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________________ २२२ जन-रत्नसार विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ३८ ॥ यहां जो भक्त आते हैं, सही भगवान् होते हैं | अनिर्वचनीय महिमामय, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० ३९ ॥ सुगुरु हरिपूज्य पद पावन, कवीन्द्रों से सुकीर्तित हैं । सदा वन्दे सदा वन्दे, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम ० ४० ॥ *** A tarkestaar A स्तवन के बाद "जय वीयराय” "अरिहंत चेइयाणं” “अणत्य” ४० अथवा १ लोगस्स का कायोत्सर्ग करे । काउसग्ग पार कर " नमोऽर्हत्" कहकर स्तुति कहे श्री शत्रुञ्जय स्तुति श्री शत्रुञ्जय गिरि तीरथसार गिरवर माहें जेम मेरु उदार, ठाकुर राम अपार मन्त्रमांहि नवकारज जाणुं । तारामा हे जेमचन्द्र वखाणुं जलधर मांहे जल जाणुं पंखी मांहे जेम उत्तमहंस, कुल मांहे जिम ऋषभनोवंश नाभितणो जे अंश क्षमावंत मांहे जेम अरिहंता । तपसूरा मुनिवर महंता, शत्रुञ्जय गिरि गुणवंता ॥ १ ॥ श्री सिद्धगिरि जयति ||१|| श्री शत्रुञ्जयाय नमः ||२|| श्री पुण्डरीकाय नमः ||३|| श्री सिद्धक्षेत्राय नमः || || श्री विमलाचलाय नमः ||५|| श्री सुरगिरये नमः ||६|| श्री महागिरये नमः ||७|| श्री पुण्यराशये नमः ||८|| श्री पर्वताय नमः || ९ || श्री पर्वतेन्द्राय नमः ॥ १० ॥ श्री महातीर्थाय नमः || ११|| श्री शाश्वताय नमः ||१२|| श्री दृढ़क्तये नमः || १३ || श्री मुक्तिनिलयाय नमः || १४ || श्री पुष्पदन्ताय नमः ||१५|| श्री महापद्माय नमः || १६ || श्री पृथ्वीपीठाय नमः ॥१७॥ श्री सुभद्रगिरये नमः || १८ || श्री कैलाशगिरये नमः ||१९|| श्री पातालमूलाय नमः ||२०|| श्री अकर्मकाय नमः ||२१|| श्री सर्वकाम पूरणाय नमः । ये सिद्ध गिरिकी खमासमणपूर्वक जयति देव
SR No.010020
Book TitleJain Ratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamalla Yati
PublisherMotilalji Shishya of Jinratnasuriji
Publication Year1941
Total Pages765
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size32 MB
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