________________
[ १५ ] चित्र भी लिखा जायगा। पर भित्ति के विना चित्र कैसा ? इसी भांति साधु चारित्र लेने के समय गृहस्थ का वेष छोड़ कर साधु का द्रव्य वेष अर्थात् द्रव्य चारित्र, चोलपट्टा, चद्दर पांगरनी, ओघा मुंहपत्ति
आदि साधु लोग धारण किया करते हैं। इसी का नाम द्रव्य चारित्र अथवा सामायिक चारित्र है। इसी द्रव्य चारित्र के द्वारा साधु वन्दे पूजे जाते हैं भाव चारित्र तो यथाख्यात चारित्र के आने के बाद आता है और वह यथाख्यात चारित्र जम्बू स्वामी के वाद विच्छिन हो गया अब यदि द्रव्य चारित्र भी लोग न लें तो साधु धर्म या साध्वी धर्म का विच्छेद हो जायगा। और यदि तीर्थकर भगवान् का संघ ही नहीं रह सकेगा तब जैन धर्म का अस्तित्व कहां से रहेगा ? इसलिये द्रव्य चारित्र लेना परमावश्यक है। भाव चारित्र आयेगा भी तो द्रव्य चारित्र के आधार पर ही आयेगा। क्योंकि द्रव्य करणी से ही भाव करणी का उदय होता है। इसी तरह मूर्ति पूजक लोग मूर्ति की द्रव्य पूजा करते है। भाव पूजा का आविर्भाव मनुष्याधीन नहीं है। वह तो कर्मों की निर्जरा के ऊपर निर्भर है। परन्तु जब कभी भाव पूजा मानस पट पर आंकी जायगी द्रव्य पूजा की महत्ता से ही, द्रव्य पूजा के चिराभ्यास से ही, अतएव द्रव्य पूजा करना परम आवश्यक है। पर द्रव्य पूजा विवेक, विचार एवं शास्त्रानुसार ही करनी चाहिये। कोई शंका कर सकता है कि द्रव्य पूजा से तो पहिले पाप ही होता है, तब वह क्यों की जाय ? पर उसको सोचना चाहिये कि प्रत्येक द्रव्य क्रिया में पहिले थोड़ा पाप ही हुआ करता है, वाद में धर्म होता है। कोई एक धर्मशाला बनाता है तो उसमें कीट पतङ्गों के नाश जन्य पहिले कुछ पाप ही होता है पर बाद में साधु महात्मा, दीन, दुःखी, पथिक वगैरह की सेवा ही से अपार धर्म संचित होता है। ठीक इसी तरह सामायिक, पोसह, प्रति क्रमण, व्याख्यान सुनना या देना, आहार पानी देना या लेना, इन सभी कामों में पहिले कुछ पाप होता है, बाद में असीम धर्म होता है। मूर्ति पूजा में भी यही चात लागू है । फिर अगर थोड़े पाप के डर से अनन्त धर्म का लाभ नहीं किया जाता है तो इसे अज्ञानता छोड़कर क्या कहा जा सकता है। अगर किसी के सौ रुपये खर्च करने पर हजारका लाभ मिलता है तो वह क्या सौ का व्यय नहीं करेगा ? यही कारण है कि मूर्ति पूजक लोग द्रव्य पूजा को लाभ का हेतु मानते हुवे और भावी लाभ की वलवती आशा से मूर्ति की जल चन्दनादि उपकरणों से अष्ट प्रकारी पूजा किया करते हैं। यही कारण है कि ज्ञाता सूत्र में "द्रौपदी ने सम्यक्त पाने के बाद पूजा की थी' ऐसा उल्लेख मिलता है। प्रश्न व्याकरण में संवर द्वार और आश्रव द्वार का वर्णन चला है, जिसमें मूर्ति पूजा को संवर द्वार में माना है। राय पसेणी सूत्र में लिखा है कि प्रदेशी राजा के जीवने अवती होते हुए भी सम्यक्त सहित मूर्ति पूजा की। आवश्यक सूत्र में कहा गया है कि "कित्तिअ वंदिअ महिआ" अर्थात् तीर्थकर भगवान् वन्दन करने योग्य है, कीर्तन करने होग्य है। और द्रव्य व भावसे पूजन करने के योग्य है इसी तरह और धर्मों में भी मूर्ति पूजा के प्रचूर प्रमाण मौजूद है। अतएव मूर्ति पूजा करना प्रत्येक गृहस्थ श्रावक का परम कर्तव्य है। विजेपु किमधिकम् ।
ईश्वर कर्तृत्व और जैन धर्म ईश्वर ही की कृपा है कि हमारी आज दुनियां में हस्ती कायम है। वही सारे संसार का कर्णधार है, वही सुख दुख देता है, और उसीके आधार से सारा घटना चक्र चलना है। ईश्वर ही सब जानता है। वही हमें उसकी इच्छानुसार हमारे कानुसार हमें भिन्न भिन्न परिस्थिति मे रख सकता है। कितना ही पापी पाप कर उसकी आराधना उसका जप कर उसे प्रसन्न कर सकता है। उससे वरदान ले उसी के सामने अपने स्वेच्छित कर्म कर सकता है। सारी दुनिया का खयाल उसे हर वक्त रहता है।