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जैन-रनसार द्विरावए । नरक्षेत्रेजी जिनवर जन्म हुवो अछे । तसुभगतेजी सुरपति मन्दिर गिर गछे ॥३८॥
॥त्रोटक | गछे मन्दिर शिखर ऊपर भुवन जीवन जिनतणो । जिन जन्म उच्छव करण कारण आवजो सवि सुरगणो ।। तुम शुद्ध समकित थास्ये निरमल देवाधिदेव निहालतां । आपणा पातिक सर्व जासे नाथ चरण परसालतां ॥३९॥
॥ ढाल ॥ इम सांभलजी सुरवर कोडि बहू मिली । जिन वन्दनजी मन्दरगिरि साहमी चली ॥ सोहम पतिजी जिन जननी घर आविया । जिन माताजी । बन्दी स्वामी बधाविया ॥४०॥
॥ त्रोटक ॥ बधाविया जिनवर हर्प बहुले धन्य हूं कृतपुण्य ए । त्रैलोक्यनायक देवदीठो मुझ समो कुण अन्य ए, हे जगत जननी पुत्र तुम्हचे मेरु मज्जन , वरकरी । उच्छंग तुम्हचै वलिय थापिस आतमा पुण्ये भरी ॥४॥
|| टाल || - सुरनायकजी जिन निज कर कमले ठव्या । पांच रूपे जी अतिसय महिमाये स्तन्या ॥ नाटक विधिजी तव बत्तीस आगल बहे । सुर कोडीजी जिन दरसणने ऊमहे ॥४२॥
॥त्रोटक ।। सुर कोडकोड़ी नाचती बलिनाय शुचि गुण गावती । अप्छरा कोड़ी हाथ जोड़ी हाव भाव दिखावती । जय जयोतूं जिनराज जग गुरु एम दे आशीषए । अम्हत्राण शरण आधार जीवन एक तं जगदीश ए॥४२॥
॥ ढाल || सुरगिरिवरजी पांडुक वनमें चिढू दिसे । गिरिसिल परजी सिंहासण * दोनों हाथ से चावल या फूल उछाले ।
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