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जैन-रत्नसार पारन पहुँचे कोय। अभिमतें वस्तु वस्तुगतें कहे रे, ले विरला जग जोय ॥ पंथीडूं. ४ ॥ वस्तु विचारें रे दीव्य नयण तणो रे, विरह पड्यो निरधार । तरतम जोगे रे तरतम वासनारे, वासित बोध आधार ॥ पंथीडूं ५॥ काल लब्धी लही पंथ निहालसू रे, ए आशा अविलम्ब । ए जन जीवे रे जिनजी जाण जोरे, आनंद घन मत अम्ब ॥ पंथीडूं. ६ ॥
श्री सम्भव जिन स्तवन
(रातड़ी रमिने किहां थी आवियारे) संभव देव ते धुर सेवो सवे रे, लहि प्रभु सेवन भेद । सेवन कारण पहेली भूमिका रे, अभय अद्वेष अखेद ॥ संभव० १॥ भय चंचलता हो जे परणाम नीरे, द्वेष अरोचक भाव । खेद प्रवति हो करता थकीये रे, दोष अबोध लखाय ॥ संभव० २ ॥ चरमावर्त्त हो चरम करण तथा रे, भव परिणति परिपाक । दोष टले बली दृष्टी खुले भली रे, प्रापति प्रवचन वाक ॥ संभव ३ ॥ परिचय पातिक घातिक साधुसं रे, अकुशल अपचय चेत । ग्रंथ अध्यातम श्रवण मनन करी रे, परिशीतल नय हेत ॥ सं०४॥ कारण जोगें हो कारज नीपजेरे, एमां कोइ न वाद । पण कारण विण कारज साधिये रे, ए निज मत उनमाद ॥ संभव० ५ ॥ मुगध सुगम करी सेवन आदरें रे, सेवन अगम अनूप । दे जो कदाचित सेवक याचना रे, आनंद घन रस रूप ॥ संभव० ६॥
श्री अभिनन्दन जिन स्तवन
(सिंधुओ आज निहोजोरे दीसे नाहलो) ___अभिनंदन जिन दरसण तरसीये, दरसण दुरलभ देव । मत मतभेदें रे जोजई पूछिये, सहु थापे अहमेव ॥ अभि० १ ॥ सामान्ये करी दरसण दोहलं रे, निरणय सकल विशेष । मद में घेरयो रे अंधो केम करे, रवि शशि रूप विलेष ॥ अभि० २ ॥ हेतु विवाद हो चित्त धरि जोइये, अति है दुरगम नयवाद । आगम वादें हो गुरुगम को नहीं, ए सवलो विषवाद | अभि० ३ ॥ घाती डूंगर आड़ा अति घणां, तुझ दरिसण जगनाथ । धीठाई
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