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जैन-रत्नसार - घोरंतपः । वीरे श्री धृति कीति कान्ति निचयः श्री वीर भद्रंदिश ॥१३॥
ॐ ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्री मन्महावीर जिनेन्द्राय ध्वजां' यजामहे स्वाहा ।
__ एकादश अर्घ पूजा
॥दोहा॥ आठों कर्म खपाय के, मोक्ष गए महाराज । पूजों अर्घ चढायके, दीवाली दिन आज ॥१॥
राग मांड ( जरा टुक जोवोतो सही) नाथ मोहि तारोतो सहि, मैं कहों दोहि करजोरी ॥ मैं अज्ञानी कछु ना समझू, साचो मूढ़ मई। इन कर्मनि में मेरो रहवो, आछो है नहीं ॥ नाथ० २॥ भूल परयो मैं पंथ तुम्हारो, भटक्यो चार गई। दीनबंधु अब राह बतावो, दीनानाथ दई ॥ नाथ० ३ ॥ पापी लंपट और धुतारे, मेरे साथ रही। मोरे मन को वे भरमावे, संपति लूट लई ॥ नाथ० ४ ॥ जो अब अरजी नहीं सुनोगे, तो मैं आज कही । दास चतुर अब इन दुष्टनसे, बचने को नहीं ॥ नाथ ५ ॥
॥जोगिया आशावरी ॥ नाथ तेरे चरण कमल पर वारी, तेरी यात्रा करे नर नारी ॥ खरतर गण नभ मंडल सूरज, आचारज पद धारी। जिन कृपा चंद्र सूरीश्वर राजे, महिमा अजब बनी ॥ नाथ ६ ॥ जय सुख राज विवेक मुनीवर, कीना वलि सुख कारी। संयम तप कृपा गुणवाले, दीपरही उजियारी ॥ नाथ० ७ ॥ पर गन गत जो मिथ्या वादी, कर्दम सम गुणधारी। सूख गए नय मारग खेती, वा अब पक गइ सारी ॥ नाथ० ८ ॥ चारबीस* शत वर्ष पचासे, गांव तलने मझारी । कात्तिक वदि चउदस शनिवारे, दीवाली दिन जुहारी ॥ नाथ० ९ ॥ दास चतुर
ध्वज पूजनमें ध्वजा पर गुरुओंसे वासक्षेप करावे ।
* यह पूजा श्री मुनि चतुर सागरजी महाराज की बनाई हुई है और वीर सम्वत् २४५० तथा विक्रमी सम्बत् १९७० के कार्तिक वदी १४ शनिवार को बनी है।
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