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जैन-रत्रसार
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| रे ॥ त्रि० १२ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र ए, मोक्ष मारग सुविशाल रे । भव फल जे मुझ संपजे, तो फले मंगल माल रे ॥ त्रि. १३ ॥ श्री जिन शासन तप कह्यो, ते तप सुरतरु कंद रे। धन धन जे नर आदरे, कटे ते करमनो फंद रे ॥ त्रि. १४ ॥
कलश इम नाभि नंदन जगत वंदन, सकल जन आनंदनो । मैं थुण्यो धन दिन आज नो, मुझ मात मरुदेवी नंदनो ॥ संवत* सुनेत्राकास निधि, शशि नयर वालूचर । श्रीजिन सौभाग्य सुरिन्दके, सुपसाय विजय विमल वरे ॥१५॥
_अदाइस लब्धि तप स्तवन प्रणमं प्रथम जिनेसरूं, शुद्ध मने सुखकार । लबधि अठ्ठावीस जिन कही, आगम ने अधिकार ॥१॥ प्रश्न व्याकरणे प्रगट, भगवती सूत्र मझार। पण्णवणा आवश्यके, वारू लबधि विचार ॥२॥ आंबिल तप कर ऊपजे, लबध्यां अट्ठावीस । ए हिव परगट अरथ सू, सांभलज्यो सुजगीस ॥३॥
(सकल संसारनी) __ अनुक्रमे एह अधिकार गाथा तणे, लबधि ना नाम परिणाम सरिखा भणे । रोग सहु जाय जसु अंग फरस्यां सही, प्रथम ते लबधि छे नाम आमोसही ॥४॥ जासु मलमूत्र औषध समा जाणिये, वीर बप्पोसही लबधि बखाणिये । श्लेष्म औषध सारिखो जेहनो, तीजी खेल्लोसही नाम छे तेहनो ॥५॥ देहना मैल थी कोढ़ दुरे हुवे, चौथि जल्लोसही नाम तेहनो ठवे । केश नख रोम सहु अंग फरस्या सही, रहे नहीं रोग सव्वोसही ते कही ॥६॥ एक इन्द्रिय करी पांच इन्द्रिय तणा, भेद जाणे तिका नाम संभिण्णना । वस्तु रूप सहू जाणिये जिन करी, सातमी लब्धी ते अवधि ज्ञाने करी ॥७॥
* यह स्तवन १९२० में श्री जिन सौभाग्य सूरिजी महाराज के शासन कालमें श्री विजय विमलजी ने बनाया है।
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