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जैन-रनसार . सरस भोजन, अशुभ परिणति धार रे । अमृत संयुत तेह भोजन, रुचिर परिणति कार रे ॥ शु० ९॥ ज्ञानसहिता तेम किरिया, करि करे निसतार रे। ज्ञानविणु किरिया न दीपे, मनोगत फलसार रे ॥ शु० १० ॥ ज्ञान परिणत रमी किरिया, तेह किरिया सार रे। भयो हरिवाहन जिनेसर, शुद्ध किरिया धार रे ।। शु० ११ ॥
॥ काव्य ॥ विशुद्धसद्धाण विभूसणस्स, सुलद्धि संपत्तिसुपोसणस्स । णमो सदागंत गुणप्पदस्स, णमो णमो सुक्किरियापदस्स ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं श्रीक्रियायै नमः ॥ १३ ॥
चतुर्दश तप पद पूजा।
॥ दोहा ॥ समतारस युत तपरुचिर, भणियो जिन जग भान । शिवसुर सुख चंदन फलद, नंदनविपिन समान ॥१॥ सघन करम कानन दहन, करन विमल तप जान । विपिन धूमकेतुन समो, जय तप सुगुणनिधान ॥२॥
॥ राग कल्याण ॥
(तेरी पूजा बनी है रसमें, ) मेरी लागी लगन तप चरणें। सकल कुशल में प्रथम कुशल ए, दुरित निकाचित हरणें ॥ मे० ३ ॥ जैसे गणधरकी जिनचरणे, चातककी जल धरणे ॥ मे० ॥ जैसी चक्रवाककी अरुणे, चकोरकी हिमकर किरणें ॥ मे० ४ ॥ जिनवर पण तदभव शिव जाणे, त्रण चउ नाण सुकरणे ॥ मे ॥ तदपि सुकोमल करण चरणने, ठवय कठिन तप करणें ॥ ५ ॥ कपट सहित तप चरणधरणते, वांछित फल नवि तरणें ॥ मे० ॥ नित
ए दंभ रहित तपपदके, सुरपति गण गुण वरणें ॥ मे० ६ ॥ पीठ महापीठ al मुनि मल्लीजिन, पूरव भव तप सरणें ॥ मे० ॥ रहिया तदपि कपट नवि छंड्या, भये स्त्री गोत्राचरणे ॥ मे० ७ ॥ दृढप्रहारी पांडव घनकरमी, छंड्या ।।
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