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श्री शत्रुञ्जय तीर्थराज चैत्यवन्दन ॐ अहं पद पुण्यतम, त्रिभुवन पावन धाम । पुण्डरीक गिरिराज है, प्रतिदिन करूं प्रणाम ॥ १ ॥ अगमगुणी तीर्थेश की, महिमा अपरम्पार । सुरगुरु अथवा शारदा, कहत न पावें पार ॥ २ ॥ लघुमति गति अति भक्ति से, हूँ प्रेरित मैं आज । सुध बुध अपनी भूलकर, गाऊ तीरथ
राज ॥ ३ ॥ तारक गुण धारक यहां, हैं सव तीरथ रूप। द्रव्य भाव के । भेद से, एक अनेक सरूप ॥ ४ ॥ जम्बू दक्षिण भरत में, सोरठ देश
विशेष । तीर्थराज राजे वहां, त्रिकरण नम हमेश ॥ ५ ॥ सिद्धाचल संसार में, तीर्थ शिरोमणि सार । दर्शन वन्दन स्पर्शतें, भविजन तारण हार ॥६॥ शत्रुजय श्री पुण्डरीक, विमलाचल अभिराम । सुरगिरि महागिरि आदि गुण, मय ध्याऊं शुभ नाम ॥ ७ ॥ निजघर बैठे भावसे, जो तीरथ शुभ नाम । जाप करें उनके यहां, नाशे पाप तमाम ॥ ८॥ केवलज्ञानी आदि दे, तीर्थंकर अरिहंत । सिद्ध हुए होंगे तथा, काल अनन्तानन्त ॥ ९॥ ऋषभदेव स्वामी यहां, पूर्व नवाणं वार । रायण रूंख समोसरे, जिनवर जगदाधार ॥ १० ॥ पुण्डरीक गणधर गुणी, पंच कोटि मुनि संग। चैत्री पूनम में यहां, भोगें सौख्य अभंग ॥ ११ ॥ नमि विनमि विद्याधरा, दो . कोटि मुनिसाथ । फागण सुदि दशमी हुए, शिव रमणीके नाथ ॥ १२ ॥
चैत्र वदी चउदश दिने, शत्रुजय आधार । नमि पुत्री चउसठ लहें, शिव मन्दिर अधिकार ॥ १३ ॥ द्राविड़ वारिखिल्ल मुनि, दश कोटि अनगार । कार्तिक पूनम में यहां, पाये पद अविकार ।। १४ ॥ पांडव पांच तथा यहां, नव नारद ऋषिराज । प्रद्युम्नादिक यादवा, पाये अविचल राज ॥ १५ ॥ नेमि बिना तेवीस जिन. पावन गुण भण्डार । समवसरे गिरिराज पे, करतेपरउपकार ॥ १६ ॥ अजित शान्ति जिननाय दो, रहें यहां चउमास । आतमगुण उज्वल किये, सहज समाधि विलास ॥ १७ ॥ थावच्चा मुत सेलगादिक, मुनि केइ कोड़। कठिन कर्म जंजीर को, यहां झपट दें
तोड़ ॥ १८ ॥ भरतेश्वर के पाटपे. असंख्यात भूपाल । सिद्धाचल पे सहज : में, छोड़ें भव जंजाल ॥ १९ ॥ जालि मयालि प्रमुख मुनि, आतम गुण
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