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जैन - रत्नसार
समकित सहायोए । धर्मवती को नृप वधु ए, जाण्यो है तत्त्व प्रस्ताव साची जिन वांचना ए॥१२॥ चौथ प्रमुख नृप चंपसूं ए, किरिया शुद्ध करी एह भले चित भावसूं ए । नवांग पूजा तिलक सूं ए, चाढ़े जिन चौवीस रयण कंचण चढ्या ए || १३|| तिलक तिलक से पामियो ए, समकित एह सतीस जनम सफलो गिणो ए । भगवन् तप विधि भाखिये ए, नल कहे बोध करीस, पीहर षटू काय ना ए || १४ || आदिनाथ अरिहंत ना ए षट् उपवास कहीस, त्री चौवीहारसूं ए । चौथ दोय जिन वीर ना ए, अजितादिक बावीस आणा गुरु शिर वही ए ॥ १५॥ थया ए, पूजन तिलक चढ़ाय तारक जगदीसने ए । ए, जन्म सफल नर राय, सूधे मन साधिये ए ॥१६॥ ग्रहे ए, पय प्रणमी गुरु वीर चित्त उमाहियो ए । ए याये चरम शरीर, मूल सुख शासतो ए ॥१७॥
पोषध त्रीस तीने उद्यापन संघ भक्तिसं
सुन वाणी समकित
इण पर जे भवि आदरें
कलश
श्री शांति दाता त्रिजग त्राता, भविक ध्याता सुखकरा । इम सतीय साध्यो तप आराध्यो, सुजस वाध्यो शिवधरा ॥ आगमे भाखे सुरीय साखे, सुगुरु भारखे सुण थया । शुद्ध ध्याने भविक भावें, विजय विमल जिनवर
का ॥ १८ ॥
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सोलिये तप का स्तवन
वीर जिनेसर भाखियो रे लाल, सहु व्रत में सिरताज भवि प्राणी रे । कषाय गंजन तप आदरो रे लाल, इणथी पातिक जाय ॥ भा० वी० १ ॥ कोड वरस तप आदरे रे लाल, क्रोध गमावे फल तास । मान करे जे प्राणियां रे लाल, ते जग में न सुहाय ॥ भ० वी २ ॥ व्रत में माया आदरी रेलाल, स्त्रीपणो पायो मल्लिनाथ । रूप पराव्रत कीया घणा रे लाल, आषाढ़ भूति गणिका साथ ॥ भ० वी० ३ ॥ चार कषाय छे मूलगारे लाल, जीव पामे बहु खेद उत्तम सोले भेद । इम भव भव भमतो थको रे लाल, ॥ भ० वी० ४ ॥ एकासण व्रत जे करे रे लाल, लाख चरस दुःख हाण |