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शुभ ध्यान ॥१॥ वर केवल पामी अंतरजामी, वदि काती शुभ दीस । अमावस जातें पिछली रातें, मुगति गया जगदीस ॥ वलि गौतम गणधर मोटा मुनिवर, पाम्या पंचम ज्ञान । थया तत्व प्रकासी शील विलासी, पहुंता मुगति निदान ॥२॥ सुरपति संचरिया रतन उधरिया, रात थई तिहां काली । जन दीवा कीधा कारज सीधा, निसा थई उजवाली ॥ सहु लोके हरखी निजरें परखी, परब कियो दीवालि । वलि भोजन भगते निज निज सगते जीमें सेव सुहाली ॥३॥ सिद्धायिका देवी विघन हरेवी, वंछित दे निरधारी । करे संघ ने साता जिम जग माता, एहवी शक्ति अपारी ।। जिण गुण इम गावे शिव सुख पावे, सुणज्यो भविजन प्राणी। जिनचन्द यतीसर महा मुनीसर, जंपे एहवी वाणी ॥४॥
निर्वाण स्तुति पापायां पुरि चारु षष्ठ तपसा पर्यङ्क पर्यासनः । क्षमा पाल प्रभु हस्त । पाल विपुल श्री शुक्ल शालामनु ॥ गोसे कार्तिक दर्श नाग करणे तूर्यार
कान्ते शुभे । स्वातौयः शिवमाप पाप रहितं संस्तौमि वीर प्रभुम् ॥१॥ यद्गर्भा गमनोद्भव व्रत वर ज्ञानाक्षराप्ति क्षणे। संभूयाशु सुपर्व संतति रहो चक्रे महस्तत् क्षणात् ॥ श्री मन्नाभिभवादि वीर चरमास्ते श्री जिनाधीश्वराः । संघाया नघ चेतसे विदधतां श्रेयांस्यने नांसि च ॥२॥ अर्थात्पर्वमिदं जगाद जिनपः श्री वर्धमानाभिध, स्तत्पश्चाद् गणनायका विरचयां चक्रुस्तरां सूत्रतः ॥ श्रीमतीर्थ समस्त नैक समये सम्यग्दृशां भू स्पृशां । भूयाद्भावक कारक प्रवचनं चेतश्चमत्कारियत् ॥३॥ श्री तीर्थाधिप तीर्थ भावन परा सिद्धायिका देवता । चं च चक्रधरा सुरासुरनता पायादपायाद सौ ॥ | अर्हन् श्री जिनचन्द्र गीस्सुमति नो भव्यात्मनः प्राणिनो। या चक्रेऽवम कष्ट हस्ति निधने शार्दूल विक्रीडितम् ॥४॥
पर्युषण स्तुति ____ वलि वलि हूं ध्यावं गाऊं जिनवर वीर, जिन पर्व पजूसण दाख्या धरम नी सीर । आषाढ़ चौमासे हूंती दिन पंचास, पडिकमणुं संवच्छरी
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