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जैन-रत्नसार दीपक पूजा
॥ दोहा ॥ आत्मानंदित बुद्धता; निज भावे लयलीन । सर्व वस्तु परकासता, शिवमारगनो दीन ॥१॥
(वीर जिन प्यारे मैं ) मेरे मन केवल ज्ञान लुभायो, दरश सुहायो ॥ मे० ॥ नयगम भंग निक्षेपें प्रभुजी, चउविह धर्म बतायो ॥ मे० २ ॥ उत्कट निज गुणनो छे भोगी, योगी योग रमायो ॥ मे० ३ ॥ परमातम खपर उपयोगी, रसिक तदात्म समायो । मे० ४॥ स्व पर शक्ति सहज प्रवती शुभध्याने लय लायो ॥ मे० ५॥ अयोगी पिण पुद्गल त्यागी, जिनचन्द्र दरश में पायो । मे० ६॥
॥ श्लोक ॥ भावान्य ध्वंसक तिमिर तरणि बद्भव्य जीवान्प्रकाशं दीपं सम्यक्तव रूपं सकल तमगणं, कंक मिथ्यात्वनाशं । राग द्वेषाज्यवर्ति प्रवल जिन तपो वह्नि प्रज्वालनं च, सज्ज्ञानं सुप्रकाशं, सकल जिनगृहे दीप मुद्दीपयामि ॥७॥ ॐ ह्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय लोकालोक प्रकाशकाय चतुर्विंशति तीर्थकृतां केवल कल्याणकेभ्यो दीपं यजामहे स्वाहा ।
अक्षत पूजा
॥ दोहा ॥ जीवादिक निज परणतें, वसे सर्व परिणाम | पिण प्रभुता पामें नहीं, विण केवल निजधाम ॥१॥
॥ असरण सरण चरण कमल श्री जिनराजके ॥ च्यारि कर्म धातिमर्म शिव सदन मिलान के । च्य० ॥ केवल परम ज्ञान भान ज्योतिरूप मान के ॥ च्या० ॥ आतम वरस नो सागर जिन
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