बन्ध के ऊपर हेय अर्थात त्यागभाव और जीवका स्वगुण, सम्बर, निर्जरा, मोक्ष उपादेय अर्थात प्राह्य हैं। रूपी गुण है, इसलिये उसे द्रव्य समझ कर छोड़ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] दे। जैसे मन, वचन, काय, लेश्यादिक सभी पुष्पालीक रूपी गुण समझ कर छोड़ दे और ज्ञानें, दर्शन, चारित्र, वीर्य, ध्यान प्रभृति जीव के गुणों को अरूपी समझ कर संगृहीत करे। यही भाव निक्षेप है। सूत्रों में बयालीस भेद निक्षेप के कहे गये हैं। हमने संक्षेपमें वर्णन किया है। बुद्धिमान मनुष्य उपयुक्त तरीके से हरेक वस्तु में चारों निक्षेपों को उतार सकते हैं। इसी तरह जिन भगवान की प्रतिमाओं में हमलोग 'ये जिन भगवान् हैं" ऐसी आस्था रखते है और यह सोचते हैं कि जैसे मूर्तियों में पद्मासन योग शान्त मुद्रा आदि भाव हैं और इन्हीं भावों के द्वारा इनकी भव्य आत्मायें मोक्ष पदवी प्राप्त कर चुकी हैं ; वैसे ही हमलोग भी इन्हीं भावों की प्राप्ति से निर्वाण पद गन्ता बनेंगे, ऐसी भावना निज मनमें हमलोग किया करते हैं। अतएव भावयुक्त प्रतिमाये माननीय है- वन्दनीय हैं, इसमें कोई शक सन्देह नहीं । मूर्तिवाद दिवाल पर टंगे हुए या लिखे हुए स्त्रियों के चित्र भी साधुओं को नहीं देखने चाहिये, क्योंकि मानसिक वृत्तियां विकृत होकर-विकारयुक्त होकर ब्रह्मचर्य से च्युत कर देती है। - दशवकालिक सूत्र [सूत्र में जो कुछ कहा गया है, वह हूबहू सच है, इसमें अत्युक्ति को चू तक नहीं है। क्योंकि कोई भी सहृदय सिनेमा वगैरह के चित्रों को देखकर अथवा यों ही सुन्दरी स्त्रियों के चित्रों को देख कर इसकी प्रत्यक्ष सचाई को महसूस कर सकता है। ऐसी हालत में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब चित्रों के अवलोकन से ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट होने की गुञ्जाइश है, तव सन्मार्ग के प्रवर्तक भगवान् तीर्थङ्कर देव की मूर्ति को चन्दन, नमन, और दर्शन करके हमलोग सन्मार्गके सुदृढ़ पन्था क्यों नहीं बन सकते ? अगर बन सकते तब मूर्ति पूजा की अवहेलना क्यों ?] मल्ली राजकुमारी के साथ छ राजकुमार, जो कि राजकुमारी के पूर्वजन्म में मित्र थे और स्वयं राजकुमारी भी उस जन्म में पुरुष ही थी, शादी करना चाहते थे। राजकुमारी ने सोचा कि जबतक प्रभाव पूर्ण तरीके से काम नहीं लिया जायगा, तब तक ये राजकुमार लोग झूठी शादी से विरक्त नही हो सकते । यही सोच कर उसने एक सोने की मूर्ति बनवाई और उस मूर्ति के उदर गर्भ में एक-एक ग्रास भोजन नित्य प्रति डालने लगी। नतीजा यह हुआ कि मूर्ति का मुख ढक्कन खोल देने पर भोजन के सड़ जाने के कारण बड़ी बवू आने लगी थी। बाद में जब राजकुमारी से शादी करने के लिये छह राजकुमार आये तो राजकुमारी ने छहों राजकुमारों को विवाह मण्डप में बुलाया और स्वयं उस मूर्ति के मुख ढक्कन को खोल कर खड़ी हो गई। जव राजकुमार लोग आये तो वदवू के मारे वे सब बेहद घबड़ाने लगे, राजकुमारी ने कहा, महाराज ! इस सोने की मूर्ति में मैं कुछ ही दिनों से एक-एक ग्रास भोजन डालती रही हूं जिसका फल यह हुआ है कि अभी आपलोग इस मूर्ति के पास ठहरने मे भी असमर्थ हो रहे है, फिर आपलोग जिस मुझको, जो कि मैं केवल हाड़ मांस की मूर्ति के सिवाय और कुछ नहीं हूं, पाने के लिये पागल हो रहे हैं उसमे तो कितने ग्रास भोजन रोज डाले जाते है, तब उससे आखिर जो गन्ध आयेगी, उससे आपलोगों की क्या दशा होगी क्या यह भी सोचते हैं ? इस प्रकार मूर्ति के हष्टान्त से राजकुमार लोर विरक्त हो गये, फलतः सच्चे ज्ञान का उदय हो गया। [ यदि नकली सोने की मूर्ति से असली विराग प्राप्त हो सकता है तो भगवान् वीतराग को मूर्तिय से हमें वह सञ्ज्ञा विराग क्यों प्राप्त नहीं होगा ? इस सवाल का कोई मुनासिव जवाब नहीं, फिर मुक्ति पूजा को सार्थकता से इनकार क्यों ? ] -माता सूत्र Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२ ] आर्द्रकुमार को उपदेश देने के लिये अभयकुमार ने कोई मूर्त्तिमान् पदार्थ भेजा। जिसे देखकर आद कुमारके मानस पट पर पूर्व जन्म के सारे ज्ञान चित्रित हो आये। --आचाराङ्ग सूत्र [ जव आर्द्र कुमार के पूर्व जन्म का ज्ञान, जिस पर काल के अन्तराय से अज्ञान का परदा पड गया था, किसी मूर्तिमान् पदार्थ को देखने से उसके मानस विचार तरङ्गों पर लहराने लगा, जो कि आखिर मोक्ष का कारण बना तो हमें भी उम्मीद करनी चाहिये कि हमारी आत्मा का छिपा हुआ ज्ञान, जिस पर अनेक जन्मों का परदा पड़ गया है, भगवान् वीतराग की मूर्ति के वन्दन नमन और मूर्तिमान पदार्थके दर्शन से निरन्तर अनेक गुणों के संस्मरण से एक न एक दिन मेघ निर्मुक्त चन्द्रमा की तरह चमक उठेगा और हम संसार बन्धन से छूट सकेंगे, इसमें कोई भी आश्चर्य जनक बात नहीं है। ] एक समय श्रेणिक राजा ने नरक के कष्टों से भयभीत होकर भगवान् महावीर से पूछा, महात्मन् ! ऐसा कोई उपाय बतलाइये कि मुझे नरक न जाना पड़े। भगवान् ने कहा, अगर तुम अपने नगर के कालू कसाई को एक दिन के लिये भी दैनिक पांच सौ भैंसों की हत्या से रोक सको तो तुम्हें नरक न जाना पड़े। श्रेणिक ने कालू कसाई को बुलाया और समझाया कि तुम एक दिन के लिये भी हिंसा छोड़ दो। पर वह दुष्ट क्यों मानने वाला था, उसने तो पांच सौ भैसों को नित्य प्रति मारने का संकल्प ले रखा था। आखिर राजा ने उसे दोनों पैर वांधकर कूऐं में लटका दिया, जिससे कि उसे हिंसा करने का मौका ही न मिले। राजा को अब पक्की धारणा थी कि उस कसाई ने आज हिंसा न की होगी। अतएव भगवान महावीर से राजा ने जाकर सुनाया कि भगवन् ! मुझे अब तो नरक जाना न पड़ेगा, क्योंकि कालू कसाई ने हिंसा नहीं की। भगवान् ने कहा, नहीं, उसने हिंसा की है। अगर विश्वास न हो तो दरयाफ्त कर लो। राजा के पता लगाने पर मालूम हुआ कि उसने तो पांच सौ भैसों की चित्र के द्वारा मूर्तियां बनाकर काटी हैं। राजा सन्न रह गये। आशा पूरी न हो सकी। क्योंकि उन काल्पनिक मूर्तियों से हिंसा पूरी हो गई थी। [यहां पर प्रश्न उठता है कि जब चित्रित भैंसों के मारने से हिंसा हो गई, क्योंकि कसाई के मन का भाव वैसा ही था जैसा कि असली भैसों के मारने के वक्त रहा करता था, तब भगवान वीतराग की मूर्ति को भावावेश से साक्षात् भगवान् समझ कर अगर कोई पूजा या दर्शन करता है तो कटान पात क्यों ? यह निश्चित वात है कि यदि श्रद्धा और भक्ती से भगवान् को दर्शन व पूजा की जायगी तो अपना अभीष्ट सिद्ध होकर रहेगा। } ___ एकलव्य नामक भिल्ल द्रोणाचार्य से शस्त्र विद्या सीखने गया। पर द्रोणाचार्य ने भिल्ल को पढ़ाने से इनकार कर दिया। आखिर उस भिल्ल ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर बड़े प्रेम से उस मूत्ति में प्राण प्रतिष्ठा की। और अच्छी तरह इसी मूर्ति के द्वारा शस्त्र विद्या सीखी। -महाभारत [ इस उदाहरण से मूर्ति पूजा की असलियत पर विश्वास करना चाहिये। ] अमूत्ति पूजक जैन श्वेताम्बर साधु लोग नरक में होने वाली दुर्दशाओं को चित्र द्वारा दिपाकर लोगों को पापों से विरक्त करने की चेष्टा करते हैं। वस्तुतः उन चित्रों का प्रभाव भी पड़ता है, या कोई भी सहदय मान सकता है। जब नारकीय चित्रों का प्रभाव मनुष्यों के हृदय पर पड़ता है, तब भगवान तीर्थकर देग की मूत्ति का प्रभाव क्यों नहीं पड़ सकता है, उनकी शान्त मुद्रा, योग पद्मासन आदि लक्षण और इन सद्गुण लोगों के हृदय पर क्यों प्रभाव नहीं ढाल सकने, यह बात समझ में नहीं आता । अगर एक पर हाथ रखकर सोचा जाय तो कोई भी हृदयवान मूर्ति पूजा की महत्ता को स्वीकार करेगा। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] अंग्रेजी सरकार ने अश्लील चित्रों को इसलिये वन्द कर दिया है कि उनके देखने से जनता का मानसिक पतन होगा। यही कारण है कि कोक शास्त्र के चौरासी आसन आज कल नहीं निकाले जासकते । जव अभद्र चित्रों के द्वारा मानसिक पतन अवश्यम्भावी है तब भद्र पूज्य जनक तीर्थङ्करों की मूर्तियों से मानसिक उत्थान क्यों नहीं होगा ? फिर मूर्ति पूजा से दिमाग मे खुजली क्यों ? ] कुछ दिन पहिले की बात है, इलाहावाद के मासिक 'चाँद' ने फांसी अङ्क निकाला था। अंग्रेजी सरकार ने उसे जब्त कर लिया। क्यों? इसलिये कि उसमें अंग्रेजी हुकूमत में जितने देश भक्त फांसी पर लटकाये गये हैं, उन सभी के चित्र और चरित्र निकाले गये थे। और उन चित्रों एवं चरित्रों के द्वारा अंग्रेजी सरकार के प्रति जनता की सामूहिक घृणा उठ खड़ी होती और अशान्ति फैल जाती। [इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि लोगों के सामने जैसे चित्र आते हैं, वैसा ही प्रभाव द्रष्टाओं के दीमाग पर पड़ता है, तब क्या कारण है कि धर्म-प्राण तीर्थङ्करों की प्रभावोत्पादक मूर्तियों द्वारा मूर्ति पूजकों के दीमाग पर तदनुकूल प्रभाव न पड़े।] ___अनुत्तरोप पातिक सूत्र में स्थानकवासी अमूर्ति पूजक उपाध्याय श्री आत्मारामजी ने अपना फोटो दिया है और उस फोटो के नीचे लिख दिया गया है कि यह फोटो परिचय के लिये है। [जब चित्र से परिचय प्राप्त किया जाता है, तव मूर्तिपूजक सम्प्रदाय भी तो तीर्थङ्कर भगवान् की मृत्ति से परिचय ही प्राप्त करना चाहती है, उनके सल्लक्षणों, शुभ गुणों से अपने हृदय को परिचित ही कराना चाहता है, फिर इसमें आपत्ति क्यों? क्या इसी का नाम असूया नहीं है ? ] . जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय, स्थानकवासी, तेरापन्थी भी सामायिक करने के समय श्री सीमन्धर स्वामी का वन्दन नमन किया करते हैं सीमन्धर स्वामी महा विदेह क्षेत्र में विराजमान है, ऐसा माना जाता है। [जब जिस वक्त सीमन्धर स्वामी का वन्दन नमन होता है, उस वक्त अगर सीमन्धर स्वामी का निर्वाण हो जाय, तब वन्दन नमन किसको होगा ? क्योंकि सीमन्धर स्वामी की सत्ता तो रहेगी नहीं तव तो मानना पड़ेगा कि वन्दन नमन काल्पनिक सीमन्थर स्वामी को लक्ष्य करके किया जाता है। फिर काल्पनिक तीर्थङ्करों की मूर्तियों से एतराज क्यों ? ] उपर्युक्त प्रमाणों और युक्तियों से यह सिद्ध हो जाता है कि मूर्ति पूजा युक्ति युक्त है। कोई भी धर्म कोई भी सम्प्रदाय ऐसा नहीं है, जो प्रकारान्तर से मूर्ति पूजा न करता हो, चाहे वह अपने को अमूर्ति पूजक वतावे चाहे मूर्ति पूजक ! वैदिक धर्मावलम्बियों के मन्दिरों में मूर्ति या है ही। मूर्ति पूजा के विरोधी आर्य समाजियों में भी दयानन्द की मूर्ति आदर सद्भाव की दृष्टि से रक्खी ही जाती है उस मूर्ति के प्रति अगर कोई दूसरा आदमी अपमान जनक तरीके से पेश आये तो आर्य समाजी भी मर मिटेंगे। क्या यह मूर्ति पूजाका द्योतक नहीं है ? किसी समय सनातनियों ने दयानन्द की मूर्ति के लिये भरी सभा मे अपमान जनक तरीका अख्तियार किया था, जिसके लिये आर्य समाजियों की तरफ से खूब मुकदमा वाजी हुई थी। मुसलमान लोग अपने को मूर्ति पूजक्र नहीं मानते, पर विचार करने पर मालूम होगा कि वे लोग भी काल्पनिक मूर्ति को मानते ही है। मुसलमान लोग पश्चिम दिशा की ओर मुह करके नमाज पढ़ते हैं। मुसलमानी रियासतों में पच्छिम तरफ पैर रखकर सोना या टट्टी पेशाब करना कानूनन मना है। क्यों ? इसलिये कि मका मदीना पच्छिम में ही है। मका मदीना में कभी मोहम्मद साहेब थे, Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४ ] अभी तो नहीं हैं, तब फिर यह अनर्थक आवेश क्यों ? मानना पड़ेगा कि मानसिक कल्पना के द्वारा मोहम्मद साहेब की सत्ता (मौजूदगी ) वहां मान कर ही वैसा आदर प्रदर्शित किया जाता है, फिर मूर्ति पूजा हुई कि नहीं? कबर को पूजा, ताजिया रखना क्या मूर्तिका द्योतक नहीं है । ईसाई लोग भी गिरजे में शूली का चिन्ह बनाते हैं, ताकि उनके उपासकों में उनके कर्तव्य की यादगारी का भाव बना रहे यह भी प्रकारान्तर से मूर्ति पूजा ही है। अगर इन लोगों में पूजा भाव की मौजूदगो नहीं है तो बड़े आदमी (जो कि कोई महत्त्वपूर्ण काम कर चुके हैं ) का तैल चित्र ( प्रस्तर मूर्ति) क्यों बनाया जाता है ? सैकड़ों प्रस्तरे मूर्तियाँ ( Images ) तो कलकत्ते में ही दीख पड़ती हैं। इसी तरह देखा जाय तो प्रत्येक धर्म या सम्प्रदाय में मृत्ति की पूजा किसी न किसी रूप में हुआ करती है। कट्टर अमूर्ति पूजक कहते है कि अगर प्रस्तर मूर्ति पूजनेसे मुक्ति मिलती है तो सिलकी ही पूजा क्यों न की जाय १ पर उन्हें सोचना चाहिये कि मूर्ति और सिल दोनों पत्थर जरूर है, पर दोनों में भाव भिन्न भिन्न हैं, इसीलिये उसके फल भी भिन्न २ हुआ करते हैं। लड़की और पत्नी दोनों स्त्री जाति ही है, पर दोनों पर भिन्न दृष्टिकोण पड़ते हैं, सिल जिस काम के लिये है, उस काम के लिये उसका आदर है ही कहने का तात्पर्य यह है कि पूजा के सुदृढ़ सिद्धान्त पर कोई कीचड़ उछालकर अपने मलिन हृदय का ही परिचय देता है। इसमें कोई शक सन्देह की गुजाइश नहीं। मूर्ति पूजा जैन धर्म विनय मूलक धम है, जैन धर्म का सार विनय ही है। इसीलिये कहा गया है कि 'विणय मूले धम्मे पण्णते। इसलिये तीर्थकर भगवान् की मूर्ति का जितना भी विनय किया जाय जीव को उतना ही उच्च कोटिका आत्म कल्याण प्राप्त होगा। फलतः विनय करना या कराना महाधर्म है। इस विनय धर्म की तह में ऐसा विलक्षण रहस्य छिपा है, जिसकी बदौलत जीव एक दिन तीर्थङ्करकी उपाधि धारण कर सकता है, यही कारण है कि मूर्ति को पूजा द्रव्य और भाव के जरिये अनादि काल से होती चली मा रही है। अगर कोई शंका करता है कि द्रव्य पूजा अच्छी नहीं है, द्रव्य के द्वारा पूजा नहीं करनी चाहिये तो उसे समझना चाहिये कि द्रव्य के विना भाव का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है, यह सुदृढ़ सिद्धान्त है। किसी भी व्यवहारिक या धार्मिक कार्य मे पहिले द्रव्य क्रिया करनी पड़ती है, उसके बाद भाव का उदय होता है। उदाहरण लीजिये कि अगर कोई दूकानदारी करना चाहता है तो पहिले उसे दूकान खरीदनी पड़ेगी या भाड़े पर लेनी होगी अथवा अपने पैसों से बनानी पड़ेगी। बाद में दूकान को प्रभावोत्पादक बनाने के लिये खूब सजाना पड़ता है। फिर खाता बही रखता है और दूकान का एक नाम रख कर विशुद्ध भाव से काम शुरु कर दिया जाता है अर्थात् लोगों में लेने देने का व्यवहार जारी हो जाता है। क चाल दूकान के आधार पर तमाम काम होने लगते हैं। अगर दुकान ही नहीं हो, बही खाते ही नहीं तो देन लेन ही किसके नाम हो? इसी तरह पहिले जीव को व्यवहार शुद्धि के लिये द्रव्य क्रिया करनी पड़ती है, बाद में भाव का उदय होता है। सामायिक करने वाले को पहिले द्रव्य सामायिकके लिये आसन, पूंजनी, मुंहपत्ति, क्षेत्र से स्थान, उपाश्रय वा शुद्ध स्थान, काल से जितना लगाने की इच्छा हो, उतना समय ग्रहण करना पड़ता है। इसी को द्रव्य सामायिक कहा जाता है। अगर कोई चाहे कि भाव सामायिक ही आये, द्रव्य सामायिक न करना चाहिये तो वह उसकी गलती है। अनादि अनन्तकाल गुजर गया, अबतक भाव सामायिक का प्रादुर्भाव न हुआ और कब होगा, यह भी निणीत नहीं है। इसलिये द्रव्य सामायिक करना ही चाहिये ताकि आधार पर एक दिन आधेय आ ही जायगा। (दीवार) रहेगी तो Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] चित्र भी लिखा जायगा। पर भित्ति के विना चित्र कैसा ? इसी भांति साधु चारित्र लेने के समय गृहस्थ का वेष छोड़ कर साधु का द्रव्य वेष अर्थात् द्रव्य चारित्र, चोलपट्टा, चद्दर पांगरनी, ओघा मुंहपत्ति आदि साधु लोग धारण किया करते हैं। इसी का नाम द्रव्य चारित्र अथवा सामायिक चारित्र है। इसी द्रव्य चारित्र के द्वारा साधु वन्दे पूजे जाते हैं भाव चारित्र तो यथाख्यात चारित्र के आने के बाद आता है और वह यथाख्यात चारित्र जम्बू स्वामी के वाद विच्छिन हो गया अब यदि द्रव्य चारित्र भी लोग न लें तो साधु धर्म या साध्वी धर्म का विच्छेद हो जायगा। और यदि तीर्थकर भगवान् का संघ ही नहीं रह सकेगा तब जैन धर्म का अस्तित्व कहां से रहेगा ? इसलिये द्रव्य चारित्र लेना परमावश्यक है। भाव चारित्र आयेगा भी तो द्रव्य चारित्र के आधार पर ही आयेगा। क्योंकि द्रव्य करणी से ही भाव करणी का उदय होता है। इसी तरह मूर्ति पूजक लोग मूर्ति की द्रव्य पूजा करते है। भाव पूजा का आविर्भाव मनुष्याधीन नहीं है। वह तो कर्मों की निर्जरा के ऊपर निर्भर है। परन्तु जब कभी भाव पूजा मानस पट पर आंकी जायगी द्रव्य पूजा की महत्ता से ही, द्रव्य पूजा के चिराभ्यास से ही, अतएव द्रव्य पूजा करना परम आवश्यक है। पर द्रव्य पूजा विवेक, विचार एवं शास्त्रानुसार ही करनी चाहिये। कोई शंका कर सकता है कि द्रव्य पूजा से तो पहिले पाप ही होता है, तब वह क्यों की जाय ? पर उसको सोचना चाहिये कि प्रत्येक द्रव्य क्रिया में पहिले थोड़ा पाप ही हुआ करता है, वाद में धर्म होता है। कोई एक धर्मशाला बनाता है तो उसमें कीट पतङ्गों के नाश जन्य पहिले कुछ पाप ही होता है पर बाद में साधु महात्मा, दीन, दुःखी, पथिक वगैरह की सेवा ही से अपार धर्म संचित होता है। ठीक इसी तरह सामायिक, पोसह, प्रति क्रमण, व्याख्यान सुनना या देना, आहार पानी देना या लेना, इन सभी कामों में पहिले कुछ पाप होता है, बाद में असीम धर्म होता है। मूर्ति पूजा में भी यही चात लागू है । फिर अगर थोड़े पाप के डर से अनन्त धर्म का लाभ नहीं किया जाता है तो इसे अज्ञानता छोड़कर क्या कहा जा सकता है। अगर किसी के सौ रुपये खर्च करने पर हजारका लाभ मिलता है तो वह क्या सौ का व्यय नहीं करेगा ? यही कारण है कि मूर्ति पूजक लोग द्रव्य पूजा को लाभ का हेतु मानते हुवे और भावी लाभ की वलवती आशा से मूर्ति की जल चन्दनादि उपकरणों से अष्ट प्रकारी पूजा किया करते हैं। यही कारण है कि ज्ञाता सूत्र में "द्रौपदी ने सम्यक्त पाने के बाद पूजा की थी' ऐसा उल्लेख मिलता है। प्रश्न व्याकरण में संवर द्वार और आश्रव द्वार का वर्णन चला है, जिसमें मूर्ति पूजा को संवर द्वार में माना है। राय पसेणी सूत्र में लिखा है कि प्रदेशी राजा के जीवने अवती होते हुए भी सम्यक्त सहित मूर्ति पूजा की। आवश्यक सूत्र में कहा गया है कि "कित्तिअ वंदिअ महिआ" अर्थात् तीर्थकर भगवान् वन्दन करने योग्य है, कीर्तन करने होग्य है। और द्रव्य व भावसे पूजन करने के योग्य है इसी तरह और धर्मों में भी मूर्ति पूजा के प्रचूर प्रमाण मौजूद है। अतएव मूर्ति पूजा करना प्रत्येक गृहस्थ श्रावक का परम कर्तव्य है। विजेपु किमधिकम् । ईश्वर कर्तृत्व और जैन धर्म ईश्वर ही की कृपा है कि हमारी आज दुनियां में हस्ती कायम है। वही सारे संसार का कर्णधार है, वही सुख दुख देता है, और उसीके आधार से सारा घटना चक्र चलना है। ईश्वर ही सब जानता है। वही हमें उसकी इच्छानुसार हमारे कानुसार हमें भिन्न भिन्न परिस्थिति मे रख सकता है। कितना ही पापी पाप कर उसकी आराधना उसका जप कर उसे प्रसन्न कर सकता है। उससे वरदान ले उसी के सामने अपने स्वेच्छित कर्म कर सकता है। सारी दुनिया का खयाल उसे हर वक्त रहता है। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] संचालन करता है। यह उसकी परम शक्ति है। वह खुद जगह पर जा सकता है। संक्षेप में वह सर्वगामी है, सर्वधर्म से उसे प्रेम है दुनिया में अधर्म का फैलना उसे नापसंद ये बातें सच नहीं है ? क्योंकि बगैर बनाए कोई चीज नहीं बनती। उसका कोई कर्ता न हो वहां तक नहीं बन सकता तो कहां से बनेगा जब दुनियां में नाना चीजें है है । और वह सर्व शक्तिमान् केवल ईश्वर ही है । इतने बड़े ब्रह्मांड का वह अपने अकेले हाथों मनमाना रूप ले सकता है और मन मानी व्यापी है, सर्व शक्तिमान है और है सर्वज्ञ | है और इसीलिये जब अधर्म फैलता है तो स्वयं उत्पन्न होकर पुनः धर्म की स्थापना करता है ! क्या दुनियां को कोई बनाने वाला नहीं है ? यह नहीं हो सकता । दुनियां भी एक कार्य है और कोई भी कार्य जब तक आखिर कुंभार घड़ा बनाएगा तभी तो बनेगा। वरना पैदा होती हैं तो अवश्य उनका बनाने बाला कोई न कोई दूसरा नहीं । दुनियां के कई दर्शन मत धर्म इस बात में सहमत है। कई उसे ज्ञानमय बताकर अमुक अंश में उसे सर्जक स्वीकार करते हैं। पर दर असल में यह रचना शक्ति क्या है इसका कुछ पता नहीं लगता । नहीं दौड़ा सकता वहां पर वह जाकर ईश्वराधीन होकर रुक जाता कितना सत्य है । मनुष्य जब अपनी कल्पना की दौड़ को है पर हमें देखना है कि इस मान्यता में पहले प्रश्न उठता है ईश्वर एक हैं या अनेक । ईश्वर कर्तृत्व की मान्यता वाले एक ही ईश्वर मानते है। क्योंकि नाना ईश्वर मानें तो वैमनस्य उत्पन्न होने की सम्भावना है और फिर कौन सा काम कौन करे, किस पर किसकी सत्ता चले इत्यादि सब गड़ बड़ मच जाती है । अतः उनका मानना ठीक है कि ईश्वर एक है । जब हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि ईश्वर एक है तो प्रश्न उठता है वह क्या उत्पन्न करता है और क्या नहीं ? सभी वह उत्पन्न करता है, ऐसा तो मानना पड़ेगा। अच्छा भी और बुरा भी। केवल अच्छे का उत्पादक मानते हैं तो बुरे का उत्पादक दूसरे को मानना पड़ता है अधर्म का नाशक और धर्म का प्रचारक मानते हैं तो अधर्म का उत्पादक और धर्म का नाशक दूसरे को मानना पड़ता है। दूसरे को स्वीकार करलें तो बड़ी गड़बड़ी मच जाती है अतः दोनों का उत्पादक भले भिन्न भिन्न परिस्थिति में हो पर केवल वही एक है । ईश्वर का स्वभाव दयालु है, महान् करुणा का यह महासागर है तो फिर दुनियां में दुःख क्यों दीख पड़ता है। यह दुःख की कल्पना किस लिये सूझी। अपने करुणा सागर में यह दुनियां का खारापन कहां से आया । स्वर्ग से यह दुःख का वरसात क्यों बरसा ? और फिर से यह बात कि दुनियां में जब अधर्म फैलता है तो मैं उत्पन्न होकर धर्म की स्थापना करता हूं, कहां तक ठीक है। दुनियां के नाना लिये तेल लगाने वाली बात ईश्वर करे यह कैसे माना जाय प्राणियों को पहले जमाकर ऊपर से शान्ति वह किस लिये प्रपंच करेगा १ तब कई यह कहते हैं कि मनुष्य का स्वभाव कुछ ऐसा ही है वह ऐसे ही कर्म करता है इससे उसे दुःख उठाना पड़ता है, तब तो हम वही बात पूछते हैं, कि उसका ऐसा स्वभाव किसने बनाया ? तो एक मान्यता और आती है कि माया है जो उसे सत्य के रास्ते से घेर कर ले जाती है। जैसे रस्सी को देख कर सांप का भ्रम हो जाना है । तो यह भ्रम माया द्वारा ही होता है, यह माया उसमें दुष्ट स्वभाव उत्पन्न करती है और सत्याचरण से उसे विमुख करती है। पर माया को ईश्वर से भिन्न माना जाय * यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] या अभिन्न । अगर अलग मानें तो दो चीजें साबित होती हैं और दूसरी चीज साबित होने पर वही दोप आ जायगा। ईश्वर की एक मात्र सत्ता नही रहेगी । और अभिन्न मानें तो ईश्वर माया मय सावित होता है । तब फिर माया को मानने का मतलब ही क्या ? अतः ईश्वर का माया द्वारा पाप फैलाना, और पुनः आकर उसका उद्धार करना यह तो केवल प्रपंच ही है । और जब हम माधारण संसारी भी ठोक पीटकर थप्पा करने के कार्य को ही कारण की नजरों से देखते हैं तो इतने बड़े ईश्वर का यह कार्य कैसे ठीक माना जाय । दूसरी बात जब दुनियां एक कार्य है तो उसका बनानेवाला कोई न को कोई अवश्य है । अर्थात् कारण वगैर कोई कार्य होता नहीं । पर हम पूछते हैं कि ईश्वर कैसा कारण है । घड़े को बनाने में कुंभार कारण अवश्य है पर वह उपादान कारण नहीं, केवल निमित्त कारण है। ईश्वर को कैसा कारण माना जाय ? दोनों कारण तो स्वयं हो नहीं सकते । शंकराचार्य के मत से ईश्वर दोनों कारण है, पर हम माया द्वारा फँसाये गये है इससे स्पष्ट देख नहीं सकते, माया विपयक हम ऊपर विवेचन कर चुके हैं। माया को मानने से ईश्वर का एकत्य और उसका सर्ब सत्ता सिद्ध नहीं होती। एक कारण मानते हैं तो दूसरे की उत्पत्ति कहां से हुई। अतः यह बात भी सिद्ध नहीं हो सकती । फिर एक प्रश्न उठता है कि जितनी भी चीजें जिसकी रचना अमुक व्यक्ति या शक्ति द्वारा हुई है, उन सबका आदिकाल अवश्य है। जब वे नहीं बनी थी, और अमुक आदमी ने उसे बनाई उसके पहले क्या था आखिर विश्व की ईश्वर ने रचना की, उसके पहले की क्या कल्पना है ? विश्वका पूर्वरूप क्या था ? "प्रयोजनमनुद्दिश्य न मूढोऽधि प्रवर्तते" बगैर किसी खास हेतु के मूर्ख भी कोई कार्य नहीं करता है । ईश्वर का इतनी बड़ी सृष्टि रचने का क्या प्रयोजन था ? उसे क्या जरूरत पड़ी ? क्या उसे किसी प्रेरणा की? क्या किसी ने आज्ञा की ? नहीं ऐसा तो हो नहीं सकता। क्योंकि वह खुद स्वतन्त्र है, उसपर किसी की सत्ता नहीं। अगर कहा जाय कि यह उसका स्वभाव है तो स्वभाव जन्य दोष उसमें आ गया वह स्वभाव से वाधित हुआ, और उसकी स्वतन्त्रता नष्ट हुई। कायम हुई । उस पर प्रकृति की सत्ता सृष्टि रचना के पहले ईश्वर का क्या कार्य था, वह कहां रहता था। बनाई। उसके परमकारुणिक होते हुए भी यह दुनियां दुःखमयी क्यों । किन साधनों से उसने दुनियां उसकी एक मात्र सत्ता होते हुए भी यह नाना विधि गति विधि और प्रपंच क्यों ? इत्यादि प्रश्नों का कहां कुछ जवाब है । अगर ईश्वर की उत्पत्ति नही मानते है तो एक और भी बात कि ईश्वर स्वयं कहां से आया ? वह भी कुछ नहीं रह जाता है, आखिर तुम्ही तो कह रहे हो जो चीज है, कार्य है उसका कोई न कोई कर्त्ता अवश्य है, तो ईनर क्या कोई चीज नहीं, कैसा भी उसका स्वरूप क्यों न हो पर कुछ न कुछ है तो अवश्य तो वह कहां से आया ? यह कहा जाय कि वह अनादि है तो फिर इस दुनिया को भी अनादि क्यों न मान लिया जाय ईश्वर के जिम्मे यह सारा प्रपंच रचकर उसे दुनियावी क्यों बनाया जाय ? ईश्वर का स्वरूप और आकार कैसा माने ? अगर यह कहा जाय कि वह सच्चिदानंदमय है तो प्रत्यक्ष नहीं दिखता। जो सचिदानंद मय होगा वह प्रपंच मे क्यों पड़ेगा, तो दोनों चीज भी परस्पर भिन्न है । जो दुनियादारी को समझेगा वह अपने उस वक्त के स्वभाव से दृष्टि से सचिदानन्दमय नहीं हो सकता । उससे भिन्नत्व मानने से स्वरूप दोष जाहिर है । ईश्वर का आकार भी तो मानना 3 Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] होगा। क्योंकि आकार नहीं मानें तो अरूपी सावित होगा और स्वयं अरूपी रूपी पदार्थों का निर्माण कर ही नहीं सकता। निश्चित आकार मानते हैं तो उसका स्थान क्या! क्योंकि रूपी पदार्थ कहीं न कहीं अवश्य स्थित है। अगर उसका भी स्थान है और निश्चित है तो वह कहां ? ऐसा मानने से उसके सर्व व्यापकत्व में दोष आ ही जाता है। __ अब जो यह कहा जाता है कि ईश्वरको मनमाने रूप धारणकर लेना है तो जब वह अपनी पूर्वावस्था को छोड़ दूसरे रूप में आता है तो एक अंश से आता है या सर्वाश से। एक अंश से आता है तो वह शक्ति नहीं। सर्वाश से आता है तो दूसरी बाजू कौन ध्यान देता है। इस तरह जो ईश्वर* कर्तृत्व में जो हेतु इस मान्यता वाले बनाते हैं वे कैसे भी सिद्ध नहीं होते हैं। इस दुनिया का वास्तव में कोई बनाने वाला नहीं है। यह अनादि है अनन्त समय तक इसकी यही रफ्तार रहेगी। उनकी मान्यता मूजव ईश्वर करता है तो वह केवल विचार मात्र, जैसे सोने के नाना रूप देकर वह भिन्न भिन्न जेवर बना देता है, दर असल में वह सुवर्ण को उत्पन्न नहीं कर सकता। एक बात और है कि दुनिया में जितने भी पदार्थ मूल भूत विद्यमान है उनका नाश नहीं हो सकता और जो पदार्थ नहीं है उनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। "नासतो जायते भावः, न भावोऽसद् जायते ।" सत् पदार्थों में नाना विकार होकर उनका कितनी ही तरह से रूपान्तर हो जायगा, पर परमाणु रूप में भी वह चीज कायम रहकर अपने असली पन में स्थित रहेगी। और रूपान्तर पर रूपान्तर लेनेके बाद भी वह कभी न कभी अपने रूप को प्रण कर लेगी। अर्थात् उसका विनाश नहीं होगा। और जो चीज है ही नहीं, उसे कोई पैदा नहीं कर सकता इसलिये जैन दर्शन की यह मान्यता कि इस जगत् का कोई बनाने वाला संचालन करने वाला नहीं है बिलकुल ठीक है। ईश्वर तो ज्ञान दर्शन और चारित्र को पूर्णता को पाकर कर्म रहित हो आत्मतत्त्व का चिन्तन करता हुआ सच्चिदानन्द मय है। उसे दुनिया के साथ कोई मतलब नहीं। ईश्वर को भी यह सब प्रपंच रहे तो फिर क्यों ईश्वर माना जाय वह तो मुक्त है। आत्म निन्दा हे जीव ! तेरा जिन धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन करके निर्वाण प्राप्ति करने के लिये आना हुआ है, क्या उन क्रियाओं में तू अपना सारा समय लगा रहा है ? तुझे इसका ध्यान कहां १ तू तो उन खोटी श्रद्धाओं के सिकब्जे में फंसता जा रहा है जो तुझे एक दिन सर्वनाश की भीपण परिस्थिति में खड़ा होने के लिये वाध्य कर देंगी। तू उन कार्यों को कर लेने की हिम्मत बटोरा करता है एवं प्रवृत्ति बढ़ा रहा है जो करने लायक या होने लायक नहीं हो सकते। तुझे षट्रसों की नित्य नयी चाह पैदा होती रहती है। तेरी काम वासनाओं की अविछिन्न धारा उत्ताल तरङ्गों की माला से सुसज्जित होतो हुई दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है उसका कहों अवसान नहीं दीखता। हे आत्मन् ! क्या तू इन कामों से अपनी भलाई सोचता है ? तू सच समझ; अगर तेरी यही रफ्तार रही तो इसमें शक करने की कोई गुञ्जाइस नहीं कि इस दुर्लभ मनुष्य चोले में आकर भी तू आत्म कल्याण प्राप्त करने से वञ्चित ही रहेगा। जो बड़ा ही खेद जनक विषय है। * न कर्तृत्वं नकर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः। नकर्म फल सयोग, स्वाभावस्तु प्रवर्तते ॥१४॥ परमात्मा किसी मनुष्य का न करनेवाला है न कर्म और न वह कर्ता को फल देनेवाला है यह सब स्वभाव से ही है। गीता अ० ५। Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] बड़े दुःख की बात है कि तू सामायिक पोसह और देसाव गासिक में भी दुनियावी चिन्तनाओं को भली भांति छोड़कर मन नहीं लगा सकता है। सम्यक्त मोहिनी, मिश्र मोहिनी एवं मिथ्यात्व मोहिनी के चमकीले सौन्दर्य पर तू अपने को न्यौछावर करने के लिये तुल रहा है। काम राग, स्नेह राग और दृष्टिराग से तू ने बड़ी दोस्ती जोड़ रखी है। तुझे कुदेवों में भक्ति, कुगुरुओं में श्रद्धा, कुधर्म में आस्था करने की बात जरूरी जंचने लग जाती है। किसी समय तू ज्ञान विराधना दर्शन विराधना, और चारित्र विराधना में तल्लीन हो जाता है। जब तेरे शिर कठिनाइयों का जबर्दस्त बोझा आ जाता है तब तू मन दण्ड, वचन दण्ड, काय दण्ड, हास्य, रति, अरति, भय, शोक और दुगंछा का आश्रय बन जाता है। फलतः कृष्ण, नील, कापोत लेश्यायें भी दुःखों के धक्के देने लग जाती हैं। मृद्धिगारब, रस गारब, शाता गारब तेरे सामने अकड़ कर खड़े हो जाते है । माया शल्य, नियाणा शल्य और मिथ्यात्व दर्शन शल्य भी तेरह काठियों की सेना बटोर कर मैदान में उत्तर आते हैं। अठारह पाप स्थानकों ने तुझे अपनी अभेद्य किलेबन्दी में कैद कर रखा है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुवन्धी माया, और अनन्तानुबन्धी लोभ; अप्रत्याख्यानी क्रोध, अप्रत्याख्यानी मान, अप्रत्याख्यानी माया और अप्रत्याख्यानी लोभ; प्रत्याख्यानी क्रोध, प्रत्याख्यानी मान, प्रत्याख्यानी माया और प्रत्याख्यानी लोभ; संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया और संज्वलन लोभ; इन चार चौकड़ियों के आवर्त में तू हमेशा चक्कर काटता रहता है। जब तेरे सामने इतने विघ्न बाधायें हैं और तू स्वयं निच्चेष्ठ निर्व्याघात होकर पाप एवं दुराचार के गहरे गर्त में उत्तरोत्तर फंसता जा रहा है, तब भव बन्धन से मुक्त होकर तुझसे अपने लक्ष्य पथ का पान्थ बनने की आशा कैसे की जा सकती है ? सच तो यह है कि तू अपने को-अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता ही नहीं। पहचाने भी कैसे ? इन्द्रियों का विश्वस्त गुलाम होने के कारण तुझे मालिक के हुक्म बजाने से फुर्सत कहां ? निरन्तर दुराचारों की हुल्लड़ बाजी में शक्त चोट खाकर तेरे हृदय की आंखों में सर्वाङ्गीण फोले पड़ गये है, फिर उसमें पहचान करने की शक्ति कहां से ? यही कारण है कि तेरे गुणस्थान आज तक फल दे नहीं सके हैं, धैर्यगुण आ नहीं सका है, तृष्णा की बढ़ती ज्वाला शान्त नहीं हो सकी हैं; तू अस्त व्यस्त हो रहा है। जैसे सागर में लहर पर लहर आया करती है, उसी प्रकार तेरे मन में कामनाओं की हिलोरें अनवरत जारी रहती है। तू बड़े से बड़े ओहदे के लिये लालायित रहता है। ऐसी दशा में असली उद्देश्य की सिद्धि की चेष्टा तू क्यों करने लगा ? एक तो तू धार्मिक क्रियायें करता ही नहीं, अगर करता भी है तो शून्य मन से। और शून्य मन से की गई धार्मिक क्रियायें आकाश मे चित्र खींचने की भांति व्यर्थ हो जाती हैं। जिनसे कोई लाभ नहीं, केवल व्यवहार साधन मात्र है। व्यवहार भी जीव के लिये कल्याणकारी जरूर है किन्तु निश्चय शून्य वह भी अभिष्ट फल का प्रदायक नहीं हो सकता है। हे चेतन, व्यवहार मार्ग में व्रत उपवासादिक तपस्यायें नितान्त आवश्यक है, अन्यथा महान् पापों का संचय होता है। इसलिये स्थिर चित्त से व्रत एपवासादि कार्यों का सम्पादन किया कर। पर याद रख, अगर मन की स्थिरता न होगी तो वह (चित्त) इष्ट सिद्धि के विरुद्ध कुत्सित चिन्तनाओं में फंसाकर तुझे पथभ्रष्ट बना देगा। क्योंकि शास्त्रकार ने खुला चैलेज दे रखा है "मनएव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २० ] अर्थात् मनुष्यों का मन ही वन्धन और मोक्ष का कारण होता है। अगर मनुष्यं मन को स्थिरता का सच्चा पाठ पढ़ाकर मुक्ति पथ का अन्वेषक पन्थ बनाता है तो निश्चय है कि वह उसे मुक्ति के द्वार तक पहुंचा देगा। और अगर विषयों के असमतल मैदान में तुरझोपम मन की वागडोर छोड़ देता है तो कभी न कभी अपने मंजिल के विरुद्ध पतन के गम्भीर गर्त में फेंक देगा, जहां से उद्धार पाना दुश्वार हो जायगा। इसलिये सबसे पहले चित्त को स्थिर एवं विषय बिमुख बनाना तेरा एकान्त कर्त्तव्य है। इसी सिलसिले में तुझे एक बात और समझ लेनी चाहिये कि तप, संयम, आदि कार्यों का नहीं करने वाला तो पापी है ही, पर करके तोड़ देने वाला तो महा पापी है। हे जीव ! तू भी महा पापी है, क्योंकि तू अपने संकल्प के प्रतिकूल अनन्तकार्यो एवं अभक्ष्यों से भोला बना हुआ है। जर्दा, भांग, अफीम, तमाखू आदि मादक पदार्थों का सेवन करके "पञ्चक्खाण" नियम तू ने तोड़ डाला है। वता कैसा भयङ्कर पाप कर रहा है | शील और सन्तोप को तू अपने हृदय में स्थान ही नहीं देता। फिर तुझे वह सच्चा सुख आनन्द कैसे मिलेगा! जिसके लिये कि तुझे कितने जन्म जन्मान्तर गुजारने पड़े हैं। पर आज तुझे उन सब बातों की सुध कहाँ ? तू तो पुदल पदार्थ के पीछे अस्त व्यस्त हो रहा है। तू समझता है. कि मेरे पास बड़े बड़े रन है, बड़े बड़े निधान हैं, रसायनों से परिपूर्ण कोथल (थैली ) है। मेरे पास चित्रावेली और अमृत गुटिका है। मेरे पास ऐसे ऐसे मन्त्र है कि बड़े बड़े देवताओं को भी काबू में कर सकता हूं एवं राजा, महाराजा, शाहंशाह जो चाहूं बन सकता हूं। या धनोपार्जन करके संसार में सबसे ऊंचे दर्जे का धनी मानी वन सकता हूं। ऐसी ऐसी विचार धारायें न जानें, कितनी तेरे हृदय में हिमांचल से हमेशा ही तरङ्गित होती रहती हैं एवं उसके अनुसार तू प्रयत्नवान् भी बनता रहता है। पर क्या तेरे ये सब विचार कभी भी पूरे हो सकते हैं ? या पूर्ण होने पर ही लोभ श्रृंखलायें टूट सकती है ? कभी नहीं; जब दशवे गुण स्थान पर पहुंचे हुवे जीव के भी लोभ की इति श्री नहीं होती, तब तेरी लोभ शृंखलता के टूटने की क्या आशा ? तुझे यह मालूम होना चाहिये कि न जातु कामः कामना मुपभोगेन शम्यति ।। तविसा कृष्ण वर्देव भूयएवाभि वर्द्धते ॥ १॥ इच्छाओं की पूर्ति से वे शान्त नहीं होती, घृत डालने से आग की शान्ति नहीं होती, प्रत्युत वढ़ती ही जाती है। हे आत्मन् ! लोभ की शान्ति तो तब होगी, जब तू सन्तोप का अनुपूरण करेगा। किसी ने सच कहा है "जव आवे सन्तोष धन, सव धन धूल समान"। हे चेतन ! तू खूब सोचा करता है कि इस संसार में मेरे इतने कुटुम्ब है, कि मेरा इतना वडा परिवार है, मेरा ऐसा घर, मेरे ये पिता, माता, पुत्र, कलत्र प्रभृति है, यह मेरी धनदौलत है। पर इन्ही विचारों के कारण तू ने अपनी संसार यात्रा में चौरासी लाख घर बना डाले , जिनमें कि तू अनवरत चक्कर काटता रहता है। फिर भी तेरी मृग तृष्णा आज तक शान्त न हुई। क्या तू अपने अतीत के कार्यों को कभी सोचता है ? तू संसार नाटक के रंगमंच पर मा, बाप, स्त्री पुत्र इत्यादि सम्बन्ध में Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] असंख्य भूमिकाओं को लेकर आ जा चुका है, पर तेरे वे आज कुटुम्ब कहां है ? जरा हृदय पर हाथ रखकर विचार करके तो देख ! एक ठग की लड़की ने, जो वश्वक वृत्ति वल पर पैसा पैदा करती थी और अपने पितृ परिवार का भरण पोषण करती थी, अपनी मा से पूछा, मा मैं जो पाप करती हूं उनके भोक्ता कौन कौन होंगे ? मा ने कहा, बेटी, जो करेगा वह भोगेगा। ठग की बेटी विस्मित रह गई उसने क्षुब्ध होकर कहा मा, यदि ऐसी ही बात है, तब सांसारिक स्वार्थ को धिकार है ! झूठी माया ममता को धिक्कार है ! और धिक्कार है उस मृग तृष्णा की, जिसके वश में आकर मनुष्य वास्तविकता को भूल जाता है । अब इस निश्चित सिद्धान्त पर जा चुकी यह झूठा संसार न किसी का हैं, तथा, न होगा | मा, मैं हे जीव ! तुझे भी उसी तरह सोचकर ठोस सिद्धान्त पर आना चाहिये । तू ने मनुष्य का दुर्लभ शरीर, आर्य देश, उत्तम कुल, पूर्ण आयु, श्रावकपन और जिनेश्वर देव का धर्म, बड़े भाग्य अत्यन्त पुण्य से प्राप्त किया है; पर तू इसका दुरुपयोग कर रहा है, सांसारिक क्षण विनश्वर सुखों में लीन होकर इनका असली उद्देश्य ही नष्ट कर रहा है। एक मूर्ख ब्राह्मण ने जिस तरह कौवे को उड़ाने की गरज से दुर्लभ चिन्तामणि रत्न को फेक मारा और इच्छा की पूर्ति करने वाली वस्तु की परवाह न की, ठीक यही हालत अब तेरी है, पर मूर्ख ब्राह्मण तो अपनी मूर्खता पर खूब शरमाया, पर क्या तुझे आज अपनी करनी पर तनिक भी शर्म आती है ? हे आत्मन् ! लोक परलोक दोनों जगह सुख शाति देने वाले जैन धर्म के पवित्र प्राङ्गण में आकर भी तूने मन्द बुद्धि वाले कुगुरुओं के बाह्याडम्बर में फंसकर उस (जैन धर्म ) का स्वरूप ही बिगाड़ डाला, फलतः अपने लोक, परलोक दोनों को बिगाड़ डाला; बता, तेरे निस्तारे का अब क्या रास्ता होगा ? हे नित्यानन्द स्वरूप ! मान रूपी पागल हाथी के ऊपर चढ़कर बाहुबल जी मुनि गौरवान्वित हो रहे थे, उन्हे संज्चालन मान का उदय था । निश्चय था कि उन्हे वह प्रमत्त हस्ती - अपनी अमिट मस्ती में कहीं न कहीं खतरे में गैर देता, उनका सर्वनाश हो जाता। पर संयोग वश ब्राह्मी सुन्दरी जी साध्वी जैसी उपदेष्ट्री मिलं गई, फलतः वे बाल बाल बच गये । पर तुझे तो वैसा होने की भी आशा नहीं है, कारण एक तो सफल उपदेशक का मिलना ही आजकल के जमाने में असम्भव प्रतीत होता है। दूसरा तू स्त्रयं अत्यन्त गहरे कीचड़ में फंसा हुआ है गिरी अवस्था में है, जहां से उद्धार होना बड़ा कठिन है । तू महाक्रोधी, महामानी, महामायी महालोभी बना बैठा है। तू जानता है, शास्त्रकार ने क्या कहाँ है ? "कोहो पियं पणासेई माणो विषय णासणो ॥ माया मित्ताणु णासेई लोहो सव्व विणासओ || १॥" अर्थात् क्रोध चिर कालिक एवं स्थिर प्रीति को भी नष्ट कर देता है। अभिमान विनय धर्म का नाश कर देता है । कपट मित्रता का अन्त कर देता है और लोभ तो सारी कल्याण परम्परा को खतम कर डालने वाला है। इस लिये धीरे धीरे इन चारों का परित्याग करने में ही तेरा कल्याण होगा। महाराजा भरत चक्रवर्ती छः खण्ड के भोक्ता, चौदह रत्न के धारक चौसठ हजार राणियों के रमता, देवी देवताओं से प्राप्त साहाय्य थे । पर वह दुनिया की सम्पदाओं को तमाम अनर्थो की जड़ एवं अनित्य समझ कर Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ॥ उससे दूर होने के लिये समय समय पर बड़ी चेष्टा करते रहते थे निरन्तर मानसतल पर विराग का अङ्कर जमाकर उसे बढ़ाने की तरकीब सोचा करते थे। इसी शुभ भावना के सहारे उन्होंने केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त करके अपनी आत्मा का कल्याण सम्पादन कर लिया। हे स्वप्रकाश ! क्या तू उनकी बराबरी करने की हिम्मत रखता है। ? अगर रखता है तो तेरी गलती है तेरी हिम्मत पस्त हो जायेगी। जानता है ? वह वेसठ शलाका के पुरुप चौथे आरे के जीव थे, उनकी बराबरी करना पंचम काल के जीव के लिये सामर्थ्य से परे की चीज नहीं तो कठिन जरूर है। फिर भी उद्देश्य सिद्धि के लिये सफल चेष्टा तो होनी चाहिये पर तुझे क्या फिकर है ? ___ हे ज्ञान स्वरूप ! तू पूर्ण चैतन्यवान है और कर्म है चैतन्य शून्य। ऐसे वैषम्य के होते हुये भी तू किस के साथ संचय परिचय करता रहता है। क्या यह ठीक है ? संसार का निश्चित नियम है कि लोग बरावरी वाले के साथ ही संचय परिचय, बैठना उठना इत्यादि सांसरिक क्रियाएं किया करते हैं; पर तेरी तो "मुरारे स्तृतीयः पन्थाः" इस लोकोक्ति को चरितार्थ करने वाली नीति ही निराली है। पर इस तेरी अज्ञानता का फल तेरे लिये ही बुरा हुआ है और होगा। तेरी अवस्था तेरे स्वरूप की ठीक विपरीत दिशा की ओर प्रवाहित हो रही है। तू चेतन से जड़, ज्ञानी से अज्ञानी. बलवान् से कमजोर हो गया, हो रहा है और अगर यही रफ्तार रही तो तेरा भविष्य नितान्त दुःख मय होगा। इन कर्मों ने चौदह पूर्वधारी मुनियों को गिराया। ग्यारहवें गुण स्थान पर चढ़े हुए भुवन भानु केवली जी महाराज श्री कमल प्रभाचार्य आदि कतिपय जीव भी इसी कर्म की संगति से गिर चुके हैं। यहां तक कि महा विदेह क्षेत्र के मनुष्य भी इस कर्म के बुरे प्रभाव से अपनी दृढ़ता के अभाव के कारण वरी न रह सके; तब तेरी क्या ताकत है कि इस कर्म की संगति करते हुए भी तू कल्याण पथ का पाथ बना रह सकेगा। सच तो यह है कि तू आठ कर्म और अट्ठावन प्रकृतियों के जाल में इस प्रकार जकड़ गया है कि तेरा छूटना अत्यन्त कठिन हो गया है। इसी तरह ऐसा जबदस्त मोह कर्म तेरे पीछे हाथ धोकर पड़ा है, जिसका जीतना बहुत मुश्किल है कारण, इस मोह कर्म की सत्तर कोड़ा कोड़ियां सागरोपम की स्थिति दुस्तर नदियों की तरह अथाह एवं भयङ्कर है, जिनका पार कर लेना आसान काम नहीं। तुझे तो न जाने कितने जन्म लग जायंगे। पर तुझे तो इसका विचार करना परमावश्यक है कि इस मोह पिशाच के हाथ से छुटकारा कैसे होगा ? हे चेतन ! तेरी रिहाई का तरीका जरूर है, पर करेगा तो वही! अगर तू चारित्र धन का धनी होकर शास्त्रों की प्राप्ति, सद्बुद्धि का अर्जन, सन्तोष का धारन और तृष्णा का सुतरा त्याग करे अग्रसर होता है तो निस्संदेह तेरे उद्धार का मार्ग सुप्रशस्त हो जायगा और तू अपने लक्ष्य तक वेशक पहुंच जायगा । यह महा पुरुषों के मस्तिष्क से सुप्रसूत अटल सिद्धान्त है। धन्य थे वे साधु मुनिराज, जो पञ्च सुमति, तीन गुप्ति से समन्वित छः कायों के पालक, सात महाभयों से निर्भय, अष्टमदों के विजेता, नौ बाड़ से ब्रह्मचर्य के पालक, दश प्रकार के यति धर्मों के धारक, द्वादशाग वाणी के ज्ञाता, मिताहारी, मले मलीन गात्री, लुञ्चन और मुण्डन पर समभावी, वयालीस दूषण को टाल कर आहार के ग्राही, चरण सप्तति करण सप्तति चारित्र के पालक थे। धन्य होगा वह दिन, जिस दिन ऐसे महा पुरुषों का त्रिकाल कल्याणकारी दर्शन होगा। ____ हे आत्मन् ! इस प्रकार के तेरे चारित्र कब उदित होंगे ? होंगे भी कैसे ? इनके लिये तू यतिवान् ही कहां है ? तुझे तो संसार में अभी चक्कर काटना अभीष्ट है। हे जीव, अगर तुझसे ये सब काम न Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] बन पड़े तो देश बिरति संयम पालन करके अपने कल्याण का साधन कर। प्रातःकाल उठकर सामायिक, प्रति क्रमण, देव दर्शन, द्वादशाङ्गी वाणी का श्रवण, देव वन्दन, गुरु वन्दन, दानशील भावना इत्यादि नित्य क्रियायें अच्छी तरह किया कर। सायङ्काल में देव सी प्रतिक्रमण एवं पर्व तिथि में पौषध प्रेम पूर्वक किया कर। इन सब कामों का नतीजा यह होगा कि कभी तेरे परम कल्याण साधक सज्ज्ञान का उदय होगा। पर तू यह सब क्यों करने लगा! तुझे तो बुरे कामों की ओर ही बह जाने की बान पड़ गई है। और बुरे कामों के परिणाम बुरे ही होते हैं। तब तेरी सुव्यवस्था कैसी? इसलिये हे चेतनानन्द, तू जरा अपने स्वरूप को पहचान एवं सच्चे आनन्द की तलाश कर। इस दुनियाबी प्रतिपन्न नाशमान आनन्द की ओर से अपना मुंह मोड़। पढ़ने गुणने में प्रवृत्त होकर चित्त निरोध करने की आवश्यकता है। इसी ठोस नौका के सहारे भवसागर पार करना होगा। तू ने श्रुत ज्ञान की भक्ति नहीं की। तब तुझे आत्म ज्ञान कैसे पैदा हो । जो जीव आत्म ज्ञान की भक्ति करते हैं और उस भक्ति की बदौलत केवल ज्ञान केवल दर्शन पाकर अष्ट कर्म बन्धनों से छुटकारा पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। यदि अब भी तेरा विचार मोक्ष प्राप्ति का है तो सच्चे हृदय से धार्मिक क्रिया कर । सभी प्राणियों में समता का वर्ताव कर, जिससे तेरे सामायिक की सफलता में सहायता मिलेगी। क्योंकि कहा है "समता सव्व भूएसु तस्ससू थावरे सूअ ।। तस्स सामाइयं होई इमं केवली भासियं ।।" ____अर्थात् जो स्थावर जङ्गम सब में अपनी आत्मा के समान सुख दुःख का ध्यान रखता है, उसकी सामायिक सिद्ध होती है। यह केवलीयों ने कहा है। और ज्ञानी पुरुषों ने आत्म कल्याण के लिये केवल एक सामायिक का सम्यक् सम्पादन करना पर्याप्त कहा है। हे स्वप्रकाश, तू ने अपने जीवन में सैकड़ों सामायिक की, फिर भी कुछ लाभ की झलक अब तक नहीं मिली। वास्तविक सामायिक आनन्द, कामदेव, शंख, पुस्कली आदि उत्तम पुरुषों ने की थी। जिससे कि उनका उद्धार हो गया। उसका कारण क्या था ? वे लोग अपनी आत्मा को समता में रखकर शान्त वृत्ति के साथ व्यावहारिक कार्य में रहते हुए भी अन्तरात्मा काही ध्यान किया करते थे। तू ने समस्त जीवन में बहिरात्मा का ध्यान करके अपने बल और पौरुष की अज्ञानता के अतुल कीचड़ मे फंसा दिया; फिर क्यों तेरी सामायिक सफल हो सकेगी है। कहा है काम काज घर का चिंतबे, निन्दा विकथा कर खिज रहे ॥ आरत रौद्र ध्यान मन धरे, क्यों सामायिक निष्फल करे ॥१॥ वस्तुत: ऐसी सामायिक कभी नहीं करना चाहिये, क्योंकि इससे कुछ होने जाने का नहीं। असल सामायिक तो यह है अपना पराया सरखा गिनें, कञ्चन पत्थर समबड़ धरें। सांचो थोड़ो आतम भणे, ते सामायिक शुद्धे करें ॥१॥ शुद्ध भाव से सम्पादित सामायिक वस्तुतः संसार के उलझे वन्धन को काटने के लिये तीक्ष्ण तलवार है। पूनमिया सेठ को ऐसे ही सामायक की बदौलत आत्म कल्याण प्राप्त हुआ था। हे आत्मन् ! तू किसी की बुराई चाहनाछोड़ दे, क्योंकि वह तेरे लिये ही दुःखदायी सिद्ध होगी। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] एवं उससे तेरी वह शक्ति नष्ट हो जायगी जो सहाय्य पाकर कभी न कभी तुझे लक्ष्य की ओर अग्रसर करेगी। इसी तरह मिथ्या भापण भी भयङ्कर पाप है-आत्म विनाश का प्रधान कारण हैं। इसलिये जो कुछ बोलना हो सचाई के साथ बोल। कहा है -“सत्यपूतं वदे द्वाक्यम्' अर्थात् सत्य से पवित्र वाक्य बोले। सत्य भाषण आत्मोद्धार का सफल सहायक और आत्मस्थ दोषों को प्रकट कर उनसे मुंह मोड़ लेने के लिये विवश कर देता है। हे आत्मन् । यद्यपि तू निरीह, निस्पाप, नित्यशुद्ध, बुद्ध, अविनाशी अयोगी इत्यादि उपाधियों से विभूषित है, इसलिये कोई तेरा कुछ बना बिगाड़ नहीं सकता है, फिर भी अष्ट कर्म रूपी स्वाभाविक शत्रुओं के फन्दे में फंस कर अपने स्वरूप को छोड़कर पर स्वरूप में रमण कर रहा है, जिसका नतीजा यह हुआ कि निकट भवी से दूर भवी और अभवी तक पहुंच गया है यही कारण है कि संसार का प्राङ्गण वहुत लम्बा चौड़ा मालूम होता है। परन्तु अपने सच्चे स्वरूप को पाने के लिये तुझे शुद्ध श्रद्धा की आवश्यकता है। जब तक तुझे सच्ची श्रद्धा नहीं आती है तब तक निर्वाण पद बहुत दूर है ! कहा है-"सद्धा परम दुलहा" श्रद्धा बड़ी दुर्लभ है। श्रद्धा के बिना सम्यक्त नहीं आ सकती और सम्यक्त के बिना आत्म ज्ञान सम्भव नहीं। सस्यक्त के स्वरूप का वर्णन शास्त्र ने यों किया है सघाई जिणेसर भासियाई वयणाइ णण्हा हुंति ।। इय बुद्धि जस्स भणे सम्मत्त निश्चलं तस्स ।। अर्थात् जिनेश्वर देव ने जो वचन अपने मुखार विन्द से कहे है, उन वचनों को विलकुल झूठ न समझने वाली बुद्धि जिस जीव के मन में हो, उसका सम्यक्त निश्चल है। इसलिये अच्छी तरह शोच विचार कर श्रद्धा को हृदय में स्थान दे, श्रद्धा से सम्यक्त का सम्पादन कर। सम्यक्त से आत्म ज्ञान हो जायगा पर यह हमेशा याद रख कि दूसरे की निन्दा विकथा करना महा पाप है, इसलिये दूसरे की निन्दा करना छोड़कर अपनी निन्दा किया कर, जिससे तू दुर्बत और दुराचारों से मुड़ कर अपनी भलाई की राह पकड़ कर अग्रसर हो सकेगा। आतम निन्दा आपनी ज्ञानसार मुनि कीन । जो आतम निन्दा करे सो नर सुगुण प्रवीण ॥१॥ बारह मास पर्वाधिकार चैत्र मास पर्व चैत्र मास में चैत्र सुदि ७ से चैत्र सुदि १५ पर्यंत ये ६ दिन जैन शास्त्रानुसार अति उत्तम माने गये हैं। क्यों कि बारह मास मे छः अट्ठाई महोत्सव आते हैं जिसमें चैत्र और आसोज के दोनों अट्ठाई महोत्सव शाश्वत हैं। चैत्र सुदि अष्टमी से चैत्र सुदि पूनम तक और आसोज सुदि अष्टमी से असोज सुदि पूर्णमाशी तक चारों निकायों के देवता सम्मिलित होकर आठवें नंदीश्वर द्वीप मे जाते है। वहां जिन भगवान् की अष्ट द्रव्य से पूजा रचाते है, मांगलिक, गान, वाद्य एवं नाटक आदि करते है, इस प्रकार अनेक प्रकार की भक्ति करते हुए नवमें दिन अपने अपने स्थानों को चले जाते हैं। तीसरा अट्ठाई महोत्सव आषाढ़ चौमासे की चउदस (१४) से ४२ दिन बीतने पर भादों वदि १२ से भादों सुदि ४ तक आती है। चूंकि इस पर्व में कई दफा चार निकायों के देवता नहीं भी जाते हैं अथवा आगे पीछे जाते हैं इसलिये ये अट्ठाई महोत्सव शाश्वत नहीं है। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] ये नवपद ओली शाश्वत अट्ठाई में कही जाती है। अतएव बड़ों की और सूत्रों की आज्ञा मानते हुए इस अट्ठाई में नवपद जी की ओली विधि सहित अवश्य करनी चाहिये (विधि प्रकरण में उक्त विधि दे दी गयी हैं। पाठक गण देख लेवें। ) इसकी प्रथा को श्री श्रुत केवली भद्रबाहु स्वामी जी ने विधि वाद सूत्र से उद्भत कर भव्य जीवों को अनंत सुख की प्राप्ति के लिये प्रसिद्ध की है। अतएव ये तप अवश्य आदरणीय है। ऐसा न कर जो पुरुष कुयुक्ति एवं अपनी कुबुद्धि से इसका खण्डन करते हैं उनको चौरासी लाख जीव योनियों में अनंत काल तक भ्रमण करना पड़ता है। ____ भगवान् महावीर ने स्वयं कहा है कि हे गौतम ! सर्वक्ष के वचन सूत्रों में हैं और जो भी उन सूत्रों के अर्थों को तोड़ कर नये अर्थों की प्ररूपणा करते है वह अनंत संसारी होंगे। सूत्र किसको कहते हैं:-- सुत्त गण हर रइयं, तहेव पत्तय बुद्धि रइयं च । सुयं केवली णा रइयं, अभिण्ण दस पुग्विणा रइयं ।। अर्थात् गणधरों के रचे हुए, प्रत्येक बुद्ध के रचे हुए, श्रुत केवली चौदह पूर्व धारियों के रचे हुए और सम्पूर्ण दश पूर्वधारी के रचे हुए को सूत्र की संज्ञा दी है। श्री वीर जन्म कल्याणक पर्व चैत्र सुदि त्रयोदशी के दिन शासनाधिपति भगवान् महावीर स्वामी का जन्म हुआ, अतएव इस दिन जलयात्रादि विधि के अनुसार भगवान् के सम्पूर्ण जन्म कल्याणक के महोत्सव करने चाहिये। अगर इतना न बन सके तो भगवान् के च्यवन कल्याणक से लेकर निर्वाण कल्याणक पर्यंत वर्ष में जिस दिन जो कल्याणक हो, उसी का महोत्सव करना चाहिये। इससे धर्म का उद्योत होता है। सकल संघ में शांति एवं आनंद रहता है। वीर चरित्र आज से.लगभग ढाई हज़ार वर्ष पहले जब भगवान महावीर का जन्म नहीं हुआ था, भारत की सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थिति ऐसी थी जो एक विशिष्ट आदर्श की अपेक्षा रखती थी। देश मे शूद्रों के साथ बड़ी निर्दयता का व्यवहार किया जाता था। उन्हें ज्ञान, ध्यान, शास्त्र अध्ययन और मोक्ष प्राप्ति के अधिकारों से वंचित समझा जाता था। उनके पास खड़ा होना भी पाप समझा जाता था। हां, जिन शूद्रों से अपना निजि काम लेते थे उन्हें तो हर कोई छूता था, लेकिन जो शूद्र और चंडाल निविचिकित्स भाव से घृणोत्पादक जीवन दशाओं में भी लोक की सेवा करते थे उन्हें अछूत कह कर अवनति के गढ़े में डाल दिया गया था। यज्ञादिकों में अनंत पशुओं का होम किया जाता था। लोग धर्म के असली अर्थ को भूल कर आडम्बर को ही धर्म मान बैठे थे। प्राह्मण तरह तरह की तामसिक तपस्याएं करते थे और सर्वेसर्वा माने जाते थे। मास का सर्वत्र प्रचार था। ऐसी विकट परिस्थिति मे भगवान महावीर का जन्म हुआ। ईसवी की ७ वीं शताब्दी के पूर्व विहार प्रान्त में लच्छवाड़ा क्षत्रियों का राज संघ प्रसिद्ध था। इस संघ मे आस पास के क्षत्रियों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे और वे मिल कर राज व्यवस्था करते थे। उन क्षत्रियों में कुण्ड ग्राम के क्षत्रिय भी शामिल थे। उनके प्रमुख राजा सिद्धार्थ थ। उनकी पट्टरानी त्रिशला को पावन कोख से चैत्र सुदि त्रयोदशी को भगवान का जन्म हुआ। भगवान् के एक बड़ा भाई और एक बड़ी बहिन थी। बड़े भाई का नाम नंदीवधन एवं बहिन का नाम सुनंदा था। Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] माता पिता के बहुत आग्रहकरने पर और उनके चित्त को संतोष देने के लिए भगवान् ने वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया। उनकी पत्नी का नाम यशोदा था। उनके एक कन्या भी हुई जिसका नाम प्रिय दर्शना था। ___ माता पिताके स्वर्गवास होने पर वर्धमान स्वामी ने दीक्षा लेनेकी पूरी तैयारी कर ली थी, इससे ज्येष्ठ बन्धु को कष्ट होते देख उन्होंने गृहस्थ जीवन की अवधि दो वर्ष और बढ़ा दी। इन दोनों बातों से भगवान् के स्वभाव के दो दृष्य स्पष्ट रूप से विदित होते हैं। एक तो बड़े बूढों के प्रति आदर तथा बहुमान और दूसरे मौके को देख कर मूल सिद्धान्त में बाधा न पड़ने देते हुए समझौता करने की उदारता। इस प्रकार ३० वर्ष की तरुण अवस्था में वर्धमान स्वामी ने गृह को सर्वथा त्याग कर दीक्षा ग्रहण की। १२ वर्षों तक अनेक उपसर्ग सहे उनके पांवों पर ग्वाले ने खीर पकाई, उनके कानों में कीले गाड़े गये। इतने भीषण एवं हृदय विदारक उपसर्गों को सहते हुए जव पूर्ण सत्य सामने आ गया और अज्ञान का नाश होकर केवल ज्ञान रूपी सूर्योदय का प्रकाश हुआ तब उन्होंने कहा : न श्वेताम्बरत्वे न दिगाम्बरत्वे, न तत्त्ववादे न च तर्क वादे । न पक्षसेवा श्रयणेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्ति रेव ॥ अर्थात् न श्वेताम्बर हो जाने से ही, न दिगम्बर हो जाने से ही और न तर्कवाद के आश्रय से ही मुक्ति होनी है प्रत्युत् सच्ची मुक्ति तो क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों से छुटकारा पाने से ही मुक्ती होती है। भगवान्की भावनाएं उदार थीं । उनका अन्तः करण विशाल था। उन्होंने किसी एक क्षेत्रमें नहीं, एक उपाश्रय एवं मंदिर में नहीं, वरन् जगह जगह पर जाकर उपदेश दिये उनके समवसरण में प्रत्येक जाति के लोग सम्मिलित होते थे। भगवान् के उपदेश तत्त्व पूर्ण थे। उनमें किसी तरह का आडम्बर अथवा मान पाने की इच्छा न थी यही वह धर्मोपदेश किसी वस्त्रधारी साधु या देश के लिये था प्रत्युत् सारे संसार के लिए था। उन्होंने साम्यवाद (अर्थात् धर्म ऊंच नीच, स्त्री पुरुष, ब्राह्मण व चंडाल सब बरावर हैं) के सिद्धांत को प्राणी मात्र के लिए व्यापक बना दिया। भगवान् वीर ने लोगों को स्वावलम्बी बना कर उन्हें धर्मवीर, कर्मवीर, युद्धवीर और दानवीर बनाया। उन्होंने बताया कि संयम और तप के एक साथ मेल का नाम अहिंसा है। तप के अन्दर निष्काम प्रेम और दया तथा संयम में सेवा का समावेश किया। उन्होंने समभाव से ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को जैन बनाया और बताया कि प्राणी मात्र से प्रेम करना और कपायों का निरोध करना ही ईश्वर पद पाना है। सक्षेप से भगवान् का उपदेश आचार में पूर्ण अहिंसा एवं तत्त्व ज्ञान में अनेकांत वाद, इन दो ही बातों में समझा जा सकता है। श्रमण भगवान् ने साधु साध्वी एवं श्रावक श्राविका संघ की प्ररूपणा की। उनके १४००० साधु और ३६००० साध्वियों का परिवार था, इसके सिवाय लाखों की संख्या में श्रावक श्राविकाएं थीं। गौतम गणधर आदि ब्राह्मण, उदायी एवं मेघकुमार आदि क्षत्रिय, शालिभद्र आदि वैश्य तथा हरिकेशी जैसे शूद्रों ने भी दीक्षा ग्रहण कर उच्च पद को प्राप्त किया था। इस प्रकार आज से २४६६ वर्ष पूर्व राजगृही के पास पावापुरी नामक पवित्र स्थान में कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि को इस शांति पूर्ण तपस्वी का ऐहिक जीवन पूर्ण हुआ अर्थात् उन्होंने निर्वाण पद Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] प्राप्त किया और देवताओं के आगमन से संसार जगमगा उठा। उन्हीं की पुण्य स्मृति को लेकर हमें दीपावली मनाते हैं। + 4 + चूंकि चैत्र सुदि पूर्णिमा के दिन श्री आदिनाथ भगवान् के प्रथम गणधर श्री पुण्डरीक जी ५०० साधुओं सहित मोक्ष गये हैं इसीलिए श्री भरत चक्रवर्ती ने इस पर्व को आराधन करके चैत्री पूनम पर्व को सर्वत्र प्रसिद्ध किया । । इस पर्व के आराधना से इस भव में तथा पर भव में अनेक सुखों की मनोरथ पूर्ण होते हैं। और आधि, व्याधि, शोक, भय, दरिद्रता आदि ऋद्धि की प्राप्ति होती है । इसलिए इस पर्व को यथाशक्ति अवश्य करना चाहिये । वैशाख मास पर्वाधिकार + प्राप्ति होती है। स्त्रियों के होकर परभव में देवादिक वैशाख सुदि दूज का दिन अक्षय तृतीया पर्व के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है । भगवान् ऋषभदेव स्वामीने दीक्षा लेकर मौन धारण कर एक बरस तक निराहार रह आर्य और अनार्य देशों में विहार किया । पाने के दिन प्रभु को कहीं से भी आहार न मिला । अंत में हस्तिनागपुर नगर में सोमयश राजा के पुत्र श्री श्रेयांस कुमार ने जाति स्मरण ज्ञान से शुद्ध आहार की विधि जान कर प्रभु को इक्षुरस से पारना कराया। उत्तम दान के प्रभाव से देवताओं ने हर्षित होकर १२|| करोड़ सोनइयों की वर्षा की और देव दुन्दुभी बजाते हुए पांचों द्रव्य प्रगट किये। वैशाख सुदि ३ के दिन श्रेयांस कुमार का दिया हुआ ये दान अक्षय हुआ, इससे ये दिन पर्व होकर अक्षय तृतीया कहलाने लगा। संसार में अन्य व्यवहार भगवान् श्री ऋषभदेव जी ने चलाये परन्तु दान देने का व्यवहार श्रेयांस कुमार ने चलाया और तभी से यतियों को आहार देने की विधि प्रचलित हुई । इस दान के प्रभाव से श्रेयांस कुमार को अक्षय सुख की प्राप्ति हुई अतः ये पर्व श्री संघ में मंगलकारी है। इस दिन अच्छे वस्त्र पहन कर मंदिर जी में आना चाहिये । अष्ट द्रव्य से प्रभु का पूजन कर अष्ट प्रकारी, सत्तरहभेदी आदि पूजाये करानी चाहिये । गुरु के मुख से यथाशक्ति एकासन आदि का चक्खाण ग्रहण कर इस पर्व की महिमा सुननी चाहिये । साधु मुनिराजों को, वहरा कर, कुटुम्ब के सभी व्यक्ति सम्मिलित होकर भोजन करें। शुभ कर्मों के शुरू करने के लिये ये दिन अत्यन्त उत्तम है। और इस दिन शुरू किया हुआ कार्य उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होगा । भगवान् आदिनाथ चरित्र तीसरे आरे की समाप्ति में जब चौरासी लाख पूर्व और नवासी पक्ष बांकी रहे तब आपाढ़ कृष्णा चतुर्दशी के दिन, नाभि कुलकर की पत्नी मरुदेवी की गर्भ में देवलोक से च्यत्र कर वज्र नाम का जीव और चैत्र अष्टमी के दिन मरुदेवी ने युगल पुत्र को जन्म दिया। भगवान् की जंघा में ऋषभ का चिह्न था और मरुदेवी माता ने स्वप्न में भी सर्व प्रथम ऋषभ (बैल) को ही देखा था इसलिये भगवान् का नाम ऋषभ रखा गया और कन्या का नाम सुमंगला रखा गया । वंश-स्थापना के लिए इन्द्र जब प्रभु के पास आये और साथ में भगवान् को देने के लिये इशु (गन्ना) लाये। प्रभु ने सर्व प्रथम इन हाथ में ग्रहण किया, इसलिये उनके वंश का नाम 'इक्ष्वाकु' हुआ। Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ___ उस समय युगलिया धर्म टूट चुका था क्योंकि पहले ही पहिले एक दिन वाड़ के वृक्ष के नीचे बैठे हुए बहन भाई युगलियेके जोड़े, ताड़ वृक्षके फल टूटनेसे भाईकी मृत्यु होगई इसलिये वह कन्या इधर उधर भटकने लगी। कई युगलिये उसको लेकर नाभि कुलकर राजा के पास गये। नाभि राजा ने पूर्ण वृतान्त सुन कर कहा कि ये ऋषभ की धर्मपत्नी होवे। फिर उन्होंने उसको अपने पास रख लिया। उस स्त्री का नाम सुनंदा था। युवावस्था में प्रवेश करने पर, अपने भोगोपभोग कर्मों को अवधिज्ञान के द्वारा जान कर, सौधर्मेन्द्र को प्रेरणा से बड़ी धूम धाम से सुमगला और सुनंदा के साथ भगवान् ने पाणी ग्रहण किया और तभी से लोक में विवाह की रीति प्रचलित हुई। ___ उस समय में कालदोष से कल्प वृक्षों का प्रभाव कम हो चला था, युगलियों में कापायिक भाव और झगड़े बढ़ने लगे थे तब इन्द्र ने आकर राज्याभिषेक कर प्रभु को दिव्य अलंकारो से अलंकृत किया क्योंकि युगलिये राज्याभिषेक की विधि नहीं जानते थे। तब इन्द्र ने कुबेर को विनीता नगरी निर्माण करने का आदेश दिया। सर्व प्रथम ऋषभदेव ही राजा हुए इसीलिये उन्हें आदिनाथ कहा जाता है। भगवान ने लोगों को असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और शिल्प के काम सिखलाये। विवाह के पश्चात् भगवान ने कुछ वर्ष कम ६ लाख वर्ष तक सुमंगला और सुनंदा से सुखोपभोग किया। सुसंगला ने भरत ब्राह्मी को एक साथ जन्म दिया और ४६ युग्म पुत्रों को जन्मा । सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी के जोड़े को उत्पन्न किया। ___ अन्त में लोकांतिक देवों की प्रेरणा से, और पूर्व भव के सुखों को विचार कर, संसार को अनित्य जान कर, भरत को राज्य दिया। एक वर्ष तक वर्षी दान देकर प्रभु ने चार हजार राजाओं के साथ चैत्र वदि अष्टमी को दीक्षा ग्रहण की। पारने के दिन प्रभु को कहीं भी निर्मल आहार नहीं मिला इस लिये वे निराहार ही विहार करने लगे। हस्तिनागपुर में सोमप्रभ राजा के पुत्र श्रेयांस कुमार के हाथों से प्रभु का पारना हुआ और वह दिन अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुआ, सो हम पहले लिख ही आये हैं। प्रभु को अयोध्या नगरी में फागुन वदि एकादशी के दिन कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई। देवों ने समवसरण की रचना की और भगवान् ने जीवों को भवसागर तार देने वाली धर्म देशना दी। उनके देशना को सुन कर भरत के ऋषभसेन मरीचि आदि ५०० पुत्रों ने, और ब्राह्मी आदि ने दीक्षा ग्रहण की। उसी समय से भूपभसेन आदि साधुओं, ब्राह्मी आदि साध्वियों, भरत आदि श्रावकों और सुन्दरी आदि श्राविकाओं से चतुर्विध संघ की स्थापना हुई। गोमुख नामक यक्ष प्रभु का अधिष्ठायक और चक्रेश्वरी देवी शासन देवी हुई। ___ एक लाख पूर्व दीक्षा के पश्चात् बीतने पर, प्रभु अपना निर्वाण समीप जान कर अष्टापद पर्वत प्राचीन समय में युगलिये जोड़े से उत्पन्न हुआ करते थे। जब तक वे युवावस्था को प्राप्त नहीं होते थे तब तक उनमें वह न भाई का सम्बन्ध रहता था जव युवावस्था होती तब उनमें स्त्री पुरुष का सम्बन्ध हो जाता था उसी समय ऋषभदेव स्वामी तथा सुमगला युवावस्था में प्रवेश कर रहे थे अचानक एक युगलिये की मृत्यु हो गई तब उसकी बहन का ऋषभदेव स्वामी के साथ विवाह हुभा। जो युगलिया मरा था वह उस स्त्री का पतित्व रूप होकर नहीं मरा था इसलिये भगवान् का विधवा विवाह नहीं हुआ था जो लोग अपभटेव स्वामी पर विधवा विवाह का झूठा लांछन लगा कर अपनी पाप मनोवृत्ति को लोगों में प्रचलित करते हुए भगवान् को विधवा विवाह के प्रमाण स्वरूप जनता में प्रगट करते हैं यह उनकी यी भारी भूल है। दूसरों के यहा से लड़की लाना उसी वक्त से चला है। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] पर आये और अनशन ग्रहण किया और माघ वदि त्रयोदशी को प्रातः काल चौरासी लाख पूर्व की आयु को पूर्ण कर भगवान् मोक्ष को गये । भगवान २० लाख पूर्व कुमारावस्था में, ६३ लाख पूर्व राज्य के पालन और सुखभोग में में, १००० वर्ष छद्मावस्था में और १००० वर्ष कम एक लाख पूर्व केवली अवस्था में रहे। ज्येष्ठ मास पर्वाधिकार ज्येष्ठ वदि त्रयोदशी के दिन सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथजी मोक्ष गये है इसीलिए ये दिन अति उत्तम माना जाता है। इस दिन समस्त श्री संघ सम्मिलित होकर मंदिर जी में जावे । विधि सहित शांति पूजा करावे और उस शान्ति जल को अपने २ घर ले जाकर छीटे । इससे श्री संघ के सामूहिक श्रीमारी, हैजा आदि हरएक रोगों का कभी प्रकोप नहीं होगा । कदाचित् किसी श्रावक के घर में कोई रोग हो अथवा अति चिन्ता फैली हुई हो तो शुभ दिन में शान्ति पूजा का महोत्सव कराना चाहिये। इससे आधि, व्याधि, दुःख, दरिद्रता आदि का अवश्य नाश होगा और आनन्द, मंगल की प्राप्ती होगी। शांति नाथ चरित्र इस जम्बुद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनागपुर नाम का नगर था । उस नगरी के राजा विश्वसेन थे । उनकी रानी अचिरा की कूख से ज्येष्ठ वदि द्वादशी के दिन भगवान् ने जन्म लिया। प्रभु का रंग सुवर्ण जैसा था और शरीर पर मृग का चिह्न था । प्रभु के गर्भ में आने से ही कुरुदेश में महामारी आदि उपद्रव शांत हो गये थे इसलिये माता पिता आपका नाम शांति नाथ रखा । युवावस्था को प्राप्त होने पर विश्वसेन राजा ने इनका अनेक राजकुमारियों से पाणि ग्रहण कर दिया । और २५००० वर्ष अवस्था में इनको राज्य भार सौंपा। एक दिन आयुधशाला में चक्ररन के उत्पन्न होने पर, प्रभु ने पृथ्वी के छहों खण्डों को जीता और चक्रवर्त्ती कहाये । भगवान् चौदह रनों (जिनमे एक २ रनके १००० हजार यक्ष अधिष्ठायक धे) चौसट हनार स्त्रियों, ८४-८४ लाख हाथियों, घोड़ों, रथों, नव महानिधियों, ६६ करोड़ ग्रामों के स्वामी थे । लोकातिक देवों की प्रेरणा से प्रभु ने वर्षी दान देकर १००० राजाओं के साथ ज्येष्ठ वढि चौदस को अपने पुत्र चक्रायुध को राज्य सौंप कर, दीक्षा ग्रहण की और दूसरे दिन मंदिर पुर के राजा सुमित्र के घर पारना किया। एक वर्ष तक बिहार कर प्रभु को पोप सुदि नवमी के दिन केवल ज्ञान हुआ । उसी समय चारों निकायों के देवों ने समवसरण की रचना की और भगवान् ने मधु क्षीरा मुख afrat तथा ३५ अतिशय वाणी मे धर्म देशना कही। उस मोक्ष दायक देशना को सुन कर उनके पुत्र चनायुध ने भी ३५ राजाओं सहित, अपने पुत्र को राज्य साँप कर दीक्षा ले लो और प्रथम गणधर हुए। इसप्रकार पृथ्वीपर विहार करते हुए प्रभुने बासठ हजार सुनियों और कमर माध्य दीक्षा दी। गरड नामक यक्ष प्रभु का अधिष्ठायक हुआ और निर्वाणी नाम की शासन देवी हुई ७५ फार वर्ष गृहस्थावास ने एक वर्ष ears Har में और जी अवस्था में रहे। सब मिलाकर प्रभु का आयु एक लाग्न वर्ष की थी। जिसमें वियर करने में लोगों के सब उपद्रव शांत हो जाने थे। अंत में अपना निर्माण जान शि Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] - पर पधारे। वहां नौ सौ केवलियों के साथ प्रभु ने एक मास तक अनशन किया । त्रयोदशी के दिन, जब चन्द्रमा भरणी नक्षत्र में था, तब प्रभु ने मोक्ष पद को प्राप्त किया । “यस्योपसर्गाः स्मरणेन यांति, विश्वे यदीयाश्च गुणा न भांति । "मृगांक लक्ष्म्या कनकस्य कांतिः, संघस्य शांति स करोतु शांतिः ॥ अर्थात् जिनके स्मरण से सब उपसर्ग दूर होते हैं, जिनके गुण सारे विश्व में भी नहीं समाते, जिनके मृग का लांछन है, और जिनके शरीर को कांति सुवर्ण के समान है, वे श्री शांतिनाथ भगवान श्री संघ की शांति करें ।" ज्येष्ठ मास की कृष्ण आषाढ़ मास पर्वाधिकार आषाढ़ सुदिप से पूर्णिमा तक चातुर्मासिक अट्ठाई के दिन अति उत्तम हैं। इसमें आपाढ़ सुदि १४, चौमासी चतुर्दशी के नाम से प्रसिद्ध है। जैसा कहा भी है कि सामायिकrवश्यक पौपधानि, देवार्चनं नात्र विले पनानि । - ग्रह्म क्रिया दान तपो मुखानि, भव्याश्चतुर्मासिक मंडनानि ॥१॥ अर्थ सामायिक करना, पौषध लेना, देव पूजन करना, यथाशक्ति दान करना, तप करना आदि कृत्य चतुर्मास के अलंकार भूत हैं अर्थात् करने योग्य हैं । अतएव इस अठाई में यथाशक्ति सामायिक, प्रतिक्रमण, पोसह आदि करना चाहिये। मंदिर जी में नाना प्रकार की पूजायें करवानी चाहियें। शीलव्रत का पालन करना चाहिये। जहां तक बन सके सुपात्रदान देना चाहिये और तपस्या करनी चाहिये। मतलब ये है कि जहां तक भी हो सके धर्म का उद्योत एवं वृद्धि करनी चाहिये । चतुर्दशी के दिन मंदिर जी में जाकर शक्रस्तव से देव वंदना करनी चाहिये । गुरु महाराज से चौमासिक पर्व का व्याख्यान सुनना चाहिये। सब चीजों का प्रमाण करना चाहिये अर्थात् श्रावक के चौदह नियम धारने चाहिये जितनी चीजों का त्याग हो सके उनकी सौगंध लेनी चाहिये । इसी प्रकार कार्त्तिक चौमासे और फागुन चौमासे का भी विधान समझना । जिनदत्त सूरिजी चारित्र आषाढ़ सुदि एकादशी, को दादा जी का स्वर्गवास हुआ। इसलिये इस दिन जिनदन्त सूरि जी जयंति मनाई जाती है क्यों कि इससे संघ में किसी तरह का उपद्रव नहीं फैलता और संघ में आनन्द मंगल का प्रादुर्भाव रहता है। श्री महावीर स्वामी के शिष्य पांचवें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी की पट्ट परांपरा में शासन प्रभावक, में चरित्र नायक श्री जिनदत्त सूरि जी हुए। इन सूरि जी का गुजरात के धुंधुका नगर में संवत् ११३० जन्म हुआ माता श्री का नाम 'वाहरदे' और पिता श्री का नाम (हुम्बड जातीय ) वांछिग मंत्री था। आपका जन्म नाम सोमचन्द्र था । 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' की कहावत आप में बचपन से ही दृष्टि गोचर होने लगी । ५ वर्ष की उम्र में पढ़ने को भेजे गये और शीघ्र ही अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से सव को आश्चर्यान्वित कर दिया। संवत् १९४१ में जिनेश्वर सूरि जी के शिष्य उपाध्याय धर्म देव से इन्होंने ११ वर्ष की वाल अवस्था में दीक्षा 1 २० वर्ष की अल्प अवस्था में ही सम्पूर्ण शाल अभ्यास कर लिया और गीतार्थ जैन साधु यन Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ ] गये। इसी अवसर पर सारंग पुर में इन्होंने कुमार पाल उपाध्याय को अन्त समय का अनशन करवा धर्मध्यान कराया जिससे मर कर वह देव हुआ। देवता ने अवधिज्ञान से इनको अपना उपकारी जान इनके पास आया और नमस्कार करके कहने लगा "हे मुनि । आप शीघ्र ही आचार्य होंगे परन्तु कुछ उपयोग रखियेगा आपके सूरि पद के तीन मुहुर्त निकलेंगे प्रथम में मरणांत कष्ट होगा। दूसरे में गच्छ भेद बहुत होंगे। इन कारणों से आप तीसरे मुहुर्त में सूरि पद ग्रहण करें इससे शासन में उन्नति होगी। परन्तु होनहार बलवान् है। संवत् ११६८ वैशाख वदि ६ शनिवार को दूसरेमुहुर्त में ही श्री देव भद्राचार्य द्वारा सूरि पद दिया गया। आप का नाम जिनदत्त सूरि रखा गया। और उन्होंने प्रामानुप्राम विहार करके भव्यात्माओं को प्रतिबोध देना शुरु कर दिया। एकदा गुरु महाराज ने तीन करोड़ माया बीज मंत्र के जाप का अनुष्ठान किया। परन्तु देव ने सूचित कर दिया कि ६४ योगनियां विघ्न उपस्थित करेंगी।सूचना पानेके पश्चात् गुरु महाराजने श्रावकोंसे कहा कि आज व्याख्यान में ६४ स्त्रियां आवेंगी उनके सम्मानार्थ ६४ पट्टे रखो। और फिर उन पट्टों को गुरु महाराज ने मंत्रित कर दिया। जब ६४ योगनियां ६४ स्त्रियों के वेश में आई तब श्रावकों ने उन्हें बड़े सम्मान से बैठाया। व्याख्यान समाप्त होने पर जब उन्होंने उठना चाहा तो वे उठ नहीं सकी, अर्थात् वहीं की वहीं स्तंभित हो गई। ये चमत्कार देख सब आश्चर्य करने लगे। और योगनियों ने नम्र शीस होकर कहा 'महात्मन्, हम तो आपको चलायमान करने आई थीं मगर आपने ही हमको निश्चल कर दिया। अब हम आपके आधीन हैं। भविष्य में हम आपकी आज्ञानुसार काम करेंगी। हमको मुक्त कीजिएगा" छोड़ने के पहले गुरु महाराज ने कहा कि "अब से हमारे परम्परा के आचार्य तथा साधु को कभी दुःख न देना और धोखे में न लेना" योगनियों ने तथास्तु कहा और प्रसन्न होकर सात वर दिये : १ आपका श्रावक तेजस्वी होगा। २ प्रायः निर्धन न होगा। ३ अकाल मृत्यु न होगी। ४ अखंड ब्रह्मचारिणी साध्वी को ऋतु नहीं आवेगा। ५ आपके नाम से बिजली उपसर्ग दूर होंगे। ६ सिंध देश में गया श्रावक धनवंत होगा। ७ चतुर्विध संघ के आपको स्मरण से सब कष्ट दूर होंगे परन्तु इनके साथ २ इतना और विशेष करना होगा तभी सात वरदान सफलीभूत होंगे। १ आपका पट्टधर २००० सूरि मंत्र का जाप करे। २ साधु दो हजार नवकार गुने। ३ श्रावक प्रभात और संध्या को ७ स्मरण पढ़े या सुने। ४ एक नवकार व एक उवसग्गहर ऐसी १०८ वार ३ खीचड़ी की माला गुणे। ५ श्रावक एक मास में २ आयंबिल करे। ६ साधु निरन्तर यथाशक्ति एकासना करे। ७ आचार्य पंचनदी के अधिष्टायकों का साधन करे। ___एकदा अजमेर में श्रावक पाक्षिक प्रतिक्रमण करने लगे। उस समय विजली बड़े वेग से चमकने लगी और सभी श्रावकों का डर से ध्यान भंग होने लगा। उस समय गुरु महाराज ने मंत्र वल से उसको आकर्षित कर अपने पात्र के नीचे दवा दिया। प्रतिक्रमण के बाद उसे छोड़ दिया। छोड़ने पर आवाज आई कि मैं आपके नाम स्मरण करने वाले पर कभी नहीं गिरूंगी! परम कृपालु गुरु महाराज विहार करते वड़ नगर में आये। उस समय उनकी अतुल वैभव और महिमा देख द्वेपियों ने एक मरी हुई गाय को जैन मन्दिर के द्वार पर डाल दिया और गोहत्या का द्वेष लगा कर घबराये हुए श्रावकों की विनती पर उन्होंने एक व्यंतर देव को गौ के अन्दर प्रवेश कराकर उसको जीवित कर द्वेषियों के मंदिर भेज दिया वहां वह गौ मृत होकर शिव लिंग पर गिर पड़ी। फिर वे द्वेप Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] [ भाव को छोड़कर इनके चरणोंमें गिर पड़े और जैन धर्म को धारण कर लिया तब गौ उठ कर निकल गई। ___एक दफा गिरनार पर्वत पर अंबड़ नाम के श्रावक ने अट्ठम तप करके अम्बिका देवी का आराधन किया। देवी के प्रत्यक्ष दर्शन देने पर नागदेव श्रावक ने शासन प्रभावक युग प्रधान का पता पूछा देवी ने सुवर्णाक्षरों से उसके हाथ में एक श्लोक लिख दिया और कहा कि इसके पढ़ने वाला ही शासन प्रभावक युग प्रधान होगा। नागदेव ने अनेक आचार्यों को हाथ दिखाया मगर कोई पढ़ न सका । अनुक्रमसे वो पाटण पहुंचा। सूरि जी को हाथ दिखाया। चूंकि श्लोक उन्हीं से सम्बन्ध रखता था इसलिए गुरु महाराज ने उसके हाथ पर वासक्षेप कर अपने एक शिष्य को पढ़ने की आज्ञा दी उसमें लिखा था: दासानुदासा इव सव देवाः, यदीय पादान्ज तले लुठति। मरुस्थली कल्पतरुः स जीयाद, युग प्रधानो जिनदत्त सूरिः॥१॥ अर्थात् जिनकी सेवा में सब देव दासों की तरह सेवा करते हैं जो मरुस्थल की भूमि के लिए कल्प वृक्ष के समान हैं ऐसे युग प्रधानाचार्य श्री जिनजत्त सूरिः जयवंता हों। इसी समय से इनको युग प्रधानाचार्य की पदवी दी गई। इसी तरह प्रामानुग्राम विहार करते हुए आप मुलतान पधारे। यहां के लोगों ने बड़ी भक्ति भाव से उनका स्वागत किया। दैवयोग से आपकी इस कीर्ति और महिमा को देख कर अंबड ईर्ष्या करने लगा। एक दिन घमंड से उसने कहा कि यदि आप मेरे पाटन में इस तरह महोत्सव से आवें तो मैं आपको चमत्कारी जानूं। गुरु महाराज ने अत्यन्त नर्मी से उत्तर दिया कि 'हे श्रावक जिसका पुण्य प्रबल होता है उसी को मान मिलता है। कालान्तर में आप पाटन गये और आपका नगर प्रवेश बड़ी धूमधाम से किया गया। द्वषी अंबड़ भी मौजूद था मगर काल चक्र ने उसको निर्धन बना दिया था। किन्तु फिर भी उसने द्वष भाव को नहीं छोड़ा। कपट से गुरु महाराज से क्षमा मांगी और अपने आपको परम भक्त जितलाने लगा। सरल परिणामी गुरु महाराज इस की चाल में फंस गये, इस ने समय पाकर विष मिश्रित शक्कर का पानी उपवास के पारणे में बहरा दिया। थोड़ी ही देर में विप ने अपना असर दिखाया। परन्तु जाको राखे साइयां मार न सपके कोए, वाली कहावत के अनुसार जव, श्री संघ को विप पान का पता चला तब नगर सेठ आबुशाह ने विष अपहरण जड़ी मंगवा कर गुरु महाराज को सेवन कराई। श्री संघ ने अंबड़ को खूब लज्जित किया। और वह मर व्यंतर देव हुवा । एक समय विक्रमपुर में महामारी का उपद्रव हुआ। दादाजी ने जैन संघ में महामारी का उपद्रव दूर किया तब माहेश्वरी जाति के लोगों ने गुरु महाराज से प्रार्थना की हमें भी बचाइये। गुरुजी के उपदेश से वे माहेश्वरी जैनी हुए और बहुतों ने तो दीक्षा ही ग्रहण कर ली और इस तरह महामारी के उपद्रव से बच गये। इस प्रकार जीवों का उपकार करते हुए श्री जिनदत्त सूरिजी महाराज ७६ वर्ष की आयु पूर्ण करके विक्रम संवत् १२११ आषाढ़ सुदी ११, गुरुवार को अजमेर मे अनशन करके स्वर्ग सिधारे। ये सौधर्म देवलोक में टक्कर नाम के विमान में चार पल्योपम की आयुष्य वाले देव हुए। वहां से च्यव कर महाविदेह में मोक्ष जावेंगे। जिनदत्त सूरिजी के रचित ग्रन्थ १ संदेह दोहावली, २ उत्सूत्र पदोघाटन कुलक, ३ उपदेश कुलक, ४ अवस्था कुलक, ५ चैत्यवंदन कुलक, ६ गणधर साध शतक, ७ चरचरी प्रकरण, ८ पदस्थान विधि, ६ प्रबन्धोदय प्रन्थ, १० कालस्वरूप Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] द्वात्रिंशिका, ११ अध्यात्म दीपिका, १२ पट्टावली, १३ तंजय स्तोत्र । १४ गुरु पारतन्त्र्य स्तोत्र सिग्यमहर स्तोत्र | भाद्रपद मास पर्वाधिकार भादव वदी ११-१२ या तेरस से पर्युषण पर्व आरंभ होकर भादव सुदी ४ अथवा कभी पंचमी को समाप्त होता है । इस पर्व की महिमा शास्त्रों ने बहुत वर्णन की है और लिखा है कि जिस तरह आसमान में उगने वाले तारों को कोई नहीं गिन सकता, गंगा नदी के रेत के कणों का हिसाब नहीं कर सकता, माता के स्नेह की सीमा नहीं देख सकता, वैसे ही इस पर्युषण पर्व की महिमा का पार पाना भी किसी के लिए संभव नहीं है । इसलिए यह सब पर्वो से उत्तम पर्व है । पर्युषण पर्व में अवश्य करने योग्य ग्यारह द्वार बतलाये गये है। इनको अवश्य करना चाहिये१ चतुर्विध श्री संघ मिल कर वीतराग प्रभु की पूजा करना । २ यति महाराजों की भक्ति करना । ३ कल्प सूत्र श्रवण करना । ४ वीतराग प्रभु की अर्चना और अंग रचना नित्य करना । ५ चतुर्विध संघ में प्रभावना करना । ६ सहधर्मियों से प्रेम प्रगट करना । ७ जीवों को अभय दान देने की घोषणा करना और करवाना | ८ अट्ठम तप करना । ज्ञान की पूजा करना । १० श्री सब क्षमायाचना करना । ११ और संवत्सरी प्रतिक्रमण करना । इसी प्रकार नित्य सामायिक, प्रतिक्रमण, पोसह आदि करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना यथाशक्ति दान देना, दया का भाव रखना, घर गृहस्थी के समस्त संकट छोड़ देना भूमि पर शयन करना सचित्त और सावद्य व्यापार से दूर रहना, रथयात्रा आदि महोत्सव कराना, इस प्रकार ज्ञान की वृद्धि करना, मांगलिक गीत गाना आदि कृत्य श्रावकों को करने चाहिये । और धर्म कार्यो में लग जाना चाहिये। जो मनुष्य ऐसा नहीं करते वे अपना जन्म वृथा ही गंवाते हैं । जो भव्य प्राणी इसकी आराधना करते हैं वे इस लोक में ऋद्धि, वृद्धि, सुख सम्पदा को प्राप्त करते है, परलोक में इन्द्र की पदवी पाते हैं और क्रम से तीर्थकर पद प्राप्त कर मोक्ष पदवी प्राप्त करते हैं । कल्पलता शास्त्र में पर्यापण की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है कि जैसे जगन मे नत्रकार के समान मंत्र नहीं है, तीर्थो में शत्रुंजय के समान कोई तीर्थ नहीं है, पांच दानों में अभयवान और सुपात्र दान के समान कोई दान नहीं है, गुणों में विनय गुण, वनों में ब्रह्मचर्य व्रत, नियमों में संतोष नियम. तपों में उपशम तप, दर्शनों मे जैन दर्शन, जल में गंगा जल, तेजवंतों मे सूर्य, नृत्यकला में मोर, गजों में एगवन, दैत्यों मे रावण, वनों मे नन्दन वन, काष्ठ में चन्दन, सतियों में सीता सुगन्ध में कस्तूरी, त्रियों में गंभा, धातुओं में स्वर्ण, दानियों में कर्ण, गौ में कामधेनु, वृक्षों में कल्पवृक्ष के समान उत्तम कोई और नहीं है उसी तरह सब पर्वो में यह उत्कृष्ट पर्व है और इससे उत्तम कोई पर्व नहीं । पर्युषण पर्व में यतियों को संवत्सरी प्रतिक्रमण करना, बीच बीच मे क्षमा प्रार्थना करना. कल्पसूत्र बांचना, सिर के बालों का लोच करना, तेले का तप करना, नवं मंदिरों में भाव पूजा करना इत्यादि धार्मिक कृत्य करने चाहिये । श्रावकों को अन्य धार्मिक कृत्यों के साथ ही साथ श्रुत ज्ञान की भी भक्ति करनी चाहिये । सूजी को विधि सहित अपने घर में ले जाये। रात्रि जागरण करें। दूसरे दिन प्रभाव नग नगर के सर्व श्री संघ को निमन्त्रित कर उनका यथायोग्य सन्मान गरे । फिर कलेज Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] उत्तम वस्त्र एवं आभूषण पहन कर हाथो ऊपर अथवा पाल की के ऊपर बैठे। अष्ट मांगलिक रचित थाल में कल्प सूत्र धर कर अपने दोनों हाथों में थाल रखे। पालकी अथवा रथ अथवा अम्बारी के दोनों ओर दो पुरुष चमर ढालें। इस प्रकार अनेक तरह के बाजे गाजे, दुन्दभि, वाजों के साथ दान देते हुए मांगलिक गीत गाते हुए नगर की प्रदक्षिणा करके गुरु महाराज के पास आवे। गुरु महाराज भी खड़े होकर विनय सहित पुस्तक को नमस्कार करके, श्री संघ की आज्ञा से नाचे। इस प्रकार जो श्रावक एक चित्त से इसको सुनते हैं और आराधन करते है वे आठवें भव में मोक्ष को प्राप्त होते हैं। और जो भव्य जीव अट्ठम आदि तप करके कल्प सूत्र को वांचते हैं, सुनने वाले प्रमाद को छोड़कर, अट्ठमादि तप करके, शुद्ध भाव से इक्कीस बार सुनते है वह देवगति को प्राप्त करके तीसरे भव में मुक्ति प्राप्त करते हैं। कल्प सूत्र की महत्ता यह कल्प सूत्र नवम पूर्व से उद्धृत किये हुए दशाश्रुत स्कंध का आठवां अध्ययन है। चौदह पूर्वधारी श्री भद्रबाहु जी ने श्री संघ के कल्याण के लिए प्रसिद्ध एवं प्रचलित किया। जैसे अरिहंत से बढ़ कर कोई देव नहीं है, मुक्ति से बढ़ कर कोई उत्तम पदवी नहीं है, स्निग्धों में घृत से बढ़ कर कोई उत्तम पदार्थ नहीं है वैसे ही कल्प सूत्र से बढ़ कर कोई सूत्र नहीं है। यह कल्प सूत्र पाप का बंधन काटने के लिए एक अनोखी वस्तु है। यह ठोक कल्पवृक्ष की भांति सुनने वालोंके सारे मनोरथ पूर्ण करता है अतएव जो भव्य प्राणी शुद्ध मन से विधि सहित इसको श्रवण करेंगे वे वृद्धि और सुख सम्पदा को प्राप्त करेंगे। भाद्र पद कृष्ण १४ को श्री मणिधारी जिनचन्द्र सूरिजी का स्वर्गवास हुआ है अतः उनका संक्षिप्त जीवन चरित्र लिखा जाता है। आज से सात सौ वर्ष पहिले की बात है, जैन शासन में अत्यन्त सुप्रसिद्ध, खरतरगच्छ नायक जङ्गम युग प्रधान, बृहद् भट्टारक, मणिधारी जिनचन्द सूरि जी महाराज हो गये हैं। इनका जन्म ११६७ भाद्र सुदि ८ को ज्येष्ठा नक्षत्र में जेसलमेर के निकट विक्रम पुर के सेठ साहरासल के यहां देल्हण देवी के गर्भ से हुआ था। आप जन्म सिद्ध सुशील थे। माता पिता ने आपका नाम रासलनन्दन रखा था। आप बचपन में ही शुभ लक्षणों के बदौलत होनहार मालूम होते थे। एक समय की बात है कि आचार्य महाराज श्री जिनदत्त सूरि जी विचरते हुए आपके यहां आये। और उन्होंने ज्ञान बल से जाना कि यह बालक मेरे उत्तराधिकारित्व को अच्छी तरह निभाने वाला होगा। आचार्य महाराज इनको अपने साथ ले अजमेर पधारे। वहां भगवान पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर में सं० १२०३ फाल्गुन सुदि ६ के दिन शुभ मुहूर्त में आपको सविधि दीक्षा दी गई। आप बड़े बुद्धिमान् और मेधावी थे। केवल २ वर्ष की पढ़ाई से आपकी योग्यता प्रातः कालीन सूर्य की तरह प्रस्फुटित हो उठी। आपकी कुशाग्र बुद्धि की वाहवाही जनता में हवा की तरह दौड़ गई। किसीने सच कहा है-"होनहार विरवान के, होत चीकने पात"। सं० १२०५ वैशाख वदि ६ को विक्रम पुर नगरी में भगवान महावीर स्वामी के मन्दिर मे गुरु प्रवर श्री जिनदन्त सूरि जी ने आपको बड़े आनन्द से आचार्य पद प्रदान किया ! आचार्य पद देने के बाद आपका नाम श्री जिनचन्द सूरि' रखा गया। आचार्य पद का महोत्सव आपके पिता ने बड़े समारोह और धूमधाम से सम्पादन किया! इनकी योग्यता और नम्रता से इन पर गुरुदेव की असीम कृपा थी। फलतः इन्हें गुरुदेव ने स्वयं जैनागम, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, ज्योतिष आदि विद्याओं का उपदेश दिया, जिसके द्वारा आप योग्यतापूर्ण चतुरस्र विद्वान् और लोगों के दृष्टिकोण में बहुत ऊंचे उठ गये ! ये Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव की सेवा में सच्चे दिल से सदैव तत्पर रहा करते थे। आपको गुरुदेव गच्छ सञ्चालन की शिक्षा तथा आत्मोन्नति का भी पाठ पढ़ाया करते थे। पर गुरुदेव इन्हे दिल्ली जाने की मनाई हमेशा किया करते थे। सं० १२१४ में हमारे चरित्र नायक श्रीमान् जिनचन्द्र सूरि जी महाराज त्रिभुवन गिरि पधारे। वहां दादा श्रीमान् जिनदत्त सूरि जी के हाथ से प्रतिष्ठापित, श्री शान्तिनाथ भगवान् के मन्दिर के ऊपर स्वणे दण्ड, कलश, और पताका इन्होंने बड़े महोत्सव के साथ चढ़वाई। इसके बाद साध्वी हेम गणवती देवी को प्रवर्तिनी पद दिया। वहां से बिहार कर मथुरा आये! वहा सं० १२१७ मे फाल्गुन वदि १० को पूर्णदेव गणि, जिनरथ, वीरभद्र, वीरनय, जगहित, जयशीलभद्र और नरपति आदियों को श्री महावीर स्वामी के मन्दिर में दीक्षा दी। उसके बाद मरोठ आये। मरोठ में चन्द्र प्रभु स्वामी के मन्दिर पर स्वर्णदण्ड कलश, और ध्वजा चढ़वाई। मरोठ से आचार्य महाराज सं० १२१८ में सिन्ध प्रात की ओर चल पड़े। सिन्ध प्रान्त में विनय शील, गुण वर्द्धन, भानुचन्द्र आदि साधुओं और जग श्री, सरस्वती, गुण श्री, नाम की तीन साध्वियों को दीक्षा दो। इसी तरह और भी साध्विया और साधु समय समय पर दीक्षित होते रहे। सं० १२२१ में आप सागर पाड़ा गये। वहां से अजमेर जाकर आपने स्वर्गीय श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज के स्तूप की प्रतिष्ठा की। उसके बाद बब्वेरक गये जहां आपसे गुणभद्र गणि, अभयचन्द्र, यशचन्द्र, यशोभद्र, देवभद्र और देवभद्रकी स्त्री को दीक्षा दी गई । हांसी में नागदत्तको उपाध्याय पद दिया गया महावन नामक स्थान मे श्री अजित नाथ स्वामी के मन्दिर की आपने विधि पूर्वक प्रतिष्ठा की। इन्द्र पुर में शान्तिनाथ भगवान् के मन्दिर पर स्वर्णदण्ड कलश और ध्वजा की प्रतिष्ठा की । लगता ग्राम में वाचक गुण भद्र गणि के पिता महलाल श्रावक के बनवाये हुए अजित नाथ स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। सं० १२२२ में वादली नगर के भगवान पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर पर स्वर्ण दण्ड कलश, और पताका लगवाई, इसी तरह अम्बिका देवी के मन्दिर पर भी । उसके वाद आचार्य महोदय सदुपल्ली गये। सदुपल्ली से विहार करते हुए नरपाल पुर पधारे। वहां एक मानी ज्योतिपी आप से मिला। बहस छिड़ गई। आचार्य ने कहा, चर, स्थिर, और द्विस्वभाव तीन तरह के लग्न होते हैं, तुम इनमें से किसी एक का भी स्वभावतः प्रभाव दिखाओ, तब मैं समझू कि तुम सच्चे ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता हो। पर ज्योतिषी से कुछ भी जवाब देते न वना, क्योंकि लग्न के स्वभावानुकूल काम प्रत्यक्ष दिखा देना बड़ा ही कठिन था। अतएव उसको हार मान लेनी पड़ी। और आचार्य देव ने वृप ( स्थिर) लग्न के १६ से ३० अंशों के अन्दर मार्गशीर्ष महीने में श्री पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर के सामने एक शिला स्थापित की और कहा कि यह शिला १७६ वर्षों तक निरन्तर अविचल रहेगी। वहां से आचार्य देव रुद्रपल्ली आये, जहां पद्मचन्द्राचार्य से राज्य के सुप्रबन्ध में शास्त्रार्थ हुआ। पद्मचन्द्राचार्य को अपने अध्ययन का बड़ा ही गर्व था, पर शास्त्रार्थ मे आचार्य देव से परास्त होना पड़ा। आचार्य देव को इस जीत से न हर्प था, न विपाद । हो भी कैसे ? वे तो विनय और ज्ञान को साक्षात् मूर्ति थे उसके बाद श्रीमान ने संघ के साथ विहार करते हुए बोरसीदान ग्राम मे पड़ाव डाला, जहां म्लेच्छों की सेना आने वाली थी। आ भी गई। संघ के लोग डर गये और गुरु महाराज से कहा कि अब क्या किया जाय ? आचार्य ने कहा, आप लोग घबड़ाइये नहीं, जिनदत्त सरि जी की दया से म्लेच्छ सेना कुछ नहीं कर मरुनी । आप लोग अपने पशुओं को इकट्ठे कर एक जगह हो जाइये । वैसा ही हुआ आचार्य प्रभु ने संघ के चारों तरफ ध्यान पूर्वक दण्ड से रेखा खींच दी, जिसका नतीजा यह हुआ कि म्लेच्छ सेना की दृष्टि भी संघ पर कामयाब न हो सको। पड़ाव वाले अदृश्य रहे; फिर भी ये लोग पास से गुजरनी मना को Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] अच्छी तरह देखते थे। इसके बाद दिल्ली के निकट विहार करते हुए आ पहुंचे, जहां आचार्य देव की पधारने की खबर पाकर ठक्कुर लोहट साह, पाल्हण साह, कुलचन्द्र साह, महीचन्द्र साह, आदि संघ के मुख्य मुख्य आवक वन्दन नमन करने के लिये आये। इन लोगों को बड़े ठाट वाट से नगर के बाहर जाते हुए देख कर महल पर बैठे हुए दिल्ली नरेश मदन पाल ने मन्त्री से पूछा कि ये लोग कहां जा रहे हैं ? मन्त्री ने कहा, इन लोगों के गुरु देव आ रहे है, जिनके स्वागत में ये लोग जाते दिखाई पड़ते है। राजा ने यह सुनकर स्वयं भी जाने की अभिलाषा प्रकट की और अपने घोड़े को सजाने की आज्ञा दी। कम चारियों को भी साथ चलने की सूचना दी। फलतः बड़े साजवाज के साथ-- वीर सैनिक और प्रमुख लोगों के साथ राजा श्रावकों से भी पहिले ही आचार्य पाद की अगवानी मे दाखिल हुए। वहां गुरुवर के उपदेशों से राजा बहुत प्रसन्न हुए, और अपने नगर में जाने के लिये बहुत अनुरोध किया। पर आचार्य देव गुरु की बात स्मरण कर चुप रह गये। राजा ने कहा, महाराज क्या कारण है कि आप हमारे नगर में नहीं जाना चाहते ? श्रीमान् आप क्यों चुप रह गये ? क्या हमारा नगर जाने लायक ही नहीं है ? आचार्य देव ने कहा, नहीं, आपका नगर तो प्रधान धर्म क्षेत्र है। अन्ततोगत्वा दिल्लीपति के अनुरोध पूर्ण हठ से भवितव्यतावश गुरुवर को दिल्ली में जाना पड़ा। महाराज के प्रवेशोत्सव आश्चर्य जनक तरीके से मनाया गया, जो देखते ही बनता था। वहां इनके उपदेशामृत के पान से कितनों ने अपने जीवन को सफल बनाया। महाराज मदन पाल ने भी इनके उपदेशों से अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त किया। एक दिन की बात है, अत्यन्त भक्त कुलचन्द श्रावक की दरिद्रता देखकर आचाय को बड़ी दया आई; फलतः इन्होंने मन्त्राक्षर सहित यन्त्र पट्ट उसको दिया और यन्त्र पट्ट की पूजा के लिये एक मुट्ठी वासक्षेप बतलाया। उस यन्त्र पट्ट की पूजा के प्रभाव से वह श्रावक कुछ ही दिनों मे बड़ा धनवान् हो गया। आपने अपने जीवन काल में एक मिथ्या दृष्टि देवता को प्रतिबोध देकर सम्यक्त दिया। इस भाति धर्म प्रभावना करते हुए आचार्य मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि जी सं० १२२३ के दूसरे भाद्र पद वदि १४ को इस शरीर को छोड़कर स्वर्ग पधारे। स्वर्ग जाने के समय श्रावकों के सामने एक भविष्य वाणी की कि जितनी दूर शहर से बाहर हमारे शरीर का अग्नि संस्कार किया जायगा उतनी दूर तक शहर की आवादी बढ़ जायगी। लोगों ने भी उनकी आज्ञा के मुताविक ही विमान पर ले जाकर नगर की बहुत दूरी पर बड़े समारोह के साथ चन्दन कपूर वगैरह सुगन्धित पदार्थ के द्वारा अग्नि संस्कार सम्पादन किया। आश्विन मास पर्वाधिकार आसोज मास में आसोज सुदि ७ से आसोज सुदि पूर्णिमा नवपद् ओली तथा अष्टापद ओली विधि युक्त करनी चाहिये । इनकी विधियां पूर्व की तरह ही है। पाठक देख लेवें। अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्र सूरीश्वरजी का आश्विन कृष्ण २ को स्वर्गवास हुआ है । अतः उनका संक्षिप्त जीवनचरित्र दिया गया है । मारवाड़ के जोधपुर राज्य में खेतसर नामक एक सुप्रसिद्ध ग्राम है। यह आज से लगभग सवा चार सौ वर्ष पहिले की बात है, ओसवाल जाति के रोहिड़ गोत्र में चमकते हीरे की तरह श्रीवन्त साह नामक एक सेठ थे। उन्हीं सेठ की पति परायणा श्रियादेवी के गर्भ से सम्बत् १५६५ की मिती चैत्र कृष्ण १२ के दिन शुभ लग्न में अत्यन्त सुन्दर एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ। सेठ जी ने बड़ी उदारता से जन्मोत्सव मनाया एवं दशवें दिन गुरुजनी के द्वारा लड़के का नाम 'सुलतान कुमार' रखा गया। यह Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] बालक "शुक्ल पक्षे यथा शशी" की तरह बढ़ने लगे एवं वाल्य काल में ही अनेक कलाओं से परिचित हा गये। इनकी प्रतिभा से सब चकित थे। माता पिता को बड़ा आनन्द था। विक्रम संवत् १६०४ में खरतरगच्छ के नायक श्री जिन माणिक्य सूरि जी का अपने शिष्य समाज के साथ खेतसर में आना हुआ। वे बड़े ही विद्वान् एवं प्रभावशाली व्याख्यान दाता थे। खेतसर में उन्होंने अपने धर्म के ऊपर एवं संसार की क्षणभंगुरता के ऊपर बड़ा ही हृदयस्पर्शी उपदेश दिया। जिसका जनता के ऊपर भी बड़ा प्रभाव पड़ा, पर सुलतान कुमार के दिमाग पर तो जादूका-सा असर कर गया। फलतः सुलतान कुमार ने अपने माता-पिता को अनेक युक्तियों के द्वारा राजी करके सं० १६०४ में श्री जिन माणिक्यसूरिजी से दीक्षा ले ली। अब इनका नाम सुमति धीर पड़ा। दीक्षा लेने के समय इनको उमर ६ साल की थी, फिर भी मेधावी होने के कारण एकादश अंगादि सभी शास्त्रों का अध्ययन कर पूर्ण योग्य तथा व्याख्यान कुशल हो गये। ये अपने गुरु के सदा साथ बिचरा करते थे। एक समय अपने गुरु के साथ १६१२ में देराउर के रास्ते जेसलमेर आ रहे थे अचानक श्री जिन माणिक्य सूरिजी की जीवनलीला सं० १६१२ की आषाढ़ शुक्ल पञ्चमी को समाप्त हो गई। अग्नि संस्कारादि काम करा लेने के बाद अन्य साधुओं के साथ वे जेसलमेर पहुंचे। यद्यपि श्री माणिक्य सूरि जी के २४ शिष्य थे, फिर भी वे अपने पद पर किसी को स्थापित न कर सके थे। अतएव जेसलमर आने पर पदाधिकारी के निर्वाचन में मतभेद उठ खड़ा हुआ। पर समस्त संघ तथा वहां के रावल श्रीमालदेवजी ने (राज्यकाल सं० १६०७ से १६१८ तक ) बेगड़गच्छ के श्री पूज्य गुण प्रभ सूरिजी की सम्मति से बड़े समारोह के साथ नन्दी महोत्सव कराकर संवत् १६१८ की भाद्र शुक्ल नवमी गुरुवार को श्री सुमतिधीर जी को आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया। माणिश्य सूरिजी ने ही इन्हे सूरि मन्त्र दिया एवं श्री जिन हंस सूरिजी के विद्वान शिष्य महोपाध्याय श्री पुण्य सागरजी ने इन्हें आचार्य पदोचित योग्यता की शिक्षा दी। जिस रोज ये आचार्य पद पर आसीन हुए उसी रात में श्री जिन माणिक्य सूरिजी ने इन्हे स्वप्न में दर्शन दिया और समवसर को पुस्तक में साम्नाय सूरि मन्त्र का संकेत करके अन्तर्हित हो गये। याद रहे अब सुमति धीर नाम न रहकर इनका नाम श्री जिनचन्द्र सुरीजी पड़ा। सम्बत् १६१८ का चातुर्मास इनका जेसलमेर में ही बीता। बाद में विहार करते हुए लोक कल्याण में दिलोजान से आप लग पड़े। ___ इन्हीं महापुरुष के समय में तपगच्छ में एक विद्वान् किन्तु दुराग्रही उपाध्याय धर्मसागर थे। जो कहा करता था कि नवाङ्गी वृत्ति कर्ता श्री अभयदेव सूरि खरतरगच्छमें नहीं हुए है, क्योंकि इस गच्छ की तो उत्पचि ही उनके बाद सम्वत् १२०४ में हुई है। इसके अतिरिक्त उसने गच्छवालों को 'उत्सूत्रभापी' सिद्ध करने के लिये "औष्ट्रिक मतोत्सूत्र दीपिका" "तत्त्व तरङ्गिणी वृत्ति" तथा ( कुमति कन्द फुद्दाल ) आदि विपला साहित्य लिखकर जैन शासन में फूट पैदा करना शुरू कर दिया था। भट्टारक श्री जिनचन्द्र सूरिजी का सम्वत् १६१७ का चातुर्मास गुजरात के सुविख्यात नगर पाटण में हुआ। फलत. आपने जैन समाज में एकता कायम रखने की इच्छा से पाटण के सभी गच्छों के आचार्यो को १६१७ की कार्तिक शुक्ला चौथ को बुलाया और उन लोगों की देखरेख में धर्मसागर को शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया। पर बारम्बार बुलाने पर भी धर्मसागर शास्त्रार्थ करने के लिये उपस्थित नहीं हुआ। आखिर सभी गच्छचालों ने मिलकर श्री जिनचन्द्र सूरिजी की अध्यक्षता मे धर्मसागर के मत का खण्डन किया और समाज में एकता सुव्यवस्थित रखने के लिये धर्मसागर का बहिष्कार कर दिया। इस काम से इनकी बड़ी प्रतिष्ठा Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ 1 आचार्यजी के सम काल मे भारत का शासन मुसलमानों के हाथ में था। दिल्ली के राज्यसिहासन पर उन दिनोंमें अकवर बैठा था। उनकी नीति बड़ी अच्छी थी। इसलिये क्या हिन्दू, क्या मुसलमान सब समान रूपेण अकबर से प्रसन्न रहा करते थे। और उसकी सभा मे.इएक मजहब के लोग आधा जाया करते थे। पण्डित, मौलवी, करामाती, फकोर, साधु, संन्यासी सभी समान दृष्टि से देखे जाते थे और बुलाये भी जाते थे। यही कारण है कि सम्वत् १६५१ में अकबर बादशाह का दरवार लाहौर में लगा हुआ था, जैन धर्म के सबसे बड़े विद्वान् श्री जिनचन्द्र सूरि को आग्रह पूर्वक बुलाया गया। जब आचार्य ने दरवार मे पदार्पण किया कि इनके सम्मानार्थ मुगल साम्राज्य के सबसे बड़े काजी (न्यायाधीश ) ने उठ कर खड़ा होते हुए साथ-साथ परीक्षा भी ली। उसने अपनी टोपी अदभुत् करामात ते आकाश में उड़ाई, इसलिये कि देख ये कुछ इस वहाने अपनी महत्ता दिखाते हैं कि नहीं। यति प्रवर ने उसके मनकी वात ताड़ ली। फलतः अपनी चमत्कारी शक्ति से उसकी उड़ती टोपी को लाकर उसके सिर पर ज्यों की त्यों रख दिया । अकवर सहित सारा दरबार चकित रह गया। सम्र ट ने इन्हें बैठने के लिये कहा, इन्होंने कहा कि यहां जीव हैं फलतः वैठना मेरे लिये नियम विरुद्ध होगा। अकबर ने कहा बतलाइये कि कितने जीव हैं ? आचार्य ने कहा, तीन जीव हैं। काजी ने देखा तो ठीक तीन जीव थे। एक बकरी थी और उसने दो बच्चे बने थे। काजी, अकवर तथा सारी सभा आश्चर्य चकित रह गई। अकवर को इनपर बड़ी श्रद्धा हुई। इन्हें बहुत कुछ देना भी चाहा पर त्यागी ये महात्मा क्यों लेने लगे ? अकवर की तरह उसका बेटा जहांगीर भी इन्हें सम्मानपूर्ण दृष्टि से देखा करता था। अकबर तथा उसका पुत्र जहांगीर ने इनकी महनीयता-योग्यता से प्रभावित होकर, विशिष्ट धार्मिक तिथियोंमे, वर्ष के वारह दिनों में अपने समस्त राज्य मे कतई जीव हिंसा न करने का फरमान निकाला था। इन बारह दिनों में भाद्रपद के पर्युपण के आठ दिन तो मुख्य थे ही, शेष चार दिनों में भी जीवहिंसा न होती थी। इसी तरह इन महान आत्मा के जरिये अगणित लोकोपकार हुए। सच तो यह है कि ऐसे महात्मा का आविर्भाव ही समाज, शास्त्र, संसार, धर्म, नीति आदि की रक्षार्थ हुआ करता है। नहीं तो सृष्टि कर नाश को प्राप्त कर गयी होती। मेरे चरितनायक ने सम्पूर्ण भारत की परिक्रमा की थी और सर्वत्र अपने उपदेशामृत से लोगों को कृतार्थ किया था। आपने कई अन्य भी लिखे, जिनमें सबसे आदर्श निर्मल चरित्र' है। आचार्यदेव का देहावसान सं० १६७० की आश्विन कृष्ण द्वितीया को वेनातट (वेलाड़ा) मे हुआ। ___ कार्तिक मास पर्वाधिकार कार्तिक मास मे कार्तिक वदि अमावस्या दीपमालिका ( दीवाली ) के नाम से प्रसिद्ध है। चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी साधु साध्वियों के साथ विहार करते हुए अन्त मे पावापुरी आकर रहे। अपना अन्तिम समय निकट जानकर 'हस्तिपाल राजा' की शुक्ल शाला में आये। अपने ऊपर गौतम स्वामी (प्रथम गणधर ) का अत्यधिक स्नेह देखकर उन्हें समीप के ग्राम मे देवशर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिवोध देने के लिये भेजा। उनके जाने के बाद पद्मासन धारण करके सोलह प्रहर तक अखण्ड देशना दी। इस प्रकार वहत्तर वर्ष की आयु पूर्ण करके इसी अमावस्या के दिन रात्रि को स्वाती नक्षत्र आनेपर निर्वाण को प्राप्त हुए ! उसी समय चौसठ इन्द्रों के आने से अनुपम उद्योत हुआ। उस समय भगवानरूपी दीपक के अस्त हो जाने से सभी ने रनों से उद्योत किया और तभी से दीपावली पर्व मनाया जाने लगा। Page #745 --------------------------------------------------------------------------  Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] इस तीर्थ में बारह हजार तीन सौ अट्ठावन (१२३५८ ) जिन बिम्ब हैं और चरणों को स्थापना की तो गिनती ही नहीं है। अनंते मुनिराज इसी दिन निर्वाण को प्राप्त हुए अतएव जो श्रावक इस पर्व को शुद्ध भावना से आराधना करेंगे वे उत्तरोत्तर सुख और सम्पदा को प्राप्त करेंगे। मागशीर्ष मास पर्वाधिकार मगसिर मास में मार्गशीर्ष सुदि ११ मौन एकादशी पर्व नाम सग्रह इसके गुणने अनंतर दिये गये है। इसी से ये दिन अधिक उत्तम माना जाता है। जैन सिद्धान्तों में इस पर्व की महिमा विस्तृत रूप से लिखी हुई है। २२ वें तथंकर श्री नेमिनाथ जो के समय में एक सुव्रत नाम के सेठ थे। वे बड़े ही योग्य, पवित्र एवं धर्मात्मा थे। एक दिन उन्होंने मार्गशीर्ष वदि ११ को आठ प्रहर का पौषध लिया और चारों प्रकार के आहारों का त्याग कर एवं कहीं भी स्वस्थान छोड़ आने-जाने का नियम लेकर अपने घरमें विराजमान थे। चोरों को भी किसी तरह इस व्रत का पता चल गया। उन्होंने समय पाकर सेठ के सब माल की गठरी बांधी और चलनेको तैयार ही थे कि इतने में धर्मरक्षक शासनदेव प्रगट हुई और उन्हें स्तम्भित कर दिया। प्रातःकाल राजा ने भी आकर ये वार्ता देखी। राजा ने राजनीति के विरुद्ध कार्य देख चोरों को प्राणदण्ड की आज्ञा दी परन्तु उस दयालु ने अपनी धार्मिक दया दिखला कर उन चोरों को मुक्त करवा दिया। इसी तरह एक समय उसी नगर में आग लग गई। सेठजी पौषध ब्रत लेकर घर में ही बैठे थे। केवल सेठ की दूकान एवं घर के अतिरिक्त समस्त नगर जल गया। इससे सहज ही में इस पर्व की महिमा समझ मे आ सकती है। ___इस दिन मौन युक्त उपवास करना चाहिये। अठ पहरी पोसह करके मौन एकादशी का गुणना करना चाहिये। कदाचित् पोसह करने की शक्ति न हो तो देसावगासिक लेकर गुणना करे। ग्यारह वर्ष में ग्यारह उपवास करे अगर अधिक इच्छा हो तो मास में वदि, सुदि की दोनों एकादशी ग्यारह वर्ष और ग्यारह मास करे। इस तपस्या के करते हुए ग्यारह अंगों को शुद्धभाव से सुनें। अगर शक्ति हो तो उनको लिखावे । पढ़नेवालों की सहायता करे। अन्त में यथाशक्ति उद्यापन करे। आगम पूजा करावे । साधर्मीवत्सल करे। इससे सर्वदा सुख की प्राप्ति होगी। एक एक कल्याणक की एक एक माला गुणनी चाहिये । कुल १५० माला गुणनी चाहिये। मौन एकादशी का गुणना जम्बद्वीप भरतक्षेत्र के अतीत २४ जिन पंच कल्याणक नाम ४ श्री महायश सर्वज्ञाय नमः। ६ श्री सर्वानुभूति अर्हते नमः। ६ श्री सर्वानुभूतिनाथाय नमः । ६ श्री सर्वानुभूतिसर्वज्ञाय नमः । ७ श्री श्रीधरनाथाय नमः । जम्बद्वीप भरतक्षेत्रके वर्तमान २४ जिन पंच कल्याणक नाम २१ श्री नमि सर्वज्ञाय नमः । १६ श्री मल्लिअर्हते नमः। १६ श्री मल्लिनाथाय नमः । १६ श्री मल्लि सर्वज्ञाय नमः । १८ श्री अरनाथाय नमः ।। ____ जम्बूद्वीप भरतक्षेत्रके अनागत २४ जिन पंच कल्याणक नाम ४ श्री स्वयंप्रभु सर्वज्ञाय नमः । ६ श्री देवश्रुत अर्हते नमः । ६ श्री देवश्रुत नाथाय नमः । ६ श्री देवश्रुत सवज्ञाय नमः । ७ श्री उदयनाथाय नमः। Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ ] धातकीखण्ड के पूर्व भरतमें अतीत २४ जिन पंच कल्याणक नाम ४ श्री अकलंक सर्वज्ञाय नमः | ६ श्री शुभंकर अर्हते नमः | ६ श्री शुभंकरनाथाय नमः | ३ श्री शुभंकर सर्वज्ञाय नमः | ७ श्री सप्तनाथाय नमः । धातकीखण्ड के पूर्व भरतमें वर्त्तमान २४ जिन पंच कल्याणक नाम २१ श्री ब्रह्मेद्र सर्वज्ञाय नमः । १६ श्री गुणनाथ अर्हते नमः । १६ श्री गुणनाथ नाथाय नमः | १६ श्री गुणनाथ सर्वज्ञाय नमः | १८ श्री गांगिलनाथाय नमः । धातकीखण्ड के पूर्व भरत में अनागत २४ जिन पंच कल्याणक नाम ४ श्री साम्प्रति सर्वज्ञाय नमः । ६ श्री मुनिनाथ अर्हते नमः । ६ श्री मुनिनाथ नाथाय नमः | ६ श्री मुनिनाथ सर्वज्ञाय नमः | ७ श्री विशिष्ट नाथाय नमः । पुष्करार्द्ध पूर्व भरत में अतीत २४ जिन पंच कल्याणक नाम ४ श्रीमृदु सर्वज्ञाय नमः | ६ श्री व्यक्त अर्हते नमः | ६ श्री व्यक्त नाथाय नमः । ६ श्री व्यक्त सर्वज्ञाय नमः | ७ श्रीकैलाश नाथाय नमः । पुष्करार्द्ध पूर्व भर में वर्त्तमान २४ जिन पंच कल्याणक नाम २१ श्रीअरण्यवास सर्वज्ञाय नमः । १६ श्री योगनाथ अर्हते नमः । १६ श्री योगनाथ नाथाय नमः । १६ श्री योगनाथ सर्वज्ञाय नमः | १८ श्री अयोग नाथाय नमः | पुष्करार्द्ध पूर्व भरतमें अनागत २४ जिन पंच कल्याणक नाम ४ श्री परमसर्वज्ञाय नमः | ६ श्री शुद्धार्त्ति अर्हते नमः | ६ श्री शुद्धार्त्ति नाथाय नमः | ६ श्री शुद्धार्त्ति सर्वज्ञाय नमः | ७ श्री निष्केश नाथाय नमः | arrataush पश्चिम भरतमें अतीत २४ जिन पंच कल्याणक नाम ४ श्री सर्वार्थ सर्वज्ञाय नमः । ६ श्री हरिभद्र अर्हते नमः । ६ श्री हरिभद्र नाथाय नमः | ६ श्री हरिभद्र सर्वज्ञाय नमः । ७ श्री मगधाधि नाथाय नमः । arrataण्डके पश्चिम भरतमें वर्त्तमान २४ जिन पञ्चकल्याक नाम २१ श्री प्रयच्छ सर्वज्ञाय नमः । १६ श्री अक्षोभ अर्हते नमः । १६ श्री अक्षोभ नाथाय नमः | १६ श्री अक्षोभ सर्वज्ञाय नमः | १८ श्री मल्लिसिंह नाथाय नमः । arrataण्डके पश्चिमभरत में अनागत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री आदिकर सर्वज्ञाय नमः । ६ श्री धनद अर्हते नमः । ६ श्री धनद नाथाय नमः । ६ श्री धनद सर्वज्ञाय नमः । ७ श्री पौष नाथाय नमः । पुष्करार्द्ध पश्चिम भारतमें अतीत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री प्रलम्ब सर्वज्ञाय नमः । ६ श्री चारित्रनिधि अर्हते नमः । ६ श्री चारित्रनिधि नाथाय नमः | ६ श्री चारित्रनिधि सर्वज्ञाय नमः | ७ श्री प्रशमजित नाथाय नमः | पुष्करार्द्ध पश्चिम भरतमें वर्त्तमान २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम २१ श्री स्वामी सर्वज्ञाय नमः । १६ श्री विपरीत अर्हते नमः । १६ श्री विपरीत नाथाय नमः | १६ श्री विपरीत सर्वज्ञाय नमः । १८ श्री प्रशाद नाथाय नमः । 6 Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ) पुष्कराई पश्चिम भरतमें अनागत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री अघटित सर्वज्ञाय नमः । ६ श्री भ्रमणेन्द्र अर्हते नमः । श्री भ्रमणेन्द्र नाथाय नमः । ६ श्री भ्रमणेन्द्र सर्वज्ञाय नमः । ७ श्री ऋपभचन्द्र नाथाय नमः । जम्बुद्वीपके ऐरवतक्षेत्रमें अनागत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री दयांत सर्वज्ञाय नमः। ६ श्री अभिनन्दन अर्हते नमः। ६ श्री अभिनन्दन नाथाय नमः । श्री अभिनन्दन सर्वत्राय नमः । ७ श्री रत्नेश नाथाय नमः। जम्बुद्वीपके एंरक्तक्षेत्रमें वर्तमान २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम २१ श्री शामकाष्ट सर्वज्ञाय नमः। १६ श्री मरुदेव अर्हते नमः । १६ श्री मरुदेव नाथाय नमः । १६ श्री मरुदेव सर्वज्ञाय नमः। १८ श्री अतिपार्श्व नाथाय नमः । जम्बद्वीपके ऐरवतक्षेत्रमें अनागत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री नन्दिपेण सर्वज्ञाय नमः। ६ श्री व्रतधर अर्हते नमः। ६ श्री व्रतधर नाथाय नमः। ६ श्री व्रतधर सर्वज्ञाय नमः। ७ श्री निर्वाण नाथाय नमः । __ धातकीखण्डके पूर्व ऐरवतमें अतीत जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री सौन्दर्य सर्वज्ञाय नमः। ६ श्री त्रिविक्रम अर्हते नमः। ६ श्री त्रिविक्रम नाथाय नमः । ६ श्री त्रिविक्रम सर्वज्ञाय नमः। ७ श्री नरसिंह नाथाय नमः ।। धातकीखण्डके पूर्व ऐरवतमें वर्तमान २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम २१ श्री खेमन्त सर्वनाय नमः । १६ श्री सन्तोपित अर्हते नमः। १६ श्री सन्तोपित नाथाय नमः । १६ श्री सन्तोपित सर्वज्ञाय नमः। १८ श्री काम नाथाय नमः । धातकीखण्डके पूर्व ऐरवतमें अनागत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री मुनिनाथ सर्वज्ञाय नमः। ६ श्री चन्द्रदाह अईते नमः। ६ श्री चन्द्रदाह नाथाय नमः । ६ श्री चन्द्रदाह सर्वज्ञाय नमः। ७ श्री शिलादित्य नाथाय नमः ! पुष्कराई पूर्व ऐरवतमें अतीत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री अष्टाहिक सर्वत्राय नमः। ६ श्री वणिक अर्हते नमः । श्री वणिक नाथाय नमः। ईश्री वणिक सर्वनाय नमः। ७ श्री उदयवान नाथाय नमः । पुष्कराई पूर्व ऐरवतमें वर्तमान २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम २२ श्री तमोनिकन्दन सर्वज्ञाय नमः। १६ श्री सायकाक्ष अर्हते नमः । १६ श्री सायकाम नाथाय नमः। १६ श्रीसायकाक्ष सर्वनाय नमः। १६ श्रीखेमन्त नाथाय नमः। पुष्कराई पूर्व ऐरवतमें अनागत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम श्री निर्वाण सर्वनाय नमः । ६ श्री रविराज अर्हते नमः। श्री रविराज नाथाय नमः। ६ श्री रविराज सर्वज्ञाय नमः। ७ श्री प्रथमनाथ नाथाय नमः। Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ धातकीखण्डके पश्चिम ऐरवतमें अतीत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री पुरूरव सर्वज्ञाय नमः । ३ श्री अवबोध अर्हते नमः। ६ श्री अवबोध नाथाय नमः । ६ श्री अवबोध सर्वज्ञाय नमः । ७ श्री विक्रमेन्द्र नाथाय समः। धातकीखण्डके पश्चिम ऐरवतमें वर्तमान २४ जिन पश्चकल्याणक नाम २१ श्री सुशान्त सर्वज्ञाय नमः। १० श्री हर अर्हते नमः। १६ श्री हर नाथाय नमः। १६ श्री हर सर्वज्ञाय नमः। १८ श्री नन्दकेश नाथाय नमः। धातकीखण्डके पश्चिम ऐरवतमें अनागत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री महामृगेन्द्र सर्वज्ञाय नमः । ६ श्री अशौचित अर्हते नमः । ६ श्री अशौचित नाथाय नमः । ६ श्री अशौचित सर्वज्ञाय नमः । ७ श्री धर्मेन्द्र नाथाय नमः। पुष्कराई पश्चिम ऐरवतमें अतीत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री अश्ववृन्द सर्वज्ञाय नमः। ६ श्री कुटिल अर्हते नमः। ६ श्री कुटिल नाथाय नमः। ६ श्री कुटिल सर्वज्ञाय नमः। ७ श्री वर्द्धमान नाथाय नमः । पुष्कराई पश्चिम ऐरवतमें वर्तमान २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम २१ श्री नन्दिक सर्वज्ञाय नमः । १६ श्री धर्मचन्द्र अर्हते नमः । १६ श्री धर्मचन्द्र नाथाय नमः। १६ श्री धर्मचन्द्र सर्वज्ञाय नमः । १६ श्री विवेक नाथाय नमः । पुष्करार्द्ध पश्चिम ऐरवतमें अनागत २४ जिन पञ्चकल्याणक नाम ४ श्री कलाप सर्वज्ञाय नमः । ६ श्री विसोम अर्हते नमः। ६ श्री विसोम नाथाय नमः। श्री विसोम सर्वज्ञाय नमः। ७ श्री आरण नाथाय नमः ! श्री जिन कल्याणक संग्रह ___ कल्याणक की टीप और जाप कात्तिक वदी मार्गशीर्ष वदी तिथि ___ जन्मादिनगरी तिथि जन्मादिनगरी ५ श्री संभव सर्वज्ञाय नमः सावत्थी ५ श्री सुविधि अर्हते नमः काकन्दी १२ ,, नेमि परमेष्ठिने नमः सौरीपुर , सुविधि नाथाय नमः काकन्दी १२ " पद्मप्रभ अर्हते नमः कौशाम्बी १० , महावोर नाथाय नमः क्षत्रीकुण्ड १३ , पद्मप्रभ नाथाय नमः कौशाम्बी ११ , पद्मप्रभ पारंगताय नमः शिखरजी ३० , वीर पारंगताय नमः पावापुर . मार्गशीर्ष सुदी कार्तिक सुदी जन्मादिनगरी तिथि जन्मादिनगरी ! १० श्री अरनाथ अर्हते नमः ।। हस्तिनापुर ३ श्री सुविधि सर्वज्ञाय नमः काकन्दी १० , अरनाथ पारंगताय नमः शिखरजी १२ ., अर सर्वज्ञाय नमः हस्तिनापुर ११ , अरनाथ नाथाय नमः हस्तिनापुर तिथि Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ । ११ श्री मल्लि अर्हते नमः । मिथिला | ४ श्री विमल नाथाय नमः ११ ., मल्लिनाथ नाथाय नमः कम्पिलपुर मिथिला ८, अजित अर्हते नमः ११ ,, मल्लिनाथ सर्वज्ञाय नमः अयोध्या मिथिला | ६ ,, अजित नाथाय नमः अयोध्या ११ , नमि सर्वज्ञाय नमः मिथिला | १२ , अभिनन्दन नाथाय नमः । अयोध्या १४ ” संभव अर्हते नमः सावत्थी | १३ , धर्म नाथाय नमः रत्नपुरी १५ ., संभव नाथाय नमः सावत्थी फाल्गुन वदी पौष वदी तिथि जन्मादिनगरी तिथि जन्मादिनगरी ६ श्री सुपार्श्व सर्वज्ञाय नमः बनारस १० श्री पार्श्वनाथ अर्हते नमः बाणारसी | ७, सुपार्श्व पारंगताय नमः शिखरजी ११ , पार्श्वनाथनाथाय नमः वाणारसी ७, चन्द्रप्रभ सर्वज्ञाय नमः चन्द्रावती १२ ,, चन्द्रप्रभ अर्हते नमः चन्द्रावती ६, सुविधि परमेष्ठिने नमः काकन्दी १३, चन्द्रप्रभ नाथाय नमः चन्द्रावती | ११ ॥ ऋषभ सर्वज्ञाय नमः पुरिमताल १४ ,, शीतल सर्वज्ञाय नमः भहिलपुर १२ , श्रेयांस अर्हते नमः सिंहपुर ____ पौष सुदी १२ , मुनि सुव्रत सर्वज्ञाय नमः राजगृही १३ , श्रेयांस नाथाय नमः सिंहपुर तिथि जन्मादिनगरी १४ ,, वासुपूज्य अर्हते नमः चस्पापुर ६ श्री विमल सर्वज्ञाय नमः कम्पिलपुर | ३०, वासुपूज्य नाथाय नमः चम्पापुर ६, शान्ति सर्वज्ञाय नमः हस्तिनापुर ११ , अजित सर्वज्ञाय नमः अयोध्या फाल्गुन सुदी १४ ,, अभिनन्दन सर्वज्ञाय नमः अयोध्या | तिथि जन्मादिनगरी १५ , धर्म सर्वज्ञाय नमः रनपुरी २ श्री अर परमेष्ठिने नमः हस्तिनापुर ४ , मल्लि परमेष्ठिने नमः मिथिला माघ वदी ८, संभव परमेष्ठिने नमः सावत्थी तिथि जन्मादिनगरी | १२ , मल्लि पारंगताय नमः शिखरजी ६ श्री पद्मप्रभ परमेष्ठिने नमः कौशम्बी १२, मुनि सुव्रत नाथाय नमः राजगृही १२ , शोतल अर्हते नमः भदिलपुर | चैत्र वदी १२ , शीतलनाथ नाथाय नमः भदिलपुर तिथि जन्मादिनगरी १३ ,, ऋषभ पारंगताय नमः अष्टापद ४ श्री सुपार्श्व परमेष्ठिने नमः बाणारसी ३० , श्रेयांस सर्वज्ञाय नमः। सिंहपुर ४ , पार्श्व सर्वज्ञाय नमः बाणारसी माघ सुदी ५, चन्द्रप्रभ परमेष्ठिने नमः अयोध्या अयोध्या २ श्री अभिनन्दन अर्हते नमः अयोध्या ८, भूषभ नाथाय नमः चैत्र सुदी २ , वासुपूज्य सर्वज्ञाय नमः चम्पापुर ३ , विमल अर्हते नमः जन्मादिनगरी कम्पिलपुर | तिथि ३ , धर्म अर्हते नमः रत्नपुरी | ३ श्री कुन्थु सर्वज्ञाय नमः चन्द्रावती तिथि जन्मादिनगरी ८" भूपम अर्हते नमः हस्तिनापुर Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तिनापुर शिखरजी हस्तिनापुर जन्मादिनगरी वाणारसी शिखरजी चम्पापुर वाणारसी चाणारसी जन्मादिनगरी अयोध्या शिखरजी मिथिला [ ४५ ] ५ श्री अजित पारंगताय नमः शिखरजी | १३ श्री शान्ति अर्हते नमः ५, संभव पारंगताय नमः शिखरजी १३ ,, शान्ति पारंगताय नमः ५, अनन्त पारंगताय नमः शिखरजी | १४ ,, शान्ति नाथाय नमः ६, सुमति पारंगताय नमः शिखरजी ज्येष्ठ सुदी ११ । सुमति सर्वज्ञाय नमः अयोध्या तिथि १३ ., महावीर अर्हते नमः क्षत्रीकुण्ड २ श्री सुपार्श्व परमेष्ठिने नम १५ , पद्मप्रभ सर्वज्ञाय नमः कौशाम्बी , धर्म पारंगताय नमः वैशाख वदी 1 , वासुपूज्य परमेष्ठिने नमः तिथि . जन्मादिनगरी | १२ ॥ सुपार्श्व अर्हते नमः १ श्री कुन्थु पारंगताय नमः शिखरजी | १३ , सुपार्श्व नाथाय नमः २ , शीतल पारंगताय नमः शिखरजी आषाढ़ वदी ५. कुन्थु नाथाय नमः हस्तिनापुर तिथि ६ , शीतल परमेष्ठिने नमः भहिलपुर ४ श्री ऋषभ परमेष्ठिने नमः १० , नमि पारंगताय नमः शिखरजी, ७, विमल पारंगताय नमः १३ , अनन्त अर्हते नमः अयोध्या ह, नमि नाथाय नम. १४ , अनन्त नाथाय नमः अयोध्या १४ ॥ अनन्त सर्वज्ञाय नमः आषाढ़ सुदी अयोध्या १४ , कुन्थुनाथ अर्हते नमः हस्तिनापुर | तिथि वैशाख सुदी ६ श्री महावीर परमेष्ठिने नमः विधि । ८, नेमि पारंगताय नमः जन्मादिनगरी वामपन्य पारंगताय नमः ४ श्री अभिनन्दन परमेष्ठिने नमः अयोध्या ७ , धर्म परमेष्ठिने नमः श्रावण वदी रनपुरी ८" अभिनन्दन पारंगताय नमः शिखरजी तिथि ८. सुमति अर्हते नमः अयोध्या ३ श्री श्रेयांस पारंगताय नमः " सुमति नाथाय नमः अयोध्या ७ ,, अनन्त परमेष्ठिने नमः १० , महावीर सर्वज्ञाय नमः ऋजुवालिका नदी ८, नमि अर्हते नमः ११ । कुन्थु पारंगताय नमः शिखरजी 8, कुन्थु परमेष्ठिने नमः १२ , विमल परमेष्ठिने नमः श्रावण सुदी १३ । अजित परमेष्ठिने नमः अयोध्या तिथि ज्येष्ठ वदी २ श्री सुमति परमेष्ठिने नमः जन्मादिनगरी ५ , नेमि अर्हते नमः ६ श्री श्रेयांस परमेष्ठिने नमः सिंहपुर ६, नेमिनाथाय नमः ८" मुनि सुत्रत अर्हते नमः राजगृही, ८,, पार्श्व पारंगताय नमः ६ ., मुनि सुत्रत पारंगताय नमः सुनत पारंगताय नमः शिखरजी | १५ , मुनि सुत्रत परमेष्ठिनं नमः जन्मादिनगरी क्षत्रीकुण्ड गिरिनार चम्पापुर जन्मादिनगरी शिखरजी अयोध्या मिथिला हस्तिनापुर कम्पिलपुर तिथि जन्मादिनगरी अयोध्या सौरीपुर द्वारिका शिखरजी राजगृही Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिथि [ ४६ ] भाद्रपद वदी तिथि आश्विन सुदी जन्मादिनगरी ७ श्री चन्द्रप्रभ पारंगताय नमः शिखरजी | जन्मादिनगरी ७, शान्ति परमेष्ठिने नमः हस्तिनापुर १५ श्री सुविधि परमेष्ठिने नमः . ८, सुपार्श्व परमेष्ठिने नमः मिथिला बाणारसी भाद्रपद सुदी १ च्यवन* कल्याणकमें सोना चढ़ावे । __ जन्मादिनगरी ६ श्री सुविधि पारंगताय नमः क्षत्रीकुण्ड २ जन्म कल्याणकमें घी गुड़ चढ़ावे। आश्विन वदी ३ दीक्षा कल्याणकमें वस्त्र चढ़ावे । तिथि जन्मादिनगरी १३ श्री महावीर गर्भापहाराय नमः क्षत्रीकुण्ड ४ केवल कल्याणकमें स्वेत गोला चढ़ावे । ३० , नेमि सर्वज्ञाय नमः गिरिनार मोक्ष कल्याणकमें गुड़, लोहा, लड्डू , चढ़ावे । पौष मास पर्वाधिकार पौष मासमें पौष वदि दशमी पौष दशमी' के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन श्री पार्श्वनाथ भगवान् का जन्म कल्याणक है। इस दिन दोनों समय प्रतिक्रमण करना चाहिये। जहां श्री पाश्वनाथ स्वामी का तीर्थ है वहां यात्रा करने को जावे। कदाचित् वहां न जा सके तो जहां श्री पार्श्वनाथजी की स्थापना अथवा देवालय हो वहां महोत्सव पूर्वक दर्शन करने जावे। जलयात्रादिक महोत्सव करके अष्टोत्तरी स्नात्र करावे। अष्ट प्रकारी एवं सत्रहभेदी पूजा विविध आडम्बरों सहित करे। पीछे गुरु महाराज के समीप जाकर पौप दशमी का व्याख्यान सुने। पीछे एकासन आदि का पञ्चक्खाण करे। चतुर्विध आहार का नियम लेवे। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भूमि पर शयन करे। हो सके तो रात्रि जागरण करे और गीत, गान, नाटकादि करे। जन्म कल्याणक स्तवन, पास जिनेसर जग तिलो ए, वाणी ब्रह्मा वादिनी इत्यादि पार्श्वनाथ स्वामी के गुणगर्भित स्तवन पढ़े। शास्त्रों में विधान है कि नवमी, दशमी और एकादशी इन तीनों दिन एक बार भोजन करना चाहिये। इस तरह मन, वचन और काया से जो भी भव्य दस वर्ष तक इस पर्व का आराधन करेंगे वे इस भव में तो धन, धान्य, पुत्र, कलत्र, आदि सुख सम्पदा को प्राप्त करेंगे तथा परभव में देवादिक ऋद्धियों को प्राप्त करते हुए क्रमशः निर्वाण प्राप्त करेंगे। इसीलिये इस पर्व की भी समुचित आराधन करना चाहिये। , श्री पार्श्वनाथजी का संक्षिप्त जीवन चरित्र श्री पार्श्वनाथजी २३ वें तीर्थङ्कर थे। आज से लगभग २८०० वर्ष पहिले काशी देश की बनारस नगरी में अश्वसेन राजा राज्य करते थे। ये बड़े प्रतापी सरल एवं न्यायप्रिय थे। इनकी रानी वामादेवी पतिव्रता और विदुषी थी। ___ इन्हीं रानी की पवित्र कोख से, विकम सवत् से १०० वर्ष पूर्व पौप वदि दशमी के दिन इन्होंने जन्म लिया। नगर भर में अपूर्व उत्सव मनाया गया। ज्योतिषी के कथन पर, कि "ये आपका पुत्र बड़ा यशस्वी होगा। पारस के समान जो लोहे को भी सोना बना देता है, लोगों को धर्ममार्ग बता कर सुखी करेगा” पिता ने इनका पार्श्व कुमार रख दिया। * उपरोक्त जापों मे च्यवनमे, परमेष्ठीनेपद, जन्ममें, अर्हते, दीक्षाम, नाथ, केवलज्ञानमें, सर्वजाय, और मोक्षमें, पारंगताय नमः हैं। Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवनावस्था को प्राप्त होने पर राजा प्रसेनजित की कन्या प्रभावती से इनका विवाह सम्पन्न हुआ। ___ एक समय इन्होंने सुना कि कमठ नाम का तपस्वी इस नगर में आया है अपने चारों ओर अग्नि जला कर तप करता है। ये भी हाथी पर सवार होकर गये। अवधिज्ञान से प्रभु ने लकड़ी में सर्प देखा और उस तपस्वी से कहा देख उस लकड़ी में सर्प जल रहा है। सन्यासी ये सुनकर आगबबूला हो गया। तब कुमार ने लकड़ी फड़वाई। वास्तव में उसमें तड़पता हुआ सर्प देख कर सभी को भारी विस्मय हुआ। पार्श्व कुमार ने उसे ॐ हीं असिआउ साय नमः, नमस्कार मन्त्र सुनाया जिससे वह मरकर धरणेन्द्र हुआ और कमठ मर कर मेघमाली नाम का देव हुआ। कुछ समय पश्चात् लोकांतिक देवताओंने प्रभु से प्रेरणा की। प्रभु ने भी जीवों को सच्चा मार्ग दर्शाने के लिए एक वर्ष तक वर्षी दान देकर पौष वदि एकादशी के दिन ३०० पुरुषों के साथ दीक्षा धारण की। इस प्रकार दीक्षा लेकर प्रभु कठिन तपस्या करने लगे। एक समय प्रभु जब ध्यानावस्थित खड़े थे, उस समय मेघमाली ने अपना पूर्व भव स्मरण करके, अपने तिरस्कार का बदला लेने के लिये प्रभु पर अति बृष्टि की। शीघ्र ही जल भगवान् के गले तक पहुंच गया। तब धरणेन्द्र ने झट आकर भगवान को एक कमल के सिंहासन पर बिठाया और अपना सर्प का रूप बना कर अपने फणों से उनके सिर पर छाया की! ये देखकर कमठ को लज्जा आई और वो प्रभु से क्षमा मांग. नमस्कार कर स्वस्थान को चला गया। इसी प्रकार अनेक तपस्यायं करते उपसर्गों को सहते हुए भगवान् को चैत्र वदि चतुर्दशी के दिन केवलज्ञान प्राप्त हुआ। प्रभु ने विचर विचर कर लोगों को उपदेश देना आरंभ किया। अनेक भटकते हुए जीवों को संसाररूपी महासागर से पार लगाया। विक्रम संवत् से ८२० वर्ष पूर्व, श्रावण वदि अष्टमी के दिन सम्मेतशिखर पर्वत पर १०० वर्ष की आयुष्य पूर्ण करके निर्वाण पद को प्राप्त किया। इसी कारण आजकल इस पर्वत को पार्श्वनाथ हिल (पहाड़ी ) भी कहते हैं। माघ मास पर्वाधिकार माघ मास में माघ वदि १३ मेरु तेरस के नाम से प्रसिद्ध है। इसी दिन श्री ऋषभ देव स्वामी का निर्वाण कल्याणक है। इस पर्व की उत्पत्ति कुमर पिंगल राय ने की। अयोध्या नगरीमें अनन्तवीर्य राजा राज्य करताथा।उसके एक पंगु (पैरहीन) पुत्र हुआ जिसका नाम पिंगल राय था। उसने गांगिल मुनि से इस पर्व का अधिकार सुनकर १३ मास तक तपस्या की। उसके फलस्वरूप उसका पंगुपन जाता रहा और सुन्दर रूप प्रगट हुआ। इस प्रकार पुनः तेरह १३ वर्ष तक इस पर्व की आराधना करके नगर में ऊजमना किया। तेरह मन्दिरों का निर्माण करवाया । उसमे तेरह प्रतिमा सुवर्णमयी, तेरह चांदीमयी और तेरह प्रतिमा रत्नमयी स्थापित की। तेरह दफा श्री संघ सहित तीर्थों की यात्रा की। तेरह साधर्मीवत्सल किये। इस तरह बहुत ज्ञान की भक्ति की। अन्त में श्री सुत्रताचार्य मुनि से दीक्षा लेखर क्रमशः सव कर्मों को खपा कर जीवों को प्रतिबोध देते हुए मोक्ष गये । इसीलिये ये पर्व अति उत्तम और कल्याणकारी है। जो भव्य इसकी आराधना करेंगे वे रूप, गुण, तेज और समृद्धी को प्राप्त करेंगे। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८ ] इस दिन उपवास करना चाहिये। रत्नमयी पांच मेरु भगवान के सन्मुख चढ़ावे। कदाचित् ऐसी शक्ति न हो तो चांदी के अथवा घृत के मेरु चढ़ावे। स्नात्र, अष्ट प्रकारी या सत्रहभेदी पूजा करावे। दोनों समय प्रतिक्रमण करे। अष्टद्रव्य से पूजा करे देववन्दना करे । "श्री ऋषभदेव स्वामी पारंगताय नमः" इस पद का २००० गुणना करे। अगर जो भव्य तेरस के दिन पोसह करे और पूजादिक सव विधि पारने के दिन करे। इसी प्रकार तेरह वर्ष अथवा तेरह मास तपस्या करनी चाहिये। पीछे यथाशक्ति तप का उद्यापन करे, साधर्मीवत्सल करे। तीर्थों की यात्रा करे । गुरु भक्ति अवश्य करे। फाल्गुन मास पर्वाधिकार फाल्गुन मास में मिति फाल्गुन सुदि १४ तीसरी चौमासी चतुर्दशी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन की सर्व विधि आषाढ़ चौमासी चतुर्दशी के समान करनी चाहिये। होली अधिकार भगवान् महावीर स्वामी ने वर्ष में ६ उत्तम पर्व कहे हैं :-तीन चौमासा, दो ओली तथा एक पर्युषण। जिन में से दो ओली एक पर्युपण तथा कार्तिक चौमासे का महोत्सव तो प्रायः सभी जगह विधि विधान पूर्वक होता है। फाल्गुन चौमासा ठीक विधि से नहीं होता। शास्त्रों में लिखा है कि: होलिका फाल्गुन मासे, द्विविधा द्रव्य भावतः। तत्राद्या धर्महीनानां, द्वितीया धर्मिणां मता ॥१|| अर्थात् होली दो प्रकार से मनाई जाती है १ द्रव्य से २ भाव से। द्रव्य से होली मनाने में अधर्म होता है और भाव से मनाने में सुख की प्राप्ति होती है। शुभध्यान रूपी अग्नि से अष्ट कर्म रूपी लकड़ी को जलाना चाहिये इसी से कर्मों का नाश होता है और पुण्य की प्राप्ति होती है! पूर्व में होली के विशेष स्तवन लिखे हैं सो उन्हें बोलना चाहिये अथवा वसन्त के स्तवन बोलने चाहियें। रात्री जागरण करना चाहिये। मन्दिरजी में पूजा करानी चाहिये। यथाशक्ति सुन्दर नाटक करना, साधर्मी वत्सल करना और अगर यथेष्ट इच्छा हो तो जल, चन्दन, केशर, गुलाल इत्यादिक से क्रीड़ा करनी चाहिये इसी प्रकार प्रतिक्रमण व्रत जिन पूजादि धर्म कार्यों में समय व्यतीत करना चाहिये। श्री जिन कुशल सूरिजी महाराज का संक्षिप्त जीवन चरित्र ___ मारवाड़ देश के 'समियाना' ग्राम में छाजेहड़ गोत्रीय मन्त्री देवराज के पुत्र मल्लिराज श्री जैसेला जल्हागर रहते थे। उसकी परम प्रेयसी पत्नी जयश्री थी। उन्हीं के गर्भ से मेरे चरित्रनायक का जन्म हुआ। आपका नाम 'कर्मण' रखा गया था। जब आप दश साल के थे, कलिकाल केवली श्री जिन चन्द्र सूरिजी इनके ग्राम में आये। वे बड़े ही प्रभावशाली धर्मोपदेशक थे, फलतः उनके उपदेश का प्रभाव आप पर बहुत अधिक पड़ा। अथवा यो कहिये कि जैसे अच्छे खेत में पड़ कर वीज उग आते हैं-व्यर्थ नहीं होते, ठीक उसी तरह उनके उपदेश मेरे चरितनायक के मानस पर-तथा मस्तिष्क पर सफल सिद्ध हुए। यद्यपि माता ने सासारिक मोह ममता के वश होकर इन्हें रोकने की चेष्टा की फिर भी इन्होंने माता को समझा बुझा कर श्री जिनचन्द्र सूरिजी महाराज से खूब समारोह के साथ दीक्षा ले ही ली। दीक्षा कालिक नाम 'कुशल कीर्ति' रखा गया। उन दिनों वयोवृद उपाध्याय 'विवेक समुद्र' जी बड़े ही उच्चकोटि के विद्वान् थे,अतएव उन्हीं से आपने विद्या पढ़ी। Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] बाद में श्री जिनचन्द्रसूरिजी नागोर आये तो वहां के प्रतिष्ठित आदमियों ने उत्सव प्रारम्भ कराया, जगह जगह पर दानशालायें खोलीं, जिन मन्दिरों में नन्दी उत्सवादि शुरू किये गये । उस महोत्सव में सोमचन्द्र आदि साधु और शील समृद्धि आदि साध्वियों को दीक्षा दी गई। जगचन्द्रजी को वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया। कुशलकीर्त्तिजी को भी वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया । बाद की बात है, श्री जिनचन्द्र सूरिजी विहार करते हुए खण्ड सराय में आकर चातुर्मास कर रहे थे। कि वहां उनको 'कम्प' रोग हो गया। उन्होंने अपने ज्ञान ध्यान से अपनी आयु शेप समझ कर अपने हाथ से दीक्षित, तर्क साहित्य, अलङ्कार ज्योतिष और पर- दर्शनों के प्रकाण्ड विद्वान् वाचनाचार्य कुशल कीर्त्ति गण को अपना सूरि पद प्रदान करने के लिये राजेन्द्र चन्द्राचार्यजी के पास पत्र भेजा और कुछ स्वस्थ होकर मेडता होते हुए कोशवाणी आये एवं अनशन करके स्वर्ग सिधार गये । इधर जयवल्लभ गणि के द्वारा उक्त सूरिजी का पत्र राजेन्द्र सुरिजी को मिला । यद्यपि उन दिनों में वहां महा भयङ्कर अकाल पड़ रहा था। फिर भी दिवंगत श्री जिनचन्द्र सूरिजी की आज्ञा पालन करना उन्होंने अपना परम कर्त्तव्य समझा फलतः सूरि पद प्रदान मुहूर्त्त निकाल दिया। सच्चे महात्मा की अभिलाषा आप ही आप पूरी हो जाती है, श्रावक जाल्हण के पुत्र तेजपाल और रुद्रपाल ने सूरि पद स्थापन महोत्सव को अपनी ओर से सुसम्पन्न करने का भार स्वीकार कर लिया फलतः श्रीमान् आचार्य की आज्ञा लेकर योगिनीपुर, उच्च नगर, देवगिरि, चित्तौड़, खम्भात आदि चारों दिशाओं में आमन्त्रण पत्रिकाएं भेजी गयीं ; संघ आने लगे । बड़े समारोह के साथ - संवत् १३७७ की जेठ वदि ११ को श्री राजेन्द्र चन्द्राचार्य जी ने महामहोपाध्याय विवेक समुद्रजी, प्रवर्त्तक जयवल्लभ जी आदि ३३ साधुओं जयद्धि आदि २३ साध्विओं और समस्त संघ के समक्ष स्वर्गीय आचार्य पाद की आज्ञानुसार शान्तिनाथ स्वामी के मन्दिर में सूरि पद पर कुशल कीर्त्ति जी को बैठाया और आचार्यपाद का नाम कुशल सूरि रखा । पद प्राप्त करने के बाद सूरिजी महाराज ने भीम पल्ली की ओर विहार किया। वहां पहुंचने पर वीरदेव श्रावक ने प्रवेश महोत्सव मनाया। वहां से आप पाटण गये और सूरिजी का दूसरा चातुर्मास वहां ही सम्पन्न हुआ । संवत् १३७६ मार्गशीर्ष कृष्ण पञ्चमी को इन्होंने शान्तिनाथ स्वामी के मन्दिर में प्रतिष्ठा महोत्सव कराया। बाद में शत्रुञ्जय पर्वत पर ऋषभदेव स्वामी के मन्दिर की नीव डलवाई और मूर्त्तियों की प्रतिष्ठा कराई। इसी तरह सूरिजी अनेक शहरों में प्रतिष्ठा अप्टाहिका आदि उत्सव कराते हुए पाटण पहुंचे | इधर दिल्ली निवासी श्रावक रायपति दिल्ली सम्राट गयासुद्दीन तुगलक के दरबार मे अपना प्रस्ताव रखा कि मैं संघ निकालना चाहता हूं, ताकि मैं चारों दिशाओं में भ्रमण कर सकूं और जहां कहीं भी मुझे जिस चीज की आवश्यकता पड़े, सहायता मिले। सम्राट से मंजूरी मिल गई। यह समाचार सूरिजी के पास पाटण भेज दिया। संघ यात्रार्थ रवाना हो गया। कई तीर्थो की यात्रा करता हुआ संघ पाटण पहुंचा। वहां संघ ने सूरिजी को यात्रा करने के लिये राजी कर लिया। सूरिजी १७ नाधुओं और १९ साध्वियों के साथ बिहार करने के लिये चल पड़े। आचार्यपाद संघ के साथ बिहार करते हुए शत्रुश्ञ्जय जी की तलहट्टी मे पहुंचे। वहां पार्श्वनाथ स्वामी की पूजा करके संघ पर्वत पर चढ़ा | ऋषभदेव भगवान् के आगे सूरिजी ने अनेक स्तोत्रों का निर्माण किया और वहीं यशोभद्र, देवभट नामक शुक्कों को दीक्षा दी। वहां पर संघ ने श्री आदिनाथ स्वामी के मन्दिर में नेमिनाथजी आदि की तथा जिनपति सुरि 7 Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५० ]. जिनेश्वर सूरि आदि गुरुओं मूर्त्तियां स्थापित कराई और सूरिजी ने अपने हाथों से आषाढ़ वदि ८ प्रतिष्ठा की। वहां से विहार करते हुए गिरिनार आये। संघ द्वारा नेमिनाथ स्वामी के भण्डारमें ४०००० रुपयों की आमदनी हुई। इसी भांति विहार करते हुए सूरि जी पाटण में चातुर्मास करने के लिये ठहर गये और संघ दिल्ली पहुंचा। इसी तरह और जगहों में भी प्रतिष्ठायें की गयीं। सिन्ध देश में भी सूरिजी का आना हुआ और कई मन्दिरों की प्रतिष्ठायें हुई। इनके द्वारा धर्म की बड़ी तरक्की हुई। अन्तिम चौमासा इनका देवराज (देराउल ) पुर में हुआ । यहीं माघ शुक्ल १३ संवत् १३८९ में सूरिजी को अत्यन्त तीव्र ज्वर हुआ । अपना अन्तिमकाल उपस्थित समझ कर श्री तरुण प्रभाचार्य और लब्धि निधानोपाध्याय को इन्होंने अपने मुख से कहा कि लक्ष्मीधर के पुत्र, अम्बा देवी तनय पञ्चदश वर्षीय आयु वाले पद्म मूर्त्ति को मेरे बाद सूरि पद देना । और भी गच्छ सम्बन्धी शिक्षायें देकर फाल्गुन वदि ५ को स्वर्ग सिधार गये । आवश्यक कौन आवश्यक से किस आचार की शुद्धि होती है ? सामायिक प्रतिक्रमण और काउसग्ग इन तीन आवश्यकों से चारित्राचार की विशुद्धि होती है । चव्विसत्था (चतुर्विशति स्तव लोगस्स ) आवश्यक से दर्शनाचार की विशुद्धि होती है । वन्दन आवश्यक से दर्शनाचार, ज्ञानाचार और चारित्राचार की विशुद्धि होती है । पश्चक्खाण आवश्यक से तपाचार की विशुद्धि होती है और इन छहों आवश्यकों में वीर्य का विकास करने से वीर्याचार की विशुद्धि कहाती है । कौन आवश्यक कहां से कहां तक है ? १ सामायिक – “इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसिअं ( राई ) पडिकमणो ठाउ" इस सूत्र से प्रतिक्रमण की क्रिया शुरू होती है। वहां से लेकर "करेमि भंते " सूत्र द्वारा ८ णमोकार का जो काउग किया जाता है वहा तक सामायिक नाम का प्रथम आवश्यक कहा जाता है । २ उच्चिसत्था - ८ णमोक्कार के काउसग्ग के बाद जो लोगस्स बोला जाता है वह दूसरा आवश्यक कहा जाता है ! ३ वंदना -- लोगस्स कहने के बाद तीसरी आवश्यक सूत्र वंदणा मुंहपत्ति पडिलेह कर दो वंदना दी जाती हैं वह तीसरा वंदना नाम का आवश्यक है । ४ पडिकमणा - वंदना देने के वाद 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसिअं (राइयं) आलोउ" वहा से लेकर "आयरिय उवज्झाए” पर्यन्त प्रतिक्रमण नाम का चौथा आवश्यक है । पक्खी चौमासी और सम्वत्सरी प्रतिक्रमण इस चतुर्थ आवश्यक के अन्तर्भूत है। ५ “आयरिअ उवज्झायके बाद जो दो लोगस्स, एक लोगस्स और एक लोगस्सका काउसग्ग किया जाता है वह काउसग्ग नाम का पांचवां आवश्यक है । ६ पञ्चक्खाण – पञ्चक्खाण करना छठा आवश्यक है। नोट -- गुर्वा वलियों में सूरिजी को निर्वाण तिथि सवत् १३८६ फाल्गुन वदि १५ मिलती है, यही प्रथा लोगों में अधिक वृद्ध मूल है। Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह नियम चितारने की विधि . . . दिन के चार पहर के नियम सबेरे मुंह धोने के पहले ग्रहण कर साम को पार लीजिये, रात्रि के चार पहर के फिर शाम को ग्रहण कर सवेरे पार लीजिये, नियम तीन णमोक्कार गुन के लीजिये और तीन णमोकार गुनके पारिये । पारने के वख्त जो रक्खा था उसको याद करके संभाल लीजिये, कमती लगा उसका लाभ हुआ, भूल से जास्ती लगा उसका "मिच्छामि दुबई' दीजिये, चाहे आठ पहर के चितारिये, परन्तु चार पहरमें चितारनेसे पारने के बख्त ( कितना नियम चितारते हुए रक्खा है और कितना भोग मे आया है उसकी) विधि मिलानेमें सुगमता रहती है। ___ कोई व्रतधारी श्रावक जन्म भर के निर्वाह के वास्ते जादे जादे वस्तु रखते हैं तो १४ नियम चितारने से उनका भी आश्रव संक्षेप हो जाता है इस वास्ते व्रतधारी और अविरती को अवश्य १४ नियम चितारने चाहिये। - चौदह नियमों की गाथा (१) सचित्त, (२) दव, (३) विगइ, (४) वाणह, (५) तंबोल, (६) वस्थ, (७) कुसुमैसु, (८) वाहण, (६) सयण, (१०) विलेषण, (११) वंभ, (१२) दिसि, (१३) न्हाण, (१४) भन्तेसु । ___ गाथा का संक्षिप्त अर्थ १ सचित्त-कचा पानी, हरी तरकारी, फल, पान, हरा दातून. नमक आदि । २ द्रव्य-जितनी चीज मुंह में जावे उतने द्रव्य जल, मंजन, दातून, रोटी, दाल, चावल, कढी, साग,. मिठाई, पूरी, घी, पापड़, पान, सुपारी, चूरण आदि । __३ विगय–१०, जिनमें से मधु, मांस, मक्खन, और मदिरा ये ४ महाविगय अभक्ष होने से श्रावकों को अवश्य त्याग करना चाहिये और ६ विगय श्रावक के खाने योग्य है। घी, तेल. दूध, दही, गुड़ अथवा मीठा पक्वान्न (जो कडाही में भरे घी में तला जाय)। ४ उपानत्-जूता, चट्टी, खड़ाऊ, मौजा आदि (जो पांव में पहना जाय ) । ५ तंवोल-पान, सुपारी, इलायची, लौंग, पान का मसाला आदि। ६ वत्थ ( वस्त्र)-पगड़ी, टोपी, अंगरखा, चोला, कुड़ता, धोती, पायजामा, दुपट्टा, बहर, अंगोछा, रुमाल आदि मरदाना जनाना कपड़ा (जो ओढ़ने पहरने में आवे )। - ७ कुसुमेसु-फूल, आदि की चीजें जैसे सिज्या, पंखा, सेहरा, तुर्रा, हार, गजरा, इन (जो चीज सूचने में आवे)। ८ वाहन ( सवारी)-गाड़ी, फिटन, सिगरम, हाथी, घोड़ा, रथ, पालकी, डोली, रेल, ट्राम्बे, मोटर नाव, जहाज स्टीमर, वलून आदि यानि तैरता, फिरता, चलता और उड़ता। ९ शयन-कुरसी, चौकी, पट्टा, पलंग, तखत, मेज, शच्या आदि ( सोने वा बैठने की चीज)। १० विलेपन-तेल, केशर, चन्दन, तिलक, सुरमा, काजल, उबटन, हजामत, पुरस, कंघा काच देखना, देवाई आदि (जो चीज शरीर में लगाई जावे।) ११ बंभ (ब्रह्मचर्य )-स्त्री. पुरुपमें, सुई डोरे के नाप तथा वाह्य विनोद की संख्या करलेनी श्रावक परदारा त्याग और स्वदारा से ही सन्तोष रखे, उसका भी प्रमाण करें। Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२ 1 १२ दिसि ( १० दिशा ) - शरीर से इतने कोस ( लम्बा, चौड़ा, ऊंचे, नीचे ) जाना आना, चिट्ठी तार इतने कोस भेजना, माल आदमी इतने कोस भेजना तथा मंगाना | १३ न्हाण ( स्नान ) सारे शरीर से स्नान करना ( मोटा स्नान ) कितनी बार हाथ पैर धोना (छोटा स्नान ) एक बार । १४ भत्ते -- अशन, पान, खादिम, स्वादिम, ये चारों आहार में से, खाने में जितनी चीजें आवे सब का कुल वजन इतना । ये १४ नियम के ऊपर ६ काय और ३ कर्म की मरजाद चितारनी अवश्य है । ६ काय १ पृथवीकाय-मट्टी, नमक आदि ( खाने में वा उपभोग में आवे ) उसका वजन । २ अप्पकाय - जो पानी पीने में वा दूसरे उपभोग में आवे उसका वजन + | ३ ते काय - चूल्हा, अंगीठी, भट्टी, चिराग आदि का प्रमाण । ४ वायुकाय - हिंडोले और पंखे ( अपने हाथ से वा हुकुम से ) जितने चलते हों उनकी संख्या का प्रमाण, रुमाल से वा कागज से हवा लेनी यह भी पंखे में गिनी जाती है, उसकी जयणा । ५ वनस्पतिकाय - हरी तरकारी तथा फलादि इतनी जात के खाने, घर सम्बन्धी मंगाने, जिसकी गिनती तथा वजन | ६ सकाय - त्रसजीव अपराधी, बिनापराधी, यह ६ काय का परिमाण कर लेना । ३ कर्म १ असी ( शस्त्र औजार ) - तरवार, बन्दूक, तमंचा, भाला, आदि, छूरी, कैची चक्कू, सरौता, चिमटी तथा औजार आदि । २ मसी ( लिखना पढ़ना ) - कागज कलम दवात. पेन्सिल, बही, पुस्तक, छापा, टाइप आदि । ३ कृषी (कस्सी) खेत, बगीचे आदि का परमाण । जैन तिथि मन्तव्य श्री हरिभद्र सूरिजी कृत तत्त्व तरङ्गिणी ग्रन्थ की आज्ञा है :तिहि पड़गे पुन्वा तिहि कायव्वा जुत्त धम्म कज्जेव । चउदसी विलोवे, पुण्णमिमं पक्खिपडिकमणं ॥ १॥ अर्थात् किसी तिथि का क्षय हो तो पूर्ण तिथि में धर्म कार्य करना उचित है। जो कदाचित् एकम तिथि कम हो तो धर्म कार्य पिछली अमावस्या तिथि को करे । अष्टमी का क्षय हो तो सप्तमी को व्रत आदि करे। यदि चतुर्दशी का क्षय हो तो पूर्णिमा या अमावस्या में पाक्षिक प्रतिक्रमण करना चाहिये कारण कि समीपवर्ती पर्व तिथि ( पूर्णिमा तथा अमावस्या ) को छोड़कर अपर्वतिथि में पर्वतिथि का आराधन करना युक्त नहीं है। + पानी को जात, कूवां, बावड़ी, तलाव, नदी, नहर, समुद्र, गङ्गा, मेघ आदि का प्रमाण संख्या भी करना अच्छा है । * यदि तिथि क्षय होकर घड़ी आध घड़ी से कम मिले तो सारे दिन नहीं मानी जाती। क्योंकि यह नियम गच्छ परम्परा जैन सिद्धान्तानुसार ही माना जायगा, ज्योतिष शास्त्र के अनुकूल नहीं। तेरस का क्षय हो जाय तो बारस में मिलेगी, चतुर्दशी में नहीं । Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां ये प्रश्न उठता है कि यदि पर्वतिथि का आराधन अपर्व तिथि में नहीं करना तो अष्टमी आदि के क्षय होने पर सप्तमी आदि में धर्मकार्य करना कैसे उचित हो सकता है ? ___ उत्तर यह है कि अष्टमी के अनन्तर पर्व तिथि का योग न होने से पूर्वमे रही हुई सप्तमी आदिमें ही धर्मकार्य करना उचित है। इसी तरह साम्वत्सरिक चौथका क्षय हो तो पञ्चमो को साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण करना परन्तु तीजको नहीं करना चाहिये। यदि चौथ दो हों तो प्रथम चौथमें ही धर्म कार्य करना उचित है। इसी प्रकार की शात्रों की आज्ञा है। मास प्रतिबद्ध जितने पर्व हैं वे सब मास की वृद्धि में कृष्ण पक्ष वाले पर्व प्रथम मास में और शुक्ल पक्ष में आने वाले पर्व द्वितीय मास में आराधन करने चाहियें। कदाचित् कार्तिक मास बढ़े तो पहले कार्तिक में चौमासा करे। फाल्गुण या आषाढ़ दो होने पर द्वितीय फाल्गुण या आषाढ़ में चौमासा करे। आषाढ़ चौमासे की चौदसा को प्रतिक्रमण करने के बाद पूर्णिमा से ४३ वें या ५० वें दिन सम्वत्सरी पर्व करे। चौथ कम हो तो पंचमी के दिन करे। चौमासे में यदि श्रावण, भादों या आसोज ये तीन मास बढ़े तो पंचमास का चौमासा करना शास्त्र सम्मत एवं वृद्ध परम्परानुसार मान्य है। चंदोवा रखने के स्थान प्रत्येक श्रावक को अपने घर में निम्न १० स्थानों में चंदोवे जरूर बांधने चाहिये। १ चूल्हे पर। १ पानी के परेन्डे पर। ३ भोजन के स्थानों में। ४ चक्की की जगह । ५ खाने पीने की चीज पर। ६ दूध दही आदि पर ( छाछ बिलोने के स्थान पर)। ७ शयनगृह में। ८ स्नानगृह में। सामायिक आदि धर्म क्रिया के स्थान में अथवा पौषधशाला और १० मन्दिरजी में। और साथ ही साथ घर में हमेशा उपयोग करने के लिये सात छनने रखने चाहिये । पानी छानने का। २ घृत छानने का। ३ तेल छानने का। ४ दूध छानने का। ५ छाछ या मट्ठा आदि छानने का। ६ गरम अचित्त जल छानने का और ७ आटा छानने (छनना या चालनी ) का । अभक्ष्य बाईस अभक्ष १ गूलर। २ प्लक्ष । ३ बड़ के फल। ४ काकोदुम्बरी। ५ पीपल । ६ मांस । ७ मदिरा। ८ मक्खन । मधु। १० अनजाने फल। ११ अनजाने फूल। १२ बर्फ। १३ विष (जहर) 1 १४ • आषाढ़ सुदी चतुर्दशी को पिछला चातुर्मास पूरा होता है चैत्र, वैशाख, जेठ, आषाढ। आषाढ सुदी चतुर्दशी को (चउण्हं मासाण अद्रोह पक्खाण विसोत्तरसय राई दियाण) का पाठ पढकर पिछले चातुर्मास की क्षामणा की जाती है। कालकाचार्यजी महाराज ने पक्खी, चतुर्मासो, प्रतिक्रमण, अम्मावस तथा पूर्णिमा से चतुर्दशी का किया है, वर्तमान समय में भी यति साधु पक्खी चातुर्मासी प्रतिक्रमण चतुर्दशी को ही करते हैं। कल्पद्रुम कलिका पृष्ठ १६०। * दशपञ्चकेषु कुर्वत्सु आषाढ पूर्णिमादिवसे प्रथम पञ्चक अग्रे एव पञ्चभिः पञ्चभिदिवसः एकैकं पर्व साधुना पञ्चाशदिने एकादश पर्वाणि भवन्ति ते एते एकादश पर्व दिवसेषु पर्युषणा पर्व कर्तव्य इति। आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर अगाड़ी ग्यारहवें पचकडे मे निश्चय ही सम्वत्सरी पवं कर लेना चाहिये। हरएक पचकडा ५ दिन का होता है और पहला पचकडा आषाढ सुदी ११ से १५ तक होता है। इसी तरह सब पचकड़े होते हैं। पाश्चमी से चौथ का सम्वत्सरी पर्व कालकाचार्यजी ने ही किया। Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :- - [ ४] ओले। १५ सचित्त मिट्टी। १६ रात्री भोजन। १७ दही बड़े ! १८ बैगन । १६ पोश्ता । २० सिंघाड़ा। २१ कार्यवानी। २२ खसखस के दाने। दही को गरम करके जिस चीज में डाला जाता है वो अभक्ष्य नहीं होता है। ३२ अनन्तकाय १ भूमि कन्द। २ कच्ची हलदी। ३ कच्ची अदरख । ४ सूरन। ५ लहसुन। ६ कच्चू। ७ सतावरी। ८ विदारी कन्द । ६ घीकुआर। १० थुहरी कन्द । ११ नीम गिलोय । १२ प्याज । १३ करेला । १४ लोना। १५ गाजर। १६ लोढी पद्म कन्द। १७ गिरिकी। १८ किसलय ( कोमल पत्ते काला सफेद)। १६ खीर सुआ कन्द ( कसेरू ) । २० थेग कन्द। २१ मोथा। २२ लोन वृक्ष का छाल। २३ खिलोड कन्द । २४ अमृत वेल । २५ मूली। .२६ भूमीफोड़। २७ बथुआ। २८ बरुहा । २६ पालक ! ३० कोमल इमली। ३१ सुअरवल्ली। ३२ आलू कन्द । ४ महाविगय मांस, मदिरा. मक्खन, मधु। ये बिलकुल अभक्ष्य हैं। मक्खन में छा से निकालने के दो घड़ी बाद जीव उत्पन्न हो जाते है इसलिये मक्खन अभक्ष्य माना गया है। यदि छा में ही पड़ा रहे तो जीव नहीं उत्पन्न होते हैं या मक्खन को छा से निकालने के बाद तपा लेने से जीव नहीं पैदा होते हैं। ५ उम्बर फल . उम्बर फल, बड़ का फल, पीपल का फल, नीम का फल (कच्ची निमोली ), मूलर। "कोमल फलं च सर्व" इस पाठ के अनुसार जितनी भी कोमल चीजें हैं भक्षण करने योग्य नहीं हैं। और जिस चीज के बीज अच्छी तरह न गिन सकें वे तब तक अनन्तकाय हैं। इन अभक्ष्यों सब्जियोंको सुखाकर रखना जेन समाजमे जो प्रथा चल रही है वह जैन सिद्धान्तानुसार बिलकुल विपरीत है कारण अभक्ष्य पदार्थ सूख जाने पर भी भक्ष्य नहीं हो सकते । खाने योग्य पदार्थ 'व्यञ्जन (तरकारी, शाक) आम्बी (कैरी), इमली, ओलगोभी ( बङ्गाल), कमरख, काचर, करेला, केला कच्चा, करोंदा, कद्दू (लौकी), कुंदरू, ककरोल, कैर. केले का फूल, कचनार, गोभी ( फूल ). गोभी (गांठ ), गोभी (पत्ता ), चना (छोला ), टमाटर, तुरइ (अर्रा), तुरइ (धीआ), पीपल (चूर्णकी ), परवल, बडहर, भिण्डी, मिरच बड़ी, मिरच पतली, मटर, लसोढ़ा ( ल्हेसुआ), वावलिया; सेंव की फली, सहाजने की फली, सोगरी ( मोगरी), गेहूं की फली, कचनार की फली, जौ का सिट्टा, जवार का सिट्टा, बाजरे का सिट्टा । चउलाई की फली, मकई की फली, वोड़े की फली, मूंग की फली। - कन्द . -अदरख, अरवी, आलू, ओल; कसेरू, कमलगट्टे की जड़ (मे), गाजर, प्याज, मूंगफली (चीना बदाम), मूली, लहसुन, सकरकन्द आदि । जैन शास्त्रों में श्रावकों को अभक्ष्य अर्थात् (नहीं खाने योग्य पदार्थ) खाना नहीं बताया है। Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५.. ], कारण तामसी, राजसी, सात्विकी ये तीन प्रकार के भोजन है। इसमें से तामसी भोजन करने से तामसी वृत्ति आती है इसलिये धार्मिक पुरुषों को तामसी भोजन के खाने से बचना चाहिये । उपरोक्त जो कन्द ( अभक्ष्य ) वर्णन किये गये है ये सब तामसी है । “राजसी भोजन” साधु तथा श्रावक दोनोंको खाना मना है कारण उसमें शुद्धाशुद्धिका विचार रहने की आशा बिलकुल नहीं होती इसलिये राजसी भोजन राजाओं के लिये ही है, साधु और श्रावकों के लिये नहीं । अतः दोनों को इस भोजन से बचना चाहिये । "सात्विकी भोजन” सब से श्रेष्ठ है विचार से यदि बनाया जाय तो निर्दूषित और शान्तिप्रद होता है । इसीलिये फलाहार तथा शाकाहार करने की मनाई नहीं की गई है। महीने की बारह तिथियों में श्रावकों को फलाहार तथा साकाहार करने की मना ही की गई है। उसका खास कारण यह है - २-५-८ ज्ञान तिथि ११-१४-३०-१५ चारित्र तिथि है । इन तिथियों में शास्त्रों का पढ़ना पढ़ाना, सुनना सुनाना तथा चारित्र पालन करने का विधान है। श्रावक लोग इन बातों से विमुख हो गये इन बातों की यादगारी के लिये इन तिथियों में आचार्यों ने सचित्त का त्याग रक्खा है । इन्हीं तिथियों मे आगे की गती का वन्ध भी पड़ता है इसलिये पाप से जितना भी बचा जाय उतना बचे और संवर भाव धारण करे ताकि आगे की गती खोटी न बंधे । इसलिये इन तिथियों मे सचित्त का त्याग रक्खा गया है। यह त्याग व्रती श्रावकों के लिये है । फल अनार,अनारस,(अनन्नास) अमरूद, अलूचा, अमडा, आम, आडू, आलू बुखारा आंवला, ऊख, अंजीर, अंगूर, ककड़ी, केला पका, कटहल, कमलानींबू (संतरा), कमलगट्टे का छत्ता. कमरख, कइत्थ, (कथा) कुष्माण्ड (पेठा), कागजी (नीधू), खरबूजा, खजूर ( पिंड), खीरा, खुरमानो, खोरना, खीरणी ( खिन्नी), खट्टा ( नीबू पंजाब ), गुलाबजामुन, गुलहर, गोंदनी, गन्ना ( पौण्डा), चिरमिट, चकोतरा ( विजोरा ), जमरूद (टींवरू ), जामुन, जमीरी ( नीबू ), टिपारी ( पिटारी रस भरी ), डाब ( कच्चा नारियल ), तरबूज, तलकुन ( बंगाल में होता है ) दुश्यान (सिंगापुर), नारंगी, नागफली, नींबू (पाती), नासपाती, नारियल, पपीता काकडी ( एरण्ड ), पीचू, पेठा, पीलू, फालसा, फरेन्दा, फूट, वेर, बादाम ( पात बंगाल ), बेल, वेनची, भुट्टा, गुस्तीन (सिंगापुर), मौसमी ( मीठा नींबू), मालटा महुआ, लोकाट, लीच, सेव, सिंघाड़ा, सफेदा सहतूत (काला, सफेद, हरा, लाल), सरदा ( सरधा ) सरवती ( नींबू बम्बई), शरीफा (सीताफल ) । मेवा काजू, बादाम, किसमिस, अखरोट, नोजे, पिस्ता, चिरौंजी, मुनक्का, छुआरे । फूल कमल, केवड़ा, कुमुदिनी, कामिनी, केतकी, कुन्द, कनेर, गंदा, गुलाव ( पांच तरह के ), गुढैल, चम्पा, चन्द विकासी (कमल), चमेली, जूही, जाई, दामिनी, दमनक, नरगिस (नील कमल पुण्डरीक कमल, पद्मनी कमल, वकुल, बेला, नाग, पुन्नाग, मल्लिका, मरवा, मचकुन्द, मोगरा, भोतिया, मालती, रजनीगंध, रात की रानी, लाखी, वासन्ती, सूर्य विकासी ( कमल), श्वेत कमल, हसीना, हार सिंगार । - Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान लकीर होती है । ५४ । [] थोड़ा सब्ज होता है । यह तीन प्रकार का है (१) सोनाकस (२) लोहाकस (३) चांदीकस । अन्त के ढ़ो तो मिलते हैं। प्रथम का उपलब्ध नहीं होता । ४८ कसौटी - काला रंग । इससे सोने की कस की परीक्षा होती है । ४६ दारचना - चने की दाल के समान पीला तथा लाल टिकिया के मुताबिक स्याह जमीन पर होता है । ५० हकीके कुलबहार - सब्जपन के साथ जद मिला होता है। मुसलमान जपने की माला बनाते हैं। ये पत्थर जल में होता है । ५१ हालन – गुलावी मैला । हिलाने से हिलता है । ५२ सिजरी - सफेद ऊपर श्याम दरख्त दीखता है । ५३ सुवेन जफ - सफेद में बाल के कहरवा - पीला रंग का । जिसका वोरखा तथा माला बनती है ५५ झरना - मटिया रंग का । जिसमें पानी देने से सब पानी भर जाता है । ५६ संगेवसरी - आंख के सुरमे में पड़ता है। रंग काला होता है । ५७ दांतला - जरदपन लिये सफेद । पुराने शंख की माफिक होता है । ५८ मकड़ी - सादापन लिये हुए काला | ऊपर मकड़ी के जाल के समान । ५६ संगीया -- शंख के समान सफेद । इसका घडी कालाकेट बनता हैं । ६० गुदरी - नाना प्रकार के रंगवाला होता है । इसे फ़कीर लोग पहनते है । ६१ कासला – सब्जपन लिये सफेद होता है । ६२ सिफरी – सन्जपन लिये आस्मानी रंग का होता है । ६३ हदीद - भूरापन लिये स्याह, वजन का भारी होता है। मुसलमान इसकी तसबीह बनाकर जाप करते है । ६४ हवास – सोनापन लिये सव्ज होता है । औषधियों में काम आता है । ६५ सींगली - जाति माणिक (माणक) की । स्याही और सुख मिला हुआ रंग होता है । ६६ ढेडी - काला रंग । इसके खरल तथा कटोरे बनते हैं । ६७ हकीक - अनेक प्रकार के रंगों वाला, जिसका घड़ी का मुट्ठा, कधोरे एवं खिलौने वनते हैं । ६८ गोरी - अनेक प्रकार के रंगों वाला तथा सफेद सूत होता है। इसके कटोरे तथा जवाहर तौलने के बाट बनते हैं । ६६ सीचा - काला रंग । इसकी नाना प्रकार की मूर्तियां बनती हैं । ७० सीमाक- लाल, जर्द एवं कुछ स्याहमाइल होता है । ऊपर सफेद, जर्द और गुलाबी छींटा होता है। इसके खरल तथा कटोर बनते हैं । ७१ मूसा - सफेद रंग । इसके खरल तथा कटोरे वनते हैं । ७२ पनधन --- कुछ सब्जपन लिये काले रंग का होता है । ७३ अमलीया - कुछ कालापन लिये गुलाबी रंग का होता है । ७४ दूर – कत्थे के समान रंग का होता है। इसके खरल बनते हैं । ऊपर सफेद छींटा । इसके खरल बनते हैं । ७६ स्वारा - सम्पन लिये काले रंग खरल बनते हैं । ७७ पायजहर - सफेद पारे के समान रंग का होता है। विष के लगाने से घाव सूख जाता है । ७८ सिरखड़ी-मिट्टी के समान रंग का होता है। पर घिस कर लगाने से घाव सूख जाता है । ७६ ज़हर मोहरा - कुछ सफेदपन लिये सब्ज रंग का होता है। किसी विप मिश्रित चीज में इसको रख देने से विष का दोष जाता रहता है। ८० रतुवा - लाल रंग का । जिसको रात्रि में ज्वर आता हो तो गले में बांधने से आराम होता है । ८१ सोनामक्खी - नोले रंग का । औषधियों मे काम आता है । ८२ हज़रतेयहूद - सफेद मिट्टी के समान। इससे मूत्रकी बीमारी में लाभ होता है । ८३ सुरमा—काला रंग । अंजन के काम आता है । ८४ पारस - काला रंग। इसको लोहे के लगाने से लोहा सोना हो जाता है। ७५ तिलीमर - काला का होता है। इसके घाव पर घिस कर खिलौने बनते हैं। बाव मोती की जातियां तथा उनके नाम 1 I गजमुक्ता । मत्स्य मोती । सपमोती । वांसभिरेके मोती । शंखकेमोती । खानके मोती। सूअर के मोती । * लोहे के टुकड़े पर नींबू के रस को निचोड़ कर रगटने से यह तीन कस होते हैं। दरद गुरटे में कमर में माने से आराम होता है । Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] मणियों के नाम सूर्यकान्त मणि। चन्द्रकान्त मणि। इन्द्रनील मणि। पद्मराग मणि। मरकत मणि। सर्प मणि । करकेतक मणि। स्फटिक मणि। वेरुड्या मणि। लसनिया मणि । लाजवदी मणि। पुष्पराग मणि। गोमेदक मणि। मासर मणि। विजना मणि ! प्रत्येक ग्रह की शान्ति के लिये जो रत्न उपयुक्त वताये गये हैं, उन रत्नों को अंगूठी में इस प्रकार जड़ा कर पहनें कि उन रनों का सवदा अंगुली से स्पर्श होता रहे। इसीलिये इनके नाम तथा स्वरूप उपयोगी समझ कर दे दिये गये हैं। नवग्रह सम्बन्धी अन्य उपयोगी बातें तथा नाम सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र. तारे ये पांच ज्योतिष्क देवता है। जो आकाश में पतलाकार परिभ्रमण करते हैं। इस जम्बूद्वीप व भरतक्षेत्र में जैन धर्मानुसार दो सूर्य तथा दो चन्द्रमा हैं। ये दोनों ही ज्योतिष्क देवताओं के इन्द्र है ।। ८४ ग्रह माने गये हैं परन्तु वर्तमान समय में इन द ग्रहों से ही काम लिया जाता है। उनके नाम ये हैं:-१ सूर्य । २ चन्द्रमा। ३ मंगल। ४ बुध। ५ वृहस्पति। ६ शुक्र। ७ शनिश्चर । ९ राहु और १ केतु। ये भी अपनी अपनी गति के अनुसार आकाश में भ्रमण करते हैं। इसी प्रकार आकाश में अट्ठाइश नक्षत्रों की व्यवस्था है। नक्षत्र १ अश्विनी । २ भरणी। ३ कृत्तिका । ४ रोहिणी। ५ मृगशिरा। ६ आन्। ७ पुनर्वसु । ८ पुष्य । ६ अश्लेषा । १० मघा। ११ पूर्वा फाल्गुनी। १२ उत्तरा फाल्गुनी। १३ हस्त । १४ चित्रा। १५ स्वाति। १६ विशाखा। १७ अनुराधा। १८ ज्येष्ठा । १६ मूला । २० पूर्वाषाढ़ा । २१ उत्तराषाढ़ा। २२ अभिजित । २३ श्रवण। २४ धनिष्ठा। २५ शतभिषक । २६ पूर्वाभाद्रपद । २७ उत्तराभाद्रपद । २८ रेवती। तारे असंख्य हैं। अश्विनी नक्षत्र से प्रारंभ कर वारह राशी मानी गई है। ज्योतिषी इन्हीं राशियोंसे मनुष्योंके शुभाशुभ का विचार करते हैं। वारह राशियोंके नाम तथा उनके अक्षर इस प्रकार : राशि तथा अक्षर १ मेष-चू चे चो ला ली लू ले लो अ। २ वृष-इ उ ए ओ वा वी वू वे वो। ३ मिथुन-का की कू घ ङ छ के को ह। ४ कर्क-ही हू हे हो डा डी डू डे डो। ५ सिंह--मा मी मू मे मो टा टी टूटे। ६ कन्या-टो प पी पू ष ण ठा पे पो। ७ तुला-रा रिरु रे रो ता ती तू ते। ८ वृश्चिक-तो. ना. नी नू ने नो या यि यू। ६ धन-ये यो भा भी भू धा फा ढ़ भे। १० मकर-भोज जि ज-जे जो खा खी खें.. खे खो गा गी। ११ कुंभ---गू गे गो सा सी सू से सो दा। १२ मीन- दी दू थ झ न दे दो चा ची! ___ मेष, सिंह, धन राशि का चन्द्रमा पूरव मे होता है अतः इन राशि वालों को पूर्व में प्रयाण करते समय सन्मुख चन्द्रमा लेना चाहिये। वृष, कन्या, मकर राशि का चन्द्रमा दक्षिण में होता है। कर्क, मीन, वृश्चिक राशि का चन्द्रमा उत्तर में होता है। सन्मुख चन्द्रमा अत्यन्त लाभदायक होता है। दाहिने चन्द्रमा धन सम्पत्ति का देने वाला होता है। पीठ पीछे का चन्द्रमा प्राण के हरण करने वाला और वायें ।। चन्द्रमा धन का नाश करने वाला होता है। इसलिये दो चन्द्रमा शुभ है और दो अशुभ है अतः शुभ चन्द्रमा में ही गमन विचार करना चाहिये। Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ] सोमवार और शनिवार को पूरव में दिशाशूल होता है अतः इस दिन पूर्व में गमन न करना चाहिये। इसी तरह बुध और मंगल को उत्तर दिशा में, रविवार और शुक्र को पश्चिम दिशा की तरफ और वृहस्पतिवार को दक्षिण में दिशाशूल होता है अतः इन दिनों में इन दिशाओं में गमन न करना चाहिये। दिशाशूल वायां अच्छा होता है। एकम व नवमी को पूरव में योगिनी होती है। तीज व एकादशी को अग्निकोण मे योगिनी होती है। अमावस व अष्टमी को ईशानकोण मे योगिनी होती है। दूज व दशमी को उत्तर में योगिनी होती है। पूर्णमाशी व सप्तमी को वायव्यकोण में योगिनी होती है। छट्ठ और चतुर्दशी को पश्चिम में योगिनी होती है। चौथ और वारस को नैऋत्यकोण में योगिनी होती है। पंचमी और तेरस को दक्षिण में योगिनी होती है। बायीं योगिनी सुख देने वाली होती है। पीठ पीछे की योगिनी मनोवांछित फल देने वाली होती है। दाहिनी योगिनी धन का नाश करती है। सन्मुख योगिनी मौत की निशानी है। अतः पिछली दोनों टाल देनी चाहिये। मुहूर्त देखने वालों को इन बातों का विशेष ख्याल रखना चाहिये। सब दोषों को टाल कर शुभ मुहुर्त निकालना चाहिये। मुहुर्त्त निकालने में सरलता हो अतः संक्षिप्त विवरण दे दिया गया है। दिन का चौघड़िया रात का चौघड़िया अ रो ला | अ। रोला चं | का उ | अ शु) चं का रो | शु | चं| का| उ रो ला शु 4 च का उअ रो 4 अ रो। ला शु ap. चं| का| चं! का| उ अ का! उ ! अ चं का उ का लाश ब 44. का उ अ का चं] उ । अ आशंसा हो सका यदि यह कहीं अज्ञानतम का दीप दारण, एक भी जन जैन यदि इससे हुआ उपकार भाजण। यदि विपथ का पान्थ कोई कर सका निज मार्ग धारण हो सकेगा श्रम सफल इस ग्रन्थ का संकलन कारण ।। ॥समाप्तोऽयं ग्रन्थः ।। Page #765 -------------------------------------------------------------------------- _