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स्तवन-विभाग
श्री नेमि जिन स्तवन ( राग मांड )
म्हारा नेमीश्वर भगवान थे तो प्यारा लागो जी शौरीपुर में जनमियां जी, समुद्र विजयका नन्द | मात शिवादे यांहरी जी, निरख्यां होय आनन्द || थे० १ ॥ श्याम वरण तन थांहरो जी, कुल पायो हरिवंश । लंछन शंखसे शोभता जी, श्रावण मास अवतंस || थे० २ ॥ राजुल व्याहण थे गया जी, जूना गढ़के मांय । पशुवन रोवन देखके जी, कांप्यो हियड़ो आय || थे० ३ || हुकुम दियो प्रभु नेम जी, रथ उलटो ल्यो फिराय । राजुल परणवा कारनें जी, लाखा जानां जाय ॥ थे० ४ ॥ पशुवन वाड़ा खुलवायके जी, करलियो योगी वेश । राजुल तज प्रभु जा बस्या जी, गिरनार गिरीके देश || थे० ५ ॥ घातिक कर्म खपायके जी, उपज्यो केवल ज्ञान । जैन धर्मको भाखके जी, कीनो जग कल्याण || ये ० ६ ॥ धन्य प्रभु है थाने जी, धन धन राजुल नार । मोक्ष पदको पा गये जी, नौवत करतार ॥ थे० ७ ॥
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श्री नेमि जिन स्तवन
सुअ देवी सानिध करी, गिरिवर श्री गिरनार । गुण गातां आतम सफल, सुख सम्पति विस्तार ॥ १ ॥ गिरिवर श्री पुण्डरीकनो, पञ्चम टंक उदार । ऊंचो धरणी थी अछे, गाऊ आठ विचार ||२|| नंदन
वन जिम
सुर गिरी, तिम नव वन भरपूर । सजल लीला है अलख देखत होय सनूर ॥३॥ गिरिवर श्री गिरनारनो, दीठे अतिशय नूर । दुःख दोहग दुरें गया, सुख सम्पति नित पूर ||४|| नेमीसर यादव नंदनो, राजमती भरतार | निज चरणन पावन कियो, विचरंता त्रिणवार ||५|| तीन कल्याणक इण गिरी, वा वीसमो भगवंत । दीक्षा केवल सिद्ध गई, गुण गिरवा गुणवंत ॥६॥ गत चौवीसी जिनवरूं, आठे चरम जिनंद | कल्याणक त्रिण त्रिण थया, भाखे ज्ञान दिणंद ||७|| संयम शिव केवल सिरी, शास्त्र तणो विरतन्त । करम खपाय अक्षय लही, एकाकी पिण अन्त ॥८॥ श्रेणिक जीव प्रमुख
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