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स्तवन-विभाग
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तिलक तपस्या का स्तवन शासन देवी शारदा वाणी सुधारस वेल । बालक हित भनि बकसिये, सुथुद्धि सुरङ्गी रेल ॥१॥ नवम अंग जिन पूजतां, मन लहि शुभ परिणाम । तप तिलके फल पामिये, दवदंती गुण ठाम ॥२॥
(वीर जिणेसर उपदिसे) . कमला जिम कुंडल पुरे, भुजबल नरपति भीमो रे । पदम नी पदम । सुवास ना, श्वेत गज स्वप्ने नीमो रे ॥ प० १॥ परतच्छ फल ए पुण्य ना,
प्रसवी सुता पूरे मासे रे। दवदंती नाम दीपतो, गुणमणि बुद्धि प्रकासे रे॥ प० २ ॥ चौसठ कला विचक्षणा, रूप गुणे करि रंभा रे। देवगुरु धर्म दीपावती, व्रतधारी दृढ़ बंभा रे ॥ प० ३ ॥ प्रतिमा पूजे शांति नी, देवे दीधी त्रिकालो रे । मात पिता प्रमोद सं, स्वयंवर वर मालो रे ॥१०॥ उवझायाधिप श्री निषध नो, नल लिखियो निलाडे रे । आनन्द सूं पथ आवतां, पूरव पुण्य उघाडे रे ।। प० ५ ॥ मझम रयणी तम भरी, मधुर वकंत इहां वन में रे । मणि भाले तेज दिन मणी, जाग्रत देखी अहो मन में रे ॥ प० ६ ॥ ज्ञानधरी गुरु कोइ मिले, पूछिये एह प्रसन्नो रे । कर्म वले मुनि आविया, परीसह जीत मदन्नो रे ॥ प० ७॥ पंच जीत पंच पालतां, टालता दुस्सह सबला रे । संजम शुद्ध संभालतां, उद्यम शिवसुख कमला रे ॥ प० ८ ॥
॥दोहा॥ ____ मणि तेजें मुनि तरु ठवे, स्य थकी स्त्री भरतार । देवे तीन प्रदक्षिणा, विधिसूं चरण जुहार ॥९॥ देशना सुण पावन थया, ज्ञान सुधारस पाय ! को तप परभव तिलक है, कहिये श्री मुनिराय ||१०||
(भरत भाव सं ए) मधुर स्वर मुनिवर कहे ए, ज्ञानी गुरु सुपसाय ए, दीपक सहु लोक ना ए। कर्म शुभाशुभ परभवे ए. इह भव फल निपजाय, करम गति वंकडी ए ॥१२॥ ओहि नाण भव प्रागनो ए. नृप मुने निरमल भाव
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