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వంటి
అవనదురుచhealth anడుకుందునుండడం
स्तवन-विभाग
Inthamamlmmana iminimfairnesamanaratantantrastasawatibasistekarstrateeliokistakoiralashtakootaladastakalalithiasokhaskarestakoorhokatestobttatokhakaletastatistatkalatkarsentakathahistarrinkakhe
पाली कर्म टाली, स्वामि शिव रमणी वरी ॥ सेवक पभने वीर जिनवर, चरण वंदित तुम तना । संसार कूप पडत राखो, आपो स्वामी सुख घना ॥९॥
छम्मासी तप स्तुति वीर जिनेश्वर कियो, छम्मासी जान । कइ बार तपस्या कर, पाम्यो केवल ज्ञान ॥ प्रभु वर हैं दुःख हर, सुखकर जग कल्यान । श्री रत्नसूरिके शिष्य, सूरज करें गुणगान ॥१॥
बारहमासी तप का स्तवन त्रिभुवन नायक तूं धणी, आदि जिनेसर देव रे। चौसठ इन्द्र करे तुझ, पद पंकज सेव रे ॥ त्रि. १॥ प्रथम भूपाल प्रभू तूं थयो, इण अवसरपणि काल रे । तुझ सम अवर न को प्रभू, तूं प्रभु दीनदयाल रे ॥ त्रि. २ ॥ प्रथम तीर्थंकर तूं सही, केवल ज्ञान दिणंद रे। धर्म प्रभावक प्रथम तूं, तूही है प्रथम जिनंद रे ॥ त्रि० ३ ॥ अंतर अरि जे आतम तणा, काल अनादि थिति जेह रे । ते तप शक्तियें तें हण्या, आतम वीरज गुण गेह रे ॥ त्रि. ४ ॥ ताहरी शक्ति कुण कह सके, जेहनो अंत न पार रे । द्वादश मास ने तप करयो, तेह अचानक सार रे ॥ त्रि. ५ ॥ एह उत्कृष्ट वरणव्यो, आगममें जिनराज रे। तेकर वू अति आदरूं, तप बिन किम सरे काज रे ॥ त्रि० ६ ॥ तीन से साठ उपवास ते, ते इण पंचम काल रे । अवसर आदरे क्रम बिना, ते पिण भवि सुविशाल रे ॥ त्रि०७॥ ए तप गुरु मुख आदरे, शास्त्र तने अनुसार रे । पडिक्कमणादिक भाव थी, शुद्ध क्रिया मन धार रे ॥ त्रि० ८॥ चित्त समाधि शुभ भाव थी, धरे ताहरो ध्यान रे । ते नर उत्तम फल लहे, कवि लहे उत्तम ज्ञान रे ॥ त्रि. ९॥ काल अनादि संसार में, जन्म मरण तणा दुःख रे । ते लहे धर्म पाया विना, तप बिना किम हुए सुक्ख रे ॥ त्रि० १०॥ हिव लह्यो नर भव पुण्य थी, वलि लह्यो श्री जिन धरम रे । तत्त्वनी रुची थई हिव, मिट्यो मन तणों भरम रे ॥ त्रि० ११ ॥ भव भव एक जिनराजनो, सरण होज्यो सुखकार रे । कुगुरु कुदेव, कुधर्म ने, मैं कियो हवे परिहार
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