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जैन-रत्नसार देव नहीं ऐसा, का पे जाय पुकारूं जी ॥ हाथ० ३ ॥ सूरि कल्याण* की अरज यही है, भव विपत्ति निवारो जी ॥ हाथ० ४ ॥
श्री नमि जिन स्तवन
(धन धन सम्प्रति सांचो राजा) षट् दरसण जिन अंग भणी जे, न्यास षडंग जो साधे रे । नमि जिनवरना चरण उपासक, षट दरसण आराधे रे ॥ षट० १ ॥ जिन सुर पादप पाय वखाणूं, सांख्य जोग दोय भेदे रे । आतम सत्ता विवरण करता, लहो दुग अंग अखेदे रे ॥ षट० २ ॥ भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे । लोकालोक अलम्ब भजीये, गुरु गम थी अवधारी रे ॥ षट० ३ ॥ लोकायतिक कूख जिनवरनी, अंश विचारी जो कीजे रे। तत्व विचार सुधारस धारा, गुरु गम विण केम पीजे रे ॥ षट० ४ ॥ जैन जिनेश्वर वर उत्तम अंग, अंतरंग वहिरंगे रे । अक्षरन्यास धरा आधारक, आराधे धरि संगे रे ॥ षट० ५॥ जिनवर मां सघला दरशण छे, दर्शने जिनवर भजना रे । सागर मां सघली तटनी सही, तटनी मां सागर भजना रे ॥ षट० ६ ॥ जिन स्वरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे । भृङ्गी ईलीकाने चटकावे, ते भृङ्ग जग जोवे रे ॥ घट० ७ ॥ चूरण भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परंपर अनुभवें रे । समय पुरुषना अङ्ग कह्या ए, जे छेदे ते दुरभवे रे ॥ षट० ८॥ मुद्रा बीज धारण अक्षर, न्यास अरथ विन योगे रे । जे ध्यावे ते नवि वंची जे, क्रिया अवंचक भांगे रे ॥ षट. ९ ॥ श्रुत अनुसार विचारी बोलूं, सुगुरु तथा विधिना मिले रे । किरिया करि नवि साधि सकिये, ए विषवाद चित्त सघले रे ॥ षट० १० ॥ ते माटे ऊभा करजोड़ी, जिनवर आगल कहिये रे । समय चरण सेवा शुद्ध दे जो, जेम आनंद घन लहिये रे ॥ षट० ११ ॥
* यह स्तवन रंग विजय खरतर गच्छीय ज० यु० प्र० बृ० भट्टारक श्री पूज्य जो श्रीजिन कल्याण सूरिजी महाराज का बनाया हुआ है।
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