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सूत्र विभाग -
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जो तीर्थङ्कर गणधरों के प्रतिनिधि स्वरूप मौजूदा जमाने में सबसे बड़े श्रुत ज्ञाता मधुर भाषी गम्भीर विचार वाले बुद्धिमान् और उपदेश देने में समर्थ होते हैं वे ही आचार्य हैं ॥९॥
अपरिस्सावी सोमो, संगहशीलो अभिग्गह मईअ ।
अविकत्थणो अचवलो, पसंत हियओ गुरु होई ॥१०॥ किसी एकके दोष गुणको दूसरेसे न कहनेवाले, वुलंद (देदीप्यमान) चेहरेवाले शिष्यगणोंके लिये वस्त्र, पात्र एवं पुस्तकोंका संग्रह करनेवाले, किसी विषयको समझ लेनेमें समर्थ बुद्धिवाले अपनी प्रशंसा न करनेवाले या मितभाषी, ( कम बोलने वाले ) स्थिर और प्रसन्न हृदय वाले गुरु होते हैं॥१०॥
कइयावि जिण वरिंदा, पत्ता अयरामरं पहं दाउं ।
आयरिएहिं पवयणं, धारिज्जइ संपयं सयलं ॥११॥ किसी समय जिनेन्द्रदेव मोक्ष का मार्ग बताकर चले गये । पर बाद में आजतक उनके प्रवचन उपदेश को आचार्यों ने ही सुरक्षित रखा है।
अणुगम्मए भगवई, राय सुयज्जा सहस्स वंदेहिं ।
तहवि ण करेइ माणं, परियच्छइ तं तहा णूणं ॥१२॥ दधिवाहन राजा की कन्या साध्वी चन्दनवाला हजारों साध्वियों के साथ प्रवर्तिका हुई। फिर भी पूज्यपद का मान नहीं रखती थी। पूज्यपदको भी ज्ञान चारित्रादि गुणोंके माहात्म्यका ही फल समझती थी॥१२॥
दिण दिक्खियस्स दमगरस, अभिमुहा अजचंदणा अज्जा ॥ णेच्छइ आसण गहणं, सोविणओ सव्व अजाणं ॥१३॥
केवल एक दिन का दीक्षित साधु आर्या चन्दनवाला के सामने आया । पर जबतक वह खड़ा रहा, चन्दनवाला अपने आसन पर नहीं बैठी । यही विनय सभी साध्वियों का आदर्श है ॥१४॥
वर ससय दिक्खियाए, अजाए अज दिक्खिओ साहू॥ अभिगमण वंदण णमं, सणेण विणएण सो पुज्जो ॥१४॥
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