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स्तवन-विभाग
तणा फल दुर करीजे । मोती तंदुल करीय वधावो, तीन प्रदक्षिण पूज रचावो ॥६॥ मंगलीक पहिला तिहां आठ, करम बन्ध दुरे करि आठ।। प्रतिमा मूल सनात्र करेवा, जिन वरना गुण हियड़े धरेवा ॥७॥ ऊभा थई नवकार गुणंता, दश दश जैती तिलक करंता । माला पुप्प पुंगी फल । ढोवो, मेरु भरण वर धूप उखेवो ॥८॥ शक्ररतव पांचे देव वांदे, जघन्यना वंदण पाप छेदे । दशे नमस्कार करत जेती, राखी करी दृष्टि जिनेन्द्र
सेती ॥९॥ आराधिवा कीजे काउसग्ग, जिणें किये भाजे कर्म वग्ग । 2 लोगरस उझोय दसे वरवाणूं, वेला प्रमाणिं अहिं एग आणूं ॥१०॥ इणे
प्रकारे धुर पूज एह, इसी परे बीजी च्यार तेह । दशा तणी वृद्धि तिहां। करीजे, एकैक पूठे अथवा गिणीजे । बहुत्तरे आरति मंगलेवो, पछे प्रभु आगलि ते करेवो ॥११॥
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कलश
इम करिये पूजा यथा योगु संघ पूजा आदरो, साधरमी वच्छल करो भविका भव समुद्रली लावरो। संपदा सोहग तेह मानव ऋद्धि वृद्धि बहु लहे, श्री अमर माणिक सीस सुपरे साधु कीरति इम कहे ॥१२॥
पखवासा तप चैत्यवन्दन श्री मुनि सुत्रत जिनराय, चौविह धर्म प्रकासें । पखवासा तप करण ३ को, बीच परपदा भासें ॥ पन्द्रह दिन तप की विधि, सुध मन होय
लहिये, प्रतिपद से आरम्भ कर, पूर्णिमा तक सर दहिये ॥१॥ हरिवंश : कुल में अवतरया, राजग्रही नगरि सुहायो । जेठ वदी अष्टमि दिने, प्रभु - जन्मोत्सव करायो । कच्छप चिन्ह से शोभते, काया धनुष वीस कहायो । 3 सुमित्र नृपति के पट्ट पर, मात पद्मावति जायो ॥२॥ फागुन वदी वारस 3 दिने, संयम व्रत वतलायो । अप्ट कर्म के नष्ट कर, केवल ज्ञान दिपायो ।
सहस तीस वर्ष आयु से, जिनवर सिद्ध पद पायो । श्री रत्नसूरि शिष्य मोतीचन्द बतायो ॥३॥
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