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संचालन करता है। यह उसकी परम शक्ति है। वह खुद जगह पर जा सकता है। संक्षेप में वह सर्वगामी है, सर्वधर्म से उसे प्रेम है दुनिया में अधर्म का फैलना उसे नापसंद
ये बातें सच नहीं है ? क्योंकि बगैर बनाए कोई चीज नहीं बनती। उसका कोई कर्ता न हो वहां तक नहीं बन सकता तो कहां से बनेगा जब दुनियां में नाना चीजें है है । और वह सर्व शक्तिमान् केवल ईश्वर ही है ।
इतने बड़े ब्रह्मांड का वह अपने अकेले हाथों मनमाना रूप ले सकता है और मन मानी व्यापी है, सर्व शक्तिमान है और है सर्वज्ञ | है और इसीलिये जब अधर्म फैलता है तो स्वयं उत्पन्न होकर पुनः धर्म की स्थापना करता है ! क्या दुनियां को कोई बनाने वाला नहीं है ? यह नहीं हो सकता । दुनियां भी एक कार्य है और कोई भी कार्य जब तक आखिर कुंभार घड़ा बनाएगा तभी तो बनेगा। वरना पैदा होती हैं तो अवश्य उनका बनाने बाला कोई न कोई दूसरा नहीं ।
दुनियां के कई दर्शन मत धर्म इस बात में सहमत है। कई उसे ज्ञानमय बताकर अमुक अंश में उसे सर्जक स्वीकार करते हैं। पर दर असल में यह रचना शक्ति क्या है इसका कुछ पता नहीं लगता । नहीं दौड़ा सकता वहां पर वह जाकर ईश्वराधीन होकर रुक जाता कितना सत्य है ।
मनुष्य जब अपनी कल्पना की दौड़ को है पर हमें देखना है कि इस मान्यता में
पहले प्रश्न उठता है ईश्वर एक हैं या अनेक । ईश्वर कर्तृत्व की मान्यता वाले एक ही ईश्वर मानते है। क्योंकि नाना ईश्वर मानें तो वैमनस्य उत्पन्न होने की सम्भावना है और फिर कौन सा काम कौन करे, किस पर किसकी सत्ता चले इत्यादि सब गड़ बड़ मच जाती है । अतः उनका मानना ठीक है कि ईश्वर एक है । जब हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि ईश्वर एक है तो प्रश्न उठता है वह क्या उत्पन्न करता है और क्या नहीं ? सभी वह उत्पन्न करता है, ऐसा तो मानना पड़ेगा। अच्छा भी और बुरा भी। केवल अच्छे का उत्पादक मानते हैं तो बुरे का उत्पादक दूसरे को मानना पड़ता है अधर्म का नाशक और धर्म का प्रचारक मानते हैं तो अधर्म का उत्पादक और धर्म का नाशक दूसरे को मानना पड़ता है। दूसरे को स्वीकार करलें तो बड़ी गड़बड़ी मच जाती है अतः दोनों का उत्पादक भले भिन्न भिन्न परिस्थिति में हो पर केवल वही एक है ।
ईश्वर का स्वभाव दयालु है, महान् करुणा का यह महासागर है तो फिर दुनियां में दुःख क्यों दीख पड़ता है। यह दुःख की कल्पना किस लिये सूझी। अपने करुणा सागर में यह दुनियां का खारापन कहां से आया । स्वर्ग से यह दुःख का वरसात क्यों बरसा ? और फिर से यह बात कि दुनियां में जब अधर्म फैलता है तो मैं उत्पन्न होकर धर्म की स्थापना करता हूं, कहां तक ठीक है। दुनियां के नाना लिये तेल लगाने वाली बात ईश्वर करे यह कैसे माना जाय प्राणियों को पहले जमाकर ऊपर से शान्ति वह किस लिये प्रपंच करेगा १
तब कई यह कहते हैं कि मनुष्य का स्वभाव कुछ ऐसा ही है वह ऐसे ही कर्म करता है इससे उसे दुःख उठाना पड़ता है, तब तो हम वही बात पूछते हैं, कि उसका ऐसा स्वभाव किसने बनाया ? तो एक मान्यता और आती है कि माया है जो उसे सत्य के रास्ते से घेर कर ले जाती है। जैसे रस्सी को देख कर सांप का भ्रम हो जाना है । तो यह भ्रम माया द्वारा ही होता है, यह माया उसमें दुष्ट स्वभाव उत्पन्न करती है और सत्याचरण से उसे विमुख करती है। पर माया को ईश्वर से भिन्न माना जाय
* यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥