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जैन-रनसार चतुर्दश राजलोक पूजा
जल पूजा
॥ दोहा ॥ पय प्रणमी जिन राजना, भाव धरी उछरंग । लोक चवदनी वरणना, भाखू हूं मन रंग ॥१॥ स्वर्ग मृत्यु पाताल में, शास्वत जिनवर जेह । त्रिकरण शुद्ध करी हिये, बंदू हूँ ससनेह ॥२॥ सात राज नीचे कह्यो, अधोलोकनो भाव । सात राज ऊरध कह्यो, तेहनूं कहूं प्रस्ताव ॥३॥ अठारे सहस जोयण कह्यो, तिरछो लोक उदार । द्वीप समुद्र असंख्य है, तेहनो सुनो अधिकार ॥४॥ अवर द्वीप कूटादिके, ते कहिये विरतार । सुनता लाभ हुये घणो, सफल हुये अवतार ॥५॥ द्वीप अढ़ी में चिहुँ दिशे, बंद नित जिनराज । ऋषभानन चन्द्रानना, वारिषेण महाराज ॥६॥ वर्धमान चौथो सही, शास्वत श्री जिनराज । भाव धरी पूजो सदा, पावो सुक्ख समाज ॥७॥ शुद्धोदक लेई करी, पूजो दीन दयाल । अशुभ करम दूरे हुये, फले मनोरथ माल ॥८॥
(आज आयो रे उछाह जिवडा नाच जिनन्द आगे) भवि भाव धरी जिनवर पूजन करिये रे ॥ भ० ॥पहली रतन प्रभा इम जान इकलख अस्सीयोजन मान ॥ भ०९ ॥ धुर दस योजन रेणू जान, फिर
अस्सी में व्यन्तर मान || भ० ॥ अणपन्नी पणपन्नी देव, आठ निकाय । है, कही नित मेव ॥ भ० १० ॥ दस जोयण वलि रेणू जान, ए सत योजन * लेखो आन ॥ भ० ॥ अठ शत जोयण मध्ये जान, देव पिशाच कह्या ।
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