________________
[ १६ ] बड़े दुःख की बात है कि तू सामायिक पोसह और देसाव गासिक में भी दुनियावी चिन्तनाओं को भली भांति छोड़कर मन नहीं लगा सकता है। सम्यक्त मोहिनी, मिश्र मोहिनी एवं मिथ्यात्व मोहिनी के चमकीले सौन्दर्य पर तू अपने को न्यौछावर करने के लिये तुल रहा है। काम राग, स्नेह राग और दृष्टिराग से तू ने बड़ी दोस्ती जोड़ रखी है। तुझे कुदेवों में भक्ति, कुगुरुओं में श्रद्धा, कुधर्म में आस्था करने की बात जरूरी जंचने लग जाती है। किसी समय तू ज्ञान विराधना दर्शन विराधना, और चारित्र विराधना में तल्लीन हो जाता है। जब तेरे शिर कठिनाइयों का जबर्दस्त बोझा आ जाता है तब तू मन दण्ड, वचन दण्ड, काय दण्ड, हास्य, रति, अरति, भय, शोक और दुगंछा का आश्रय बन जाता है। फलतः कृष्ण, नील, कापोत लेश्यायें भी दुःखों के धक्के देने लग जाती हैं। मृद्धिगारब, रस गारब, शाता गारब तेरे सामने अकड़ कर खड़े हो जाते है । माया शल्य, नियाणा शल्य और मिथ्यात्व दर्शन शल्य भी तेरह काठियों की सेना बटोर कर मैदान में उत्तर आते हैं। अठारह पाप स्थानकों ने तुझे अपनी अभेद्य किलेबन्दी में कैद कर रखा है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुवन्धी माया, और अनन्तानुबन्धी लोभ; अप्रत्याख्यानी क्रोध, अप्रत्याख्यानी मान, अप्रत्याख्यानी माया और अप्रत्याख्यानी लोभ; प्रत्याख्यानी क्रोध, प्रत्याख्यानी मान, प्रत्याख्यानी माया और प्रत्याख्यानी लोभ; संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया और संज्वलन लोभ; इन चार चौकड़ियों के आवर्त में तू हमेशा चक्कर काटता रहता है। जब तेरे सामने इतने विघ्न बाधायें हैं और तू स्वयं निच्चेष्ठ निर्व्याघात होकर पाप एवं दुराचार के गहरे गर्त में उत्तरोत्तर फंसता जा रहा है, तब भव बन्धन से मुक्त होकर तुझसे अपने लक्ष्य पथ का पान्थ बनने की आशा कैसे की जा सकती है ? सच तो यह है कि तू अपने को-अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता ही नहीं। पहचाने भी कैसे ? इन्द्रियों का विश्वस्त गुलाम होने के कारण तुझे मालिक के हुक्म बजाने से फुर्सत कहां ? निरन्तर दुराचारों की हुल्लड़ बाजी में शक्त चोट खाकर तेरे हृदय की आंखों में सर्वाङ्गीण फोले पड़ गये है, फिर उसमें पहचान करने की शक्ति कहां से ?
यही कारण है कि तेरे गुणस्थान आज तक फल दे नहीं सके हैं, धैर्यगुण आ नहीं सका है, तृष्णा की बढ़ती ज्वाला शान्त नहीं हो सकी हैं; तू अस्त व्यस्त हो रहा है। जैसे सागर में लहर पर लहर आया करती है, उसी प्रकार तेरे मन में कामनाओं की हिलोरें अनवरत जारी रहती है। तू बड़े से बड़े ओहदे के लिये लालायित रहता है। ऐसी दशा में असली उद्देश्य की सिद्धि की चेष्टा तू क्यों करने लगा ? एक तो तू धार्मिक क्रियायें करता ही नहीं, अगर करता भी है तो शून्य मन से। और शून्य मन से की गई धार्मिक क्रियायें आकाश मे चित्र खींचने की भांति व्यर्थ हो जाती हैं। जिनसे कोई लाभ नहीं, केवल व्यवहार साधन मात्र है। व्यवहार भी जीव के लिये कल्याणकारी जरूर है किन्तु निश्चय शून्य वह भी अभिष्ट फल का प्रदायक नहीं हो सकता है। हे चेतन, व्यवहार मार्ग में व्रत उपवासादिक तपस्यायें नितान्त आवश्यक है, अन्यथा महान् पापों का संचय होता है। इसलिये स्थिर चित्त से व्रत एपवासादि कार्यों का सम्पादन किया कर। पर याद रख, अगर मन की स्थिरता न होगी तो वह (चित्त) इष्ट सिद्धि के विरुद्ध कुत्सित चिन्तनाओं में फंसाकर तुझे पथभ्रष्ट बना देगा। क्योंकि शास्त्रकार ने खुला चैलेज दे रखा है
"मनएव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः।