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जैन-रनसार थी आनन्द । ध्यावो सेवो भविजनो रे, जिन प्रतिमा सुख कन्दोरे ॥वीर० ७ ॥ गणधर आचारज मुनि रे, सहुने इण परि सिद्ध । भव भव आगम संग थी रे, देवचन्द्र पद लीधो रे ॥ वीर० ८ ॥
चैत्री पूर्णिमा का स्तवन पय प्रणमी रे जिनवर ना सुयसाउले, पुंडर गिरि रे गाइस हूं शुभ भाउले । मति सुरगिर रे सहस जीभ जो मुख हुवे, किम ते नर रे विमलाचल ना गुण स्तवे । किम स्तवे गुणगण गिरिना जहां मुनि सीधा बहू, गिररायना गुण छे अनंता, कहे जिनवर मुख सहू । निज जनम सफलो करण कारण केतला गुण भाखिये, तिरयंच नारक गति तणी ना दुःख दूरे राखिये ॥१॥ जिनराजा रे पहिलो आदि जिनेसरूं, तसु नंदन रे चक्रवति । भरतेसरूं । तसु अंगजरे पुण्डरीक गुणगणनी कलो, शम दम रस रे विनय विवेक गुण भलो । गुण भलो अनुक्रम आदि जिनवर पास संयम शिव पुरी, पुण्डरीक गणधर प्रथम विहरे सुमति गुपते संचरी । पण कोडि साथे विमल गिरिवर मुक्ति पदवी पाव ए, सुदी चैत्री पूनम तेणे पुण्डरीक कहाव ए ॥२॥ हिव चैत्री रे पूनिम वर्ष सुहावणो, शत्रुजे रे आराध्या फल होवे घणो । मन शुद्ध रे आपण पे थानक रही, आराध्यां रे यात्रा पुण्य पामें सही । ते पुण्य पामें दान तप जप धर्म ध्यान मने धरे, बहु भाव
भक्तं त्रिविध पूजा आदि जिनेश्वरनी करे । भावना भावे तेन दिवसे पंच * कोडि गुणो फले, अनुक्रमे ते नर मुक्ति पामी सिद्ध सुन्दरने मिले ॥३॥
दश वीशा रे तीस चालीस पूजा कही, पञ्चायत श्रावकनी मति सरदही । चउथ छठे रे अट्ठम दसम दुवालसे, पूजा फल रे अनुक्रम ए मुझ मन वसे । मन वसे पूज कपूर धूवे मास खमण फले वली, सामन्न धूवे पक्खनो।
फल जे करे मननी रली । हिव पूजती विधि जेम गुरु मुख सुणी अछे से परंपरा, ने मोहमाया कपट छंडी सुणो भवियण सादरा ॥१॥ तंदुल राशी Fal- विमल गिरि थापी, तसु ऊपरि पट्टादिक आपी। प्रतिमा आदि जिणेसर। - केरी, पुण्डरीकने थापी निवेरी ॥५॥ सेज गिरिने मन चिंतीजे, करम
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न्यायालयाला मनाप्रमाणपत्र