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[ २० ] अर्थात् मनुष्यों का मन ही वन्धन और मोक्ष का कारण होता है। अगर मनुष्यं मन को स्थिरता का सच्चा पाठ पढ़ाकर मुक्ति पथ का अन्वेषक पन्थ बनाता है तो निश्चय है कि वह उसे मुक्ति के द्वार तक पहुंचा देगा। और अगर विषयों के असमतल मैदान में तुरझोपम मन की वागडोर छोड़ देता है तो कभी न कभी अपने मंजिल के विरुद्ध पतन के गम्भीर गर्त में फेंक देगा, जहां से उद्धार पाना दुश्वार हो जायगा। इसलिये सबसे पहले चित्त को स्थिर एवं विषय बिमुख बनाना तेरा एकान्त कर्त्तव्य है। इसी सिलसिले में तुझे एक बात और समझ लेनी चाहिये कि तप, संयम, आदि कार्यों का नहीं करने वाला तो पापी है ही, पर करके तोड़ देने वाला तो महा पापी है।
हे जीव ! तू भी महा पापी है, क्योंकि तू अपने संकल्प के प्रतिकूल अनन्तकार्यो एवं अभक्ष्यों से भोला बना हुआ है। जर्दा, भांग, अफीम, तमाखू आदि मादक पदार्थों का सेवन करके "पञ्चक्खाण" नियम तू ने तोड़ डाला है। वता कैसा भयङ्कर पाप कर रहा है | शील और सन्तोप को तू अपने हृदय में स्थान ही नहीं देता। फिर तुझे वह सच्चा सुख आनन्द कैसे मिलेगा! जिसके लिये कि तुझे कितने जन्म जन्मान्तर गुजारने पड़े हैं। पर आज तुझे उन सब बातों की सुध कहाँ ? तू तो पुदल पदार्थ के पीछे अस्त व्यस्त हो रहा है।
तू समझता है. कि मेरे पास बड़े बड़े रन है, बड़े बड़े निधान हैं, रसायनों से परिपूर्ण कोथल (थैली ) है। मेरे पास चित्रावेली और अमृत गुटिका है। मेरे पास ऐसे ऐसे मन्त्र है कि बड़े बड़े देवताओं को भी काबू में कर सकता हूं एवं राजा, महाराजा, शाहंशाह जो चाहूं बन सकता हूं। या धनोपार्जन करके संसार में सबसे ऊंचे दर्जे का धनी मानी वन सकता हूं। ऐसी ऐसी विचार धारायें न जानें, कितनी तेरे हृदय में हिमांचल से हमेशा ही तरङ्गित होती रहती हैं एवं उसके अनुसार तू प्रयत्नवान् भी बनता रहता है। पर क्या तेरे ये सब विचार कभी भी पूरे हो सकते हैं ? या पूर्ण होने पर ही लोभ श्रृंखलायें टूट सकती है ? कभी नहीं; जब दशवे गुण स्थान पर पहुंचे हुवे जीव के भी लोभ की इति श्री नहीं होती, तब तेरी लोभ शृंखलता के टूटने की क्या आशा ? तुझे यह मालूम होना चाहिये कि
न जातु कामः कामना मुपभोगेन शम्यति ।।
तविसा कृष्ण वर्देव भूयएवाभि वर्द्धते ॥ १॥ इच्छाओं की पूर्ति से वे शान्त नहीं होती, घृत डालने से आग की शान्ति नहीं होती, प्रत्युत वढ़ती ही जाती है।
हे आत्मन् ! लोभ की शान्ति तो तब होगी, जब तू सन्तोप का अनुपूरण करेगा। किसी ने सच कहा है
"जव आवे सन्तोष धन, सव धन धूल समान"। हे चेतन ! तू खूब सोचा करता है कि इस संसार में मेरे इतने कुटुम्ब है, कि मेरा इतना वडा परिवार है, मेरा ऐसा घर, मेरे ये पिता, माता, पुत्र, कलत्र प्रभृति है, यह मेरी धनदौलत है। पर इन्ही विचारों के कारण तू ने अपनी संसार यात्रा में चौरासी लाख घर बना डाले , जिनमें कि तू अनवरत चक्कर काटता रहता है। फिर भी तेरी मृग तृष्णा आज तक शान्त न हुई। क्या तू अपने अतीत के कार्यों को कभी सोचता है ? तू संसार नाटक के रंगमंच पर मा, बाप, स्त्री पुत्र इत्यादि सम्बन्ध में