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असंख्य भूमिकाओं को लेकर आ जा चुका है, पर तेरे वे आज कुटुम्ब कहां है ? जरा हृदय पर हाथ रखकर विचार करके तो देख !
एक ठग की लड़की ने, जो वश्वक वृत्ति वल पर पैसा पैदा करती थी और अपने पितृ परिवार का भरण पोषण करती थी, अपनी मा से पूछा, मा मैं जो पाप करती हूं उनके भोक्ता कौन कौन होंगे ? मा ने कहा, बेटी, जो करेगा वह भोगेगा। ठग की बेटी विस्मित रह गई उसने क्षुब्ध होकर कहा मा, यदि ऐसी ही बात है, तब सांसारिक स्वार्थ को धिकार है ! झूठी माया ममता को धिक्कार है ! और धिक्कार है उस मृग तृष्णा की, जिसके वश में आकर मनुष्य वास्तविकता को भूल जाता है । अब इस निश्चित सिद्धान्त पर जा चुकी यह झूठा संसार न किसी का हैं, तथा, न होगा |
मा, मैं
हे जीव ! तुझे भी उसी तरह सोचकर ठोस सिद्धान्त पर आना चाहिये । तू ने मनुष्य का दुर्लभ शरीर, आर्य देश, उत्तम कुल, पूर्ण आयु, श्रावकपन और जिनेश्वर देव का धर्म, बड़े भाग्य अत्यन्त पुण्य से प्राप्त किया है; पर तू इसका दुरुपयोग कर रहा है, सांसारिक क्षण विनश्वर सुखों में लीन होकर इनका असली उद्देश्य ही नष्ट कर रहा है। एक मूर्ख ब्राह्मण ने जिस तरह कौवे को उड़ाने की गरज से दुर्लभ चिन्तामणि रत्न को फेक मारा और इच्छा की पूर्ति करने वाली वस्तु की परवाह न की, ठीक यही हालत अब तेरी है, पर मूर्ख ब्राह्मण तो अपनी मूर्खता पर खूब शरमाया, पर क्या तुझे आज अपनी करनी पर तनिक भी शर्म आती है ? हे आत्मन् ! लोक परलोक दोनों जगह सुख शाति देने वाले जैन धर्म के पवित्र प्राङ्गण में आकर भी तूने मन्द बुद्धि वाले कुगुरुओं के बाह्याडम्बर में फंसकर उस (जैन धर्म ) का स्वरूप ही बिगाड़ डाला, फलतः अपने लोक, परलोक दोनों को बिगाड़ डाला; बता, तेरे निस्तारे का अब क्या रास्ता होगा ?
हे नित्यानन्द स्वरूप ! मान रूपी पागल हाथी के ऊपर चढ़कर बाहुबल जी मुनि गौरवान्वित हो रहे थे, उन्हे संज्चालन मान का उदय था । निश्चय था कि उन्हे वह प्रमत्त हस्ती - अपनी अमिट मस्ती में कहीं न कहीं खतरे में गैर देता, उनका सर्वनाश हो जाता। पर संयोग वश ब्राह्मी सुन्दरी जी साध्वी जैसी उपदेष्ट्री मिलं गई, फलतः वे बाल बाल बच गये । पर तुझे तो वैसा होने की भी आशा नहीं है, कारण एक तो सफल उपदेशक का मिलना ही आजकल के जमाने में असम्भव प्रतीत होता है। दूसरा तू स्त्रयं अत्यन्त गहरे कीचड़ में फंसा हुआ है गिरी अवस्था में है, जहां से उद्धार होना बड़ा कठिन है । तू महाक्रोधी, महामानी, महामायी महालोभी बना बैठा है। तू जानता है, शास्त्रकार ने क्या कहाँ है ?
"कोहो पियं पणासेई माणो विषय णासणो ॥
माया मित्ताणु णासेई लोहो सव्व विणासओ || १॥"
अर्थात् क्रोध चिर कालिक एवं स्थिर प्रीति को भी नष्ट कर देता है। अभिमान विनय धर्म का नाश कर देता है । कपट मित्रता का अन्त कर देता है और लोभ तो सारी कल्याण परम्परा को खतम कर डालने वाला है।
इस लिये धीरे धीरे इन चारों का परित्याग करने में ही तेरा कल्याण होगा। महाराजा भरत चक्रवर्ती छः खण्ड के भोक्ता, चौदह रत्न के धारक चौसठ हजार राणियों के रमता, देवी देवताओं से प्राप्त साहाय्य थे । पर वह दुनिया की सम्पदाओं को तमाम अनर्थो की जड़ एवं अनित्य समझ कर