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'उपेत्याधीयतेऽस्मात् स उपाध्यायः, जिसके पास आकर यति (साधु) लोग पढ़ा करें - शिक्षा प्राप्त कर सकें, वे उपाध्याय है ।
"सुत्तत्थ वित्थारण तप्पराणं णमो णमो वायग कुंजराणं । गणस्स संधारण सायराणं सव्वप्पणा वज्जिय मच्छराणं ॥ "
अर्थात् सूत्रों की व्याख्या करने में तत्पर, गण के भार को वहन करने में समुद्र समान हों, प्रमाद तथा ईर्ष्या से मुक्त और वाचकों में मत्त गजेन्द्र की तरह अप्रतिहत प्रतिभा वाले उपाध्यायों को नमस्कार । जिनमे साधुजन व्यवहृत सत्ताईस गुणों के साथ-साथ २५ गुण और, जोकि उपाध्याय पद के लिये जरूरी हैं, सूत्रों एवं अर्थों का सच्चा ज्ञान अध्यापन की क्षमता, बोलने की सुमधुर शैली इत्यादि विशेषताए हों । गच्छ संचालन की योग्यता हो । वे उपाध्याय हैं । ये साधुओं की अपेक्षा अधिक सम्माननीय है । सानोति पर कार्य मथवा मोक्ष कार्य मिति साधुः । जो बिना किसी स्वार्थ के दुनिया के मंगल विधायक हों या मोक्ष कृति के साधक हों. वे साधु हैं ।
" खतेय दंतेय सुगुत्ति गुत्ते मुत्ते पसंते गुण योग जुत्ते । गयप्पमाए हय मोहमाये, भाएह णिच्च मुणि राय पाये ।”
अर्थात् क्षान्त, दान्त, पंच समितियों और तीन गुप्तियों के धारण करनेवाले, प्रशान्त, योग युक्त, प्रमाद रहित और मोह माया से असम्बद्ध मुनिराज के चरणों का नित्य ध्यान करते है ।
जिनमे निजी विशेष सत्ताईस गुणों के साथ-साथ आचार्य एवं उपाध्याय के विशेष गुणो को छोड़कर और अशेष गुण समान हों, वे साधु है ।
उपर्युक्त आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों पूज्य और पूजक भी है अर्थात् अपने से नीचे के पुरुषों के पूज्य और अपने से ऊपर के महात्माओं के पूजक हैं। जैसे आचार्य । उपाध्याय से लेकर श्रावक पर्यन्त के पूज्य है और अरिहन्त एव सिद्ध के पूजक है । उपाध्याय, साधुओं और श्रावकों के पूज्य है पर आचार्य, अरिहन्त और सिद्ध के पूजक है। साधु, श्रावकों के पूज्य है पर आचार्य से लेकर सिद्ध पर्यन्त के पूजक है । फलतः आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु तत्त्व माने जाते है । अरिहन्त और सिद्ध केवल पूज्य है अतएव देव तत्त्व माने जाते है । हमारे जैनधर्म मे ' आवश्यक' वैसी ही महत्वपूर्ण वस्तु है जैसे शरीर में प्राण सरिता मे पानी, चन्द्रमा में रोशनी है। आवश्यक क्रिया जगत् में वही स्थान रखती है जो वैदिक संसार मे संध्या, मुस्लिम समाज मे नमाज, ईसाइयों में प्रार्थना और पारसियों मे खोरदेह अवस्ता रखती है ।
शका होगी, वह आवश्यक क्रिया क्या है ? दुनिया के क्षण-प्रतिक्षण नाशमान उपकरण में— दु.खान्त उपभोगों में न उलझ कर सम्यक्त, चेतना, चारित्र आदि गुणों को व्यक्त करने के लिये जिनकी दृष्टि-बिन्दु केवल आत्मा की ओर झुकी है, उनके लिये जो अवश्य करने लायक क्रिया है, वही आवश्यक क्रिया है । अवश्य कर्त्तव्य, निग्रह, विशोधि, वर्ग, न्याय, अध्ययन, इत्यादि आवश्यक के पर्यायवाची शब्द है । जैन समाज मे देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और साम्वत्सरिक रूप मे आवश्यक क्रिया की जाती है। आचार्य, उपाध्याय, साधु, प्रातः सायं यह क्रिया अवश्य करेंगे अन्यथा साधु ही नहीं समझे जा सकते । श्रावकों के लिये इच्छाधीन है। जो श्रावक बारहाती, धर्मशील होते हैं वे तो नित्यप्रति करेंगे हो और जो व्यवस्थित रूप मे नित्यप्रति नहीं कर पाते, वे भी पाक्षिक, चातुर्मासिक, या साम्वत्सरिक नी करेंगे ही। यही कारण है कि श्वेताम्बर जैन समाज मे बच्चे-बच्चे 'आवश्यक' जानते हैं । दिगम्बर