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जैन-रत्नसार
तरण जहाजा रे, जग जीवन छे सुख काजा ॥ स० ए० ७॥ जिनराज समो नहिं देवा रे, सुरपति सारे नित सेवा रे, एतो देवें फल नित मेवा ॥ स० ए० ८ ॥ पूरव पुण्य विना किमपावे रे, जिन सेव भली वडदावे रे, तो ज्ञानी अरथ बतावे || स० ए० ९ ॥ बहु अतिशय जेहना छाजे रे, गुण पैंतीस वाणी राजे रे, एतो जगतारक जिनराजें ॥ स० ए० १० ॥ चवदे राज में ए जिन चंदा रे, समरयां होत सदा आनन्दा रे, एतो जग जीवन सुख कंदा || स० ए० ११ ॥ वलि आये चौसठ इंदा रे, दिशि कुमरी हरष अमंदा रे, करे उच्छव श्री जिनचन्दा | स० ए० १२ ॥ जिन मेरु शिखर ले आवे रे, सौ धरम सदा शुभ भावे रे, करि वृषभ रूप न्हव रावे ॥ स० ए० १३ ॥ यथा योग सहु सुर भगती है, करे निज निज भावे जगती रे, एतो सफल करे निज शक्ति रे ॥ स० ए० १४ ॥ शशि सम शीतल गुण सोहे रे भवि देखीने मन मोहे रे, जसु रूप अधिक सहु होवे ॥ स० ए० १५ ॥ जिनराज समो नहीं कोई रे, देख्या देव अपर सब जोई रे, पण दोष सहित सब होई || स० ए० १६ ॥ प्रभु पाप करम सब धोई रे, जसु आतम निरमल होई रे, कहे सुमति सदा गुण जोई ॥ स० ए० १७॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्टद्रव्यं मुद्रां जाम स्वाहा ।
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सप्तम नैवेद्य पूजा ॥ दोहा ॥
मोदक मोती चूरना, सरस लेइ पकवान । पूजा करो जिन राजनी, पावो ज्यूं सन मान ॥१॥ वारिषेण जिन पूजिये, सातमी पूज प्रधान । भय सगला दूरे रहें, प्रगटे सुक्ख
निधान ||२||
॥ चाल ॥
बिगड़ी कौन सुधारे नाथ बिन बि० । वारिषेण जिन अन्तरजामी, पूज्यो सेवा पामी रे | परम पुरुष पमेसर साचो, जग जीवन विसरामी रे ॥ बि० ३ ॥ लोक अलोक को तूं है दरसी, तुम सम अवरन स्वामी रे । तूं प्रभु अश