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जैन-रेनसार
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घटे कोय । शान्त सुधारस जीलतरे, निरखत तृपति न होय ॥ वि० ६ ॥ एक अरज सेवक तणी रे, अवधारो जिन देव । कृपा करी मुझ दीजिये रे, आनंद घन पद सेव ॥ विमल० ७ ॥
अनंत जिन स्तवन धार तखारनी सोहली दोहली, चउदमा जिन तणी चरण सेवा । धार पर नाचता देख वाजीगरा, सेवना धार पर रहें न देवा ॥ धार० १॥ एक कहे सेविये विविध किरिया करी, फल अनेकान्त लोचन न देखे । फल अनेकान्त किरिया करी बापड़ा, रड़बड़े चार गति माहे लेखे ॥ धार० २॥ गच्छना भेद बहु नयण नीहालतां, तत्वनी बात करतां न लाजे । उदर भरणादि निज काज करतां थकां, मोहनडिया कलीकाल राजे ॥ ३॥ वचन निरपेक्ष व्यवहार झूठो कह्यो, वचन सापेक्ष व्यवहार सांचो । वचन निरपेक्ष व्यवहार संसार फल, सांभली आदरी कांई राचो ॥ धार० ४ ॥ देव गुरु धर्मनी शुद्धि कहो केम रहे, केम रहे शुद्ध श्रद्धान आणो।
शुद्ध श्रद्धान विण सर्व किरिया करी, छारपर लीपणो तेह जाणो ॥ धार | ५ ॥ पाप नहिं कोइ उत्सूत्र भाषण जिसो, धर्म नहिं कोई जगसूत्र स रिखो । सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेहनो शुद्ध चारित्र परिखो ॥ धार० ६ ॥ एह उपदेश नं सार संक्षेप थी, जेनर चित्तमें नित्य ध्यावे । ते नर दिव्य बहुकाल सुख अनुभवी, नियत आनंद घनराज पावे ॥धार० ७॥
धर्म जिन स्तवन धरम जिनेसर गाऊं सं, भंगम पड़सो हो प्रीत जिनेसर । वीजो मन मंदिर आणू नहीं, ए अम कुलवट रीत जिनेसर ॥ धर्म० १॥ धरम धरम | करतो जग सहुफिरे, धर्म न जाणे हो मर्म जिनेसर । धरम जिनेसर चरण ग्रह्यां पछी, कोई न बांधे हो कर्म जिनेसर ॥ धर्म० २ ॥ प्रवचन अंजन जो सद गुरु करे, देखे परम निधान जिनेसर । हृदय नयण निहाले जगधणी, महिमा मेरु समान जिनेसर ॥ धर० ३ ॥ दौड़त दौड़त दौड़त दौडिओ, जेनी मननी रे दौड़ । जिन प्रेम प्रतीत विचारो टूकड़ी, गुरुगम