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। १२ ] आर्द्रकुमार को उपदेश देने के लिये अभयकुमार ने कोई मूर्त्तिमान् पदार्थ भेजा। जिसे देखकर आद कुमारके मानस पट पर पूर्व जन्म के सारे ज्ञान चित्रित हो आये।
--आचाराङ्ग सूत्र [ जव आर्द्र कुमार के पूर्व जन्म का ज्ञान, जिस पर काल के अन्तराय से अज्ञान का परदा पड गया था, किसी मूर्तिमान् पदार्थ को देखने से उसके मानस विचार तरङ्गों पर लहराने लगा, जो कि आखिर मोक्ष का कारण बना तो हमें भी उम्मीद करनी चाहिये कि हमारी आत्मा का छिपा हुआ ज्ञान, जिस पर अनेक जन्मों का परदा पड़ गया है, भगवान् वीतराग की मूर्ति के वन्दन नमन और मूर्तिमान पदार्थके दर्शन से निरन्तर अनेक गुणों के संस्मरण से एक न एक दिन मेघ निर्मुक्त चन्द्रमा की तरह चमक उठेगा और हम संसार बन्धन से छूट सकेंगे, इसमें कोई भी आश्चर्य जनक बात नहीं है। ]
एक समय श्रेणिक राजा ने नरक के कष्टों से भयभीत होकर भगवान् महावीर से पूछा, महात्मन् ! ऐसा कोई उपाय बतलाइये कि मुझे नरक न जाना पड़े। भगवान् ने कहा, अगर तुम अपने नगर के कालू कसाई को एक दिन के लिये भी दैनिक पांच सौ भैंसों की हत्या से रोक सको तो तुम्हें नरक न जाना पड़े। श्रेणिक ने कालू कसाई को बुलाया और समझाया कि तुम एक दिन के लिये भी हिंसा छोड़ दो। पर वह दुष्ट क्यों मानने वाला था, उसने तो पांच सौ भैसों को नित्य प्रति मारने का संकल्प ले रखा था। आखिर राजा ने उसे दोनों पैर वांधकर कूऐं में लटका दिया, जिससे कि उसे हिंसा करने का मौका ही न मिले। राजा को अब पक्की धारणा थी कि उस कसाई ने आज हिंसा न की होगी। अतएव भगवान महावीर से राजा ने जाकर सुनाया कि भगवन् ! मुझे अब तो नरक जाना न पड़ेगा, क्योंकि कालू कसाई ने हिंसा नहीं की। भगवान् ने कहा, नहीं, उसने हिंसा की है। अगर विश्वास न हो तो दरयाफ्त कर लो। राजा के पता लगाने पर मालूम हुआ कि उसने तो पांच सौ भैसों की चित्र के द्वारा मूर्तियां बनाकर काटी हैं। राजा सन्न रह गये। आशा पूरी न हो सकी। क्योंकि उन काल्पनिक मूर्तियों से हिंसा पूरी हो गई थी।
[यहां पर प्रश्न उठता है कि जब चित्रित भैंसों के मारने से हिंसा हो गई, क्योंकि कसाई के मन का भाव वैसा ही था जैसा कि असली भैसों के मारने के वक्त रहा करता था, तब भगवान वीतराग की मूर्ति को भावावेश से साक्षात् भगवान् समझ कर अगर कोई पूजा या दर्शन करता है तो कटान पात क्यों ? यह निश्चित वात है कि यदि श्रद्धा और भक्ती से भगवान् को दर्शन व पूजा की जायगी तो अपना अभीष्ट सिद्ध होकर रहेगा। } ___ एकलव्य नामक भिल्ल द्रोणाचार्य से शस्त्र विद्या सीखने गया। पर द्रोणाचार्य ने भिल्ल को पढ़ाने से इनकार कर दिया। आखिर उस भिल्ल ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर बड़े प्रेम से उस मूत्ति में प्राण प्रतिष्ठा की। और अच्छी तरह इसी मूर्ति के द्वारा शस्त्र विद्या सीखी। -महाभारत
[ इस उदाहरण से मूर्ति पूजा की असलियत पर विश्वास करना चाहिये। ]
अमूत्ति पूजक जैन श्वेताम्बर साधु लोग नरक में होने वाली दुर्दशाओं को चित्र द्वारा दिपाकर लोगों को पापों से विरक्त करने की चेष्टा करते हैं। वस्तुतः उन चित्रों का प्रभाव भी पड़ता है, या कोई भी सहदय मान सकता है।
जब नारकीय चित्रों का प्रभाव मनुष्यों के हृदय पर पड़ता है, तब भगवान तीर्थकर देग की मूत्ति का प्रभाव क्यों नहीं पड़ सकता है, उनकी शान्त मुद्रा, योग पद्मासन आदि लक्षण और इन सद्गुण लोगों के हृदय पर क्यों प्रभाव नहीं ढाल सकने, यह बात समझ में नहीं आता । अगर एक पर हाथ रखकर सोचा जाय तो कोई भी हृदयवान मूर्ति पूजा की महत्ता को स्वीकार करेगा।