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पूजा-विभाग
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रण शरण कहावे, तूं मुझ अन्तर जामी रे ॥ बि० ४ ॥ तुम गुण को कोइ पार न पावे, महिमा त्रिभुवन पामी रे। तेरी आन जगत सहु माने, करुणा रस नो धामी रे ॥ बि० ५॥ दीन दयाल दयानिधि कहिये, पुरुषोत्तम हित कामी रे। तेरी सेवा नित नित सारे तेतो नव निधि पामी रे ॥ बि० ६ ॥ जग जीवन आलोचन कहिये, परमारथ सब पामी रे । केवल ज्ञान प्रगट भयो जिनके, क्षायक भाव सुनामी रे ।। बि० ७ ।। वारिषेण जिन तीजो कहिये, उपकारी सुखधामी रे । सर्व देव में देव शिरोमणि, दो वंछित मुझ स्वामी रे ॥ बि० ८ ॥ सुमति कहे ए जिनकी सेवा, भव भवमें विसरामी रेबि०। ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा ।
अष्टम फल पूजा
॥ दोहा ॥ फ़ल पूजा जिनराजकी, करो भविक गुणवंत । अशुभ करम दुरे हरो, पावो सुक्ख अनन्त ॥१॥ वरधमान चौथो नमू, केवल ज्ञान दिनंद । उपकारी सिर सेहरो, इम भाखे मुनिचंद ॥२॥
॥चाल॥ (तुम बिन दीनानाथ दयानिधि को०) वरधमान जिन सेवो भविजन, ज्यं वंछित फल पावो रे। ऋषभानन चन्द्रानन स्वामी, वारिषेण मन लावो रे॥ वरधमान जिन पूजो भावे, वांछित फल तुम पावो रे ॥ वर० ३ ॥ चवद राजमें ए जिन छाजे, एहनी भगति करावो रे ॥ वर० ॥ शाश्वत नामे ए जिन छाजे, गुरु मुखथी सुध पावो रे ॥ वर० ४ ॥ भाव सहित ए जिनवर पूजे, दोष सकल मिट जावे ।
रे ॥ वर० ॥ तनमन सुचिसे जो जिन पूजे, लाभ अनन्त उपावे रे ॥वर०५॥ 1 पंचमेरु ऊपर जिन छाजे, कंचनगिरि वली पात्रे रे ॥ वर० ॥ पंच भरत 1. वलि पंच ऐ रवत, पंच विदेह कहावे रे ॥ वर० ६ ॥ मानुषोत्तर वलि राजे, 1 ते पिण मनमें लावे रे ॥ वर० ॥ गजदंता वलि परवत ऊपर, शाश्वत एहज
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