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जैन-रत्नसार
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यश गायो है । आपने ही भाव आय, पूजे लक्ख लोक पाय, प्यासनको रनमांहि, पानी आन पायो है ॥ १॥ वाट घाट शत्रु थाट, हाट पुर पाटण में । देह गेह नेह से, कुशल वरतायो है । धर्म सिंह ध्यान घरे, सेवतां कुशल करे, साचो श्री जिन कुशल सूरि, नाम यूं कहायो है ॥२॥ ॥ श्लोक ॥
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दासानुदासा इव सर्वदेवाः, यदीय पादाब्ज तले लुठन्ति । मरुस्थली कल्पतरुः स जीयाद्, युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ॥ १ ॥ चिन्तामणिः कल्पतरु - र्वराको, कुर्वन्ति भव्याः किमुकाम गव्याः ॥ प्रसीदतः श्री जिनदत्तसूरे, सर्व पदं हस्ति पदे प्रविष्टम् ॥२॥ नो योगी न च योगिनी न च नराधीशस्य नो शाकिनी । नो वेताल पिशाच राक्षस गणा, ना रोग शोकौ भयम् ॥ ३ ॥ नो मारी न च विग्रह प्रभृतयः प्रीत्या प्रणत्युच्चकैः । योवः श्री जिनदत्तसूरि गुरवो नामाक्षरं ध्यायति ॥४॥
जिन कुशलसूरि स्तवन
विलसें ऋद्धि समृद्धि मिली, शुभयोगें पुण्य दशा सफली । जिन कुशल सूरिन्द गुरु अतुल बली, मन वंछित आपे दादो रंग रली ॥१॥ मंगल लील समे विपुला, नव नवय महोच्छव राज कला । सुपसायें गुरु चढ़ति कला, सुकुलीनी पुत्रवती महिला ||२|| सब ही दिन थायें सबला, सदवास कपूर तना कुरला । हय गय रथ पायक बहुला, कल्लोल करें मन्दिर कमला ||३|| बीजे चमर निशान घुरे, नरवे दरबार खड़ा पहरे । जय जय कर जोड़ी उचरे, सानिध्य गुरु सब काज सरे ||४|| सरसा भोजन पान सदा, दुख रोग दुकाल न होय कदा | अविचल उल्लट अंग मुदा, गुरु पूरण दृष्टि प्रसन्न सदा ||५|| घम घम मादल नाद घुमे, बत्तीसे नाटक रंग रमे । प्रगटो पुण्य प्रताप हमें, सबला अरियण ते आय नमें ॥६॥ तन सुख मन सुख चीर तने, पहिरे वेलाउल होय रणे । ध्यावो कुशल गुरु एक मने, जृम्भक सुर मन्दिर भरे घने ||७|| ततखिण धन खच्यो आवे, करि श्याम घटा मेह वर्षांवे । तिसिया तोय तुरत पावे, जलदाता त्रिजग सुजस