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[ २२ ॥ उससे दूर होने के लिये समय समय पर बड़ी चेष्टा करते रहते थे निरन्तर मानसतल पर विराग का अङ्कर जमाकर उसे बढ़ाने की तरकीब सोचा करते थे। इसी शुभ भावना के सहारे उन्होंने केवल ज्ञान
और केवल दर्शन प्राप्त करके अपनी आत्मा का कल्याण सम्पादन कर लिया। हे स्वप्रकाश ! क्या तू उनकी बराबरी करने की हिम्मत रखता है। ? अगर रखता है तो तेरी गलती है तेरी हिम्मत पस्त हो जायेगी। जानता है ? वह वेसठ शलाका के पुरुप चौथे आरे के जीव थे, उनकी बराबरी करना पंचम काल के जीव के लिये सामर्थ्य से परे की चीज नहीं तो कठिन जरूर है। फिर भी उद्देश्य सिद्धि के लिये सफल चेष्टा तो होनी चाहिये पर तुझे क्या फिकर है ? ___ हे ज्ञान स्वरूप ! तू पूर्ण चैतन्यवान है और कर्म है चैतन्य शून्य। ऐसे वैषम्य के होते हुये भी तू किस के साथ संचय परिचय करता रहता है। क्या यह ठीक है ? संसार का निश्चित नियम है कि लोग बरावरी वाले के साथ ही संचय परिचय, बैठना उठना इत्यादि सांसरिक क्रियाएं किया करते हैं; पर तेरी तो "मुरारे स्तृतीयः पन्थाः" इस लोकोक्ति को चरितार्थ करने वाली नीति ही निराली है।
पर इस तेरी अज्ञानता का फल तेरे लिये ही बुरा हुआ है और होगा। तेरी अवस्था तेरे स्वरूप की ठीक विपरीत दिशा की ओर प्रवाहित हो रही है। तू चेतन से जड़, ज्ञानी से अज्ञानी. बलवान् से कमजोर हो गया, हो रहा है और अगर यही रफ्तार रही तो तेरा भविष्य नितान्त दुःख मय होगा। इन कर्मों ने चौदह पूर्वधारी मुनियों को गिराया। ग्यारहवें गुण स्थान पर चढ़े हुए भुवन भानु केवली जी महाराज श्री कमल प्रभाचार्य आदि कतिपय जीव भी इसी कर्म की संगति से गिर चुके हैं। यहां तक कि महा विदेह क्षेत्र के मनुष्य भी इस कर्म के बुरे प्रभाव से अपनी दृढ़ता के अभाव के कारण वरी न रह सके; तब तेरी क्या ताकत है कि इस कर्म की संगति करते हुए भी तू कल्याण पथ का पाथ बना रह सकेगा। सच तो यह है कि तू आठ कर्म और अट्ठावन प्रकृतियों के जाल में इस प्रकार जकड़ गया है कि तेरा छूटना अत्यन्त कठिन हो गया है।
इसी तरह ऐसा जबदस्त मोह कर्म तेरे पीछे हाथ धोकर पड़ा है, जिसका जीतना बहुत मुश्किल है कारण, इस मोह कर्म की सत्तर कोड़ा कोड़ियां सागरोपम की स्थिति दुस्तर नदियों की तरह अथाह एवं भयङ्कर है, जिनका पार कर लेना आसान काम नहीं। तुझे तो न जाने कितने जन्म लग जायंगे। पर तुझे तो इसका विचार करना परमावश्यक है कि इस मोह पिशाच के हाथ से छुटकारा कैसे होगा ? हे चेतन ! तेरी रिहाई का तरीका जरूर है, पर करेगा तो वही! अगर तू चारित्र धन का धनी होकर शास्त्रों की प्राप्ति, सद्बुद्धि का अर्जन, सन्तोष का धारन और तृष्णा का सुतरा त्याग करे अग्रसर होता है तो निस्संदेह तेरे उद्धार का मार्ग सुप्रशस्त हो जायगा और तू अपने लक्ष्य तक वेशक पहुंच जायगा । यह महा पुरुषों के मस्तिष्क से सुप्रसूत अटल सिद्धान्त है।
धन्य थे वे साधु मुनिराज, जो पञ्च सुमति, तीन गुप्ति से समन्वित छः कायों के पालक, सात महाभयों से निर्भय, अष्टमदों के विजेता, नौ बाड़ से ब्रह्मचर्य के पालक, दश प्रकार के यति धर्मों के धारक, द्वादशाग वाणी के ज्ञाता, मिताहारी, मले मलीन गात्री, लुञ्चन और मुण्डन पर समभावी, वयालीस दूषण को टाल कर आहार के ग्राही, चरण सप्तति करण सप्तति चारित्र के पालक थे। धन्य होगा वह दिन, जिस दिन ऐसे महा पुरुषों का त्रिकाल कल्याणकारी दर्शन होगा। ____ हे आत्मन् ! इस प्रकार के तेरे चारित्र कब उदित होंगे ? होंगे भी कैसे ? इनके लिये तू यतिवान् ही कहां है ? तुझे तो संसार में अभी चक्कर काटना अभीष्ट है। हे जीव, अगर तुझसे ये सब काम न