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जैन-रत्नसार
पोंचों पर — लोकान्तिक वचने करी, दीया वरसी दान ।
करकंडे प्रभु पूजना, पूजूं भवि बहुमान ॥३॥
कंधों पर — मान गया दोनुं अंश से, देखी वीर्य अनन्त । भुजाबले भवजल तरया, पूजूं खंध महन्त ॥४॥
मस्तक पर - सिद्ध शिला गुण ऊजली, लोकान्ते भगवन्त । वसिया तेणे कारण भवी, शिर शिखा पूजन्त ॥५॥
ललाट पर — तीर्थङ्कर पद पुण्य से, त्रिभुवन जन सेवन्त ।
त्रिभुवन तिलक समी प्रभु, भाल तिलक जयवन्त ॥६॥ कण्ठ पर -- सोल प्रहर प्रभु देशना, कण्ठे विवर वर तूल ।
मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तिण गले तिलक अमूल ॥७!! हृदय पर —— हृदय कमल उपशम बले, जलाया राग ने रोष ।
हीन दहे वन खंडने, हृदय तिलक सन्तोष ॥८॥ नाभि पर - रत्नमयी गुण ऊजली, सकल सुगुण विश्राम |
नाभि कमल नी पूजनां, करतां अविचल धाम ||९|| तदनन्तर पुष्प हाथ में लेकर ये श्लोक कहे
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पुष्प पूजा विकच निर्मल शुद्ध मनोरमैः, विशद चेतन भाव समुद्भवैः ।
सुपरिणाम प्रसून घनैर्नवैः, परम तत्व मयं हि यजाम्यहम् ॥३॥ सुरभि अखंडित कुसुम* मोगरा, आदि से प्रभु कीजिये ।
पूजा करी शुभ योग तिग, गति पञ्चमी फल लीजिये ॥ ॐ ह्रीं श्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमत् जिनेन्द्राय पुष्पं यजा महे स्वाहा ।
और “हे प्रभु मुझको पुष्प पूजा करने से ज्ञानाचार, दर्शनाचार,
* पुष्प कटे न हों, छिदे न हों, सूघे हुए न हों, सड़े हुए न हों, गले न हों, सूए सुइयों से पिरो कर गजरे व हार बनाये हुए न हों, हाथ से तोड़े हुए न हों, कमर और सूड़ी के नीचे लटकते हुए भी न हों, और शुद्ध सुगन्धित वाला ही पुष्प प्रतिमाजी पर चढ़ाना उचित है ।
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