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जैन-रत्नसार
पावे रे ॥ वर० ७ ॥ जम्बू धातकी पुष्कर वृक्षे, ए जिनराज कहावे रे || वर० ॥ इण विधि शाश्वत चैत्य नमीने, जनम जनम सुख पावे रे ॥ वर० ८ ॥ धरम विशाल दयालके नन्दन, भाव सहित गुण गावे रे ॥ बर० ॥ सुमति सदा ए जिन की सेवा, जगमें सुजस उपावे रे || वर० ९ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दश रज्वात्मके शाश्वत अशाश्वत जिनेन्द्राय अष्टद्रव्यं मुद्रां यजामहे स्वाहा ।
नवम ध्वज पूजा ॥ दोहा ॥
नवमी ध्वज पूजा करो, भाव धरी मतिवंत । त्रिभुवनमें जय पामिये, प्रगटे सुक्ख अनन्त ॥१॥ इन्द्र ध्वजा प्रभु आगले, सिणगारी मन रंग । उच्छव कर लाओ सही, होय सदा उछरंग ॥२॥ सुन्दरि सब आयो सही, पहरी वस्त्र प्रधान । ध्वज पूजन उच्छव करो, ज्यूं पावो सनमान ॥३॥ कंचन वरण अति शोभता, पहरी नव सर हार । परम शुचि हुय तुम करो, पूजा श्री जिन सार ||४||
॥ चाल ॥
जिन गुण गावत सुर सुन्दरी, ध्वज पूजन भवि इण पर करके ॥ ध्व० ॥ सहस योजननो इन्द्र ध्वजा ए, भाव सहित जिन आगल घर रे ॥ ध्व०५ ॥ पंचवरणकी झलहल कंती, मंगल रूप अमंगल हर रे ॥ ध्व० ॥ नवरंगी अरु ध्वज बहु चंगी, फुरक रही असमान के घर रे ॥ ध्व० ६ ॥ कंचन थाल लेई ध्वज उत्तम, वर सुन्दर ले मस्तक घर रे ॥ ध्व० ॥ गाजे बाजे सब मिल गोरी, फिर लावत जिनवरके घर रे ॥ ध्व० ७ ॥ सज सोले सिणगार कामिनी, तीन प्रदक्षिण दे जिनवर रे ॥ ध्व० ॥ उज्जल कमल अखंडित चावल, लेई स्वस्तिक आगलि कर रे ॥ ध्व० ८ || जिन गुण गावत हरष वधावत, तन को मैल अलग तूं कर रे ॥ ध्व० || आज हमारे - हरष वधाई, आज है मंगल सब घर घर रे ॥ ध्व० ९ ॥ इन्द्र ध्वजा प्रभु आगलि शोभित, देखत भविजन के मन हर रे ॥ ध्व० || पाप नियाणा दूर