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[ १८ ] होगा। क्योंकि आकार नहीं मानें तो अरूपी सावित होगा और स्वयं अरूपी रूपी पदार्थों का निर्माण कर ही नहीं सकता। निश्चित आकार मानते हैं तो उसका स्थान क्या! क्योंकि रूपी पदार्थ कहीं न कहीं अवश्य स्थित है। अगर उसका भी स्थान है और निश्चित है तो वह कहां ? ऐसा मानने से उसके सर्व व्यापकत्व में दोष आ ही जाता है।
__ अब जो यह कहा जाता है कि ईश्वरको मनमाने रूप धारणकर लेना है तो जब वह अपनी पूर्वावस्था को छोड़ दूसरे रूप में आता है तो एक अंश से आता है या सर्वाश से। एक अंश से आता है तो वह शक्ति नहीं। सर्वाश से आता है तो दूसरी बाजू कौन ध्यान देता है।
इस तरह जो ईश्वर* कर्तृत्व में जो हेतु इस मान्यता वाले बनाते हैं वे कैसे भी सिद्ध नहीं होते हैं। इस दुनिया का वास्तव में कोई बनाने वाला नहीं है। यह अनादि है अनन्त समय तक इसकी यही रफ्तार रहेगी। उनकी मान्यता मूजव ईश्वर करता है तो वह केवल विचार मात्र, जैसे सोने के नाना रूप देकर वह भिन्न भिन्न जेवर बना देता है, दर असल में वह सुवर्ण को उत्पन्न नहीं कर सकता। एक बात
और है कि दुनिया में जितने भी पदार्थ मूल भूत विद्यमान है उनका नाश नहीं हो सकता और जो पदार्थ नहीं है उनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। "नासतो जायते भावः, न भावोऽसद् जायते ।" सत् पदार्थों में नाना विकार होकर उनका कितनी ही तरह से रूपान्तर हो जायगा, पर परमाणु रूप में भी वह चीज कायम रहकर अपने असली पन में स्थित रहेगी। और रूपान्तर पर रूपान्तर लेनेके बाद भी वह कभी न कभी अपने रूप को प्रण कर लेगी। अर्थात् उसका विनाश नहीं होगा। और जो चीज है ही नहीं, उसे कोई पैदा नहीं कर सकता इसलिये जैन दर्शन की यह मान्यता कि इस जगत् का कोई बनाने वाला संचालन करने वाला नहीं है बिलकुल ठीक है। ईश्वर तो ज्ञान दर्शन और चारित्र को पूर्णता को पाकर कर्म रहित हो आत्मतत्त्व का चिन्तन करता हुआ सच्चिदानन्द मय है। उसे दुनिया के साथ कोई मतलब नहीं। ईश्वर को भी यह सब प्रपंच रहे तो फिर क्यों ईश्वर माना जाय वह तो मुक्त है।
आत्म निन्दा हे जीव ! तेरा जिन धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन करके निर्वाण प्राप्ति करने के लिये आना हुआ है, क्या उन क्रियाओं में तू अपना सारा समय लगा रहा है ? तुझे इसका ध्यान कहां १ तू तो उन खोटी श्रद्धाओं के सिकब्जे में फंसता जा रहा है जो तुझे एक दिन सर्वनाश की भीपण परिस्थिति में खड़ा होने के लिये वाध्य कर देंगी। तू उन कार्यों को कर लेने की हिम्मत बटोरा करता है एवं प्रवृत्ति बढ़ा रहा है जो करने लायक या होने लायक नहीं हो सकते। तुझे षट्रसों की नित्य नयी चाह पैदा होती रहती है। तेरी काम वासनाओं की अविछिन्न धारा उत्ताल तरङ्गों की माला से सुसज्जित होतो हुई दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है उसका कहों अवसान नहीं दीखता। हे आत्मन् ! क्या तू इन कामों से अपनी भलाई सोचता है ? तू सच समझ; अगर तेरी यही रफ्तार रही तो इसमें शक करने की कोई गुञ्जाइस नहीं कि इस दुर्लभ मनुष्य चोले में आकर भी तू आत्म कल्याण प्राप्त करने से वञ्चित ही रहेगा। जो बड़ा ही खेद जनक विषय है।
* न कर्तृत्वं नकर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः। नकर्म फल सयोग, स्वाभावस्तु प्रवर्तते ॥१४॥ परमात्मा किसी मनुष्य का न करनेवाला है न कर्म और न वह कर्ता को फल देनेवाला है यह सब स्वभाव से ही है। गीता अ० ५।