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[ १७ ] या अभिन्न । अगर अलग मानें तो दो चीजें साबित होती हैं और दूसरी चीज साबित होने पर वही दोप आ जायगा। ईश्वर की एक मात्र सत्ता नही रहेगी । और अभिन्न मानें तो ईश्वर माया मय सावित होता है । तब फिर माया को मानने का मतलब ही क्या ? अतः ईश्वर का माया द्वारा पाप फैलाना, और पुनः आकर उसका उद्धार करना यह तो केवल प्रपंच ही है । और जब हम माधारण संसारी भी ठोक पीटकर थप्पा करने के कार्य को ही कारण की नजरों से देखते हैं तो इतने बड़े ईश्वर का यह कार्य कैसे ठीक माना जाय ।
दूसरी बात जब दुनियां एक कार्य है तो उसका बनानेवाला कोई न को कोई अवश्य है । अर्थात् कारण वगैर कोई कार्य होता नहीं । पर हम पूछते हैं कि ईश्वर कैसा कारण है । घड़े को बनाने में कुंभार कारण अवश्य है पर वह उपादान कारण नहीं, केवल निमित्त कारण है। ईश्वर को कैसा कारण माना जाय ? दोनों कारण तो स्वयं हो नहीं सकते । शंकराचार्य के मत से ईश्वर दोनों कारण है, पर हम माया द्वारा फँसाये गये है इससे स्पष्ट देख नहीं सकते, माया विपयक हम ऊपर विवेचन कर चुके हैं। माया को मानने से ईश्वर का एकत्य और उसका सर्ब सत्ता सिद्ध नहीं होती। एक कारण मानते हैं तो दूसरे की उत्पत्ति कहां से हुई। अतः यह बात भी सिद्ध नहीं हो सकती ।
फिर एक प्रश्न उठता है कि जितनी भी चीजें जिसकी रचना अमुक व्यक्ति या शक्ति द्वारा हुई है, उन सबका आदिकाल अवश्य है। जब वे नहीं बनी थी, और अमुक आदमी ने उसे बनाई उसके पहले क्या था आखिर विश्व की ईश्वर ने रचना की, उसके पहले की क्या कल्पना है ? विश्वका पूर्वरूप क्या था ?
"प्रयोजनमनुद्दिश्य न मूढोऽधि प्रवर्तते" बगैर किसी खास हेतु के मूर्ख भी कोई कार्य नहीं करता है । ईश्वर का इतनी बड़ी सृष्टि रचने का क्या प्रयोजन था ? उसे क्या जरूरत पड़ी ? क्या उसे किसी प्रेरणा की? क्या किसी ने आज्ञा की ? नहीं ऐसा तो हो नहीं सकता। क्योंकि वह खुद स्वतन्त्र है, उसपर किसी की सत्ता नहीं। अगर कहा जाय कि यह उसका स्वभाव है तो स्वभाव जन्य दोष उसमें आ गया वह स्वभाव से वाधित हुआ, और उसकी स्वतन्त्रता नष्ट हुई। कायम हुई ।
उस पर प्रकृति की सत्ता
सृष्टि रचना के पहले ईश्वर का क्या कार्य था, वह कहां रहता था। बनाई। उसके परमकारुणिक होते हुए भी यह दुनियां दुःखमयी क्यों
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किन साधनों से उसने दुनियां
उसकी एक मात्र सत्ता होते
हुए भी यह नाना विधि गति विधि और प्रपंच क्यों ? इत्यादि प्रश्नों का कहां कुछ जवाब है ।
अगर ईश्वर की उत्पत्ति नही मानते है तो
एक और भी बात कि ईश्वर स्वयं कहां से आया ? वह भी कुछ नहीं रह जाता है, आखिर तुम्ही तो कह रहे हो जो चीज है, कार्य है उसका कोई न कोई कर्त्ता अवश्य है, तो ईनर क्या कोई चीज नहीं, कैसा भी उसका स्वरूप क्यों न हो पर कुछ न कुछ है तो अवश्य तो वह कहां से आया ? यह कहा जाय कि वह अनादि है तो फिर इस दुनिया को भी अनादि क्यों न मान लिया जाय ईश्वर के जिम्मे यह सारा प्रपंच रचकर उसे दुनियावी क्यों बनाया जाय ?
ईश्वर का स्वरूप और आकार कैसा माने ? अगर यह कहा जाय कि वह सच्चिदानंदमय है तो प्रत्यक्ष नहीं दिखता। जो सचिदानंद मय होगा वह प्रपंच मे क्यों पड़ेगा, तो दोनों चीज भी परस्पर भिन्न है । जो दुनियादारी को समझेगा वह अपने उस वक्त के स्वभाव से दृष्टि से सचिदानन्दमय नहीं हो सकता । उससे भिन्नत्व मानने से स्वरूप दोष जाहिर है । ईश्वर का आकार भी तो मानना
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