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विधि-विभाग
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ॐ णमो आयरियाणं अङ्ग रक्षातिशायिनी। ॐ णमो उवज्झायाणं आयुधं हस्तयोदृढम् ॥३॥ ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं मुच्छके पादयो शुभे । एसो पञ्चणमोकारो शिलावतमयीतले ॥४॥ सव्वपावप्पणासणो वप्रो वजमयो वहिः । मंगलाणं च सव्वेसिं खादिरंगार खातिका ॥५|| स्वाहान्तं च पदंज्ञेयं पढमं हवइ मंगलं । वोपरि वज़मयं पिधानं देह रक्षणे ॥६॥ महाप्रभावा रक्षेयं क्षुद्रोपद्रव नाशिनी । परमेष्ठी पदोद्भता कथितापूर्व सूरिभिः ॥७॥ यश्चैवं कुरुते रक्षा परमेष्ठी पदैस्सदा ।
तस्य न स्याद्भयं व्याधि राधिश्वापि कदाचनः ॥८॥ यह स्तोत्र तीनबार पढ़कर आत्मरक्षा करावे ।
आत्मरक्षा करनेवाले स्नात्रियों को गुरु महराज की तरफ ध्यान रखना चाहिये कि वह स्तोत्र पढ़ते हुए किस किस अङ्ग पर हस्तस्पर्श (हाथ फेरते) करते हैं उसी तरह स्नात्रियों को भी अपने शरीर पर हाथ फेरना चाहिये।
सिरपर मुंह पर सब शरीर पर हाथों की मुट्ठी दृढ़ बांधनी चाहिये मूंछ पर हाथ फेरते हुए पैरों तक हाथ फेरना चाहिये शिखा (चोटी) पर हाथ रखकर जमीन को हाथसे बजाना चाहिये जबतक स्तोत्र पूरा न हो भगवान् की तरफ हाथ जोड़े रहना चाहिये ।
इसके बाद तीन णमोकार मंत्रके द्वारा स्नात्रियों की शिखा (चोटी) में गांठ दे यदि चोटी न भी होय तो बालों में मौली बांध कर शिखा
का स्थापना करके तीन गांठ दे देवे । इसके बाद ॐ ह्रीं श्रीं असिआउसाय ३ नमो नमः । इस मंत्रको तीनवार स्नात्रियों के कान में सुनावे । इसके बाद मन्दिरजी में जितने भी अधिष्ठायक देव हों दादाजी., भैरूजी, यक्षजी, ई. देवीजी आदि का अप्टद्रव्य से पूजन करे, करावे । क्षेत्रपालजी तथा भैरूंजी।
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